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प्रायश्चित्त और दण्ड
छेदसूत्र प्रायश्चित्तसूत्र है। प्रायश्चित्त का अर्थ है पाप का विशोधन करना । पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम प्रायश्चित्त है। अपराध 'प्रायः' कहलाता है और 'चित्त' का अर्थ शोधन है, जिस प्रक्रिया से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है । प्राकृत भाषा में प्रायश्चित्त के लिए "पायच्छित्त" शब्द पाया है। 'पाय' का अर्थ 'पाप' है। जो पाप का छेदन करता है वह 'पायच्छित्त' है। साधक छद्मस्थ है, इसलिए ज्ञात और अज्ञात रूप में उससे भूल हो जाती है । पाप उसके जीवन में लग जाते हैं। भूल होना जितना बुरा नहीं है, उतना बुरा है भूल को भूल न समझना । भूल को भूल समझकर उसकी शुद्धि के लिए प्रयास करना और भविष्य में पुन: उस प्रकार का दोष न लगे, उसके लिए दृढ़संकल्प करना तथा भूल की शुद्धि के लिए जो प्रक्रिया है, वह प्रायश्चित्त है।
प्रायश्चित्त और दण्ड में अन्तर है। प्रायश्चित्त में साधक अपने दोष को अपनी इच्छा से प्रकट कर उसे स्वीकार करता है। प्रमादवश यदि दोष लग गया है तो वह साधक उस दोष को गुरुजनों के समक्ष प्रकट कर देता है और उनसे प्रायश्चित्त प्रदान करने के लिए प्रार्थना करता है । गुरुजन उस दोष से मुक्त होने के लिए विधि बताते हैं। इसके विपरीत व्यक्ति स्वयं दण्ड को अपनी इच्छा से नहीं किन्तु विवशता से स्वीकार करता है। उसके मन में दुष्कृत्य के प्रति किसी भी प्रकार की ग्लानि नहीं होती। अपराधी अपराध को स्वेच्छा से नहीं किन्तु दूसरों के भय से स्वीकार करता है। इस तरह दण्ड ऊपर से थोपा जाता है, किन्तु प्रायश्चित्त अन्तर्हदय से स्वीकार किया जाता है। इसी कारण राजनीति में दण्ड का विधान है तो धर्मनीति में प्रायश्चित्त का विधान है।
जिसका अन्तर्मानस सरल हो, जो पापभीरु हो, जिसके हृदय में आत्म-शुद्धि की तीव्र भावना हो उसी के मन में प्रायश्चित्त लेने की भावना जागृत होती है। यदि मन में माया का साम्राज्य होगा तो प्रायश्चित्त से शुद्धिकरण नहीं हो सकता । भूलें अनेक प्रकार की होती हैं। कितनी ही भूलें सामान्य होती हैं और कितनी ही असाधारण होती हैं। सामान्य भूलें भी देश-काल और परिस्थिति के कारण असामान्य हो जाती हैं । अतः सभी प्रकार की भूलों का प्रायश्चित्त एक-सा नहीं होता। भूलों और परिस्थितियों के अनुसार प्रायश्चित्त के भी विविध प्रकार बताये गए हैं।
स्थानांग, निशीय, बृहत्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प प्रभृति ग्रन्थों में विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख है। समवायांग आदि में प्रायश्चित्त के प्रकारों का उल्लेख है तो निशीथ आदि आगमों में प्रायश्चित्त योग्य अपराधों का भी विस्तार से निरूपण है। बृहत्कल्पभाष्य, निशीथभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूणि, जीतकल्पभाष्य आदि में प्रायश्चित्त सम्बन्धी विविध सिद्धान्त और समस्याओं का सटीक विवेचन है । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार, जयधवला तथा तत्त्वार्थसूत्र की टीकायों में प्रायश्चित्त के विविध प्रकार प्रतिपादित हैं। सभी प्रकार के प्रायश्चित्तों का समावेश दस प्रकार के प्रायश्चित्तों में हो जाता है।'-(१) पालोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) उभय, (४) विवेक, (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल, (९) अनवस्थाप्य और (१०) पारांचिक । मूलाचार में प्रथम आठ नाम ये ही हैं, किन्तु अनवस्थाप्य के स्थान पर परिहार और पारांचिक के स्थान पर श्रद्धान शब्द व्यवहृत हुया है। तत्त्वार्थसूत्र में पारांचिक प्रायश्चित्त का उल्लेख नहीं है, उसमें मूल नामक प्रायश्चित्त के स्थान पर उपस्थापन और अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के स्थान पर परिहार-प्रायश्चित्त का उल्लेख किया है। स्थानांग और जीत
१. (क) स्थानांग १०७३
(ख) जीतकल्प सूत्र ४ (ग) धवला १३१५, २३१६३।१
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