Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयबोधिनी टीका पद ११ सु० ६ जीवमाषकनिरूपणम् एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते जीवा भाषका अपि, अभाषका अपि, नैरयिकाः खलु भदन्त ! किं भाषकाः, अभाषकाः ? गौतम ! नैरयिका भाषका अपि, अभाषका अपि. तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिका भाषका अपि, अभापका अपि ? गौतम ! नैरयिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकाश्च, अपर्याप्तकाश्च । तत्र खलु ये ते अपर्याप्तकास्ते खलु अभाषकाः तत्र खलु ये ते पर्याप्तकास्ते खलु भापकाः, तत् एतेनार्थेन गौतन ! एवमुच्यते-नैरयिका भाषका अपि, अभाषका अपि, एवम् एकेन्द्रियवर्जानां निरन्तरं भणितव्यम् ॥ सू० ६ ॥ अपज्जत्तगा ते णं अभासगा) इन में जो अपर्याप्त हैं, वे अभाषक हैं 'तत्थ णं जे ते पजत्तगा ते गं भासगा) उनमें जो पर्याप्तक हैं, वे भाषक हैं (से एएणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-जीवा भासगा वि, अभासगा वि) इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा है कि जीव भाषक भी होते हैं, अभाषक भी होते हैं। _ (नेरइया णं भंते ! किं भासगा, अभासगा?) हे भगवन् ! नारक क्या भाषक हैं या अभाषक ? (गोयमा ! नेरइया भासगा वि, अभासगा वि) हे गौतम ! नारक भाषक भी हैं, अभाषक भो (से केणढे भंते ! एवं बुच्चइ-नेरइया भासगा वि, अभासगा वि) किस हेतु से हे भगवन् ! ऐसा कहा है कि नारक भाषक भी हैं, अभाषक भी हैं (गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम ! नारक दो प्रकार के कहे गए हैं (तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य) वे इस प्रकार-पर्याप्त और अपर्याप्त (तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा) उनमें जो अपर्याप्त हैं (ते णं अभासगा) वे अभाषक हैं (तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा तेणं भासगा) उनमें जो पर्याप्त हैं, वे भाषक हैं (से एएणढे णं गोयमा! एवं वुच्चइ-नेरइया भासगा वि, अभासगा वि) इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नारक भाषक भी हैं, अभाषक अपर्यास (तत्थणं जे ते अपज्जत्तगा तेणं अभासगा) तमामा र मयता छ, तया मा५४ छ (तत्थणं जे ते पज्जत्तगा ते णं भासगा) तेममा रेपति छ, तमे। भाष छ (से एएणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जीवा भासगा वि, अभासगा वि) मे હેતુથી હે ગૌતમ! એવું કહ્યું છે કે જીવ ભાષક પણ હોય છે, આભાષક પણ હોય છે
(नेरइयाणं भंते ! किं भासगा अभासगा?) 8 लावन् ! ना२४ शुला५४ छे मार मा५४ छ ? (गोयमा ! नेरइया भासगा वि, अभासगा वि) गौतम ! ना२४ भाष४ ५५५ छ, समा५४ ५४ छे (से केणठेणं भंते ! एव बुच्चइ-नेरइया भासगा वि, अभासगा वि) ॥ उतुथी मान ! ये युं छे , ना२४ मा५ ५५ छ, मला पशु छ (गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता) गौतम! ना२४ मे ४२॥ ४॥ छ (तं जहा पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य) ते मा प्रारे-यात अने. २५५र्यात (तत्थणं जे ते अपज्जत्तगा) तमामाथी रेमा अपर्याप्त छ (ते णं अभासगा) तेसो अमाप छ (से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-नेरइया भासगा वि, अभासगा वि) मे तुथी हे गौतम ! मे छे , ना२४
श्री प्रशान। सूत्र : 3