Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
२४४
भगवतीसत्रे जीवानामपि पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदेन द्वैविध्यं ज्ञातव्यमिति । ‘एवं आउकाइया वि चउक्कएणं भेएणं भाणियवा' एवं-पृथिवीकायिकवदेव, अप्कायिका अपि चतुष्केण भेदेन भणितव्या। सूक्ष्मवादरपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदात् 'एवं जाव-वणस्सइकाइया' एवं यावद् वनस्पतिकायिकाः, अत्र यावत्पदेन तेजस्कापिक-वायुकायिकयोः संग्रहो भवति । तथा च-पृथिव्य. एकायिकययोर्यथा चत्वारो भेदाः कथिताः तथैव-तेजस्कायिकादारभ्य वनसतिकायिकान्तैकेन्द्रियजीवानामपि सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्तात्मकाश्चत्वारो भेदा ज्ञातव्या इति । अथ कर्मप्रकृतिविषयकं सूत्रमाह-'अपज्जत्त' इत्यादि, 'अपज्जत्त मुडुमपुढवीकाइयाणं भंते' अपर्यापसूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! 'कइ कम्मपगडीओ पनत्ताओ' कति कर्मपकृतयः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। 'एवं आउक्काइया वि चउक्कएण भेएणं भाणियधा' पृथिवीकायिक के जैसे अप्कायिक भी सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से चार प्रकार के कहे गये जानना चाहिये । 'एवं जाव वणस्सइकाइया' इसी प्रकार से यावत् वनस्पतिकायिक भी सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चार प्रकार के कहे गये जानना चाहिये यावत्पद से तेजस्कायिक और वायुकायिक इन दो का ग्रहण हुआ है । तथा च पृथिवीकायिक के जिस प्रकार से चार भेद कहे हैं उसी प्रकार से तेजस्कायिक से लेकर वनस्पतिकायिकान्त एकेन्द्रिय के भी चार चार भेद हैं ऐसा जानना चाहिये। ___ अपज्जत्त सुहुम पुढवी काइयाण मंते ! कहकम्म पगडी भो पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवों के कितनी
अपर्याप्सना मेथी मे १२॥ ४ा छे. 'एव आउक्काइया वि चउक्कएणं भेएणं भाणियव्वा' पृथ्वी4ि3यन प्रमाणे मयि ५६५ सूक्ष्म, मा४२, पयात અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચાર પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. તેમ સમજવું. 'एवं जाव वणस्सइकाइया' या प्रमाणे यावत वनस्पतिथि: ५५ सूक्ष्म બાદર પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચાર પ્રકારના કહ્યા છે. તેમ સમજવું. અહિયાં યાસ્પદથી તેજસ્કાયિક અને વાયુકાયિક એ બે ગ્રહણ કરાયા છે. તે આ પ્રમાણે–પૃથ્વીકાયિકના ચાર ભેદે જે રીતે બતાવ્યા છે. એ જ પ્રમાણે તેજસકાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધીના એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવના પણ ચાર ભેદ સમજવા.
'अपग्जत्त सुहुमपुढवीकाइयाण मंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नताओ' 3 ભગવન અપર્યાપ્તક સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિક જીને કેટલી કર્મ પ્રકૃતિ કહેવામાં
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