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सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ५३ आदि के साथ साधु साध्वियों की संख्या बताई गई है तथा में पुनरागमन सम्वन्धी विचारणा भी की है। आचार्य उपाध्याय प्रवर्तिनी एवं गणावच्छेदक गणावच्छेदिका को अन्त में सूयगडांग सूत्र के आधार से संयमरत तपस्वी एकाकी विचरने का स्पष्ट निषेध किया गया है। विचरण काल सकारण एकाकी विहारी भिक्षु के निर्वाण प्राप्ति का कथन है । एवं विचरण क्षेत्र की चर्चा करके रात्रि में गमनागमन का निषेध पावस्थ आदि शिथिल संयम साधकों के व्यवहार सम्बन्धी किया गया है।
जाके साथ आहार, वस्त्र, पात्र, आदान, प्रदान, बंदन साधु-साध्वी के पारस्परिक व्यवहारों की चर्चा करते हुए व्यवहार एवं साधुओं का आदान प्रदान आदि के प्रायश्चित्त भी उनके आसाप-संलाप, आवास-संवास, वैयावृत्य एवं कान धर्म कहे गए हैं तथा इनके पुनः गण में आने पर यथायोग्य परीक्षण प्राप्त साधु से सम्बन्धित कृश्यों के उत्सर्म-अपवाद की चर्चा की एवं प्रायश्चित्त के द्वारा शुद्धि करके गण में लेने की चर्चा भी गई है । अन्त में विशेष कारण के विना परस्पर सेवा करने, है। टिप्पण में इनके स्वरूप को सरल संक्षिप्त भाषा में कहा है। करवाने का या आलोचना करने का निषेध किया गया है। इन वर्णनों में शिथिलाचारियों के १० प्रकार हैं अर्थात् संयम
सांभोगिक (व्यावहारिक) व्यवस्था में १२ संभोगों (पार- च्युत साधकों के दस विभाग किए गये हैं। स्परिक व्यवहारों) का कथन करके विसंभोग करने की अर्थात् संघ व्यवस्था के अन्तिम प्रकरण में कलह की उत्पत्ति के संभोग सम्बन्ध को पृथक कर देने के कारणों की चर्चा की गई कारण, गणच्युग्रह के कारण, कलह उपशम का उपदेश कर है एवं उसकी विधि भी बताई गई है।
अनुपशांत की विराधना का निर्देश किया है। विवाद उत्पत्ति संभोग (च्यवहार) पच्चक्वाण करने को एक विशिष्ट एवं उसके निवारण के उपाय भी बताये गए हैं। अन्त में क्षमासाधना रूप में कहकर उसका अनुपम फल प्रदर्शित किया पना के अनुपम फल की चर्चा करते हुए कलह सम्बन्धी प्रायगया है।
श्चित्तों का कथन किया गया है। गृहस्थों के साथ पारस्परिक व्यवहार की पर्चा एवं प्राय- तपाचार श्चित्त का कथन किया गया है।
प्रस्तुत कृति में चारित्राचार के बाद तपाचार का उल्लेख गणापक्रमण (गच्छ त्याग) के कारणों की विधाद चर्चा करते हुआ है । उत्तराध्ययन' और कुन्दकुन्द के दर्शनप्राभूत' में विविध हुए श्रुत ग्रहण के लिए अन्य गच्छ में जाने की विचारणा की साधना मार्ग के स्थान पर चतुर्विध साधना-मार्ग का उल्लेख गई है। साथ ही संभोग व्यवहार परिवर्सन हेतु और अन्य को मिलता है। साधना के इस पतुर्थ अंग को तप कहा गया है। अध्यापन हेतु भी गच्छ परिवर्तन या उपसंपदा परिवर्तन की तप की साधना ही तपाचार है। उत्तराध्ययन में पूर्व कर्म विचारणा की गई है। इस विचारणा में आचार्य आदि पदवी- संस्कारों को दग्ध करने के लिए अथवा पूर्व कमों की निर्जरा के धरों को अपना पद त्याग कर अन्य को नियुक्त कर के ही जाने लिये तप को साधना का एक आवश्यक अंग कहा गया है । तप की विधि बताई गई है।
जैन साधना का प्राण है । तप के अभाव में साधना बिना नींव सातिचार संयम वाले पार्श्वस्थ आदि का गणापक्रमण एवं के प्रासाद के समान है। प्रो भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में पुनः आने पर उन्हें गच्छ में रखने सम्बन्धी चर्चा विचारणा की भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त गई है।
एवं महत्वपूर्ण तत्व है, वह सब तपस्या से ही संभूत है। तपस्या तवनम्तर एकल विहार चर्या का वर्णन, एकल बिहारी के आठ ही इस राष्ट्र का बल है। गुण, उसके ठहरने के उपाश्रय ग्राम आदि की भर्चा भी की गई जैन परम्परा में तप शब्द का प्रयोग सामान्यतया तितिक्षा है । अव्यक्त भिक्षु के एकाकी विचरण का निषेध एवं अनिष्ट या कष्टसहिष्णुता के अर्थ में हुआ है। वस्तुतः जीवन जीने में फल बताया गया है।
उपस्थित अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को समभावपूर्वक योग्य भिक्षु को परिस्थितिवश एकाकी विहार करने की सहन करता ही तप है। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिए आज्ञा दी गई है साथ ही अनेक सावधानियां रखने की सूचना कि तप का अर्थ केवल अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों को भी की गई है। एवं प्रशस्त एकाकी विहारी की संयम चर्चा का समभाव पूर्वक सहन करना ही नहीं है, बल्कि यह स्वेच्छापूर्वक वर्णन किया है। बाद में क्रोधी, मानी आदि अप्रशस्त एकल कष्ट को निमन्त्रण देना भी है। जैन परम्परा में परीषह और विहारी का वर्णन भी किया है । असमर्थ एकाकी बिहारी के गण तप में अन्तर किया गया है। परीषह में जो कुछ घटित होता
१ उत्तराष्पयन २८/२, ३, ३५ ।
२ दर्शन प्राभूत (कुन्दकुन्द) ३२। ३ बौद्यवर्शन एवं अन्य भारतीय दर्शन पु.७१-७२ (भरतसिंह उपाध्याय) ।