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सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ६३
ध्युत्सर्ग-व्युत्सर्ग का तात्पर्य परित्याग या विसर्जन है। किया है अतः इस सम्बन्ध में मुझे भी मौन रहना पड़ रहा है। सामान्यतया इस प्रायश्चित्त के अन्तर्गत किसी भी सदोष आचरण इन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित मास, दिवस एवं तपों की संख्या के लिए शारीरिक व्यापारों का विरोध करके मन की एकाग्रता- का उल्लेख हमें बहकल्प भाष्य गाथा ६०४१.६०४ में मिलता पूर्वक देह के प्रति रहे हुए ममत्व का विसर्जन किया जाता है। है। उसी आधार पर निम्न विवरण प्रस्तुत है-- जीतकल्प के अनुसार गमनागमन, विहार, श्रुत अध्ययन, सदोष प्रायश्चित्स का नाम तप का स्वरूप एवं काल स्वप्न, नाब आदि के द्वारा नदी को पार करना तथा भक्त पान, यथागुरु-छह मास तक निरन्तर पांच पांच उपवास शय्या-आसन, मलमूत्र विसर्जन, काल व्यविक्रम, अहंत एवं मुनि गुरुतर-चार मास तक निरन्तर चार-चार उपवास का अविनय आदि दोषों के लिए व्युत्तर्ग प्रायश्चित्त का विधान गुरु-एक मास तक निरन्तर तीन-तीन उपवास (तेले) किया गया है । जीतकरूप में इस तथ्य का भी उल्लेख किया गया लघु-१० बेले १० दिन पारणे (एक मास तक निरन्तर है कि किस प्रकार के दोष के लिए कितने समय या श्वासोच्छ्
दो-दो उपवास) यास का कामोत्सर्ग किया जाना चाहिए। प्रायश्चित्त के प्रसंग लघुतर.-२५ दिन तक निरन्तर एक दिन उपवास और एक में गुम्सर्ग होर नागोलागं गियानी कप में ही सगुण हुए हैं।
दिन भोजन । तप प्रायश्चित्त
यथालघु-२० दिन निरन्तर आपम्बिल (स्खा-सूखा भोजन) सामान्य दोषों के अतिरिक्त विशिष्ट दोषों के लिए तप लघुवक-१५ दिन तक निरन्तर एकासन (एक समय प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। किस प्रकार के दोष का
भोजन) सेवन करने पर किस प्रकार के तप का प्रायश्चित्त करना होता लघुष्वकतर--१० दिन तक निरन्तर दो पोरसी अर्थात् १२ है उसका विस्तारपूर्वक विवेचन निशीथ, वृहत्कल्प और जीत
बजे के बाद भोजन ग्रहण। कल्प में तथा उनके भाष्यों में मिलता है। निशीथ सूत्र में तप यथालत्रुवक-पांच दिन निरन्तर निर्विकृति (घी, दूध प्रायश्चित्त के योग्य अपराधों की विस्तृत सूची उपलब्ध है।
आदि रहित भोजन) उसमें तप प्रायश्चित्त के विविध प्रकारों की चर्चा करते हुए लधुमासिक के योग्य अपराध मासलघु, मासगुरु, चातुर्मासलघु, चातुर्गास गुरु से लेकर षट्मास दारुदण्ड का पादोंछन बनाना, पानी निकलने के लिए लघु और षट्मास गुरु प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है। जैसा नाली बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की कि हमने पूर्व में संकेत किया है मासगुरु या मासलघु आदि का प्रशंसा करना, निष्कारण परिचित घरों में दुबारा प्रवेश करना, क्या जात्पर्य है, यह इन अन्धों के मूल में कहीं स्पष्ट नहीं किया अन्यतीयिक अथवा गृहस्थ की संगति करना, शाम्यातर अथवा गया है किन्तु इन पर लिखे गये भाष्य-चूणि आदि में इनके अर्थ भावास देने वाले मकान मालिक के यहां का आहार-पानी ग्रहण को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है. मात्र यही नहीं लघु को करना आदि क्रियाएँ लघुमासिक प्रायश्चित्त के कारण हैं। लघु, लघुतर और लघुतम तथा गुरु की गुरु, गुरुत्तर और गुरुतम गुरुमासिक योग्य अपराध-अंगादान का मन करना, ऐसी तीन-तीन कोटियां निर्धारित की गई हैं।
अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, अंगादान को नली में ___कहीं-कहीं गुरुक, लघुक और लघुष्वक ऐसे तीन भेद भी डालना, पुष्पादि सुंघना, पात्र आदि दूसरों से साफ करवाना, किये गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और सदोष आहार का उपभोग करना आदि क्रियायें गुरुमासिक प्रायउत्कृष्ट ये तीन तीन भेद किये गये हैं। व्यवहारसूत्र की भूमिका श्चित के कारण हैं। में अनुयोगकर्ता मुनि श्री कन्हैयालालजी 'बमल' ने उत्कृष्ट, लघु चातुर्मासिक के योग्य अपराध -प्रत्याख्यान का बारमध्यम और जथन्य प्रत्येक के भो तीन-तीन विभाग किये हैं। बार भंग करना, गृहस्थ के वस्त्र, शैय्या आदि का उपयोग यथा— उत्कृष्ट के उत्कृष्ट, उस्कृष्टमध्यम और उत्कृष्टजघन्य करना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ थाहार नतुर्य प्रहर तक तीन विभाग हैं । ऐसे ही मध्यम और जघन्य के भी तीन-तीन रखना, अयोजन अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, विभाग किये गये हैं। इस प्रकार तप प्रायश्चित्तों के ३४३४३ विरेचन लेना अथवा अकारण औषधि का सेवन करना, वाटिका --२७ भेद हो जाते हैं। उन्होंने विशेष रूप से जानने के लिए आदि सार्वजनिक स्थानों में मल-मूत्र बालकर गन्दगी करना, व्यवहार भाष्य का संकेत किया है किन्तु व्यवहार भाग्य मुसे गुहस्प आदि को आहार-पानी देना, समान आचार वाले निग्रंन्य उपलब्ध न होने के कारण मैं इस चर्चा के प्रसंग' में उनके बव- निर्ग्रन्थी को स्थान आदि की सुविधा न देना, गीत गाना, वाद्य हारसुतं के सम्पादकीय का ही उपयोग कर रहा हूं। उन्होंने इन यन्त्र बजाना, नृत्य करना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय सम्पूर्ण २७ भेदों और उनसे सम्बन्धित तपों का भी उल्लेख नहीं करना अथवा स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय न करना, अयोग्य