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१४ | धरणानुयोग : प्रस्तावना
को शास्त्र पढ़ाना, योग्य' को शास्त्र न पढ़ना, मिथ्यास्व भावित पिचत्त दिये जाने पर भिक्षुणी संघ में वरीयता बदल जाती थी अभ्यतीर्थिक प्रथदा गृहस्थ को शास्त्र पढ़ाना अथवा उससे पढ़ना वहाँ परिहार प्रायश्चित्त से उसकी वरीयता पर कोई प्रभाव नहीं शादि कियायें लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित की कारण है। पड़ता था। मूलाचार में परिहार को जो छेद और मूल के बाद
गुरुचातुर्मासिक के योग्य अपराध-प्रथम सनी लियर स्मन शिणा गया है, वह चित प्रतीत नहीं होता क्योंकि कठोया अनाचारों का सेवन करना, राजपिंड ग्रहण करना, आधाकर्मी रता की हष्टि से छेद और मूल की अपेक्षा परिहार प्रायश्चित्त आहार ग्रहण करना, रात्रि भोजन करना, रात्रि में आहारादि कम कठोर या । वसुनन्दी की मूलाचार की टीका में परिहार रखना, धर्म की निन्दा और अधर्म की प्रशंसा करना, अनन्तकाय को गण से पृथक् रहकर तप-अनुष्ठान करना ऐसी जो व्याख्या युक्त आहार खाना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ का की गई है वह समुचित एवं श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप ही निमित्त बताना, किसी श्रमण-अमपी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी है। फिर भी मापनीय और श्वेताम्बर परम्परा में मुलभूत अंतर को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना आदि त्रियाएं पुरुचातुर्मा- हतना तो अवश्य है कि श्वेताम्बर परम्परा परिहार को तप से सिक प्रायश्चित्त के योग्य है।
पृथक् प्रायश्चित के रूप में स्वीकार नहीं करती है। यहाँ यह तप और परिहार का सम्बन्ध-जैसा कि हमने पूर्व में भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर परम्परा यापनीय ग्रन्थ सूचित किया है, तत्वार्थ और यापनीय परम्परा के ग्रन्थ मूला- षट्खण्डागम को धवला टीका परिहार को पृथक् प्रायश्चित्त नहीं चार में परिहार को स्वतन्त्र प्रायश्चित्त माना गया है। जबकि मानती है । उसमें श्वेताम्बर परम्परा सम्मत दम प्रायश्वित्तों का श्वेताम्बर मरम्परा के आगमिक अन्यों में और धवला में इसे उल्लेख हुआ है जिसमें परिहार का उल्लेख नहीं है। स्वतन्त्र प्रायश्चित्त न मानकर इसका सम्बन्ध तप के साथ जोड़ा छेद प्रायश्चित जो अपराधी शारीरिक दृष्टि से कठोर गया है। परिहार शब्द का अर्थ बहिष्कृत करना अथवा त्याग तप-साधना करने में असमर्थ हो अथवा समर्थ होते हुए भी तप करना होता है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा के गर्व के उन्मत है और तप प्रायश्चित्त से उसके व्यवहार में प्रतीत होता है कि गहित अपराधों को करने पर भिक्षु या सुधार सम्भव नहीं होता है और तप प्रायश्वित्त करके पुनः पुनः भिक्षुणी को न केवल तप रूप प्रायश्चित्त दिया जाता था अपितु अपराध करता है, उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान किया उसे यह कहा जाता था कि दे भिक्षु संघ या भिक्षुणी संघ से गया है । छेद प्रायश्चित्त का तात्पर्य है भिक्ष या भिक्षुणी के पृषक होकर निर्धारित तप पूर्ण करें। निर्धारित तप को पूर्ण कर दीक्षा पर्याय को कम कर देना, जिसका परिणाम यह होता है लेने पर उसे पुनः संघ में सम्मिलित कर लिया जाता था। इस कि अपराधी का श्रमण संघ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान प्रकार परिहार का तात्पर्य था कि प्रायश्चित्त रूप तप की है, वह अपेक्षाकृत निम्न हो जाता है. अर्थात् जो दीक्षा पर्याय में निर्धारित अवधि के लिए संघ से भिक्षु का पृथक्करण। परिहार उससे लघु हैं वे उससे ऊपर हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उसकी तप की अवधि में वह भिक्षु भिक्षुसंघ के साथ रहते हुए भी वरिष्ठता मीनियरिटी) कम ो जाती हैं। और उसे इस आधार अपना आहार-पानी अलग करता था । इससे यह भी स्पष्ट होता पर जो भिक्ष उपसे कमी कनिष्ठ रहे हैं उनको उसे बन्दन आदि है कि परिहार प्रायश्चित्त में तथा अनवस्थाप्य और पासंचिक करना होता है। किस अपराध में कितने दिन का छेद प्रायश्चित प्रायश्चित्त में मूलभूत अन्तर था। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में आता है इसका स्पष्ट उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला । जहाँ उसे गृहस्थ वेष धारण करवाकर के ही उपस्थापन किया संभवतः यह परिहारपूर्वक तप प्रायश्चित्त का एक विकल्प है। जाता था, वहाँ परिहार में ऐसा कोई विधान न था। यह केवल अर्थात् जिस अपराध के लिए जितने मास मो दिन के लिए स्प प्रायश्चित्त की तपावधि के लिए मर्यादित पृथक्करण था। निर्धारित हो, उस अपराध के करने पर कभी उतने दिन का सम्भवत: प्राचीनकाल में तप नामक प्रायश्चित्त दो प्रकार से दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त दिया जाता है। जैसे जो अपराध दिया जाता रहा होगा । परिहारपूर्वक और परिहाररहित । इसी मासिक प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं, उनके करने पर कभी आधार पर आगे चलकर जब अनवस्थाप्य और पासंचिक प्राच- उसे छह मास का छेद प्रायश्वित्त भी दिया जाता है। दूसरे श्चित्तों का प्रचलन समाप्त कर दिया गया तब प्रायश्चित्तों की शब्दों में उसकी वरीयता छह मास कम कर दी जाती है। इस संख्या को पूर्ण करने के लिए पापनीय परम्परा में तप और अधिकतप तपावधि ऋषभदेव के समय में एक वर्ष, अन्य बाईस परिहार की गणना अलग-अलग की जाने लगी होगी। परिहार तीर्थंकरों के समय में आठ मास और महावीर के समय में छह नामक प्रायश्चित्त की भी अधिकतम अवधि छः मास मानी गई मास मानी गई है अतः अधिकतम एक साथ छह मास का ही है क्योंकि तप प्रायश्चित्त को अधिकतम अवधि छः मास ही है। छेद प्रायश्चित दिया जा सकता है। सामान्यतया पावस्थ, परिहार का छेद प्रायश्चित्त से अन्तर यह है कि जहाँ छेद प्राय- अबसन्न, कुशील और संसक्त भिक्षुओं को छेद प्रायश्चित्त दिये