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४४ घरमानुयोग प्रस्तावना
उसमें भी जिनवचन के प्रति शंका फरने, अन्य गत की आकांक्षा लोकवाद, क्रियावाद और कर्मवाद की स्थापना की गई है। या इच्छा करने, अन्य धर्मावलम्बियों के साथ सम्पर्क रखने और वस्तुतः, प्रारम्भ में जैन परम्परा में सम्पर-दर्शन वा तात्पर्य उनकी प्रशंसा करने का निषेध कर दिया गया। क्योंकि ये ही आत्मानुभूति या गाक्षीभाव था। उसके पश्चात् आत्मा और ऐसे आधार थे जिनके द्वारा किसी व्यक्ति की जिनधर्म के प्रति लोक के अस्तित्व को स्वीकार कर आत्मा को अपने फर्मानुसार आस्था को सुरक्षित रखा जा सकता था । यद्यपि ये तथ्य सम्यक्- फल प्राप्ति के रूप में विविध योनियों में जन्म लेने वाला स्वीदर्शन के मूल न साथ संमति ही रसाकि स कार करता माना गया । बद्रव्यों और नौ तत्वों के प्रति आस्था दर्शन का भूल तात्पर्व तो रात्य-निष्ठा या निष्पक्ष दृष्टि से को सम्यक् दर्शन कहा गया है, फिर जिन और जिन आगमों के सत्यान्वेषण का प्रयास करना है। जहाँ सम्यक्-दर्शन के अति- प्रति आस्था को ही सम्यक् दर्शन कहा गया है। यही आगे चलचारों की चर्चा के प्रसंग में संशाय को एक अतिचार माना गया कर देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा वाचक बना । इस समस्त है और उसकी गणना "हेय" तस्व में की गई है। वहीं आचा- चर्चा से यह भी सिद्ध होता है कि दर्शन शब्द मात्र विश्वास का राग में संशय को ज्ञान का आवश्यक साधन माना गया है। प्रतीक न होकर विश्वास के अनुरूप जीवन जीने का सूचक है उसमें कहा गया कि “जो संशय का परिज्ञाता होता है, वह और इसी अयं में वह दर्शनाचार बन जाता है। संसार का परिमाता होता है।"1 वस्तुतः यहाँ संशय की शान बर्शनाचार प्रस्तुत कृति में की प्राप्ति में बाधक न मानकर, ज्ञान के विकास का कारण दर्शनाचार का प्रारम्भ दर्शन के स्वरूप की चर्चा से किया माना गया है । यहाँ संशय व्यक्ति की जिज्ञासावृत्ति का सूचक गया है । इसमें सम्यक् दर्शन के लक्षण एवं प्रकार, सम्यक-दर्शन है। क्योंकि जिज्ञासा वृत्ति के अभाव में ज्ञान का विकास नहीं का फल, उसकी प्राप्ति के लिए अनुकूल आयु, काल एवं दिशाएँ होता है । इसी प्रकार जहाँ सम्यक्-दर्शन के अतिचारों के रूप जैसी महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा के साथ-साथ सम्यक्त्व की में अन्य मत की प्रशंसा करना और उनके अनुयायियों के साथ प्रभावना के आठ अंग, रुचि के आधार पर सम्यक्त्व के दस सम्पर्क रखना अनुचित माना गया है, वहाँ सूत्रकृतांग में उन प्रकारों की पर्चा भी प्रसंगानुसार मिलती है, जिनका संकेत हम व्यक्तियों की आलोचना की गई है, जो अपने मन की प्रशंसा पूर्व में कर चुके हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में
और दूसरे के मत की निन्दा करते हैं। मात्र यही नहीं सूत्रकृतांग इन महत्वपूर्ण चर्चाओं के अतिरिक्त बोधि की सुलभता एवं घुलमें तो बसितकेवल, नमि, रामपुत्र, बाहुक, पाराशर, वैपायन भता के पाँच कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसी प्रसंग आदि को जिन-प्रवचन सम्मत माना गया है।' उत्तराध्ययन में में तीन प्रकार के दुर्बोध्य तथा तीन प्रकार के सुबोध्य जीवों का भी अन्यलिंग सिखों का उल्लेन है ही। ऋषिभाषित में नारद, वर्णन करते हुए सुलभबोधि और दुर्लभबोधि के लक्षणों एवं याज्ञवल्क्य, बारुलि, उद्दालक, संखलिगोसाल संजय (यद्धिपुट) उनके अन्तर को स्पष्ट किया गया है। साथ ही बोधिलाभ में सारिपुत्र महाकाश्यप आदि को अहतमहर्षि का सम्मानित पद बाधक एवं साधक हेतुओं का विस्तृत विवरण भी उपलब्ध होता दिया गया है। इस प्रकार इन दोनों दृष्टिकोणों में एक महत्व- है। श्रद्धालु और अश्रद्धालु के अन्तर को स्पष्ट करते हुए अंत में पूर्ण अन्तर है और जो इस बात का भी सूचक है जो सम्यक् यह बताया गया है कि मम्यक-दृष्टि का समस्त जान एवं आचार दर्शन शरुद किसी युग में आग्रहमुस्त दृष्टि से सत्यान्वेषण या भी सम्यक् रूप में परिणत हो जाता है। आत्मानुभूति का परिचायक था, वही आगे चलकर एक परम्परा इसी प्रसंग में सम्यग्दर्गी श्रमण के परीषहजय अर्थात् विशेष की मान्यताओं से बद्धमूल होने लगा। यद्यपि सूचकृतांग साधना मार्ग में सफलता तथा असम्यग्दर्शी धमण के परीषहमें भी हमें अन्य मतों की समगलोचना उपलब्ध होती है किन्तु के पराजय अर्थात् साधना के क्षेत्र में विफलता की चर्चा की गई है। समालोचनाएँ मूलत: या तो एकांतिक और अयुक्तिसंगत मान्य- पुनः सम्यक्त्व-पराक्रम अर्थात् सम्यवस्व साधना के अंगों की ताओं के प्रति है, या फिर शिथिलाचारी या स्वच्छद प्रवृत्ति के उत्तराध्ययन सूत्र के २६ अध्याय के आधार पर चर्चा की गई लिए हैं । जहाँ सुत्रकृताग में मुख्यतया पंचमहाभूतवादी, ईश्वर- है। इसके साथ ही संवेग, निर्वेद आदि की चर्चा भी की गई है। कर्तृत्ववादी, लात्माद्वैतवादी, नियतिवादी आदि अवधारणाओं इसमें चार प्रकार की श्रद्धा और सम्यक्त्व के पांच अतिचारों की समालोचना प्रस्तुत की गई है, वहाँ आचारांग में आत्मवाद, का भी विशद विवेचन उपलब्ध है। इसी प्रसंग में अनुस्रोत और
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आचारांग १/५/३/१४६ । वही १/३/४/१-४
२ सूत्रकृतांग १/१/२/२३ । ४ ऋषिभाषितः एक अध्ययन (डा. सागरमत जैन). १७-१८