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सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ४१ विस्तृत उल्लेख प्रस्तुत चरणानुयोग ग्रन्थ में हुआ है। अतः इस निराकरण तभी सम्भव है, जबकि व्यक्ति उन्हें सस रूप में भूमिका में हम इमकी विशेष चर्चा नहीं करेंगे । जहाँ तक स्वा- जाने । जो व्यक्ति अपनी बीमारी और विकृति को जानता है ध्याय के स्वरूप का प्रश्न है यह एक विचारणीय प्रश्न है। वही चिकित्सा के माध्यम से उसका निवारण कर सकता है। सामान्यतया स्वाध्याय के निम्न पांच अंग माने गये हैं- अतः स्त्र के अध्ययन का तात्पर्य है व्यक्ति अपनी मनोदशाओं
(१) वाचना--मूल ग्रन्थ एवं उसके अर्थ का पठन-पाठन। और वृत्तियों को जानकर उनका निराकरण करे। जैनागमों में
(२) पुच्छाना--प्रन्थ के पठन में उपस्थित शंकाओं का समा- इस आत्मा के अध्ययन को स्वाध्याय नहीं कह कर ध्यान कहा घान प्राप्त करना।
गया है जो स्वाध्याय बाद को जस्का है। स्वाध्याम को (३) परिवर्तनो-पठित ग्रन्थों की भावृत्ति करना या उनका आत्मज्ञान, चित्त की एकाग्रता (ध्यान) आदि का साधन माना है पुनः पठम करना।
और आत्मानुभूति की प्रक्रिया को ध्यान कहा है। (४) अनुप्रेक्षा-पठित विषयों के सम्बन्ध में विशेष रूप से हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि चाहे शास्त्र का अध्ययन चिन्तन करना । स्वाध्याय का यह पक्ष चिन्तन या विमर्श की हो या अपनी वृत्तियों और वासनाओं का अध्ययन । सभी का महता को स्पष्ट करता है।
__लक्ष्य हमारे मनोविकारों और बासनाओं का परिशोधन है और (५) धर्मकथा-प्रवचन वरना या उपदेश देना । वस्तुत: आत्म-शोधन की इस प्रक्रिया में ज्ञान मात्र "शान" न रहकर स्वाध्याय का यह अंग इस बात का संकेत करता है कि प्राप्त "ज्ञानाचार" बन जाता है। जान का वितरण भी जान-साधना का एक आवश्यक अंग है। जैनाचार्यों ने इन तथ्यों की विस्तारपूर्वक चर्चा की है कि
किन्तु मेरी दृष्टि में यह सब स्वाध्याय का एक बाह्य रूप दोन व्यक्ति शिक्षा प्रदान करने के अयोग्य है। बहत कल्पसूत्र ही है। जैनों की पारम्परिक शब्दावली में रमे द्रव्य-स्वाध्याय (४/६) में नपुंसक (पण्डक), कामुक (वालिक) और क्लीय (हीन भी कह सकते हैं । स्वाध्याय का वास्तविक अर्थ क्या है? वह भावना से ग्रसित पक्ति) को शिक्षा प्रदान करने के अयोग्य स्वयं तो उस शब्द की व्युत्पत्ति में ही छिपा हुआ है। स्वाध्याय कहा गया है । उत्तराध्ययन सूत्र (११/५) में उन कारणों का सब्द स्व+अध्याय से बना है । अध्याय' शब्द अध्ययन, पठन एवं भी विश्लेषण किया गया है जिनकी उपस्थिति में ज्ञान प्राप्ति ममन का याचक है। यदि इस दृष्टि से हम इसका अर्थ करें तो सम्भव नहीं है । वे कारण पाच माने गये हैं--(१) मान (अहंकार), इसका एक अर्थ हो "स्व" अर्थात् स्वयं का अध्ययन । यहाँ (२) कोध, (३) प्रमाद (अनुत्साह), (४) रोग और (५) यह प्रमन स्वाभाविक रूप से उठता है कि स्त्रयं के अध्ययन से आलस्य । इस प्रकार जैनागमों में ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया के क्या तासायं और माधना के क्षेत्र में इगको क्या उपयोगिता है ? रूप में ज्ञानावार का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । ज्ञाना"आत्मानं विद्धि" यह उपनिषदों का महत्वपूर्ण उद्घोष है। चार वस्तुतः, ज्ञान का प्रयोगात्मक या व्यावहारिक पक्ष है । वह जैन परम्परा में आचारांग आत्मज्ञान की प्राथमिकता को प्रति- ज्ञानोपलब्धि की प्रक्रिया है। पादित करता है। "के अहं आसी" "मैं कौन है" यह उपनिषदों वर्शनाचार और जैन आगमों का मूल हार्द है, किन्तु हमें यह स्पष्ट रूप से जिस प्रकार ज्ञान को एक आचार अर्थात् साधना की एक समझ लेना चाहिए कि वह अमूर्त आरम तत्व जो समस्त ज्ञान विशेष प्रक्रिया माना गया है उसी प्रकार दर्शन को भी मानना प्रक्रिया का माधा' है. वह ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा की एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया है । जैमा कि हम सकता, जो ज्ञान का विषय बन सकती हैं वे हैं व्यक्ति की अनु- पूर्व में संकेत कर चुके हैं जैन परम्परा में वर्णन शब्द ऐन्द्रिक भूतियाँ और भावनाएँ। व्यक्ति अपनी अनुभूतियों, बनियों, अनुभूति. आध्यात्मिक अनुभूति, आरनमाक्षात्कार, दृष्टिकोणवासनाओं और मनोदशाओं का ज्ञाता हो सकता है। इनका विशेष, दार्शनिक-सिद्धांत-विशेष, शनिक अथवा तत्वमीमांसीय माता होना या इनको जानने का प्रयत्न करना ही स्वाध्याय का अवधारणाओं के प्रति आस्था, तवा देव, गुरु, धर्म के प्रति मूल अर्थ है । स्वाध्याय का तात्पर्य है अपने अन्दर झांकना, व आस्था. इन विविध अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। किन्तु जब हम की वृत्तियों और वासनाओं को देगना, अपनी मनोदशाओं को दर्शन शब्द का प्रयोग दर्शनाचार के रूप में करते हैं तो यहाँ पढ़ना । जहाँ तक जैन साधना का प्रश्न हैं आभारांग' में साधक हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया विशेष या साधना विशेष से होता हैं को बार-बार यह कहा जाला है कि तू देख या दृष्टा बन । जिसके द्वारा व्यक्ति सम्यक-दृष्टिकोण को प्राप्त करता है। अतः निश्चित रूप से आध्यात्मिक विकास के लिए यह बहुत आवश्यक हमें दर्शनाचार की विवेचना करते हुए सर्वप्रथम उन तयो पर है कि व्यक्ति अपनी वासनाओं, मनोवृत्तियों और मनोभावों को विचार करना होगा, जिनके द्वारा अक्ति का वष्टिकोण दुषित जाने क्योंकि दुर्वासनाओं और दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का होता है और फिर उन तथ्यों पर विचार करना होगा, जिससे