Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रज्ञापनामुत्रे
पञ्चदशं पदम्
मूलम् - संठाणे बाहल्लं पोहतं कइपएसओगाढे । अप्पा बहुपुटुपविट्ठ विसय अणगार आहारे ||१|| अदा य असी य मणीदुद्धपाणे तेल्लफाणिय वसाय । कंबलथूणा थिग्गल दीवोदही लोगऽलोगे य ॥२॥
छाया - संस्थानं, बाहल्यं, पृथुत्वं, कतिप्रदेशम्, अवगाढम् । अल्पबहुत्वं स्पृष्टम्, प्रविष्टम्, विषयः, अनगारः, आहारः || १ || आदर्श:, असिश्च मणिदुग्धम्, पानकम्, तैलम्, फाणितम् वसा च । कम्बलम् स्थूणा, थिग्गलम्, द्वीपोदधि, लोकः अलोकश्च ||२|
टीका- चतुर्दशपदे कषायपरिणामस्य प्राधान्येन बन्धकारणताद् विशेषतस्तनिरूपणं कृतम् अथ इन्द्रियवतामेव श्यादि सद्भावेन विशेषत इन्द्रियपरिणामप्ररूपणार्थ पञ्चदशं पदं व्याख्यातुमाह- अत्र च उद्देशक द्वयमस्ति तत्र प्रथमोदेशकार्थसंग्रहगाथा द्वयमाह - 'संठाणं पन्द्रहवां पद
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शब्दार्थ - ( संठाणे) संस्थान ( बाहल्ले) स्थूलता ( पोहतं) पृथक्त्व (कइपएस) कतिप्रदेश- इन्द्रियों के प्रदेश कितने ? (ओगाढे) अवगाढ (अप्पाघहु) अल्पवहुत्व (पु) पृष्ट ( पट्ठि) प्रविष्ट (विसय) विषय (अणगार) अनगार (आहारे) आहार (अद्दाय) दर्पण (असी य) और तलवार (मणी) मणि (दुद्ध) दूध (पाणे) पानक (तेल्ल) तैल (फाणिय) शव (वसाय) और चर्बी (कंबल ) कंबल (धूणा) थून (थिग्गल) थेगली (दीवोदहि) द्वीप,, समुद्र (लोगाऽलोगे य) लोक और अलोक
टीकार्थ- कषाय बन्धन का प्रधान कारण है, अतः चौदहवें पद में उसका विशेष रूप से निरूपण किया गया है, परन्तु इन्द्रियों वाले जीवों में ही लेइया आदि का सद्भाव होता है, अतः विशेष रूप से इन्द्रिय परिणाम की प्ररूपणा करने के लिए पन्द्रहवें पद की व्याख्या की जाती है। इस पद में दो उद्देशक
પંદરમું પદ
शब्दार्थ - (संठाणे) संस्थान ( बाहल्ले) स्थूणता ( पाहतं) पृथ४त्व ( कइपएस) प्रतिप्रदेश धन्द्रियोना प्रदेश डेटला ? (ओगाढे) अवगाढ (अप्पा बहु) मह महुत्व (पुट्ठ) स्पृष्ठ (पत्रिट्ठ) प्रविष्ट (विसय) विषय (अणगार) अनगार ( आहारे) आहार (अद्दाय) हर्ष (असीय) तलपार (मणी) भणि (दुद्ध) दूध (पाणे) पान४ (तेल्ल) तेस (फाणिय) शम (वसाय) ने थर्मा (कंबल ) अंगण (थूणा ) थून (थिमाल) थीगडी (दोवोदहि) द्वीप, समुद्र (लोगाऽलोगे य) લેક અને અલાક
ટીકા કષાય બન્યનું પ્રધાન કારણ છે. તેથી ચૌદમા પદ્મમાં તેનુ વિશેષ રૂપે નિરૂપણ કરાયું છે, પરન્તુ ઈન્દ્રિયા વાળા જીવામા જ લૈયા વિગેરેને સદ્ભાવ હાય છે, તેથી વિશેષ રૂપથી ઈન્દ્રિય પરિણમની પ્રરૂપણા કરવાને માટે પંદરમા પદની વ્યાખ્યા કરાય છે
श्री प्रज्ञापना सूत्र : 3