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सदाचरण एक बौद्धिक विमर्श [ ६७
व्यक्तियों एवं पदाधिकारियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था किये हैंकरती है वहीं हिन्दू परम्परा आचार्यो, ब्राह्मणों आदि के लिए (१) प्रतिकारात्मक सिद्धांत, (२) निरोधात्मक सिद्धांत, मृदु दण्ड व्यवस्था करती है । उसमें एक सामान्य अपराध करने (३) सुधारात्मक सिद्धांत। प्रथम प्रतिकारात्मक सिद्धांत यह पर भी एक शूट को कठोर दण्ड दिया जाता है वहाँ एक ब्राह्मण मानकर चलता है कि दण्ड के द्वारा अपराध की प्रतिशर्स की को अत्यन्त मृदु दण्ड दिया जाता है। दोनों परम्पराओं का यह जाती है अर्थात् अपराधी ने दूसरे की जो क्षति की है उसकी इस्टिभेद विशेष रूप से द्रष्टव्य है। बहत्वपभाष्य की टीका में परिपूर्ति करना या उसका बदला सेना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि जो पद जितना उत्तर- है। 'आँख के बदले आँख" और "दांत के बदले दांत" ही इस दायित्व पूर्ण होता है उस पद के धारक व्यक्ति को उतना ही दण्ड सिद्धांत की मूलभूत अवधारणा है। इस प्रकार की दण कठोर दण्ड दिया जाता था । उदाहरण के रूप में भिक्षुणियों का व्यवस्था से न तो समाज के अन्य लोग थापराधिक प्रवृत्तियों से नदी-तालाब के किनारे ठहरना, बहा स्वाध्याय आदि करना भयभीत होते हैं और न उस व्यक्ति का जिसने अपराध किया है, निषिद्ध है । उस नियम का उल्लंघन करने पर जहाँ स्थविर को कोई सुधार ही होता है। मात्र षट्लघु, भिक्षुणी को षट् गुरु प्रायश्चित्त दिया जाता, बही अपराध का दूसरा निरोधात्मक सिद्धांत मूलतः यह मानकर गणिनी को छेद और प्रतिनी को मूल प्रायश्चित्त देने का विधान चलता है कि अपराधी को दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि है। सामान्य साधू की अपेक्षा आचार्य के द्वारा बहो अपराध उसने अपराध किया है अपितु इसलिए दिया जाता है कि दूसरे 'कया जाता है तो प्रातःकार या जाता है। लोग अपराध करने का साहस न करें। समाज में आपराधिक बार-बार अपराध या दोष सेवन करने पर अधिक वह प्रवृत्ति को रोकना ही दण्ड का उद्देश्य है, इसमें छोटे अपराध के
जैन परम्परा में प्रथम बार अपराध करने की अपेक्षा दूसरी लिए भी कठोर दण्ड की व्यवस्था होती है। किन्तु इस सिद्धांत बार मा तीसरी बार उसी अपराध को करने पर कठोर प्रायश्चित्त में अपराध करने वाले व्यक्ति को समाज के दूसरे व्यक्तियों को की व्यवस्था की गई है। यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी एक नियम आपराधिक प्रवृत्ति से भयभीत करने के लिए साधन बनाया का बार-बार अतिकमण करता है तो उस नियम के अतिक्रमण जाता है। अत: दण्ड का यह सिद्धील न्यायसंगत नहीं कहा जा की संख्या में जैसे-जैसे वृद्धि हो जाती है प्रायश्चित्त की कठोरता सकता। इसमें दण्ड का प्रयोग साध्य के रूप में नहीं अपितु भी बढ़ती जाती है। जिससे उसी अपराध का प्रायश्चित्त मास- साधन के रूप में किया जाता है। लघु से बढ़ता हुआ छेद एवं नई दीक्षा तक बढ़ जाता है।
दण्ड का तीसरा सिद्धांत सुधारात्मक सिद्धांत है, इस सिद्धांत प्रायश्चित्त येते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार के अनुसार अपराधी भी एक प्रकार का रोगी है अतः उसकी
जैन दण्ड' या प्रायश्चित्त व्यवस्था में इस बात पर भी पर्याप्त चिकित्सा अर्थात् उसे सुधारने का प्रयल करना चाहिए। इस रूप से विचार किया गया है कि कठोर अपराध को करने वाला सिद्धांत के अनुसार दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति का सुधार होना व्यक्ति भी यदि रुग्ण हो, अतिवृद्ध हो, विदिशप्त चित्त हो, उन्माद चाहिए । वस्तुतः कारागृहों को सुधारगृहों के रूप में परिवर्तित या उपसर्ग से पीड़ित हो, उसे भोजन-पानी आदि सुविधापूर्वक ने किया जाना चाहिए ताकि अपराधी के हृदय को परिवर्तित कर मिलता हो अथवा मुनि जीवन के बावश्यक सामग्री से रहित हो उसे सभ्य नागरिक बनाया जा सके। तो ऐसे भिक्षुओं को तत्काल संघ से बहिष्कृत करना अथवा यदि हम इन सिद्धांतों की तुलना जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था बहिष्कृत करके शुद्धि के लिए कठोर तप आदि की व्यवस्था देना से करते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जैन पिनारक अपनी समुचित नहीं है।
प्रायश्चित्त या दण्ड व्यवस्था में न तो प्रतिकारात्मक सिद्धांत को आधुनिक दण्ड सिद्धांत और जैन प्रायश्चित्त पवस्था
और न निरोधात्मक सिद्धांत अपनाते है अपितु सुधारात्मक ___ जैसा कि हमने प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया है कि दण्ड और सिद्धांत से सहमत होकर यह मानते हैं कि व्यक्ति में स्वतः ही प्रायश्चित्त को अवधारणाओं में एक मौलिक अन्तर है। जहाँ अपराधबोध की भावना उत्पन्न कर सकें एवं आपराधिक प्रवृत्तियों प्रायश्चित्त अन्तःप्रेरणा से स्वतः लिया जाता है, वहां दण्ड से दूर रहने को अनुशासित किया जाये। वे यह भी स्वीकार व्यक्ति को बलात् दिया जाता है । अत: आत्मणुद्धि तो प्रायश्चित्त करते हैं कि जब तक व्यक्ति में स्वतः ही अपराध के प्रति आस्मसे ही सम्भव है, दण्ड से नहीं । दण्ड में तो प्रतिशोध, प्रतिकार ग्लानि उत्पश्न नहीं होगी तब तक बह आपराधिक प्रवृत्तियों से या आपराधिक प्रवृत्ति के निरोध का दृष्टिकोण ही प्रमुख विमुख नहीं होगा। यद्यपि इस आरमग्लानि या अपराधबोध का होता है।
तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति जीवन भर इसी भावना से पीड़ित पाश्चात्य विचारकों ने दण्ड के तीन सिद्धांत प्रतिपादित रहे अपितु वह अपराध या दोष को दोष के रूप में देखे और यह
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