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सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ४३
यही साधना के क्षेत्र में श्रद्धा या आस्तिवय-बुद्धि का स्थान होता चार की चर्चा के संग में उसके विविध रूपों की विस्तृत चर्चा है । यही दर्शनाचार है।
यहाँ सम्भव नहीं है। फिर भी हम यदि ऐतिहासिक विकास की तस्वार्थ सूत्र में सम्यक-दर्शन के दो रूप माने गवे हैं (१) दृष्टि से विचार करें तो जैन धर्म में सम्यक्-दर्शन शब्द के अर्थ निसर्गज और (२) अभिगमन ।' इसी को उत्तराध्ययन सूत्र में का जो विकास हुआ है उसमें आने चलकर सत्य की अनुभूति निसर्गचि-सम्यक्त्य और उपदेशरुचि-सम्यक्त्व कहार ध्यालायित अथवा पूर्वाग्रहों से मुक्त दुष्टि की अपेक्षा क्रमशः आस्था और किया गया है। निसनचि सम्यक्त्व का मतलब है कि विना श्रद्धा का तत्व प्रधान होता गया और अन्त में यह देव, गुरु और परोपदेश के स्वयं ही अपनी कषायों और वासनाओं की मन्दता धर्म या शारत्र के प्रति श्रद्धा का वानक बन गया, किन्तु प्रारम्भ के कारण सत्य का यथार्थ रूप में दर्शन कर लेना । व्यक्ति के में वह स्थिति नहीं थी, दर्शन शब्द आत्मानुभूति या द्रष्टाभाव जीवन में कभी-कभी ऐसे अवसर उपलब्ध हो जाते हैं जब स्वा- का बावक था। उसके पश्चात भी सम्पद दर्शन में श्रद्धा का भाविक रूप से ही उसकी कषायों और बासनाओं का आवेग कम स्थान होते हुए भी वह श्रद्धा तात्विक मान्यताओं के सन्दर्भ में हो जाता है और व्यक्ति सत्य का दर्शन या अनुभूति करने लगता थी; व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं। है। वह अपनी कषायों की तरतमता के आधार पर निश्चित प्राचीन ग्रन्थों में गात्मा के अस्तित्व, आत्मा की नित्यता, रूप से अपनी आरिमक विकृतियों या कमजोरियों को जान लेता आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व, आत्मा की मुक्ति की सम्भावना है। इसे एक अन्य उदाहरण से इस प्रकार समझा जा सकता है और मुक्ति के मार्ग को स्वीकार करना ही सम्यन् दर्शन माना एक पाण्डुरोग से ग्रस्त व्यक्ति रक्त में पीलेपन की मात्रा के गया; किन्तु जब हम आपमों में सम्यक्-दर्शन के आठ अंगों और सरतमता के कारण जद वह जान लेता है कि उसकी दृष्टि में पांच अतिचारों की चर्चा को देखते हैं तो निश्चित ही हमें धार्मिक कहीं दोष है, तो वह उसकी चिकित्सा या निधारण का प्रयत्न वास्थाओं के प्रति श्रद्धा को दृढ़ करने के प्रयल दिखाई देते हैं। करता है । किन्तु सभी लोगों में इतनी वैचारिक परिपक्यता नहीं इसी प्रसंग में उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यक्त्व के आठ प्रभावना होती है कि वे अपनी विकृतियों को सम्यक् प्रकार से जान भी अंगों को चर्चा हुई है। यहाँ प्रभावना का तात्पर्य लोगों को जिन नहीं पाते हैं । उनके लिए यही उचित होता है कि वे चिकित्सक धर्म के प्रति आकर्षित करना और उसमें उनकी श्रद्धा को दूर की रालाह मानें और तदनुरूप अपनी बीमारी को दूर करने का बनाना है । यह आठ प्रभावना अंग निम्न हैं:प्रयत्न करें।
(१) जिन प्रवचन के प्रति सन्देह से रहित होना। उसराध्ययन सूत्र में सम्यक्त्व के प्रकारों के सन्दर्भ में दस (२) फलाकांक्षा अथवा अन्य धर्म और दर्शन की आकांक्षा प्रकार की सम्यक्त्व रुनि का विवरण मिलता है। हमने यहाँ से रहित होना। उनमें से केवल दो निसर्ग रुचि और उपदेश रुचि का विवेचन (३) जिनधर्म के प्रति आलोचक दृष्टि का अभाव । किया है। उपदेश शचि का तात्पर्य है दूसरों के माध्यम से सत्य (४) मूर्खतापूर्ण अन्ध विश्वासों से मुक्ति । के स्वरूप को सुनकर आस्था या विश्वास रखना । इन कचियों में (२) अपनी श्रद्धा को सबल बनाने का प्रयत्न । आज्ञारुचि, क्रियारुचि भी महत्वपूर्ण है। वरिष्ठजनों की अथवा (६) धर्म मार्ग से विचलित लोगों को पुनः स्थिर करना। वीतराग की आज्ञा के पालन को ही धर्म साधना का सर्वस्व' (७) स्वधर्मी बन्धुओं के प्रति पात्सत्य भाव अर्थात् उनके समझना यही आज्ञा-रुचि-सम्यक्त्व है । इसी प्रकार अभिगम-रुचि सुख-दुःस में सहभागी बनना । सम्यक्त्व का तात्पर्य है बुद्धि पूर्वक सत्य को समझकर उस पर () जिनधर्म की प्रभावना या प्रसार का प्रयत्न करना। श्रद्धा करता।
इस प्रकार यहाँ हम स्पष्ट रूप से यह देखते हैं कि जहाँ इसी प्रकार जिस व्यक्ति की रुचि और आस्था का केन्द्र सम्यक्-दर्शन के मूल में पूर्वाग्रहों से रहित और समभाव से युक्त धार्मिक विधि-विधानों या धार्मिक त्रिया-काण्डों का सम्पादन होने या साक्षी भाव में स्थित रहने की बात मुख्य थी। वहीं होता है उसे क्रियारूचि सम्पत्व कहा जाता है। इनमें हम देखते आगे चलकर धार्मिक अभिनिवेश और आस्था की पुष्टि के प्रयल है कि जहाँ निसगरुचि और अभिगम रचि में समक्षपूर्वक आस्था प्रमुख होते गये 1 वर्शन आत्म-दर्शन से तत्वदर्शन और फिर होती है वहाँ उपदेशरुचि, आशारुचि और क्रिया-रचि में विवेक श्रद्धाभाव बग गया। के स्थान पर आस्था का पक्ष अधिक महत्वपूर्ण होता है । दर्शना- इसी प्रकार जब दर्शन के पांच अतिचारों की वर्षा हुई तो
१ तत्वार्य. १/३ । ३ उत्तराध्ययन २८, गा.१६-२७ ।
२ उत्तराध्ययन २०१६, स्वानांग २/१/५६ । ४ उत्तराध्ययन २८/३१ ।