Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्त्रे यथा सलेश्याः यावत्पदेन क्रोधमानमायाकषारिनो संग्रहः तथाचते सर्वेऽपि सलेक्यवदेव क्रियावादिनो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका क्रियादि समवसरण. जयचन्तस्तु भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति । 'अफसाई जहा सम्पट्टिी' अक्षायिनो यथा सम्यग्दृष्टयः सम्यग्दृष्टिवदेव भवसिद्धिका नो अभयसिद्धिका भवन्तीति भावः। 'सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा' सयोगिनो यावत् काययोमिनश्च यथा सलेश्याः, यावत्पदेन मनोयोगिनो बचोयोगिनत्र संग्रहः तथा च सयोगित आरभ्य काययोगिपर्यन्ताः सर्वेऽपि सलेश्ययदेव क्रियावादिनो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका अक्रियावादि प्रमृतय खयेऽपि भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति भावः । 'अजोगी जहा सम्मट्टिी' अयोगिनो यथा सम्यग्दृष्टयः सम्यग्दृष्टि बद् अयोगिनो भवसिद्धिका पावत् शन्द से क्रोध, मान, माया कषायवालों का ग्रहण हुआ है। तथा-अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी एवं वैनयिकवादी अवस्था में ये सब भवसिद्धिक ही होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । 'अक. साई जहा सम्म दिट्ठी' अकषायवाले जीव सम्यग्दृष्टि जीवों के जैसे भवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्ता' सयोगी यावत् काययोगी सलेश्य जीवों के जैसे क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक ही होते हैं अभयसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां यावत्पद से 'मनोयोगी और बचोयोगी' इनका ग्रहण हुआ है। तथा ये सयोगी से लेकर यावत् काययोगी तक के समस्त जीव अक्रियावादी अवस्था में अज्ञानिकवादी अवस्था में भव. मिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। 'अजोगी जहा અભવસિદ્ધિક હોતા નથી. અહિયાં યાસ્પદથી કોધ, માન, માયા, એ કષા વાળાઓ ગ્રહણ કરાયા છે. તથા ક્રિયાવ દી, અજ્ઞાનવાદી, અને વૈયિકવાદી અવસ્થામાં આ બધા ભવસિદ્ધિક જ હોય છે. અભવસિદ્ધિક હોતા નથી 'अकसाई जहा सम्मदिद्रि' साया वे सभ्यलिटवाणा वाना अयन प्रमाणे भासद्धि डाय छे. मससिद्धि डाता नयी. 'सजोगी कायजोगी जहा सलेस्सा' सयोगी यापाययोगवाजा सखेश्य वाना थन પ્રમાણે ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક જ હોય છે. અભવસિદ્ધિક હતા નથી અહિયાં યાવ૫દથી મને યોગવાળા, અને વચન યોગવાળા ગ્રહણ કરાયા છે. તથા આ સગીથી લઈને કાયયેગવાળા સુધીના સઘળા જીવે અછિયાવાદી અવસ્થામાં અજ્ઞાનવાદી અવસ્થામાં અને વનયિકવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક પણ હોય છે, અને અભવસિદ્ધિક પણ હોય છે,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