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६२/वरणानुयोग प्रस्तावना प्रतिक्रमण किसका
के लिए हैं जिन्होंने संलेखना प्रत ग्रहण किया हो। ___ स्थानांग सूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है- थमण प्रतिक्रमण सूत्र और श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र में सम्ब. (१) उच्चार प्रतिक्रमण-मल आदि का विसर्जन करने के बाद धित सम्भावित दोषों की विवेचना विस्तार से की गई है। ईर्या (आने-जाने में हुई जीवहिसा) का प्रतिक्रमण करना उच्चार इसके पीछे मूल दृष्टि यह है कि उनका पाठ करते हुए आचरित प्रतिक्रमण है। (२) प्रस्रवण प्रतिक्रमण-पेशाब करने के बाद सूक्ष्मतम दोष भी विचार पथ से ओझल न हों। ईर्या का प्रतिक्रमण करना प्रस्त्रवध प्रतिक्रमण है। (३) इत्वर प्रतिक्रमण के भेद-साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के प्रतिक्रमण-स्वरूपकालीन (देवसिक रात्रिक आदि) प्रतिक्रमण दो भेद हैं--(१) श्रमण प्रतिक्रमण और (२) श्रावक प्रतिक्रमण । करना इतर प्रतिक्रमण है। (४) यावत्कर्थिक प्रतिक्रमण- कालिक आधार पर प्रतिक्रमण के पांच भेद हैं (१) देवसिकसम्पूर्ण जीवन के लिए पाप से निवृत्त होना यावलथिक प्रतिक्रमण प्रतिदिन सायंकाल के समय पूरे दिवन में आ चरित पापों का है। (५) यत्किचिस्मिथ्या प्रतिक्रमण-सावधानीपूर्वक जीवन चिन्ता कर उनकी आलोचना करना देवसिक प्रतिक्रमण है। व्यतीत करते हुए भी प्रसाद असवा सावधानी से किसी भी (२) रात्रिक - प्रतिदिन प्रात:काल के समय सम्पूर्ण रात्रि के प्रकार का असंगमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस भूल को आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी बालोचना करना रात्रिक स्वीकार कर लेना, 'मिच्छामि दुक्कड़ ऐसा उच्चारण करना और प्रतिक्रमण है। (३) पाक्षिक---पक्ष के अन्तिम दिन अर्थात उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्तिचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है। अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण पक्ष में आचरित पापों का (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण -विकार-वासना रूप कुस्वप्न देखने विचार कर उनकी झाले चना करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। पर उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण (४) चातुर्मासिक - कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूणिमा एवं है। यह विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित साषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने के आचरित पारों का विचार है। आचार्य भद्रबाहु ने जिन-जिन तथ्यों का प्रतिक्रमण करना कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है। (५) साहिए इसका निर्देश आवश्यक नियुक्ति में किया है। उनके सांवत्सरिक-प्रत्येक वर्ष में संवत्सरी महापर्व (ऋषि पंचमी) अनुसार (१) मिथ्यात्व, (२) असंयम, (३) कषाय एवं (४) के दिन वर्ष भर के पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना अप्रशस्त कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना सविस्सरिक प्रतिक्रमण है। करना चाहिए । प्रकारान्तर से आचार्य ने निम्न बातों का प्रति- तदुभय--तदुभम प्रायश्चित्त यह है जिसमें आलोचना और क्रमण करना भी अनिवार्य माना है- (१) गृहस्थ एवं श्रमण प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं । अपराध या दोष को दोष के रूप उपासक के लिए निषिद्ध कार्यो का आचण कर लेने पर, (२) में स्वीकार करके फिर उसे नहीं करने का निश्चय करना ही जिन कार्यों के करने का शास्त्र में विधान किया गया है उन तदुभय प्रायश्चित्त है । जीतकल्म में निम्न प्रकार के अपराधों के विहित कार्यों का आचरण न करने पर, (३) अश्रद्धा एवं शंका लिए तदुभम प्रायश्चित्त का विधान किया गया है-(१) भ्रमके उपस्थित हो जाने पर और (४) असम्यक एवं असत्य सिद्धांतों वश किये गये कार्य, (२) भयवश किये गये कार्य, (2) आतुरताका प्रतिपादन करने पर अवश्य प्रतिक्रमण करना चाहिए। वश किये गये कार्य, (४) सहसा किये गये कार्म, (५) परवशता
जैन परम्परा के अनुसार जिनका प्रतिक्रमण किया जाना में किये कार्य, (६) सभी प्रतों में लगे हुए अतिचार । चाहिए, उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार है
विवेक-विवेक बन्द का सामान्य अर्थ यह है कि किसी (अ) २५ मिथ्यात्वों, १४ ज्ञानातिचारों और १८ पापस्थानों कर्म के औचित्य एवं अनौचित्य का सम्यक् निर्णय करना और का प्रतिक्रमण सभी को करना चाहिए।
अनुचित कर्म का परित्याग कर देना । मुनि जीवन में आहारादि (ब) पंच महाव्रतों, मन, वाणी और शरीर के असंयम तथा के प्रात्य और अनाहा अथवा शुद्ध और अशुद्ध का विचार करना गमन, भाषण, याचना, महण-निक्षेप एवं मलमूत्र विसर्जन आदि ही विवेक है । यदि अज्ञात रूप से सदोष आहार आदि ग्रहण से सम्बन्धित दोषों का प्रतिक्रमण श्रमण साधकों को करना कर लिया हो तो उसका त्याग करना ही विवेक है। वस्तुतः चाहिए।
सदोष क्रियाओं का त्याग ही विवेक है। मुख्य रूप से भोजन, (स) पांच अणुव्रतों, ३ गुणवतों, ४ शिक्षाव्रतों में लगने वाले वस्त्र, मुनि जीवन के अन्य उपकरण एवं स्थानादि प्राप्त करने ७५ अतिचारों का प्रतिक्रमण अती श्रावकों को करना चाहिए। में जो दोष लगते हैं उनकी शुद्धि विवेक प्रायश्चित्त द्वारा मानी
(द) संलेखना के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण उन साधकों गयी है।
१ स्थनांग पूत्र, ६/५३८ ।
२ आवश्यकनियुक्ति, १२५०-१२६८ ।