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४० | धरणानुयोग : प्रस्तावना दायित्व बोध को भी स्पष्ट किया गया है। इसी प्रसंग में उत्तरा- जाये हुए स्वर और व्यञ्जन का अन्यथा उच्चारण नहीं करना ध्ययन ११वें अध्याय के आधार पर कौन व्यक्ति श्रद्धा के योग्य मही व्यंजनाचार है, क्योंकि उच्चारणभेद से पाठभेद और पाठबहुश्रुत हो सकता है, इसकी विवेचना की गई है। उसराध्ययन भेद होने से अर्थभेद होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः के प्रथम एवं ग्यारहवें अध्याय में वया दशकालिक के नवें उस युग में जब सम्पूर्ण ज्ञान श्रुत-परम्परा से संचित रहता था अध्याय में बिनीत-अविनीत लक्षणों की विस्तृत पचा है। इसी तब व्यंजनाचार का अपने आप में महत्वपूर्ण स्थान था। वस्तुतः प्रकार सुयोग्य शिष्य को कैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, इस यह ग्रन्थ के मूलपाट को यथावत् सुरक्षित रखने की एक शैक्षिक प्रसंग में दशाश्रुतस्कन्ध में ३३ आशतनाओं का उल्लेख है। प्रणाली थी, जो कि आगम पाठों को यथावत् एवं प्रामाणिक अनुयोगकर्ता ने इन सभी तथ्यों को प्रस्तुत कुति में संकलित कर बनाये रखने के लिए आवश्यक थी। दिया है।
इसी प्रकार आगम में आये हुए प्रत्येक शब्द का उसके उपधानाचार
सन्दर्भ के अनुकूल सही अर्थ करना अर्थाचार है। सामान्यतया जैन परम्परा में शान साधना को तप साधना के साथ घोड़ा प्रत्येक भाषा में और विशेष रूप से प्राकृत भाषा में एक ही शब्द गया है, जिसे उनकी पारम्परिक भाषा में उपधान कहा जाता विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे-"सुह" शब्द "सुख" है। प्राचीन काल से ही हमें इस तथ्य के संकेत उपलब्ध होते हैं और "शुभ" दोनों का वाचक है या "सत्य" शब्द शास्त्र और कि किस आगम का अध्ययन करते समय शिष्य को किस प्रकार शस्त्र दोनों का वाचक है । अतः आगमिक पाठों के अर्थ निर्धारण का तप करना चाहिए । इस प्रकार जहाँ एक ओर जैनाचार्यों ने करने में प्रमाणिकता को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक ज्ञान-साधना और तप-साधना को परस्पर जोड़ा है वहाँ आगम माना गया कि अध्ययन में शुद्ध उच्चारण और सम्यक अर्थ का साहित्य में ऐसे भी प्रसंग हैं जहाँ नवदीक्षित एवं अध्ययनशील प्रतिपादन आवश्यक है। शब्द के उच्चारण और अर्थ निर्धारण शिष्य के लिए कठोर एवं दीर्घकालिक तपों का निरोध किया की संयुक्त प्रक्रिया तदुभयावार कही जाती है। गया है।
ज्ञानार्जन के क्षेत्र में और उसके प्रतिपादन के क्षेत्र में किस अनिन्हवाचार
प्रकार की सावधानी अपेक्षित है इसकी चर्चा सूत्रकृतांग में उपअनिन्हवाचार का सामान्य अर्थ है कि सत्य सिद्धांत और लब्ध होती है। उसमें कहा गया है कि शास्ता के प्रति श्रद्धा अपने विद्या-गुरु के नाम को छिपाना नहीं चाहिये । सामान्यतया रखते हुये श्रमण को न तो आयम का अन्यथा उच्चारण करना व्यक्ति अपने आप को बहुश्रुत या विद्वान सिद्ध करने के लिए चाहिये और न आगम के अर्थ को छिपाना या दूषित करना अपने ज्ञानदाता गुरुजनों की उपेक्षा करता है और उनका नामादि चाहिये । गुम से जिस प्रकार सूत्रार्थ की व्याख्या सुनी है उसे नहीं बताता है । यह प्रसंग विशेष रूप से उस समय उपस्थित गुरु के निर्देशपूर्वका यावत प्रतिपादन करना चाहिए। क्योंकि होता है जब शिष्य और गुरु में मतभेद उपस्थित हो जाता है सूत्र के अशुद्ध उच्चारण से अर्थभेद होता है। अर्थभेद से क्रिया
और वह अपने गुरु से पृथक होकर और स्वयं अपने ही नाग से भेद होता है, क्रियाभेद से सम्यक् आचार के अभाव में निर्जरा सिद्धांत का प्रचार करता है। निन्हव शब्द का अर्थ सत्य को नही होती और निर्जरा के नहीं होने से मोक्ष भी नहीं होता। छिपाना है । अनेक बार व्यक्ति सत्य को जानते हुए भी अपनी इस प्रकार आगम-पाठ फी उच्चारण-शुद्धता और उनके प्रसंगाचारित्रिक कमजोरियों के कारण या अपनी सुविधा के लिए उसे नुसार सम्यक् अर्थ का प्रतिपादन ज्ञानार्जन प्रक्रिया की एक आखतोड़-मरोड़कर व्याख्यायित करता है। इस प्रकार की प्रवृत्ति श्यक शर्त है । सामान्यतया सुविधावाद शिथिलाचारी व्यक्तियों में पायी जाती है। स्वाध्याय वस्तुतः अनिन्हवाचार का तात्पर्य यही है कि व्यक्ति को अपने जैन परम्परा में स्वाध्याय को जान-साधना का अनिवार्य अहंकार के पोषण के लिये अथवा अपनी कमजोरियों को छिपाने अंग माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में मुनि की दैनिक चर्या के लिये सत्य को विकृत नहीं करना चाहिये। वस्तुतः यह एक मा विवेचन करते हुये दिन और रात्रि के आठ पहरों में पार प्रकार से ज्ञान के क्षेत्र में प्रामाणिक बने रहने की शिक्षा है। प्रहर स्वाध्याय के लिए, दो प्रहर ध्यान के लिए एक प्रहर शारीजैनधर्म में आगम-पाठों को अपनी सुविधा के लिए तोड़-मरोड़ रिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और एक प्रहर निद्रा के कर व्याख्या करना समीचीन नहीं माना गया है।
लिए निश्चित किया गया है। इससे जैन साधना के क्षेत्र में व्यंजनाचार, अर्याचार और उपयाचार
जान की उपासना का कितना महत्वपूर्ण स्थान है, यह स्पष्ट हो व्यञ्जनाचार का तात्पर्य शब्दों के उच्चारण की शुद्धता को जाता है। जैन आगमों में और परवर्ती ग्रन्यो में स्वाध्याय के बनाये रखना है । यह पाठ-शुद्धि की साधना है। आगम ग्रन्थों में लिए अनुपयुक्त काल और स्थान की भी चर्चा की गई है, जिसका