Book Title: Madhya Bharat Ke Jain Tirth
Author(s): Prakashchandra Jain
Publisher: Keladevi Sumtiprasad Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत के जैन तीर्थ प्रो. प्रकाश चन्द्र जैन Greeeeeeee Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य-भारत के जैन तीर्थ (तीर्थंकरों की जन्म-भूमियों के विवरण सहित) . लेखक प्रो. प्रकाश चन्द्र जैन प्रेरणा श्री दशरथ जैन (पूर्व मंत्री - मध्यप्रदेश शासन) केलादेवी सुमतिप्रसाद ट्रस्ट दिल्ली-110053 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक केलादेवी सुमतिप्रसाद ट्रस्ट बी-5/263, यमुना विहार, दिल्ली-110053 दूरभाष : (011)-20315155 © सर्वाधिकार सुरक्षित संस्करण : प्रथम, 2012 I.S.B.N. 81-85781-85-0 मुद्रण व्यवस्था एवं वितरण मेघ प्रकाशन 239, गली कुंजस, दरीबाकलां, चांदनी चौक, दिल्ली-110006 (भारत) दूरभाष : (011)-23278761, 9811532102 e-mail : megh_prakashan@rediffmail.com website : www.meghprakashan.com MADHYA BHARAT KE JAIN TIRTHA By Prof. Prakash Chandra Jain Rs.200/ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्राचीन (मूल) भारतीय संस्कृति को लोक परंपराओं, प्राचीन साहित्य एवं प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से तो समझा ही जा सकता है; किन्तु भारतीय कला कृतियों के माध्यम से इसे समझने में ज्यादा सुविधा होती है; क्योंकि कलाकृतियां हजारों वर्षों तक अपने को अपने मूल रूप में सुरक्षित रखने की सामर्थ्य रखती हैं। भारत में ये कलाकृतियां मंदिरों, मूर्तियों, चित्रों, मुद्राओं, शैलचित्रों, भित्तिचित्रों, किलों, महलों आदि के रूप में कुछ सीमा तक आज भी सुरक्षित हैं व देश में विपुलता में उपलब्ध हैं । प्राचीन भारतीय संस्कृति में जैन साहित्य, जैन धार्मिक ग्रंथों, जैन लोक परंपराओं व जैन कला कृतियों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। जैन कला कृतियों में जिन मंदिर, जिनबिम्ब, भित्तिचित्र, तैलचित्र आदि आते हैं; जो संपूर्ण भारत में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं । हिन्दू सांस्कृतिक विरासतों के साथ ही जैन सांस्कृतिक विरासतों को भी मुगल काल में काफी क्षति पहुँचाई गई; साथ ही हिन्दू एवं बौद्धों ने भी जैन सांस्कृतिक विरासतों को समय-समय पर हानि पहुँचाने का प्रयास किया है। अधिकांश इतिहासविदों ने भी प्राचीन जैन साहित्य, जैन संस्कृति की खोज; उसके वर्णन व महत्व के विषय में न्याय नहीं किया एवं उनको उचित स्थान न देते हुए उन पर समुचित प्रकाश नहीं डाला; यही कारण है कि भारतीय इतिहास में इनका विवरण नहीं के बराबर मिलता है; जबकि वास्तविकता यह है कि इस देश के संपूर्ण भागों में तो जैन सांस्कृतिक विरासतों के अनगिनत भंडार हैं ही; पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, चीन आदि एशियाई देशों में भी बड़ी संख्या में जैन संस्कृति के अनगिनत अवशेष चिह्न उपलब्ध हैं । ये सभी इस बात के प्रतीक हैं कि प्राचीन काल में जैनधर्म व जैन संस्कृति का प्रभाव दूर-दूर तक फैला हुआ था। ' इस पुस्तक में केवल बुंदेलखंड के जैन तीर्थ क्षेत्रों को ही छूने का प्रयास किया है। लेखक ने विशेषकर मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, दतिया, दमोह, सागर, जबलपुर, पन्ना, शिवपुरी, विदिशा, भोपाल व अशोक नगर जिलों तथा उत्तर प्रदेश के झांसी व ललितपुर जिलों में स्थित तीर्थ क्षेत्रों के संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । इन तीर्थ क्षेत्रों में हमें जैन सांस्कृतिक विरासतों के दर्शन तो होते ही हैं, साथ ही उनमें प्राचीन जैन मध्य-भारत के जैन तीर्थ 3. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक वैभव का ज्ञान होता है। इन क्षेत्रों की वंदना व दर्शन करने से हम अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासतों से तो परिचित होते ही हैं; हमें असीम मानसिक शान्ति का भी अनुभव होता है, पुण्य लाभ तो मिलता ही है, विभिन्न राजवंशों के समय जन्मी शिल्प-परंपराओं के भी दर्शन होते हैं। इस समग्र जैन सांस्कृतिक वैभव के विनिर्माण एवं दीर्घावधि तक उसको संरक्षित व संवर्धित करने का श्रेय अधिकांशतयः तत्कालीन जैन समाज को जाता है । मंदिरों में स्थित तैलचित्रों, भित्तिचित्रों आदि के माध्यम से भी हम अपनी प्राचीन विरासत से परिचित होते हैं । इन तीर्थ क्षेत्रों में वर्तमान में विद्यमान विपुल प्राचीन शास्त्र भंडारों का लाभ शोधार्थी प्राप्त कर सकते हैं । विद्वतजन व श्रमण तो इनसे लाभ लेते ही रहते हैं । ये तीर्थ क्षेत्र साधकों की साधना के दुर्लभ केन्द्र भी हैं। ये तीर्थ क्षेत्र पूर्व में या तो तीर्थंकरों की देशना स्थलियां रहीं हैं या यहां रहकर आचार्यों, उपाध्याओं, साधुओं व श्रावकों ने त्याग व तपस्या का मार्ग अपनाकर अपने जीवन को धन्य किया है। कुछ ने तो तीर्थ क्षेत्रों में रहकर ही मुक्ति लक्ष्मी का वरण किया है। इन तीर्थ क्षेत्रों में रहकर ही इन महापुरुषों ने संसार के सभी प्राणियों को मोक्ष मार्ग पर चलने को प्रेरित किया था। ये तीर्थ क्षेत्र आज भी परम सुख व शान्ति का मूक संदेश जन-जन तक पहुँचा रहे हैं व आस्था के प्रमुख केन्द्र बने हुए हैं । बुंदेलखंड के तीर्थ क्षेत्रों में सिद्धक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, देशना क्षेत्र, साधना क्षेत्र आदि हैं। अधिकांश जैन तीर्थ शहरों की भागमभाग व भीड़भरी जिंदगी से दूर, किन्तु प्राकृतिक परिवेश से परिपूर्ण शान्त व सुरम्य पर्वतों, नदी तटों, वन्य परिवेश व पर्वतीय लहटियों आदि में स्थित हैं । इन तीर्थ क्षेत्रों में यात्रियों व दर्शनार्थियों के लिए आधुनिक से आधुनिकतम सुविधाएं उपलब्ध हैं। यहां ठहरने, भोजन, परिवहन व संचार की सुविधाएं उपलब्ध हैं । श्रद्धालुओं को चाहिए कि वे निरन्तर इन तीर्थ क्षेत्रों की वंदना कर अपने जीवन को धन्य बनाते रहें व इन तीर्थ क्षेत्रों की पहचान को बनाये रखने के लिए यथाशक्ति दान देते रहें । 1 पुस्तक में कुछ तीर्थ क्षेत्रों के चित्र भी देने का प्रयास किया गया है। यात्रियों की सुविधा के लिए कुछ मानचित्र भी दिये गये हैं । तीर्थ क्षेत्रों पर उपलब्ध सुविधाओं की जानकारी देने का प्रयास भी किया गया है। पुस्तक के अंत में चौबीस तीर्थंकरों की जन्म भूमियों का वर्णन भी किया गया है; ताकि श्रद्धालु इन तीर्थों के दर्शनों की ओर अधिक से अधिक उन्मुख हों । प्रस्तुत पुस्तक के लेखन में 'मध्यप्रदेश के जैन तीर्थ क्षेत्र' पुस्तक का भी 4 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहारा लिया गया है; लेखक इस पुस्तक के लेखक व प्रकाशक के प्रति अपना आभार व्यक्त करता है। प्रस्तुत पुस्तक के लेखन में विभिन्न तीर्थ-क्षेत्रों से प्रकाशित होने वाले साहित्य को भी लेखक ने आधार बनाया है वहीं देवगढ़ तीर्थ-क्षेत्र के वर्णन में 'जैन कला तीर्थ देवगढ़' पुस्तक का सहारा भी लिया गया है। इस हेतु लेखक इनके लेखकों व प्रकाशकों का आभारी है। इसके अतिरिक्त लेखक ने इस पुस्तक में वही लिखा है; जो उसने इन तीर्थ-क्षेत्रों की वंदना कर स्वयं देखा तथा अनुभव किया है। लेखक अन्त में पाठकों से अनुरोध करता है कि उसको इतिहास, पुरातत्व व धार्मिक साहित्य का पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण इस कृति में त्रुटियां रह जाने की संभावना है। अस्तु मेरी प्रार्थना है कि सुधीजन इन्हें सुधारें व मुझे भी सूचित करें ताकि अगली आवृति में उन्हें संशोधित किया जा सके। मैं श्री दशरथ जी जैन, पूर्व मंत्री छतरपुर का हृदय से आभारी हूँ; जिनकी प्रेरणा व सुझावों से यह कृति आपके सम्मुख है। मैं श्रीमती चन्द्रप्रभा जैन व मेरी जीवन-सहचरी श्रीमती राजकुमारी जैन का भी हृदय से आभारी हूँ; जिन्होंने प्रूफ रीडिंग में सहयोग किया। अन्त में लेखक केलादेवी सुमतिप्रसाद ट्रस्ट दिल्ली का हार्दिक आभार व्यक्त करना अपना पुनीत कर्तव्य समझता है जिन्होंने बहुत सुन्दर रूप में पुस्तक का प्रकाशन किया है। जैन साहित्य के प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में ट्रस्ट का कार्य निश्चय ही अभिनंदनीय है। - प्रो. प्रकाश चन्द्र जैन नूतन बिहार कॉलोनी टीकमगढ़ (म.प्र.) मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 5 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोफेसर प्रकाश चन्द्र जैन : 4-11-1945, वामौरकलां (चंदेरी के पास), शिवपुरी (म.प्र.) : श्री रामदयाल जी जैन, माता : श्रीमती नंदनबाई जैन शिक्षा : एम.ए. (भूगोल)- 1967 ( जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर से प्रथम स्थान ) पूर्व पद : नायब तहसीलदार, गुना (म. प्र. ) प्राध्यापक भूगोल : जन्म पिता लेखक परिचय शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय टीकमगढ़ (म.प्र.) 1969-1984 शा. एम.जे.एस. महाविद्यालय भिण्ड (म.प्र.) 1984-2000 शा. महाराजा महाविद्यालय, छतरपुर (म. प्र. ) 2000-2007 एक दर्जन से अधिक राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में शोध-पत्र वाचन अनेक शोध पत्र प्रकाशित । प्रकाशित साहित्य श्री दशरथ जी जैन (छतरपुर) के साथ अंग्रेजी अनुवाद 1. शुद्धात्म तरंगणी - आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी 2. मदन पराजय - आचार्य श्री जिन नागदेव जी 3. इष्टोपदेश भाष्य - आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी 4. जेम्स ऑफ जैना विज्डम ( भाग 3, 4, 7 एवं 9) 5. तिलोयपण्णति (भाग 1, 2 एवं 3 ) - आचार्य श्रीयतिवृषभ जी स्वयं की कृतियां 1. विकसित व विकासशील देशों का तुलनात्मक अध्ययन (ब्राजील एवं अमेरिका) 2. जैन वाङ्मय में तीर्थंकर व अन्य महापुरुष 3. मध्य भारत के जैन तीर्थ 4. संक्षिप्त जैन रामायण 6■ मध्य- भारत के जैन तीर्थ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजय जैन (8 अक्टूबर 1970.....25 सितंबर 1998 ) यह पुस्तक उस महान आत्मा को समर्पित है, जिसने आंशिक विकलांगता होते हुए भी अल्पायु में ही गिरनार, शत्रुन्जय, पावागढ़, गजपंथा चूलगिरि, बड़वानी, चूलगिरि (जयपुर), मंदारगिरि जैसे दुरुह ( कठिन चढ़ाई वाले) तीर्थ क्षेत्रों की पैदल चलकर भाव पूर्वक श्रद्धा सहित वंदना की। जिसका मन हमेशा तीर्थ क्षेत्रों की वंदना हेतु उत्साहित रहता था व जिसने देश के प्रमुख पचास से अधिक जैन तीर्थों की वंदना की; जिनमें श्री सम्मेद शिखरजी, राजगृही, कुंडलपुर, पावापुर, चंपापुर, माउन्ट आबू, केशरियाजी, तारंगाहिल, महावीर जी, पदमपुरी जी आदि के साथ बुंदेलखंड व राजस्थान के अधिकांश क्षेत्र समाहित हैं । प्रकाश चन्द्र - राजकुमारी जैन (बामौन कलों वाले) हाल - नूतन बिहार कॉलोनी टीकमगढ़ (म. प्र. ) मध्य-भारत के जैन तीर्थ 7 · Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केलादेवी सुमतिप्रसाद ट्रस्ट लक्ष्य • प्रकृति पूजक प्राक्तन विज्ञान का लोकहित में प्रचार। • जीवन की विषमताओं से मुक्त होने के लिए आध्यात्मिक एवं तांत्रिक उपचारों का अनुसंधान, उपयोग और विकास। • साधना के भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों एवं परिणामों का अन्वेषण व परीक्षण। योजनाएं • काय-कष्टों और अभावों के निवारण के लिए आयुर्वेद, ज्योतिष व तंत्र की विधियों का समन्वित रूप निर्धारित करना तथा उसे परीक्षण सिद्ध बनाना। • बीज-रूप में ऐसे विद्यालयों की स्थापना, संचालन व सहयोग करना जो देशीय गौरव से अभिमंडित मानसिकता का निर्माण कर सकें, शिक्षा से अधिक संस्कार पर जोर दे सकें। • सुखाप्ति -जीवन में आ रही जटिल विषमताओं का तंत्र-मंत्र जैसी सूक्ष्मविधि से समाधान करने के अमोध उपाय ढूंढना और उसे प्रचारित करना। • आनंद प्राप्ति -वातावरण की विषमताओं से घिरे रहकर भी आनन्द के स्तोत्र को रुद्ध न होने दें। इसके लिए जप, सद्विचार प्रेरक गोष्ठियां, व्याख्यान मालाओं, सत्साहित्य-स्वाध्याय व सत्संग का आयोजन। सदस्यता स्तर • सामान्य : 5100 रु. • विशिष्ट : 21000 रु. • संरक्षक : 51000 रु. ट्रस्ट के संरक्षक सदस्यों के नाम ट्रस्ट की पत्रिका एवं प्रकाशनों में नियमित प्रकाशित किए जाते हैं। संरक्षक एवं विशिष्ट सदस्यों को ट्रस्ट के सभी प्रकाशन निःशुलक उपलब्ध कराये जाते हैं। सामान्य सदस्यों को पत्रिका निःशुल्क उपलब्ध होती है तथा प्रकाशन अर्द्धमूल्य में उपलब्ध कराये जाते हैं। सभी संरक्षकों, विशिष्ट सदस्यों, सामान्य सदस्यों का सचित्र परिचय पत्रिका के एक अंक में निःशुल्क प्रकाशित किया जाता है। व्यक्तिगत संपर्क सूत्र : आचार्य अशोक सहजानन्द बी-5/263, यमुना विहार, दिल्ली-110053 दूरभाष : 20315155, 9811532102 व्यक्तिगत सम्पर्क (पूर्व निर्धारित) : (शनिवार 12 बजे से 4 बजे तक) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका 1. तीर्थ-क्षेत्रों का वर्गीकरण 2. टीकमगढ़ जिले के तीर्थ-क्षेत्र - पपौरा अतिशय क्षेत्र - अहार सिद्धक्षेत्र - बंधा अतिशय क्षेत्र - नवागढ़ अतिशय क्षेत्र - बड़ागांव घसान (फलहोड़ी) 3. छतरपुर जिले के तीर्थ-क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र खजुराहो - सिद्ध क्षेत्र रेशंदीगिरि (नैनागिरि) - सिद्ध क्षेत्र द्रोणगिरि - अतिशय क्षेत्र पार्श्वगिरि (भगवा) 4. पन्ना जिले के तीर्थ-क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र श्रेयांसगिरि (सीरागिरि) - अतिशय क्षेत्र अजयगढ़ 5. दतिया जिले के तीर्थ-क्षेत्र - सिद्धक्षेत्र सोनागिरि - अतिशय क्षेत्र प्यावल 6. झांसी जिले के तीर्थ-क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र करगुआ (झांसी) - अतिशय क्षेत्र टोड़ी फतहपुर 7. ललितपुर जिले के तीर्थ-क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र सेरोन - अतिशय क्षेत्र बानपुर - अतिशय क्षेत्र मदनपुर - अतिशय क्षेत्र गिरार - कलातीर्थ देवगढ़ - सिद्धक्षेत्र पावागिरि (पवाजी) - अतिशय क्षेत्र चांदपुर 8. दमोह जिले के तीर्थ-क्षेत्र - कुंडलपुर 102 मध्य-भारत के जैन तीर्थ.9 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 116 119 121 10. 122 123 124 127 130 1. 9. सागर जिले के तीर्थ-क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र रहेली-पटनागंज - अतिशय क्षेत्र बीना वारहा 7 अतिशय क्षेत्र पजनारी - अतिशय क्षेत्र पटैरया जबलपुर जिले के तीर्थ-क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र पनागर - अतिशय क्षेत्र बहोरी बंद - अतिशय क्षेत्र मड़िया जी (जबलपुर) - सिद्धक्षेत्र कोनी जी (कुंडलगिरि) - अतिशय क्षेत्र त्रिपुरी शिवपुरी जिले के तीर्थ-क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र गोलाकोट - तुम्बवन (तुमैन) - अतिशय क्षेत्र पचराई 12. अशोकनगर जिले के तीर्थ-क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र थूबौन - अतिशय क्षेत्र चंदेरी एवं खंदार जी - अतिशय क्षेत्र गुरीलागिरि जी - अतिशय क्षेत्र बूड़ी चंदेरी आमनाचार भियादांत एवं वीठेला 13. विदिशा जिले के तीर्थ-क्षेत्र - भद्दलपुर (विदिशा), उदयपुर, पठारी, ग्यारसपुर 14. मध्यप्रदेश के अन्य तीर्थ-क्षेत्र 15. जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमियां 16. अहिच्छत्र पार्श्वनाथ (भगवान पार्श्वनाथ की केवल-ज्ञान भूमि) 17. तीर्थ-क्षेत्र जंबू स्वामी (मथुरा जी) 131 133 134 143 149 152 154 156 161 175 189 194 चित्र संकेत 1. देवगढ़ का शान्तिनाथ मंदिर (9वीं सदी) 2. पंचायतन शैली का सबसे प्राचीन मंदिर-देवगढ़ 3. शेषशैय्या विष्णुदशावतार मंदिर (6वीं सदी)-देवगढ़ 4. यक्षी लक्ष्मी-देवगढ़ 5. सैरोन (ललितपुर) के शान्तिनाथ 197 197 197 197 198 10- मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. अतिशय क्षेत्र गिरारगिरिजी (ललितपुर) 7. गिरारगिरि के आदिबाबा 8. श्रेयांस गिरि में अवस्थित आदिनाथ की प्राचीनतम प्रतिमा 9. बड़ागांव ( घसान) में विराजमान श्री आदिप्रभु 10. श्री सिद्धक्षेत्र फलहोडी बड़ा गांव 11. पटनागंज ( रहेली) के गगनचुम्बी जिनालय 12. सहस्त्रकूट चैत्यालय 13. सहस्त्रफर्णी पार्श्वनाथ 14. पपौराजी के भगवान आदिनाथ 15. द्रोणगिरि दर्शन अहार जी के शान्तिप्रभु 16. 17. सैरोन के पार्श्वप्रभु 18. कम्पिला जी के भगवान विमलनाथ चन्द्रप्रभ, चहारदीवारी, देवगढ़ ( 10वीं शती) 19. 20. अजितनाथ, चहारदीवारी, देवगढ़ ( 10वीं शती) 21. सरस्वती, देवगढ़ - 11वीं शती 22. लक्ष्मी, देवगढ़ - 11वीं शती 28. द्रोणगिरि के भगवान आदिनाथ भगवान विमलनाथ कॅपिला जी 25. सिद्धक्षेत्र पावागिरि 24. भगवान पार्श्वनाथ, जूडीतलैया, जबलपुर 26. 27. कुंडलपुर के बड़े बाबा 28. बीना जी बारहा के शान्तिनाथ 29. बीना जी बारहा के बड़े बाबा 30. पनारी ( बड़ा - सागर ) क्षेत्र स्थित प्रतिमाएं 31. कोनी जी के पार्श्वप्रभु 32. थूबौन जी 33. थूबौन जी के आदीश्वर महाराज 34. खंदारगिरि के आदिप्रभु 35. खंदारगिरि क्षेत्र स्थित प्रतिमाएं 36. उदयगिरि की गुफाएं 37. उदयगिरि गुफा क्रं.-20 में उत्कीर्ण चरणचिह्न एवं शिलालेख 38. भूगर्भ से प्राप्त प्राचीन प्रतिमायें- नैनगिरि 39. कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा - कुंडलपुर 198 198 199 199 199 200 200 200 201 201 202 202 202 203 203 204 204 205 205 206 207 208 209 209 209 210 210 211 211 211 212 212 213 213 मध्य-भारत के जैन तीर्थ 11 Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ क्षेत्रों का वर्गीकरण दर्शनं देव देवस्य दर्शनं पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्ग सोपानं दर्शनं मोक्षसाधनम् ।। प्राचीन भारतीय संस्कृति में जैन तीर्थ क्षेत्रों का अपना एक विशिष्ट महत्व है। बुंदेलखंड की पावन धरा पर अनेक प्राचीन तीर्थ क्षेत्र स्थित हैं; जो इस बात के प्रमाण हैं; कि इस क्षेत्र पर जैनधर्म का अधिक प्रभाव रहा है । इस धरा पर प्राचीनतम तीर्थ क्षेत्रों से लेकर नवीनतम तीर्थ क्षेत्र स्थित हैं। यहां सिद्धक्षेत्र भी हैं; अतिशय क्षेत्र भी हैं; साधना क्षेत्र भी हैं; और प्रभावना क्षेत्र भी हैं । बुंदेलखंड के अधिकांश जैन तीर्थ क्षेत्र शहरों के कोलाहलमय व भीड़-भरे वातावरण से दूर, सुरम्य व शान्त प्राकृतिक वातावरण में स्थित हैं; जहां पहुँचने मात्र से मन को अपूर्व शान्ति मिलती है। बुंदेलखंड को यदि हम तीर्थ क्षेत्रों की धरती कहें; तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इन तीर्थ क्षेत्रों की वंदना से हमें अलौकिक शान्ति का अनुभव तो होता ही है; हम विभिन्न उदारमना राजवंशों के काल में पनपी शिल्पकला से भी परिचित होते हैं । धर्मलाभ के साथ-साथ हमें ज्ञान लाभ भी प्राप्त होता है। बुंदेलखंड के तीर्थ क्षेत्रों को हम अनेक आधार पर वर्गीकृत कर सकते हैं। धार्मिक आधार पर हम इन तीर्थ क्षेत्रों को चार भागों में विभाजित कर सकते हैं। 1. सिद्धक्षेत्र : ये वे तीर्थ क्षेत्र हैं; जहां से भव्य - आत्माओं ने सांसारिक दुःखों व जन्म-मरण के चक्करों से हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा पाया और मोक्ष लक्ष्मी का वरण किया। इनमें ऐसे तीर्थ क्षेत्र भी सम्मिलित किये जाते हैं, जहां तीर्थंकरों के पांच कल्याणकों में से एक या उससे अधिक कल्याणक संपन्न हुए हैं तथा जहां से महामुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया है। ऐसे सिद्धक्षेत्रों में कुंडलपुर, द्रोणगिरि, नैनगिरि पावागिरि, सोनागिरि, अहारजी आदि प्रमुख हैं । 2. साधना क्षेत्र : ये वे तीर्थ क्षेत्र हैं; जहां रहकर आचार्यों, उपाध्यायों, साधुओं व श्रावकों ने साधना की व अपने जीवन को धन्य बनाया। इन तीर्थ क्षेत्रों में रहकर इन्होंने कठोर तप किये, घोर उपसर्ग सहे व अपने कर्मों के मल को दूर करने का प्रयास किया व जनहित में शास्त्रों आदि की रचनाएं कीं व जन-कल्याण तु धर्मोपदेश भी दिये। ऐसे तीर्थ क्षेत्रों में देवगढ़, सीरगिरि (श्रेयांस गिरि), सेरोन जी, द्रोणगिरि, बूढ़ी चंदेरी, गोलाकोट, पचराई आदि तीर्थ क्षेत्रों के नाम प्रमुखता से आते हैं। 3. अतिशय क्षेत्र : ये वे तीर्थ क्षेत्र हैं; जहां देवकृत अतिशय होते रहे हैं व कहीं-कहीं वर्तमान में भी होते हैं । इन तीर्थ क्षेत्रों में प्रायः धर्मावलम्बी अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति की इच्छा लेकर आते हैं; और उनकी मनोकामनाएं पूरी मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 13 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती भी हैं । ऐसे तीर्थ क्षेत्रों में पपौरा जी, बंधा जी, कोनी जी, पजनारी, मढ़िया जी, मदनपुर जी, बानपुर जी, थूबौन आदि प्रमुख हैं । 4. धर्म - प्रभावना क्षेत्र : ये वे तीर्थ क्षेत्र हैं; जहां तीर्थंकरों, केवलियों, आचार्यों, उपाध्यायों आदि महापुरुषों ने अपनी दिव्यध्वनि, देशना आदि के माध्यम से जनमानस को मुक्ति के मार्ग का उपदेश दिया। कुछ तीर्थ क्षेत्रों में तीर्थंकर के समवशरण भी आये; जहां समवशरण के मध्य में विराजमान हो उन्होंने समस्त जीवों के कल्याण हेतु धर्मोपदेश दिये। ऐसे तीर्थ क्षेत्रों में नैनागिरि (रशंदी गिरि), सोनागिरि, देवगढ़, कुंडलपुर प्रमुख हैं 1 यहां के तीर्थ-क्षेत्रों को हम भोगौलिक दृष्टि से भी कुछ भागों में विभाजित कर सकते हैं यथा 1. पर्वतों या पहाड़ियों पर स्थित तीर्थ क्षेत्र : ये तीर्थ क्षेत्र सुरम्य विंध्याचल की श्रृंखलाओं या उनकी चोटियों पर प्रशान्त प्राकृतिक वातावरण के बीच स्थित हैं; जहां कहीं-कहीं घने वन, प्राकृतिक झरने आदि भी देखने को मिलते हैं। ऐसे तीर्थ क्षेत्रों में कुंडलपुर, सोनागिरि, द्रोणगिरि, बड़ागांव धसान (फलहोड़ी), मढ़िया जी, देवगढ़ जी, गोलाकोट जी, सीरागिरि आदि प्रमुख हैं I 2. नदी तट स्थित तीर्थ क्षेत्र : बुंदेलखंड के कई तीर्थ क्षेत्र नदियों के तटीय भागों में सुंदर प्राकृतिक वातावरण में स्थित हैं। ऐसे तीर्थ क्षेत्रों में देवगढ़, द्रोणगिरि, थूबौन जी, पावागिरि, कोनी जी, गिरार जी, सेरोन जी अदि प्रमुख हैं । 3. पठारी पृष्ठभूमि के तीर्थ क्षेत्र : ऐसे तीर्थ क्षेत्र पठारों पर उच्च भूमि में स्थित हैं । उदाहरण स्वरूप थूबौन, चंदेरी, नैनागिरि, पचराई के नाम लिये जा सकते हैं। 4. पहाड़ों की तलहटी में स्थित तीर्थ क्षेत्र : ऐसे तीर्थ क्षेत्र पहाड़ों के नीचे तलहटी में स्थित है; जहां से मनोरम पर्वतीय दृश्य दिखलाई पड़ते हैं । मदनपुर जी, कोनी जी, अहार जी आदि तीर्थ क्षेत्र इस श्रेणी में आते हैं। 5. मैदानी तीर्थ क्षेत्र : ये तीर्थ क्षेत्र शहरों से दूर शान्त प्राकृतिक वातावरण में मैदानी समतल भूमि पर स्थित हैं । ऐसे तीर्थ क्षेत्र पपौरा जी, बंधा जी, सेरोन जी, खजुराहो, बानपुर जी, पटेरिया जी, पटनागंज जी, बीनावारा आदि हैं । 6. शहरी तीर्थ क्षेत्र : ये तीर्थ क्षेत्र नगरों में स्थित हैं। मढ़िया जी (जबलपुर), करगुआ जी (झांसी), शहरी तीर्थ - क्षेत्र हैं । 7. कला तीर्थ क्षेत्र : बुंदेलखंड के जैन तीर्थ क्षेत्रों में कतिपय तीर्थ क्षेत्र सारे विश्व में अपनी कलागत विशेषताओं के कारण विख्यात हैं। उदाहरण के लिए श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र खजुराहो व देवगढ़ का नामोल्लेख किया जा सकता है। खजुराहो विश्व विरासत के रूप में यूनेस्को के द्वारा स्वीकार किया जा चुका है और अपने कलात्मक सौन्दर्य के कारण विश्व के कोने-कोने से पर्यटक एवं तीर्थ-यात्री 14 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो आते हैं और वहां के मंदिरों की कला देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। देवगढ़ तो जैन कला का विश्व ज्ञान कोष जैसा है ऐसा स्थान अन्यत्र नहीं है। विश्व के कला मर्मज्ञ तथा तीर्थ यात्री यहां के जिनबिम्बों के अद्वितीय भंडार को देखकर न केवल प्रसन्न होते हैं, अपितु अपने ज्ञान-भंडार में भी वृद्धि करते हैं। इन बुंदेलखंड के जैन तीर्थों में अन्य तीर्थ-क्षेत्र, उदाहरणार्थ- वानपुर, थूबौन जी, चंदेरी सेरीनजी आदि को सम्मिलित किया जाना उचित है। बुंदेलखंड के तीर्थ-क्षेत्र प्राचीनतम भी हैं और नवीनतम भी। ऐतिहासिकता को ध्यान में रखते हुए बुंदलेखंड के तीर्थ-क्षेत्रों को हम निम्न श्रेणियों में भी वर्गीकृत कर सकते हैं। ___ 1. प्राचीनतम तीर्थ-क्षेत्र : ये वे तीर्थ-क्षेत्र हैं; जहां का जैन इतिहास व पुरासंपदा 5वीं सदी से भी पूर्व की है। सोनागिरि, नैनागिरि, द्रोणगिरि, कुंडलपुर, पावागिरि, सीरगिरि आदि प्राचीनतम तीर्थ-क्षेत्र हैं। 2. प्राचीन तीर्थ-क्षेत्र : ये तीर्थ-क्षेत्र 5वीं से 13वीं शताब्दी के मध्य के प्रतीत होते हैं। ऐसे तीर्थ-क्षेत्रों में देवगढ़ जी, सेरोन जी, पचराई जी, गोलाकोट जी, बूड़ी चंदेरी, अहार जी, पपौरा जी आदि आते हैं। 3. मध्य युगीन तीर्थ-क्षेत्र : मध्य युग के प्रमुख तीर्थ-क्षेत्रों में (जिनका अस्तित्व 14वीं से 19वीं शताब्दी तक है) चंदेरी जी, पजनारी जी, पटेरिया जी, पटनागंज के नाम प्रमुखता से आते हैं। 4. नवीन तीर्थ-क्षेत्र : ऐसे तीर्थ-क्षेत्र 20वीं सदी में अस्तित्व में आये। ऐसे तीर्थ-क्षेत्रों में मढ़िया जी प्रमुख हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 15 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थस्थलों का सड़क मार्ग किलोमिटर की दूरी सहित मार्ग दर्शन दशनीय स्थान रारते के शहर सड़क मार्ग - 16 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ बहाबीरजी लि . दफाra पशेरा कारा रामनाथवीनजीLTोकमपन न Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपौरा अतिशय क्षेत्र स्थिति एवं परिचय : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री पपौरा जी टीकमगढ़- सागर मार्ग पर मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिला मुख्यालय से मात्र 5 किमी. की दूरी पर स्थित है । यह तीर्थ क्षेत्र विशाल परकोटे के भीतर समतल जमीन पर स्थित है । दूर-दूर से यहां स्थित जिन-मंदिरों के शिखरों को देखा जा सकता है। यहां यात्रियों को ठहरने के लिए लगभग सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। यहां अनेक धर्मशालाएं, विद्यालय, सरस्वती सदन, आयुर्वेदिक औषधालय, भोजनालय, गोशाला आदि भी क्षेत्रान्तर्गत स्थित हैं। यहां के मंदिर विविध शैलियों के बने हुए हैं। वर्तमान में यहां 108 जिनालय हैं। यहां रथाकार, मुकलित कमलाकार, वरण्डा आकार, अट्टालिकाकार, मठ व मेरू आकार, गुफा मंदिर आदि आकारों के जिनालय हैं । तीर्थ क्षेत्र पर दो चौबीसी एवं मानस्तंभ की रचनाएं भी दर्शनीय हैं। मूर्तियों की भव्यता देखते ही बनती है। यात्री जहां क्षेत्र के परकोटे में स्थित मुख्य प्रवेश द्वार से क्षेत्र के अंदर प्रवेश करते हैं, उसके ऊपर स्थित रथाकार मंदिर दर्शकों को आकर्षित किये बिना नहीं रहता । यह तीर्थ क्षेत्र अतिप्राचीन है । वास्तव में यह स्थल रामायण कालीन प्रतीत होता है वाल्मीकि रामायण में पंपापुरी के सरोवर पर श्री राम का हनुमान जी के साथ भेंट का उल्लेख कुछ इस प्रकार है- “ पश्य लक्ष्मण पंपायां बकः परम धार्मिकः " । इस क्षेत्र के समीप स्थित वन का नाम रमन्ना है जो रामरण्य का अपभ्रंश प्रतीत होता है । यही पंपापुर आज का पपौरा जी है। यहां भोंयरे में स्थित एक काले पाषाण की जिन-प्रतिमा पर नीचे कोई प्रशस्ति नहीं है, पर उस मूर्ति की कला को देखकर यह मूर्ति चतुर्थ काल की प्रतीत होती है । क्षेत्र के अतिशय : 1. प्राचीन समुच्चय के बाहर जाने पर एक प्राचीन वावड़ी मिलती है किवदन्ती है कि इस वावड़ी से यात्रियों को भोजन बनाने के लिए इच्छानुसार बर्तन मिलते थे । यात्री भोजन बनाने के बाद बर्तनों को वापिस इस वावड़ी में डाल देते थे । किन्तु एक बार एक यात्री अपने साथ इन बर्तनों को ले गया, तभी से यह अतिशय समाप्त हो गया । 2. जिन मंदिरों के क्रम में प्रथम जिन मंदिर की नींव वि.सं. 1872 में एक वृद्धा अपनी जमा पूंजी से रख रही थी। इस अवसर पर उस वृद्धा ने एक प्रीतिभोज भी आयोजित किया था । प्रीतिभोज के दौरान अचानक पास में स्थित कुये में पानी समाप्त हो गया, जिससे कार्यक्रम में अफरा-तफरी मच गई। तभी वह वृद्धा एक चौकी पर बैठकर रस्सी के सहारे उस कुएं में मध्य-भारत के जैन, तीर्थ ■ 17 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतरकर भगवान से प्रार्थना करने लगी। फिर क्या था कुएं में पानी का स्त्रोत फूट निकला और वृद्धा की जय-जयकार होने लगी। उसकी लाज बच गई। तभी से इस कुएं को 'पतराखन' अर्थात् लाज रखने वाला कुआं कहते हैं। यह ईश्वरीय चमत्कार था। _____3. यहां प्राचीन मूल परिसर में स्थित जिन-प्रतिमाओं के दर्शन करने से लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। 4. प्राचीन परिसर स्थित सभामंडप के मंदिर में भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ की अतिप्राचीन प्रतिमायें विराजमान हैं जो खड़गासन मुद्रा में हैं। इकतरा बुखार (मलेरिया) आने पर इतवार व बुधवार के दिन जो भी श्रद्धालु इन प्रतिमाओं को तीन बार साष्टांग नमस्कार करता है, उसकी पीड़ा दूर होती है। 5. यहां स्थित मंदिर नं. 35 में आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व एक गर्भिणी शेरनी एक माह तक रुकी रही, किन्तु उसने कभी भी किसी भी श्रद्धालु को कोई हानि नहीं पहुंचाई। यह टीकमगढ़ व आसपास के गांव वालों की आंखों देखी घटना है। 6. प्राचीन भोयरे में एक नागराज निवास करते थे, जो प्रायः भोयरे के द्वार पर बैठे रहते थे। जब भी कोई दर्शनार्थी आता, वह एक तरफ हो जाता था। यह भी स्थानीय निवासियों की 20वीं शताब्दी के दिनों में आंखों देखी घटना है। 7. मंदिर क्रमांक 14 में स्थित अतिशयकारी भगवान पार्श्वनाथ की मनोहारी खड़गासन प्रतिमा विराजमान है। प्रातः, दोपहर, सांय इसे अलग-अलग रूपों में देखा जा सकता है। यहां आज लोग अपनी मन्नतें मांगते हैं। क्षेत्र स्थित जिनालय : पपौरा जी में चार मंदिरों के निर्माणकाल का सही-सही आंकलन नहीं किया जा सकता। यहां ईसा की 12वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक जिनालयों का निर्माण कार्य निरन्तर चलता रहा। यहां के 34 जिनालय बीसवीं सदी में बने हैं, जबकि 61 जिनालय 19वीं सदी में निर्मित हुए थे। एक जिनालय अठारहवीं सदी, 4 जिनालय 17वीं सदी, 3 जिनालय 15वीं सदी तथा एक-एक जिनालय क्रमशः 13वीं व 12वीं सदी के हैं। खण्ड 'अ' बायीं ओर कुल 20 जिनालय स्थित हैं। 1. इस जिन मंदिर में पाषाण निर्मित अत्यन्त मनोहारी लगभग 10 फीट ऊँची प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ (ऋषभनाथ) की खड़गासन प्रतिमा विराजमान है। दायें-बायें और भी मूर्तियां विराजमान हैं। मूलनायक की प्रतिमा सं. 1872 की है। मूलनायक के सिर पर छत्र और पीछे आभामंडल निर्मित है। प्रतिमा के ऊपरी भाग में दोनों ओर गगनगामी विद्याधर पुष्प 18 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृष्टि कर रहे हैं । चरणों के दोनों ओर चमरेन्द्र खड़े हैं। इनके नीचे चतुर्भुज गोमेद यक्ष व अष्टभुजी चक्रेश्वरी यक्षी स्थित हैं। बिल्कुल अधोभाग में दोनों ओर भक्तगण भी उत्कीर्ण हैं । 2. सं. 1883 में प्रतिष्ठित इस जिनालय में भगवान सुपार्श्वनाथ की पदमासन मूर्ति विराजमान है। इस मूर्ति की अवगाहना 1.5 फीट है। इस बीच एक-दो जिनालय और स्थित हैं; जिसमें अधिकांश अष्ट धातु की व प्राचीन मूर्तियां विराजमान हैं। 3. चन्द्रप्रभु जिनालय में सं. 1892 में प्रतिष्ठित भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा विराजमान है । यह मूर्ति पदमासन में स्थित है। प्रतिमा की अवगाहना दो फीट है। 4. श्री विमलनाथ जिनालय (निर्माण काल ) सं. 1882 । 5. श्री पार्श्वनाथ जिनालय (निर्माण काल ) सं. 1904 । 6. श्री पार्श्वनाथ जिनालय (निर्माण काल ) सं. 1890 । 7. श्री चन्द्रप्रभु जिनालय (निर्माण काल ) सं. 1552 | जिनालय क्रमांक 6 व 7 की रचना मेरू सदृश्य है, जिनमें दर्शनार्थियों को गोलाकार आकृति में सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाना होता है। 8. भगवान पार्श्वनाथ जिनालय सं. 1903 में निर्मित हैं। इस जिनालय में 3 फीट ऊँची पदमासन प्रतिमा विराजमान है । 9. भगवान चन्द्रप्रभु जिनालय सं. 1942 में निर्मित है व ऊपरी मंजिल पर स्थित है । यहां से लगभग 40-50 कदम की दूरी पर जिनालय क्रमांक 10 से लेकर जिनालय क्र. 14 स्थित हैं । जिनालय क्रमांक 10 में भगवान ऋषभनाथ वि. सं. 1942 क्रमांक 11 में भगवान नेमिनाथ वि.सं. 1939, जिनालय क्रमांक 12 में भगवान विमलनाथ वि.सं. 1906 की पदमासन प्रतिमायें विराजमान हैं । बायीं ओर का आखिरी जिनालय क्रमांक 13. है, जहां प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की लगभग 5 फीट ऊँची प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा वि. सं. 1718 में प्रतिष्ठित है । यहां से हम फिर वापिस आकर मंदिर क्रमांक 14 में प्रवेश करते हैं । यहां मनोहारी व अतिशयकारी भगवान पार्श्वनाथ की श्वेत संगमरमर से निर्मित लगभग 5 फीट ऊँची भव्य प्रतिमा विराजमान है । विभिन्न कालों में देखने पर यह प्रतिमा विभिन्न रूपों में देखी जा सकती है । सामान्यतः प्रातःकाल की वेला में यह बालरूप में, दोपहर की वेला में यह युवा रूप में व सायं की वेला में यह प्रौढ़ रूप में दिखाई देती है। यहां दर्शनार्थियों की मनोकामनायें पूर्ण होती देखी गई हैं । प्रतिमा के दोनों पार्श्व भागों में चमरेन्द्र सेवा कर रहे हैं । तत्पश्चात हम आगे बढ़ते हुए जिनालय क्रमांक 15 से लेकर जिनालय मध्य-भारत के जैन तीर्थ = 19 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक 20 तक के जिनबिम्बों के दर्शन करते हैं। ये सभी जिनबिम्ब वि.सं. 1870 से 1900 के बीच प्रतिष्ठित हैं । इनमें 15, 16 व 17वें जिनालय में भगवान ऋषभनाथ, 18वें में भगवान पार्श्वनाथ, 19वें में भगवान संभवनाथ व 20वें जिनालय में भगवान चन्द्रप्रभु की पदमासन प्रतिमाएं विराजमान हैं । इस तरह परिसर के बायीं ओर स्थित 20 जिनालयों में स्थित जिन - प्रतिमाओं के दर्शन पूर्ण हो जाते हैं । यहां से हम परिसर के दायीं ओर स्थित जिनालयों की वंदना को जाते हैं । दायीं ओर के जिनालयों की वंदना को जाते ही हमें पुनः एक लघु परिसर में प्रवेश करना होता है । इसे मूल क्षेत्र परिसर अथवा प्राचीन समुच्चय के नाम से जाना जाता है। इस परिसर में आठ जिनालय स्थित हैं, जो अतिप्राचीन हैं । जिनालय क्रमांक 21 में वि.सं. 1687 में स्थापित भगवान ऋषभनाथ की लगभग 5 फीट ऊँची खड़गासन प्रतिमा विराजमान है । यह प्रतिमा जिनालय क्रमांक 13 में स्थापित प्रतिमा के सदृश्य ही है, व पाषाण निर्मित है । प्रतिमा के पार्श्व भागों में चमरधारी इन्द्र स्थित हैं । इसी जिनालय में एक और कृष्ण पाधाण की लगभग 1.25 फीट ऊँची भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा भी विराजमान है । 1 22. इस जिनालय में वि.सं. 1716 में स्थापित भगवान नेमिनाथ की प्राचीन पदमासन मूर्ति विराजमान है । 23. जिनालय क्रमांक 23 एक प्राचीन भोंयरा है । इस तरह के भोंयरे पावागिरि, बंधाजी, करगुंआ जी आदि तीर्थ क्षेत्रों में भी बने हैं, जो लगभग एक हो समय में निर्मित हैं । इस भोंयरानुमा जिनालय में काले पाषाण में निर्मित भगवान आदिनाथ, भगवान चन्द्रप्रभु व भगवान केवली ( प्रतीक चिन्ह रहित ) के जिनबिम्ब पदमासन मुद्रा में विराजमान हैं । ये मूर्तियां वि. सं. 1202 या इससे पूर्व की हैं। इसी जिनालय में पीछे की दीवाल में भगवान महावीर स्वामी की छोटी खड़गासन प्रतिमा भी है । 24. जिनालय क्रमांक 24 में भगवान नेमिनाथजी की व 24 (ख) में प्राचीन खड़गासन जिन-प्रतिमा विराजमान हैं । यह प्रतिमा भगवान महावीर स्वामी की है। प्रतिमा के सिर के ऊपर तीन छत्र बने हैं। दोनों ओर ऊपर गंधर्व देव वाद्य यंत्र बजा रहे हैं । कुछ नीचे दोनों ओर हाथी पर अभिषेक कलश लिये सौधर्म व ईशान इन्द्र बैठे हैं । चरणों के दोनों ओर नृत्य मुद्रा में चांवर लिए इन्द्र खड़े हैं । अधोभाग में तीन सिंह बने हैं व भक्त श्राविकाएं हाथ जोड़े बैठी हैं 1 25. पार्श्वनाथ जिनालय वि. सं. 1875 । 26. प्राचीन सभामंडप में भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ तीर्थंकर भगवंतों की अतिप्राचीन खड़गासन प्रतिमायें विराजमान हैं। जो 20 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक लगभग 6 फीट ऊँची हैं । इन पर लिखे लेखों को पढ़ा नहीं जा सका । किन्तु निर्मित कला को देखकर ऐसा अनुमान है कि ये जिन - प्रतिमायें दूसरी से चौथी शताब्दी के बीच की होंगी। पपौरा तीर्थ क्षेत्र स्थित ये प्रतिमाएं प्राचीनतम प्रतीत होती हैं 1 27. भोंयरा नं. 2 : इसमें प्राचीन मूर्तियां विराजमान हैं। कुछ खड़गासन व कुछ पदमासन मुद्रा में आसीन हैं। भगवान नेमिनाथ की कृष्ण वर्ण की 2 फीट 2 इंच अवगाहना की पदमासन प्रतिमा यहां विराजमान है । 28. भगवान चन्द्रप्रभु जिनालय, जिनके पादमूल में स्थित प्रशस्ति अस्पष्ट हैं । 28 (अ). यह जिनालय दूसरी मंजिल पर स्थित है । लघु परिसर से बाहर निकलने पर हम जिनालय क्रमांक 29 में पहुँचते हैं, जिसमें पर्श्वनाथ भगवान की वि. सं. 1868 की जिन - प्रतिमा विराजमान है । 30. वि.सं. 1869 में स्थापित जैनधर्म के 9वें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त की अत्यन्त शोभायमान लगभग 8 फीट अवगाहना की खड़गासन प्रतिमा विराजमान है । चरणों के दोनों ओर अजित यक्ष व महाकाली यक्षिणी निर्मित हैं । 31. पार्श्वनाथ जिनालय संवत् 1894 । 