________________
सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ६१
(१०) तत्सेवी दोष--जो व्यक्ति स्वयं ही दोषों का सेवन आलोचना और प्रतिक्रमण में अन्तर यह है कि आलोचना में करने वाले हैं उनके सामने दोषों की आलोचना करना तत्सेवी अपराध को पुनः सेवन न करने का निश्चय नही होता, जबकि दोय है । क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं दोष का सेवन करने वाला है प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है। उसे दूसरे को प्रायश्चित्त देने का अधिकार नहीं है। दूसरे, ऐसा मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता व्यक्ति उचित प्रायश्चित्त भी नहीं दे पाता।
है, अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने आलोचना के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, इन सन्दर्भ में उसके स्वरूप, आलोचना करने ३ सुनने की पात्रता सबकी निवृत्ति के लिए कृत-पापों की समीक्षा करना और पुन: और उसके दोषों पर गहराई से विचार किया है। इस सम्बन्ध नहीं करने की प्रतिज्ञा करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र में विस्तृत चर्चा निशीथ आदि में पायी जाती है। पाठकों से उसे प्रतिक्रमण का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि शुभयोग से अशुभ वहाँ देखने की अनुशंसा की जाती है।
पान की आर गये हुए अपन आपको पून: शुभ योग में लौता लाना आलोचना योग्य कार्य-जीतकल्प के अनुसार जो भी कर- प्रतिक्रमण है। आचार्य हरिभद्र ने अतिक्रमण की व्याख्या में णीय अर्थात आवश्पक कार्य हैं, वे तीर्थंकरों द्वारा सम्पादित होने इन तीन अर्थों का निर्देश किया है-(१) प्रभादवा स्वस्थान से पर तो निदोष होते हैं, किन्तु छदमस्थ श्रमणों द्वारा इन कर्मों परस्थान (स्वधर्म से परस्थान, परधर्म) में गये हुए साधक का की शुद्धि केवल आलोचना से ही मानी गयी है । जीतकल्प में पुनः स्वस्थान पर लौट आना यह प्रतिक्रमण है। अप्रमत्त चेतना कहा गया है कि आहार आदि का ग्रहण, गमनागमन, मल-मूत्र का स्व-चेतना केन्द्र में स्थित होना स्वस्थान है, जबकि चेतना विसर्जन, गुरुवंदन आदि सभी क्रियाएँ बालोचना के योग्य है।' का बहिर्मुख होकर पर-वस्तु पर केन्द्रित होना पर-स्थान है। इन्हें आलोचना योग्य मानने का तात्पर्य यह है कि साधक इस इस प्रकार बाघहष्टि से अन्नई ष्टि की ओर आना प्रतिक्रमण है। बाल का विचार करे कि उसने इन कार्यों का सम्पादन सजगता- (२) क्षायोपमिक भाव से औदयिका भाव में परिणत हुआ पूर्वक अप्रमत्त होकर किया है या नहीं । क्योंकि प्रमाद के कारण साधक जब पुनः श्रोदायिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौट दोष लगना सम्भव है। इसी प्रकार आचार्य से सौ हाथ की आता है, तो यह भी प्रतिकूलगमन के कारण प्रतिक्रमण कहलाता दूरी पर रहकर जो भी कार्य किये जाते हैं, वे भी आलोचता के है। (३) अशुभ भाचरण से निवृत्त होकर मोक्षफलदायक शुभ विषय माने गमे है। इन कार्यों को गुरु के समक्ष आलोचना आचरण में निःशल्प भाव से प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है। करने पर ही साधक को शुद्ध माना जाता है। इसका उद्देश्य यह आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम है कि साधक गुरु को यह बताये कि उसने गुरु से दूर रहकर दिये है (१) प्रतिक्रमण-पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर क्या-क्या कार्य किस प्रकार सम्पादित किये है। इसके साथ ही आत्मशुद्धि के क्षेत्र में नोट बाना । (२) प्रतिचरण हिंसा किसी कारणवश या अकारण ही स्वगण का परित्याग कर पर- असत्य आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में गण में प्रवेश करने को मथवा उपसम्पदा, विहार आदि कार्यो अग्रसर होना । (३) परिहरण सब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों को भी आलोचना का विषय माना गया है। ई आदि पांच एवं पुराचरणों का त्याग करना । (४) बारण-निषिस आवरण समितियों और तीन गुप्तियों में लगे हुए दोष सामान्यतया की ओर प्रवृत्ति नहीं करता। बौद्ध धर्म में प्रतिक्रमण के समान बालोचना के विषय हैं। यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि की जाने वाली क्रिया को प्रवारणा कहा गया है। (५) निसि ये सभी दोष जो आलोचना के विषय हैं, वे देश-काल परिस्थिति -अशुभ भावों से निवृत्त होना । (६) निन्दा - गुरुजन, वरिष्ठऔर व्यक्ति के आधार पर प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्तर्ग, जन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ तप, परिहार, छैद आदि प्रायश्चित्त के योग्य भी हो सकते हैं। आचरणों को बुरा समझना तथा उसके लिये पश्चात्ताप करना।
प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त का दूसरा प्रकार प्रतिक्रमण है। (७) गट-अशुभ आचरण को गहित समझना, उससे घृणा अपराध या नियम भंग को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः करना । (क) शुद्धि-प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा बादि के द्वारा उससे वापस लौट आना अर्थात् भविष्य में उसे नहीं करने की आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिये उसे प्रतिज्ञा करना ही प्रतिक्रमण है। दूसरे शब्दों में आपराधिक शुद्धि कहा गया है। स्थिति से अनपराधिक स्थिति में लौट आना ही प्रतिक्रमण है।
१ जीतकल्प ६, देखें-जीतफल्पभाष्य माथा ७३१-१८१०। २ योगशास्त्र स्वोपशवृत्ति, ३ ।
३ मावश्यक टीका, उद्धृत अमात्र, पृ. ८७ ।