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सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श ६५ जाने का विधान है।
स्थानांग सूत्र में ही अन्यत्र अन्योन्य मैथुनसेची भिक्षुओं को मूल प्रायश्चित्त-मूल प्रायश्चित्त का अर्थ होता था, पूर्व पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया गया है यहाँ यह विचारको दीक्षा पर्याय को समाप्त फर नवीन दीक्षा प्रदान करना । जीय है कि जहाँ हिंसा करने वाले को, स्त्री से मैथुन सेवन करने इसके परिणामस्वरूप ऐसा भिक्षु उस भिक्षुसंघ में जिस दिन उसे वाले को मूल प्रायश्चित्त के योग्य बताया, वहाँ हिंसा की योजना यह प्रायश्चित्त दिया जाता था वह सबसे कनिष्ठ बन जाता था। बनाने वाले एवं परस्पर मैथुन सेवन करने वालों को पासंचिक मूल प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्तों से इस प्रायश्चित्त के योग्य बताया। इसका कारण यह है कि जहाँ अर्थ में भिन्न था कि इसमें अपराधी भिक्षु को गृहस्थवेष धारण हिसा एवं मथुन सेवन करने वाले का अपराध व्यक्त होता है करना अनिवार्य न था। सामान्यतया पंचेन्द्रिय प्राणियों को और उसका परिशोधन सम्भव होता है किन्तु इन दूभरे प्रकार हिंसा एवं मैथुन सम्बन्धी अपराधों को भूल प्रायश्चित के योग्य के व्यक्तियों का अपराध बहुत समय तक बना रह सकता है माना जाता है । इसी प्रकार जो भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान और संघ के समस्त परिवेश को दुषित बना देता है। वस्तुतः और परिग्रह सम्बन्धी दोषों का पुनः-पुनः सेवन करता है वह जब अपराधी के सुधार की सभी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती भी मूल प्रायश्चित्त का पात्र माना गया है। जीतकल्प भाष्य के हैं तो उसे पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है। जीतअनुसार निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की कल्प के अनुसार तीर्थकर के प्रवचन अर्थात् श्रुत, आचार्य और विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, परन्तु गणधर की आशातना करने वाले को भी पाराचिक प्रायश्चित्त व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की विराधना होने पर का दोषी माना गया है। दूसरे शब्दों में जो जिन-प्रवचन का मूल प्रायश्चित्त विया भी जा सकता है और नहीं भी दिया जा अवर्णवाद करता हो वह संघ में रहने के योग्य नहीं माना जाता । सकता है परन्तु चारित्र की निराधना होने पर तो मूल प्रायश्चिस जीतराल्पभाष्य के अनुसार कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, राजा के दिया ही जाता है । जो ता के गर्व से उन्मत्त हो अथवा जिस वध की इच्छा करने वाला, राजा की अग्रमहिषी से संभोग करने पर सामान्य प्रायश्चित्त या दण्ड का कोई प्रभाव ही न पड़ता बाला भी पाराचिक प्रायश्चित्त का अपराधी माना गया है। हो, उनके लिए मूल प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। वैसे परवर्ती भाचार्यों के अनुसार पाराधिक अपराध का दोषी
पासंचिक प्रायश्चित्त- वे अपराध जो अत्यन्त गहित है भी विशिष्ट तप-साधना के पश्चात् संघ में प्रवेश का अधिकारी और जिनके सेवन से न केवल व्यक्ति अपितु सम्पूर्ण जैन संघ की मान लिया गया है । पारांचिक प्रायश्चित्त का कम से कम समय व्यवस्था धूमिल होती है, वे पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य होते छह मास, मध्यम समय १२ मास और अधिकतम समय १२ हैं । पाचक प्रायस्तित्त का अर्थ भी भिन संघ से बहिष्कार वर्ष माना गया है । कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर को ही है। से जैनाचार्यों ने यह माना है कि पारानिक अपराध बागमों को संस्कृत भाषा में रूपान्तरित करने के प्रयत्न पर १२ करने वाला भिक्षु यदि निर्धारित समय तक निर्धारित तप का वर्ष का पारांचिक प्रायश्चित्त दिया गया था। विभिन्न पारांचिक अनुष्ठान पूर्ण कर लेता है तो उसे एक बार गृहस्थवेष धारण प्रायश्चित्त के अपराधों और उनके प्रायश्चित्तों का विवरण हमें करवाकर पुनः संघ में प्रविष्ट किया जा सकता है। बौद्ध जीतकल्प भाष्य की गाथा २५४० से २५८६ तक मिलता है। परम्परा में भी पारांचिक अपगधों का उल्लेख करते हुए कहा विशिष्ट विवरण के इच्छुक विद्वजनों को वहां उसे देख लेना गया है कि ऐसा अपराध करने वाला भिक्षु सदैव के लिए संघ से चाहिए। बहिष्कृत कर दिया जाता है। जीतकल्प के अनुसार अनवस्थाप्य अनवस्थाप्य-मनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद और पारांचिक प्रायश्चित्त भद्रबाहु के बाल से बन्द कर दिया से च्युत कर देना है या अलग कर देना है। इस शब्द का दुसरा गया है। इसका प्रमुख कारण शारीरिक क्षमता की कमी हो अर्थ है - जो संघ में स्थापना अर्थात् रखने योग्य नहीं है। वस्तुतः जाना है। स्थानीय सूत्र में निम्न पांच अपराधों को पासंचिक जो अपराधी ऐसे अपराध करता है जिसके कारण उसे संघ से प्रायश्चित्त के योग्य माना गया है।
बहिष्कृत कर देना आवश्यक होता है वह अवस्थाप्य प्रायश्चित्त (११ जो कुल में परस्पर कलह करता हो।
के योग्य माना जाता है । पद्यपि परिहार में भी भिक्षु को संघ (२) जो गण में परस्पर कलह करता हो ।
से पृथक किया जाता है किन्तु वह एक सीमित रूप में होता है (३) जो हिंसा प्रेमी हो अर्थात् कुल या गण के साधुओं का और उसका वेष परिवर्तन आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि बात करना चाहता हो।
अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य भिक्षु को संघ से निश्चित अवधि (४) जो छिद्रप्रेमी हो अर्थात जो छिद्रान्वेषण करता हो। के लिए बहिष्कृत कर दिया जाता है और उसे तब तक पुनः (१) जो प्रश्न शास्त्र का बार-बार प्रयोग करता हो। पिक्ष संघ में प्रवेश नहीं दिया जाता है जब तक कि वह प्राय