32. यह जिनालय दायीं ओर स्थित जिनालयों में सबसे दायीं ओर स्थित है। यहां से हमें फिर वापिस होना पड़ता है । इस जिनालय में 8वें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की पाषाण निर्मित अत्यन्त सुंदर मनमोहिनी प्रतिमा खड़गासन मुद्रा में विराजमान हैं । यह प्रतिमा लगभग 7 फीट अवगाहना वाली है। प्रतिमा के अधोभाग में दोनों ओर भक्त युगल खड़े हैं व ऊपर दोनों ओर पुष्पों की माला लिये विद्याधर देव स्थित हैं । 33. पार्श्वनाथ जिनालय 1893 | 34. पार्श्वनाथ जिनालय 1545 । 35. चन्द्रप्रभु जिनालय : यह एक पृथक परकोटे में स्थित है। यह नक्कासीदार जिनालय वि.सं.- 1524 के आसपास का है। इस मंदिर परिसर में स्थित दालान व अंदर की नक्कासी काफी सुंदर है। इसी जिनालय में गर्भणी शेरनी ने कुछ माह निवास किया था । इस जिनालय में लगभग 9 फीट ऊँची भगवान चन्द्रप्रभु की खड़गासन प्रतिमा विराजमान है, जो देशी पाषाण से निर्मित है। मूर्ति के दायें-बायें 5-5 पदमासन व दो-दो खड़गासन मुद्रा में अन्य जिन - प्रतिमायें भी स्थित हैं । मूल प्रतिमा के ऊपर तीन छत्र सुशोभित हैं व दोनों ओर गजलक्ष्मी व पुष्पहार लिये गंधर्व भी बने हैं, इस जिनालय के प्रवेश द्वार, तोरण और आधार स्तंभों में नृत्यमुद्रा में मिथुन व मनमोहक भाव-भंगिमाओं के साथ देवांगनाओं का भव्य अंकन किया गया है, जो खजुराहो के मंदिरों की कला के सदृश्य है 1 36. पदमावती पार्श्वनाथ जिनालय जो श्वेत संगमरमर निर्मित हैं । मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 21 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. वि.सं.- 1892 का भगवान मुनिसुव्रतनाथ जी का जिनालय है । 38. वि.सं.- 1876 में निर्मित भगवान चन्द्रप्रभु जिनालय जिसमें लगभग 8 फीट ऊँची भगवान चन्द्रप्रभु की मनोहारी खड़गासन प्रतिमा विराजमान है। तीन छत्र सिर के ऊपर व आभामंडल भी बना है । शीर्ष के दोनों ओर गज बने हुए हैं । बायीं ओर भगवान का यक्ष कापोत पर आसीन है । दायीं ओर ज्वालामालिनी यक्षी है, जिसकी आठ भुजायें हैं । 39. वि.सं.- 1865 में स्थापित श्री चन्द्रप्रभु जिनालय जिसमें भगवान चन्द्रप्रभु की लगभग 10 फीट ऊँची पाषाण निर्मित खड़गासन मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है । शेष वर्णन उपरोक्त जैसा ही है । 1 40. संवत् 1890 निर्मित श्री नेमिनाथ जिनालय में 3 फीट 4 इंच ऊँची पदमासन प्रतिमा विराजमान हैं 1 41. प्राचीन पदमासन मुद्रा में भगवान चन्द्रप्रभु की जिन-प्रतिमा विराजमान है । जिस पर प्रशस्ति अंकित नहीं है । 42. संवत् 1883 निर्मित श्री ऋषभदेव जिनालय | 43. संवत् 1902 निर्मित श्री नेमिनाथ जिनालय | 44. से 68. यह चौबीसी जिन मंदिर है जिसके मध्य में स्थित जिनालय में भगवान चन्द्रप्रभु की लगभग 9 फीट अवगाहना खड़गासन मुद्रा में अतिमनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है । यह प्रतिमा संवत् 1840 की है। इसके चारों ओर 24 जिन मंदिर बने हैं, विशेष बात यह है कि चौबीसों जिन मंदिरों की पृथक-पृथक परिक्रमा की जा सकती है। किन्तु इस चौबीसी में सभी 24 तीर्थंकर भगवंतों की प्रतिमायें न होकर आठ जिनालयों में भगवान पार्श्वनाथ की, 4-4 जिनालयों में भगवान आदिनाथ व चन्द्रप्रभु की, तीन जिनालयों में भगवान नेमिनाथ की, दो में भगवान सुपार्श्वनाथ की व एक में भगवान अरहनाथ जी की प्रतिमा स्थापित हैं। एक-एक जिनालयों में भगवान वासुपूज्य व मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। सभी 24 प्रतिमायें पदमासन मुद्रा में आसीन हैं । 69. श्री चन्द्रप्रभु जिनालय संवत् 1955 में निर्मित श्वेत वर्ण की भगवान चन्द्रप्रभु की पदमासन मूर्ति विराजमान है । 70. सहस्त्रफणी श्री पार्श्वनाथ जिनालय - सं. 1893 में निर्मित इस जिनालय में मध्य में कृष्णवर्ण की 25 फण सहित भगवान पार्श्वनाथ की अतिमनोज्ञ प्रतिमा विराजमान हैं। दोनों ओर श्वेत संगमरमर से निर्मित भगवान ऋषभदेव की प्रतिमायें विराजमान हैं । - 71. श्री पार्श्वनाथ जिनालय सं. 1883 । इस जिनालय में 4 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की कृष्णवर्ण पदमासन प्रतिमा विराजमान है । 72. श्री पार्श्वनाथ जिनालय सं. 1897 । इस जिनालय में 3 फीट ऊँची श्वेत पाषाण की पदमासन प्रतिमा विराजमान है । 22 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73. श्री ऋषभनाथ जिनालय वि. सं. 1893 । 74. श्री ऋषभनाथ जिनालय वि. सं. 1892 - लगभग 5 फीट ऊँची देशी पाषाण निर्मित खड़गासन प्रतिमा स्थित है। यह प्रतिमा बादामी वर्ण की है। ये दायीं तरफ के जिनालयों में अंतिम जिनालय है। ___75. इसके बाद हम मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर निर्मित रथाकार जिनालय में 20-25 सीढ़ियां चढ़कर प्रवेश करते हैं। जहां सं. 1916 में स्थापित 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की भव्य प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा कृष्णवर्ण की है व लगभग 4 फीट ऊँची है। 76. चन्द्रप्रभु चैत्यालय सं. 1995। 77. से 80. चार मानस्तंभ जो मुख्य प्रवेशद्वार के अंदर दायीं व बायीं ओर दो-दो स्थित हैं। इनमें चारों ओर 16 जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। 81. से 105. तक नवीन बाहुबली जिनालय व चौबीसी प्रवेश द्वार के अंदर दायीं ओर बगीचे के पीछे एक नवीन भव्य जिनालय का निर्माण 24 खंभों के ऊपर किया गया है। कुछ सीढ़ियां चढ़ने के पश्चात हम अपने सामने इस अवसर्पिणी काल के प्रथम मोक्षगामी व प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ जी के सुपुत्र भगवान बाहुबली की विशाल प्रतिमा के दर्शन करते हैं। यहां आकर दर्शकों को असीम शान्ति का अनुभव होता है व दर्शनार्थी के अन्तःचक्षु भी खुल जाते हैं। श्वेत संगमरमर निर्मित लगभग 18 फीट ऊँची भगवान बाहुबली की यह प्रतिमा हमें गोमटेश्वर का स्मरण कराती है। इस प्रतिमा के चारों ओर चौबीसी स्थित है, जहां चौबीसों तीर्थंकर की प्रतिमायें क्रम से विराजमान हैं। 106. दर्शनों के अन्त में हम मुख्य प्रवेश द्वार के अंदर बायीं ओर एक विशाल प्रवचन हॉल में प्रवेश करते हैं। यहां नवनिर्मित काले संगमरमर की भव्य व मनोहारी भगवान पार्श्वनाथ की लगभग 7 फीट ऊँची पदमासन प्रतिमा विराजमान है। जिसके दर्शन कर दर्शनार्थियों की सारी थकान छूमन्तर हो जाती है। 108 जिनालयों के दर्शन कर इस प्रकार हम संपूर्ण पपौरा जी क्षेत्र की वंदना करते हैं। दूरियां : पपौरा जी अतिशय क्षेत्र टीकमगढ़ जिला मुख्यालय से 5 किमी., द्रोणगिरी से 58 किमी., सागर से 100 किमी., ललितपुर रेलवे स्टेशन से 58 किमी. दूरी पर स्थित है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 23 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहार सिद्ध क्षेत्र कामदेव श्री मदन कुमार, विस्कंबल केवलि भवपार । गिरिवर क्षेत्र अहार महान, वंदन करूं और जुग पान ।। यह क्षेत्र म. प्र. के टीकमगढ़ जिलान्तर्गत जिला मुख्यालय से सड़क मार्ग से लगभग 22 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। टीकमगढ़-छतरपुर वाया बल्देवगढ़ मार्ग पर अहार तिराहे की पुलिया से 5 किलोमीटर दूर यह क्षेत्र अवस्थित है । पुलिया से मुड़ने पर बायीं ओर लगभग 4 किलोमीटर लंबा विशाल तालाब यात्रियों का मन मोह लेता है। संपूर्ण पहुँच मार्ग पक्का डाबर युक्त है । प्रतिदिन यहां तक यात्री बसें आती जाती हैं। यहां प्रकाश, पानी व ठहरने की समुचित व्यवस्थायें हैं। यह अतिप्राचीन तीर्थ क्षेत्र है जो समतल भूमि पर अवस्थित है । इतिहास : भगवान मल्लिनाथ जी के मोक्षगमन के पश्चात सत्रहवें कामदेव मदनकुमार ( नलराज ) का जन्म बांगड़ प्रान्त के निशिद्धपुर नगर में राजा नीसधर के यहां रानी विरला देवी की कुक्षि से हुआ था । आपका विवाह कुण्डलपुर नरेश भीमसेन तथा उनकी धर्मपत्नी पुष्पदत्ता की सुपुत्री दमयन्ती के साथ हुआ था। राजा नल ( मदनकुमार ) कुछ दिन राजपाट भोगकर भोगों से विरक्त हो जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अहार जी से मोक्ष पधारे थे। (नलराज चरित्र) बाद में भगवान महावीर स्वामी के काल में 10 अन्तःकृत केवलियों में से 8वें केवली विस्कंबल स्वामी भी इसी क्षेत्र से मोक्ष पधारे थे। यह निर्वाण क्षेत्र वर्तमान में अहार जी क्षेत्र के समीप "पंचपहाड़ी" के नाम से जाना जाता है। इसीलिए अहार जी को सिद्धक्षेत्र कहा जाता है । यहीं तलहटी में मदनतला नाम का छोटा सरोवर भी है तथा मदनवेर नाम की प्राचीन वावड़ी भी यहीं है । क्षेत्र के समीप स्थित सिद्धों की टौरिया, सिद्धों की गुफा, सिद्धों की मड़िया भाला की टौरिया अन्य विचरणीय स्थल हैं । पर्वत पर कुछ मंदिरों के भग्नावशेष स्थित हैं । मूर्तियों के आसन, वेदिकाओं पर खुदे लेख, सैंकड़ों खंडित मूर्तियां व उनके भग्नावशेष, मंदिरों के ध्वंशावशेष यहां की प्राचीन समृद्ध संस्कृति के जीते जागते प्रमाण हैं । स्थानीय संग्रहालय स्थित मूर्ति नं. 811 की प्रशस्ति में निम्न लेख हैं । "सं. 588 माघ सुदी 13 गुरौ पुष्पं नक्षत्रे गोलापूर्वान्यवे साहू रामल सुत साहगणपति साहू भमदेव, हींगरमल सुतवंशी मदन सागर तिलकं नित्यं प्रणमति” । इस नगर के प्राचीन नाम मदनसागरतिलक, मदनसागरपुर, मदनेशपुर, वसुहाटिकापुरी, नंदनपुर, अहार आदि रहे हैं, ऐसा मूर्तियों के नीचे लिखी प्रशस्तियों से विदित होता है। एक ताम्र पत्र में भी मदन सरोवर व मदनवेर का उल्लेख है । यहां की मूर्ति प्रशस्तिओं में भट्टारकों एवं उनके शिष्य, प्रतिशिष्यों तथा 24■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यिकाओं और उनकी शिष्याओं, प्रतिशिष्याओं की परंपरा का वर्णन 1210 से 1720 (विक्रम सं.) तक पाया जाता है। ___ इस प्राचीन सिद्धक्षेत्र पर कालान्तर में अनेक अतिशयकारी घटनायें घटित हुईं। यहां के अतिशयों में दो अतिशयों का उल्लेख मिलता है। प्रथम तो यह कि प्रसिद्ध व्यापारी पाणाशाह का रांगा इसी स्थान पर चांदी में परिवर्तित हो गया था। यह स्थान आज भी चांदी टाडे की टौरियों के नाम से प्रसिद्ध है। दूसरा यह कि अनेक मासोपवासी एक मुनिराज का यक्षिणीकृत उपसर्ग दूर होकर यहीं पर उनका निरन्तराय आहार हुआ था तभी से इस क्षेत्र का नाम अहार जी प्रसिद्ध हुआ। ... क्षेत्र के चारों ओर स्थित विशाल परकोटे में 9 जिनालय स्थित हैं। 1. भगवान शान्तिनाथ जिनालय : __ अतिमनोज्ञ, असीम शान्तिप्रदायक, कलापूर्ण, अतिशययुक्त 21 फीट उत्तंग भगवान शान्तिनाथजी की पाषाण प्रतिमा अतिप्राचीन मूल शिखरबंद मंदिर में खड़गासन मुद्रा में विराजमान हैं। गर्भगृह में मूलनायक भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा के दायें व बायें 13-13 फीट ऊँची भगवान कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। इनमें से एक मूर्ति नव स्थापित प्रतीत होती है। भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा संवत् 1237 में प्रतिष्ठित की गई थी। इस प्राचीन प्रतिमा के पादमूल में 9 x 4 इंच का एक मूर्तिलेख खुदा है, जिसका आशय है-ग्रहपतिवंश में श्रेष्ठी देवपाल हुए, जिन्होंने बानपुर में सहस्रकूट चैत्यालय बनवाया। उनके पुत्र रत्नपाल व रत्नपाल के पुत्र रल्हण हुए। इनके पुत्र गल्हण ने नंदपुर व मदनेश सागरपुर में शान्तिनाथ जिनालय बनवाये। गल्हण के दो पुत्र थे-जाहद व उदयचन्द्र। इन दोनों भाइयों ने सं. 1237 की अगहन सुदी 3 शुक्रवार को यह शान्तिनाथ भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठित करवाई। गर्भगृह के बाहर शिखरबंद मंदिर परिसर में भूत, भविष्य व वर्तमान की तीन चौबीसी स्थित है। यहीं विदेह क्षेत्र स्थित बीस तीर्थंकरों की जिन-प्रतिमायें भी स्थित हैं। इस तरह कुल (24+24+24+20) = 92 जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। ये सभी प्रतिमायें संगमरमर की नवनिर्मित हैं। इसके अलावा लगभग 3 से 4 फीट ऊँची भगवान शान्तिनाथ, चन्द्रप्रभु, नेमिनाथ व महावीर स्वामी की जिन-प्रतिमायें भी शिखरबंद मंदिर के मुख्य द्वार के दायीं व वायीं ओर विराजमान हैं। ___ इसी प्रांगण में एक भोयरे का निर्माण भी किया गया है, जिसमें सर्वाधिक जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। 2. वर्धमान जिनालय : यह जिनालय संग्रहालय के ऊपर बना है। जिसमें भगवान महावीर स्वामी मूलनायक के रूप में विराजमान हैं। इसमें दो अन्य जिन देव भी स्थापित हैं। मेरू मंदिर : यह मंदिर गोलाकार है व संग्रहालय के आगे बना है। तीन प्रदक्षिणा देकर श्री जी के दर्शन होते हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 25 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोजना मंदिर इस जिनालय में देशी पाषाण निर्मित प्राचीन पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान हैं। दो अन्य प्रतिमायें भी यहां स्थित हैं। पार्श्वनाथ जिनालय : ___ इन जिनालय में भी अन्य मूर्तियों के अलावा मूलनायक के रूप में भगवान पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा स्थापित हैं। वर्धमान जिनालय : यह जिनालय भगवान शान्तिनाथ जिनालय के ठीक सामने स्थित है, जिनमें मूलनायक के रूप में वर्धमान स्वामी की प्रतिमा विराजमान है। युगल मानस्तंभ : वि. सं. 1013 में प्रतिष्ठित इन मानस्तंभों में प्रत्येक में 4-4 जिनबिम्ब विराजमान हैं। यक्ष-यक्षिणी भी उत्कीर्ण हैं। बाहुबली मंदिर: यह जिनालय मुख्य जिनालय के बाईं ओर स्थित है। जिसमें भगवान बाहुबली स्वामी की संगमरमर निर्मित मनोहारी प्रतिमा स्थापित हैं। उपरोक्त जिनालयों के अतिरिक्त यहां अन्य दर्शनीय स्थल हैं: श्री शान्तिनाथ संग्रहालयः यह संग्रहालय एक विशाल हाल में संचालित है। यहां चौथी शताब्दी से लेकर वर्तमान समय तक की एक हजार प्रतिमाओं से भी अधिक प्राचीन मूर्तियों आदि के भग्नावशेष आदि संग्रहित हैं। कुछ खंडित प्रतिमायें भी यहां संग्रहित की गईं हैं। पंच पहाड़ी: भगवान शान्तिनाथ जिनालय से लगभग 1 किलोमीटर से भी कम दूरी पर केवलियों व मुनिराजों की तपस्थली व मोक्षस्थलियों के रूप में पांच पहाड़ियों पर उनके चरण-चिह्न बने हुए हैं। यहीं से नल व विस्कंबल आदि मुनिश्वर मोक्ष गये थे। इसके अलावा यहां पर क्षु. श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी द्वारा स्थापित संस्कृत विद्यालय 1936 से कार्यरत है व्रती आश्रम, महिलाश्रम भी यहां क्रमशः 1958 व 1960 से संचालित हैं। पं. दरवारी लाल जी कोठिया द्वारा स्थापित सरस्वती सदन भी इस क्षेत्र पर स्थित है। जैन छात्रावास, जैन औषद्यालय जैसी जनोपयोगी संस्थायें भी इस क्षेत्रान्तर्गत कार्य कर रही हैं। 26. मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधा अतिशय क्षेत्र म. प्र. के टीकमगढ़ जिलान्तर्गत बुंदेलखंड की पावन धरा पर अतिशय क्षेत्र बंधा जी अपनी एक अलग पहचान व अतिशय रखता है। यह अतिप्राचीन, भव्य व रमणीक स्थल टीकमगढ़-झांसी मार्ग पर स्थित ग्राम बम्हौरी बराना से मात्र 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह पहुँच मार्ग डॉवरयुक्त पक्का है। यह अतिशय क्षेत्र ललितपुर से 92 किलोमीटर, टीकमगढ़ से 40 किलोमीटर व झांसी से 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह क्षेत्र समतल मैदानी भाग पर स्थित शान्त वातावरण में एक छोटे से ग्राम में स्थित है। इस क्षेत्र के निकट ही एक टीला स्थित था, जहां से खुदाई करने पर प्राचीन जैन मूर्तियां निकली थीं। यह जिनालय चंदेल काल से भी पुराना प्रतीत होता है। अतिशय 1. मंदिर से लगभग 100 मी. की दूरी पर स्थित एक बावड़ी के पास स्थित खेत से खेत मालिक को खेत जोतते समय एक दिगंबर जैन प्रतिमा मिली थी। इसी खेत में एक पाषाण का टुकड़ा पड़ा है। जब भी खेत मालिक इस प्रस्तर खंड को अन्यत्र रखता है उसके परिवार में कोई न कोई बीमार हो जाता है। जनता का ऐसा विश्वास है कि प्रस्तर खंड के आसपास और जिन मूर्तियां होनी चाहिए। 2. प्राचीन किंवदन्ती के अनुसार यहां मुगलकाज में मुगल शासक मूर्ति तोड़ने के इरादे से आया। वह जब यहां मूर्ति तोड़ने का प्रयास करने लगे, तो मूर्ति-भंजकों के हाथ बंध गये अर्थात् उनके हाथ अचल हो गए। यह आश्चर्यजनक घटना भोयरा स्थित जिनालय में घटी थी। इसीलिए तब से इस स्थल का नाम बंधा जी पड़ गया। बाद में मूर्तिभंजक प्रतिमा को साष्टांग नमस्कार कर वापिस चले गये। 3. सं. 1890 में एक मूर्तिकार मूर्ति बेचने हेतु समीप के ग्राम बम्हौरी बराना से गुजर रहा था। वह मूर्तियों को एक बैलगाड़ी में रखे था। जब उसकी गाड़ी पीपल के पेड़ के पास से गुजरी, तो वह अचल हो गई। जब यह समाचार यहां के सिंघई जी को मालूम चली, तो उन्होंने इस शर्त के साथ मूर्ति लेनी चाही, कि इसे बंधा जी क्षेत्र में प्रतिष्ठा कर स्थापित किया जाये। पुनः जब बैलगाड़ी को चलाया गया तो बैलगाड़ी चलने लगी व वह बंधा जी तक पहुंच गई। इस घटना से प्रसन्न हो चारों ओर भगवान अजितनाथ व 24 तीर्थंकरों के जयकारे गूंजने लगे। यह प्रतिमा तब से यहां विराजमान है। 4. भोयरे के जिनालय में एक नाग निवास करता है, जो प्रायः सद्भावना शून्य लोगों को दिखाई नहीं देता है। किन्तु सद्भावना से ओतप्रोत को यह अक्सर आज भी दिखाई देता है, ऐसा क्षेत्र के पास के निवासियों ने मुझे बताया। 5. क्षेत्र पर रात की नीरवता में आज भी देवकृत नृत्यों व उनके द्वारा किए जा रहे गायन-वादन को सुना जा सकता है। ऐसा क्षेत्र के पास के निवासियों से मुझे ज्ञात हुआ। 6. बंधा क्षेत्र के अतिशय को सुनकर झांसी की एक सेठानी पुत्रोत्पति की कामना लेकर यहां आई थी। सेठानी को एक वर्ष पश्चात् पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। अपनी मध्य-भारत के जैन तीर्थ-श Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोकामना पूर्ण होने पर सेठानी ने इस क्षेत्र पर एक धर्मशाला का निर्माण कराया, जिसे आज झांसी की सेठानी की धर्मशाला के नाम से जाना जाता है। इसीलिए यहां बड़ी संख्या में दर्शनार्थी अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए भी आते हैं। 7. सं. 1953 में आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी महाराज का संघ यहां आया था। तब क्षेत्र स्थित कुआं सूखा पड़ा था व पानी की काफी परेशानी थी। आचार्य श्री ने जब यह बात सुनी तो उन्होंने क्षेत्र स्थित भगवान अतिजनाथ की प्रतिमा के अभिषेक का गंधोधक जल इस कुएं में छोड़ा, परिणामस्वरूप कुआं धीरे-धीरे जल से भर गया। ऐसा देख चारों ओर भगवान अजितनाथ की जय जयकार होने लगी व श्रद्धालु बड़ी संख्या में इस चमत्कार को देखने आए। तब से यह कुआं कभी खाली नहीं होता। प्राचीनता : बंधा क्षेत्र अतिप्राचीन है, यह यहां की मूर्तियों के पाद्मूल में लिखी प्रशस्तियों से स्पष्ट होता है। मूलनायक भगवान अजितनाथ की प्रतिमा सं. 1199 (सन् 1142) में प्रतिष्ठित है वहीं एक वेदिका में स्थित खंबे पर सं. 1411 का लेख खुदा है। यहां स्थित अनेक मूर्तियों के पाद्मूल के शिलालेख अस्पष्ट हैं किन्तु कुछ विद्वान इन्हें चौथी सदी का मानते हैं। जिनालय : ___इस तीर्थं क्षेत्र पर दो जिनालय स्थित हैं, जिनमें ग्राम स्थित जिनालय प्राचीन है व इसे ही अतिशय क्षेत्र बंधा के नाम से जाना जाता है। इस प्राचीन जिनालय में सात वेदियों पर जिनबिम्ब विराजमान हैं। मंदिर प्रांगण में एक विशाल मानस्तंभ बना हुआ है। मंदिर में प्रवेश करने पर 1. पहली वेदिका पर श्री ऋषभपुत्र भगवान बाहुबली की लगभग 10 फीट अवगाहना की खड़गासन प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा श्वेत संगमरमर से निर्मित है। 2. आगे बढ़ने पर दर्शक को एक विशाल कक्ष में प्रवेश करते ही सामने तीन वेदिकायें नजर आती हैं। प्रथम वेदी पर मूलनायक भगवान चन्द्रप्रभु की अतिमनोज्ञ प्रतिमा, जो लगभग एक फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में आसीन है। 3. मध्य की वेदिका पर अनेक प्राचीन प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें काफी प्राचीन हैं। 4. दाईं ओर स्थित वेदिका पर अनेक जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं, ये प्रतिमायें भी काफी प्राचीन हैं। 5. आगे बढ़ने पर सीढ़ियों के सामने भगवान ऋषभनाथ जी का भव्य जिनालय स्थित है। इस वेदिका पर मूलनायक के रूप में भगवान ऋषभनाथ की लगभग 3.5 फीट ऊँची श्वेत संगमरमर निर्मित प्राचीन व अतिभव्य व आकर्षक प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। भगवान ऋषभदेव के दर्शन कर दर्शकों के मन को असीम शान्ति मिलती है। वेदिका पर दर्जनों और जिनबिम्ब भी स्थापित हैं। 6. यहां से दर्शक व भक्तगण इस क्षेत्र पर स्थित अतिशयकारी भोयरेनुमा 28 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनालय में प्रवेश करते हैं। इस जिलय में 15-20 सीढ़ियां उतरकर नीचे जाना पड़ता है। यह भोंयरा एक ही पत्थर से निर्मित है । यहीं अतिशयकारी, प्राचीन भव्य व मनोकामना पूर्ण करने वाली भगवान अजितनाथ की प्रतिमा मध्य में विराजमान है । यही यहां के मूलनायक हैं। भगवान की यह पद्मासन प्रतिमा लगभग 2.5 फीट ऊँची काले पाषाण से निर्मित है, अतिमनोज्ञ है व दर्शन करने पर दर्शनार्थियों को यहां परम शान्ति का अनुभव होता है । मूर्ति की भव्यता देखते ही बनती है। इस मूर्ति के पामूल की प्रशस्ति निम्न प्रकार है । “सं. 1199 चेत्रसुदी 13 सामे उनाम वास्तवल्यये साधु श्री गोपाल तस्य पुत्र साधु शुभचंद, साधु देवचंद, एते प्रणमन्ति श्रेयसे नित्यम् । ।" इस मूर्ति के दोनों ओर भगवान आदिनाथ एवं भगवान संभवनाथ की लगभग 2.5 फीट ऊँचाई वाली खड्गासन प्रतिमायें विराजमान हैं। ये मूर्तियां भी श्याम वर्ण की हैं। इन दोनों का प्रतिष्ठाकाल 1209 है । इसी वेदिका पर भगवान संभवनाथ व भगवान नेमिनाथ की पद्मासन प्रतिमायें भी आसीन हैं। इन प्रतिमाओं के पामूल में भी प्रतिष्ठाकाल सं. 1209 अंकित है। एक अन्य प्रतिमा जो भगवान ऋषभदेव की है, भी इस वेदिका पर आसीन है, किन्तु इस प्रतिमा के पामूल का लेख अपठनीय है। वेदिका पर कुछ अन्य प्रतिमायें भी विराजमान हैं। 7. इस वेदिका व भोंयरे के दर्शन कर आगे बढ़ने पर एक अतिप्राचीन जिनालय और स्थित है। यह मठ के आकार का है। इसके मध्य में मढ़ियानुमा जिनालय में जो चार खंबों पर टिकी हैं, अतिप्राचीन प्रतिमायें विराजमान हैं। ये सभी जिन - प्रतिमायें बलुआ पत्थर से निर्मित हैं । कुछ प्रतिमाओं पर प्रशस्ति भी नहीं है, जो इनकी प्राचीनता की द्योतक है। निर्माण कार्य व निर्माण सामग्री को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिनालय चौथी, पांचवी सदी का होना चाहिए । यह क्षेत्र निश्चयतः अतिप्राचीन है । ग्राम के बाहर किन्तु ग्राम में प्रवेश करते ही एक विशाल प्रांगण में कुछ वर्ष पूर्व एक नवीन जिनालय का निर्माण किया गया है। नवनिर्मित वेदिका पर • मूलनायक के रूप में भगवान अजितनाथ की विशालकाय भव्य प्रतिमा विराजमान है । यह पद्मासन श्यामवर्ण मूर्ति लगभग 10 फीट ऊँची है। ग्राम के मंदिर की तरह यहां भी प्रतिमा के दायीं व बायीं ओर भगवान ऋषभदेव जी व संभवनाथ की खड्गासन प्रतिमायें प्रतिष्ठापित हैं। इस जिनालय से 40-50 फीट दूरी पर विशालकाय क्षेत्रपाल जी विराजमान हैं, ज़ो क्षेत्र के रक्षक देव हैं। 1 विशेष - 1. यहां सन् 1967 से श्री अजितनाथ दिगंबर जैन विद्यालय संचालित है । 2. 1968 में यहां एक संग्रहालय की स्थापना की गई जिसमें आसपास के गांवों से प्राप्त की गई खंडित प्रतिमायें व अन्य कला कृतियां संग्रहित हैं। 3. यात्रियों को ठहरने के लिए यहां धर्मशाला भी है । मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 29 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवागढ़ अतिशय क्षेत्र अतिशय क्षेत्र नवागढ़ जी, टीकमगढ़-सागर मुख्य सड़क मार्ग पर अजनौर से आगे डूड़ा को जाने वाली सड़क पर डूड़ा ग्राम से 4 किलोमीटर दूरी पर वर्तमान में कच्चे सड़क मार्ग पर स्थित है। यहां टीकमगढ़-सागर सड़क मार्ग पर स्थित अजनौर ग्राम से भी पहुंचा जा सकता है। अजनौर से नवागढ़ की दूरी 6 कि मी. है। उ. प्र. में महरौनी तहसील के ग्राम सोजना से भी मेनवार होकर इस तीर्थ क्षेत्र के दर्शन किये जा सकते हैं। मेनवार से नवागढ़ की दूरी 3 किलोमीटर है। टीकमगढ़ से नवागढ़ की दूरी 33 किलोमीटर है। यह एक प्राचीन अतिशय क्षेत्र है, जहां एक प्राचीन जिनालय में 6 फीट ऊँची भगवान अहरनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में भव्य व आकर्षक प्रतिमा विराजमान है वर्तमान में प्राचीन जिनालय के स्थान पर लाल पत्थर से विशाल नया जिनालय बनकर तैयार हो गया है। यह जिनालय एक भोयरे रूप में है, जहां पहले वर्षा का पानी भर जाया करता था। दर्शकों को पानी में खड़े होकर दर्शन करने पड़ते थे, किन्तु अब स्थिति भिन्न हो जाने से वर्षा का पानी जिनालय में नहीं भरता। यह जिनालय एक भोयरेनुमा जिनालय है, जिसमें धरातल से नीचे भोयरा बना है। इसी जिनालय में देशी पाषाण से निर्मित भगवान अरहनाथ की प्रतिमा आसीन हैं। जो 12वीं शताब्दी की बताई जाती हैं। नीचे पादमूल में मछली का चिह्न बना है। प्रतिमा जी के दोनों पार्श्व भागों में दो अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी विराजमान हैं, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। ये प्रतिमायें भगवान शान्तिनाथ व कुंथुनाथ की हैं जो क्रमशः 7 फीट व 6 फीट ऊँची हैं। वेदिका पर 5 अन्य जिन-प्रतिमायें भी विराजमान हैं। इनमें से एक प्रतिमा काले पाषाण की लगभग 9 इंच ऊँची पद्मासन में आसीन है। इस प्रतिमा पर सं. 12 वर्ष डला है। एक अन्य प्रतिमा भी इसी अवगाहना की व इसी प्रतिमा के सदृश्य है, जिसकी प्रशस्ति अस्पष्ट है वेदिका पर बादामी रंग की दो देशी पाषाण से निर्मित प्राचीन प्रतिमायें भी विराजमान हैं। प्रत्येक की अवगाहना 1.5 फीट है। इन प्रतिमाओं पर न तो तीर्थंकरों के प्रतीक चिन्ह हैं और न ही प्रशस्तियां। एक अन्य धातु निर्मित प्रतिमा भी वेदिका पर विराजमान है। भगवान अरहनाथ की मूल प्रतिमा के चारों ओर सुंदर आभामंडल था जो वर्तमान में आधा ही शेष बचा है। प्रतिमा के गले पर तीन बल स्पष्ट देखे जा सकते हैं। चंवरधारी इन्द्र प्रतिमा के दोनों ओर उत्कीर्ण हैं। नीचे श्राविका भक्ति मुद्रा में बैठी है। 1.5 फीट अवगाहना की एक प्राचीन पद्मासन प्रतिमा के ऊपर छत्र उत्कीर्ण है। गगनधारी देव व चामर 30 - मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र भी उत्कीर्ण हैं । प्रतिमा के ऊपर पार्श्व भागों पर 2 पद्मासन व 2 खड्गासन मुद्रा में छोटी-छोटी प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। सिर के ऊपर भी एक जिनबिम्ब उत्कीर्ण है । 2. परिसर में स्थित धर्मशाला के प्रथम तल पर वेदिका पर मध्य में भगवान कुंथुनाथ की 5 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में श्याम वर्ण की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। जबकि पार्श्व भागों पर क्रमशः भगवान आदिनाथ व शान्तिनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें लगभग 2.5 फीट अवगाहना की पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं । 3. नीचे एक हॉल में भगवान भरत व बाहुबली की प्रतिमाओं के साथ मध्य में भगवान आदिनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें 6 फीट से 8 फीट अवगाहना की संगमरमर निर्मित हैं। इसी हॉल में कमलासन पर भगवान आदिनाथ की भव्य व मनोज्ञ प्रतिमा भी विराजमान हैं । 4. भोंयरे के ऊपर तल पर एक नये जिनालय का निर्माण किया गया है। इस वेदिका पर 7 जिनबिम्ब विराजमान है। मध्य में कायोत्सर्ग मुद्रा में 6 फीट अवगाहना की भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। बायें पार्श्व में ऊपर भगवान चन्द्रप्रभु की लगभग 2.5 फीट अवगाहना की श्वेत संगमरमर से निर्मित भव्य प्रतिमा आसीन है। उसके नीचे लगभग 1.5 फीट अवगाहना की भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा विराजमान है व सबसे नीचे 100 फणी लगभग 1 फीट अवगाहना की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित है। ये सभी प्रतिमायें नवीन हैं । दायीं ओर के पार्श्व भाग में भी उपरोक्त विधि से तीन प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया गया है । ऊपर भगवान चन्द्रप्रभु की 2.5 फीट अवगाहना की उसके नीचे पार्श्वनाथ भगवान की सात फणी प्रतिमा देशी पाषाण से निर्मित लगभग 1.5 फीट अवगाहना की व सबसे नीचे लगभग 1 फीट अवगाहना की भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा विराजमान है। भगवान पार्श्वनाथ की देशी पाषाण से निर्मित प्रतिमा काफी प्राचीन है। इसके उपरिम भाग के पार्श्व में 4 तीर्थंकर प्रतिमायें और उत्कीर्ण हैं । पार्श्व भागों में ऊपर आकाशगामी देव व नीचे चंवरधारी इन्द्र बने हुए हैं I मध्य-भारत के जैन तीर्थ = 31 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ागांव धसान (फलहोड़ी) बड़ागांव धसान ग्राम स्थित यह अतिशय क्षेत्र कस्बे के बीचोंबीच एक सुंदर पहाड़ी पर स्थित है। टीकमगढ़ से इस क्षेत्र की दूरी लगभग 30 किलोमीटर है। यह तीर्थ-क्षेत्र टीकमगढ़-सागर मार्ग पर स्थित है। यहां निम्नांकित जिनालय हैं ___ 1. पद्मप्रभु जिनालय : पद्मासन 1.5 फीट अवगाहना की श्वेत संगमरमर से निर्मित प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। 2. वर्धमान जिनालय-2 फीटः अवगाहना की भगवान महावीर स्वामी की धवल पद्मासन प्रतिमा इस वेदिका पर मूलनायक के रूप में विराजमान है। 50 से अधिक अन्य धातु की व अन्य जिन-प्रतिमायें भी वेदिका पर विराजमान है। 3. चन्द्रप्रभु जिनालय : इस जिनालय में 1.25 फीट अवगाहना की धातु से निर्मित भगवान चन्द्रप्रभु की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। 4. वर्धमान जिनालय : भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा इस जिनालय में स्थापित है। 5. पार्श्वनाथ जिनालय : भगवान पार्श्वनाथ की भव्य व आकर्षक श्यामवर्ण की 2.56 फीट अवगाहना की पद्मासन प्रतिमा इस वेदिका पर विराजमान है। 6. त्रिमूर्ति जिनालय : इस जिनालय में भगवान आदिनाथ की 5 फीट अवगाहना की एवं भरत तथा बाहुवली की 4 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में धवल प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं। 7. नेमिनाथ जिनालय : भगवान नेमिनाथ की पद्मासन प्रतिमा जो वेदिका के मूलनायक हैं। वेदी पर अन्य 50 से अधिक प्रतिमायें भी इस जिनालय में विराजमान है। 8. भगवान आदिनाथ जिनालय : लगभग 5 फीट ऊँचे विशाल कमलासन पर विराजमान भगवान आदिनाथ की अतिमनोज्ञ 16.5 फीट अवगाहना वाली अतिभव्य व मनोहारी प्रतिमा जो पद्मासन में है, इस वेदिका पर विराजमान है। इसी के सामने चौबीसी का निर्माण कार्य चल रहा है। 9. इस जिनालय के नीचे किन्तु पीछे की ओर एक गुफा में चरण-चिन्ह स्थित हैं। जिससे यह सिद्ध होता है कि यह तीर्थ-क्षेत्र कभी मुनियों की तपस्थली रहा है। 32 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 33 क्र. विवरण 招聘 Crest R संकेत . सोनागिर बूढी चंदेरी योवन जी 16 चंदेरी देवगढ़ मीना झांसी सैरोन 11 35 चांदपुर राहतगढ़ 33 34 तालहट वालबेहट FO ललितपुर: A ईश्वरवारा दतिया बवीना चर्चा पया जी बहरोनी बेगमगंज 25. गड़ावरा मानयोग 140 सागर बांदरी पजनारी 108 मदनपुर 47 20 ORVIN मऊरानीपुर 42 दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र बुन्देलखंड बीमा बारह देवगढ़ Blangy गरमागर हरपालपुर छतरपुर रहली पटना परनपुर को हीरापुर सुथरिया गढ़ाकोटा नौगांव 42 मानगु बाजना भौग विजाबर बक्स्वाहा मीठा हटा खजुराहो बहोरी कोनी फ्री 34 कुण्डलपुर सिमरिया अमानगंज 23 सिहोरा कटंगी पनागर 18 जबलपुर मठिया जी बांदा पन्ना W. सतना /li R महर E Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र खजुराहो वि. सं. 1056 के गंडदेव के एक शिलालेख में उल्लेख है कि “श्री खजूर वाटिका राजा धंगदेव राज्य।" इसका सीधा सा तात्पर्य है कि राजा धंगदेव के शासनकाल में यहां खजूरों का बाग था। शिलालेख व इतिहास ग्रंथों में इस नगर के खर्जूरवाटिका, खजूरपुर, खजुरा, खजुराहा आदि नामोल्लेख मिलते हैं। वर्तमान में इसी को हम खजुराहो के नाम से जानते हैं। अबूरिहोन नाम मुस्लिम इतिहासकार ने सन् 1031 में इसका उल्लेख जेजाहुति की राजधानी खर्जूरपुर के नाम से किया है। इनबतूता 1330 में यहां आया था, वह लिखता है-वहां एक मील लंबी झील है, जिसके चारों ओर मंदिर बने हुए हैं, उनमें मूर्तियां रखी हुईं हैं। उस समय यहां चंदेलों का शासन था। ___ खजुराहो वर्तमान में म. प्र. के छतरपुर जिले में स्थित है। यह अपने कलात्मक भव्य मंदिरों के लिए पूरे विश्व में जाना जाता है। खजुराहो में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का हवाई अड्डा है। यहां रेलवे स्टेशन भी है। दिल्ली व बनारस से खुजराहो के मध्य सीधी रेल सेवा है। यहां पर अन्तर्राज्यीय बस स्टैंड भी है; जहां दिल्ली, राजस्थान, उ. प्र. आदि से बसें आती-जाती हैं। खजुराहो झांसी-रीवा राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित बमीठा कस्बे से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह महोबा से 55 किलोमीटर, हरपालपुर से 100 किलोमीटर, छतरपुर से 45 किलोमीटर, सतना से 120 किलोमीटर व पन्ना से 43 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। झांसी से खजुराहो की दूरी 180 किलोमीटर है। सभी बड़े शहरों से खजुराहो तक सीधी बस सेवा उपलब्ध है। ___ यहां जैन मंदिर समूह में यात्रियों को रूकने के लिए धर्मशाला आदि की सुविधा भी है। इसके अलावा पर्यटकों को रूकने हेतु यहां पर्यटक बंगला, विश्राम भवन तथा अनेक बड़े होटल भी है। खजुराहो के जैन मंदिर चंदेल राजाओं के शासन काल की समुन्नत शिल्पकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। ये मंदिर ई. सं. 900 से लेकर 1213 तक के काल के हैं। यहां 32 दिगंबर जैन मंदिर है। जैन मंदिर पूर्वी और दक्षिणी समूह स्थित हैं। इन जैन मंदिरों का विवरण इस प्रकार है 1. घंटई मंदिर : इस जिनालय के खंबों पर घंटा और उनकी जंजीरों के अलंकरण उत्कीर्ण होने के कारण व संग्रहालय में स्थित कुछ मूर्तियों के अभिलेखों में घंटई शब्द उत्कीर्ण होने के कारण इसे घंटई मंदिर कहा जाता है। यह जिनालय 10वीं सदी का है तथा 43 x 22 फीट में बना है। जैन मंदिर समूह से यह एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसका द्वार पूर्व की ओर है। इसमें अर्धमंडप, मंडप, अन्तराल, गर्भगृह व प्रदक्षिणा पथ था; किन्तु इस मंदिर की बाहरी दीवाल गिर जाने के कारण अब अर्धमंडप व महामंडप ही शेष बचा है। 34 - मम्य-भारत के जैन तीर्थ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले इसमें 24 स्तंभ थे, किन्तु वर्तमान में केवल 20 स्तंभ ही शेष बचे हैं। सभी स्तंभ लगभग 14 फीट ऊँचे हैं। इन स्तंभों की अलंकरण, साज-सज्जा व शिल्प सौंदर्य अद्भुत है। घंटियों, मालाओं, साधुओं, विद्याधरों व मिथुनों की मूर्तियां भी इन पर उत्कीर्ण हैं। महामंडप के प्रवेश द्वार पर यक्ष दंपत्ति विभिन्न प्रेमातर मुद्राओं में उत्कीर्ण है। चौखट के अधोभाग में शासन देवी की बड़ी-बड़ी मूर्तियां है। द्वार के ऊपर प्रथम तीर्थंकर की गरुणवाहिनी अष्टभुजी चक्रेश्वरी देवी विराजमान है। दोनों ओर जैन तीर्थंकर मूर्तियां पद्मासन में उत्कीर्ण हैं। तीर्थंकर माता के 16 स्वप्नों का भी सुंदर अंकन यहां देखने को मिलता है। मंदिर जीर्ण-शीर्ण है। ये पहले आदिनाथ जिनालय था; जिसमें भव्य व मनोज्ञ भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान थी। यहां दो शिलालेख मिले हैं। एक पर नेमिचन्द्र शब्द पढ़ा जा सका, जो 10 वीं सदी का है। दूसरे लेख में स्वस्ति श्री साधु पालना शब्द अंकित है। सन् 1876-77 में यहां खुदाई से 13 जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां प्राप्त हुई थीं। खजुराहो के शेष जैन मंदिर एक विशाल चहार दीवारी के अंदर बने हैं। इनमें से कुछ मंदिरों के निर्माण में प्राचीन मंदिरों के अवशेषों का प्रयोग किया गया है। प्रकाश के लिए झरोखे बने है। मंदिरों का विवरण निम्नानुसार है 2. शान्तिनाथ जिनालय- यह जिनालय एक पृथक चहार-दीवारी में स्थित है। इस परिसर में कुल 16 जिनालय स्थित हैं। जिनका निर्माण प्राचीन जिनालयों व मूर्तियों से हुआ प्रतीत होता है। यह जिनालय प्रवेश द्वार के ठीक सामने स्थित है। इस जिनालय में 12 फीट ऊँची भगवान शांन्तिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है। यह खजुराहो की प्रतिमाओं में सबसे बड़ी है। प्रतिमा के दोनों हाथ में पूर्ण विकसित पद्म है और मुखमंडल पर सौम्य है। इस प्रतिमा के दोनों ओर 3.5 फीट ऊँची पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमायें स्थित हैं। परिकर में अनेक और भी जिनबिम्बों की आकृतियां बनीं हैं। यह प्रतिमा अलंकृत प्रभामंडल से युक्त है। सं. 1085 के लेख से युक्त इस प्रतिमा के पास ही दीवारों में 11वीं सदी की भगवान पार्श्वनाथ, आदिनाथ व महावीर स्वामी की मूर्तियां भी बनीं हैं। मूर्ति के परिकर में बाहुबली भगवान की मूर्ति भी उत्कीर्ण है। इस जिनालय के प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं व पास ही क्षेत्रपाल की मूर्ति भी है। यह मूर्ति नृत्य मुद्रा में है। भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा के सिर पर छत्र बने हैं व दोनों ओर हाथी पर कलश लिए इन्द्र भी उत्कीर्ण हैं। नीचे चंवरधारी इन्द्र भगवान की सेवा में खड़े हैं। श्रावकश्राविकाओं की मूर्तियां भी नीचे के भाग में उत्कीर्ण की गई हैं। ऊपर वर्णित भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा के आसन से लेकर फणावली तक सर्प का मुंजलक मनोहारी है। भगवान आदिनाथ की प्रतिमा जटाजूटों से अलंकत मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 35 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । जिन भक्तों को इन प्रतिमाओं के दर्शन से अपूर्व शान्ति का अनुभव होता है। परिसर स्थित अन्य जिनालय हैं 2 / 1. इस जिनालय के गर्भगृह में द्वितीर्थी जिन भगवंतों की कायोत्सर्ग प्रतिमायें विराजमान हैं, जिनकी ऊँचाई 1 फीट है। जिनालय के प्रवेश द्वार पर नृत्यरत पुरुषों की 6 आकृतिओं के साथ ही बिना वाहन वाली गंगा-यमुना की मूर्तियां उकेरी गईं हैं । 