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आदिपुराणम्
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तरुशाखाग्रसंसक्त पर्याणादि परिच्छदान् । स्कन्धावाराद् बहिः कांश्चिदावासान् प्रभुरैक्षत ॥१३४॥ बहिर्निवेशमित्यादीन् विशेषान् स विलोकयन् । प्रवेशे शिविरस्यास्य महाद्वारमथासदत् ॥१३५॥ तदतीत्य समं सैन्यैः संगच्छन् किंचिदन्तरम् । महाब्धिसमनिर्घोषमाससाद वणिक्पथम् ॥ १३६ ॥ कृतोपशोभमाबद्धतोरणं चित्रकेतनम् । वणिग्भिरूडरत्नार्थं स जगाहे वणिक्पथम् ॥१३७॥ प्रत्यापणमसौ तत्र रत्नराशीन्निधीनिव । पश्यन् मेने निधीयत्तां प्रसिद्धचैव तथास्थिताम् ॥१३८॥ समौक्तिकं स्फुरद्रत्नं जनतोत्कलिकाकुलम् । रथा वणिक्पथाम्भोधिं पोता इव ललङ्घिरं ॥ १३९॥ चलदश्वीयकल्लोलैः स्फुरन्निस्त्रिशरोहितैः । राजमार्गोऽम्बुधेलीलां महेभमकरैरधात् ॥ १४०॥ राजन्यकेन संरुद्धः समन्तादानृपालयम् । तदासौ विपणीमार्गः सत्यं राजपथोऽभवत् ॥ १४१ ॥ ततः पर्यन्तविन्यस्त रत्नभासुरतोरणम् । रथकव्यां परिक्षेपकृतबाह्यपरिच्छदम् ॥१४२॥ आरुध्यमानमश्वीत्रैर्हास्तिकेनातिदुर्गमम् । बहुनागवनं " जुष्टं " कलभैश्च करेणुभिः ॥ १४३॥ छत्रषण्डकृतच्छायं महोद्यानमिव ववचित् । ववचित्सामन्तमण्डल्या रचितास्थानमण्डलम् ॥१४४॥
बनायी गयी थीं उन्हें देखकर महाराज भरतने अपने निष्कण्टक राज्य में ये ही काँटे हैं ऐसा माना था । भावार्थ भरत के राज्य में बाड़ी के काँटे छोड़कर और कोई काँटे अर्थात् शत्रु नहीं थे ।। १३३ ॥ जहाँपर वृक्षोंकी डालियोंके अग्र भागपर घोड़ोंके पलान आदि अनेक वस्तुएँ टॅगी हुई हैं और जो शिबिरके बाहर बने हुए हैं ऐसे कितने ही डेरे महाराज भरतने देखे ।। १३४ ।। इस प्रकार शिबिरके बाहर बनी हुई अनेक प्रकारकी विशेष वस्तुओं को देखते हुए महाराज शिबिर में प्रवेश करनेके लिए उसके बड़े दरवाजेपर जा पहुँचे ।। १३५ ।। बड़े दरवाजेको उल्लंघन कर सैनिकोंके साथ कुछ दूर और गये तथा जिसमें समुद्र के समान गम्भीर शब्द हो रहे हैं ऐसे बाजार में वे जा पहुँचे ।। १३६ ।। जिसकी बहुत अच्छी सजावट की गयी है जिसमें तोरण बँधे हुए हैं, अनेक प्रकारकी ध्वजाएँ फहरा रही हैं और व्यापारी लोग जिसमें रत्नोंका अर्घ लेकर खड़े हैं ऐसे उस बाजार में महाराजने प्रवेश किया ।। १३७ ॥ वहाँपर प्रत्येक दूकानपर निधियों के समान रत्नोंकी राशि देखते हुए महाराज भरतने माना था कि निधियोंकी संख्या प्रसिद्धि मात्र से ही निश्चित की गयी है । भावार्थ - प्रत्येक दूकानपर रत्नोंकी राशियाँ देखकर उन्होंने इस बातका निश्चय किया था कि निधियोंकी संख्या नौ है यह प्रसिद्धि मात्र है, वास्तव में वे असंख्यात हैं ।। १३८ ॥ जो मोतियोंसे सहित है, जिसमें अनेक रत्न देदीप्यमान हो रहे हैं और जो मनुष्योंके समूहरूपी लहरोंसे व्याप्त हो रहा है ऐसे उस बाजाररूपी समुद्रको रथोंने जहाज के समान पार किया था ।। १३९ ।। उस समय वह राजमार्ग चलते हुए घोड़ोंके समुदायरूपी लहरोंसे, चमकती हुई तलवाररूपी मछलियोंसे और बड़े-बड़े हाथीरूपी मगरोंसे ठीक समुद्रकी शोभा धारण कर रहा था || १४० ।। उस समय वह बाजारका रास्ता महाराजके तम्बू तक चारों ओरसे अनेक राजकुमारोंसे भरा हुआ था इसलिए वास्तवमें राजमार्ग हो रहा था ।। १४१ ॥ तदनन्तर जिसके समीप ही रत्नोंके देदीप्यमान तोरण लग रहे हैं, घेरकर रखे हुए रथोंके समूहसे जिसकी बाहरकी शोभा बढ़ रही है - जो घोड़ोंके समूहसे भरा हुआ है, हाथियोंके समूहसे जिसके भीतर जाना कठिन है, जो हाथियों की बड़ी भारी सेनासे सुशोभित है, हाथियोंके बच्चे और हथिनियोंसे भी भरा हुआ है । अनेक छत्रोंके समूहकी छाया होने से
१ पल्यनादिपरिकरान् । २ शिखरात् । ३ कटकाद् बहिः । ४ धृतरत्नार्घम् । ५ प्रमाणम् । ६. नवनिधिरूपेण स्थिताम् । तथास्थितान् ल० । ७. तरङ्गाकुलम् । ८. मत्स्यविशेषैः । ९. रथसमूहपरिवेष्टेन कृतबाह्यपरिकरम् । १०. ईषदसमाप्तनागवनम् । नागवनसदृशमिति यावत् । ११ सेवितम् ।