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सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श ५७
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मनसा , मात्र आदि मुनि-जीवन के मूल, पारांचिक आदि बाह्यत: तो दण्डरूम है, किन्तु उनकी आत्मलिये आवश्यक वस्तुओं का त्याग करना या उनमें कमी करना। विशुद्धि की क्षमता को लक्ष्य में रखकर ही ये प्रायश्चित्त दिये
(४) भक्तपान व्युत्सर्ग-भोजन का परित्याग । यह अनशन जाते हैं। का ही रूप है।
प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ आभ्यन्तर व्युत्सर्ग तीन प्रकार का है
प्रायश्चित्त शब्द की बागमिक व्याख्या साहित्य में विभिन्न (१) कषाय-व्युत्सर्ग-क्रोध, मान, माया और लोभ इन परिभाषाएं प्रस्तुत की गई हैं। जीतकल्प भाष्य के अनुसार जो पार कषायों का परित्याग करना ।
पाप का छेदन करता है, वह प्रायश्चित्त है। यहाँ "प्रायः" (२) संसार-व्युत्सर्ग-प्राणीमात्र के प्रति राग-द्वेष की शब्द को पाप के रूप में तथा "चित्त" शब्द को गोधक के रूप प्रवृत्तियों को छोड़कर सबके प्रति समत्वभाव रखना। में परिभाषित किया गया है। हरिभद्र ने एनाशक में प्रायश्चित्त
(३) कर्म-व्युत्सर्ग - आत्मा की मलिनता मन, बचन और के दोनों ही अर्थ मान्य किये हैं । वे मूलतः "पापच्छित्त" शब्द शरीर की विविध प्रवृत्तियों को जन्म देती है। इस मलिनता के की व्याख्या उसके प्राकृत रूप के आधार पर ही करते हैं। वे परित्याग के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक प्रवृत्तियों लिखते हैं कि जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त का निरोध करना।
है। इसके साथ ही वे दूसरे अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं __ जैन धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड व्यवस्था कि जिसके द्वारा पाप से चित्त का शोधन होता है, वह प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त और सब-- जैन आचार्यों ने न केवल भाचार है।'प्रायश्चित्त शब्द के संस्कृत रूप के आधार पर प्रायः" के विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया अपितु उनके भंग होने पर शब्द को प्रकर्ष के अर्थ में लेते हुए यह भी कहा गया है कि प्रायश्चित्त एवं दक्ष की स्पवस्था भी की। सामान्यतया जैन जिसके द्वारा चित्त प्रकर्षता अर्थात् उच्चता को प्राप्त होता है मागम ग्रन्थों में नियम-भंग या अपराध के लिए प्रायश्चित्त का वह प्रायश्चित्त है। ही विधान किया गया और दण्ड शब्द का प्रयोग सामान्यतया दिगम्बर टीकाकारों ने "प्राय" शब्द का अर्थ अपराध और "हिंसा" के अर्थ में हुआ है। अतः जिसे हम दण्ड-व्यवस्था के चित्त शब्द का अर्थ शोधन करे यह माना है कि जिस क्रिया के रूप में जानते हैं, वह जैन परम्परा में प्रायश्चित्त व्यवस्था के करने से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है। एक अन्य रूप में ही मान्य है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त पययि- व्याख्या में "प्रायः" शब्द का अर्थ "लोक" भी किया गया है। वानी माने जाते हैं. किन्तु दोनों में सिद्धांतत: अन्तर है। प्राय- इस पृष्टि से यह माना गया है कि जिस कर्म से साधजनों का श्चित्त में अपराध-बोध की भावना से व्यक्ति में स्वतः ही उसके चित्त प्रसन्न होता है वह प्रायश्चित्त है । मूलाचार में कहा गया परिमार्जन की अन्तःप्रेरणा उत्पन्न होती है। प्रायश्चित्त अन्तः है कि प्रायश्चित्त वह तप है जिसके द्वारा पूर्वकृत पापों की प्रेरणा से स्वयं ही किया जाता है, जबकि दण्ड अन्य व्यक्ति के विशुद्धि की जाती है। इसी ग्रन्थ में प्रायश्चित्त के पर्यायवाची द्वारा दिया जाता है । जैन परम्परा अपनी आध्यारिमक-प्रकृति नामों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जिसके द्वारा पूर्वके कारण साधनात्मक जीवन में प्रायश्चित्त का ही विधान करती कृत कर्मों का क्षपणा, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुन्छण है। यद्यपि जव साधक अन्तःप्रेरित होकर गात्मशुद्धि के हेतु अर्थात् निराकरण, उत्क्षेपण एवं छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त स्वयं प्रायश्चित्त की याचना नहीं करता है तो संघ ध्यवस्था के है। लिए उसे दण्ड देना होता है।
प्रायश्चित्त के प्रकार यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि दण्ड देने से साधक नेताम्बर परम्परा में विविध प्रायश्चित्तों का उल्लेख स्थाकी आत्मशुद्धि नहीं होती। चाहे सामाजिक या संघ-व्यवस्था के नांग, निशीथ, बृहस्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प आदि ग्रन्थों में लिए दण्ड आवश्यक हो किन्तु जब तक उसे अन्तःप्रेरणा से स्वीः मिलता है। किन्तु जहाँ समवायांग में प्रायश्चित्तों के प्रकारों का कृत नहीं किया जाता तब तक वह आत्मविशुद्धि करने में सहा. मात्र नामोल्लेख है वहां निशीथ आदि ग्रन्थों में प्रायचित्त योग्य यक नहीं होता। जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था में परिहार, छेद, अपराधों का भी विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। प्रायश्चित्त
.१ जीतकल्पमाष्य ५ ।
२ पंचाशक (हरिमा) १६३ (प्रायश्चितपंचाशक)। ४ अभिधान राजेन्द्र कोष।
५ तत्वार्थ वातिक ६/२२/१, पृ. ६२० । ७ मूलाचार ५/१६४॥
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वही ५/१६६।