2/ 2. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में कायोत्सर्ग मुद्रा में सातफणी भगवान पार्श्वनाथ की 4 फीट 4 इंच ऊँची प्रतिमा विराजमान है। इस प्रतिमा के दायीं ओर एक प्रस्तर में उकेरी गई भगवान ऋषभनाथ व चन्द्रप्रभु की प्रतिमायें विराजमान हैं। प्रतिमाओं के बगल में बनी चतुर्भुज यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियां बनीं हैं। जिनके हाथों में अभय मुद्रा, पद्म, पुस्तक व जलपात्र हैं। बायीं ओर भी दो जिन - प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें भी कायोत्सर्ग मुद्रा में लांक्षण रहित हैं । इसके परिकर में पार्श्वनाथ भगवान की ध्यानस्थ मूर्ति भी बनीं है । 2/3. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में भी 9 फणी भगवान पार्श्वनाथ की ध्यानस्त मूर्ति स्थित है। जो छत्र सहित है। जो वि. सं. 1927 की है। इसके समीप ही 20वीं सदी की काले संगमरमर की भगवान पार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभु, आदिनाथ व अजितनाथ भगवान की मूर्तियों के अलावा यहां अनेक धातु प्रतिमायें भी विराजमान हैं। मल्लिनाथ भगवान की खड्गासन प्रतिमा के परिकर में 23 अन्य जिन-प्रतिमायें भी (चौबीसी ) यहां विराजमान हैं। जिनालय के उत्तरंग पर 16 मांगलिक स्वप्न और द्वार शाखाओं पर गंगा-यमुना की आकृतियां है । 2/4. बाहुबली जिनालय - इस जिनालय में 8 फुट ऊँची भगवान बाहुबली स्वामी की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन है। यह प्रतिमा 20वीं सदी की है। 29/5. ऋषभनाथ जिनालय - इस जिनालय में 4 फुट 7 इंच ऊँची भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है जो 11वीं सदी की पाषाण निर्मित है। यह प्रतिमा यक्ष-यक्षिणी सहित जटाजूटों से युक्त है । सिंहासन प्रभामंडल युक्त प्रतिमा अतिमनोज्ञ है वेदिका के ऊपरी भाग में भगवान सुपार्श्वनाथ के अतिरिक्त 15 जिनबिम्ब भी उत्कीर्ण है। 2/6. अभिनंदन नाथ जिनालय- 1981 में स्थापित भगवान आभिनंदननाथ की प्रतिमा इस जिनालय में मूलनायक के रूप में विराजमान है। वेदिका पर मूल प्रतिमा के पार्श्व भागों में भगवान संभवनाथ व सुमतिनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। सभी प्रतिमायें संगमरमर से निर्मित है। प्रवेश द्वार के ऊपर तीर्थंकरों की ध्यानस्त मूर्तियां व नीचे गंगा-यमुना की प्राचीन मूर्तियां भी बनी हैं। 2/7. नेमिनाथ जिनालय - सन् 1943 में प्रतिष्ठित काले पाषाण की भगवान 36■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ की प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। यह मूर्ति चार अष्टकोणीय दीवालों वाले मेरु मंदिर में विराजमान है। मंदिर की जालीनुमा दीवालें अत्यन्त अलंकृत है। 2/8. महावीर जिनालय- 1981 में स्थापित संगमरमर की भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा मूलनायक के रूप में इस जिनालय में विराजमान है। भगवान अनन्तनाथ व विमलनाथ की पद्मासन प्रतिमायें भी इस जिनालय में विराजमान हैं। 2/9. चौबीसी जिनालय- इस जिनालय में भूत, वर्तमान व भविष्य काल की तीन चौबीसी में कुल 72 जिनबिम्ब विराजमान हैं। एक पाषाण में तीर्थंकर के माता-पिता की 3 फुट 4 इंच ऊँची प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। वेदिका के ऊपर तीर्थंकर के अभिषेक का मनोहरी अंकन किया गया है। जिसमें गंधर्व, विद्याधर व कलशधारी देव सम्मिलित है। 10. शान्तिनाथ जिनालय- इस जिनालय में 1981 में स्थापित भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। इस प्रतिमा के दायीं व बायीं ओर भगवान कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। सभी प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। 11. आदिनाथ जिनालय- 1981 में स्थापित संगमरमर से निर्मित भगवान आदिनाथ की मूर्ति इस जिनालय में मूलनायक के रूप में विराजमान है। वेदिका पर मूलनायक के पार्श्व भागों में भगवान अरहनाथ व आदिनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। इस जिनालय का प्रवेश द्वार व अर्धमंडप प्राचीन जैन मंदिर का भाग है। प्रवेश द्वार के ऊपर 16 मांगलिक स्वप्न, तीर्थंकरों, नवगृहों व नीचे के भाग में गंगा-यमुना की मनोहारी प्रतिमाओं को उकेरा गया है। 2/12. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय के दोनों ओर की दीवालें प्राचीन जिनालय की बाहरी दीवाल के अवशिष्ट हैं। इस जिनालय में 3 फुट 4 इंच ऊँची भगवान चन्द्रप्रभु की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। मूर्ति के पार्श्व में यक्ष-यक्षिणी भी बने हैं। इस जिनालय की दीवालों पर ब्रह्माणी, यम निक्रति, अम्बिका, ईशान, इन्द्र, गोमुख, अप्सराओं, दिक्पाल व पद्मावती की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। ____/13. पार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में विलहारी से प्राप्त अति सुंदर 3 फुट 7 इंच ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। तोरण भाग में 13 छोटे-छोटे जिनबिम्ब उत्कीर्ण हैं। अर्धमंडप के वितान पर चारों ओर चार तीर्थंकरों के अभिषेक तथा नीचे चारों ओर जैन आचार्यों के उपदेश एवं शचंवरधारी आकृतियों के कुछ अन्य प्रसंगों को उत्कीर्ण किया गया है। अर्धमंडप के स्तंभों पर द्वारपाल की मूर्तियां बनी हैं। मंदिर के उत्तंगरग पर ललाट-बिम्ब में मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 37 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्भुजी चक्रेश्वरी व छोरों पर गजलक्ष्मी व सरस्वती की प्रतिमायें बनी हैं। अर्धमंडप की छत पर चारों ओर 16 मांगलिक स्वप्नों तथा द्वार-शाखाओं पर गंगा-यमुना की मूर्तियां बनी हैं। 14. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में 2 फुट 7 इंच ऊँची भगवान चन्द्रप्रभु की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। यक्ष-यक्षिणी भी पार्श्व भागों में उत्कीर्ण हैं। 2/15. यह जिनालय तीन भागों में बंटा है। जो परस्पर मिले हैं। प्रथम भाग में मूलनायक भगवान धर्मनाथजी की व उनके पार्श्व में चन्द्रप्रभु व शान्तिनाथ की प्रतिमायें विराजमान है। प्रतिमायें क्रमशः 1981, 1865 व 1902 की श्वेत संगमरमर से निर्मित है। दूसरे भाग में 11-12वीं सदी की 5 फुट ऊँची विमलनाथ भगवान के साथ दो अन्य प्रतिमायें विराजमान है। सभी प्रतिमायें कायोत्सर्ग में है। तीसरे भाग में 9 सर्पफण युक्त सं. 1927 की छत्र सहित भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति विराजमान है। दायीं व बायीं ओर चन्द्रप्रभु व नेमिनाथ भगवान की प्रतिमायें विराजमान हैं। इस परिसर से बाहर निकलने पर समीपस्थ एक दूसरे परिसर में भी 16 जिनालय स्थित हैं। जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है 3. पद्मप्रभु जिनालय- इस जिनालय में सन् 1981 में स्थापित भगवान पद्मप्रभु की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। प्रवेश द्वार पर प्राचीन भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा उत्कीर्ण है। 4. ऋषभनाथ जिनालय- इस जिनालय में 3 फीट 6 इंच ऊँची पदमासन मुद्रा में भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप विराजमान है। नीचे गोमुख व चक्रेश्वरी की मूर्तियां यक्ष-यक्षिणी के रूप में उत्कीर्ण की गई है। परिकर में बाहुबली भगवान की मूर्ति भी उत्कीर्ण है। इस प्रतिमा में जटा-मुकुट व घुमावदार लटों वाली कंधे पर लटकती जटाओं का संयोजन अति सुंदर है। मूर्ति के मुख-मंडल के पीछे खिले हुए कमल एवं मुक्ता अलंकारों वाला प्रभामंडल अति मनोहारी है। मूर्ति की दो पाववर्ती रथिकाओं में भगवान सुमतिनाथ व अभिनंदन नाथ की क्रमशः 2 फीट 7 इंच व 2 फीट 10 इंच ऊँची पदमासन मूर्तियां भी बनीं हुई हैं। ये प्रतिमायें यक्ष-यक्षिणी युक्त है व 11वीं सदी की निर्मित है। प्रवेश द्वार पर वाराह व चामुंडा की त्रिभंग आकृतियां भी उत्कीर्ण हैं। __5. 1981 में स्थापित श्वेत संगमरमर की भगवान शीतलनाथ, विमलनाथ व महावीर स्वामी की प्रतिमायें इस जिनालय में विराजमान है। जिनालय के प्रवेश द्वार पर तीर्थंकर-अभिषेक के दृश्यों को उकेरा गया है। 6. मल्लिनाथ जिनालय- इस जिनालय का प्रवेश द्वार अत्यन्त अलंकृत है इस जिनालय में तीर्थंकर मल्लिनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है। पार्श्व भागों में भी भगवान नेमिनाथ व मुनिसुव्रतनाथ की संगमरमर निर्मित प्रतिमायें विराजमान हैं। 38. मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. सुपाश्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में 3 फीट 9 इंच ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान सुपार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। उनके चरणों के समीप दो आर्यिकायें श्रद्धापूर्वक विराजमान हैं। कलचुरी काल की दो प्रतिमायें जो कायोत्सर्ग मुद्रा में ही हैं, मूल प्रतिमा के दोनों ओर विराजमान है। ये प्रतिमायें भगवान अजितनाथ व आदिनाथ की हैं व क्रमशः 3 फीट 7 इंच व 3 फीट 8 इंच ऊँची है। सभी प्रतिमाओं के पार्श्व भागों में यक्ष-यक्षिणी अंकित है। प्रवेश द्वार के ऊपर मध्य में तीर्थंकर प्रतिमा व छोरों व चक्रेश्वरी व अम्बिका की मूर्तियां बनीं हैं। 8. महावीर जिनालय- संवत् 1148 में स्थापित पद्मासन में स्थित मूलनायक भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। पार्श्व भागों में तीर्थंकर के यक्ष-यक्षिणी बने हैं। प्रभामंडल अति अलंकृत है। उत्तरंग पर लक्ष्मी, चक्रेश्वरी, अम्बिका व नवगृहों के अतिरिक्त 18 जैन मुनिओं व 16 मांगलिक स्वप्नों का भी अंकन किया गया है। जैन मुनि नमस्कार मुद्रा में मयूर पिच्छिका के साथ दिखाये गये हैं। 9. आदिनाथ जिनालय- इस जिनालय में 3 फीट 7 इंच अवगाहना वाली भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। उत्तरंग पर चक्रेश्वरी व लक्ष्मी की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। ___10. आदिनाथ जिनालय- यह जिनालय खजुराहो के जिनालयों में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण जिनालय है। इस जिनालय का प्राचीन गर्भगृह व अन्तराल ही शेष है बाकी नया निर्माण है। यह खजुराहो के वामन मंदिर जैसा है। यह जिनालय 11वीं सदी का है। गर्भगृह में सं. 1215 की काले पाषण की 3 फीट 4 इंच ऊँची भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। जिनालय के मंडोवर पर तीन समानान्तर पंक्तियां हैं, जिनमें प्रथम पंक्ति में गंधर्व, किन्नरों व विद्याधरों की, मध्य की पंक्ति में गोमुख यक्ष की 8 चतुर्भुज आकृतियां बनी हैं। जबकि निचली पंक्ति में अष्ट दिग्पालों की त्रिभंग में चतुर्भुज आकृतियां बनी हैं। जबकि निचली पंक्ति में अष्ट दिग्पालों की त्रिभंग में चतुर्भुज मूर्तियां उकेरी गई हैं। नीचे भी दो पंक्तियों में आकर्षक मुद्राओं में अप्सराओं व व्यालों की मूर्तियां बनीं हैं। 16 रथिकाओं में 16 देवियों की मूर्तियां बनीं हैं। स्वतंत्र वाहनों व आयुधों से युक्त इन देवियों की तुलना 16 महाविद्याओं से की गई है। जिनालय में अधिष्ठान पर क्षेत्रपाल, चक्रेश्वरी व अम्बिका की मूर्तियां बनीं हैं। जिनालय के द्वार शाखाओं पर लक्ष्मी, चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती, गौरी, काली, गांधारी व कुछ अन्य देवियों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। प्रवेश द्वार के बड़ेरी पर 16 मांगलिक स्वप्नों का अंकन है। बायीं ओर भगवान आदिनाथ की माता जी को शैय्या पर लेटे दिखाया गया है। इसके आगे स्त्री-पुरुष युगल को वार्तालाप मुद्रा में दिखाया गया है। यह जिनालय 1 मीटर ऊँची जगती पर बना है। मंदिर का शिखर सप्तरथ और षोड़शभद्र है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 39 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भगृह का द्वार सात शाखाओं वाला है। जिनमें पत्रलता, मंदारमाला, वाद्यवादन करती नृत्य युक्त आकृतियां एवं वर्तुलाकार गुच्छ रचनाओं का अलंकरण है। अन्य विषयों में बालक और शुक के साथ क्रीड़ा करती, पत्रलिखती, दर्पण में मुखदेख आभूषण पहनती, पैर से कांटा निकालती, माला लिये मेखला पहनती, अंगड़ाई लेती, वेणुवादन व कंदुक क्रीड़ा करती स्त्रियों की मूर्तियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जिनालय में तीन ओर के छज्जों में जैन आचार्यों की वार्तालाप करती मूर्तियां भी बनी हैं। 11. नेमिनाथ जिनालय- इस जिनालय में सं. 2037 प्रतिष्ठित भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। इस प्रतिमा के पार्श्व भागों में सं. 1927 में प्रतिष्ठित भगवान सुपार्श्वनाथ व पार्श्वनाथ की सप्तफणी प्रतिमा विराजमान है। 12. पार्श्वनाथ जिनालय- यह जिनालय खजुराहो का प्राचीनतम व सर्वाधिक सुरक्षित जिनालय है। यह सभी जिनालयों में विशालतम व सर्वोत्कृष्ट है। स्थापत्य, कला और मूर्ति-अंलकरणों की दृष्टि से विशेष महत्व है। मंदिर के प्रदक्षिणा-पथ में मंद प्रकाश के संचार हेतु गवाक्ष बने है। पूर्वाभिमुख इस जिनालय के पश्चिमी प्रक्षेप में गर्भगृह के पृष्ठ भाग से जुड़ा एक स्वतंत्र देवालय भी इसमें बना है; जो इस जिनालय की एक अभिनव विशेषता है। इसमें 11वीं सदी की 4 फीट 2 इंच ऊँची भगवान ऋषभदेव की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह जिनालय 10वीं सदी में निर्मित किया गया था। खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर व इस मंदिर में पर्याप्त समानतायें देखने को मिलती हैं। दोनों ही मंदिर में कृष्ण-लीला के दृश्यों के साथ राम-सीता, हनुमान और बलराम-रेवती की मूर्तियां भी दिवालों पर उकेरी गई हैं। पार्श्वनाथ जिनालय का निर्माण पूर्ण दक्षता से किया गया है। इस जिनालय की वास्तुकला लक्ष्मण मंदिर से श्रेष्ठ है। मंदिर में अप्सराओं एवं सुरसुंदरियों की श्रेष्ठतम मूर्तियां हैं। यह जिनालय प्रदक्षिणा पथ युक्त गर्भगृह, अन्तराल, महामंडप और अर्धमंडल से युक्त है। यह जिनालय मूलतः ऋषभनाथ जी को समर्पित था। किन्तु संवत् 1917 में स्थापित काले पत्थर से निर्मित भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान होने के कारण इसे आज पार्श्वनाथ जिनालय के नाम से जाना जाता है। अर्धमंडप के ललाटबिम्ब में आदिनाथ की यक्षिणी चक्रेश्वरी तथा गर्भगृह की मूल प्रतिमा के सिंहासन पर आदिनाथ के वृषभ लांछन और पारंपरिक यक्ष-यक्षिणी गोमुख-चक्रेश्वरी के अंकन मंदिर के मूलतः आदिनाथ को समर्पित होने के अकाट्य प्रमाण हैं। गर्भगृह व मंडप की भित्तियों के प्रक्षेपों और आलों में जंघा पर क्रमशः नीचे से ऊपर की ओर छोटी होती गई मूर्तियों की तीन समानान्तर पंक्तियां बनीं हैं। इनमें अष्ट दिक्पालों, अम्बिका, शिव, विष्णु, ब्रह्मा, देवयुगल, लक्ष्मी, लांक्षन रहित जिनेन्द्र देवों, विद्याधर युगलों, 40 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधर्व, किन्नरों की उड़ीयमान आकृतियां बनीं हैं। मंदिर के शिखर व बाह्य भाग पर भी चारों ओर मूर्तियां बनीं हैं। जिनमें कुबेर, राम, बलराम, अग्नि, कामदेव, शिव, विष्णु, ब्रह्मा, अम्बिका, चक्रेश्वरी, सरस्वती, लक्ष्मी, ब्रह्माणी आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। यहां की अप्सरा मूर्तियां खुजराहो की सर्वश्रेष्ठ मूर्तियां मानी जाती हैं। इसके अतिरिक्त मंदिर के बाह्य भाग में कामक्रिया में रत युगलों की भी चार मूर्तियां हैं। यह जिनालय 1.2 मीटर ऊँची जगती पर निर्मित है। इस जिनालय में गर्भगृह, अन्तराल, महामंडप और अर्धमंडल के लिए अलग-अलग शिखर बने हुए हैं। गर्भगृह का सप्तरथ शिखर नागर शैली का है। अर्धमंडप की भीतरी छत खजुराहो के अन्य मंदिरों की तुलना में अधिक अलंकृत है। अर्धमंडप व गर्भगृह का प्रवेश-द्वार विभिन्न देव आकृतियों, अलंकरणों, नवगृहों व तीर्थंकर प्रतिमाओं से सज्जित है। आयताकार मंडप की भीतर की ठोस दीवालें 16 अर्धस्तंभों पर स्थित हैं। जिनमें पीठिकाओं पर तीर्थंकर प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं। मंदिर के मंडप और गर्भगृह की दीवालों पर ऊपरी पंक्ति में गंधर्व और विद्याधरों की स्वतंत्र एवं युगल मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। यहीं व्याल की भी लगभग 45 मूर्तियां हैं। मंडोवर व गर्भगृह की भित्तियों पर 50 अप्सरा मूर्तियां भी हैं। मनमोहक शारीरिक चेष्टाओं और भाव-भंगिमाओं वाली ये मूर्तियां त्रिभंग या अतिभंग में हैं। यह मूर्तियां सुंदर और मांसल शरीर वाली, नाभिदर्शना, स्वस्थपयोधरों व तीखी भंगिमाओं वाली हैं तथा अलंकरणों से सज्जित हैं। पूर्वाभिमुख यह जिनालय 70 x 35 फीट में बना है। कला सौष्ठव व शिल्प की दृष्टि से यह जिनालय श्रेष्ठतम है। प्रसिद्ध विद्वान फर्ग्युसन ने इस जिनालय के बारे में लिखा है- "वास्तव में समूचे मंदिर का निर्माण इस दक्षता के साथ हुआ है कि संभवतः हिंदू स्थापत्य में इसके जोड़ की कोई रचना नहीं है, जो इसकी जगती की तीन पंक्तियों की मूर्तियों के सौंदर्य, उत्कृष्ट कोटि की कला-संजोयन व शिखर के सूक्ष्मांकन में इनकी समानता कर सके।" खजुराहो के कला विशेषज्ञ श्री रामाश्रय अवस्थी इस जिनालय की तुलना लक्ष्मण मंदिर से करते हुए लिखते हैं-लक्ष्मण मंदिर की अपेक्षा पार्श्वनाथ मंदिर की वास्तुकला अधिक विकसित है। उर्ध्व पंक्ति में विद्याधरों का चित्रण परवर्ती खजुराहो मंदिरों की एक विशिष्टता है, जिसका श्री गणेश इसी मंदिर से हुआ है। द्वार के बायें खंबे पर 12 पंक्ति के उत्कीर्ण शिलालेख में इस जिनालय का प्रतिष्ठाकाल सं. 1011 लिखा है। मुख्यद्वार के ललाटबिम्ब पर दसभुजी चक्रेश्वरी गरुढ़ पर आसीन उत्कीर्ण की गई है। बायीं व दायीं ओर क्रमशः मकर वाहिनी गंगा, कूर्म वाहिनी यमुना के साथ चतुर्भुज द्वारपाल स्थित हैं। दसभुजी चक्रेश्वरी का चित्रण केवल यहीं देखने को मिलता है। त्रिमुखी ब्राह्माणी की मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 41 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तियां भी यहां उत्कीर्ण हैं । द्वार के ऊपर मध्य में आदिनाथ भगवान की व पार्श्व भागों पर तीर्थंकर प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं । द्वार के दोनों कोनों पर 6-6 दिगंबर मुनि तीर्थंकरों की वंदना करते उकेरे गए हैं। छत पर बना पद्म-पुष्प, कला का अनुपम नमूना है। गर्भगृह की बाह्य भित्तियों पर शिशु को दुलार करती वात्सल्यमयी मां, पति को पत्र लिखने में मग्न स्त्री, अंगड़ाई लेती स्त्री, आंखों में अंजन लगाती स्त्री, माथे पर कुमकुम लगाती, मांग में सिंदूर भरती, दर्पण में रूप निहारती व अंगिया के बंध बांधती स्त्री की प्रतिमायें कला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं । ऐसी अनुपम व सुंदर कला के नमूने यहां एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन पट्टिकाओं पर उत्कीर्ण देखने को मिलते हैं; जो दर्शक को मंत्रमुग्ध कर देते हैं । 1 13. आदिनाथ जिनालय - इस जिनालय में लगभग 6 फीट ऊँची खजुराहो की सबसे विशाल पद्मासन मुद्रा में आसीन भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा आसीन है । सिंहासन के छोरों पर भगवान के यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियां लांछन चिह्न के साथ उत्कीर्ण हैं । शिरोभाग के पीछे अलंकृत प्रभामंडल बना है। परिकर में कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर मूर्तियों तथा बादलों की पृष्ठभूमि में आकाशगामी गंधर्व युगलों का अंकन भी किया गया है। भगवान की केश- रचना विशेष आकर्षक है। 14. श्रेयांसनाथ जिनालय - लगभग 2 फीट 7 इंच ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में मूलनायक के रूप में भगवान श्रेयांसनाथ की प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। प्रतिमा के पार्श्व भागों में बाहुबली व मुनिसुव्रतनाथ भगवान की कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियां विराजमान हैं। 15. इस जिनालय में तीन प्रतिमायें विराजमान हैं जिनमें से एक प्रतिमा पर प्रतीक चिह्न नहीं है । एक प्रतिमा भगवान महावीर स्वामी की इस जिनालय में विराजमान है। दो प्रतिमाओं पर उनके यक्ष-यक्षिणी बनें हैं । 16. त्रिमूर्ति जिनालय इस जिनालय में 11वीं सदी में स्थापित भगवान नेमिनाथ, पार्श्वनाथ व महावीर स्वामी की प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं । अर्धमंडप के बाहरी भाग में गज आकृतियां भी बनीं हैं। ये आकृतियां सुंदर, मनभावन व अलंकृत हैं। 17. भगवान आदिनाथ जिनालय - इस जिनालय में 11वीं शताब्दी में स्थापित लगभग 2 फीट ऊँची भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। तीर्थंकर प्रतिमा के पादमूल में भगवान के यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियां भी बनीं हुईं हैं। चंदेल शासक कला एवं स्थापत्य के महान पुजारी थे । इन्हीं के शासन काल में 950 ई. से 1050 ई. तक यहां विभिन्न मंदिरों का निर्माण किया गया। पूर्व में यहां 85 मंदिर थे; जिनमें से कुछ ही 'लगभग 25 फीट ही शेष बचे हैं। चंदेल 42■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजवंश का पहला शासक हर्षदेव था। इसके काल में खजुराहो का मातंगेश्वर मंदिर बना। यह 905-925 ई. तक शासनारूढ़ रहा। इसके पुत्र यशोवर्धन (925-950 ई.) ने साम्राज्य का विस्तार किया व लक्ष्मण मंदिर का निर्माण कराया। यशोवर्धन का पुत्र धंग (950-1003) के शासनकाल में चंदेल शासकों की प्रतिष्ठा चरमोत्सर्ग पर थी। इसने प्रतिझरों की सत्ता को पूर्णतः अस्वीकार कर स्वाधीनता घोषित की थी। इसका राज्य कालिंजर से मालव नदी तक, मालव नदी से कालिंदी, चेदि व ग्वालियर तक विस्तृत था। यह कला का महान समर्थक था। इसने ही विश्वनाथ मंदिर, पार्श्वनाथ जिनालय आदि मंदिर बनवाये थे। धंग के बाद उसका पुत्र विद्याधर (1018-1029 ई.) चंदेल राजवंश का शासक बना। इसने कलचुरियों व परमारों पर विजय पाई थी। इसने खजुराहो में कंदरिया महादेव का मंदिर बनवाया। खजुराहो में देव मूर्तियों व मंदिरों के निर्माण की परंपरा मदन वर्मन (1158 ई.) तक निरन्तर चलती रही। इसी अवधि में ऋषभनाथ व अन्य जिनालयों का निर्माण किया गया। मदनवर्मन के उत्तराधिकारी परमर्दिदेव के शासनकाल में महोवा में एक विशाल जिनालय का निर्माण हुआ व उसमें सुमतिनाथ व नेमिनाथ भगवान की मूर्तियां स्थापित कराई। इसी के शासनकाल में 1180 में अहार क्षेत्र में भगवान शान्तिनाथ की विशाल खड्गासन प्रतिमा को भी प्रतिष्ठिापित किया गया। खजुराहो के पार्श्वनाथ जिनालय को श्रेष्ठि पाहिल ने सात वाटिकायें दान में दी थी। खजुराहो के 1075 ई. के मूर्तिलेख में श्रेष्ठि वीबनशाह की भार्या पद्मावती द्वारा आदिनाथ भगवान की मूर्ति स्थापित करने का उल्लेख है। यहीं के 1148 के एक अन्य लेख में श्रेष्ठि पाणिधर व उसके तीन पुत्रों द्वारा जैन मंदिर व मूर्तियों के निर्माण का उल्लेख मिलता है। यहीं के 1158 ई. एक अन्य लेख में पाहिल के वंशज एवं गृहपति कुल के साधु साल्हे द्वारा भगवान संभवनाथ की मूर्ति स्थापना का उल्लेख भी मिलता है। लेख में साल्हे के पुत्रों महागण, महाचन्द्र, शनिचन्द्र, जिनचन्द्र, उदयचन्द्र आदि के नाम भी दिये हैं। इस प्रकार खजुराहो के विभिन्न मूर्तिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि व्यापारी परिवार के पाहिल एवं उसके पिता और अन्य पूर्वजों तथा उत्तराधिकारियों ने लगभग 200 वर्षों तक (954-1158 ई.) जैन मंदिरों व मूर्तियों के निर्माण व उनकी स्थापना में पूरा सहयोग दिया था। लेखों में लाखन, कुमारसिंह, पापट व रामदेव आदि शिल्पियों के नाम भी मिलते हैं। खजुराहो व अन्य स्थलों के लेखों में विभिन्न दिगंबर जैन आचार्यों के भी उल्लेख मिलते हैं। जिनसे संपूर्ण क्षेत्र में जैन मंदिरों एवं मूर्तियों के होने तथा उनके स्वतंत्र विचरण का संकेत मिलता है। इनमें वासवचन्द्र, श्री देव, कुमुदचन्द्र, देवचन्द्र आदि जैनाचार्य प्रमुख हैं। खजुराहो में 950-1150 के मध्य की लगभग 200 से अधिक जिन-प्रतिमायें मध्य-भारत के जैन तीर्व.45 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। खजुराहो के देवी जगदम्बी और विश्वनाथ मंदिरों के अधिष्ठानों पर जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। खजुराहो के जैन मंदिरों में स्वतंत्र मूर्तियों के अलावा द्वितीर्थी, त्रितीर्थी व चौमुखी मूर्तियां भी बहुतायत में विराजमान है। खजुराहो स्थित जिन-प्रतिमायें प्रतिमा लक्षण की दृष्टि से पूर्ण विकसित कोटि की हैं। इन जिन-प्रतिमाओं में प्रतीक चिह्नों, यक्ष-यक्षिणी युगलों, अष्ट प्रतिहार्यों तथा परिकर में लघु जिनबिम्बों, नवगृहों तथा कभी-कभी लक्ष्मी, सरस्वती और बाहुबली भगवान का भी अंकन हुआ है। श्रीवत्स चिह्न से युक्त सभी चिह्न प्रतिमायें लक्षणों की दृष्टि से पूरी तरह देवगढ़ एवं मथुरा जैसे समकालीन दिगंबर तीर्थं क्षेत्रों की जिन-प्रतिमाओं के समान हैं। यहां तीर्थंकरों को अलंकृत आसनों पर निरुपित किया गया है। जिनके नीचे सिंहासन है। सिंहासन के मध्य धर्मचक्र व यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियां उत्र्कीण हैं। धर्मचक्र के समीप ही तीर्थंकरों के प्रतीक चिहन बने हुए हैं। मूलनायक प्रतिमाओं के पार्श्व भागों पर मुकुट एवं हार आदि से शोभित सेवकों की मूर्तियां भी हैं। जिनके एक हाथ में चांवर व दूसरा हाथ कटिभाग पर या उसमें पद्म है। मूलनायक प्रतिमा के कंधों के ऊपर दोनों ओर गजों, उड्डीयमान मालाधों एवं उनके युगलों की मूर्तियां बनी हैं। गजों पर सामान्यतः घट लिए एक या दो मानव आकृतियां बैठी हैं। जिनबिम्बों के शिरोभाग के पीछे ज्यामितीय, पुष्प एवं अन्य अलंकरणों से सज्जित प्रभामंडल उत्कीर्ण किए गए हैं। मूलनायक की प्रतिमा के ऊपर तीन छत्र बने हैं। मूल प्रतिमाओं के परिकर में नवगृहों व लघु जिन मूर्तियां का अंकन भी प्रायः देखने को मिलता है। यहां के मंदिर क्रमांक 4 के उत्तरंग पर जिनेन्द्र भगवान के दीक्षा कल्याणक का प्रसंग दर्शाया गया है, जो अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। गर्भ व जन्म कल्याणक के दृश्य यहां अनेक स्थानों पर उकेरे गए हैं। इस तीर्थं पर एक आधुनिक संग्रहालय बना हुआ है। पुरातत्वविदों की देख-देख में यह संग्रहालय श्री दशरथ जी जैन-पूर्व मंत्री मध्यप्रदेश शासन के मार्ग निर्देशन में तैयार किया गया है। इस संग्रहालय में प्रतिमायें व शेष पुरातत्व सामग्री अपनी विशिष्टितायें दर्शाते हुए रखी गईं हैं। एक अन्य शासकीय संग्रहालय भी खजुराहो में है। इस संग्रहालय में भी जैन प्रतिमायें सुरक्षित रखी हैं। क्षेत्र पर वार्षिक मेला भी लगता है। यह मेला चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है। प्रतिवर्ष कुंवार वदी 3 को यहां श्री की पालकी भी निकाली जाती है। 44 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध क्षेत्र रेशंदीगिरि (नैनागिरि) “समवशरण श्री पार्श्व जिनंद, रेसंदीगिरि नैनानंद। वरदत्तादि पंच ऋषिराज, ते वंदौ नित धरम जिहाज।।" निर्वाण कांड भाषा की भांति ही प्राकृत निर्वाण कांड में भी ऐसा ही उल्लेख है अर्थात् ऐसे रेशंदीगिरि सिद्धक्षेत्र की मैं भक्तिभाव पूर्वक वंदना करता हूँ, जो नेत्रों को आनंद प्रदान करने वाला है तथा जो भगवान पार्श्वनाथ की समवशरण स्थली है। यह तीर्थं क्षेत्र छत्तरपुर जिले में स्थित है। यह सिद्धक्षेत्र छतरपुर-सागर मार्ग पर स्थित दलपतपुर ग्राम से बायीं ओर लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर पूर्व दिशा में स्थित है। यह तीर्थं क्षेत्र दमोहहीरापुर मार्ग पर स्थित बक्सवाहा कस्बे से भी 25 किलोमीटर की दूरी पर है, व दोनों ओर से पक्के सड़क मार्ग से जुड़ा है। यह खजुराहो से 150 किलोमीटर, सागर से 60 किलोमीटर व टीकमगढ़ पपौरा से 85 किलोमीटर तथा द्रोणागिरि से भी लगभग 85 किलोमीटर दूर है। यहां आने के लिए बक्सवाहा व सागर से सीधी बस सेवा भी उपलब्ध है। इस तीर्थं क्षेत्र की प्राचीनता इस बात से स्वतः सिद्ध है कि यहां भगवान पार्श्वनाथ जी का समवशरण आया था। यहां से भगवान ने सांसारिक भव्य जीवों के कल्याण के लिए धर्मोपदेश दिया था। निर्विवाद रूप से इसीलिए इस तीर्थ का महत्व विगत 3000 वर्षों से तो है ही। 16वीं व 17वीं शताब्दी से क्रमशः मेघराज जी व पं. चिमना जी ने भी तीर्थ वंदना में इस क्षेत्र का उल्लेख किया है। एक शिलालेख के अनुसार जो मंदिर की दीवाल में लगा है, इस मंदिर का निर्माण 1109 में हुआ। एक विशाल जिनालय में जिसमें लगभग 3 वेदियां हैं, भूगर्भ से प्राप्त 13 प्राचीन मूर्तियां रखीं हैं। ये सभी 11वीं, 12वीं सदी की हैं। ये सब सामग्री इस क्षेत्र की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। इसी तीर्थ-क्षेत्र से ऋषिराज श्री वरदत्त, श्री मुनीन्द्रदत्त, श्री इन्द्रदत्त, श्री गुणदत्त व शायरदत्त जी भगवान पार्श्वनाथ के समय मोक्ष पधारे थे। ___यह तीर्थक्षेत्र एक नदी के किनारे सुरम्य प्राकृतिक वातावरण से घिरे शान्त व मनमोहक स्थल पर पठारी भू-भाग पर तालाब के किनारे स्थित है। इसीलिए साधकों ने इसे अपना साधना केन्द्र बनाया। यहां के नयनाभिराम सौंदर्य के कारण ही इसे लोग नैनागिरि कहने लगे। क्षेत्र के निकट प्रवाहित नदी धारा के मध्य में 50 फीट ऊँची एक पाषाण शिला है, इसे सिद्ध शिला कहा जाता है। इसके अतिरिक्त एक मील दूर जंगल में एक विशाल वेदिका है जो कोटि शिला के नाम से विख्यात है। इस तीर्थ-क्षेत्र पर 55 भव्य जिनालय स्थित हैं। जिनमें जल मंदिर, समवशरण मंदिर व विशाल पार्श्वनाथ जिनालय अपना विशेष महत्व रखते हैं। आज से 140 वर्ष पहले बम्हौरी ग्राम के निवासी ब्या श्री श्यामले जी को एक स्वप्न आया था। जिसमें उन्होंने देखा कि इस क्षेत्र पर जमीन में अनेक जिन-प्रतिमायें दबी हुई हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 45 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके स्वप्न के अनुसार क्षेत्र पर जब खुदाई करवाई गई; तो उस स्थल पर एक जिनालय मिला। इस खुदाई में 13 जिन - प्रतिमायें भी मिली। जो आज इस क्षेत्र पर एक जिनालय में सुरक्षित रखीं हुई हैं । इस तीर्थ क्षेत्र पर सन् 1960 के दशक में छुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी के सान्निध्य में एक विशाल पंचकल्याणक एवं जिनबिम्ब प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन किया गया था और नवनिर्मित पार्श्वनाथ जिनालय जिसमें चतुविशंति जिन तीर्थंकरों के भी भव्य जिनबिम्ब स्थापित किए गए थे उनका भी प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ था । इसी तीर्थ क्षेत्र पर सं. 1987 में एक विशाल पंचकल्याणक महोत्सव का आयोजन संत शिरोमणि परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के सान्निध्य में संपन्न हुआ था। तभी यहां भगवान 1008 श्री पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया गया था। यह प्रतिमा शास्त्रोक्त अवगाहना वाली अतिभव्य व आनंद प्रदान करने वाली मनमोहक है। इस तीर्थ क्षेत्र की वंदना हम धर्मशाला से बाहर निकलकर एक परिसर में स्थित 15 जिनालयों से प्रारंभ करते हैं । 1. भगवान बाहुबली जिनालय - इस जिनालय में सामने ही भगवान बाहुबली की लगभग 6 फीट ऊँची श्वेत संगमरमर से निर्मित भव्य खड्गासन प्रतिमा विराजमान हैं। 2. आदिनाथ जिनालय - इस वेदिका पर लगभग 2 फीट अवगाहना की भगवान आदिनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। वेदिका पर दो अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी विराजमान हैं। 3. नाग देवता पर आसीन लगभग 2.5 फीट अवगाहना की यह प्रतिमा अतिमनोज्ञ है वेदिका पर तीन अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी विराजमान हैं। 4. आदिनाथ जिनालय - इस जिनालय में मूलनायक भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के अलावा पांच अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं। 5. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में कृष्ण वर्ण की 2.2 फीट अवगाहना की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 6. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ के जिनबिम्बों के अतिरिक्त 2 अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी आसीन हैं। 7. सुमतिनाथ जिनालय - इस जिनालय में पांचवें तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ की श्वेत वर्ण की लगभग 2 फीट अवगाहना वाली भव्य पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। 8. चन्द्रप्रभु जिनालय - इस जिनालय में मूलनायक भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा के अलावा 5 और जिन - प्रतिमायें विराजमान हैं । 9. पार्श्वनाथ जिनालय - मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ जी के अतिरिक्त दो और तीर्थंकर प्रतिमायें इस जिनालय में विराजमान हैं। ये प्रतिमा सं. 1881 में प्रतिष्ठित की गई थी । 46 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. चन्द्रप्रभु जिनालय - यह एक बड़ा व भव्य जिनालय है, जिसमें मूलनायक के रूप में आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की 2 फीट से अधिक अवगाहना वाली श्वेत (धवल) प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। इसके अलावा वेदिका पर अन्य अनेक जिन - प्रतिमायें भी विराजमान हैं जिनमें से अधिकांश धातु निर्मित हैं । 11. चन्द्रप्रभु जिनालय - इस जिनालय में लगभग 1.5 फीट अवगाहना की धवल पद्मासन प्रतिमा भगवान चन्द्रप्रभु की है। जिनालय में दो और जिन - प्रतिमायें विराजमान हैं। 12. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के अलावा दो और तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं। 13. नेमिनाथ जिनालय - इस जिनालय में 1 फीट 8 इंच अवगाहना की कृष्ण वर्ण की पद्मासन मूर्ति भगवान नेमिनाथ की है। मंदिर में दो अन्य प्रतिमायें भी विराजमान हैं । 14. नेमिनाथ जिनालय - 1.5 फीट अवगाहना की भगवान नेमिनाथ की पद्मासन मूर्ति इस जिनालय में विराजमान है। 15. मानस्तंभ- मंदिर परिसर से बाहर एक चबूतरे पर लगभग 45 फीट ऊँचा विशाल मानस्तंभ बना है, जिसमें ऊपर चारों दिशाओं में तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं । धर्मशाला के समीप स्थित इन पन्द्रह जिनालयों की वंदना करने के पश्चात् श्रद्धालु सड़क पार कर एक सुंदर सरोवर के किनारे पहुँचता है। सरोवर के मध्य से एक पैदल रास्ता बना है, जो जल मंदिर होकर क्षेत्र की पहाड़ी तक जाता है। यहां कुल इकतालीस जिनालय हैं। क्षेत्र का वर्णन परिक्रमा पथ के अनुसार दिया जा रहा है। 16. जलमंदिर- तालाब के मध्य में स्थित होने के कारण इस जिनालय को जल मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस जिनालय में लगभग 2 फीट ऊँची अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा श्वेत वर्ण की वी. नि. सं. 2482 में प्रतिष्ठित हुई थी। जिनालय में परिक्रमा पथ भी है। इस जिनालय में 5 पाषाण की व 9 धातु निर्मित प्रतिमायें और विराजमान हैं । 17. समवशरण जिनालय - यह जिनालय तालाब के दूसरे किनारे पर स्थित है । इस जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ जी के समवशरण की रचना की गई है। सबसे ऊपर मध्य में चारों दिशाओं में भगवान पार्श्वनाथ की फणावली युक्त प्रतिमायें विराजमान हैं। प्रतिमायें मनोहारी, सुंदर, कलात्मक, आनंददायक व अवगाहना में लगभग 4-5 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं। आगे कुछ जीने चढ़ने के पश्चात् हम एक विशाल परिसर में पहुँचते हैं, अधिकांश जिनालय इसी परिसर में स्थित हैं । मध्य-भारत के जैन तीर्थ = 47 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___18. यह जिनालय प्रथम तल पर स्थित है। इस जिनालय में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में आसीन है। यह प्रतिमा लगभग 1.5 फीट ऊँची है तथा वि. सं. 2465 में प्रतिष्ठित है। ___19. सीढ़ियों से नीचे उतरने पर चार जिनालय एक पंक्ति में हैं। इनमें से प्रथम नेमिनाथ जिनालय है। इसमें भगवान नेमिनाथ स्वामी की सं. 2012 में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा प्रतिष्ठित है। ___20. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में 1.25 फीट अवगाहना की आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा भी श्वेत. वर्ण की है। 21. अजितनाथ जिनालय- इस जिनालय में श्याम वर्ण की लगभग 2 फीट ऊँची भगवान अजितनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके पाद्मूल में प्रशस्ति नहीं दी गई है। 22. आदिनाथ जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। यह पद्मासन प्रतिमा लगभग 1.5 फीट अवगाहना की है। प्रतिमा का वर्ण श्याम है तथा वि. सं. 1858 की प्रतिष्ठित है। इस जिनालय में छोटी-छोटी अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी हैं। 23. ऋषभदेव जिनालय- इस जिनालय में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ की लगभग 4 फीट ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह जिनालय भी सं. 