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४२ { चरणानुयोग : प्रस्तावना व्यक्ति की दृष्टि या श्रद्धा सम्यक् बनती है। क्योंकि दर्शनाचार विशुद्धि का आधार है। पुनः अनासक्ति का तत्व वैराग्य और का तात्पर्य है, व्यक्ति को मिथ्या मान्यताओं से छुटकारा दिला- पापकर्म से विरति का कारण बनता है, क्योंकि आसक्ति या राग कर सम्यक् मान्यताओं के प्रति सुरिथर करना ।
का तत्व ही हमें संसार से जोड़ता है और अशुभाचरण का कारण जैन परम्परा में अयथार्थ गान्यताओं के रूप में मिथ्या दर्शन होता है। की चर्चा करते हुए विपरीत मान्यताओं के साथ-साथ आग्रह किन्तु इन सबके अतिरिक्त जैन चिन्तकों ने सम्यक् दर्शन की अभिनिवेश, एकांत आदि को भी मिथ्यात्व की कोटि में माना उपलब्धि के लिये क्रोध, अहंकार (मान), कपटवृत्ति (माया) गया है । वस्तुत: जैनदर्शन सत्य को अपने सम्पूर्ण रूप में देखने और लोभ के तीनतम आवेगों अर्थात् अनन्तानुबंधी कषायों का का प्रयत्न करता है। यद्यपि वा करदारता है की "गंज- जावावयम् गाना है । जब तक इन तीव्रतम कषावों का धर्मात्मक वस्तु" के सम्पूर्ण पक्षों का बोध सीमित मानवीय ज्ञान उपशमन नहीं होता है तब तक सम्यक्-दर्शन की उपलब्धि और के द्वारा सम्भव नहीं है। अत: अपने ज्ञान की सीमाओं को उसका टिकाव सम्भव नहीं होता है। जानते हुए, दूसरे दृष्टिकोणों या सम्भावनाओं को पूर्णतः असत्य अत: दर्शनाचार की साधना का अर्थ है सदैव ही यह प्रयत्न कहकर नहीं नकारना; यथार्थ या सम्यक् पृष्टिकोण का आवश्यक करना था सजगता रखना कि कषायों या वासनाओं के आवेश अंग माना गया है । यह स्पष्ट है कि ऐकांतिक दृष्टिकोण या हमारी अन्तरात्मा की आवाज या मात्मानुभूति को दवा न लें। हमारे पूर्वाग्रह मथवा दुरभिनिवेश, सत्व को समझने में बाधक किन्तु प्रत्येक साधक के लिए यह सम्भव नहीं होता है कि वह होते हैं अतः सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के लिये आवश्यक यह है अपने दृष्टिकोण को पूर्वाग्नहों, राग-द्वेषजन्य दुरभिनिवेशों एवं कि व्यक्ति अपने को दुरभिनिवेश और पूर्वाग्रहों से मुक्त रखे। कषायों के तीयतम आवेगों से मुक्त कर सकें। जैन धर्म में पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त ने भी इस तथ्य की विशेष रूप से साधना का मुख्य लक्ष्य वीतराग-दशा या समस्ख (सामायिक) चर्चा की है । क्यों कि जब तक व्यक्ति दुराग्रहों से और पूर्वाभि- की उपलब्धि माना गया है। अतः यदि हम सम्यक दर्शन का निवेश से मुक्त नहीं होता तब तक दृष्टि निर्मल नहीं होती और अर्थ रागद्वेप से ऊपर उठकर वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने जब तक दृष्टि निर्मल नहीं होती तब तक बह सत्य को यथार्थ के लिए वीतराग इष्टि की प्राप्ति को माने तो स्वाभाविक रूप रूप में नहीं समझ पाता। जब तक व्यक्ति की दृष्टि पर राम से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसी बीत राग दृष्टि वा निर्माण और द्वेष रूपी रंगीन चश्मा चढ़ा हुआ है, वह पूर्वाग्रह और तो साधना के अन्त में होता है। जबकि सम्यक् दर्शन को साधना दुरभिनिवेशों से मुक्त नहीं है, तब तक उसके लिये सत्य का का प्रारम्भिक एवं आवश्यक चरण माना गया है। इस समस्या दर्शन सम्भव नहीं है । अतः दर्शन-विशुद्धि के लिए अपने पूर्वाग्रह के समाधान के लिए जैन आचार्यों ने यह व्यवस्था दी कि जब और दुरभिनिवेश को छोड़ना होगा।
तक व्यक्ति स्वयं दुगग्रहों और दुरभिनिवेश से मुक्त होकर वीतजैनागमों और विशेष रूप से सूत्रकृतांग में उन ऐकांतिक राग जीवन-दृष्टि को उपलब्ध नहीं कर पाया है तब तक उसके मिथ्या धारणाओं का उल्लेख है जिन्हें मुख्यल: त्रियाबाद, अक्रिया- लिये यही उचित है कि वह वीतराग के वचनों के प्रति आस्तिक्यबाद, अज्ञानवाद और विनयवाद से वर्गीकृत किया गया है किन्तु बुद्धि या श्रद्धाभाव रखे । रोगी को रोग से मुक्त होने के लिए इसके अतिरिक्त ईश्वरक्तृत्ववाद, एकत्ववाद, अण्ठं से सुष्टि दो ही विकल्प होते हैं, या तो वह स्वयं अपनी बीमारी को की उत्पत्ति, नियतिवाद, भौतिकवाद या भोगवाद आदि का भी समझ कर और उसके निराकरण का प्रयत्ल करे। किन्तु यदि उल्लेख एवं खण्डन जैनागभों में देखा जाता है। सम्यक्-दर्जन के वह स्वयं इम क्षेत्र में अपने को असमर्थ अनुभव करता है तो जिन पांच लक्षणों की चर्चा हमें जैन आगम साहित्य में मिलती उसके लिए वैद्य का सहारा लेना, उराके आदेगों को मानना है उनमें समस्त का स्थान पहला है । समभाव, अनासक्ति, पाप- और तदनुरूा व्यवहार करना अत्यावश्यक होता है। यही बात कर्मों के प्रति भव, दूसरे प्राणियों को आत्मवत् समझकर उनके आध्यात्मिक सन्दर्भ में भी है । या तो व्यक्ति स्वयं अपनी आध्याप्रति घसा ही व्यवहार करना जैसा कि अपने प्रति चाहते हैं त्मिक विकृतियों को या अपूर्णताओं को समझे और उन्हें स्वयं और वास्तिक्य या श्रद्धा ये पांच गम्या दर्शन के लक्षण गाने ही दूर करने का प्रयत्न करे । आध्यात्मिक विकृति से यहाँ हमारा गये हैं। इनमें भी समत्व और अनासक्ति प्रमुख तत्व है, समत्य तात्पर्य राग-द्वेष और कषायों से मुक्त होना है। यदि व्यक्ति से प्राणियों को आत्मवत् मानने का बोध उत्पन्न होता है, जो इतना समर्थ नहीं है कि वह सजग होकर अपनी वासनात्मक अनुकम्पा का कारण बनता है, साथ ही समत्व की साधना से वृत्तियों या चित्त को विकृतियों को देख सके और उनसे अपर सांसारिक अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में नित की अवि- उठ गके, तो उसके लिए दूसरा उपाय यही है कि प्रबुद्ध-आत्माओं चलता बनी रहती है। यही वास्तविक रूप में दृष्टिकोण वो के उपदेशों को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके तदनुरूप साधना करे।