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सवाधरण: एक शैद्धिक विमर्श६१
तप के बाभ्यन्तर भेदों में ध्यान और कायोत्सर्ग का भी देता है। साधनात्मक मूल्य है । पुनः स्वाध्याय, यावृत्य (सेवा) एवं वीर्याचार'-पांच आचारों के इस विवेचन में अन्तिम विनय (अनुशासन) का तो सामाजिक एवं वैयक्तिक दोनों दृष्टियों आचार वीर्याचार है। जैन परम्परा में वीर्याचार का अर्थ से बड़ा महत्व है। सेवाभाव और अनुशासित जीवन ये दोनों पुरुषार्थ या प्रयत्न करना है। अभिधान राजेन्द्र कोश में योग, सभ्य समाज के आवश्यक गुण हैं। ईसाई धर्म में तो इस सेवा- वीर्य क्षमता, उत्साह पराक्रम और चेष्टा को एकार्थक माना भाव को काफी अधिक महत्व दिया गया है । आज उसके व्यापक गया है। यदि हम चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार में कोई प्रचार का एक मात्र कारण उसकी सेवाभावना ही तो है। विभाजन रेखा खींचना चाहे तो वह इस प्रकार होगी। जहाँ मनुष्य के लिए सेवाभाव एक आवश्यक तस्व है जो अपने प्रार- बारित्राचार संयम अर्थात् मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण का म्भिक क्षेत्र में परिवार से प्रारम्भ होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्" सूचक है वहीं तपाचार कष्ट, तितिक्षा या सहनशीलता का तक का विशाल आदर्श प्रस्तुत करता है।
परिचायक है। जबकि वीर्याचार साधना के क्षेत्र में स्वशक्ति का स्वाध्याय का महत्व आध्यात्मिक विकास और ज्ञानात्मक प्रकटन करता है । पारिव संवर करता है, तप सहन करता है विकास दोनों दृष्टियों से है। एक ओर वह स्व का अध्ययन है किन्तु वीर्य प्रयत्ल मा पुरुषार्थ करता है। चारित्र और तप निषेधतो दूसरी ओर ज्ञान का अनुशीलन । ज्ञान और विज्ञान की परक हैं जबकि वीर्य विधिपरक है। यद्यपि तप किया जाता है सारी प्रगति के मूल में तो स्वाध्याय ही है।
फिर भी उसे करने में सहना' ही प्रधान होता है। प्रस्तुत कृति प्रायश्चित्त एक प्रकार से अपराधी द्वारा स्वयाचित दण्ड में बीर्याचार के अन्तर्गत किन-किन तथ्यों का संकलन किया गया हैं । यदि व्यक्ति में प्रायश्चित्त की भावना जागृत हो जाती है है यह तत्सम्बन्धी मुद्रित पृष्ठों की अनुपलब्धि के कारण नहीं तो उसका जीवन ही बदल जाता है । जिस समाज में ऐसे लोग कह पा रहा हूँ। किन्तु आचारांग आदि प्राचीन आगम ग्रन्यों हों, वह समाज तो बादर्श ही होगा।
के देखने से यह स्पष्ट होता है कि उनमें साधक को बार-बार वास्तव में तो तप के इन विभिन्न अंगों के इतने अधिक यह निर्देश दिया गया है कि वह पराक्रम या पुरुषार्थ करे और पहल है कि जिनका समुचित मूल्यांकन सहज नहीं।
साधना के क्षेत्र में शिथिल न हो । यहाँ यह विचार स्वाभाविक तप आचरण में व्यक्त होता है। वह आचरण ही है। उसे ही है कि यह पुरुषार्थ किस रूप में किया जाये। वीर्य शब्द, शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं है । तप आत्मा की ऊष्मा है, पुरुषार्थ, प्रयत्न, पराकम या परिश्रम का सूचक है। जैन परजिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता।
म्परा में भिक्षु को श्रमण कहा गया है, जो श्रम करता है वह यह किसी एक आचार-दर्शन की बपौती नहीं, वह तो श्रमण है किन्तु यहाँ श्रम का तात्पर्य शारीरिक श्रम नहीं है, प्रत्येक जागृत आत्मा की अनुभूति है। उसकी अनुभूति से ही यहाँ श्रम से तात्पर्य है अपनी वृत्तियों या वासनाओं के परिमन के कलुष धुलने लगते हैं, वासनाएं शिथिल हो जाती हैं, शोधन हेतु सतत प्रयल करना। आचारांग में साधना को युद्ध अहं गलने लगता है। तृष्णा और कषायों की अग्नि तप की का रूपक दिया गया है और साधक को वीर कहा गया है। ऊष्मा के प्रकट होते ही निःशेष हो जाती है। जड़ता क्षीण हो वस्तुतः अपनी वामनाओं और वृत्तियों पर विजय प्राप्त करता जाती है । चेतना और आनन्द का एक नया आयाम खुल जाता ही बीरख का लक्षण है और इस वीरत्व का प्रदर्शन ही वीर्याहै, एक नवीन अनुभूति होती है। बाद और भाषा मौन हो चार है । जैनाममों में कहा गया है कि सहनों योदाओं पर जाती है. आचरण की वाणी मुखरित होने लगती है। विजय प्राप्त करने की अपेक्षा अपनी आत्मा पर विजय पाना ही
तप का पही जीवन्त और जागृत शाश्वत स्वरूप है जो श्रेष्ठ है। जैनागमों में अनेक स्थलों पर साधक को यह निर्देश सार्वजनीन और सार्वकालिक है। सभी साधना पद्धतियाँ इसे दिया गया है कि वह अपनी शक्ति को छिपाये नहीं अपितु उसे मानकर चलती हैं और देश काल के अनुसार इसके किसी एक प्रकट करे। किन्तु यहाँ शक्ति के प्रकटीकरण का तात्पर्य क्या द्वार से साधकों को तप के इस भव्य महल में लाने का प्रयास है, यह विचारणीय है। सांसारिक सुखभोग और उनकी उपलब्धि करती हैं, जहाँ साधक अपने परमात्म स्वरूप का दर्शन करता के प्रयासों में तो अपनो शक्ति का प्रकटन जैन साधु के लिए है, आत्मन् ब्रह्म या ईश्वर का साक्षात्कार करता है। निषिद्ध ही माना गया है अतः उसका शक्ति प्रकटन केवल साधना
तप एक ऐसा प्रशस्त योग है जो आत्मा को परमात्मा से के क्षेत्र में ही विहित माना जा सकता है। अतः आत्मविशुद्धि के जोड़ देता है, आत्मा का परिष्कार कर उसे परमात्म-स्वरूप बना लिए प्रयत्न करना वीर्याचार है। अपनी वासनाओं को नियन्वित
१ बौर्याचार की विस्तृत विवेचना हेतु देखें-अभिधान राजेन्द्र कोश, माग ६, पृ. १३६७-१४०६ ।