1858 का निर्मित है वेदिका पर दो चरण-चिह्न भी एक शिलापट पर उत्कीर्ण हैं। 24. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में भगवान चन्द्रप्रभु की दो प्रतिमाओं के अतिरिक्त भगवान शान्तिनाथ एवं भगवान पार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण प्रतिमायें सं. 1548 में प्रतिष्ठित है। भगवान शान्तिनाथ की वी. नि. सं. 2490 में प्रतिष्ठित है। 25. शान्तिनाथ जिनालय- इस जिनालय में गंधकुटी में भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 26. इस मेरु सदृश्य जिनालय में चरण-चिह्न अंकित है। 27. चन्द्रप्रभु जिनालय (मेरु सदृश्य)- इस जिनालय में जीना चढ़ते हुए तीन परिक्रमा लगाने पर ऊपर भगवान चन्द्रप्रभु के दर्शन होते हैं। इसमें 1 फीट 2 इंच अवगाहना की श्वेत पाषाण की सं. 2008 में प्रतिष्ठित पद्मासन प्रतिमा आसीन है। 28. मेरु मंदिर के निकट ही मानस्तंभ अवस्थित है। 29. अभिनंदन नाथ जिनालय- चौथे तीर्थंकर भगवान अभिनंदन नाथ की श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा, जिसकी अवगाहना 2.25 फीट है, और जो वीर नि. सं. 2478 में प्रतिष्ठित है, इस जिनालय में विराजमान है। 30. चन्द्रप्रभु जिनालय- इसमें भगवान चन्द्रप्रभु की 1.25 फीट ऊँची श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। पाद्मूल में प्रशस्ति नहीं दी गई है। 48 - मध्य भारत के जैन तीर्व Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. ऋषभदेव जिनालय - लगभग 2.25 फीट अवगाहना की श्वेत वर्ण की सं. 1952 में प्रतिष्ठित भगवान ऋषभनाथ की पद्मासन प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। 32. इस जिनालय में चरण - चिह्न स्थित हैं । 33. अजितनाथ जिनालय - इस जिनालय में श्याम वर्ण की लगभग 5 फीट अवगाहना वाली भगवान अजितनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिष्ठाकाल सं. 1948 है। 34. चन्द्रप्रभु जिनालय - लगभग 1.5 फीट अवगाहना वाली श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा जो भगवान चन्द्रप्रभु की है, इस जिनालय में प्रतिष्ठित है । 35. पार्श्वनाथ जिनालय - सं. 1995 में प्रतिष्ठित भगवान पार्श्वनाथ की श्वेत धवल प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में इस जिनालय में आसीन है । 36. चन्द्रप्रभु जिनालय - पद्मासन मुद्रा में स्थित यह प्रतिमा एक फीट ऊँची है व श्वेत वर्ण की है, इसमें प्रशस्ति नहीं है । 37. चन्द्रप्रभु जिनालय - सं. 1942 में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की यह पद्मासन प्रतिमा भगवान चन्द्रप्रभु की है, जिसकी अवगाहना लगभग 1.25 फीट है। इस जिनालय में कृष्णवर्ण की एक अन्य तीर्थंकर प्रतिमा भी विराजमान है । 38. पार्श्वनाथ जिनालय - सं. 1943 प्रतिष्ठित पद्मासन मुद्रा में आसीन लगभग 2 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा इस जिनालय में अवस्थित है । 39. नेमिनाथ जिनालय - सं. 1943 में प्रतिष्ठित पद्मासन मुद्रा में यह प्रतिमा लगभग 1.75 फीट ऊँची है व श्वेत वर्ण की है। यह नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा है। 40. चन्द्रप्रभु जिनालय - भगवान चन्द्रप्रभु की यह प्रतिमा श्वेत पाषाण की लगभग एक फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में आसीन है। इसका प्रतिष्ठाकाल सं. 1942 है। 41. पार्श्वनाथ जिनालय - मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की 1943 में प्रतिष्ठित कृष्ण वर्ण की पद्मासन मुद्रा में स्थित प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। 42. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में लगभग 5 फीट अवगाहना की भगवान पार्श्वनाथ की कमलासन पर विराजमान प्रतिमा अवस्थित है। 43. चन्द्रप्रभु जिनालय - मूंगिया वर्ण की लगभग 1.75 फीट ऊँची यह पद्मासन प्रतिमा 1943 में प्रतिष्ठित है व भगवान चन्द्रप्रभु की है। 44. नेमिनाथ जिनालय- कृष्ण पाषाण की वीर नि. सं. 2484 में प्रतिष्ठित लगभग 1.25 फीट अवगाहना की पद्मासन प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। 45. शान्तिनाथ जिनालय - इस जिनालय में कमलासन पर विराजमान भगवान शान्तिनाथ की मनोहारी मूर्ति विराजमान है । मध्य-भारत के जैन तीर्थ 49 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकमगढ़ ISKM पपौरा 30KM/A SKM झांसी) अहारजी पानारी 140 KM सागर वंडा घुवारा 25KM 25KM द्रोणगिरि 27 KM शाहगढ 0 हीरापुर बड़ामलहरा // 25 KM दलपतपुर KM छतरपुर - 55KM 15 KM 50KM ननागिर 15KM//35KM 100 KM बमीठा दमोह SOKM खजुराहो बकस्वाहा 46. चन्द्रप्रभु जिनालय- 1.5 फीट अवगाहना की यह प्रतिमा सं. 1983 में प्रतिष्ठित है; पद्मासन मुद्रा में भगवान चन्द्रप्रभु की है। ___47. मुनिसुव्रतनाथ जिनालय- कृष्ण पाषाण की लगभग 3 फीट अवगाहना की यह जिन-प्रतिमा पद्मासन में भगवान मुनिसुव्रतनाथ की है। ___48. वासुपूज्य जिनालय- इस जिनालय में भगवान वासुपूज्य की प्रतिमा विराजमान है। 49. मुनिसुव्रतनाथ जिनालय- 1943 में प्रतिष्ठित यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में आसीन है; अतिभव्य व मनोहारी है। इसी जिनालय के कंगूरों पर बैठकर नाग-नागिनी का जोड़ा आचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रवचनों का लाभ लेता था व प्रवचन के बाद चला जाता था। 50. मुनिसुव्रतनाथ जिनालय- लगभग 2.5 फीट अवगाहना की यह प्रतिमा कृष्ण वर्ण की है व भगवान मुनिसुव्रतनाथ की है। इस प्रतिमा के पार्श्व भागों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। 51. वर्धमान जिनालय-इस जिनालय में मूलनायक भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह रक्त वर्ण की प्रतिमा लगभग 2 फीट अवगाहना की है। इस प्रतिमा का प्रक्षाल करते समय एक विशेष ध्वनि निकलती है। इस प्रतिमा को किसी स्त्री ने अशुद्ध दशा में स्पर्श कर लिया था; तब यहां अतिशय हुआ था। 52. मल्लिनाथ जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक भगवान मल्लिनाथ 50 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रतिमा विराजमान है। यह पद्मासन मुद्रा में है। इसके पार्श्व भागों में भगवान चन्द्रप्रभु की पद्मासन प्रतिमायें विराजमान हैं। 53. यह अतिप्राचीन जिनालय है। यहीं 100 वर्ष पूर्व स्वप्न देकर 13 प्रतिमायें भूगर्भ से प्रकट हुई थी। 9 फण की भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा भी यहां विराजमान है। यहां सं. 1109 का एक शिलालेख भी उत्कीर्ण है। भूगर्भ में प्राप्त 9 प्रतिमायें मुख्य वेदी पर विराजमान है। यहीं रक्त वर्ण की खड्गासन पाषाण निर्मित एक प्रतिमा भी स्थापित है। इन मूर्तियों में एक गोमेद यक्ष व अम्बिका देवी की है जो 3 फीट ऊँची है। यह देशी पाषाण की भूरे रंग की है। देवी गोद में बालक लिये हुए है। यक्ष व यक्षिणी दोनों ही अलंकृत दशा में है। आम्र शाखाओं पर एक वानर दिखाई देता है। उसके ऊपर भगवान नेमिनाथ की पद्मासन प्रतिमा उत्कीर्ण है। यहीं 4 फीट ऊँची एक भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमा भी है। जिसके सिर पर तीन छत्र बने हैं। दोनों पार्श्व भागों में आकाशगामी गंधर्व है। प्रतिमा के चरणों के दोनों ओर चमर लिए इन्द्र विनयवत मुद्रा में खड़े हैं। 54. भगवान शान्तिनाथ जिनालय- इस जिनालय में पद्मासन मुद्रा में भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। ___55. कुंथुनाथ जिनालय- इसमें पद्मासन मुद्रा में भगवान कुंथुनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 56. पार्श्वनाथ चौबीस जिनालय- यह इस तीर्थ-क्षेत्र का अंतिम नवनिर्मित विशाल जिनालय है। बादामी रंग की भगवान पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा इस जिनालय का मूल आकर्षण है। यह प्रतिमा शास्त्रोक्त अवगाहना वाली बिना फणावली युक्त लगभग 11 फीट ऊँची है। मूर्ति की भाव-भंगिमायें व शान्त मुद्रा देखते ही बनती है। यह प्रतिमा तीन छत्र, भामंडल व चमरेन्द्रों सहित है। इसकी प्रतिष्ठा वीर नि. सं. 2478 में हुई थी। चरण चौकी पर सर्प बना हुआ है वाद्यवादक प्रतिमा के अधोभाग में स्थित है। इसी विशाल कक्ष में चौबीसी बनी है, जिसमें चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमायें क्रमिक रूप से विराजमान है। हॉल के एक किनारे लगभग 5.5 फीट अवगाहना की खड्गासन मुद्रा में भगवान बाहुबली की प्रतिमा विराजमान है। जबकि दूसरी ओर यहां से मोक्षप्राप्त हुए मुनिराजों की 5 खड्गासन प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें मुनिश्वर वरदत्त, शायरदत्त, मुनीन्द्रदत्त, इन्द्रदत्त व गुणदत्त की हैं। क्षेत्र पर यात्रियों की सुविधा के लिए आधुनिकतम सुविधाओं से युक्त जैनधर्मशालायें भी है। साधुओं को ठहरने के लिए संत-निवास है। इस क्षेत्र पर प्रतिवर्ष अगहन सुदी 11 से 15 तक वार्षिक मेले व रथोत्सव का आयोजन किया जाता है। यद्यपि क्षेत्र स्थित तालाब में मछली पकड़ने व शिकार के प्रतिबंध का बोर्ड अवश्य लगा है; किन्तु स्थानीय लोग तालाब से बेरोकटोक मछली पकड़ते देखे जाते हैं, जो अवैध हैं व जिसे रोकने का प्रयास राज्य शासन द्वारा किया जाना चाहिए। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 51 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध क्षेत्र द्रोणागिरि सागर-छतरपुर राजमार्ग पर स्थित छतरपुर जिले की बड़ामलहरा तहसील मुख्यालय से सिद्धक्षेत्र मात्र सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह क्षेत्र बड़ामलहरा-घुवारा पक्के सड़क मार्ग पर स्थित है। यह टीकमगढ़-शाहगढ़ मार्ग पर घुवारा तहसील मुख्यालय से मात्र 22 किलोमीटर, पपौरा जी से 56 किलोमीटर, खजुराहो से 104 किलोमीटर, नैनागिरि से 88 किलोमीटर व कुंडलपुर से 147 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस सिद्धक्षेत्र पर पर्वत की तलहटी में एक विशाल चौबीसी एवं दो जैन मंदिर स्थित हैं। इनमें चौबीसी नवनिर्मित है। पहाड़ी पर लगभग 30 जिनालय बने हैं। यह सिद्धक्षेत्र दशार्ण (घसान) की सहायक नदियों के बीच सुरम्य पहाड़ी पर स्थित है। इस पहाड़ी पर चारों ओर प्राकृतिक नीरवता के बीच प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है। इस क्षेत्र के एक ओर श्यामली (श्यामरी) नदी बहती है तो दूसरी ओर कलकल नाद करती काठन (चन्द्रभागा) नदी बहती है। इस सिद्धक्षेत्र से गुरुदत्तादि मुनिश्वरों के अलावा 3.5 करोड़ मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया था, जिससे इस क्षेत्र का कण-कण अति पवित्र है। यहां से कुछ दूरी पर एक खेत में मुनि श्री की साधना-स्थली स्थित है; जहां आज भी किसान खेती नहीं करते हैं। कहते हैं यहीं मुनिराज पर उपसर्ग आया था। पर्वत पर स्थित गुफा गुरुदत्त मुनिराज की तपोभूमि थी। इस गुफा में कुछ दूर तक यात्री आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। प्राकृत निर्वाणकांड में निम्नांकित पद्य इस क्षेत्र को सिद्ध-क्षेत्र सिद्ध करता है। फलहोड़ी बड़गामे पश्चिम भायम्मि द्रोणगिरि सिहरे। गुरुदत्तादि मुणिन्दा णिव्वाण गया णमो तेसिं।। मूलसंघ बलात्कारगण सूरत शाखा के प्रसिद्ध भट्टारक विद्यानन्दि के शिष्य भट्टारक श्रुतसागर जी ने बोधप्राभृत को 27वीं गाथा की टीका में इस तीर्थ-क्षेत्र का उल्लेख किया है (15वीं सदी)। निर्वाणकांड और निर्वाण भक्ति के अलावा इस तीर्थ-क्षेत्र का उल्लेख भगवती आराधना, आराधना सार, आराधना कथा कोष आदि ग्रंथों में भी मिलता है। भगवती आराधना में आचार्य शिवकोटि लिखते हैं हत्यिणपुर गुरुदत्तो संविलिथालीव दोणिमत्तम्मि। उत्झन्तो अधिमासिय पडिपण्णो उत्तम अळं। 11552।। अर्थात् हस्तिनापुर के निवासी गुरुदत्त मुनिराज द्रोणगिरि पर्वत के ऊपर संभलि थाली के समान जलते हुए उत्तम अर्थ को प्राप्त हुए। 52 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र वंदना 1. बड़ा प्रलहरा की ओर से क्षेत्र में प्रवेश करते ही सेंदपा ग्राम में प्रवेश के पूर्व श्यामली नदी के किनारे मैदानी भाग पर एक भव्य चौबीसी का नव निर्माण किया गया है। इस चौबीसी में चौबीस तीर्थंकरों की पृथक-पृथक वेदिकाओं पर लगभग 4 फीट अवगाहना वाली चौबीस प्रतिमायें विराजमान हैं। चौबीसी के मध्य स्थित एक वेदिका पर एक बड़े हॉल में 6 फीट अवगाहना की भगवान आदिनाथ की भव्य व मनोहारी प्रतिमा विराजमान है। इस प्रतिमा के दोनों ओर दो जिनप्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं। मंदिर के बाहर एक विशाल प्रवचन हॉल स्थित है। जहां हजारों श्रद्धालु एक साथ बैठकर प्रवचन लाभ ले सकते हैं। कुछ दूरी पर ही संत निवास बना हुआ है, जहां मुनिगण शान्त वातावरण में घोर तपश्चरण करते हैं। 2. अहाते के बाहर जाने पर सड़क के दूसरी ओर उदासीन आश्रम एक पृथक अहाते में स्थित है। इस आश्रम में ब्रह्मचारी भाई-बहनें रहकर साधना व धर्मामृत का - पान करते हैं। इसी अहाते में एक नव निर्मित भगवान पार्श्वनाथ जिनालय व एक वर्धमान जिनालय भी हैं। यहां से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर सड़क के बायीं ओर कमेटी कार्यालय व अनेक धर्मशालायें स्थित हैं। यहां यात्रियों को ठहरने के लिए सभी आधुनिक सुविधायें उपलब्ध हैं। यह सभी तलहटी में ही स्थित हैं। 3. धर्मशाला के बाहर एक प्राचीन भव्य जिनालय स्थित है। जिनालय में प्रवेश करते ही सामने स्थित प्रथम वेदी पर सं. 1903 में प्रतिष्ठित प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ की अतिमनोज्ञ पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। वेदिका पर अनेक तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी विराजमान हैं। पार्श्व भाग में स्थित दूसरी वेदिका पर भी अनेक जिनबिम्ब स्थापित हैं। यहीं अष्टधातु से निर्मित समवशरण की रचना भी है। दूसरी वेदिका पर भगवान शान्तिनाथ की श्वेत वर्ण की लगभग 1 फीट 9 इंच ऊँची सं. 2011 की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। यहां से क्षेत्र दर्शन को समीपस्थ पहाड़ी पर जाना होता है। पहाड़ी पर जाने के लिए लंबा सड़क मार्ग भी है। पैदल यात्री लगभग 250 सीढ़ियां चढ़कर पर्वत पर पहुंचते हैं। परिक्रमा-पथ की वंदना प्रारंभ करने के पूर्व यात्री को सर्वप्रथम एक चौकोर कक्ष मिलता है जहां वर्तमान में यात्रियों को शुद्ध जल देने की व्यवस्था है। यह भवन पूज्य श्री गणेश प्रसाद वर्णी की स्मृति स्वरूप एक पुस्तकालय के रूप में क्षेत्र पर निर्मित कराया गया था। परन्तु जिसमें पुस्तकालय आदि कुछ भी स्थापित नहीं है। वंदना का परिक्रमा-पथ यही से प्रारंभ होता है और यहीं आकर समाप्त होता है। पर्वतराज पर कुल 46 जगह दर्शन है। ये सभी जिनालय व छतरियां एक परिक्रमापथ पर स्थित हैं। परिक्रमापथ लगभग एक किलोमीटर से अधिक है। परिक्रमा व दर्शन बायीं ओर से प्रारंभ करते हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 5 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. सुपार्श्वनाथ जिनालय- परिक्रमा-पथ का यह प्रथम जिनालय है; जिसमें सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ की अतिमनोज्ञ भव्य प्रतिमा विराजमान है। इसे कांच का मंदिर भी कहते हैं, क्योंकि इस जिनालय के अंदर रंगीन कांच से मनमोहक कारीगरी की गई है। इस जिनालय में सं. 1938 में प्रतिष्ठित लगभग 2.5 फीट अवगाहना की पद्मासन प्रतिमा आसीन है। ___5. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में सं. 2021 में प्रतिष्ठित भगवान चन्द्रप्रभु की श्वेत वर्ण की लगभग पौने दो फीट ऊँची भव्य पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। 6. पार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह भव्य प्रतिमा लगभग 3 फीट ऊँची सहन फणावली युक्त सं. 1918 की प्रतिष्ठित है। 7. आदिनाथ जिनालय- भगवान आदिनाथ की कृष्ण वर्ण प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में इस जिनालय में विराजमान है। यह प्रतिमा लगभग 3.5 फीट ऊँची सं. 1918 में प्रतिष्ठित है। 8. अजितनाथ जिनालय- दूसरे तीर्थंकर भगवान अजितनाथ की लगभग 2 फीट ऊँची मूगियां वर्ण की यह पद्मासन प्रतिमा भी 1918 में प्रतिष्ठित है। 9. आदिनाथ जिनालय- यह जिनालय भी 1918 में निर्मित है, जिसमें लगभग 2 फीट अवगाहना की पद्मासन प्रतिमा आसीन है। उपरोक्त चारों जिनालय एक ही समय के हैं। ___10-12. यह एक विशाल जिनालय है; जिसमें अलग-अलग वेदिकाओं पर भगवान पार्श्वनाथ, भगवान चन्द्रप्रभु, भगवान पार्श्वनाथ व भगवान आदिनाथ जी के अलावा एक अन्य तीर्थंकर प्रतिमा भी विराजमान है। भगवान पार्श्वनाथ व आदिनाथ की मूर्तियां 16वीं शताब्दी की व अतिमनोज्ञ है। ये सं. 1542-48 में प्रतिष्ठित हैं। 13. चन्द्रप्रभु छतरी- इस छतरी में आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु जी के चरण-चिह्न अंकित हैं 14. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में चन्द्रप्रभु भगवान की अतिमनोज्ञ व मनभावन प्रतिमा विरामान है। 15-17. इसके आगे दर्शनार्थी आगे बढ़ता हुआ आचार्य श्री शान्तिसागर जी, मुनि श्री वीरसागर जी व मुनि श्री शिवसागर की वेदियों में स्थित उनके चरण-चिह्नों पर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हुआ दीक्षा-वन के पास से गुजरता है। ___18. परिक्रमा-पथ के मध्य में 10वें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी का छोटा किन्तु भव्य जिनालय स्थित है। यहां पहुंचकर शीतल मंद-पवन के 54 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झोकों से व भगवान शीतलनाथ जी के दर्शन से तीर्थ यात्रियों का मन शीतल हो जाता है। यहां चारों ओर प्राकृतिक सौंदर्य की अनुपम छटा बिखरी नजर आती है। 19. तत्पश्चात् दर्शक आगे बढ़ता हुआ रसोइयन की मढ़िया स्थित जिनालय पहुँचता है; जहां भगवान पार्श्वनाथ की फणावली रहित प्रतिमा विराजमान है। 20-21. परिक्रमा-पथ से हटकर कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर हम आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरण-चिह्न वाली वेदी पर पहुँचते है। पास ही एक अन्य छत्री पर जो गुणदत्त मुनिराज की स्वाध्याय-स्थली है; उस पर उनके चरण-चिह्न अंकित हैं। श्रद्धालु यहां विनम्रता से उनके चरणों में अपना मस्तक रखता है। 22. निर्वाण गुफा- यह कितनी गहरी है यह तो नहीं कहा जा सकता; किन्तु निश्चित ही यह काफी गहरी होगी। इस गुफा में दर्शनार्थी प्रकाश की व्यवस्था कर काफी दूर तक आसानी से प्रवेश कर सकता है। कहा जाता है कि इसी गुफा से मुनिश्वर गुरुदत्त जी ने निर्वाण प्राप्त किया था। यहां चरण चिन्ह स्थित हैं। ____23. इसी गुफा के बाहर एक छोटे से कमरे में संग्रहालय स्थित है, जिसमें एक शिला प्रस्तर पर पूज्य गुरुदत्त मुनिराज के ऊपर आये उपसर्ग का चित्रण किया गया है। कुछ खंडित प्रतिमायें भी यहां रखी गई हैं। बाहर मुनिराज के चरण-चिह्न भी बने हुए हैं। __ 24. पार्श्वनाथ जिनालय- सं. 1615 में प्रतिष्ठित भगवान पार्श्वनाथ की फणावली रहित प्रतिमा जो पदमासन में है। इस जिनालय में विराजमान है। ___ 25. यह इस क्षेत्र का एक प्राचीन जिनालय है। जिसमें 1541 में प्रतिष्ठित भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा विराजमान है इस जिनालय का दरवाजा काफी छोटा है। ___26. मेरु मंदिर- इस जिनालय में जीने चढ़ता हुआ तीन परिक्रमा पूर्ण कर श्रद्धालु मेरु के ऊपर विराजमान श्री जी के दर्शन करता है। इस जिनालय में 1543 में प्रतिष्ठित आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा विराजमान है। 27. अब श्रद्धालु मेरे मतानुसार इस क्षेत्र के सबसे प्राचीन स्थल पर पहुँचता है। जहां एक पाषाण निर्मित अद्भुत मानस्तंभ बना हुआ है। यह मानस्तंभ अनेक विशेषतायें लिए हुए है। प्रथम-यह अतिप्राचीन पाषाण निर्मित है। द्वितीयइसके चारों ओर ऊपर प्रत्येक दिशा में चौबीसी स्थित है; अर्थात् छोटी-छोटी 24 जिन-प्रतिमायें चारों ओर उकेरी गई हैं। तृतीय- इसके नीचे चारों दिशाओं में चार तीर्थंकर प्रतिमायें प्रत्येक दिशा में एक-एक बनी हुई है। इन चार में से तीन प्रतिमायें खड्गासन व एक पद्मासन में स्थित है। मानस्तंभ के चारों ओर प्रत्येक मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 55 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशा में चार देवियों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मानस्तंभ के चारों ओर गहराई है। यह मानस्तंभ लगभग 10 फीट ऊँचा है। 28. अरहनाथ जिनालय- भगवान अरहनाथ की पाषाण निर्मित प्राचीन प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। 29. पार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ का जिनबिम्ब स्थापित है। 30. वर्धमान जिनालय- इस जिनालय में भगवान महावीर स्वामी की खड्गासन प्रतिमा प्रतिष्ठित है। यह जिन-प्रतिमा पाषाण निर्मित अतिप्राचीन है; जिसमें प्रशस्ति भी नहीं दी गई है। 31. सुपार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में लगभग 2.5 फीट ऊँची कृष्ण वर्ण की भगवान सुपार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह सं. 1907 की प्रतिष्ठित है। ____32. आदिनाथ जिनालय- इस जिनालय में प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 33. आदिनाथ जिनालय- इस जिनालय में सं. 1548 में प्रतिष्ठित भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 34-35. इन दोनों जिनालयों में भगवान आदिनाथ जी व भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। 36. यह जिनालय नया बना है व अभी अधूरा है। इसमें गुरुदत्त मुनिराज की एक भव्य व विशाल प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई है। 37. इस जिनालय में सं. 1844 में प्रतिष्ठित भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। ____38. इस जिनालय में सं. 1844 में प्रतिष्ठित शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 39. पार्श्वनाथ जिनालय- यह जिनालय काफी प्राचीन है, जिसके अंदर सं. 1545 में प्रतिष्ठित भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। एक अन्य मूर्ति पर प्रशस्ति भी नहीं है। 40. महावीर जिनालय- सं. 1881 में प्रतिष्ठित भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। 41-46. इन जिनालयों में क्रमशः भगवान चन्द्रप्रभु, भगवान नेमिनाथ, भगवान पार्श्वनाथ व भगवान चन्द्रप्रभु की भव्य व मनोहारी प्रतिमायें विराजमान हैं। जिसमें दर्शन कर मन को असीम शान्ति का अनुभव होता है। भगवान चन्द्रप्रभु-जी का जिनालय पर्वत स्थित जिनालयों में अंतिम जिनालय है। चन्द्रप्रभु की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में श्वेत संगमरमर से निर्मित है। 56 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काठन नदी के पार उसी के तट पर सिद्धायतन नामक स्थल विकसित किया गया है । यह एक विशाल परिसर में स्थित धर्मशाला व कार्यालय सहित है। प्रवेश द्वार के पास भव्य मानस्तंभ की रचना है। पास ही समवशरण जिनालय स्थित है। आगे धवल संगमरमर से निर्मित एक भव्य मनोहारी व कलात्मक जिनालय का निर्माण किया गया है। यह जिनालय दो मंजिला है। मूल मंदिर में नीचे सीमंधर स्वामी की लगभग 6 फीट ऊँची प्रतिमा प्रतिष्ठित है व इसी से संबंधित विदेह क्षेत्र के बीस तीर्थंकरों के जिनालय भी हैं। ऊपरी तल पर तीन स्थानों पर दर्शन हैं। बीच में भगवान ऋषभनाथ जी के दोनों ओर भरत - बाहुबली की प्रतिमायें हैं। एक तरफ मुनि गुरुदत्त की प्रतिमा है । अन्य जानकारियां 1. क्षेत्र पर प्रशिक्षण संस्थान 1999 से संचालित है, जो दिगंबर तीर्थ क्षेत्र कमेटी द्वारा संचालित संस्था है । 2. क्षेत्र पर निःशुल्क धार्मिक औषधालय भी संचालित है। 3. यात्रियों की सुविधा के लिए क्षेत्र पर एक भोजनालय संचालित है । 4. इस पर्वत राज पर रियासत के समय से शिकार पूर्णतः प्रतिबंधित है। 5. इस तीर्थ क्षेत्र को पूज्य क्षु. श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी द्वारा लघु सम्मेद शिखर की संज्ञा दी गई । 6. यहां फाल्गुन के प्रारंभ में मेला लगता है । 7. क्षेत्र पर पुष्पदन्त संस्कृत विद्यालय भी चलता है। 8. यह सिद्धक्षेत्र है एवं यहां दर्शनों से अपूर्व शान्ति मिलती है । अतिशय क्षेत्र पार्श्वगिरि (भगवां छतरपुर) यह अतिशय क्षेत्र बड़ामलहरा - घुवारा सड़क मार्ग पर स्थित है। इस क्षेत्र की दूरी टीकमगढ़ से 50 किलोमीटर, द्रोणगिरी से 10 किलोमीटर है। यहां गांव में दो प्राचीन जिनालय स्थित हैं, जिनमें अतिशयकारी भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। पहाड़ी पर श्री सम्मेद शिखर तीर्थ क्षेत्र की रचना की प्रतिकृति प्रस्तुत कर वेदियों पर चरण बनाए गये हैं। यहां एक जिनालय भी स्थित है। चारों ओर प्राकृतिक सुंदरता - बिखरी पड़ी है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ 57 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र श्रेयांसगिरि (सीरागिरि) यह कला तीर्थ अपने आप में अनूठा है। यह तीर्थ-क्षेत्र झांसी-रीवा सड़क मार्ग पर पन्ना जिले में स्थित देवेन्द्र नगर कस्बे से सलेहा तथा वहां से आगे ग्राम नचना के समीप स्थित है। यहां तक पक्का सड़क मार्ग है। यहां पहुंचने से पूर्व विश्वप्रसिद्ध पर्यटन स्थल खजुराहो के दर्शन किये जा सकते हैं। पन्ना वन्य अभ्यारण की सैर की जा सकती है एवं पन्ना जिले की हीरा खदानों को भी देखा जा सकता है। यह तीर्थ स्थल देवेन्द्र नगर से 40 किलोमीटर व पन्ना से 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह अतिप्राचीन तीर्थ-क्षेत्र सुरम्य पर्वत पर स्थित है। परिचय- इस तीर्थ-क्षेत्र का प्राचीन नाम सीरागिरि है; जो मधु मक्खियों के छत्तों से झरने वाले मधु “सीरा" के नाम से पड़ा। पहले यहां घना जंगल था। इस तीर्थ-क्षेत्र को प्रकाश में लाने का प्रमुख श्रेय परम पूज्य आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज को है, जिन्होंने यहां अपना प्रथम चातुर्मास गुनौर ग्राम में किया था, जो इस क्षेत्र के निकट है। तभी यह महान तीर्थ-क्षेत्र पुनः प्रकाश में आया। मुनिराज के चरण रज इस भूमि पर पड़ने से ग्राम गुनौर का जल संकट हमेशा हमेशा के लिए दूर हो गया। यह इस तीर्थ-क्षेत्र का एक महान अतिशय था। धीरेधीरे यहां के मूल निवासियों की दरिद्रता भी दूर होने लगी; यह इस तीर्थ-क्षेत्र का दूसरा अतिशय था। इस तीर्थ-क्षेत्र में अतिप्राचीन जिनबिम्ब अकृत्रिम गुफा मंदिरों में अपने मूल स्वरूप में स्थित है, यहां आने पर व जिनबिम्बों के दर्शन करने पर दर्शनार्थियों को एक अपूर्व सुख व शान्ति की अनुभूति होती है। यह इस तीर्थ-क्षेत्र की एक विशेषता है। किन्तु इन अतिप्राचीन अकृत्रिम चैत्यालयों को जो पहाड़ी के मध्य व ऊपरी भाग में स्थित हैं; पहाड़ी पर स्थित पत्थर की खदानों में किए जाने वाले विस्फोटों से क्षति होना प्रारंभ हो गया है। यदि समय रहते इन खदानों को बंद नहीं किया गया तो ये अकृत्रिम चैत्यालय धीरे धीरे अपना मूल स्वरूप खो देंगे। इस क्षेत्र के जीर्णोद्धार विकास हेतु सर्वप्रथम परम पूज्य मुनि श्री सुपार्श्व सागर ने उल्लेखनीय योगदान किया था। इस क्षेत्र के उद्धार में आचार्य विराग सागर जी ने विशेष रुचि ली। सन् 1991 के यहां किए गए प्रथम चातुर्मास में आचार्य श्री विराग सागर जी ने इस क्षेत्र को श्रेयांसगिरि नाम दिया। यहीं से इस क्षेत्र के विकास की गाथा भी प्रारंभ होती है। आपने पुनः इस क्षेत्र को जन-जन की निगाह में लाने के लिए इस क्षेत्र पर सन् 2000 के आसपास अपना दूसरा चातुर्मास भी संपन्न किया। जिनालय- यह तीर्थ-क्षेत्र ग्राम नचना जो चतुर्मुखी शंकर की मूर्ति तथा बौद्ध संस्कृति के प्राचीन अवशेषों के लिए प्रसिद्ध है, से दक्षिण की ओर एक सुरम्य 58 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहाड़ी पर लगभग गांव से आधा किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां वनों से घिरी इस सुंदर पहाड़ी पर सीढ़ियों के बायीं ओर पांच गुफा मंदिर (अकृत्रिम चैत्यालय) स्थित हैं व दायीं ओर भी एक गुफा मंदिर स्थित है। 1. समतल मैदानी भाग से लगभग 500 सीढ़ियां चढ़ने पर प्रथम गुफा मंदिर मिलता है। यह अकृत्रिम चैत्यालय 32 फीट चौड़ा व लगभग 12 फीट ऊँचा है। इस अकृत्रिम चैत्यालय में जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की देशी पाषाण से निर्मित चमत्कारी व अतिमनोज्ञ प्रतिमा पद्मासन में आसीन है । इस प्रतिमा की मुखाकृति के पीछे एक प्रभामंडल है। मूर्ति के दोनों ओर उड़ते हुए गंधर्व उत्कीर्ण है। इनमें से एक के हाथ में पुष्पमाला व दूसरे के हाथ में दीपक है। प्रतिमा के दोनों ओर दो चामरधारी इन्द्रों की मूर्तियां भी बनीं हुई हैं, जिनके मुकुट कुषाणकालीन प्रतिमाओं जैसे हैं । प्रतिमा के पाल में धर्मचक्र बना हुआ है व इस धर्मचक्र के दोनों ओर दंपत्ति युगल की भक्ति मुद्रा युक्त मूर्तियां बनी हुई हैं, जो पुष्पमाला, धूप दान व श्री फल से युक्त 'हैं। इनके दोनों ओर पराक्रमी सिंह बने हुए हैं। यह प्रतिमा लगभग 2000 वर्ष प्राचीन तीसरी शताब्दी की है। प्रतिमा की अवगाहना 38x60X14 इंच है। अर्थात् ये 5 फीट ऊँची हैं । ज्ञातव्य है कि पूर्ववर्ती आद्य गुप्त काल की तीर्थंकर प्रतिमाओं में तीर्थंकरों के प्रतीक चिह्न बनाने की प्रथा नहीं थी । इसी गुफा मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की एक प्राचीन कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित प्रतिमा भी विराजमान है; जिसकी अवगाहना 20x45x7 इंच है अर्थात् यह लगभग 4 फीट ऊँची है। इस गुफा मंदिर के शिखर का निर्माण सन् 1991 में आचार्य श्री विराग सागर की प्रेरणा से सलेहा निवासी श्री विजय कुमार जी द्वारा कराया गया था । ज्ञातव्य है कि प्रारंभिक काल में ईशा के जन्म के आसपास व पूर्व भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमाओं को जटाओं सहित बनाया जाता था व भगवान पार्श्वनाथ जी की प्रतिमाओं के शिरोभाग में फणावली बनाने की परंपरा थी । 2. इसे गुफा क्र. दो भी कहते हैं । यह गुफा 9 फीट चौड़ी, 6 फीट ऊँची व 7 फीट लंबी है। इस गुफा में 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की 4 फीट ऊँची प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। इस मूर्ति की अवगाहना 23x48x9 इंच हैं। यह प्रतिमा संभवतः ईसा की छठवीं शताब्दी की है। मूर्ति के पृष्ठ भाग में भगवान के यक्ष धरेणन्द्र का अंकन है। प्रतिमा के शीर्ष भाग पर दोनों ओर उड़ते हुए मालाधारी देव बने हुए हैं। यह प्रतिमा ग्वालियर संग्रहालय में रखी परवर्ती गुप्तकाल की उस प्रतिमा जैसी ही है, जो वेश नगर (विदिशा) से प्राप्त हुई थी । 3. इसे बड़े बाबा की गुफा के नाम से भी जाना जाता है। यह गुफा 28 फीट चौड़ी व 7 फीट ऊँची है । इस अकृत्रिम चैत्यालय में आदि तीर्थंकर भगवान मध्य-भारत के जैन तीर्थ 59 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभदेव की भव्य, आकर्षक, मनोज्ञ, मनभावन व अतिप्राचीन प्रतिमा विराजमान हैं। यह जिनबिम्ब लगभग 6 फीट ऊँचा पद्मासन मुद्रा में है। इसकी अवगाहना 39x58x18 इंच है। यह इस तीर्थ-क्षेत्र में स्थित सभी जिन-प्रतिमाओं में सबसे प्राचीन व सबसे बड़ी है। प्रतिमा के पीछे ऊपर की ओर दांयें व बांयें दो विद्याधरों की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं, जो क्रमशः फूलमाला व दीपक लिये हैं। प्रतिमा के मुख-मंडल के चारों ओर स्थित प्रभा मंडल (आभामंडल) की शोभा तो देखते ही बनती है। प्रतिमा के पार्श्व भागों में चामरधारी इन्द्रों की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं; जो कुषाण कालीन हैं। मूर्ति के पादपीठ पर धर्मचक्र बना है। पादपीठ के दोनों ओर सिंहासन के दो सिंह अंकित हैं। इस प्रतिमा के पाद्मूल में तीर्थंकर चिह्न नहीं है। निश्चित ही ये दुर्लभ प्रतिमा तीसरी शताब्दी के पूर्व की है। मथुरा के प्रसिद्ध कंकाली टीला से प्राप्त जिन प्रतिमाओं के सदृश्य ही यह जिन-प्रतिमा भी है। जिनबिम्ब के दोनों कंधों पर जटायें उत्कीर्ण हैं; जो यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि यह जिन-प्रतिमा प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की है। श्रद्धालु का मन यहां से हटने को नहीं होता; यह जिनबिम्ब का प्रमुख आकर्षण है। __4. यह गुफा मंदिर 12 फीट चौड़ा व 20 फीट ऊँचा है यह अकृत्रिम जिन चैत्यालय यहां स्थित सभी चैत्यालयों में सबसे ऊँचा है। यहां पहले जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की अति मनभावन प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थापित थी। किन्तु सुरक्षा के अभाव के कारण मूर्ति तस्करों ने इस प्रतिमा को 20वीं शताब्दी के मध्य में चुरा लिया। अब इस गुफा में तीर्थंकर चरण-चिह्न अंकित है। 5. यह बायीं ओर की सबसे पहली गुफा है किन्तु इसमें भी कोई जिनप्रतिमा विराजमान नहीं है। संभवतः पहले कभी इसमें जिन-प्रतिमायें विराजमान रही हो। 6. सीढ़ियों के दायीं ओर काफी दूरी पर स्थित इस गुफा मंदिर में पहले भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित थी; जिसे सुरक्षा कारणों से अब तलहटी स्थित नवीन जिनालय में स्थापित कर दिया गया है। अब इस गुफा में चरण- चिह्न रखे हुए हैं। इस गुफा मंदिर में श्री विमलसागर जी महाराज जब दर्शन करने जाते थे; तो अक्सर एक शेरनी अपने बच्चे के साथ इस गुफा में आ जाया करती थी। अतः महाराज श्री की सुरक्षा को ध्यान में रखकर यहां की जिन-प्रतिमा को तलहटी मंदिर में विराजमान कर दिया गया था। 7. तलहटी का नवीन जिनालय- इस जिनालय का निर्माण 20वीं सदी के अन्त में किया गया है। इसी जिनालय में 6वीं गुफा स्थित पार्श्वनाथ की प्रतिमा को विराजमान किया गया है। अन्य प्रतिमा भी यहां विराजमान है। इसे श्रेयांसनाथ जिनालय के नाम से जानते हैं। 60 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य सूचनाएं ___ 1. पर्वत पर दो अन्य गुफायें भी हैं, जो वर्तमान में खाली पड़ी हैं, किन्तु निश्चित ही पूर्व में यहां जिनबिम्ब स्थापित रहे होंगे। एक गुफा को सिंह गुफा कहते है; क्योंकि आज भी यहां सिंह आकार रहने लगते हैं। 2. पन्ना के संग्रहालय में दो जिन-प्रतिमायें इसी क्षेत्र से लाकर रखी गई हैं। जिनके दर्शन संग्रहालय में किए जा सकते हैं। ये जिन-प्रतिमायें अतिमनोज्ञ हैं। 3. यहां एक चौबीसी का भी निर्माण किया गया है। इस तीर्थ-क्षेत्र पर यात्रियों को रूकने के लिए धर्मशाला भी बनी हुई है। संतों के निवास की व्यवस्था भी क्षेत्र पर है। पानी बिजली की समुचित व्यवस्था क्षेत्र पर है। आमा जिला पन्ना धार्मिक आस्था पर आधारित . पर्यटन केन्द्र Hariram बार हरपर कायमान -सतना मिशन ०बरठ असावन दमोह अगस्तमाश्रम सहरसासगिरे कुमंगल __ उत्तर मध्य-भारत के जैन तीर्थ.1 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र अजयगढ़ पन्ना जिले की तहसील मुख्यालय अजयगढ़ पन्ना से 20 किलोमीटर दूर तथा विश्वप्रसिद्ध दुर्ग कालिंजर से मात्र 32 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। अजयगढ़ कस्बे के समीप प्राचीन अजयगढ़ का किला एक सुरम्य पहाड़ी पर स्थित है। किले के उत्तरी द्वार को कालिंजर द्वार तथा द.पू. द्वार को तारहौनी द्वार के नाम से जाना जाता है। उत्तरी द्वार में प्रवेश करते ही दुर्ग की चट्टानों में दो बड़े गर्त हैं; जिन्हें गंगा यमुना के नाम से जाना जाता है। इनमें हमेशा पानी भरा रहता है। दुर्ग के मध्य में एक बड़ा तालाब है, जिसे अजयपाल का तालाब कहते हैं। इसी तालाब के एक किनारे एक अत्यन्त प्राचीन जिनालय में भगवान शान्तिनाथ की विशाल, मनोज्ञ, आकर्षक व अतिशयकारी प्रतिमा विराजमान है, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में अवस्थित है। यह प्रतिमा 11वीं सदी की है। इसी जिनालय के पास अन्य जिनालयों के अवशेष बिखरे पड़े हैं। आज भी जंगल के बीच सुनसान किले के अंदर यह प्रतिमा शान्ति का संदेश दे रही है। तारहौनी द्वार के पास की चट्टानों में अनेक पंक्तियों में लगभग 50 जैन मूर्तियां पद्मासन अवस्था में विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं के पास गाय, बछड़ा व सुखासन में चतुर्भुज देवी प्रतिमा भी उत्कीर्ण है। जिसकी गोद में एक बालक है। यह भगवान नेमिनाथ की यक्षिणी देवी अम्बिका की मूर्ति हो सकती है। किले में एक भव्य मानस्तंभ भी बना हुआ है, जिसके ऊपर सैंकड़ों जैन प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। पर्वत के चारों ओर तलहटी में व जंगल में भी अनेक जिन प्रतिमायें यहां-वहां पड़ी हैं। इस किले में 16 शिलालेख उपलब्ध हुए हैं, जो वि. सं. 1208 व 1372 के बीच के चंदेल राजाओं के काल के हैं। चंदेल राजा चन्द्रवंशी थे। एक शिलालेख में चन्द्रवंश में उत्पन्न राजा कीर्ति वर्मा, सुलक्षणा वर्मा, जय वर्मा, पृथ्वी वर्मा, मदन वर्मा, त्रैलोक्य वर्मा, यशोवर्मा व वीर वर्मा के नाम अंकित हैं। 