Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 744
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.२ राशियुग्मयोजनैरयिकोत्पत्तिः ७२१ भवन्ति किमिति प्रश्नः, उत्तरमाह-'णो इणढे समट्टे' नायमर्थः समर्थः ‘एवं कलिओगेण चि समं' एवमेव कल्योजेनापि सह प्रश्नं कृत्वा उतरणीयम् इति । 'सेसं तं चेव जाव वेमाणिया' शेषं तदेव यावद्वैमानिकाः ते खलु भदन्त ! जीवाः कुत उत्पधन्ते ? इत्यारभ्य वैमानिकपर्यन्तं प्रथमोद्देशकवदेव ज्ञातव्यमिति। 'नवरं उववाओ सम्वेसि जहा वक्तीए' नवरमुपपातः सर्वेषां यथा व्युत्कान्तौ प्रज्ञापनायाः षष्ठे पदे कथित स्तथै वेहापि ज्ञातव्य इति । 'सेव भंते । सेवं भंते! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । इति श्री - विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूषितबालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालतिविरचितायां "श्री भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां एकचत्वारिंशत्तमशतकस्य द्वितीयोद्देशका समाप्तः ॥४१॥२॥ उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । 'एच कलिओगेण वि सम' इसी प्रकार से कल्योज के साथ भी प्रश्न करके उत्तर कह लेना चाहिये । 'सेसं त चेव जाव वेमाणिया हे भदन्त ! ये जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? यहां से लेकर वैमानिकों तक जेसा प्रथम उद्देशक में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी कह लेना चाहिये । 'नवर उववाओ सम्वेसिं जहा वक्कंतीए' परन्तु उपपात के विषय में जैसा कथन प्रज्ञापना के દ્વાપરયુમ રૂપ હોય છે, તે વખતે શું તેઓ જરાશિ પ્રમાણ डराय छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'णो इण समढे' गौतम! मा अर्थ ५२।१२ नथी. 'एवं कलिओगेण वि सभ' मा प्रभार भयो। समयमा ५५ प्रश्न उपस्थित ने तन। उत्तर ४ नये. 'सेस त चेव जाव वेमाणिया' है मग म। ॥ ४॥ स्थान विशेषथी भावीन ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નથી લઈને વૈમાનિકે સુધી પહેલા ઉદેશામાં જે प्रमाणे हे छे. मे प्रमाणे महियां ५५ ४उवु नये. 'नवर' उववाओ सम्वेसिं जहा वतीए' ५२'तु पातना समयमा प्रज्ञापन सूत्रना छ। વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું કથન મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. એ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. 'सेव भंते ! सेव भते ! त्ति' है सावन मा५ हेवानुप्रिये या विषयमा જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન भ० ९१ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭

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