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६. | परणानुयोग : प्रस्तावमा पाहिए क्योंकि सभी अपराधों एवं प्रायश्चित्तों की सूची आगमों पासक उपस्थित हो तो उसके समक्ष आलोचना करे । उसके में उपलब्ध नहीं है अतः अालोचना सुनने याला व्यक्ति ऐसा होना अभाव में सम्यक्त्व भावित अंत:करण वाले के समक्ष अर्थात् चाहिये जो स्वविवेक से ही आगमिक आधारों पर किसी कर्म के सम्यक्स्वी जीव के समक्ष आलोचना करे। यदि सम्यक्त्व भावी प्रायश्चित्त का अनुमान कर सके।
अन्तःकरण वाला भी न हो तो ग्राम या नगर के बाहर जाकर (४) अपनीडक-आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर अरिहन्त और सिद्ध की चाहिए कि आलोचना करने वाले की लज्जा छुड़ाकर उसमें साक्षीपूर्वक आलोचना करे।। आत्म-आलोचन की शक्ति उत्पन्न कर सके ।
आलोचना सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसंग में यह भी तथ्य ध्यान (५) प्रकारी--आचार्य अथवा आलोचना सुनने वाले में यह देने योग्य है कि आलोचना दोषमुक्त हो। स्थानांग, मूलाचार, सामर्थ्य होना चाहिए कि वह अपराध करने वाले व्यक्ति के भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का व्यक्तित्व को रूपान्तरित कर सके।
उल्लेख हुआ है। (६) अपरिचावी-उसे आलोचना करने वाले के दोषों को (१) आकम्पित रोष-आचार्य आदि को उपकरण आदि दूसरे के सामने प्रगट नहीं करना चाहिये, अन्यथा कोई भी व्यक्ति देकर अपने अनुकूल बना लेना बाकम्पित दोष है। कुछ विद्वानों उसके सामने आलोचना करने में संकोच करेगा ।
के अनुसार आकम्पित दोष का अर्थ है कांपते हुए आलोचना (७) निर्यापक- आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना करना, जिससे प्रायश्चित्तदाता बाम से कम प्रायश्चित्त दे। कि वह प्रायश्चित्त विधान इस प्रकार करे कि प्रायश्चित्त करने (२) अनुमानित दोष- अल्प प्रायश्चित्त पा दण्ड मिले इस वाला व्यक्ति घबराकर उसे आधे में हो न छोड़ दे। उसे प्राय- भय से अपने को दुर्बल, रोगग्रस्त आदि दिखाकर आलोचना श्चित करने वाले का सह्योगी बनना चाहिए।
करना अनुमानित दोष है। (८) अपायदर्शी -- अर्थात् उसे ऐसा होना चाहिए कि वह (३) अष्ट्र-गुरु अथवा अन्य किसी ने जो अपराध देख भालोचना करने अयवा न करने के गुण-दोषों की समीक्षा कर सके। लिया हो उसकी आलोचना करना और अद्रष्ट दोषों की आलो
() प्रियधर्मा- अर्थात् आलोचना सुनने वाले व्यक्ति की चना न करना यह अद्रष्ट दोष है। धर्म मार्ग में अविचल निष्ठा होनी चाहिए।
(४) बार धोष-बड़े दोषों को आलोचना करना और (१०' दुधर्मा- उसे ऐसा होना चाहिए कि यह कठिन से छोटे दोषों की हालोचना न करना बादर दोष है। कठिन समय में भी धर्म मार्ग से विचलित न हो सके।
(५) सम्म शेष- छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना जिसके समक्ष आलोचना की जा सकती है उस व्यक्ति को और बड़े दोषों को छिपा लेना सूक्ष्म दोष है। इन सामान्य योग्यताओं का निर्धारण करने के साथ-साथ यह (६) छा दोष-आलोचना इस प्रकार से करना कि गुरु भी माना गया है कि किसी गीतार्थ, बहुश्रुत एवं बागमज्ञ के उसे पूरी तरह सुन ही न सके यह छन्न दोष है। कुछ विद्वानों समक्ष ही आलोचना की जानी चाहिए। साथ ही इनके पदक्रम के अनुसार आचार्य के समक्ष मैंने यह दोष किया, यह न कहऔर वरीयता पर विचार करते हुए यह कहा गया है कि जहाँ कर किसी बहाने से उस दोष का प्रायश्चित्त ज्ञात कर स्वयं ही आचार्य आदि उच्चाधिकारी उपस्थित हों, वहीं सामान्य साघु उसका प्रायश्चित्त से लेना न दोष है। या गृहस्थ के समक्ष आलोचना नहीं करनी चाहिए। आचार्य के (७) शम्बाकुलित दोष- कोलाहलपूर्ण वातावरण में आलो. उपस्थित होने पर उसी के समक्ष आलोचना की जानी चाहिए। बना करना जिसे आचार्य सम्यक् प्रकार से सुन न सके, यह आचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय के समक्ष, उपाध्याय की शम्दाकुलित दोष है । दूसरे शब्दों में भीड़-भाड़ अथवा व्यस्तता अनुपस्थिति में सांभोगिक सार्मिक साधु के समक्ष और उनकी के समय गुरु के सामने आलोचना करना दोषपूर्ण माना गया है। अनुपस्थिति में अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु के समक्ष आलोचना (८) बहुजन दोष--एक ही दोष की अनेक लोगों के समक्ष करनी चाहिए । यदि अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु भी उपलब्ध न आलोचना करना और उनमें से जो सबसे कम दण्ड या प्रायहो तो ऐसी स्थिति में बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ समान-देश धारक चित्त दे उसे स्वीकार करना बहुजन दोष है। साधु के समक्ष आलोचना करे। उसके उपलब्ध न होने पर यदि (1) अव्यक्त दोष-दोषों को पूर्ण रूप से स्पष्ट न कहते पूर्व में दीक्षा पर्याय को छोड़ा हुआ बहुश्रुत और बागमज्ञ श्रमणो- हुए उनकी आलोचना करना अध्यक्त दोष है।
१ व्यवहारसूत्र १/१/३३ । २ (अ) स्थानांग, १०७०।
(ब) मूलाधार, ११/१५ ।