62 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध क्षेत्र सोनागिर स्वर्णगिरि, श्रमणगिरि या सोनागिरि सिद्धक्षेत्र आगरा-भोपाल रेलवे लाइन पर एक छोटा सा रेलवे स्टेशन है। इस क्षेत्र की दूरी ग्वालियर से 65 किलोमीटर तथा दतिया से 11 किलोमीटर है। रेलवे स्टेशन से क्षेत्र तक पक्की सड़क है व सोनागिरि से क्षेत्र तक की दूरी 4 किलोमीटर है। यह तीर्थ क्षेत्र एक सुरम्य प्राकृतिक पहाड़ी पर स्थित है । तलहटी में भी अनेक जिनालय हैं । इस सिद्धक्षेत्र से नंग-अनंग महामुनिराजों के अलावा 5.5 करोड़ और मुनिराजों ने भी मोक्ष प्राप्त किया था । प्राकृण निर्वाण काण्ड में लिखा हैगंगागंग कुमार कोटी पंचह मुणिवरा सहिआ । सोनागिरि वर सिहरे णिब्वाणगया णमो तेसिं । । कुछ जगह संवणागिरि या सुवण्णगिरि का भी उल्लेख आता है जिनके अर्थ संस्कृत में क्रमशः श्रमणगिरि व सुवर्णगिरि होते हैं । यह श्रमणों की तपोभूमि रही है । नंग- अनंग मुनिराज योधेय देश के श्रीपुर नगर के नरेश अरिंजय विशाल के पुत्र थे। एक बार मालवा देश के अरिष्टपुर में आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु जी का समवशरण आया। समाचार सुन राजा धनंजय, अमृतविजय, नंग-अनंग आदि उनके समवशरण में पहुँचे व सबने चन्द्रप्रभु भगवान के चरणों की पूजा की, वहीं भगवान का हितोपदेश हुआ; जिसे सुनकर उक्त सभी राजा व राजकुमारों को वैराग्य हो गया। उन सबने वहीं भगवान के चरणों में मुनि दीक्षा ले ली और भी 1500 राजाओं ने इस अवसर पर दीक्षा ली । एक बार उज्जैनी नरेश श्री दत्त की रानी के कोई संतान नहीं थी । तब दो चारणरिद्धि धारी मुनियों ने राजा से यात्रासंघ निकालकर स्वर्णगिरि की यात्रा करने को कहा। जब यात्रा संघ वहां पहुँचा; तो भगवान चन्द्रप्रभु भगवान का समवशरण स्वर्णगिरि पर विराजमान था। तब इनको सुवर्णभद्र नामक पुत्र की प्राप्ति हुई । एक बार मुनि नंग- अनंग भी अनेक मुनियों के साथ विहार करते हुए इस पावन पर्वत पर पधारे। यहां उन्होंने घोर तपश्चरण कर केवलज्ञान की प्राप्ति की । बाद में वे अनेक मुनिराजों के साथ इसी पर्वत से मोक्ष पधारे। कुछ समय पश्चात् राजा श्री दत्त के पुत्र सुवर्णभद्र ने भी एक विशाल तीर्थयात्रा संघ निकाला । दर्शन कर वापिस आने के बाद कुछ दिनों पश्चात् सुवर्णभद्र को भी वैराग्य प्राप्त हो गया । उन्होंने मुनिव्रत धारण कर इसी पर्वत पर तपस्या कर कर्मों का क्षय किया व पांच हजार मुनियों के साथ सोनागिरि से ही मोक्ष पधारे। 1 इस तीर्थ क्षेत्र पर कुछ मिलाकर 132 से भी अधिक जिनालय हैं । अकेले पर्वत पर ही चौबीसी मिलाकर लगभग 105 से अधिक जिनालय है । तलहटी में भी 27 शिखरबंद भव्य व आकर्षक जिनालय हैं । पर्वत पर सीधी चढ़ाई न 1 मध्य-भारत के जैन तीर्थ 63 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने के कारण वंदना करना काफी आसान है। संपूर्ण परिक्रमा पथ पर पक्का मार्ग व सीढ़ियां बनीं हुई हैं । तीर्थ क्षेत्र की पहाड़ी की परिक्रमा के लिए भी एक मार्ग पर्वत के चारों ओर बना है; जिसके बीच-बीच में छत्रियाँ भी बनीं हुई हैं। पर्वतराज पर जिनालय के अतिरिक्त छोटे-छोटे सरोवर कुंड आदि भी बनें हैं। नारियल कुंड व बजनी शिला पर्वत स्थित दर्शनीय स्थल हैं। पर्वत पर 77 प्राचीन जिनालय हैं। कुछ नये भी बन गये हैं। क्षेत्र पर यात्रियों की सुविधा के लिए लगभग 25 धर्मशालायें बनीं हुई हैं। अनेक धर्मशालाओं में तीर्थयात्रियों के लिए निःशुल्क भोजन की सुविधा उपलब्ध है। कुछ धर्मशालाओं में आधुनिकतम सुविधायें भी हैं। क्षेत्र कार्यालय दिल्ली वालों की धर्मशाला में है। तलहटी में स्थित 27 जिनालयों का विवरण है: 1. तेरहपंथी आम्नाय दिगंबर जैन मंदिर 2. खरौआ जैन समाज का दिगंबर जैन मंदिर 3. गोल शृंगार जैन समाज का दिगंबर जैन मंदिर 4. पद्मावती पुरवार जैन समाज एटा का दिगंबर जैन मंदिर 5. तेरहपंथी आम्नाय दिगंबर जैन मंदिर, सराफा बाजार, लश्कर 6. तेरहपंथी आम्नाय दिगंबर जैन मंदिर 7. जैसवाल दिगंबर जैन मंदिर मुरार वालों का 8. स्व. भट्टारक चन्द्रभूषण जी का दिगंबर जैन मंदिर 9. स्व. भट्टारक चन्द्रभूषण जी का दिगंबर जैन मंदिर 10. कुंदकुंद कहान निर्वाण भूमियां व बाहुबली दिगंबर जैन मंदिर 11. अ. भा. स्याद्वाद शिक्षण सीमित का भगवान पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर 12. आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर 13. पंचमेरु मंदिर 14. नंगानंग दिगंबर जैन परमागम का चन्द्रप्रभु जिनालय 15. दोसी जिनालय 16. शीतलनाथ जिनालय भट्टारक कोठी 17. मनहर देव जिनालय भगवान शान्तिनाथ जी ( 15 फीट ऊँची खड्गासन प्रतिमा) जिनालय | 18. आमोल वाली धर्मशाला में पंच बालयति जिनालय 19. यहीं पर नवनिर्मित जिनालय प्रथम तल पर-नीचे दो चरण छत्रियां 20. सहस्रफणी जिनालय 21. गुंदी लाल जी वैसाखिया झांसी वालों का जिनालय 22. श्री सोनागिरि दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी दिल्ली वालों की धर्मशाला स्थित 2 जिनालय 23. बीसपंथी आम्नाय जिनालय नीचे चरण, ऊपर 5 वेदिकाओं पर दर्शन । 64 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24, 25 व 26. जैसवाल जैन समाज राजाखेड़ा धर्मशाला के तीन जिनालय नीचे दो, प्रथम तल पर एक सभी जिनालय शिखर सहित हैं। सबसे प्राचीन जिनालय क्र. 15 जो बीसपंथी आम्नाय चंपाबाग ग्वालियर का है सं. 800 का है; जिसे ग्वालियर के भट्टारक ने बनवाया था। इस जिनालय के पास एक बड़ी बावरी है। यहां के जिनालय में मूलनायक भगवान अरहनाथ की प्रतिमा विराजमान है। पर्वत पर प्राचीन 66 जिनालय, 13 छत्रियां व 5 क्षेत्रपाल के स्थान हैं। यहां कुछ नवीन जिनालय की रचना भी हुई है। इस क्षेत्र की व्यवस्था श्री दिगंबर जैन सोनागिरि सिद्धक्षेत्र संरक्षिणी कमेटी द्वारा की जाती है। तलहटी में स्थित जिनालयों की व्यवस्थायें अलग-अलग कमेटियां देखती है। रात्रि में बिजली की रोशनी में यह पर्वतराज किसी अलकापुरी से कम नहीं लगता। प्राकृतिक वृक्षों के बीच बंदर व मोर सर्वत्र विचरते व अपनी सुरीली आवाज से क्षेत्र को गुंजायमान करते रहते हैं। पर्वत पर स्थित जिनालयों का परिचय निम्न प्रकार है___1. नेमिनाथ जिनालय : क्षेत्र का यह प्रथम जिनालय क्षेत्र मार्ग के दायें ओर एक विशाल चबूतरे पर बना है। इस जिनालय में 5 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में कृष्ण वर्ण की सं. 1218 में प्रतिष्ठित भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित है। 2. नेमिनाथ जिनालय : यह जिनालय क्षेत्र मार्ग के ऊपर बना है जहां कुछ सीढ़ियां चढ़कर जाना पड़ता है। इस जिनालय में भी भगवान नेमिनाथ की 2.25 फीट अवगाहना वाली कृष्ण वर्ण की सं. 1888 में प्रतिष्ठित भगवान नेमिनाथ की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। ____3. आदिनाथ जिनालय : इस जिनालय में श्वेतवर्ण की लगभग 1.5 फीट की अवगाहना वाली भगवान आदिनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा सं. 1961 में हुई थी। छत्री क्र. 1 इस छत्री में मुनिराजों के चरण विराजमान हैं। 4. आदिनाथ जिनालय : इस जिनालय के गर्भगृह में सं. 1855 में प्रतिष्ठित भगवान आदिनाथ की लगभग 1 फीट ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा भी श्वेत वर्ण की है। छत्री क्र 2- इस छत्री में सं. 1888 में प्रतिष्ठित 24 तीर्थंकरों के चरण-चिह्न रखे हैं। ____5. पार्श्वनाथ जिनालय : लगभग 1.25 फीट की अवगाहना की श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है; जो भगवान पार्श्वनाथ की है व सं. 1548 की प्रतिष्ठित है। 6. चन्द्रप्रभु जिनालय : सं. 1930 में प्रतिष्ठित लगभग 1 फीट ऊँची भगवान चन्द्रप्रभु की पद्मासन प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। 7. नेमिनाथ जिनालय : सं. 1889 में प्रतिष्ठित भगवान नेमिनाथ की मध्य-भारत के जैन तीर्य - 65 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णवर्ण की यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में है; जिसकी अवगाहना लगभग 3 फीट है । परिकर में छत्र, भामंडल व देव भी बने हैं । 8. पद्मप्रभु जिनालय : लगभग 1 फीट अवगाहना वाली श्वेत वर्ण की भगवान पद्मप्रभु की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में इस जिनालय में प्रांतेष्ठिापित की गई है। इस जिनालय में अर्धमंडप भी है । 9. पार्श्वनाथ जिनालय : 2 फीट ऊँची भव्य व आकर्षक इस प्रतिमा का स्थापना वर्ष 1942 है । यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में श्वेत वर्ण की है । 1 10. पार्श्वनाथ जिनालय : इस जिनालय में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की फणावली युक्त कृष्ण वर्ण की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है । यह प्रतिमा लगभग 3 फीट ऊँची है। इसकी प्रतिष्ठा सं. 1921 में हुई थी । बायीं ओर लगभग 2 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान अभिनंदन नाथ की प्रतिमा विराजमान है, जो नई है। दायीं ओर स्वर्ण वर्ण की 2 फीट अवगाहना की एक अन्य चन्द्रप्रभु की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। यह भी नव स्थापित है। मंदिर विशाल है; जिसमें गर्भगृह के अलावा अर्धमंडप व आंगन भी है । 11. आदिनाथ जिनालय : सं. 1827 में प्रतिष्ठित श्यामवर्ण की लगभग 3.5 फीट अवगाहना वाली भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा इस जिनालय में कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिष्ठापित की गई है । इस जिनालय में अर्धमंडप भी है। छत्र, भामंडल, हाथी पर सवार देव आदि प्रतिमा के परिकर में उत्कीर्ण हैं । 12. नेमिनाथ जिनालय : श्याम वर्ण की 5 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ बना है। मूर्ति पर प्रतिष्ठाकाल अंकित नहीं है। मूर्ति काफी प्राचीन, भव्य व आकर्षक है । भामंडल, छत्र, देव-देवियां आदि प्रतिमा के परिकर में उत्कीर्ण हैं । 13. आदिनाथ जिनालय : गर्भगृह व अर्धमंडप वाले इस जिनालय में भगवान आदिनाथ की श्वेत वर्ण की 1 फीट ऊची दो पद्मासन प्रतिमायें विराजमान हैं जो क्रमशः 1910 व वीर निर्वाण सं. 2477 की प्रतिष्ठित हैं । 14. आदिनाथ जिनालय : लगभग 2 फीट ऊँची कत्थई वर्ण की भगवान आदिनाथ की यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है वीर नि. सं. 2469 में इसकी प्रतिष्ठा हुई थी । 14 (क) आदिनाथ जिनालय : 21 इंच ऊँची श्वेत वर्ण की यह प्रतिमा वीर नि. सं. 2497 में प्रतिष्ठित हुई थी । यह पद्मासन में स्थित है। नीचे बैल का चिह्न उत्कीर्ण है। 15. मुनिसुव्रतनाथ जिनालय : लगभग 3.5 फीट अवगाहना की कृष्ण वर्ण की यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। इसका प्रतिष्ठाकाल सं. 1544 है। मंदिर में अर्धमंडप भी निर्मित है। यह प्रतिमा प्राचीन व मनोज्ञ है। प्रतिमा के परिकर में चार भुजाओं वाली देवियां, भामंडल, छत्र आदि शोभायमान है। 16. महावीर जिनालय : लगभग 2.25 फीट अवगाहना की भगवान 66■ मध्य - भारत के जैन तीर्थ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामी की यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में पीत वर्ण की है। ऊपर के पार्श्व भागों में दो देवियां पुष्पमालायें लिये आसमान में श्रीजी की ओर बढ़ रही हैं । नीचे दोनों ओर दो-दो पद्मासन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । मूर्ति के अधोभाग में चामर लिए इन्द्र खड़े हैं । अर्धमंडप भी इस जिनालय में हैं । 17. पार्श्वनाथ जिनालय : पद्मासन मुद्रा में 1.25 फीट अवगाहना की श्वेत वर्ण की प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है व सं. 1745 में प्रतिष्ठित है । 18. आदिनाथ जिनालय : भगवान आदिनाथ की यह पद्मासन प्रतिमा श्वेत वर्ण की है व 1.25 फीट अवागहाना वाली है व सं. 1923 की प्रतिष्ठित है । 19. नेमिनाथ जिनालय : कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानमग्न यह तीर्थंकर प्रतिमा श्याम वर्ण की है व लगभग 2.25 फीट अवगाहना वाली है । इसके बायीं ओर गजारुढ़ यक्ष व दायीं ओर नृत्य मुद्रा में यक्षिणी हैं। मूर्ति के पादमूल में प्रशस्ति नहीं है। प्रतिमा प्राचीन व मनोज्ञ है । 20. चन्द्रप्रभु जिनालय : पद्मासन मुद्रा में 1.4 फीट ऊँची श्वेत वर्ण की वीर नि. सं. 2470 में प्रतिष्ठित भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। मंदिर के तीन ओर बरामदे व बीच में आंगन है । 21. पार्श्वनाथ जिनालय : इस जिनालय में श्वेत वर्ण की लगभग 1.25 फीट अवगाहना वाली भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में आसीन है । प्रतिष्ठाकाल सं. 1921 है । 22. अरहनाथ जिनालय : बादमी वर्ण की लगभग 5 फीट अवगाहना वाली विचित्र किन्तु आकर्षक केशवलय युक्त कायोत्सर्ग मुद्रा में यह प्रतिमा भगवान अरहनाथ स्वामी की है। सिर के ऊपर तीन छत्र व पार्श्व भागों में गज लक्ष्मी उत्कीर्ण हैं। ऊपरी भाग पर पुष्पमाल लिए आकाशगामी देव हैं व नीचे पार्श्व भागों में चामरधारी इन्द्र खड़े हैं । प्रतिमा अतिमनोज्ञ है । 23. सुपार्श्वनाथ जिनालय : पद्मासन में श्याम वर्ण की 1.4 फीट अवगाहना वाली नौ सर्प फणावली से युक्त यह प्रतिमा सं. 1884 में प्रतिष्ठित भगवान सुपार्श्वनाथ की है। इस मंदिर में बरामदे व आंगन भी हैं । बरामदे में सप्त फणावली युक्त भगवान पार्श्वनाथ की 1.25 फीट ऊँची प्रतिमा पद्मासन में आसीन है । प्रतिष्ठाकाल सं. 1910 हैं। 24. नेमिनाथ जिनालय : इस जिनालय में कायोत्सर्ग मुद्रा में काले पाषाण से निर्मित 4 फीट अवगाहना वाली भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। सिर के ऊपर प्रस्तर निर्मित तीन छत्र व सिर के पीछे भामंडल सुशोभित है | नीचे दो करवद्ध श्रावक खड़े हैं । प्रतिष्ठाकाल सं. 1986 है। परिक्रमा पथ भी बना है । 25. मल्लिनाथ जिनालय : यह पद्मासन प्रतिमा 1.5 फीट ऊँची श्याम वर्ण की सं. 1925 में प्रतिष्ठित है । दो प्रदक्षिणा पथ जिनालय में बने हैं। गर्भगृह 4 स्तंभों पर आधारित हैं । मध्य-भारत के जैन तीर्थ = 67 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. नेमिनाथ जिनालय : इस जिनालय में श्वेत वर्ण 1 फीट अवगाहना वाली भगवान नेमिनाथ स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। 27. नेमिनाथ जिनालय : कृष्ण वर्ण की पाषाण निर्मित, पद्मासन मुद्रा में स्थित 21 इंच अवगाहना वाली भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। 28. चन्द्रप्रमु जिनालय : 5.25 फीट अवगाहना की रंग-बिरंगी भव्य व आकर्षक यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान चन्द्रप्रभु की है, जिसके सिर पर तीन छत्र बने हैं। सिर के पार्श्व भागों परं गंधर्व देव पुष्पवर्षा कर रहे हैं। नीचे सौधर्म व ईशान इन्द्र चमर लिए भक्ति मुद्रा में खड़े हैं। मंदिर में प्रदक्षिणा पथ है। गर्भगृह चार स्तंभों पर आधारित मंडपनुमा हैं। 29. पार्श्वनाथ जिनालय : यह प्रतिमा भी रंग-बिरंगी भव्य व कायोत्सर्ग मुद्रा में है। यह 6.25 फीट ऊँची है। सिर के पार्श्व भागों पर गजलक्ष्मी व पुष्पमाल लिए आकाशगामी गंधर्व देव उत्कीर्ण हैं। मंदिर में आंगन व अर्धमंडप भी बना है। मंदिर के बाहर बगल में एक कुंड व चबूतरा बना है। ____30. चन्द्रप्रभु जिनालय : रंग-बिरंगी वर्ण की 6 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित यह प्रतिमा भगवान चन्द्रप्रभु की है। सिर पर तीन छत्र शोभा बढ़ा रहे हैं। ऊपर गज लक्ष्मी व उनके निकट श्रावकगण खड़े हैं। अधोभाग में चमरधारी इन्द्र हैं। प्रदक्षिणा पथ भी बना है। 31. नेमिनाथ जिनालय : इस जिनालय में काले पाषाण से निर्मित 4 फीट ऊँची सिर पर तीन छत्रों से सुशोभित भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन है। दोनों ओर गजलक्ष्मी बनी हैं। एक ओर यक्ष उत्कीर्ण है; जो कमल पर आसीन है दूसरी ओर सिंह पर आरुण यक्षिणी बनी है। देवी के नीचे आम्रवृक्ष है। इस जिनालय में अर्धमंडप भी बना है। प्रतिमा अति सुंदर है। इस जिनालय के आगे जल मंदिर में चारों ओर भगवान महावीर स्वामी की चार प्रतिमायें विराजमान हैं। 32. अजितनाथ जिनालय : इस जिनालय में 2 फीट अवगाहना की श्वेत वर्ण की भगवान अजितनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है। सिर के ऊपर तीन छत्र व पार्श्व भागों में अष्ट मंगल द्रव्य भी चट्टान में उत्कीर्ण है। नीचे पार्श्व भागों में चामर लिए इन्द्र खड़े हैं। प्रतिष्ठाकाल सं. 1992 है। 33. सुमतिनाथ जिनालय : यह जिनालय उपरोक्त जिनालय जैसा ही है; जिसमें श्वेत वर्ण की 2 फीट अवगाहना वाली भगवान सुमतिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है। इसके आगे ज्ञान गुदड़ी शिला है। छत्री क्र. 4-थोड़ा ऊपर जाकर एक छत्री बनी है। जिसमें चरण उत्कीर्ण हैं। सं. 1902 भी लिखा है। 34. आदिनाथ जिनालय : इस जिनालय में काले पाषाण में उत्कीर्ण 6 फीट अवगाहना वाली कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन भगवान आदिनाथ की मनोज्ञ व 68 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर्षक प्रतिमा विराजमान है। मूर्ति के सिर के ऊपर तीन छत्र सुशोभित हैं। पार्श्व भागों में चमर लिए इन्द्र खड़े हैं। नीचे एक ओर गोमुख व चक्रेश्वरी की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। एक अन्य वेदिका पर नंदीश्वर द्वीप की रचना बनी हुई है; जो 1.75 फीट आकार की है। इसमें चारों ओर 52 प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। रचना-काल सं. 1236 है। 35. आदिनाथ जिनालय : रंग-बिरंगी लगभग 3.5 फीट अवगाहना की भगवान आदिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा इस जिनालय में आसीन है। जो 1640 में प्रतिष्ठित है। परिकर में छत्र, देव भी उत्कीर्ण हैं। 36. अजितनाथ जिनालय : इस जिनालय में पद्मासन मुद्रा में मटमैले रंग की 1.25 फीट ऊँची भगवान अजितनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 37. नेमिनाथ जिनालय : इस जिनालय में श्वेत वर्ण की लगभग 1 फीट ऊँची सं. 1884 में प्रतिष्ठित भगवान नेमिनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। 38. आदिनाथ जिनालय : इस जिनालय में मूलनायक के रूप में कृष्ण वर्ण की भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। इस प्रतिमा के दोनों पार्श्व भागों में 2-5 फीट ऊँची अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं। मंदिर में अर्धमंडप भी है। ये भी पद्मासन में है। 39. नेमिनाथ जिनालय : भगवान नेमिनाथ स्वामी की कृष्ण वर्ण की 6.25 फीट ऊँची भव्य व आकर्षक प्रतिमा इस जिनालय में प्रतिष्ठित है। यह प्रतिमा खडसागन में है व जिसके ऊपर तीन छत्र शोभायमान हैं। चमर लिए इन्द्र व यक्ष- यक्षी भी पार्श्व भागों में उत्कीर्ण हैं। ये यक्ष गोमुख व अम्बिका है। चारों ओर परिक्रमा-पथ है। गर्भगृह चार खंबों पर आधारित मंडप जैसा बना है। प्रतिष्ठाकाल सं. 1940 है। 40. नेमिनाथ जिनालय : इस जिनालय में काले पाषाण की भगवान नेमिनाथ की 2 फीट अवगाहना वाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसमें अर्धमंडप भी है। 41. चन्द्रप्रभु जिनालय : लगभग 2 फीट ऊँची श्वेत वर्ण की भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा इस जिनालय में पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। प्रतिष्ठाकाल सं. 1955 है। परिक्रमा-पथ भी बना है। इस जिनालय के ठीक सामने नया कमल शिखर युक्त विशाल भव्य व अति आकर्षक नंदीश्वर जिनालय बनाया गया है। 42. आदिनाथ जिनालय : रंग-बिरंगी-8 फीट अवगाहना वाली भगवान आदिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन प्रतिमा इस जिनालय में प्रतिष्ठित है। सिर के ऊपर छत्र, पाव भागों में छत्र लिए हाथी, चमरधारक इन्द्र व श्रावक भी खड़े हैं। मंदिर में परिक्रमा-पथ भी बना है। 43. नेमिनाथ जिनालय : काले भूरे वर्ण की लगभग 6 फीट अवगाहना की खड़गासन में आसीन भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 69 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिर के ऊपर पाषाण के छत्र बने हुए हैं। दोनों पार्श्व भागों में यक्ष-यक्षिणी भी उत्कीर्ण है। 44. चन्द्रप्रभु जिनालय : उपरोक्त वर्ण की भगवान चन्द्रप्रभु की यह प्रतिमा 5.3 फीट ऊँची है। मूर्ति के सिर के ऊपर पाषाण के छत्र उत्कीर्ण हैं। दोनों ओर चमरवाहक इन्द्र खड़े हैं। नीचे एक यक्ष हाथ जोड़े खड़ा है। दूसरी ओर बैल पर सवार यक्षिणी की मूर्ति उत्कीर्ण है। गर्भगृह चार खंबों पर बना है। जिनालय में परिक्रमा-पथ भी बना है। इस जिनालय का निर्माण सं. 1870 में हुआ था। क्षेत्रपाल- इस जिनालय के आगे दो मढ़ियों में क्षेत्रपाल की प्रतिमायें विराजमान हैं। यहीं एक नवीन जिनालय बना है, जिसमें 15 फीट अवगाहना वाली अतिमनोज्ञ चन्द्रप्रभु भगवान की विशाल प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। पास ही में भगवान महावीर स्वामी के 2500वें निर्वाणोत्सव के उपलक्ष में एक भव्य व आकर्षक स्तंभ भी बना है। यह प्रतिमा पीत वर्ण की है। __45. पार्श्वनाथ जिनालय : यह एक प्राचीन जिनालय है। इस जिनालय में 5 वेदिकाओं पर जिनबिम्ब विराजमान हैं। वाईं ओर की वेदिका पर भगवान शान्तिनाथ की श्याम वर्ण की लगभग 2.5 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा काफी प्राचीन सं. 1182 की प्रतिष्ठित है। मूर्ति के पार्श्व भागों में चमर लिए इन्द्र खड़े हैं। दूसरी वेदिका पर लाल वर्ण की सं. 1163 में प्रतिष्ठित प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है जो पद्मासन मुद्रा में है। तीसरी वेदिका पर भी 4 फीट अवगाहना की श्याम वर्ण की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिष्ठिापित है वाईं व दाईं ओर यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। चौथी वेदिका पर 2 फीट अवगाहना वाली श्याम वर्ण की ही पद्मासन प्रतिमा भगवान नेमिनाथ की है, जो सं. 1340 में प्रतिष्ठित है। अंतिम वेदी पर 3 फीट अवगाहना की लाल रंग की खड्गासन मुद्रा में भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा आसीन है जिसके पार्श्व भागों में यक्ष-यक्षिणी हैं। ___46. नेमिनाथ जिनालय : यह रंग-बिरंगी पाषाण प्रतिमा जो पद्मासन में है, लगभग 3 फीट अवगाहना वाली भगवान नेमिनाथ की है। 47. आदिनाथ जिनालय : रंग-बिरंगी देशी पाषाण से निर्मित यह प्रतिमा 6.25 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में है व प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की है वेदिका के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ भी है। गर्भगृह 4 स्तंभों पर बना मंडपाकार है। 48. चन्द्रप्रभु जिनालय : यह प्रतिमा भी उपरोक्त की भांति ही 5.5 फीट अवगाहना वाली है। इसका गर्भगृह भी मंडपनुमा है; जिसके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ भी है। ___49. आदिनाथ जिनालय : इस जिनालय में 6 फीट अवगाहना वाली उपरोक्त रंग की देशी पाषाण से निर्मित भगवान आदिनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। इसका गर्भगृह उपरोक्त जैसा व प्रदक्षिणा पथ सहित है। 70 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. विमलनाथ जिनालय : मूंगिया वर्ण की 6 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित यह प्रतिमा 13वें तीर्थंकर भगवान विमलनाथ की है, जो सं. 1886 में प्रतिष्ठित है। 51. शान्तिनाथ जिनालयः इस जिनालय में भी मूंगिया वर्ण की 6 फीट अवगाहना वाली भगवान शान्तिनाथ की मनभावन प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है । इस जिनालय में प्रदक्षिणा पथ भी है । 52. महावीर जिनालय : इस जिनालय में भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में आसीन है व देशी पाषाण से निर्मित है। यह प्रतिमा 2.5 फीट अवगाहना वाली है; जिसके सिर पर छत्र, चेहरे के पीछे आकर्षक भामंडल, पार्श्व भागों में पुष्पमाल लिए आकाशगामी गंधर्व देव व नीचे चामरधारी इन्द्र खड़े हैं। श्रावक भी भक्ति मुद्रा में उत्कीर्ण किए गए हैं। महामंडप व अर्धमंडप भी हैं । यह जिनालय अतिप्राचीन प्रतीत होता है । 58. नेमिनाथ जिनालय : मूंगिया वर्ण की यह प्रतिमा लगभग 3 फीट अवगाहना वाली कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान नेमिनाथ की है। सिर पर तीन छत्र शोभायमान हैं। दोनों ओर मालायें लिए हाथी उत्कीर्ण हैं । भगवान के एक ओर सौधर्म इन्द्र व दूसरी ओर शची ( उनकी धर्मपत्नी ) खड़ी हैं । चमरवाहक भी उत्कीर्ण हैं। भक्त भी भक्तिमुद्रा में स्थित हैं । इस जिनालय में अर्धमंडल व आंगन भी है । 54. नेमिनाथ जिनालय : इस जिनालय में दो वेदिकायें हैं । यह जिनालय भी काफी प्राचीन है। प्रथम वेदिका पर सं. 1112 की श्याम वर्ण की 1.5 फीट ऊँची भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा आसीन है; दूसरी वेदिका पर भी भगवान नेमिनाथ जी की प्रतिमा आसीन है । किन्तु यह नवनिर्मित श्वेत वर्ण, पद्मासन व 1.6 फीट अवगाहना की है। इस जिनालय में भी अर्धमंडप व आंगन है । 55. सर्वतोभद्रिका : यह जिनालय एक छत्री के नीचे स्थित है; जिसमें एक पाषाण स्तंभ में ही चारों दिशाओं में 3 फीट अवगाहना की क्रमशः भगवान चन्द्रप्रभु, धर्मनाथ, पद्मप्रभु व भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमायें बनीं हुईं हैं। ये प्रतिमायें 11वीं सदी की हैं। 56. आदिनाथ जिनालय : यह प्रतिमा 3.5 फीट अवगाहना वाली मूंगिया वर्ण की कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन भगवान आदिनाथ की है । चरण : मंदिर के आले में दो चरणचिह्न रखे हुए हैं 1 छतरी 7 : इस छत्री में नंग- अनंग मुनिराजों के चरण-चिह्न अंकित हैं; जिन्होंने इस तीर्थ क्षेत्र से मुक्ति लक्ष्मी का वरण किया था । 56 (अ) सर्वतोभद्र जिनालय : इस जिनालय में चारों दिशाओं में मुख किए भगवान महावीर स्वामी, भगवान चन्द्रप्रभु, भगवान पद्मप्रभु व भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमायें आसीन हैं । 56 (ब) यह नवनिर्मित जिनालय भगवान पुष्पदन्त जी को समर्पित है 1 मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 71 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनालय में कमलासन पर श्री जी विराजमान हैं। इस तरह हम पर्वत के सबसे ऊपरी भाग में स्थित चन्द्रप्रभु जिनालय के पास पहुँचते हैं। यहां सर्वप्रथम हमें एक विशाल समतल प्रांगण नजर आता है। इसी समतल प्रांगण के बायीं ओर इस क्षेत्र का सबसे बड़ा चन्द्रप्रभु जिनालय बना है। ___57. चन्द्रप्रभु जिनालय : यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा विशाल व प्रमुख जिनालय है; जिसके मध्य में विशाल आंगन व तीन ओर बरामदे बने हुए हैं। मुख्य प्रवेश द्वार आकर्षक व विशाल है। इस जिनालय में अनेक वेदियां हैं। बायीं ओर बरामदे में लगभग 1.25 फीट अवगाहना की श्वेत वर्ण की भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह नव स्थापित है। इस बरामदे में आगे एक वेदी पर भगवान पार्श्वनाथ की श्यामवर्ण की 1.5 फीट अवगाहना की सं. 1930 में प्रतिष्ठित प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। इस भव्य जिनालय में सामने तीन वेदिकायें हैं। बाईं ओर की दालान में स्थित भगवंतों के दर्शन कर हम बाईं ओर स्थित सामने की प्रथम वेदिका में प्रवेश करते हैं। यहां आकर यात्रियों की थकान स्वतः दूर हो जाती है व यात्री अति आनंद का अनुभव करते हैं। इस वेदिका पर सं. 1392 में प्रतिष्ठित कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान शीतलनाथजी की 6.5 फीट अवगाहना की भव्य व मनोहारी प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा मूगिया वर्ण की है, जिसके शिरोभाग पर 3 छत्र सुशोभित हैं। प्रतिमा के पार्श्व में छोटी-छोटी दो तीर्थंकर प्रतिमायें और भी बनी हुई हैं। इस वेदिका पर दर्शन करने के बाद श्रद्धालु उस स्थान पर पहुँचता है; जहां पहुँचते ही अलौकिक आनंद का अनुभव होता है व हृदय कमल खिल जाता है। जी हां, यह प्रतिमा अति अतिशयकारी, क्षेत्र की सबसे बड़ी, भव्य व आकर्षक प्रतिमा भगवान चन्द्रप्रभु की है, जिनका समवशरण इस क्षेत्र पर आया था; तथा उन्होंने भव्य जीवों के कल्याण हेतु उपदेश दिया था। संभवतः यह प्रतिमा यही स्थित शिलाफलक पर उकेरी गई है। यह कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित प्रतिमा मनोज्ञ है; जिसकी आंखों का सौंदर्य देखते ही बनता है। प्रतिमा के सिर पर 3 छत्र सुशोभित हैं, जो इस बात के प्रतीक हैं कि वे तीन लोक के नाथ हैं। प्रतिमा की अवगाहना 10 फीट के लगभग है। चेहरे के पीछे विशाल आकर्षक भामंडल उत्कीर्ण किया गया है। यह प्रतिमा इस तीर्थ-क्षेत्र की सबसे प्राचीन प्रतिमा है; जिसकी प्रतिष्ठा सं. 335 में हुई थी। __ इस जिनालय का जीर्णोद्धार सं. 1883 में सेठ लक्ष्मीचन्द्र जी मथुरा वालों ने कराया था। पादपीठ नीचे दबी हुई है। यहां आकर श्रद्धालु आत्मिक शान्ति का अनुभव करते हैं। तीसरे व दाईं ओर के सामने के गर्भगृह में लगभग 6.5 फीट अवगाहना की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिष्ठापित है। इसके सिर पर भी तीन छत्र शोभायमान हैं। छत्र के दोनों ओर छोटी-छोटी तीर्थंकर प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। नीचे गज पर सवार चंवर लिए इन्द्र खड़े हैं। अधोभाग में श्रावक भी भक्ति मुद्रा में उत्कीर्ण किए गए हैं। 72 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके आगे स्थित एक वेदिका पर श्वेत वर्ण की पद्मासन मुद्रा में नवीन जिन - प्रतिमायें विराजमान हैं। जो भगवान पार्श्वनाथ, चद्रंप्रभु, व शान्तिनाथ की है । अगली वेदी पर श्याम वर्ण की भगवान पार्श्वनाथ की व श्वेत वर्ण की भगवान चन्द्रप्रभु की नवनिर्मित प्रतिमायें विराजमान हैं । अंतिम छोर पर बनी वेदिका में भगवान सुपार्श्वनाथ की श्वेत धवल व मनोहारी प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। इसके सिर पर नौ फणावली बनी है । यह प्रतिमा भी प्राचीन व सं. 1272 की प्रतिष्ठित है। इससे आगे भगवान श्रेयांसनाथ, विमलनाथ व कुंथुनाथ की पद्मासन प्रतिमायें इसी जिनालय में विराजमान हैं। ये सभी प्रतिमायें पद्मासन में श्वेत वर्ण की हैं । इस महान जिनालय से बाहर निकलने पर बाईं ओर नंग- अनंग मुनिराजों व भगवान बाहुबली की लगभग 7 फीट अवगाहना की धवल संगमरमर से निर्मित भव्य व मनोहारी प्रतिमायें पृथक-पृथक वेदिकाओं पर कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है । इसी विशाल प्रांगण में एक नवीन चौबीसी का निर्माण किया गया है। इस चौबीसी की 24 मढ़ियां बनाई गई हैं। जिनमें लगभग 1 फीट अवगाहना वाली चौबीस तीर्थंकर प्रतिमायें पृथक-पृथक किन्तु क्रमशः विराजमान की गई है। मध्य में विशाल मानस्तंभ की रचना की गई है। यह मानस्तंभ 45 फीट ऊँचा है। दो चरण छत्रियां भी प्रांगण में स्थित हैं। यहां से सूर्योदय के साथ ही समूचे क्षेत्र का जो दृश्य दिखाई देता है, वह मंत्र-मुग्ध करने वाला होता ही है, परन्तु रात्रि में तो यहां से दिखाई देने वाला समूचे क्षेत्र के सभी जिनालयों का दृश्य अद्भुत एवं परम शान्ति व सुख देने वाला होता है। इससे आगे समवशरण जिनालय है; जिसके मध्य में सर्वोच्च सिंहासन गंधकुटी में चारों दिशाओं से दिखने वाली भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमायें विराजमान हैं। इसका निर्माण शास्त्रोक्त विधि से निर्मित व आल्हादकारी है । बाहुबली जिनालय का निर्माण वीर नि. संवत् 2477, मानस्तंभ का निर्माण वीर नि. सं. 2468 व समवशरण जिनालय का निर्माण वीर नि. सं. 2493 में पूर्ण कराकर इन्हीं वर्षों में प्रतिष्ठायें की गई हैं । 58. पार्श्वनाथ जिनालय : 6 फीट अवगाहना वाली कायोत्सर्ग मुद्रा में मूंगिया वर्ण की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा इस भव्य जिनालय में विराजमान है । इसी जिनालय में दो अन्य वेदिकाओं पर भगवान आदिनाथ व महावीर स्वामी की 6 फीट अवगाहना वाली प्रतिमायें भी कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं । 58 (अ) समवशरण जिनालय : दायीं ओर स्थित इस जिनालय में पीतल की रचनायें व जिनबिम्ब स्थित हैं । 59. आदिनाथ जिनालय : इस जिनालय में भी भगवान आदिनाथ की 6 फीट ऊँची मूंगिया वर्ण की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन है। इस जिनालय में प्रदक्षिणा पथ बना है । मध्य-भारत के जैन तीर्थ 73 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60. पिसनहारी की मढ़िया : तीन कटनी वाली तीन परिक्रमा-पथ सहित यह रचना कहा जाता है कि किसी आटा पीसने वाली वृद्धा ने बनवाई थी। इस जिनालय के शीर्ष भाग पर बने छोटे से जिनालय में 2 फीट अवगाहना वाली भगवान सुपार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा सं. 1549 में हुई थी। ___61. नेमिनाथ जिनालय : 3 फीट अवगाहना वाली श्याम वर्ण की कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन यह प्रतिमा वाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की है। इसमें गर्भगृह व परिक्रमा-पथ भी है। 62. महावीर जिनालय : इस जिनालय में 6 फीट ऊँची गुंगिया वर्ण की भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। जिनालय में परिक्रमा-पथ भी बना है। गले के दोनों ओर तीन पट्टिकायें हैं। 63. पार्श्वनाथ जिनालय : उपरोक्त गुणों वाली भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में इस जिनालय में विराजमान हैं। इसमें भी प्रदक्षिणा पथ बना है। 64. पार्श्वनाथ जिनालय : इस जिनालय में श्याम वर्ण की 1.5 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसका प्रतिष्ठाकाल सं. 1930 है। ___65. चन्द्रप्रभु जिनालय : इस जिनालय में भी पद्मासन मुद्रा में लगभग 1 फीट ऊँची श्वेत वर्ण की भगवान चन्द्रप्रभु की मूर्ति विराजमान है। इस जिनालय में प्रदक्षिणा पथ बना है। छतरी 8 - इस छत्री में दो चरण-चिह्न बने हैं; जो किसी मुनिराज के हैं। 66. संभवनाथ जिनालय : तीसरे तीर्थंकर भगवान संभवनाथ का यह जिनालय सं. 1885 का है; जिसमें प्रदक्षिणा पथ के साथ भगवान संभवनाथ की श्वेत वर्ण की लगभग 1 फीट ऊँची पद्मासन प्रतिमा आसीन है। ___67. महावीर जिनालय : लगभग 4 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन यह मूर्ति अंतिम तीर्थंकर भगवान वर्धमान स्वामी की है। यह प्रतिमा मंगिया वर्ण की है। जिनालय में प्रदक्षिणा पथ भी बना है। इस जिनालय से आगे एक गुफा में एक देव की मूर्ति है; जिसकी गोद में 7 बालक हैं। छत्री 9 - इस छत्री में दो चरण-चिह्न विद्यमान है। 68. महावीर जिनालय : इस जिनालय में तीन स्थानों पर दर्शन हैं। सामने गर्भगृह में भगवान महावीर स्वामी की कत्थई वर्ण की पद्मासन मुद्रा में आसीन है। आगे एक कोने में बनी वेदिका में भी महावीर स्वमी की पद्मासन प्रतिमा आसीन है; जिसके ऊपर 3 छत्र बने हैं। महालक्ष्मी व सर्प लिए गंधर्व भी बने हैं। प्रतिमा के पार्श्व भागों में छोटी-छोटी खड्गासन प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। पाद्मूल में चमर लिए इन्द्र खड़े हैं। प्रतिष्ठाकाल सं. 1851 है। 69. आदिनाथ जिनालय : यह प्रतिमा 3 फीट अवगाहना वाली मूंगिया वर्ण 74 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन है । प्रदक्षिणा पथ भी है। रास्ते में एक गुफा में चरण - चिह्न भी अंकित हैं । यहां से आगे बायीं हाथ की ओर एक रास्ता गया है । थोड़ी दूर पर वजनी शिला है; जिसको पत्थर से ठोकने पर मधुर ध्वनि निकलती है। आगे क्षेत्रपाल जी एक मढ़िया जी में विराजमान है। कुछ आगे जाने पर कुछ नीचे उतरने पर नारियल कुंड है; जो 3 फीट चौड़ा व लगभग 50 फीट गहरा है। कहा जाता है कि प्यास से व्याकुल बालक को देखकर यहां विराजे मुनिराज ने किसी श्रावक से यहां नारियल फोड़ने को कहा; तभी यहां कुंड में पानी भर गया। इसमें हमेशा जल भरा रहता है। नारियल कुंड के पास एक चरण - चिह्न भी अंकित हैं । 70. पार्श्वनाथ जिनालय : इस जिनालय में 6 फीट अवगाहना वाली भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है । परिक्रमा पथ भी इस जिनालय में है । 1 71. सर्वतोभद्र जिनालय : इस जिनालय में चारों ओर एक ही पाषाण में भगवान आदिनाथ, वासुपूज्य, अनन्तनाथ व कुंथुनाथ भगवान की प्रतिमायें बनीं हैं । यह शिला नीले वर्ण की है। 72. पार्श्वनाथ जिनालय : लगभग 3.5 फीट अवगाहना वाली श्याम वर्ण की भगवान पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है। प्रतिष्ठाकाल सं. 1884 है। इसी जिनालय में एक ओर अन्य वेदिका पर भगवान चन्द्रप्रभु की 5 फीट ऊँची प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिष्ठापित है । इस जिनालय में प्रदक्षिणा पथ भी है । 78. नेमिनाथ जिनालय : कायोत्सर्ग मुद्रा में मूंगिया वर्ण की लगभग 4.5 फीट ऊँची भगवान नेमिनाथ की भव्य व मनोहारी प्रतिमा इस जिनालय में विराजमान है । इस प्रतिमा के सिर के ऊपर पाषाण के तीन छत्र बने हैं व चेहरे के पीछे आकर्षक भामंडल भी उत्कीर्ण है । अधोभाग में एक ओर यक्ष व दूसरी ओर यक्षिणी की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । यक्षिणी बैल पर सवार हैं । जिनालय में परिक्रमा पथ भी है। 74. महावीर जिनालय : इस जिनालय के ऊपरी भाग में सात वेदियां हैं। भोंयरे में भी तीर्थंकर प्रतिमा है । मुख्य वेदिका पर 3 फीट ऊँची श्वेत वर्ण की भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । प्रतिष्ठाकाल सं. 1838 है। बाईं ओर स्थित वेदिका पर 2 फीट ऊँची कत्थई वर्ण की भगवान महावीर स्वामी की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है । दाईं ओर स्थित वेदिका पर 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की 3 फीट अवगाहना वाली कृष्ण वर्ण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसका प्रतिष्ठिाकाल सं. 2044 है। आगे बरामदे में सं. 