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सूत्र ४-५०
प्रअजिस होने वाले के उपकरणों का प्ररूपण
दीक्षा
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पठ्वयमाणस्स उवगरणपरूवणा
प्रवजित होने वाले के उपकरणों का प्ररूपण - ४८. निग्गयस्स तप्पटमयाए संपवयमाणस्स कप्पद रयहरण- ४८. गृहदास त्वागकर सर्वप्रथम प्रवजित होने वाले निम्रन्थ को
गोश्छग-पजिग्गह-मायाए तिहि कसिगेहिं वत्येहि आयाए रजौहरण, गोच्छक, पात्र तथा तीन अखण्ड बस्त्र अपने साय संपबहत्तए।
लेकर प्रबजित होना कल्पता है । से य पुग्योवहिए सिया, एवं से नो कप्पद रयहरण-गोच्छग- यदि वह पहले दीक्षित हो चुका हो तो उसे रजोहरण, पडिग्गहमायाए तिहिं कसिहि वस्थेहि आपाए संपब्बइत्तए। गोच्छक, पात्र तथा तीन अखण्ड वस्त्र लेकर प्रमजित होना नहीं
कल्पता है। कम्पा से अहापरिग्गहियाई वत्थाई महाय-आयाए संपव- किन्तु पूर्व गृहीत वस्त्रों को लेकर आत्मभाव से प्रजित
होना कल्पता है। निग्गंधीए पंतप्पडमयाए संपवयमाणीए कप्पद रयहरण- गृहवास त्यागकर सर्वप्रथम प्रवजित होने वाली निर्ग्रन्थी गोन्छग-पडिग्गहमायाए चाहिं कसिहि आयाए संपथ्य- को रजोहरण गोच्छक पात्र तथा चार अखण्ड वस्त्र अपने साथ इत्तए।
लेकर प्रबजित होना कल्पता है। सा य पुव्योवद्विया सिया एवं से मो कयह रयहरण-गोच्छग यदि वह पहले दीक्षित हो चुकी हो तो उसे रजोहरण, पजिग्गहमायाए चहि कसिणेहि यत्यहि आयाए संपव- गोच्छक, पात्र तथा चार अखण्ड वस्त्र लेकर प्रवृजित होना नहीं इसए।
कल्पता है ! कप्पड़ से अहापरिग्गहियाई वत्थाई गहाय-आयाए संपव्व- किन्तु पुर्व गृहीत वस्त्रों को लेकर आत्मभाव से प्रवजित इत्तए।
-कप्प. उ. ३, सु. १४-१५ होना कल्पता है। पव्यज्जा अजोग्गा
प्रव्रज्या के अयोग्य४६. तओ णो कप्पति परवावेतए तं महा
४६. तीन को प्रन्नजित करना नहीं कल्पता है, यथा(8) पंजए, (२) बातिए, (३) की । (१) नपुंसक, (२) वातिक, (३) और क्लीब। तओ को कप्पंति मुंगवित्तए, सिक्शावित्तए, उबटावितए, तीन को मुण्डित करना, शिक्षा देना महायतों में आरोपित संभुजित्तए संवासिसए, तं जहा
करना, उनके साथ आहार आदि का सम्बन्ध रखना और उनके
साथ रहना या उसे साथ रखना नहीं कल्पता है । यथापंडए, वातिए, कोये। -ठाणं. अ. ३, उ. ४. सु. २०४ नपुंसक, वातिक और क्लीब। असमत्थपवावण-पायच्छित्तसुतं
असमर्थ को प्रवजित करने का प्रायश्चित्त सूत्र५०. जे मिक्खू णायगं बा, अणायगं वा, उवासगं वा, अणुवासगं ५०. जो भिक्षु अयोग्य स्वजन को, परिजन को, उपासक को, था, अणसं पवावेद पवावेतं वा साइज्जइ।
और अनुपासक को प्रवजित करता है, करवाता है, करने वाले
का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाज चाउम्मासिय परिहारद्वाणं अणुग्घाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि. स. ११, सु. ४ आता है।
१ कप्प. उ. ४, सु. ४-६ | २ प्रथम सामान्य नपुंसक है, द्वितीय-तृतीय विशेष प्रकार के नपुंसक हैं।