Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवती सूत्रे
' एवं काउलेस्स भवसिद्धिय एगिदिएहि वि तहेव एक्कारस उद्देसगसंजुत्तं सयं' एवं पूर्ववदेव कापोतलेश्य भवसिद्धिक कृयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियैरपि तथैव पूर्ववदेव एकादशोदेशक संयुक्तं शतं भवति । एते जीवा कुत उत्पद्यन्ते ? इत्यादि प्रश्नोत्तरादिकं पूर्ववदेवोहनीयम् । 'एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धियसयाणि ' एवमेतानि चत्वारि भवसिद्धिकशतानि औधिक कृष्णनील कापोतलेश्याख्यानि चत्वारि भवन्ति 'चउ वि सरसु' चतुर्वपि शतकेषु सव्वे पाणा जाव उबवण पुच्चा ? नो इणडे समट्ठे' सर्वे माणा यावद् उत्पन्न पूर्वाः ? नायमर्थः समर्थः ।
टोकार्थ- ' एवं काउलेस्स भवसिद्धिय एगिदियहिं वि तहेव एक्कारस उद्देसगसंजुत्त सयं' इसी प्रकार से कापोतलेइयावाले भवसिद्धिक कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवों के साथ भी पहिले के जेसा ११ उद्देशकों वाला शत होता है । अतः ये जीव कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं इत्यादि प्रश्न और हे गौतम ! ये जीव तिर्यग्योनिकादिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं इत्यादि उतर पूर्वोक्त जैसा ही जानना चाहिये । 'एवं एवाणि चत्तारि भवसिद्धियसयाणि चउसु विसएस' इन औधिक, कृष्ण, नील और काशेत पावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय सम्बन्धी चार शतकों में 'सव्वे पाणा जाव उबवन्नपुव्वा, नो इट्टे समट्टे' समस्त प्राण यावत् समस्त सत्व पहिले उत्पन्न हो चुके हैं यह अर्थ समर्थित नहीं है ऐसा कहना चाहिये । क्यों कि ऐसे अभव्य एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं जो इस रूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं।
"माहमा खेडेन्द्रिय शतम्ना प्रारंभ-"
'एव' का उल्लेरस भवसिद्धियगिदिएहिं वि तहेव एक्कारस उद्देसग संजुत्तं खय' आ४ प्रमाथे प्रापोतश्यात्राणा अवसिद्धि युग्म द्रुतयुग्भ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવાની સાથે પણ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણેના ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાવાળુ શતક થાય છે. તેથી ‘જીવે કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? વિગેરે પ્રશ્નો અને હૈ ગૌતમ ! તે જીવાતિય ચર્ચાનિક વિગેરેમાંથી આવીને उत्पन्न थाय छे, विगेरे उत्तर पडेला उद्या प्रभावे समल बेना. 'एव' एयाणि चारि भवसिद्धिययाणि चउसु वि सपसु' औधि, उष्णु, नीस, भने त्योत वेश्यावाणा लवसिद्धिए डेन्द्रिय वा संबंधी यार शतप्रभां 'सव्वे पाणा जाव उववन्नपुव्वा, नो इणट्टे, समट्टे' सणा अथेो यावत् समणा सत्वा पहेल
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