1930 में प्रतिष्ठित 1.25 फीट ऊँची कृष्ण वर्ण की भगवान पार्श्वनाथ की फणावली युक्त प्रतिमा विराजमान है। एक दूसरे बरामदे में तीन वेदियां बनीं हुई हैं। मध्य वेदिका पर श्वेत वर्ण की भगवान चन्द्रप्रभु की 1.5 फीट मध्य-भारत के जैन तीर्थ 75 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँची, बायीं वेदी पर कृष्ण वर्ण की 1 फीट अवगाहना वाली पावश्नाथ भगवान की दो प्रतिमायें हैं। सभी पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं। नीचे भोयरे में 4 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की श्वेत वर्ण की प्रतिमा विराजमान है। यहां आकर श्रद्धालु दर्शन कर नयनों को तृप्त करने के लिए थोड़ी देर को ठहर सा जाता है। मूर्ति का प्रतिष्ठाकाल सं. 1838 है। एक अन्य जिनालय में भगवान शान्तिनाथ की 1.5 फीट अवगाहना की श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा भी विराजमान है। यहीं एक वेदी में चरण-चिह्न रखे हैं; जो प्राचीन है। इसके कुछ आगे जाने पर क्षेत्रपाल की बड़ी मूर्ति विराजमान है। छत्री 10-11 थोड़ा आगे जाने पर 2 छत्रियों में चरण-चिह्न विराजमान हैं। 75. चन्द्रप्रभु जिनालय : इस जिनालय में भगवान चन्द्रप्रभु की लगभग 2.25 फीट अवगाहना वाली काले पाषाण से निर्मित प्रतिमा पद्मासन में आसीन है। इसका प्रतिष्ठाकाल सं. 1350 है। इस जिनालय में अर्धमंडप है। चन्द्रप्रभु की प्रतिमा के पास 1 फीट ऊँची अन्य तीर्थंकर प्रतिमा भी विराजमान है। 76. चन्द्रप्रभु जिनालय : इस जिनालय में हल्के पीले रंग की भगवान चन्द्रप्रभु की लगभग 7 फीट अवगाहना वाली प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन है। इसी जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ, आदिनाथ व महावीर स्वामी की प्रतिमायें विराजमान हैं। गैलरी में सं. 1101 की नील वर्ण की एक पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा भी कुछ अन्य प्रतिमाओं के साथ स्थित है। ये छोटी, किन्तु कलात्मक व ऐतिहासिक महत्व की हैं। ____77. महावीर जिनालय : इस तीर्थ-क्षेत्र का पर्वत पर स्थित यह अंतिम जिनालय है; जिसमें लगभग 1.5 फीट अवगाहना की कृष्ण वर्ण की भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके परिकर में देवियां हाथ में सर्प लिए हैं, विमान में दो-दो देव-देवियां प्रभु की ओर आ रहे हैं। चरणों में चरण सेवक इन्द्र चंवर लिए खड़े हैं। पीठासन में मध्य में सिह व दोनों ओर श्रावक भक्ति मुद्रा में खड़े हैं। इस मंदिर में दालान भी है। छत्री 12-16 अन्त में इन पांचों छत्रियों में विराजमान चरणों को श्रद्धासुमन अर्पित करते ही पर्वत पर स्थित जिनालयों की वंदना पूरी हो जाती है। । पर्वत पर कुछ नवनिर्मित जिनालय भी हैं। इनमें से कुछ का वर्णन हम 57वें जिनालय के बाहर विशाल प्रांगण में स्थित रचनाओं में कर चुके हैं। प्रथम व सबसे ऊपर के चन्द्रप्रभु जिनालय के मध्य दो जिनालय और बने हैं। उनमें से एक चन्द्रप्रभु भगवान का विशाल जिनालय है। यह छत्रीनुमना जिनालय है; जिसमें एक विशाल चबूतरे पर भगवान चन्द्रप्रभु की कत्थई वर्ण की विशालकाय भव्य व आकर्षक प्रतिमा विराजमान हैं। इस प्रतिमा की अवगाहना लगभग 12 फीट है। प्रतिमा पदमासन में आसीन है। ... इसके पहले पथ के दाहिनी ओर एक भव्य व मनोहारी जिनालय का निर्माण किया गया है। इस ओर मुड़ते ही दो सुंदर स्त्रियां हाथों में कलश लिए आपका 76 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वागत करती हैं। इस अत्यन्त मनोज्ञ जिनालय का नाम नंदीश्वर जिनालय है, जिसमें शास्त्रों में वर्णित दृष्टि से 52 छोटे-छोटे भव्य जिनालयों का निर्माण एक चबूतरे पर गोल आकार में किया गया है। मध्य में मेरु मंदिर भी बने हुए हैं। रचना अति सुंदर व चित्ताकर्षक है। __ भगवान चन्द्रप्रभु जिनालय में दो शिलालेख मौजूद है। एक शिलालेख मूलनायक भगवान चन्द्रप्रभु के पाद्मूलं में दबा हुआ है। इसमें पौष सुदी 15 सं. 335 का उल्लेख है व कहा गया है कि मूलसंध बलात्कारगण के श्रवणसेन व कनकसेन ने इसे बनवाया था। फिर भी यह तो निश्चित है कि इस क्षेत्र का महत्व भगवान चन्द्रप्रभु के समय से ही रहा है। क्षेत्र पर चैत्र कृष्ण 1 से 5 तक वार्षिक मेला लगता है। मेले के समय यहां बड़ी-बड़ी गाड़ियों (रलों) का स्टापेज भी रहता है। छत्तीसगढ़ व पठानकोट तो यहां हमेशा रूकती है।क्षेत्र पर पुस्तकालय, औषधालय, संग्रहालय आदि भी संचालित हैं। तलहटी में भी अनेक नये जिनालयों का निर्माण हुआ है। श्रद्धालुओं को इस क्षेत्र के दर्शन अवश्य करनी चाहिए। रेलवे स्टेशन पर हमेशा क्षेत्र की गाड़ियां क्षेत्र तक जाने के लिए उपलब्ध रहती हैं। इस क्षेत्र के विकास में आचार्यश्री विमल सागरजी (वात्सल्य-रत्नाकर) का बहुत योगदान रहा है। अनेक बार चातुर्मास कर निर्माण कार्य कराया है। पर्वत की तलहटी में क्षेत्र में प्रवेश करने के पूर्व ही एक विशाल परिसर में श्री कानजी स्वामी के भक्तों द्वारा पांचों सिद्धक्षेत्रों - कैलाशगिरि, सम्मेद शिखर, चंपापुर, पावापुर, गिरनारगिरि (अर्जयन्त गिरि) सहित श्रवणवेलगोला स्थित गोमटेश बाहुबली की अत्यन्त कलात्मक व प्रभावशाली प्रतिकृतियों का निर्माण कराया गया है व वहीं पर एक विशाल मानस्तंभ भी विनिर्मित किया गया है इसी परिसर में यात्रियों के ठहरने के लिए एक सुविधा सम्पन्न धर्मशाला व निःशुल्क भोजनालय आदि की व्यवस्था है। इस प्रकार इस क्षेत्र पर दिगंबर जैन धर्मावलंबी महानुभावों में से सभी ने अपने श्रद्धा-सुमन इस क्षेत्र पर समर्पित किये हैं और यह क्रम भविष्य में निरन्तर जारी रहेगा, ऐसा लेखक का विश्वास है। इस. क्षेत्र की प्राकृतिक छटा बड़ी ही निराली है। यहां पर बड़ी संख्या में राष्ट्रीय पक्षी मयूर अपनी मनोहारी ध्वनियों से सारे परिसर को गुजायमान करते रहते हैं। और एक छोटे जलाशय के चारों ओर उनका आना-जाना एवं विभिन्न प्रकार की क्रीड़ायें करते रहना यात्रियों को सदैव अपनी ओर आकर्षित करता रहता है। वर्षा ऋतु में तो जब समूचा पर्वत अनेकानेक जल धाराओं द्वारा अभिसिक्त किया जाता है व पर्वत का कण-कण जिससे पूजित होता है। उस समय के उन दृश्यों को वाणी के द्वारा व्यक्त करना संभव नहीं है। बुंदेलखंड का यह तीर्थ-क्षेत्र अनुपम एवं अलौकिक है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 77 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र प्यावल 10-15 वर्ष पूर्व की बात है कि एक बार एक मुनिसंघ यहां से गुजर रहा था, तो कुछ ग्रामवासियों ने इस स्थान की चर्चा की। तब मुनि श्री रात यहीं पर ठहर गए। उन्हें रात में स्वप्न आया कि यहां और भी जिन-प्रतिमायें भूगर्भ में दबीं हैं। तब प्रातः खुदाई करने पर कुछ दिगंबर जैन प्रतिमायें यहां से प्राप्त हुईं। इस तरह यह अतिशय क्षेत्र अस्तित्व में आया इसके पहले स्थानीय लोग यहां स्थित प्रतिमा को झन-झन बाबा के नाम से पूजते थे क्योंकि लोगों के अनुसार यहां झन-झन की आवाज जो वाद्य यंत्रों से निकलने वाली झन-झन की आवाज सदृश्य थी; यहां से आती थी। यह तीर्थ-क्षेत्र सोनागिरि से 26, झांसी से 23 व करगुआं जी से वाया मवई 20 किमी. की दूरी पर स्थित है। यहां एक भव्य प्राचीन जिनालय स्थित है। इस क्षेत्र को स्थानीय लोग खोनी-खोना के नाम से जानते हैं व यहां पूर्ण आस्था व निष्ठा के साथ अपनी मनौतियों को मानते हैं। इस जिनालय में दो वेदियां हैं। प्रथम वेदिका में भगवान शान्तिनाथ व भगवान कुंथुनाथ की 8 फीट ऊँची मनोज्ञ प्राचीन प्रतिमायें स्थापित हैं। उन्हीं के मध्य एक छोटी पद्मासन प्रतिमा भगवान अरहनाथ की बनी हुई है। शिला में नीचे की ओर मुनि सुकुमाल व यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियां उकेरी गईं हैं। जिनालय के दूसरे गर्भगृह में नीचे भोंयरे में 6 फीट ऊँची भगवान मुनिसुव्रतनाथ की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है; व यही लगभग 4 फीट ऊँची अतिमनोज्ञ पद्मासन प्रतिमा भी प्रतिष्ठित है; जिन पर कोई चिह्न अंकित नहीं है; तथापि भाव-भंगिमाओं व निर्मित कला से यह प्रतिमा प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की प्रतीत होती है। 78 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र करगुआं सांवलिया पारसनाथ दिगम्बर अतिशय क्षेत्र करगुआं एक प्राचीन तीर्थ क्षेत्र है; जहां सं. 1345 की अतिशयकारी सांवलिया पारसनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । यह तीर्थस्थली ग्राम करगुआं की 9 एकड़ भूमि पर अवस्थित है। यह झांसी रेलवे स्टेशन से लगभग 7 किमी. तथा झांसी बस स्टैण्ड से लगभग 3 किमी. की दूरी पर झांसी-कानपुर नेशनल हाइवे पर बने मेडिकल कॉलेज के सामने स्थित पहाड़ी के पार्श्व भाग में स्थित है । वर्तमान में यह झांसी नगर निगम के अन्तर्गत ही आता है । अतिशय : लगभग 220 वर्ष पूर्व झांसी के पेशवाओं के शासन काल में नगर से लगभग 5 किमी. की दूरी पर इस क्षेत्र स्थित जमीन के ऊपर से एक बैलगाडी गुजर रही थी कि अचानक वह बैलगाडी चमत्कारिक ढंग से यहां रुक गई। तब यहां यह प्राचीन जिनालय भूगर्भ में स्थित था। गाड़ीवान असमंजस में पड़कर रात को वहीं रुक गया। उसी रात सिघई नन्हें जू (जो झांसी निवासी थे) रात्रि के अंतिम प्रहर में सपने में देखा कि एक देवतुल्य पुरुष उनसे कह रहे हैं कि ग्राम करगुआं में जहां बैलगाडी रुक गई है; वहां जमीन में विशाल देव प्रतिमायें हैं; उन्हें निकालो। श्री नन्हें जू ने प्रातःकाल यह बात राजदरबार में बताई। राजदरबार में निर्णय लिया गया कि उस स्थल पर खुदाई कराई जाये । स्वप्न को साकार कराने के लिये जैन समाज के प्रतिष्ठित पुरुष श्री नन्हें जू राज दरबारियों तथा जैन - जैनेतर बंधुओं के साथ संबंधित स्थल पर पहुँचे व वहां खुदाई प्रारंभ करवाई। लगभग 7-8 फीट खुदाई करने पर ही प्रतिमायें दिखने लगीं। फिर क्या था ? चारों दिशायें जय-जयकार के नारों के साथ गुंजायमान होने लगीं। राजदरबार में इस घटना की सूचना भेजी गई व फिर सावधानी पूर्वक उस स्थल से 6 अतिप्राचीन जिन - प्रतिमाओं को निकाला गया। जैन समाज द्वारा सदाशयता के लिये भूमि की उसी गहराई पर शिखरबंद मड़िया का रूप देकर भोंयरे का निर्माण कराया गया तथा भूग्रह के चारों ओर 9 एकड़ भूमि पर एक परकोटा तथा दो कुयें बनवाये गये । क्षेत्र के पास ही क्षेत्र के कार्यालय एवं अन्य व्यवस्था हेतु एक हॉल भी बनवाया गया। तभी से ये क्षेत्र एक महान अतिशय क्षेत्र के रूप में विख्यात हो गया। तब से लेकर आज तक यह क्षेत्र निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। तीर्थ क्षेत्र : 1. परकोटे के मध्य में एक भोंयरा है। गर्भगृह में सामने खुदाई में प्राप्त तीन जिन - प्रतिमायें विराजमान हैं। मध्य में लगभग 4 फीट ऊँची सांवलिया पारसनाथ की पद्मासन सातफणी अतिशयकारी जिन - प्रतिमा विराजमान है । बायीं ओर सातफणी भगवान पार्श्वनाथ की ही लगभग इससे कुछ कम अवगाहन वाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। ये प्रतिमायें अतिमनोज्ञ हैं व तेरहवीं सदी की हैं । दायीं तरफ नन्हें जू ने भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा वि. सं. 1851 में स्थापित करवाई थी; वह मध्य-भारत के जैन तीर्थ 79 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराजमान है वेदिका के बायीं ओर पार्श्व भाग में भगवान आदिनाथ की पद्मासन प्रतिमा व शान्तिनाथ की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इस प्रतिमा के शीर्ष भाग पर गगनधारी गंधर्व देव व नीचे यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। दायीं ओर के पार्श्व भाग में 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। ये सभी प्रतिमायें काले बेसाल्ट पत्थर से निर्मित अतिमनोज्ञ प्रतिमायें हैं। जिनके दर्शन मात्र से दर्शकों का मन प्रफुल्लित हो जाता है। इसी ओर देशी पाषाण के स्तंभ पर शीर्षभाग में चारों ओर अरिहन्त भगवंतों की प्रतिमायें उकेरी गईं हैं व नीचे की ओर पिच्छी कमण्डलु से युक्त निर्ग्रन्थ मुनि की प्रतिमा उकेरी गई है; स्थित है। ये सभी प्रतिमायें खुदाई के दौरान प्राप्त हुईं थीं। वर्तमान में मूलवेदी पर चार धातु की प्रतिमायें भी विराजमान हैं। ई. सन् 1970 में झांसी जैन समाज ने भोयरे के द्वार को बड़ा करवाया व वेदी के सामने स्थित जगह को भी एक बड़े कक्ष का आकार दिया ताकि श्रद्धालु यहीं बैठकर भजन पूजन आदि कर सकें। 2. 1978 में भोयरे के सामने श्वेत संगमरमर से निर्मित 45 फीट ऊँचे विशाल मानस्तंभ का निर्माण कराया गया व प्रतिष्ठा कराई गई। 3. 1985 में भोयरे के दायें व बायें क्रमशः दो नये जिनालयों का निर्माण कराया गया है। जिनमें क्रमशः भगवान बाहुबली व भगवान आदिनाथ की आदमकद प्रतिमायें प्रतिष्ठित की गईं हैं। इन प्रतिमाओं का मुखमंडल दर्शनार्थियों को सहज ही प्रमुदित कर देता है। 4. 1987 में श्री जम्बू साल्मलि आदिनाथ जिनालय का निर्माण किया गया। क्षेत्र पर आधुनिक सुविधाओं से युक्त 100 से अधिक कमरों की धर्मशाला स्थित है। 1988 में आचार्य विद्यासागर की प्रेरणा से यहां एक विशाल सभागार का निर्माण कराया गया, जिसमें निरन्तर धार्मिक कार्यक्रम चलते रहते हैं। इस भव्य सभागार में 3-4 हजार श्रद्धालु एक साथ बैठ सकते हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर आचार्यों व मुनि संघों का सतत आना-जाना बना रहता है; जिससे यहां निरन्तर धर्म प्रभावना होती रहती हैं। इस क्षेत्र पर स्थापित जिन-प्रतिमायें महान जैन श्रावक देवपत खेवपत द्वारा निर्मित है। पास की पहाड़ी पर सन् 2004 में एक लाल पाषाण निर्मित भव्य व भगवान महावीर स्वामी की 11.5 फीट ऊँची विशालकाय प्रतिमा को प्रतिष्ठापित किया गया है। यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है; व दूर-दूर से दिखाई पड़ती है। प्रतिमा के सामने एक मड़िया जी में चरण-चिह्न भी विराजमान हैं। यह क्षेत्र झांसी मेडिकल कॉलेज के निकट होने के कारण यहां तीर्थ यात्रियों के साथ-साथ बीमार जैन बंधु भी बड़ी संख्या में आकर ठहरा करते हैं और चिकित्सा के साथ-साथ दर्शन पूजन आदि से लाभान्वित हुआ करते हैं। नोट : यहां हाल ही में क्षेत्र के बायीं ओर एक अन्य जिनालय का निर्माण व पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई गई है। 80 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र टोड़ी फतेहपुर . दूर-दूर तक विख्यात यह अतिशय क्षेत्र झांसी जिले की मऊरानीपुर तहसील में स्थित है व मऊरानीपुर से लगभग 30 किमी. दूर है। यहां दो दिगंबर जैन मंदिर है। यह पार्श्वनाथ की यक्षिणी पद्मावती के तथाकथित अतिशयों के लिये विख्यात है। जिनालय : 1. इस जिनालय में मात्र एक वेदिका में सभी 9 प्रतिमायें भगवान पार्श्वनाथ की हैं। सभी प्रतिमायें प्राचीन व 1 से 1.5 फीट अवगाहना वाली हैं। सभी प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं। 2. इस जिनालय में नीचे तीन वेदिकायें हैं। प्रथम वेदिका सामने है। जिसमें एक जिनबिम्ब स्थापित है। उसके पार्श्व भाग में एक बड़ी वेदिका है। यह वेदिका उत्तराभिमुख है। इसमें 40 से अधिक प्राचीन जिनबिम्ब विराजमान हैं। ___ 3. तीसरी वेदिका पूर्वाभिमुख है। इसमें कुछ पाषाण प्रतिमाओं के अलावा अनेक धातु से निर्मित प्रतिमायें भी विराजमान हैं। यहां वेदी व जिनबिम्ब अतिशयकारी माने जाते हैं। प्रथम तल पर भी तीन वेदिकायें हैं। 2009 में कुछ नवीन वेदिकाओं का निर्माण भी हुआ व आचार्य श्री विशुद्धसागर जी के सान्निध्य में श्रीमद् जिनेन्द्र पंच कल्याणक एवं जिनबिम्ब प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। इस तल पर चौबीसी व समवशरण की रचना भी है; जो नवीन है। आवागमन : क्षेत्र झांसी-मानिकपुर रेलवे लाइन पर मऊरानीपुर स्टेशन से लगभग 30 किमी. दूर है। सुविधा : धर्मशाला है। अतिशय : दुःख, दर्द, बाधायें दूर करने हेतु यात्री बहुधा यहां आते हैं। मम्य-भारत के जैन तीर्थ - 81 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र सेरोन प्राचीनता, कलात्मकता, भव्यता एवं सौम्यता आदि सभी का एक ही स्थान पर अद्भुत संगम देखना हो तो दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र सेरोन जी अवश्य पधारें । यह क्षेत्र दिल्ली-मुम्बई रेलवे लाइन पर स्थित ललितपुर स्टेशन से मात्र 18 किमी. दूरी पर स्थित है; जहां सड़क मार्ग से पहुँचा जाता है। सड़क मार्ग पक्का डामरयुक्त है। चंदेरी से इस तीर्थ क्षेत्र की दूरी 20 किमी. है, झांसी से यह क्षेत्र 70 किमी. दूर है, टीकमगढ़ से इस क्षेत्र की दूरी 65 किमी. है। यह प्राचीन अतिशय क्षेत्र ललितपुर (उ.प्र.) से मात्र 18 किमी. की दूरी पर, ललितपुर जखौरा वाया मनगुआं मार्ग पर स्थित है। यहां तक आने के लिए यात्रीबसों की सुविधा भी है। खैडर नदी इस क्षेत्र की परिक्रमा देकर बहती है। क्षेत्र पर प्राप्त शिलालेखों के अनुसार सं. 954 से लेकर सं. 1005 तक यहां मंदिरों का निर्माण होता रहा । सं. 1451 तक यहां का सांस्कृतिक व धार्मिक वैभव अपने चरम पर था। पश्चात् यह क्षेत्र सैकड़ों वर्षों तक उपेक्षित रहा; किन्तु सं. 1918 में यह क्षेत्र पुनः प्रकाश में आया। आज यह क्षेत्र अपनी प्राचीन धरोहर को संजोये निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर है। खेत जोतते समय, नीव खोदते समय, कुयें बनाते समय यहां आज भी मंदिरों व मूर्तियों के अवशेष व मूर्तियां प्राप्त होती रहती हैं; जो इस बात के प्रमाण हैं कि पूर्व में यह क्षेत्र सुदूर तक फैला हुआ था । क्षेत्र के आसपास फैले टीलों की खुदाई करने पर अनेक मंदिर मिल सकते हैं । यह प्राचीन तीर्थ क्षेत्र तपस्वियों का साधना केन्द्र रहा है व धर्म प्रभावना क्षेत्र भी रहा है; क्योंकि यहां आचार्यों, उपाध्यायों व साधुओं की मूर्तियां भी हैं । इतिहास : इस क्षेत्र का प्राचीन नाम सियाडणी था । जो विशाल नगर व व्यापार का प्रमुख केन्द्र था । लोकाख्यानों के अनुसार उदारदानी, धन कुबेर, अग्रवाल जातीय श्रावक देवपत, खेवपत एवं पाड़ाशाह द्वारा अनेक मंदिरों का निर्माण यहां श्रद्धापूर्वक कराया गया। यहां मंदिरों का निर्माण गौड़वंश, भोज व चंदेल वंश के शासन काल में भी होता रहा । श्री एस. डी. त्रिवेदी डायरेक्टर जनरल म्यूजियम झांसी ने म्यूजियम गाइड में लिखा है "सतगता प्राप्त गुप्त कालीन शिलालेख में जो लखनऊ के संग्रहालय में है के अनुसार सेरोन का प्राचीन नाम सियाडोंणी था । कुछ विद्वान इसका प्राचीन नाम शलगढ़ भी मानते हैं। वर्ष 1998-99 में एक किसान कुआं खोद रहा था; कि वहां मंदिर निकल आया; जिसमें 26 कलात्मक जिन-प्रतिमायें निकल आईं। ये सभी प्रतिमायें वर्तमान में मंदिर क्रमांक 5 में विराजमान हैं ।" वर्तमान रूप व जिनालय : यह क्षेत्र मैदानी समतल भूमि पर स्थित है । · वर्तमान में यह क्षेत्र एक विशाल परकोटे में स्थित है। इस तीर्थ क्षेत्र में प्रवेश करते असीम शान्ति का अनुभव होता है। क्षेत्र स्थित सभी वेदिकायें पुनः एक अह 82 मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में स्थित हैं। यह क्षेत्र दो मंजिले भवन में है। जिसमें 60 से अधिक वेदिकाओं पर श्री जी विराजमान हैं। इस क्षेत्र में मात्र एक चौबीसी व दो वेदिकाओं पर ही नवीन जिनबिम्ब स्थापित है; शेष वेदिकाओं पर अतिप्राचीन जिनबिम्ब स्थापित हैं। जिनबिम्बों की वीतरागी मुद्रा देखते ही बनती है। जिनालय परिसर में प्रवेश करते ही; सर्वप्रथम मानस्तंभ के दर्शन होते हैं; जो लगभग 40 फीट ऊँचा हैं यद्यपि यहां के मूलनायक भगवान शान्तिनाथ जी हैं; किन्तु इस क्षेत्र पर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमायें सबसे अधिक हैं। यहां फणावली युक्त भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा, आचार्य कुंदकुंद स्वामी की पीछी कमण्डलु सहित खड्गासन प्रतिमा, पंच बालयति भगवानों की मूर्तियां, पंचपरमेष्ठियों के जिनबिम्ब, सप्त ऋषियों की मूर्तियां, भरत-बाहुबली की मूर्तियां जिनके चरणों में 14 रत्न पड़े हैं, यक्ष-यक्षिणी आदि की मूर्तियां इस क्षेत्र के प्रमुख आकर्षण हैं, जिनके दर्शन कर श्रद्धालु भाव-विभोर हो जाता है। यहां शासन देवियों व उनके अलंकरणों का सूक्ष्म अंकन भी दर्शनीय है। भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमाओं के दर्शन करके मन स्वतः पवित्र हो जाता है। नीचे तलपर : 1. मानस्तंभ से आगे बढ़ते ही विश्व शान्ति प्रदायक भगवान शान्तिनाथ की भव्य प्रतिमा के दर्शन होते हैं। 18 फीट ऊँची प्रतिमा के मुखमंडल के चारों ओर भव्य आभामंडल की शोभा देखते ही बनती है। मूर्ति के दोनों ओर लगभग 7-8 फीट ऊँची भगवान कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें हैं। भगवान शान्तिनाथ का यह जिनालय आयताकार नागर शैली में निर्मित हैं। यह जिनालय पहले भोयरे रूप में था जिसका प्रवेश द्वार मात्र 2 फीट 9 इंच x 1फीट 7 इंच का था। इस दरवाजे में बैठकर प्रवेश करना पड़ता था; किन्तु अब यह सब हटाकर एक विशाल दरवाजा बनाया गया है, जहां दूर से ही श्री जी के दर्शन होते हैं। दर्शन कर श्रद्धालुओं के मन को परम शान्ति मिलती है। 2. दायीं ओर जाने पर एक विशाल मंदिर स्थित है, जिसके मध्य में एक प्राचीन वेदिका है; उस पर अनेक जिनबिम्ब स्थापित हैं। इस वेदिका के चारों ओर अनेकों खड्गासन व पद्मासन जिनबिम्ब विराजमान हैं। सभी अतिप्राचीन हैं। प्रतिमाओं की अवगाहना एक फीट से लेकर 6 फीट तक की है। सभी जिनबिम्ब देशी पाषाण से निर्मित हैं। 3. बाहर निकलने पर दाईं ओर भगवान पार्श्वनाथ जिनालय है; जिसमें अतिप्राचीन भगवान पार्श्वनाथ की पाषाण निर्मित 6.6 फीट ऊँची भव्य पद्मासन प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा अतिप्राचीन, कलापूर्ण व आकर्षक है तथा देशी पाषाण से निर्मित है। . 4. आगे बढ़ने पर भगवान शान्तिनाथ जिनालय में भगवान शान्तिनाथ की प्राचीन पद्मासन प्रतिमा स्थापित है। ___5. आगे आगे जाने पर एक नवीन जिनालय में नवनिर्मित अनेक जिनबिम्ब .. विराजमान हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 88 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य जिनालय के बाईं ओर दालान में लगभग बारह से अधिक वेदिकाओं का निर्माण कर उनमें अनेक पद्मासन में स्थित जिनबिम्बों को, जो अतिप्राचीन हैं; स्थापित किया गया है। बायीं ओर तीन जिनालय स्थित हैं; जिनमें से एक जिनालय में मूल वेदिका के चारों ओर अनेक खड्गासन मुद्रा में स्थित जिन प्रतिमायें रखी गई हैं। ये सभी प्रतिमायें अतिप्राचीन व कलापूर्ण हैं। प्रतिमाओं की अवगाहना 5 से 7 फीट के मध्य है। ऊपरी तल पर : ऊपरी तल पर एक नवनिर्मित चौबीसी स्थित है; जिनमें 24 तीर्थंकरों की नवीन जिन-प्रतिमायें स्थापित की गई हैं। मूल वेदिका के ऊपर भी एक वेदी पर नवीन प्रतिमायें विराजमान हैं। दायीं ओर 7-8 कक्षों में प्राचीन जिनबिम्ब स्थापित किये गये हैं। ये सभी जिन-प्रतिमायें अतिप्राचीन, कलात्मक, पाषाण-निर्मित व 2 से 4.6 फीट ऊँची हैं व अधिकांश जिनबिम्ब खड्गासन मुद्रा में हैं। यहां स्थित अधिकांश जिनबिम्बों के पाद्मूल में या तो प्रशस्तियां हैं ही नहीं या हैं भी तो वे अपठनीय हैं। यहां की मूर्ति कला खजुराहो व देवगढ़ की मूर्तिकला से साम्य रखती हैं। प्रत्येक कक्ष में तीन या तीन से अधिक जिनबिम्ब स्थापित हैं। अतिशय : . 1. यहां स्थित बावड़ी से दर्शनार्थियों को भोजन आदि हेतु बर्तनों की प्राप्ति मांगने पर होती थी। 2. यहां आने वाले दर्शनार्थियों की शुद्ध भाव से मांगी गई मनोकामनायें पूर्ण होती हैं। 3. भगवान शान्तिनाथ के दर्शनों से मिर्गी के रोगियों को आशातीत लाभ पहुँचता है। 4. यहां की जिन-प्रतिमाओं की जैन व जैनेतर लोग सभी बड़ी श्रद्धा से पूजा वंदना करते हैं। 5. यह क्षेत्र संतों व मुनिवरों की साधना-स्थली रही है। अन्य : क्षेत्र पर एक दो मंजिला मूर्ति संग्रहालय विनिर्मित है। जिसमें सैकड़ों की संख्या में खंडित जिनबिम्ब सुरक्षित रखे गये हैं। मंदिरों के भग्नावशेष व शिखर भी यहां सुरक्षित रखे गये हैं। क्षेत्र पर भगवान शान्तिनाथ पूर्व माध्यमिक विद्यालय संचालित है। आयुर्वेदिक चिकित्सालय भी क्षेत्र की ओर से संचालित है। भोजनालय की सुविधा है। यात्रियों को ठहरने के लिए धर्मशाला भी बनी हुई है। शांति-कुन्थु-औ अरहनाथ के, जो दर्शन करता है। उसके नशते पाप, ताप, त्रय अतुल शांति वरता है।। 84 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र बानपुर टीकमगढ़ ललितपुर मार्ग पर स्थित बानपुर अतिशय क्षेत्र महरौनी कस्बे से 14 किमी. दूर स्थित है। टीकमगढ़ से ललितपुर वाया बानपुर सड़क मार्ग से यह 10 किमी. की दूरी पर स्थित है। बानपुर कस्बे से क्षेत्र की दूरी महज एक किमी. है। क्षेत्र परिचय : __ बानपुर कस्बा महाभारतकालीन है। श्री कैलाश मड़वैया 'बुंदेलखंड का विस्मृत वैभव-बानपुर" नामक पुस्तक में लिखते हैं कि महाभारत काल में इस नगर का नाम वाणपुर था। पुराणों के अनुसार यहां वाणासुर नामक दैत्य का शासन था। बाद में यह चेदि राज्य में रहा। सं. 1899 में यहां राजा मर्दन सिंह का शासन रहा। आज यह कस्बा उ.प्र. के ललितपुर जिलान्तर्गत आता है। बानपुर की शौर्यमयी माटी में संस्कृति, प्रकृति व अध्यात्म का शाश्वत सौन्दर्य अद्भुत रूप से समाहित है। कस्बे में दो विशाल जैन मंदिर स्थित हैं। बड़ा मंदिर अत्यन्त भव्य, उत्तंग व उत्तरकालीन स्थापत्य शैली का है। यहीं से एक किमी. दूर अतिशय क्षेत्र है; जो अपनी प्राचीनता, भव्यता, शिल्पकला आदि के लिए विख्यात है। क्षेत्र के चारों ओर परकोटा बना हुआ है। प्रवेश द्वार बड़ा और सुंदर बनाया गया है। यहां दसवीं शताब्दी से पूर्व की मूर्तियां भी विराजमान हैं। परकोटे के अंदर पांच विशाल जिनालय स्थित हैं। जिनमें देशी पाषाण से निर्मित भव्य जिनबिम्ब विराजमान हैं। सं. 1940 में मुनि श्री श्रुतसागर जी महाराज बानपुर पधारें व उन्होंने इस क्षेत्र को अपनी साधना-स्थली बनाया। यहीं से इस क्षेत्र का पुनरुद्धार प्रारंभ हुआ। अतिशय :. -- 1. एक ज्ञानी-ध्यानी संत का अचानक इस क्षेत्र पर आना व इस स्थल को अपनी साधना-स्थली बनाना वो बाद में क्षेत्र के पुनरुद्धार में रुचि लेना अपने आप में बड़ा अतिशय है। 2. मुनि श्री के आहार के दौरान एक नागराज रसोई में आकर बैठ जाते थे व मुनि श्री. के इशारा करने पर चले जाते थे। नागराज ने कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाई। यह क्षेत्र का अतिशय ही था। .. 3. वर्तमान में लोग अपनी मनोकामनाएं लेकर यहां आते हैं व उनके पूर्ण होने पर पुनः पूजन दर्शनों को आते हैं। - जिनालय : जनश्रुति के अनुसार वि.सं. 1001 के आसपास देवपाल नाम के बानपुर निवासी एक ग्वाले की पत्नी ने एक रात में जिनेन्द्र देव के स्वप्न में दर्शन किये; उसी की प्रेरणा से देवपाल ने ये मंदिर बनवाये ऐसा भगवान मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 85 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिनाथ के पाद्मूल में स्थित प्रशस्ति से विदित होता है। सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण एक बंजारे ने कराया था; ऐसी किवंदती है। जनश्रुति के अनुसार यह बंजारा जब अपनी बैलगाडी पर चांदी लादकर यहां से गुजर रहा था; तो उसका एक बैल कुएं में गिर पड़ा। तब बंजारे ने यहां स्थित जिनालय में प्रार्थना की कि यदि मेरा बैल सुरक्षित निकल आया तो मैं यहां सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराऊँगा। किस्मत से बैल सुरक्षित निकल आया जिससे प्रेरित हो उसने यहां सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराया। ___ 1. यहां मंदिर प्रांगण में ही वाट्य कक्ष में 5 फीट 4 इंच ऊँची खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। जिस पर किसी तीर्थंकर का प्रतीक चिह्न नहीं है। मूर्ति के दोनों ओर अन्य तीर्थंकरों व शासन देवियों की मूर्तियां भी उकरी हुई हैं। अंदर गर्भगृह में सं. 1142 में प्रतिष्ठित भगवान ऋषभनाथ की भव्य व सुंदर मूर्ति विराजमान है। यह पद्मासन मूर्ति लगभग 1.5 फीट ऊँची है। मंदिर का शिखर नागर शैली का है व शेष मंदिरों के शिखर से सबसे ऊँचा है। 2. इस जिनालय के परिसर में भी 8 फीट ऊँची देशी पाषाण से निर्मित भगवान शान्तिनाथ की खड्गासन मूर्ति प्रतिष्ठित है। जिनालय के भीतरी भाग में भी 8.5 फीट ऊँची खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इस मूर्ति के चरणपाद के पास छोटी-छोटी तीर्थंकर मूर्तियां व शासन देवी की मूर्ति बनी हैं। इस मूर्ति पर भी तीर्थंकर चिह्न अंकित नहीं है। जिससे ये विदित होता है कि ये मूर्तियां 10वीं शताब्दी के भी पूर्व की हैं; शायद तब की; जबकि मूर्तियों के पाद्मूल में तीर्थंकर चिह्न नहीं बनाया जाता होगा। _____. इस मध्य के मंदिर में मुख्य द्वार के ऊपर क्षेत्रपाल विराजमान हैं। वेदिका पर प्राचीन चरण स्थापित हैं। इसी वेदिका पर सं. 1541 में प्रतिष्ठित लगभग 8 फीट ऊँची पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इस मंदिर की वाय भित्तियों पर 19 स्थानों पर अन्य मूर्तियां स्थित हैं। 4. बड़े बाबा का जिनालय : सं. 1001 में निर्मित इस जिनालय में 18 फीट अवगाहना की भगवान शान्तिनाथ की देशी पाषाण से निर्मित भव्य व शान्ति प्रदायक प्रतिमा खड्गासन मुद्रा में विराजमान है। नीचे शिलालेखों के दोनों ओर छोटी-छोटी दिगम्बर मूर्तियां उकरी हैं। इस विशाल मूर्ति के बायीं ओर 7 फीट ऊँची खड्गासन मुद्रा में प्रतिमा स्थित है, जिसके केश घुटने के नीचे तक बिखरे हैं। लेखक का मानना है कि यह प्रतिमा प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की है; किन्तु इसे 17वें तीर्थंकर कुंथुनाथ की प्रतिमा माना जाता है; कारण कि संपूर्ण देश में अधिकतर भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा के दायीं व बायीं ओर 17 व 18 वें तीर्थंकरों की प्रतिमायें ही पाई जाती हैं। दायीं ओर इतनी ही ऊँची व भव्य भगवान अरहनाथ की 7 फीट ऊँची प्रतिमा विराजमान 86 - मध्य-पारत के जैन तीर्थ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है वर्तमान में इन मूर्तियों को एक विशाल नवनिर्मित हाल में विराजमान किया गया हैं यह प्रतिमायें स्वर्ण आभा लिये लाल प्रस्तर की हैं । मुखमंडल के चारों ओर स्थित आभामंडल विशेष आकर्षक है। सभी प्रतिमायें अतिप्राचीन, कलात्मक व आकर्षक हैं । 5. सहस्रकूट चैत्यालय : मध्ययुगीन भारतीय स्थापत्य कला का प्रतीक यह चैत्यालय 50 फीट से भी अधिक ऊँचा नागर शैली में निर्मित है। यह जिनालय चतुर्मुख है; अर्थात् इसके चारों ओर दरवाजे हैं। यह 10वीं शताब्दी में निर्मित है तथा खजुराहो शिल्प का बेजोड़ नमूना है । शिखर के मध्य भाग में तीन तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं व पार्श्व भागों पर शासन देवता स्थित हैं । ललाटबिम्ब पर भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है व पास ही नवगृहों की उल्लेखनीय व सुंदर रचना है। अहार जी के भगवान शान्तिनाथ के पामूल में स्थित शिलालेख में यह उल्लेख है कि बानपुर के सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण देवपाल ने कराया था । यह शिलालेख 1237 का है । चारों दिशाओं में स्थित इस कूट के मध्य में भगवान आदिनाथ की भव्य प्रतिमा है; इसके चारों ओर चार द्वारपाल बने हैं । तोरणों के ऊपर नीचे मदमस्त हाथी, सिंह समूह व कलश वाहिनी देवियां उत्कीर्ण हैं । चैत्यालय के अन्तः भाग में 3 फीट चौकोर अधिष्ठान पर 1008 जिनबिम्ब बने हुए हैं। पुरातत्व - वेत्तओं ने इस कूट की गणना शिल्प- संसार में 7 अद्भुत मूर्तियों में की हैं । 1 संग्रहालय : परिसर में ही सहस्रकूट चैत्यालय के आगे एक संग्रहालय बना हुआ है। इस संग्रहालय में सैकड़ों की संख्या में मूर्तियों के भग्नावशेष संग्रहीत हैं। एक 5 x 4 फीट के शिलाखंड में 70 मूर्तियां उत्कीर्ण हैं; जिनमें 53 जिनबिम्ब हैं व शेष शासन देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। धर्मशाला : यहां रुकने के लिए धर्मशाला भी है। जिसमें जल, विद्युत आदि की पर्याप्त व्यवस्था है 1 जो श्रद्धालु टीकमगढ़ आते हैं; उन्हें इस क्षेत्र के दर्शनों का लाभ अवश्य उठाना चाहिये। यह क्षेत्र समतल मैदानी भाग पर स्थित है व प्राचीन है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ 87 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र मदनपुर टीकमगढ़-ललितपुर मार्ग पर स्थित महरौनी तहसील मुख्यालय स्थित हैं । यहां से मड़ावरा मदनपुर को पक्का डामरयुक्त सड़क मार्ग जाता है । महरौनी से मदनपुर की दूरी 45 किमी. है। यह अतिशय क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन है एवं भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है; किन्तु पुरातत्व विभाग ने इस क्षेत्र के विकास के लिए कुछ नहीं किया है । मेरी दृष्टि में यह बुंदेलखंड क्षेत्र का अतिप्राचीन व महत्वपूर्ण क्षेत्र बुंदेलखंड स्थित सभी तीर्थ क्षेत्रों में सर्वाधिक असुरक्षित व जैन समाज द्वारा पूर्ण रूपेण उपेक्षित है; इसीलिये यह क्षेत्र आज भी विकास की राह का इन्तजार कर रहा है। यहां जैनियों के मात्र दो घर हैं; जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है; किन्तु रास्ते में पड़ने वाला मड़ावरा कस्बा, जिसमें एक दर्जन से अधिक जिनालय हैं; व समाज भी काफी है; का इस क्षेत्र के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं है । यह अतिशय क्षेत्र मदनपुर ग्राम से लगभग दक्षिण दिशा में मुख्य सड़क से 500 मीटर की दूरी पर सुरम्य पहाड़ियों की तलहटी में स्थित है । क्षेत्र के पास में पत्थर की खदानें हैं; जिसमें होते रहते विस्फोटों से इस क्षेत्र स्थित मंदिरों की दीवारें कमजोर पड़ गयी हैं व मूर्तियों पर भी उनका प्रभाव देखने को मिलता है; इसके बावजूद भी पुरातत्व विभाग ने क्षेत्र के संरक्षण हेतु कोई उपाय नहीं किया; यह अत्यन्त खेद की बात है। फिलहाल कुछ दिनों से पत्थर की खदानें बंद हैं। I 1 मड़ावरा से मदनपुर पहुँचने के 3-4 किमी. पहले से ही विशाल विन्ध्य पर्वत श्रृंखलायें दिखाई देने लगती हैं। मानों वे यात्रियों का स्वागत करने को आतुर हों । क्षेत्र पर व्यवस्थायें चरमराई हुई हैं । क्षेत्र की परिचय पुस्तिका भी उपलब्ध नहीं है। एक ही पुजारी के अधीन नीचे लिखे सभी जिनालयों की व्यवस्था की जिम्मेदारी है। यात्रियों के ठहरने के लिए भी क्षेत्र पर कोई व्यवस्था नहीं है । मंदिरों की सुरक्षा व्यवस्था भगवान भरोसे ही है । पुरातत्व विभाग का कोई भी कर्मचारी यहां नहीं रहता है । क्षेत्र के संरक्षण की तुरन्त आवश्यकता है । अतिशय : 1. यह अतिशय क्षेत्र प्राचीन है । यहां आने वाले यात्रियों की मनोकमनायें दर्शन मात्र से पूर्ण होती हैं । 2. यह भी एक बहुत बड़ा अतिशय है कि इतना लम्बा काल बीत जाने पर भी सभी मूर्तियां सुरक्षित हैं। जबकि यहां सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है । 3. मंदिर का पुजारी क्षेत्रान्तर्गत 2-3 कमरों में जिनके आगे बरामदा भी बना है; भगवान के भरोसे जंगल में; जहां चारों ओर असामाजिक तत्वों का जमावड़ा बना रहता है; ईश्वरी चमत्कार के कारण ही बना रहता है । 88■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. रात्रि में देवकृत गायन-वादन का रसास्वादन लिया जा सकता है। ऐसा यहां के निवासियों का कहना है। जिनालय : दो जिनालयों को छोड़ संपूर्ण जिनालय एक परिसर में स्थित है; परिसर में ही कुछ खंडित मूर्तियां भी रखीं हैं, जिनमें से दो प्रतिमाओं के नीचे लिखी प्रशस्ति को साफ पढ़ा जा सकता है। एक का स्थापना काल सं. 1000 व दूसरी का सं. 1680 अंकित है। ___ 1. क्षेत्र स्थित प्रथम जिनालय एक बड़े कक्ष में स्थित है; जिसकी दीवारों पर अनेक दरारें आ गई हैं। इस जिनालय में लगभग 12 फीट ऊँची अत्यन्त प्राचीन एवं मनोज्ञ प्रतिमा खड्गासन मुद्रा में आसीन है। यह भगवान आदिनाथ की अत्यन्त मनभावन प्रतिमा है व सं. 1000 के पूर्व की प्रतिष्ठित है। यह जिनालय बिना शिखर का है। 2. से 6. इसी प्रांगण में एक विशाल जिनालय के सामने पांच मड़िया स्थित हैं; ये सभी जिनालय (मड़ियां) गुंबदाकार शिखर वाले हैं व अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं। इन पृथक-पृथक स्थित पांच जिनालयों में लगभग 5 फीट ऊँची खड्गासन मुद्रा में अतिप्राचीन जिनबिम्ब स्थापित हैं। इनमें से एक जिनालय में तीसरे तीर्थंकर भगवान संभवनाथ की प्रतिमा आसीन है। दूसरे जिनालय में भी संभवनाथ की प्रतिमा स्थापित है। तीसरे जिनालय में भव्य व मनोहारी भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा आसीन है। चौथे जिनालय में 8वें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की आलीशान प्रतिमा विराजमान है। अंतिम व पांचवी मड़िया में भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा आसीन है। प्रतिमाओं के नीचे लिखी प्रशस्ति कुछ हद तक पठनीय है। लेखक ने दो प्रतिमाओं के नीचे लिखी प्रशिस्तयों में स्थापना वर्ष सं. 1622 पढ़ा है। किन्तु देखने से व स्थापत्य कला से ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी जिनालय एक साथ निर्मित हुए होंगे। 7. इन्हीं पांच मड़ियों के सामने क्षेत्र का प्राचीन व सबसे ऊँचा शिखरबंद जिनालय स्थित है। जिनालय के बाहर लगभग 15-20 फीट का कलात्मक वराण्डा बना हुआ है। भव्य व आकर्षक दरवाजे से होकर श्रद्धालु जिनालय में प्रवेश करता है। इस जिनालय में 16वें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। यह लगभग 18 फीट ऊँची भव्य जिन-प्रतिमा है। यद्यपि मूर्ति के नीचे लिखी प्रशस्ति में स्थापना काल स्पष्ट नहीं है; किन्तु अस्पष्ट अंकों से ऐसा विदित होता है कि यह क्षेत्र की सबसे प्राचीन प्रतिमा है; जिसका स्थापना काल सं. 1000 के आसपास का होना चाहिये। 