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५२ | धरणानुयोग : प्रस्तावना विस्तृत वर्णन करके उनकी देवमति में उत्पत्ति का विशद वर्णन संघ-यवस्था किया गया है।
इस प्रकरण के प्रारम्भ में तीर्थ, संघ आदि का स्वरूप, जैन मुनि के कांदपिक किल्बिषिक आदि भावों से संयम का जिनशासन का प्रवर्तन काल एवं केवली, जिन, स्थविर, रत्नाधिक दुषित होना बताकर उनकी दुर्गति होने का निर्देश किया गया आदि के प्रकारों का वर्णन है। है और उन अभियोगिक किल्विषिक अवस्थाओं के प्राप्त होने के प्रथम और अन्तिम तीर्यकर के शासन से बीच के तीर्थंकरों कारण भी बताये गये हैं।
के शासन का महाव्रत सम्बन्धी अन्तर आदि कथन है। पांच - इसके बाद ६ निदानों की विस्तृत विचारणा कर अनिदान प्रकार के व्यवहारों के उपयोग करने का स्पष्टीकरण किया गया संयम जीवन की प्रेरणा एवं उसका मुक्तिफल प्रदर्शित किया है। तीन प्रकार के आत्मरक्षक कहकर आचार्य एवं शिष्यों के गया है।
प्रकारों का चोभंगियों द्वारा कथन किया गया है। भआराधना विराधना का अन्तिम निर्णय मरण समय से होता राचार्य एवं गणावच्छेदक के आचार सम्बन्धी अतिशय बता है अतः यहाँ बालमरण आदि का स्वरूप भी स्पष्ट किया गया कर आचार्य को आठ संपदा का वर्णन करके अनेक कर्तव्याकर्तव्य है जिसमें १७ प्रकार के मरण, १२ या २० प्रकार के बालमरणों की चर्चा की गई है। का स्वरूप बताकर दो मरण (फांसी और गृद्ध स्पृष्ट मरण) आचार्य उपाध्याय गणावच्छंदक आदि पर्दी की व्यवस्था का ब्रह्मचर्य रक्षा हेतु स्वीकार करना प्रशस्त कहा गया है। वर्णन करते हुए दीक्षापर्याय श्रुतज्ञान एवं अन्य गुण सम्पन्न होने
फिर उत्तराध्ययन अ. ५ के आधार से दोनों मरणों का की चर्चा की गई है। आचार्य के दिवंगत होने के बाद किसे विस्तृत कथन है । अन्त में बालमरणों की प्रशंसा करने का भी आचार्य बनाना या हटाना इसकी विशद चर्चा हुई है। चौमासी प्रायश्चित्त बताया गया है।
___ अब्रह्मचर्य, असत्य एवं मायाचरण करने वालों को उनके भनाचार
पदों से मुक्त करने का दण्ड विधान किया गया है एवं पुनः तीन • संयम स्वीकार कर लेने पर भी सभी साधक आराधक ही वर्ष या जीवन पर्यन्त भी उन्हें पद नहीं देने का निर्देश किया होते हैं, पह जरूरी नहीं है। विराधक होने वाले अपने वैराग्य' गया है। एवं लक्ष्म के परिवर्तित हो जाने के कारण अनेक अनाचरणीय संघाड़ा प्रमुख पा गण धारण करने वाले के ६ प्रमुख गुणों कृत्य करते हैं । इस प्रकरण में ऐसे अनेक अनाचारों का वर्णन की चर्चा की गई है साथ ही गण धारण कर स्वतन्त्र विचरण है। यद्यपि प्रचलित भाषा में बावन अनाचार भी कहे जाते हैं करने के लिए बाज्ञा लेने की विधि बताई गई है एवं योग्यता किन्तु सूत्रों में अनेक जगह अनेक अनाचरणीय विभिन्न अपेक्षाओं बिना या बाज्ञा बिना जाने वाले को प्रायषिचत्त कहा है। से कहे हैं किन्तु बावन की संख्या कहीं भी नहीं कही है।
१०वें प्रायश्चित्त विधान की एवं तरुण साधुओं को सर्वप्रथम अनाचार एवं मूळ भाव का निषेध करते हुए आचार्य उपाध्याय नियुक्ति रहित गच्छों में नहीं रहने की विचासूत्रकृतांग में वर्णित अनाचारों का स्वरूप बताकर स्वच्छन्द और रणा की गई है। पापी श्रमण की प्रवृत्ति का दिग्दर्शन किया है। फिर प्रमत्त- विचरण करते हुए संघाड़ा प्रमुख के काल करने पर शेष अप्रमत्त भाव एवं अवस्था का स्वरूप बताकर अप्रमत्त होने की साधुओं के कर्तव्याकतन्य का विवेक बताया गया है। प्रेरणा की गई है।
इसी प्रकार साध्वियों के प्रवर्तिनी गणावच्छेदिनी आदि पदों धर्म में विघ्न करने वाले, धर्मघातक, प्रमाद और अठारह की चर्चा की गई है, जिसमें ६० वर्ष की दीक्षा पर्याय बाली पाप आदि भेदों का विश्लेषण करते हुए १. प्रकार से विशुद्धि साध्वियों को भी आचार्य की निधा करके ही विचरने का आदेश होनी भी बताई है।
दिया गया है। तदनन्तर दशर्वकालिक सूत्र वर्णित अनाचार कहे गये हैं साथ तदनन्तर साधु साध्वी को आचारांग-निशीथसूत्र कंठस्थ ही २० असमाविस्थान, ३० महामोह बन्ध के कारण, १३ धारण करने की आवश्यकता कही है और भूल जाने पर कठोर क्रियास्थानों का स्वरूप बताया गया है।
दण्ड ब्यवस्था का भी निर्देश दिया गया है। निमित्त कथन का निषेध, कषाय का निषेध एवं कषाय को इसके बाद साध सात्रियों के विनय व्यवहार सम्बन्धी अग्नि की उपमा, आठ मद, आदि विषयों का वर्णन करके आवश्यक कर्तव्यों की चर्चा की गई है। क्रोधादि विजय का फल बताया गया है।
अध्ययन-अध्यापन व्यवस्था का वर्णन करते हुए दीक्षा अन्त में विविध अनाचारों के प्रायश्चित्तों का संकलन किया पर्याय के साथ सम्बन्ध बताया गया है। गया है।
विचरण व्यवस्था के वर्णन में आचार्य उपाध्याय प्रवर्तनी