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सवाचरण : एक मौद्धिक विमर्श ७१ है और न अपबाद के आचरण का कारण माना जाता है, उसी आचरण किया जाना चाहिए। उत्सर्ग और अपवाद दोनों की प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अति अपवाद मार्ग पर चलने पर आचरणीयता परिस्थिति सापेक्ष है निरपेक्ष नहीं । मह उस परिभी आधरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। यदि ऐसा न स्थिति पर निर्भर होता है कि व्यक्ति उसमें उत्सर्ग का अवलम्बन माना जाता तब तो एकमात्र उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना अति- से या अपवाद का । कोई भी आचार, परिस्थिति निरपेक्ष नहीं वार्य हो जावा, फलस्वरूप अपवाद मार्ग का अवलम्बन करने के हो सकता अतः आचार के नियमों के परिपालन में परिस्थिति के लिए कोई भी किसी भी परिस्थिति में तैयार ही न होता। विचार को सम्मिलित किया गया है फलतः अपवाद मार्ग की परिणाम यह होता कि साधना मार्ग में केवल जिनकल्प को ही आवश्यकता स्वीकार की गई। मानकर चलना पड़ता । किन्तु जब से साधकों के संघ एवं गच्छ जैन संघ में अपवाद मार्ग का कैसे विकास हुआ इस सम्बन्ध बनने लगे, तब से केवल औत्सर्गिक मार्ग अर्थात् जिनकल्प संभर में पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि आचारांग में नहीं रहा । अतएव स्थविरकल्प में यह अनिवार्य हो गया कि निर्ग्रन्थ और निर्यन्थी संघ के कर्तव्य और अकर्तव्य के मौलिक जितना 'प्रतिषेध" का पालन आवश्यक है, उतना ही आवश्यक उपदेशों का संकलन है किन्तु देश काल अथवा क्षमता आदि के 'अनुसा" का माचरण भी है। बल्कि परिस्थितिविशेष में परिवर्तित होने से उत्सर्ग मार्ग पर चलना कठिन हो जाता है। "अनुज्ञा" के अनुसार आचरण नहीं करने पर प्रायश्चित्त का भी अस्तु ऐसी स्थिति में आचारसंग की ही निशीथ नामक खुला में विधान करना पड़ा है। जिस प्रकार प्रतिषेध का भंग करने पर उन आचार नियमों के विषय में जो वितथकारी है उनका प्रायप्रायश्चित्त है उसी प्रकार अपवाद का आचरण नहीं करने पर श्चित्त बताया गया है। अपवादों का मूल सूत्रों में कोई विशेष भी प्रायश्चित्त है। अर्थात् 'प्रतिषेध" और "अनुजा" उत्सर्ग निर्देश नहीं है। किन्तु नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि में स्थानऔर अपवाद दोनों ही सम बल माने गये हैं। दोनों में ही विशुद्धि स्थान पर विस्तृत वर्णन है। जब एक बार यह स्वीकार कर है। किन्तु यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्सर्ग राजमार्ग है. लिया जाता है कि आचार के नियमों की व्यवस्था के सन्दर्भ में जिसका अवलम्बन साधक के लिए सहज है, किन्तु अपवाद, विचारणा को अवकाका है तब परिस्थिति को देखकर मूलसूत्रों के यद्यपि आचरण में सरल है, तथापि सहज नहीं है।" विधानों में अपवादों की सुष्टि करना गीतार्थ आचार्यों के लिए
वस्तुतः जीवन में नियमों जपनियमों की जो सर्व सामान्य सहज हो जाता है। उत्सर्ग भीर अपवाद के बलाबल के सम्बन्ध विधि होती है वह उत्सर्ग और जो विशेष विधि है वह अपवाद में विचार करते हुए पं० जी पुन. लिखते हैं कि 'संयमी पुरुष के विधि है । उत्सर्ग सामान्य अवस्था में आचरणीय होता है और लिए जितने भी निषिद्ध कार्य न करने योग्य कहे गये हैं, वे सभी अपवाद विशेष संकटकालीन अवस्था में । यद्यपि दोनों का उद्देश्य "प्रतिषेध" के अन्तर्गत आते हैं और जब परिस्थितिविशेष में एक ही होता है कि साधक का संयम सुरक्षित रहे । समर्थ साधक उम्ही निषिद्ध कार्यों को करने की "बनुशा" दी जाती है, तब वे के द्वारा संयम रक्षा के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है वह ही निषिद्ध कर्म "विधि" बन जाते हैं। परिस्थिति विशेष में उत्सर्ग है और असमर्थ साधक के द्वारा संयम की रक्षा के लिए अकर्तव्य भी कर्तव्य बन जाता है, किन्तु प्रतिबंध को विधि में ही उत्सर्ग से विपरीत जो अनुष्ठान किया जाता है वह अपवाद परिणत कर देने वाली परिस्थिति का औचित्य और परीक्षण है । अनेक परिस्थितियों में यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि करना, साधारण साधक के लिये सम्भव नहीं है। अतएव ये व्यक्ति उत्सर्ग मार्ग के प्रतिपालन के द्वारा संयम, ज्ञानादि गुणों "अपवाद" "अनुजा" या "विधि" सब किसी को नहीं बताये सुरक्षा नहीं कर पाता तब उसे अपवाद मार्ग का हो सहारा जाते । यही कारण है कि "अपवाद" का दूसरा नाम "रहस्य" लेना होता है। यद्यपि उत्सर्ग और अपवाद परस्पर विरोधी (नि . गा Y६५) पड़ा है। इससे यह भी फलित हो जाता प्रतीत होते हैं किन्तु लक्ष्य की दृष्टि से विचार करने में उनमें है कि जिस प्रकार "प्रतिषेध" का पालन करने से आचरण वस्तुतः विरोध नहीं होता है। दोनों ही साधना की सिद्धि के विशुद्ध माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् लिए होते हैं। उसकी सामान्यता एवं सार्वभौमिकता पण्डित अपवाद मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना होती है । उत्सर्गमार्ग को सार्वभौम कहने का तात्पर्य भी यह जाना चाहिए । (देखें निशीथ एक अध्ययन पृ० ५४) प्रशमरति नहीं है कि अपवाद का कोई स्थान नहीं है। उसे सार्वभौम कहने में उमास्वाति' स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परिस्थितिविशेष में का तात्पर्य इतना ही है कि सामान्य परिस्थितियों में उसका ही जो भोजन, पाण्या, वस्त्र, पात्र एवं औषधि आदि ग्राह्य होती है
१ पं. बससुख मालवणिया, मिशीय : एक अध्ययन, पृ. ५४ । २ प्रशमरति-उमारवाति, क्लोक १४५ ।