8. मुख्य परिसर से लगभग 400 मीटर की दूरी पर स्थित एक पहाड़ी पर मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 89 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक छोटे से परकोटे के अंदर स्थित इस जिनालय में 16वें, 17वें व 18वें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ की आकर्षक प्रतिमायें विराजमान हैं। भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा लगभग 15 फीट ऊँची है व पार्श्व भागों में स्थित भगवान कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें लगभग 8 फीट ऊँची होंगी। यह जिनालय भी लगभग सं. 1000 के आसपास का है। 9.-10. इस मंदिर परिसर के पीछे लगभग 200-300 मीटर की दूरी पर दो अन्य जिनालय स्थित हैं। जिनमें भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। किन्तु पुरातत्व विभाग की उदासीनता व समाज की निष्क्रियता के चलते असामाजिक तत्वों ने इन भव्य व प्राचीन मूर्तियों को खंडित कर दिया है। ये जिन-प्रतिमायें लगभग 18 फीट ऊँची हैं। अगल-बगल स्थित प्रतिमायें 8-10 फीट ऊँची हैं। 11. क्षेत्र से लगभग 1/2 किमी. की दूरी पर गांव के बीच बस्ती में भी एक प्राचीन व भव्य जिनालय स्थित है। जहां मूलनायक के रूप में 8वें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की मूर्ति प्रतिष्ठित है। यह संगमरमर प्रतिमा लगभग 1.5 फीट ऊँची होगी। यद्यपि इस जिनालय में केवल एक ही वेदी है। किन्तु उस पर चौबीस तीर्थंकरों की धातु निर्मित प्रतिमायें भी विराजमान हैं। कुछ अन्य प्रतिमायें भी वेदी पर प्रतिष्ठित हैं। मूल क्षेत्र के प्रांगण में प्रथम वेदी के समीप चार संगमरमर की (प्रत्येक लगभग 10 फीट ऊची) खड्गासन मुद्रा में पेटियों में बंद मूर्तियां रखी हुई हैं। संभवतः या तो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के इन्तजार में रखी हुई हैं या फिर पुरातत्व विभाग की अड़गेबाजी की वजह से इनकी स्थापना नहीं हो सकी है। मूल क्षेत्र परिसर से पहाड़ी पर स्थित जिन मंदिरों के दर्शन हेतु जाने के लिए रास्ता ऊबड़-खाबड़ है। सीढ़ियां नहीं है। समाज को सीढ़ियों का निर्माण तुरन्त कराना चाहिए व क्षेत्र की सुरक्षा व विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए। यह क्षेत्र प्राचीन है। प्रकृति की गोद में सुरम्य घने वनों से आवृत सुंदर पर्वतों की तलहटी में यह क्षेत्र विद्यमान है। 90 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र गिरार यह अतिशय क्षेत्र जिला ललितपुर अन्तर्गत टीकमगढ़-ललितपुर मार्ग से महरौनी मड़ावरा होकर मड़ावरा से 18 किमी. की दूरी पर स्थित है। ललितपुर से इसकी दूरी 75 किमी., टीकमगढ़ से 65 किमी. तथा मदनपुर क्षेत्र से 32 किमी. है। यह सुरम्य व मनोहर तीर्थ-क्षेत्र विन्ध्य पहाड़ियों की तलहटी में धसान (दशाण) नदी के बायें तट पर स्थित है। पहले क्षेत्र के आसपास घनी आबादी थी; किन्तु अब गिरार ग्राम क्षेत्र से लगभग एक किमी. दूर बस गया है। यह प्राचीन अतिशय क्षेत्र है। यहां पांच जिनालय स्थित हैं; जिनमें से चार जिनालय तो नवीन हैं; किन्तु मध्य में स्थित जिनालय प्राचीन है। जिनालय : ___ 1. क्षेत्र के मध्य में स्थित इस जिनालय का निर्माण सिंघई धुरमंगल जी के सुपुत्र लाला हरगोविन्द दास ने करवाया था। इस जिनालय में भगवान आदिनाथ की प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा आपने ही वि.सं. 1844 में करवाई थी। प्रतिमा अतिभव्य अतिशयकारी एवं मनोहारी है। यह प्रतिमा लगभग 3.5 फीट ऊँची है। 2. क्षेत्र के बायीं ओर स्थित जिनालय में भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 3.-4. मुख्य जिनालय के दायें व बायें भी दो जिनालयों का निर्माण किया गया है। इन जिनालयों में भगवान पार्श्वनाथ की एवं भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमायें मूलनायक के रूप में विराजमान हैं। ___5. मंदिर प्रांगण में एक भव्य व आलीशान मानस्तंभ भी स्थापित है। लगभग 40 फीट ऊचा यह मानस्तंभ संगमरमर से निर्मित है। ... यहां स्थित जिनालय अत्यन्त ऊँचे शिखरबंद जिनालय हैं; जो काफी दूर-दूर से दिखलाई पड़ते हैं। यहां प्रतिवर्ष वार्षिक मेला भगवान आदिनाथ के निर्वाणोत्सव पर लगता है। भगवान आदिनाथ का जनमोत्सव भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। अतिशय : ग्राम के क्षेत्र से दूर बस जाने के कारण ग्रामवासियों ने इस क्षेत्र की मूर्तियों को अनेक बार ग्राम गिरार में ले जाने का प्रयास किया; किन्तु इस काम में कभी कोई सफल न हो सका। यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा अतिशय है। यहां से मध्यप्रदेश की सीमा लगी हुई है। क्षेत्र पर ठहरने की सुविधा उपलब्ध है। मध्य-भारत के जैन तीर्व-91 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलातीर्थ देवगढ़ देवगढ़ अर्थात् जहां देवता गढ़े (बनाये) जाते हों या फिर देवताओं का गढ़ (निवास स्थान) जहां सभी प्रकार के देवताओं का वास हो। देवगढ़ का प्राचीन नाम लुअच्छगिरि, कीर्तिगिरि था। लुअच्छगिरि को हम लक्ष्यगिरि का अपभ्रंस मान सकते हैं। ऐसा पावन पुनीत अतिशय क्षेत्र, साधना क्षेत्र व धर्म-प्रभावना क्षेत्र जहां प्राकृतिक झरने, घने वन, नीचे कलकल बहती वेत्रवती नदी, सुरम्य पर्वत व उसकी तलहटी ने यहां की सुंदरता में चार चांद लगा दिये हैं। प्रकृति की गोद में बसे इस ऐतिहासिक व पुरातात्विक महत्व के केन्द्र में वह सब कुछ है जो आप देखना चाहते हैं। पर्वत पर स्थित लगभग 1 किमी. लम्बे परकोटे के अंदर 41 विशाल जिनालय गगनचुम्बी शिखरों के साथ विद्यमान हैं। परिसर में परिक्रमा-पथ में सैकड़ों प्राचीन दुर्लभ मूर्तियां आदि स्तंभों पर सुरक्षित की गई हैं। यहां की गुप्तकालीन गुफायें इस बात की ओर संकेत करती हैं कि ये महामुनियों की साधना-स्थली रही है। सिद्ध गुफा इस बात की ओर इंगित करती है कि यहां से कुछ मुनि तपश्चरण पश्चात् मोक्ष भी गये हैं। यह स्थल दिल्ली-मुम्बई मुख्य रेलवे लाइन पर स्थित ललितपुर स्टेशन से मात्र 28 किमी. दूर 300 फीट ऊँची सुरम्य पहाड़ी पर स्थित है व पक्के सड़क मार्ग से जुड़ा है। यह तीर्थ-क्षेत्र गुर्जर, प्रातिहार्य, चंदेल व कलचुरि राजवंशों के राज्यकाल से जैन समाज के सक्षम धर्मवत्सल बंधुओं के सहयोग से निरन्तर विकसित होता रहा। देवगढ़ लगभग 1500 वर्षों से भी अधिक प्राचीन इतिहास का साक्षी है। देवगढ़ पूर्व में जैन विद्या का केन्द्र था। सं. 1333 में एक शिलालेख में शालश्री व उदयश्री नामक शिष्याओं व देव नामक शिष्य द्वारा श्रद्धापूर्वक उपाध्याय की मूर्ति के समर्पण का उल्लेख है। प्राचीन क्रम में मंदिर क्रमांक चार के मंडप स्तंभ के लेख में भट्टारक साधुओं की वंशावली भी दी गई है। __ यहां जैन कला के विकास का मूल कारण इसकी व्यापारिक मार्ग पर स्थिति, आर्थिक समृद्धि, चतुर्विध जैन संघ का संगठित व प्रभावशाली रहना व बलुआ पत्थर की खदानों की प्रचुरता रहा है। यहां हजारों की संख्या में जैन मूर्तियां प्राचीन मंदिर क्रमांक 12 की चारदीवारी के दोनों ओर की दीवारों पर लगी हैं। जैन परम्परा की 24 यक्षणियों के निरुपण का प्रारम्भिक प्रयास यहीं से प्रारंभ हुआ प्रतीत होता है। यहां आकर कोई भी कला-प्रेमी व धर्म-जिज्ञासु अति शान्ति व अत्यन्त आनंद का अनुभव करता है। यहां की विविधतापूर्ण यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियां अन्यत्र देखने को नहीं मिलतीं। यहां का जैन संघ इतना प्रभावी व महत्वपूर्ण था कि यहां आचार्यों व उपाध्यायों की अधिक मूर्तियां बनीं व उन्हें जिन-प्रतिमाओं के साथ निरुपित किया 92 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। यहां के श्रावक साधु परमेष्ठियों व आर्यिका माताओं का सम्मान श्रद्धापूर्वक किया करते थे। देवगढ़ किला वेतवा नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है, जिसके आसपास गुप्तकाल और उसके बाद के महत्वपूर्ण लेख व मूर्तियां उपलब्ध हैं। इस दुर्ग के दक्षिण में स्थित राजघाटी में एक प्रागैतिहासिक गुफा भी है। जिसमें उस काल के चित्र देखे जा सकते हैं। किले के नीचे अतिप्राचीन व अतिदुर्लभ दशावतार मंदिर है। पहाड़ों के ठीक नीचे विशाल जैनधर्मशालायें स्थित हैं; जहां एक भव्य जिनालय का निर्माण किया गया है। यहां के जिनालयों का क्रमिक वर्णन इस प्रकार है 1. 11वीं सदी का यह जिनालय प्रवेश द्वार में प्रवेश करने के बाद बायीं ओर मुख्य मार्ग से कुछ हटकर है। इस आयताकार मंडप वाले जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ की दो कायोत्सर्ग मूर्तियां व प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ व नेमिनाथ भगवान की एक-एक ध्यानस्थ मूर्तियां विराजमान हैं। 2. पर्वत स्थित कमेटी कार्यालय के सामने स्थित इस जिनालय में 31 ध्यानस्थ व कायोत्सर्ग जिनबिम्ब विराजमान हैं, जो 9वीं से 10वीं सदी में निर्मित हैं। मूल प्रतिमा भगवान ऋषभनाथ की है। 10वीं सदी की श्री नेमिनाथ की मर्ति में जटाओं का अंकन भी है। मूर्ति में शंख का चिह्न नहीं है, किन्तु कुबेर और अम्बिका की आकृतियां नेमिनाथ की मूर्ति के साथ ही होती हैं। जो इस प्रतिमा के पार्श्व भागों में उत्कीर्ण हैं। इस प्रतिमा पर 24 जिन-प्रतिमाओं का अंकन भी है। , . ____. सहस्रकूट जिनालय : 11वीं सदी के इस जिनालय का प्रवेश द्वार अलंकृत है। गर्भगृह में चारों ओर कुल 1008 छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें हैं। 4. इस जिनालय में 11वीं सदी की तीन जिन-प्रतिमायें हैं। मध्य की मूलनायक पदमासन प्रतिमा भगवान मुनिसुव्रतनाथ की है। 5. इस जिनालय के तीन कक्षों में कायोत्सर्ग मुद्रा में केवल भगवान पार्श्वनाथ की ही 23 प्राचीन जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं जो 10वीं से 12वीं सदी की हैं। एक मूर्ति के कंधों पर लटें भी हैं। ऐसी प्रतिमायें अन्यत्र देखने को नहीं मिलती हैं। 6. पंचबालयति जिनालय में भगवान वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ व महावीर स्वामी जो बालयति थे; की प्रतिमायें विराजमान हैं। महामंडप में तीर्थंकरों के माता-पिता की युगल मूर्तियां भी हैं। 10वीं से 11वीं सदी की भगवान ऋषभनाथ की एक कायोत्सर्ग मूर्ति गुप्त काल की कला से मेल खाती है। इसके आगे 6 मानस्तंभ बने हैं। दो मानस्तंभों में चारों ओर 44-44 दिगंबर मूर्तियां बनी हैं। 7. इस जिनालय में तीन पदमासन व दो कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित जिन-प्रतिमायें हैं जो सभी सुमतिनाथ तीर्थंकर भगवान की हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ .93 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. इस जिनालय में सुपार्श्वनाथ व पार्श्वनाथ तीर्थंकरों की प्रतिमायें हैं। भगवान शीतलनाथ व वासुपूज्य भगवान की प्रतिमायें भी यहां विराजमान हैं। 11वीं सदी की ऋषभनाथ भगवान की प्रतिमा के दोनों ओर चौबीसी बनी है। 9. इस छोटे से जिनालय में धर्मनाथ भगवान की तीन प्रतिमायें विराजमान हैं। ____10. इसमें भगवान पुष्पदन्त की दो व अभिनंदन नाथ भगवान की दो युगल प्रतिमायें स्थित हैं। 11. इस मंदिर का केवल मंडपं ही शेष है। इसमें श्री मल्लिनाथ तीर्थंकर की तीन प्रतिमायें विराजमान हैं। - ___12. 10वीं शताब्दी के इस जिनालय में भगवान ऋषभनाथ, शान्तिनाथ की दो, मुनिसुव्रतनाथ व नेमिनाथ तीर्थंकरों की जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। 13. भगवान शान्तिनाथ के इस जिनालय में प्रतिमा के चारों ओर भामंडल व देवी-देवताओं का अंकन है। दो जिन-प्रतिमायें दोनों ओर विराजमान हैं जो भगवान कुंथुनाथ व अरहनाथ की हैं। 14. इस जिनालय में भगवान ऋषभनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन-प्रतिमा विराजमान है; जिसके परिकर में 23 अन्य तीर्थंकरों की कायोत्सर्ग मूर्तियां (छोटी, छोटी) हैं। भगवान विमलनाथ की मूर्ति भी इस जिनालय में हैं। एक अन्य मूर्ति भी विराजमान है। ___15. इस जिनालय में स्थित भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन-प्रतिमायें 10वीं सदी की हैं। 16. यह जिनालय भगवान ऋषभदेव व उनके दो पुत्रों भरत व बाहुबली को समर्पित है। गर्भगृह में 8 फीट ऊँची भगवान ऋषभनाथ की मूर्ति मध्य में स्थित है। इसके परिकर में 23 अन्य जिन-मूर्तियां भी बनी हैं। 17. 9वीं सदी के इस जिनालय में भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ की खड्गासन जिन-प्रतिमायें स्थित हैं। ये सभी 12 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। इसी जिनालय में माता त्रिशलादेवी की शयनासन प्रतिमा भी है।। ___18. बरामदे में दो मानस्तंभ स्थित है। इसमें भूतकाल में हुए चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमायें विराजमान हैं। सरस्वती व लक्ष्मी की मूर्तियां भी दर्शनीय हैं। चौबीस प्रतिमायें स्थापित हैं। ___ 19. इस जिनालय में भविष्य काल के चौबीस तीर्थंकरों की जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। सिंह चिह्न वाली भगवान महावीर स्वामी की ध्यानस्थ प्रतिमा भी यहां विराजमान है। 20. सात फणों वाली भगवान पार्श्वनाथ की दो कायोत्सर्ग प्रतिमायें इस जिनालय में स्थित हैं। 21. मंदिर के द्वार उत्तंग के ललाट पर गदाधारी क्षेत्रपाल हैं। इसमें भी भगवान पार्श्वनाथ के दो जिनबिम्ब व भगवान बाहुबली की प्रतिमा स्थित है। 94 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 22. ऊँची जगती पर स्थित इस जिनालय में भी भगवान पार्श्वनाथ की तीन प्रतिमायें स्थापित हैं। द्वार पर भगवान सुपार्श्वनाथ की पद्मासन मूर्ति भी विराजमान है। कुक्कुट सर्प को यहां चिह्न के रूप में अंकित किया गया है। 23. प्राचीन अवशेषों से निर्मित इस मंदिर में 11वीं सदी की 10 फीट से 13 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर मूर्तियां स्थित हैं। मध्य में चौमुखी जिनमूर्ति है। ये सभी पार्श्वनाथ भगवान की हैं। मंडप में ही जिनमाता "त्रिशला" शैया पर लेटी 11वीं सदी की सर्वालंकृत मूर्ति भी है। जिसमें 24 जिन-प्रतिमायें भी अंकित हैं। 24. जिसमें 52 चरण-चिह्नों वाला एक पट्ट लगा है, यह समवसरण मंदिर है। 8वीं सदी में निर्मित बीच में कायोत्सर्ग जिन चौमुखी प्रतिमा हैं। दक्षिणी कक्ष में भगवान नेमिनाथ व उत्तरी कक्ष में ऋषभनाथ की जटाओं से युक्त मूर्ति विराजमान है। इसमें 8वीं सदी की जिन-प्रतिमा पूर्वी कक्ष में है। भगवान पद्मप्रभु की मूर्ति भी इस जिनालय में स्थित है। 25. 10वीं सदी- गर्भगृह में भगवान पार्श्वनाथ व ऋषभनाथ की मूर्तियां हैं। वाह्य भित्ति पर भी 3 जिन-प्रतिमायें हैं। 26. मुनिसुव्रतनाथ जिनालय- इस जिनालय में तीन जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। __27. 9वीं सदी- वाह्य भित्तियों पर तीन ओर दिगंबर ध्यानस्थ प्रतिमायें हैं। इस जिनालय के गर्भगृह में पद्मप्रभु की मूर्ति विराजमान है। 28. 10वीं सदी का समतल छत वाला जिनालय- भगवान वासुपूज्य व पद्मप्रभु भगवान के अतिरिक्त अन्य मूर्तियां भी इस जिनालय में स्थित हैं। . 29. गर्भगृह में 9वीं सदी की 12 फीट ऊँची भगवान नमिनाथ की कायोत्सर्ग प्रतिमा विराजमान है। पार्श्व भागों में दो छोटी कायोत्सर्ग प्रतिमायें भी उकेरी गई हैं। 30. शान्तिनाथ जिनालय- इस विशाल जिनालय के गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। गर्भगृह का द्वार चंदेलकालीन है। भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा 8वीं सदी के पूर्व की है वाह्य प्रदक्षिणा भित्ति व शिखर पर उकेरी मूर्तियां 9 वीं सदी (प्रतिहार काल) की हैं। अर्ध-मंडप में उत्तर व दक्षिण में दो छोटे जिनालयों में भी ध्यानस्थ व कायोत्सर्ग मुद्रा की मूर्तियां हैं। महामंडप में कुल सात चौमुखी मूर्तियां हैं। जिनालय में 18 फीट ऊँची भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के महामंडप के पश्चिम के चार स्तंभों वाले स्वतंत्र मंडप (दक्षिण-पूर्व) पर उत्कीर्ण लेख 862 ई. का है। वाह्य प्रदक्षिणा की भित्ति पर 24 यक्षणियों का समूह अंकन है। जो ऐसे अंकन का प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण है। कुछ पर यक्षणियों के नामों का अंकन भी है; जो तिलोयपण्णति में वर्णित नामों से मेल खाते हैं। मंदिर का महामंडप 36 स्तंभों पर टिका है। गर्भगृह के द्वार पर मध्य में भगवान ऋषभनाथ की जिन-प्रतिमा मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 95 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व कुछ अन्य जिन-प्रतिमाओं के पार्श्व में द्विभुज नवगृहों की आकृतियां बनी हैं । उत्तरंग के बायें छोर पर लक्ष्मी व चक्रेश्वरी तथा दायें छोर पर सरस्वती व अम्बिका की मूर्तियां बनीं है। सबसे ऊपर की पंक्ति में 16 मांगलिक स्वप्नों को व उसके नीचे की पंक्ति में 24 तीर्थंकरों की पदमासन एवं कायोत्सर्ग मूर्तियां हैं। गर्भगृह में कुछ अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियां भी हैं / 31. 10वीं सदी के इस जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ की व दो अन्य तीर्थंकरों की कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियां स्थापित की गई हैं । 32. इस जिनालय के विशाल आयताकार मंडप में 12 जिन - प्रतिमायें हैं । तीन ध्यानस्थ मूर्तियों के मध्य में 8 फीट ऊँची भगवान ऋषभनाथ की मूर्ति हैं। 6 अन्य प्रतिमायें भी भगवान ऋषभनाथ की हैं। दो ध्यानस्थ प्रतिमायें पार्श्वनाथ की हैं। 33. यह विशाल आयताकार मंडप के आकार का जिनालय है । इस जिनालय में पद्मासन व खड्गासन मुद्रा में 13 जिनबिम्ब स्थापित हैं, जो ऋषभनाथ, अजितनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, विमलनाथ व सुपार्श्वनाथ भगवान के हैं । 34. इस जिनालय का आकार भी आयताकार है जिसमें तीन प्रवेश द्वार हैं । इस जिनालय में कुल 15 जिन - प्रतिमायें हैं जिसमें पार्श्वनाथ, ऋषभनाथ व नेमिनाथ के साथ अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी हैं। 10वीं सदी की भगवान ऋषभनाथ की कायोत्सर्ग प्रतिमा के परिकर में 23 अन्य जिनमूर्तियां उकेरी गई हैं। 35. यह उत्तराभिमुख मंदिर दो तल वाला है। इसमें अर्धमंडप, विशालमंडप व गर्भगृह भी है । प्रथम तल वाले मंडप में भगवान पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ, अभिनंदन नाथ व नेमिनाथ की मूर्तियां हैं। कुल 15 जिन - प्रतिमायें यहां विराजमान हैं । यहीं भरत व बाहुबली की कायोत्सर्ग प्रतिमायें भी हैं। गर्भगृह में ऋषभनाथ भगवान की पद्मासन प्रतिमा भी विराजमान है । ऊपरी तल पर 24 जिन - प्रतिमायें विराजमान हैं । इनमें से 8 तीर्थंकर पार्श्वनाथ की हैं । चन्द्रप्रभु की प्रतिमा के साथ यक्ष रूप में गोमुख का अंकन आश्चर्यजनक है। 1 36. पिरामिड शैली के शिखर युक्त इस जिनालय में गर्भगृह के तीन स्तंभों पर 16वीं सदी के कई लेख हैं । स्तंभों पर चौमुखी जिन - प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं । साधु व साध्वियों की प्रतिमायें भी इस जिनालय में उत्कीर्ण की गई हैं। 37. इस मंदिर का मुख पूर्व की ओर है। जिसमें आयताकार मंडप व गर्भगृह है। इस जिनालय में कुल 17 जिन - प्रतिमायें हैं । प्रवेश द्वार पर चतुर्भुजी चक्रेश्वरी का होना इस जिनालय को भगवान ऋषभदेव का जिनालय होना बताता है । इसमें भगवान ऋषभदेव की 3 मूर्तियां हैं। भगवान 96 ■ मध्य - भारत के जैन तीर्थ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ की जिन - प्रतिमायें भी यहां हैं । जटाजूटधारी प्रतिमा ऋषभदेव भगवान की है । 38. गुंबदाकार शिखर- आदिनाथ भगवान सहित इसमें 11 जिन - प्रतिमायें विराजमान हैं। कुछ मूर्तियां 10 फीट से भी अधिक ऊँची हैं । 39. ऋषभनाथ जिनालय में भगवान ऋषभनाथ की भव्य कायोत्सर्ग मूर्ति विराजमान है। कंधों पर लहराती जटायें भी हैं। दोनों पावों में भी जिन - प्रतिमायें हैं । 40. यह एक बड़ा आयताकार स्तंभयुक्त मंडप वाला जिनालय है। यहां वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों की जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। पास में पहाड़ी स्थित क्षेत्र का कार्यालय भी है 1 1 41. पंचपरमेष्ठी जिनालय- नीचे तीन वेदिकायें हैं । उपाध्याय आदि की मूर्तियां भी हैं । त्रितीर्थी मूर्तियां अधिक हैं । भरत भगवान की परित्यक्त 12 रत्नों सहित मूर्ति यहीं है। पांचों परमेष्ठियों की जिन - प्रतिमायें इस जिनालय में हैं ? 42. नीचे तलहटी में विशाल धर्मशाला बनी हुई है। जिसमें प्रथम तल पर एक विशाल जिनालय बना है। इसमें अनेक प्राचीन व नवीन जिन - प्रतिमायें हैं। पार्श्व स्थित दो कमरों में भी जिन-प्रतिमायें स्थापित हैं । इसके अलावा दो मंजिली इमारत में विशाल संग्रहालय भी दर्शनीय है; जिसमें लगभग एक हजार खंडित जिन-प्रतिमायें व कलाकृतियां सुरक्षित रखी गई हैं । इसी संग्रहालय में लगभग 130 विशाल जिन - प्रतिमायें हैं जो पूज्यनीय भी है; जिन्हें मंदिर में स्थापित करने के प्रयास चल रहे हैं। यहां दशावतार मंदिर, वराह मंदिर, नाहर घाटी, राजघाटी, सिद्ध गुफा, पत्थर की बावड़ी, वेतवा नदी घाटी, शैल चित्रों की गुफायें अन्य दर्शनीय स्थल हैं । मध्य-भारत के जैन तीर्थ = 97 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध क्षेत्र पावागिरि ( पवा जी ) यह सिद्धक्षेत्र उ.प्र. के ललितपुर जिलान्तर्गत ललितपुर झांसी सड़क मार्ग पर ललितपुर से 45 किमी. दूर तालबेहट कस्बे से कुछ आगे स्थित है। मुख्य सड़क मार्ग पर एक भव्य द्वार निर्मित है। यहां से यह क्षेत्र मात्र 2 किमी. दूर है। आगरा-मुम्बई रेलमार्ग पर तालबेट स्टेशन पर उतरकर भी यहां पहुँचा जा सकता है। यहां से यह सिद्धक्षेत्र मात्र 7 किमी. की दूरी पर है। यह तीर्थ क्षेत्र सेरोन जी से मात्र 37 किमी. व झांसी से मात्र 38 किमी. दूर है । यहां इस क्षेत्र पर अगहन कृष्णा 2 से 5 तक वार्षिक मेला लगता है । यह क्षेत्र पक्के सड़क मार्ग से जुड़ा है। सं. 1345 में भट्टारक श्रुतकीर्ति देव ने प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा कराई थी; ऐसा प्रशस्ति में उल्लेख है । क्षेत्र के पास सेवेतवा नदी बहती है । यह क्षेत्र पहाड़ी के मध्य भाग में स्थित है । इतिहास : यह एक अतिप्राचीन तीर्थ क्षेत्र है; जिसका अस्तित्व वर्षों पूर्व से रहा है। निर्वाण कांड भाषा में कथन आता है "स्वर्णभद्र आदि मुनि चार, पावागिरि वर शिखर मंझार । चेलना नदी तीर के पास, मुक्ति गये वन्दौ नित तास । । " भगवान चन्द्रप्रभु का समवशरण जब सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पर आया था; तो समवशरण सभा के पश्चात् मुनि स्वर्णभद्र अपने तीन अन्य मुनियों गुणभद्र, मणिभद्र व वीरभद्र के साथ सोनागिर से विहार कर यहां पधारे थे; व यहीं क्षेत्र स्थित पहाड़ी पर तपश्चरण कर मोक्ष पधारे थे। यह सिद्धक्षेत्र अतिप्राचीन है; जहां भोंयरे में स्थित देवपत खेवपत पाड़ाशाह द्वारा स्थापित जिनबिम्ब विराजमान हैं। ये जिनबिम्ब सं. 1294 व 1345 में प्रतिष्ठित किये गये थे । इसके अलावा क्षेत्र व क्षेत्र के आसपास अनेक स्थानों पर मुनिवृंदों के चरण स्थापित हैं । यह क्षेत्र सैकड़ों वर्षों तक मुनिवृंदों की तपोभूमि रही है । अतिशय : सिद्ध क्षेत्र के अलावा यह अतिशय क्षेत्र भी हैं। यहां भोंयरे में स्थित जिन - प्रतिमाओं के दर्शन करने से सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं व सांसारिक भयों से मुक्ति मिलती है। मंदिर प्रांगण में क्षेत्रपाल की विशाल प्रतिमा विराजमान है; जो क्षेत्र रक्षक देव हैं व सामान्यजनों की मनोकामनायें पूर्ण करते हैं; लोगों का ऐसा विश्वास है । यहीं मूल मंदिर के पीछे पहाड़ी पर भूरे बाबा की गुफा स्थित है; जहां हजारों जैन व अजैन श्रद्धालु भूतप्रेत आदि की बाधाओं को दूर कराने हेतु आते हैं । 1 जिनालय : इस क्षेत्र पर 9 जिनालय स्थित हैं 1. सर्वप्रथम दर्शनार्थी क्षेत्र की वंदना बायें हाथ की ओर से प्रारंभ करता है । बायीं ओर वर्ष 2006 में दूसरी मंजिल पर एक भव्य चौबीसी का निर्माण 98 मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है; जहां 24 तीर्थंकरों के प्रतिष्ठित जिनबिम्ब 24 वेदिकाओं पर पृथक-पृथक विराजमान हैं। चौबीसी के मध्य में भगवान चन्द्रप्रभु की लगभग 5 फीट ऊँची धातु निर्मित प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया गया है। धातु निर्मित इतनी विशाल मूर्ति आसपास कहीं नहीं हैं । मूर्ति की भव्यता देखते ही बनती है। 2. वापिस आने पर दर्शनार्थी जिनालय क्रमांक दो में प्रवेश करता है; जहां शान्तिप्रदायक भगवान शान्तिनाथ की भव्य व विशाल प्रतिमा के दर्शन करते ही मन को परम शान्ति का अनुभव होता है । यह प्रतिमा संगमरमर निर्मित नवीन एवं भव्य है । प्रतिमा अतिमनोज्ञ व धवल वर्ण की है। प्रतिमा की अवगाहना लगभग 4.5 फीट है । 3. तीसरा जिनालय भगवान बाहुबली का है। जहां ऋषभपुत्र भगवान बाहुबली की अतिमनोज्ञ लगभग 6 फीट ऊँची धवल संगरमर से निर्मित प्रतिमा खड्गासन मुद्रा में आसीन है । 4. चौथा जिनालय पार्श्वनाथ जिनालय है। यहां भगवान पार्श्वनाथ की सुंदर लगभग 5 फीट ऊँची भव्य जिन-प्रतिमा स्थापित है। यह जिनालय भी नवनिर्मित है । यह प्रतिमा भी कृष्ण वर्ण की है I 1 5. भोंयरा - यह अतिशयकारी जिनालय है । इस जिनालय में आने-जाने हेतु दो छोटे-छोटे दरवाजे हैं; जहां कुछ सीढ़ियां उतरकर जाना पड़ता है । जिनालय में पहुँचते ही श्रद्धालु का मन शान्ति से भर जाता है व उसे अपूर्व सुख का अनुभव होता है। इस जिनालय में भगवान आदिनाथ की लगभग 4-4.5 फीट ऊँची काले पाषाण की अतिप्राचीन व मनोज्ञ मूर्ति विराजमान है साथ ही अजितनाथ एवं संभवनाथ भगवान के प्राचीन जिनबिम्ब भी यहां स्थापित हैं । इसके अलावा बालयति तीर्थंकर मल्लिनाथ एवं नेमिनाथ की प्रतिमायें भी यहां विराजमान हैं; जिनकी शोभा देखते ही बनती है । यहीं सामने की वेदी पर भगवान आदिनाथ की प्रतिमा के बगल में अतिशयकारी सुख-शान्तिप्रदायक, मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली, भव्यजनों को निज अनुभूति प्रदान करने वाली 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की अतिभव्य फणावली सहित प्रतिमा विराजमान है। दर्शन कर यहां से हटने का मन नहीं करता; इतनी अद्भुत शान्ति की अनुभूति दर्शकों को यहां आकर होती है । 6. चन्द्रप्रभु जिनालय - आगे भोंयरे के दाहिनी ओर मूलनायक भगवान चन्द्रप्रभु का जिनालय है; जिसमें और भी अनेक मूर्तियां विराजमान हैं । 7. आगे जाकर हम महावीर जिनालय में प्रवेश करते हैं। जहां वेदी पर मूलनायक के रूप में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित है । वेदी पर अन्य अनेक मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हैं । 8. शीतलनाथ जिनालय दाईं ओर स्थित जिनालयों में यह अंतिम मध्य-भारत के जैन तीर्थ 99 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनालय है। जहां मूलनायक के रूप में भगवान शीतलनाथ अन्य प्रतिमाओं के साथ विराजमान हैं। 9. अंतिम जिनालय मंदिर प्रांगण में स्थित मानस्तंभ है; जो काफी ऊँचा है व उसमें चारों दिशाओं में चार जिनबिम्ब स्थापित हैं। अन्य सूचनाएं : संपूर्ण क्षेत्र एक विशाल परकोटे के अंदर स्थित है। मंदिरों में दर्शन हेतु यात्रियों को मुख्यद्वार से कुछ जीने चढ़कर जाना होता है। 1. जिनालयों के पीछे स्थित पहाड़ी पर चारों मुनिराजों के चरण-चिह्न व उनकी आदमकद प्रतिमायें स्थापित हैं। ये चारों मुनि यहीं से मोक्ष पधारे थे। वे थे स्वर्णभद्र, गुणभद्र, वीरभद्र व मणिभद्र। यहां चारों ओर बिखरा प्राकृतिक सौंदर्य यात्रियों की थकान को क्षणभर में दूर कर देता है। 2. इसी पहाड़ी पर प्रसिद्ध भूरे बाबा की गुफा स्थित है; जहां सांसारिक व्याधियां दूर की जाती हैं। 3. मंदिर प्रांगण में क्षेत्रपाल का मंदिर स्थित है। 4. गजरथ वेदी के समीप 24 तीर्थंकरों के चरण-चिह्न अंकित हैं। 5. क्षेत्र के सामने पूर्व दिशा में पहाड़ी पर सिद्ध कुटी है; जहां प्राचीन चरण पादुकायें स्थित हैं। 6. क्षेत्र के सामने पश्चिम दिशा में नाले के पार पर्वत पर सिद्धों के दो मठ स्थित हैं; जहां से अनेक मुनियों ने तपश्चरण कर मोक्ष प्राप्त किया था। 7. क्षेत्र पर यात्रियों की सुविधा के लिये विशाल धर्मशालाएं स्थित हैं। जहां सभी आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध हैं। झांसी-ललितपुर से गुजरने वाले तीर्थ-यात्रियों को इस सिद्धक्षेत्र के दर्शन अवश्य करना चाहिये व अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए। वर्तमान में पावागिरि तीर्थ-क्षेत्र को लेकर एक विवाद है। खरगोन जिला स्थित ऊन-पावागिरि को भी स्वर्णभद्र आदि मुनिराजों की निर्वाण-स्थली निरूपित किया जाता है और अपने पक्ष में वहां भी अनेक तर्क व प्रभाव प्रस्तुत किये जाते। 100 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र चांदपुर __अतिशय क्षेत्र चांदपुर उ.प्र. के ललितपुर जिले में स्थित है। यह तीर्थ-क्षेत्र ललितपुर जिले के पाली गांव से 10 किमी. दूर स्थित है। ललितपुर देवगढ़ सड़क मार्ग पर स्थित जाखलौन तिराहे से भी यहां जाने के लिए सड़क मार्ग है। यहां से भी यह तीर्थ-क्षेत्र लगभग 10 किमी. दूरी पर स्थित है। झांसी-बीना सैक्सन पर जाखलौन या धोर्रा रेल्वे स्टेशनों पर उतरकर भी इस अतिशय क्षेत्र पर पहुँचा जा सकता है। जाखलौन व धोर्रा रेल्वे स्टेशनों से इस क्षेत्र की दूरी 5.5 किमी. है। यह तीर्थ-क्षेत्र सुरम्य पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य मनमोहक प्रकृति की गोद में स्थित है। यह तीर्थ-क्षेत्र 50 वर्ष पूर्व ही प्रकाश में आया है। इसे पहले चारों ओर घने वन से घिरा होने के कारण यह अज्ञात था। पाली के कुछ लोग अवश्य इसे जानते थे व कभी-कभी दर्शन करने जाया करते थे। इस तीर्थ-क्षेत्र पर अनेक मनमोहक जैन तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी थी; जो पालीवासियों के अनुसार पुरातत्व विभाजक अधिकारी शासकीय संग्रहालय ले गये थे। इस तीर्थ-क्षेत्र पर एक अतिप्राचीन जिनालय स्थित है। जिसके चारों ओर खंडहर फैले हुए हैं। ये खंडहर इस बात के प्रतीक हैं कि कभी यहां घनी बस्ती थी। प्राचीन शिखरबद्ध जिनालय में यहां 22 फीट ऊँची भगवान शान्तिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। प्रतिमा अत्यन्त सुंदर व शान्तिप्रदायक है। प्रतिमा के शीर्ष भाग पर पाषाण के तीन छत्र बने हुए हैं। मुखमंडल के चारों ओर विशाल आभामंडल बना हुआ है। आकाश में गंधर्व देव पुष्पमालाएं लिये भगवान की ओर बढ़ रहे हैं। नीचे चामरधारी इन्द्र भगवान की सेवा में खड़े हैं। प्रतिमा देशी पाषाण की है। पादमूल में बना हिरण का चिह्न इस बात का प्रतीक व साक्षी है कि यह भगवान शान्तिनाथ की शान्ति-प्रदायक भव्य प्रतिमा है। दर्शन कर श्रद्धालु धन्य हो जाता है। भगवान शान्तिनाथ का ऐसा पृथक जिनालय थूबौन एवं देवगढ़ में ही है। अन्यथा शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमाओं वाले जिनालय ही अधिक देखने को मिलते हैं। इस उपेक्षित तीर्थ-क्षेत्र के विकास पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 101 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलपुर कुंडलपुर का नाम सुनते ही सहज ही अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की जन्मस्थली की याद आ जाती है। किन्तु मध्यप्रदेश स्थित यह कुंडलपुर एक महत्वपूर्ण तीर्थ-क्षेत्र है। जो बड़े बाबा भगवान आदिनाथ को समर्पित हैं। यह तीर्थ-क्षेत्र शहरी भीड़ भाड़ व शोर-शराबे से दूर सुरम्य पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य मध्यप्रदेश के दमोह जिले की पटेरा तहसील मुख्यालय से मात्र 2 किलोमीटर दूरी पर प्राकृतिक वातावरण के मध्य शान्त आध्यात्मिक वातावरण में स्थित है। यह तीर्थ-क्षेत्र दमोह जिले की हटा तहसील से मात्र 20 किलोमीटर, दमोह जिला मुख्यालय से मात्र 32 किलोमीटर दूर पक्के सड़क मार्ग पर स्थित है। यहां तीर्थयात्रियों के लिये ठहरने को सभी आधुनिकतम सुविधायें उपलब्ध हैं। कटनी से सगौनी होकर भी कुंडलपुर पहुँचा जा सकता है। यह तीर्थ-क्षेत्र एक पर्वत व उसकी तलहटी में स्थित है। चूंकि ये पर्वत कुण्डलाकार है और पूर्व में भ. महावीर की जन्मस्थली माना जाता है। इसीलिये इसका नाम कुंडलपुर रखा गया। क्षेत्र के बीचों बीच तलहटी में वर्धमान सागर नाम का एक सुंदर तालाब है। इस जलाशय के तीन ओर पर्वत व एक ओर जिनालय होने से यह अत्यन्त मनोहारी लगता है। इस तीर्थ-क्षेत्र पर संतों, मुनियों व आर्यिकाओं के लिये निवास की पृथक व सुंदर व्यवस्था है। यह सिद्धक्षेत्र होने के साथ-साथ एक अतिशय क्षेत्र भी है; यहाँ विराजमान बड़े बाबा के अतिशय चमत्कारों के संबंध में अनेक जनुश्रुतियां प्रचलित हैं। ऐसा सुना जाता है कि एक बार मुगल बादशाह ने बड़े बाबा की मूर्ति खंडित करने के लिए हाथ पर हथौड़े से प्रहार किया तो अंगूठे से दूध की धार बहने लगी। उसी समय उसकी सेना पर मधुमक्खिओं ने आक्रमण कर दिया, जिससे सेना सहित मुगल बादशाह घबराकर यहाँ से भाग खड़ा हुआ। यहाँ अनेक बार केशर वर्षा भी होती रही है। रात्रि के शान्त वातावरण में जिनालयों से गीत संगीत की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती है। यहाँ आकर लोगों की मनोकामनायें भी पूर्ण होती हैं। इन सबके कारण इसे अतिशय क्षेत्र की मान्यता मिली हुई है। ___एक बार महाराजा छत्रसाल मुगल बादशाह से हारने के बाद यहाँ से गुजर रहे थे; तभी यहाँ निवासरत ब्रह्मचारी नेमिसागर ने नरेश से क्षेत्र के जीर्णोद्धार के लिये सहायता हेतु निवेदन किया। तब महाराजा छत्रसाल ने वचन दिया कि यदि उन्हें उनका खोया हुआ राज्य पुनः वापिस मिल जायेगा; तो वे राजकोष से जीर्णोद्धार करा देंगे। उन्होंने बड़ी भक्ति से क्षेत्र के दर्शन किये व चले गये। कुछ समय पश्चात् महाराजा छत्रसाल का मुगल सेना से फिर आमना-सामना हो गया। इस 102 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध में महाराजा छत्रसाल विजयी हुये। उन्हें खोया हुआ राज्य मिल गया। तब उन्होंने अपने दिये हुये वचन के अनुसार तालाब के चारों ओर घाट बनवाया व भगवान आदिनाथ के भव्य जिनालय का जीर्णोद्वार भी कराया। इसी के बाद सं. 1757 को पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का भव्य आयोजन भी कराया गया; इस समारोह में महाराजा छत्रसाल स्वयं पधारे। इस अवसर पर उन्होंने क्षेत्र को सोनेचांदी के छत्र, चमर, वर्तन, आदि भेंट किये व मंदिर में दो मन का पीतल का घंटा टंगवाया था। इस संबंध में यहां एक शिलालेख भी उत्कीर्ण कराया था। वर्तमान में किये गये अनुसंधानों के फलस्वरूप श्री श्रीधर अतिम अनुबद्ध केवली इसी क्षेत्र से मोक्ष गये थे। उनके चरण कमल भी यहां स्थापित हैं। अतः अब यह सिद्धक्षेत्र व अतिशय क्षेत्र दोनों के रूप में विख्यात है। क्षेत्र वंदना- कुंडलपुर तीर्थ-क्षेत्र पर लगभग 60 जिनालय हैं। इनमें से 40 जिनालय पर्वत पर व 20 जिनालय पर्वत की तलहटी में स्थित हैं। क्षेत्र की वंदना प्राचीन धर्मशाला के दायीं ओर बने दरवाजे के बाहर पहुँच कर तीर्थ यात्री बायीं ओर मुड़कर कुंडलाकार पर्वत की तलहटी में स्थित जिनालयों से प्रारंभ करते हैं। 1. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस प्रथम जिनालय में आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की लगभग 1.25 फीट ऊँची श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा सं. 1889 में हुई थी। यह जिनालय तलहटी में तालाब के किनारे स्थित है। 2. नेमिनाथ जिनालय- यह प्रथम जिनालय के लगभग 200 गज दूर पर्वत की तलहटी में ही स्थित हैं। इस जिनालय में भगवान नेमिनाथ की लगभग 1 फीट ऊँची श्वेत वर्ण प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा सं. 1901 में प्रतिष्ठित हुई थी। 3. इस जिनालय के आगे एक जगह प्राचीन चरण-चिह्न एक देवालय में स्थापित है। .. 4. इसके बाद पश्चात् श्रद्धालु पर्वत पर स्थित जिनालयों की वंदना हेतु पर्वत पर साढ़ियों के माध्यम से चढ़ता है। यहाँ पर्वत के ऊपर तक जाने के लिये लगभग 500 सीढ़ियाँ बनी हुईं हैं। इस मार्ग पर दो द्वार भी बने हैं। 5. ऊपर पहुँचकर यात्री बाईं ओर मुड़कर भगवान चन्द्रप्रभु के जिनालय पहुँचता है। यहाँ स्थित प्रतिमा के दर्शन कर यात्री की सारी थकान मिट जाती है। इस जिनालय में मूलनायक के रूप में सं. 1548 में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की पद्मासन भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा विराजमान है। इसकी अवगाहना लगभग 3 फीट है। 6. इस जिनालय में अजितनाथ, चन्द्रप्रभु आदि तीर्थंकरों की प्रतिमायें विराजमान हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 103 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7-8. इस जिनालय के बाहर चारों कोनों पर छोटे-छोटे देवालय बने हैं । इनमें भगवान आदिनाथ व लाछन रहित कुछ प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें भी प्राचीन है; व प्रत्येक लगभग 1.7 फीट ऊँची हैं व सभी खड्गासन मुद्रा में हैं । 9. संभवनाथ जिनालय - जिनालय के पीछे पहाड़ी के अंतिम छोर पर स्थित इस जिनालय में तीसरे तीर्थंकर भगवान संभवनाथ की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। 10. इस जिनालय के दर्शन कर यात्री पुनः वापिस लौटता है व एक दालाननुमा खुले कमरे में स्थित प्राचीन चरण चिह्न पर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर आगे की ओर बढ़ता है। 11. पार्श्वनाथ जिनालय - इस भव्य जिनालय में मूलनायक के रूप में भगवान पार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण की पद्मासन प्रतिमा (सं. 