Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 734
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ उ. १ राशियुग्मनिरूपणम् ७११ 'जब नेरset as farवसेस' यथैव नैरयिकास्तथैव निरवशेषम् तिर्यग्भ्योमनुष्येभ्यो वा आगत्योत्पद्यन्ते इत्यादि सर्वे नैरयिक प्रकरणवदेवावगन्तव्यं नवरं नैरयिकस्थाने असुरकुमारेति पदं संयोज्य अलापको वक्तव्यः, आलापकारश्व स्वयमेव ऊहनीय इति । ' एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया' एवं नैरयिक देव यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यावत्पदेन असूरकुमारादारभ्य चतुरिन्द्रियान्तानां संग्रहस्तथा च एकेन्द्रियादारभ्य पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामुपपातादयः नारकवदेव ज्ञातव्याः | 'नवर' दणस्सइकाइया जान असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति' नवर - केवलं नारकप्रकरणापेक्षया इदमेव वैलक्षण्यं यद् वनस्पति अतिदेश द्वारा उत्तर देते हुए प्रभुश्री कहते हैं - ' जहेब नेरइया तब निरवसेस" हे गौतम! जैसा नैरयिकों के सम्बन्ध में कहा जा चुका है वैसा ही इनके सम्बन्ध में कहलेना चाहिये । इस प्रकार ये तिर्यग्योनिकों में से आकर के अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं इत्यादि समस्त प्रकरण यहां जानने का हो जाता है । आलापक की रचना करते समय नैरयिक के स्थान में असुरकुमार पद रखना चाहिये और आलाप प्रकार अपने आप समझ लेना चाहिये ' एवं ' जाब पबिंदिय तिरिक्ख जोणिया' इसी प्रकार से यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के भी उत्पाद आदि जानना चाहिये। यहां यावत् पद से 'एकेन्द्रिय नागकुमार से लेकर चौइन्द्रिय तक के जीवों का ग्रहण हुआ है। तथा च असुरकुमार से लेकर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का उत्पात आदि नारक के जैसा ही होता है । 'नवर' वणस्सइकाइया जात्र असखेजा वा अनंतावा उवबज्जंति' परन्तु वनस्पतिकायिक जीव यावत् असंख्यात अथवा अनंत દેશ દ્વારા આ પ્રશ્નના ઉત્તર આપતાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કરું છે કે' जहेव नेrइया तव निरवसेस' हे गौतम! नैरयिडाना संबंध में प्रमाणे કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ કથન આ રાશિયુગ્મ મૃત્યુગ્મ સુર કુમારેના સંબધમાં પણ સમજવું. આ રીતે તેએ તિય ચયાનિકામાંથી અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, વિગેરે સઘળુ પ્રકરણ અહિયાં સમજી લેવુ', આલાપકા કહેતી વખતે નૈયિકાના સ્થાને અસુકુમાર આ પદ મૂકીને આલાપક. કહેવા જોઈએ. આલાપ¥ાને પ્રકાર સ્વયં સમજી લેવે. ‘ä’ जब प'चिदियतिरिकखजोणिया मे प्रभा यावत् पथेन्द्रिय तिर्ययये निठाना ઉપપાત વિગેરે પણ સમજવા. અહિયાં યાવત પદ્મથી એકેન્દ્રિયાથી લઈને ચાર ઇન્દ્રિય સુધીના જીવા ગ્રહણ કરાયા છે. એટલે કે એકેન્દ્રિયાથી લઈને પચેન્દ્રિય તિય ચયેાનિકાને ઉષપાત વિગેરે નારકેાના કથન પ્રમાણે હાય છે. 'नवर वणस्स इकाइया जाव असं खेज्जा वा अनंता वा उजवनंति' परंतु શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭

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