Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवती सूत्रे पया रत्नप्रभा पृथिव्याश्रित नारकाणामुत्पादादिः कथितः तथैव शर्कराममाद्यधः सप्तमीपृथिवी पर्यन्ताश्रित भरसिद्धिक क्षुल्लक कृतयुग्मनारकाणामपि उत्पादादिप्रतिथ्य इति । एवं भवसिद्धिक खुड्डागतेयोग नेरश्यावि' एवं भवसिद्धिक शुल्लक कृतयुग्मनारकच देव भवसिद्धिक क्षुल्लययोजनारकाणामपि उत्पादादि ज्ञातव्य इति । ' एवं जाव कलिओ गत्ति' एवं यावत् कल्योज इति भवसिद्धिक शुल्क योजनारकव देव भवसिद्धिक् क्षुल्लक द्वापरयुग्मनारक भवसिद्धिय क्षुल्लककल्योजनारकयोरपि उत्पादादि इतिव्य इति । 'नवर' परिमाण' जाणियव्वं' नवर
से लेकर तमा पृथिवी नाम की ६ठी तक की पृथिवियों को ग्रहण हुआ है । तथा च- जैसा वयन र प्रभा पृथिवी के आश्रित नारकों के उत्पादादि के सम्बन्ध में किया गया है वैसा ही कथन शर्कराप्रभा से लेकर अधःसप्तमी पृथिवीयों के आश्रित क्षुल्लक कृतयुग्म राशि प्रमाण भवसिद्धिक नैरयिकों के उत्पाद आदि के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये । 'एवं भवसिद्धिक खुडाग तेयोग नेरइया वि' क्षुल्लक कृतयुग्म राशिप्रमित भवसिद्धिक नैरयिकों के जैसा ही क्षुद्र ज्योज राशिप्रमित भवसिधिक भी जानना चाहिये, अर्थात् उनके उत्पादादि जैसा ही इनका भी उत्पादादि कहना चाहिये । ' एवं ' जाव कलिओगत्ति' और ऐसा ही उत्पादादि का कथन यावत् क्षुद्रकल्पोज राशिप्रमित भवसिद्धिक नैरयिकों में भी करना चाहिये, यहां यावत् शब्द से क्षुद्र द्वापर युग्म राशिप्रमित भवसिदूधिक नैरयिकों का ग्रहण हुआ है। 'नवर' परि
છઠ્ઠી પૃથ્વી સુધીની પૃથ્વીયેા ગ્રહણ કરાઇ છે. તથા—જે પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના આશ્રય કરીને નારકેાના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબધમાં કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન શકરપ્રભાથી લઈને અધઃ સપ્તમી પૃથ્વી સુધીની પૃથ્વીચામાં રહેલા ક્ષુલ્લક મૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુ ભવસિદ્ધિક નૈરિયકા ना उत्पाद विगेरेना विषयभांप हेतु लेह मे. 'एवं भवसिद्धिक खुड्डाग योग नेरइया वि' क्षु कृतयुग्भ राशिप्रभा नैरयिोना अथन प्रमाणे જ ક્ષુદ્રઐાજ રાશિપ્રમાણ ભવસિદ્ધિક નૈરયિકેતુ' કથન પશુ સમજવુ'. અર્થાત્ તેના ઉત્પાત વિગેરે પ્રમાણે જ આમના ઉત્પાદ વિગેરે પણ સમજવા. ' एवं ' जाव कलिओग त्ति' भने या प्रभाषेनुं उत्पाद विगेरे संबंधी उथन યાવત્ ક્ષુદ્ર કલ્યાજ રાશિપ્રમાણ ભવસિદ્ધિક વૈકયિકન સબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ. અહિયાં યાવત્ શબ્દથી ક્ષુદ્ર દ્વાપર યુગ્મરાશિપ્રમાણુ ભવસિદ્ધિક नैरपि। श्रड्णु थयेस छे. 'नवर' परिमाण' जाणियव्व' परंतु मधे ४ लिन्न-लिन
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