1902 में प्रतिष्ठित ) विराजमान है। इसकी अवगाहना लगभग 3 फीट है। इसी जिनालय में मूलनायक के पार्श्व भागों में भगवान मुनिसुव्रतनाथ व भगवान आदिनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें क्रमशः श्वेत व श्याम वर्ण की हैं व 2.25 फीट की अवगाहना वाली सं. 1902 में प्रतिष्ठित हैं । 12. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में सं. 1888 में प्रतिष्ठित लगभग 3 फीट ऊँची श्याम वर्ण की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है। पार्श्व भागों में भगवान आदिनाथ व चन्द्रप्रभु तीर्थंकरों की श्वेत वर्ण की 2.5 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में प्रतिमायें स्थापित हैं। इसका प्रतिष्ठाकाल सं. 1888 है। 13. नेमिनाथ जिनालय - इस जिनालय में मध्य में मूलनायक के रूप में नेमिनाथ भगवान की व पार्श्व भागों में आदिनाथ व महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमायें विराजमान हैं। सं. 1882 में प्रतिष्ठित ये जिनबिम्ब क्रमशः श्याम, श्वेत व श्वेत वर्ण के हैं। मूलनायक की प्रतिमा लगभग 3 फीट ऊँची है। 14. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में प्रतिष्ठित सभी जिनबिम्ब काले पाषाण से निर्मित हैं। मध्य में पार्श्वनाथ व पार्श्व भागों में आदिनाथ व महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमायें विराजमान हैं। इनका प्रतिष्ठाकाल सं. 1871 है। मूलनायक की प्रतिमा 4 फीट ऊँची है। सभी प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं । 15. पार्श्वनाथ जिनालय - मध्य में मूलनायक के रूप में पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित है; जबकि पार्श्व भागों में श्वेत धवल प्रतिमायें भगवान अजितनाथ व संभवनाथ की है। मूलनायक की प्रतिमा श्यामवर्ण की है। सभी प्रतिमायें पद्मासन में आसीन है। 16. यह जिनालय शिखर युक्त नहीं है। एक दूसरे 'पर्वत के ऊपर स्थित ' 104 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्रवेश द्वार के बायीं ओर एक गैलरी व दो प्राचीन कमरे बने हुये हैं। गैलरी में दो आदमकद रक्षक देवों की प्रतिमायें रखीं हुईं है । दो कक्षों में तीर्थ रक्षक देव भैरों बाबा की सिंदूर चढ़ी प्रतिमायें रखीं है । इन्हीं कक्षों में लगभग अनेक खड्गासन प्राचीन प्रतिमायें जो बलुआ पत्थर से निर्मित हैं; रखीं हैं । कुछ खंडित प्रतिमायें भी यहाँ रखीं है । प्राचीन बड़े बाबा के जिनालय एवं उसके पीछे स्थित प्राचीन जिनालयों को हटाने से प्राप्त हुई (संभवतः ) ये प्रतिमायें प्रतीत होती है; जो अतिप्राचीन हैं। इनमें से कुछ के पामूल में प्रशस्तियां भी नहीं हैं । कुछ प्राचीन पद्मासन प्रतिमायें भी यहाँ रखीं हैं। 17. यह वह स्थल है; जहाँ पहले बड़े बाबा का गर्भ में स्थित (नोंयरे रूप में) जिनालय स्थित था । आज ये सममतल जगह के रूप में स्थित है; जहां दीप जलता रहता है। यहां अब ध्यान केन्द्र बनाने हेतु बोर्ड लगा है। 18. बड़े बाबा का नवनिर्मित जिनालय पूर्व वर्णित प्राचीन बड़े बाबा को उनके प्राचीन जिनालय से यहाँ इस नवनिर्मित जिनालय में लाकर विराजमान किया गया है । यह पद्मासन जिन - प्रतिमा भगवान आदिनाथ की है। इस जिनालय के गर्भगृह का निर्माण लगभग पूरा हो गया है। बाहरी भाग का निर्माण कार्य जारी है । - 1 भगवान ऋषभदेव की यह प्रतिमा लगभग 13 फीट ऊँची व 12 फीट चौड़ी पद्मासन मुद्रा में है । यहाँ आकर बड़े बाबा के दर्शन कर यात्रियों की सारी थकान रफूचक्कर हो जाती है व दर्शनार्थियों के सिर स्वतः ही श्रद्धावनत हो जाते हैं । यहाँ यात्री अपूर्व आनंद तथा सुख शान्ति का अनुभव करते हैं। भगवान ऋषभदेव के सिंहासन से कुछ बाहर की ओर जिनालय के दायें व बायें भागों में भगवान पार्श्वनाथ की प्राचीन खड्गासन प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया गया है। ये खड्गासन प्रतिमायें लगभग 12 फीट ऊँची भव्य व अति मनोहारी है। मूलनायक भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के हृदय स्थल पर श्री वत्स सुशोभित है वहीं कंधे पर दोनों ओर केशों की जटायें लटक रहीं हैं। सिंहासन के सिंह पापीठ के दोनों ओर उत्कीर्ण हैं । पादपीठ के अधोभाग पर गोमुख यक्ष व चक्रेश्वरी यक्षिणी के रूप में उत्कीर्ण हैं । यक्ष द्विभुजी व यक्षिणी चतुर्भुजी हैं । यक्ष के एक हाथ में परसु व दूसरे हाथ में बिजौरा स्थित है; जबकि यक्षिणी के दो हाथों में चक्र, एक में शंख व एक हाथ वरद मुद्रा में है। प्रतिमा के अधोभाग में यद्यपि कोई प्रतीक चिह्न नहीं है; किन्तु बालों की लटें व यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ इस विशालकाय प्रतिमा को भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं । इस जिनालय तक पहुँचने के लिये दो मार्ग हैं। एक सीढ़ियों का मार्ग; जो तलहटी स्थित जिनालयों से सीधा इस जिनालय तक जाता है। दूसरा पक्का सड़क मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 105 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग; जो क्षेत्र स्थित नीचे की सड़क से इन जिनालय को जोड़ता है। यहाँ ठहरने व पूजन, पानी आदि की समुचित व्यवस्था है। ___19. आदिनाथ जिनालय- यहाँ से आगे कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने पर हम पुनः एक आदिनाथ जिनालय पहुंचते हैं। इस जिनालय में लगभग 4 फीट ऊँची भगवान आदिनाथ की मनमोहक प्रतिमा श्यामवर्ण में विराजमान है। 20. पद्मप्रभु जिनालय- इस जिनालय में श्वेतवर्ण की लगभग 1.25 फीट ऊँची सं. 1584 की भगवान पद्मप्रभु की मनमोहक प्रतिमा विराजमान है। - 21. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में आंठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की छोटी किन्तु भव्य प्रतिमा विराजमान हैं। 22. पार्श्वनाथ जिनालय- इस छोटे से जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ की चार प्रतिमायें विराजमान हैं। इनमें से एक प्रतिमा श्याम वर्ण की लगभग 2.5 फीट ऊँची है। 23. मुनिसुव्रतनाथ जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक के रूप में भगवान मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा आसीन है। दो प्रतिमायें भगवान पार्श्वनाथ की भी इस जिनालय में विराजमान है। कुछ अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी यहाँ स्थित हैं। 24. पार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमायें हैं; जिसके सिर पर सप्त फणावली बनी हुई है। प्रतिमा की अवगाहना 3.5 फीट है। इसके पाद्मूल में कोई प्रशस्ति नहीं है। बायीं ओर खड्गासन मुद्रा में कृष्ण वर्ण लगभग 6 फीट अवगाहना की भगवान संभवनाथ की प्रतिमा स्थित है। कुछ अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमा भी यहाँ है। . 25. पार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा है। जिसकी अवगाहना लगभग 1.25 फीट होगी। पार्श्व भागों में श्वेत वर्ण की भगवान आदिनाथ की प्रतिमायें भी यहाँ विराजमान है। ... 26. पार्श्वनाथ जिनालय- सं. 1870 में प्रतिष्ठित लगभग 3 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा इस जिनालय में प्रतिष्ठित है। 27. शीतलनाथ जिनालय- इस जिनालय में भगवान शीतलनाथ की प्राचीन पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। ___28. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में भगवान चन्द्रप्रभु की प्राचीन प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। 29. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में भी भगवान चन्द्रप्रभु की 3 फीट ऊँची प्रतिमा आसीन है। 30. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में श्वेत वर्ण की लगभग 1 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा विराजमान है। 106 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. अरहनाथ जिनालय- लगभग 1.25 फीट ऊँची श्वेत वर्ण की यह पद्मासन प्रतिमा भगवान अरहनाथ की है। जिसका प्रतिष्ठाकाल सं. 1548 है। ____32. अरहनाथ जिनालय-इस जिनालय में श्यामवर्ण की लगभग 1.25 फीट अवगाहना की सं. 1952 में प्रतिष्ठित भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है। इस प्रतिमा के पार्श्व भागों के चन्द्रप्रभु व सुपार्श्वनाथ की प्रतिमायें विराजमान है। 33. पार्श्वनाथ जिनालय-इस जिनालय में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान हैं। यह प्रतिमा लाल रंग की 3 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में सं. 1858 की प्रतिष्ठित हैं पार्श्व भागों में स्थित वेदियों में भगवान चन्द्रप्रभु की इसी काल में प्रतिष्ठित प्रतिमायें विराजमान हैं। 34. पार्श्वनाथ जिनालय-इस जिनालय में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा जो सं. 1897 की प्रतिष्ठित है व श्याम वर्ण की 3 फीट ऊँची है विराजमान है। पार्श्व भागों में भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमायें आसीन है। ___35. आदिनाथ जिनालय- इस जिनालय में 1889 में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की -1 फीट अवगाहना की भगवान आदिनाथ की प्रतिमा आसीन है, प्रतिमा पद्मासन में है। पार्श्व भागों में मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमायें भी विराजमान हैं। 36. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक भगवान चन्द्रप्रभु की 1.6 फीट ऊँची श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। जो सं. 1548 की प्रतिष्ठित है। इस वेदिका पर भगवान नेमिनाथ, अरहनाथ व चन्द्रप्रभु की प्रतिमायें भी आसीन हैं। 37. संभवनाथ जिनालय- इस जिनालय में खड्गासन में स्लेटी वर्ण की लगभग 4 फीट ऊँची भगवान संभवनाथ की प्रतिमा आसीन है। 38. पार्श्वनाथ जिनालय- सं. 1611 में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की लगभग 2 फीट ऊँची पद्मासन प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। 39. आदिनाथ जिनालय- सं. 1996 में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की लगभग 1.5 फीट अवगाहना वाली भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। पार्श्व भागों में तीर्थंकर प्रतिमायें आसीन हैं। यह पर्वत स्थित जिनालयों में अंतिम जिनालय है। नीचे तलहटी में 20 जिनालय विद्यमान हैं। ये सभी जिनालय विशाल शिखर वाले, प्रांगणों सहित, भव्य व मनोहारी हैं। 40. पार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में लगभग 4 फीट ऊँची श्वेत वर्ण की भगवान पार्श्वनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान हैं। प्रतिमा प्राचीन है वेदी में दो पाषाण निर्मित मूर्तियां भी रखीं हैं। 41. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में भगवान चन्द्रप्रभु की श्वेत वर्ण प्रतिमा विराजमान हैं। इसमें कुछ और तीर्थंकर प्रतिमायें भी विराजमान हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 107 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. सुपार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक के रूप में भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा मनमोहक है। ___43. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा आसीन है। ___44. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा के अतिरिक्त 2 अन्य प्रतिमायें भी विराजमान हैं। ___45. बाहुबली जिनालय- इस जिनालय में केवली भगवान प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ के पुत्र बाहुबली स्वामी की प्रतिमा विराजमान है। 46. अरहनाथ जिनालय- यह जिनालय तालाब के दूसरे छोर पर स्थित है; जिसमें प्राचीन पाषाण निर्मित चौमुखी भगवान अरहनाथ की प्रतिमायें स्थापित हैं। इन्हें सर्वतोभद्र प्रतिमायें भी कहते हैं। ये लगभग 1 फीट अवगाहना वाली हैं। प्रतिमाओं के शिरोभाग के पार्श्व में चमर लिये इन्द्र खड़े हैं। एक प्रतिमा के नीचे सर्प भी बना है व दोनों ओर धरणेन्द्र-पद्मावती की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। यह प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की प्रतीत होती है। 47. सुपार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में प्रभावोत्पादक 9 फणी भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। यह पद्मासन मूर्ति है व संगमरमर निर्मित है। अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी वेदी पर विराजमान हैं। .. 48. आदिनाथ जिनालय- इस जिनालय में भगवान आदिनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है। इसके अतिरिक्त पार्श्व भागों में दो पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमायें भी विराजमान हैं। 49. आदिनाथ जिनालय- इस जिनालय में भगवान ऋषभदेव मूलनायक हैं। पार्श्व भागों में नेमिनाथ भगवान की दो अन्य प्रतिमायें भी वेदिका पर आसीन है। 50. ऋषभनाथ जिनालय- यह एक बड़ा व भव्य जिनालय है; जिसमें मूलनायक भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के अतिरिक्त अन्य अनेक तीर्थंकर प्रतिमायें भी वेदिका पर विराजी है। ... 51. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा के अतिरिक्त 6 अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी आसीन हैं। 52. महावीर जिनालय- इस जिनालय में श्वेत वर्ण की लगभग 3.25 फीट अवगाहना की भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है; जो सं. 1939 में प्रतिष्ठित है। और भी अनेक तीर्थंकर प्रतिमायें इस भव्य जिनालय में विद्यमान हैं। ___53. महावीर जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा के अतिरिक्त भगवान मुनिसुव्रतनाथ व भगवान शीतलनाथ की प्रतिमायें भी विराजमान हैं। 108 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. श्रेयांसनाथ जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक के रूप में भगवान श्रेयांसनाथ की भव्य व आकर्षक पद्मासन प्रतिमा विराजमान हैं। पार्श्व भागों में भगवान आदिनाथ व पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमायें भी वेदिका पर विराजमान हैं। ____55. ऋषभनाथ जिनालय- इस जिनालय में देशी पाषाण में उकेरी गई अनेक जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। इनमें से कुछ खडगासन में व कुछ पद्मासन में हैं। सभी प्रतिमायें प्राचीन है। ____56. अजितनाथ जिनालय- इस जिनालय में भगवान अजितनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ व दो अन्य तीर्थंकर प्रतिमाओं के साथ विराजमान हैं। 57. समवशरण जिनालय- इस जिनालय में समवशरण की रचना है; जिसके मध्य में ऊपर गंधकुटी में चार दिशाओं में चार जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। यह समवशरण शोस्त्रोक्त विधि से निर्मित हैं। 58. मानस्तंभ-प्राचीन धर्मशाला के प्रांगण में मध्य में लगभग 45 फीट ऊँचे मनोज्ञ मानस्तंभ की रचना की गई है। जिसमें ऊपर चारों ओर तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं। ___59. पुष्पदन्त जिनालय- यह जिनालय प्राचीन धर्मशाला में व क्षेत्र कमेटी कार्यालय के पीछे स्थित है। इस जिनालय में भगवान पुष्पदन्त की भव्य व मनोज्ञ प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है। अनेक तीर्थंकर प्रतिमायें भी इस जिनालय में विराजमान हैं। यह इस तीर्थ-क्षेत्र स्थित अंतिम जिनालय है। ___इस तीर्थ-क्षेत्र पर उदासीन आश्रम, सरस्वती भण्डार (ग्रंथागार) भी हैं। क्षेत्र पर एक अन्य तालाब, 3 कुऐं व 8 बावड़ियाँ भी हैं। क्षेत्र के पास 80 एकड़ की विशाल कृषि भूमि भी है। यहाँ प्रतिवर्ष माघ सुदी 11 से 15 तक विशाल मेला आयोजित किया जाता है। यह तीर्थ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की साधना-स्थली है। __ यह तीर्थ-क्षेत्र कुंडलाकार पर्वतमाला सहित विशिष्ट प्राकृतिक सुषुमा के साथ-साथ अपने प्राचीन इतिहास एवं विशिष्ट वास्तु शिल्प के अतिरिक्त अपने अतिशयों व क्षेत्र के साथ जुड़ी अनेक परंपराओं, जनश्रुति एवं किंवदंतियों के कारण बुन्देलखंड का एक अत्यन्त मनोरम एवं आकर्षक क्षेत्र है। जिसका बुन्देलखंड के समस्त तीर्थ-क्षेत्रों में अपना एक विशिष्ट स्थान है। इस सबके फलस्वरूप यहां संत-संघों, शोधकार्य करने वाले विद्वानों एवं देश के कोने-कोने से वंदना करने के लिए पधारने वाले तीर्थ यात्रियों का निरन्तर आगमन होता रहता है। जिसके कारण यहां सदैव मेले जैसा वातावरण बना रहता है। इसकी वंदना के बिना बुन्देलखंड के तीर्थ-क्षेत्रों की वंदना अधूरी ही रहती है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 109 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र रहेली-पटनागंज टीकमगढ द्रोणगिरि /छतरपुर खजुर । पपारा अतिशय क्षेत्र पटनागंज रहली पहुँचमार्ग अहार जीवडामलहरा 13 दलपतपुर 12 नागिरि हीरापुर कुंडलपुर सवारा (जनारी सागर दमोह + + परियाजी 31 18नताकोटा) अभाना काकागज बहोरीबंद (रहली पटनागंज 105 farer तेन्दूखेडा 120 देवरी /go सिद्ध क्षेत्र अतिशय क्षेत्र जिला मुख्यालय तहसील मुख्यालय रेल मार्ग मङ्गक मार्ग बाना बारहा कोनीजी जबलपुर मनिया रजी नरसिंहपुर यदि किसी को दुर्लभ प्रतिमाओं, विचित्र व विशिष्ट चैत्यालयों, प्राचीन विशालकाय जिन-प्रतिमाओं एवं अनोखे, भव्य व चित्ताकर्षक विशालतम सहस्रकूट चैत्यालय के दर्शन करने हों; तो ऐसे श्रद्धालुओं को यहाँ अवश्य आना चाहिये। यहां विचित्र समवशरण बने हुये हैं। ____ यह एक अत्यन्त प्राचीन ऐतिहसिक, मनोज्ञ अतिशय क्षेत्र है। यह क्षेत्र सागर दमोह रोड़ पर स्थित गढ़ाकोटा तहसील मुख्यालय से व पटेरिया अतिशय क्षेत्र से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बीनावारा क्षेत्र से इस क्षेत्र की दूरी महज 40 किलोमीटर है। देवरी से यह 45 किलोमीटर दूर है। यह रहेली तहसील मुख्यालय में ही स्थित है; किन्तु क्षेत्र को पटनागंज के नाम से जाना जाता है। यह तीर्थ-क्षेत्र दमोह से 53 किलोमीटर व सागर से 42 किलोमीटर दूर है। रहली तक अनेक बसें आती जाती रहती हैं। यह तीर्थ-क्षेत्र सुवर्णभद्र नदी के तट पर स्थित है। . इस प्राचीन अतिशय क्षेत्र पर कई प्राचीन रचनायें देखने को मिलती है। क्षेत्र पर कभी-कभी चंदन वृष्टि होना, लोगों के दुख-दर्द दूर होना, श्रद्धालुओं की मनोदशा में सकारात्मक परिवर्तन होना इस क्षेत्र के प्रमुख अतिशय है। मुगल शासकों द्वारा क्षेत्र पर विध्वंश की भावना से किये गये हमलों के समय अचानक मधुमक्खियों द्वारा आक्रमण किये जाने से विध्वंसकों का भाग खड़े होना, 1950 में बड़े बाबा का गंधोदक लगाने से लोकमन पुजारी की नेत्र ज्योति वापिस आ जाना, कई साधु-संतों के वैराग्य का कारण बनना इस क्षेत्र के अन्य अतिशय हैं। 110 - मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह तीर्थ-क्षेत्र सममतल भू-भाग पर एक विशाल परिसर में स्थित है। जिसमें लगभग 31 जिनालय हैं। सभी दर्शन पास-पास हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर सबसे प्राचीन प्रतिमा सं. 10वीं शताब्दी में प्रतिष्ठित भगवान आदिनाथ की है। सहस्रकूट चैत्यालय व उसके बायें भाग पर स्थित जिनालय में विराजमान खड्गासन/ पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियां उससे भी प्राचीन प्रतीत होती हैं। यहाँ देश का सबसे बड़ा सहस्रकूट चैत्यालय है। भगवान महावीर स्वामी की लगभग 15 फीट ऊँची दुर्लभ पद्मासन प्रतिमा का विराजमान रहना, इस मूल प्रतिमा के नीचे एक अन्य दिगंबर प्रतिमा का आसीन होना, प्राचीन नंदीश्वर द्वीप, पंचमेरु व समवशरण की रचनाओं का होना, भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के सिर पर 1008.नागदेवों की छाया का होना एवं उनके नीचे दायें व बायें भी पार्श्वनाथ भगवान की अन्य प्रतिमाओं का होना इस क्षेत्र के सौन्दर्य में अत्यधिक अभिवृद्धि करते हैं। यहाँ त्रिमूर्ति जिनालय भी हैं। वंदना क्रम के अनुसार क्षेत्र स्थित जिनालय इस प्रकार हैं। ___1. शान्तिनाथ जिनालय- श्रद्धालु जैसे ही मंदिर परिसर में प्रवेश करता है; उसे सर्वप्रथम शान्तिप्रदाता भगवान श्री शान्तिनाथ की 3.5 फीट अवगाहना की पद्मासन प्रतिमा के दर्शन होते हैं। यह प्रतिमा देशी पाषाण से निर्मित प्राचीन है। इस प्रतिमा का प्रतिष्ठाकाल सं. 1864 है। 2. मल्लिनाथ जिनालय- इस जिनालय में उपरोक्त आकार प्रकार की ही भगवान मल्लिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। 3. गंधकुटी- इस गंधकुटी में उच्च आसन पर तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान है। 4. समवशरण रचना- यह अत्यन्त प्राचीन अद्भुत रचनाओं में से एक है। यद्यपि रचना छोटी है; किन्तु कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। 5. नंदीश्वर द्वीप रचना- यहाँ स्थित नंदीश्वर द्वीप की रचना कोनी जी स्थित नंदीश्वर द्वीप की रचना से भिन्न है व अनोखी है। नंदीश्वर द्वीप के मेरु रंगीन है। 6. पंचमेरु रचना- पास ही पंचमेरु की रचना भी हैं। ये सभी रचनायें प्राचीन, दुर्लभ व देखरेख के अभाव में असुरक्षित व जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं। इनके समुचित संरक्षण की आवश्यकता है। 7. मुनिसुव्रतनाथ जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक भगवान मुनिसुव्रतनाथ की कत्थई वर्ण की लगभग 4 फीट अवगाहना की देशी पाषाण से निर्मित अतिशयकारी प्रतिमा विराजमान है। इस जिनालय की रचना-शैली अन्यत्र स्थित जिनालयों से भिन्न है। मूल ऊपरी सिंहासन पर कुल 6 तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं। जो लगभग समान अवगाहना वाली हैं। इनमें से दो प्रतिमायें भगवान पार्श्वनाथ की भी हैं। सभी जिनबिम्बों के ऊपर शिखरों की रचना पीछे स्थित दीवाल में ही की गई हैं। यहीं मूगिया वर्ण की भगवान शान्तिनाथ की अतिसुंदर मनोहारी प्रतिमा विराजमान है। लगभग 10वीं सदी की भगवान आदिनाथ मध्य-भारत के जैन तीर्व Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रतिमा भी इसी वेदिका पर आसीन है। इसी जिनालय में 50 से अधिक अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी आसीन हैं। 8. कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने के उपरान्त पार्श्व भाग में एक छोटे से जिनालय में भी जिनबिम्ब के दर्शन होते हैं 9. जब हम इस परिसर से आगे के दूसरे परिसर में प्रवेश करते हैं तो प्रवेश द्वार के दोनों ओर प्राचीन प्रतिमायें रखीं हुई हैं। एक ओर विद्यमान बीस तीर्थंकरों को प्रदर्शित करने वाला प्रस्तर स्तंभ विद्यमान है। यह देशी पाषाण पर उत्कीर्ण है। ____10. दरवाज़े के दूसरी ओर प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की प्रतिमा आसीन है; जिनके दर्शन कर श्रद्धालु अपने आपको धन्य मानते हैं। ये दोनों जिन-प्रतिमायें असुरक्षित व अव्यवस्थित रूप में हैं। 11. अजितनाथ जिनालय- इस जिनालय में भगवान अजितनाथ की देशी पाषाण पर उत्कीर्ण लगभग 2.5 फीट ऊँची प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। 12. मल्लिनाथ जिनालय- इस जिनालय में भगवान मल्लिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा आसीन है। 13. संभवनाथ जिनालय- इस जिनालय में भी देशी पाषाण निर्मित भगवान संभवनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा स्थापित है। उपरोक्त तीनों जिनालयों की रचना समान किन्तु अति प्राचीन है। ये जिनालय एक ही समय में बने प्रतीत होते हैं। लगता है पंचामृत अभिषेक होते रहने के कारण ये प्रतिमायें कुछ काली व चिकनी हो गई हैं। ये प्रतिमायें इस क्षेत्र की प्राचीनतम प्रतिमायें प्रतीत होती हैं और 10वीं शताब्दी के पूर्व की प्रतीत होती है। मूर्तियाँ अतिभव्य व मनोज्ञ हैं। यह जिनालय संकीर्ण हैं व केवल खड़े रहने भर का स्थान इनमें हैं। . 14. सहसकूट चैत्यालय- यह जिनालय इस तीर्थ-क्षेत्र की पहचान है। विशाल साहस्रकूट चैत्यालय लगभग 32 फीट की गोलाई में 15 फीट व्यास का व 9 फीट से अधिक ऊँचाई वाला है। इस चैत्यालय में 1008 जिनबिम्ब उत्कीर्ण हैं। संभवतः यह अत्यन्त प्राचीन व देश का सबसे बड़ा सहस्रकूट चैत्यालय है; जिसमें पद्मासन व कायोत्सर्ग मुद्रा दोनों आसनों में प्रतिमायें विराजमान हैं। इसमें प्रतिमाओं का आकार भी अन्य चैत्यालयों से बड़ा है। यह संपूर्ण आकृति देशी पाषाण से निर्मित हैं; चित्ताकर्षक हैं व अपने आप में अनोखी है। इस चैत्यालय के परिक्रमा-पथ में बाईं ओर स्थित दीवाल में तीन अन्य प्राचीन जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। इनमें से एक प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। शेष प्रतिमाओं पर चिह्न नहीं हैं। ____15. इस छोटे से जिनालय में देशी पाषाण से निर्मित भगवान आदिनाथ, सुपार्श्वनाथ व महावीर स्वामी के जिनबिम्ब विराजमान हैं। 112. मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___16. महावीर जिनालय- इस जिनालय में भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा के अतिरिक्त 2 और अरिहन्त प्रतिमायें भी विराजमान है। 17. इस जिनालय में तीन तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं। प्रतिमाओं पर चिह्न नहीं है। ___18. पद्मप्रभु जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक के रूप में भगवान पद्मप्रभु की प्रतिमा विराजमान है। वेदिका पर 7 अन्य जिनबिम्ब भी प्रतिष्ठापित हैं। 19. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में विराजमान सभी तीनों प्रतिमायें भगवान चन्द्रप्रभु की हैं । 20. पुष्पदन्त जिनालय- इस जिनालय में लगभग 2.5 फीट अवगाहना की भगवान पुष्पदन्त की प्रतिमा विराजमान है। 21. अभिनंदन नाथ जिनालय- इस जिनालय में 3 फीट ऊँची भगवान अभिनंदन नाथ की प्रतिमा विराजमान है। 22. आदिनाथ जिनालय- इस जिनालय में सभी तीन प्रतिमायें भगवान आदिनाथ की हैं। जो अतिमनोज्ञ हैं। 23. पारसनाथ जिनालय- इस जिनालय में 2 फीट अवगाहना की भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। 24. इस जिनालय में भी भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 25. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में मूलनायक के रूप में भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा विराजमान है। इस जिनालय में 5 अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी स्थापित हैं। 26. त्रिमूर्ति जिनालय- कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित अतिमनोज्ञ व प्राचीन प्रतिमायें भगवान आदिनाथ, भरत व बाहुवली भगवंतो की हैं। ___27. आगे बढ़ते हुये हम एक बरामदे में पहुँचते हैं। यहाँ तीन दालानों में जो खंबों पर खुले रूप में स्थित हैं; कुछ विचित्र जिनालय स्थित हैं। ऐसे जिनालय भारत में अन्यत्र देखने को नहीं मिलते। ऐसे जिनालयों के निर्माण के पीछे का कारण भी समझ में नहीं आता। छोटी कुर्सीनुमा या मिट्टी से बने छोटे सिंहासन नुमा (जिनका आकार लगभग 1.5x1.5 फीट से भी कम होगा) जिनालयों में जो दालान के निचले हिस्से पर निर्मित हैं; सिंहासन पर जिन-प्रतिमा विराजमान हैं। 28. इसी के आगे पुनः इसी आकृति के वैसे ही जिनालय में जिन-प्रतिमा विराजमान हैं। 29. इसी के आगे पुनः ऐसी ही कलाकृति देखने को मिलती है। जिसमें जिनबिम्ब स्थापित हैं। ये रचनायें दालान के फर्श 'तल' से मात्र 1-2 फीट की ऊँचाई पर स्थित हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 113 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. भगवान पार्श्वनाथ जिनालय- यहाँ से आगे बढ़ते हुये यात्री बायीं तरफ दरवाजे में प्रवेश करते हैं व एक अन्य अहाते में पहुँचते हैं। इस अहाते में दो जिनालय स्थित हैं। इस प्रथम जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ की अतिमनोज्ञ व प्राचीन प्रतिमा विराजमान हैं। प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में लगभग 4 फीट अवगाहना वाली है। भगवान मुतिसुव्रतनाथ जिनालय की भांति इस जिनालय में भी प्रतिमाओं के ऊपर दीवाल में ही प्रत्येक मूर्ति के ऊपर शिखर बनाये गये हैं। यह प्रतिमा 11 फणों से मंडित है व सं. 1548 में प्रतिष्ठित है। इस प्रतिमा के दोनों ओर 4 जिनबिम्ब और स्थापित हैं। ये सभी जिनबिम्ब पद्मासन मुद्रा में 1 फीट से 1.5 फीट ऊँचे व सं. 1548 में ही प्रतिष्ठित है। जिनालय का शिखर दर्शनीय है। 31. पार्श्वनाथ जिनालय- अहाते का यह दूसरा जिनालय है; जो प्रथम जिनालय से लगा हुआ बना है। इस जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ की श्यामवर्ण प्रतिमा जिसकी अवगाहना लगभग 3 फीट होगी; मूलनायक के रूप में विराजमान हैं। मूर्ति का प्रतिष्ठाकाल सं. 1837 है। मूलनायक के पार्श्व भागों में 2.5 फीट फीट ऊँचे दो जिनबिम्ब और विराजमान है। दो अन्य छोटे-छोटे जिनबिम्ब भी वेदिका पर प्रतिष्ठित हैं। ये लगभग 1.5 फीट ऊँचे हैं। इसके अलावा दो अन्य जिनबिम्ब भी यहाँ स्थापित हैं। . 32. सहस्रफणी भगवान पार्श्वनाथ जिनालय- वापिस आने पर हम एक भव्य, चित्ताकर्षक, मनोज्ञ व विश्मयकारी जिनालय में प्रवेश करते हैं। यह जिनालय सहस्रफणी भगवान पार्श्वनाथ जी का है। यहाँ आकर दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाता है। इस जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ की चार विशालकाय, अतिशयकारी सभी 1008 फणों वाली प्रतिमायें प्रतिष्ठापित हैं। ये सभी प्रतिमायें एक पंक्ति में विराजमान न होकर एक नीचे, एक ऊपर व दो दायें-बायें व मध्य में विराजमान हैं। दर्शन कर श्रद्धालु का मन गदगद हो जाता है व उसका मन यहाँ से हटने को नहीं करता। सभी प्रतिमायें कलापूर्ण, अतिमनोज्ञ व पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं। इस जिनालय में 18 अन्य जिनबिम्ब भी विराजमान हैं, सभी मूर्तियाँ कृष्ण वर्ण की हैं। मूर्तियाँ की अवगाहना 4 से 5 फीट के मध्य है। सभी प्रतिमायें सं. 1892 में प्रतिष्ठित हैं। फण मंडप मूर्ति के सिर व भुजाओं को तीन ओर से घेरे हैं। इस वेदी पर विराजमान तीन जिनबिम्ब सं. 1548 के हैं। ____33. भगवान महावीर जिनालय- यह इस तीर्थ-क्षेत्र का अंतिम व विशाल जिनालय है। जिसमें संभवतः भारत की सबसे बड़ी पद्मासन प्रतिमा भगवान महावीर स्वामी की है। यह जिनालय भी अपने आप में अद्भुत जिनालय है। इस जिनालय में लगभग 14 फीट ऊँची व 11 फीट चौड़ी भगवान महावीर स्वामी की विशाल प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मूर्ति की भाव-भंगिमा देखते ही बनती है। इस विशाल मूर्ति के पार्श्व में दो प्रतिमायें; जो आकार में काफी छोटी हैं, भगवान 114 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ की हैं। इसी प्रतिमा के बायें व दायें लगभग 8.5 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं। प्रतिमायें अति मनोज्ञ व आल्हादकारी हैं। मूल प्रतिमा के नीचे पाद्मूल में एक अन्य प्रतिमा भी आकार में छोटी, किन्तु कला की दृष्टि से बड़ी मूर्ति से साम्यता रखती है; सामान्यतः इस प्रकार का समवशरण भारत के किसी अन्य तीर्थ-क्षेत्र पर नहीं है। इतना ही नहीं, पार्श्व भाग स्थित दीवालों पर (दायें व बायें) भी अतिप्राचीन देशी पाषाण से निर्मित जिनबिम्ब स्थापित किये गये हैं। दोनों ओर भगवान पार्श्वनाथ व भगवान महावीर स्वामी की भव्य, प्राचीन व अतिमनोज्ञ प्रतिमायें विराजमान हैं। इस तरह इस जिनालय में तीन दीवालों में मूर्तियों को प्रतिष्ठित कर गर्भगृह की शोभा में वृद्धि की गई हैं। इसी जिनालय में एक मानस्तंभ पर दो अन्य छोटे आकार की जिन-प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। ___भगवान महावीर स्वामी की विशाल पद्मासन प्रतिमा के दायीं ओर एक हाथ में नाल सहित कमल व दूसरे हाथ में विकसित कमल लिये तथा बाईं हाथ में गदा लिये रक्षक देव खड़े हैं। बड़ी मूर्ति के पार्श्व भागों में विराजमान जिनबिम्ब सं. 1842 में प्रतिष्ठित है। कुछ मूर्तियों पर सं. 1850 भी लिखा है। इस विशाल मंदिर के प्रवेश द्वार पर बने द्वारपालों के बगल में भगवान पार्श्वनाथ की दो मूर्तियाँ भी उकेरी गई हैं। जिसमें से एक सप्त व दूसरी नौ फण युक्त है। स्थानीय लोग इस विशाल प्रतिमा को बड़े देव के नाम से पुकारते हैं। इन जिन मंदिरों के सामने सड़क के दूसरे ओर जैनधर्मशाला भी बनी हुई है वार्षिक मेला प्रायः माघ मास में लगता है। अपने जीवन को सफल बनाने के लिये श्रद्धालुओं को इस तीर्थ-क्षेत्र के दर्शन अवश्य करने चाहिये। इतनी सब विशेषताओं के होते हये भी इस क्षेत्र का समुचित विकास अभी तक नहीं हो पाया है। मेरी समझ में इस क्षेत्र के विकास में धनाभव सबसे बड़ी समस्या है। क्षेत्र की व्यवस्थायें अस्त-व्यस्त सी लगती हैं। क्षेत्र पर कमेटी का प्रभुत्व भी ढीला नजर आता है। क्षेत्रवासियों को चाहिये कि वे इस क्षेत्र का प्रचार-प्रसार कर इस क्षेत्र की विशेषताओं को जन-जन तक पहुँचायें व श्रद्धालुओं को भी चाहिये कि वे इस क्षेत्र के विकास हेतु मुक्त हस्त से दान देकर इस क्षेत्र के विकास में सहयोगी बनें। मध्य-भारत के जैन तीर्थ. 115 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र बीना बारहा अतिशय क्षेत्र बीना बारहा मध्यप्रदेश राज्य के सागर जिलान्तर्गत रहली तहसील में स्थित है। यह तीर्थ-क्षेत्र सागर नरसिंहपुर रोड पर स्थित देवरी कलॉ से मात्र 6 किलोमीटर दूर है। जबकि सागर से क्षेत्र की दूरी 70 किलोमीटर है। जो यात्री रहेली पटनागंज के दर्शन को जाते हैं, उन्हें रहेली से ही इस क्षेत्र के दर्शनों को आना चाहिये; क्योंकि यह रहली से केवल 39 किलोमीटर दूर पड़ता है। क्षेत्र तक जाने के लिये देवरी से सड़क मार्ग है। इस तीर्थ-क्षेत्र पर अतिप्राचीन जिनबिम्ब स्थापित हैं। स्थानीय बस्ती में भी कुछ घरों की दीवालों में तीर्थंकर प्रतिमायें चिनी हुई हैं। आसपास के खेतों में भी परासंपदा बिखरी पड़ी है। यह क्षेत्र एक विशाल परिसर में स्थित है। जिसमें यात्रियों को रूकने के लिये धर्मशालायें बनी हैं। क्षेत्र पर चाय, नाश्ता, भोजन, दूध आदि सभी कुछ मुफ्त में उपलब्ध कराया जाता है। इस क्षेत्र के अतिशयों के बारे में अनेक जनश्रुति प्रचलित हैं। बीना ग्राम के निकट मलखेड़ा ग्राम के निवासी एक जैन परिवार के मुखिया बंजी करने बीना जाया करते थे। रास्ते में उन्हें एक बार एक स्थान पर ठोकर लगी। उसी रात उन्हें स्वप्न आया कि जिस स्थान पर तुम्हें ठोकर लगी है; उसी स्थान पर खुदाई करो तो तुम्हें जिन-प्रतिमा के दर्शन होंगे; तीन दिन तक वे अविरल अकेले ही खुदाई करते रहे। उसी रात उन्हें फिर स्वप्न आया कि अब तुम्हें खुदाई में भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा के दर्शन होंगे तुम उन्हें जहाँ विराजमान करना चाहो वहाँ चले जाना। प्रतिमा अपने आप तुम्हारे पीछे पीछे चलकर वहाँ पहुँच जायेगी। किन्तु इस बीच मुड़कर पीछे मत देखना। दूसरे दिन ऐसा ही हुआ। खुदाई में भगवान शान्तिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित लगभग 15 फीट ऊँची प्रतिमा निकली। उक्त प्रतिमा के दर्शन कर उनका हृदय कमल खिल गया। वे गदगद् हो प्रभु भक्ति में लीन हो गये। उनकी समग्र चेतना भगवान के चरणों में समर्पित हो गई। वे प्रसन्नचित हो अल्हादिक मुद्रा में चल दिये। किन्तु थोड़ी दूर जाने पर उन्होंने पीछे मुड़कर देख लिया प्रतिमा वहीं अचल हो गई। आज इसी स्थान को बीना बारा (बारह) तीर्थ-क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। प्रतिमा के ठहरने के स्थान पर भव्य जिनालय बनवा दिया गया। सं. 1803 में इस जिनालय का निर्माण कराया गया। तीर्थ-क्षेत्र पर वर्तमान में छः जगह दर्शन हैं___1. भगवान ऋषभदेव जिनालय- इसे मामा भांजे का जिनालय भी कहते हैं। इस जिनालय में मूलनायक के रूप में भगवान ऋषभनाथ की पदमासन मुद्रा में विशालकाय प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा लगभग 13 फीट ऊँची व इतनी ही चौड़ी अतिभव्य मनोज्ञ है। बायें हाथ की दीवाल में लगभग 7 फीट ऊँची देशी पाषाण से निर्मित अतिमनोज्ञ भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा विराजमान है। भगवान ऋषभनाथ की विशाल प्रतिमा ईंट, चूने व गारे की बनी है। ऐसी ही चूने गारे से 116 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनी मूर्तियां भिण्ड जिले के रत्नागिरी क्षेत्र पर भी देखने को मिलती हैं। भगवान चन्द्रप्रभु की मूर्ति पद्मासन मुद्रा में, लाल पत्थर में उत्कीर्ण है व अतिसुंदर है। इस प्रतिमा के केश कन्धों तक विस्तीर्ण हैं व हृदय कमल पर श्रीवत्स भी बना हुआ है। पाठपीठ पर उत्कीर्ण लेख से स्पष्ट होता है कि इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा सं. 1832 में मतीराम जी ने सदाशिव के राज्य में कराई थी; जो उस समय गोमिल देश में था। कहते हैं कि बड़ी मूर्ति का निर्माण भांजे ने व चन्द्रप्रभु की मूर्ति का निर्माण मामा ने कराया था; इसलिये इसे मामा-भांजे का जिनालय भी कहते हैं। इस शिखरबंद भव्य जिनालय में प्रवेश करते ही अपूर्व शान्ति का अनुभव होता है। इसी जिनालय में दाहिनी ओर श्वेत संगमरमर से निर्मित भगवान बाहुबली की लगभग 3 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा भी विराजमान है। इस जिनालय में पहले अनेक अन्य मूर्तियां भी दीवालों में लगी थीं; जिन्हें वर्तमान में वहाँ से हटाकर समीप स्थित एक अस्थाई जिनालय में विराजमान कर दिया गया है वर्तमान में इस जिनालय का जीर्णोद्धार किया जा रहा है व पृष्ठ भाग लगभग बनकर तैयार भी हो गया है। पद्मासन मुद्रा में भगवान ऋषभदेव जी की यह विशाल मूर्ति देश की विरली मूर्तियों में से एक है। 2. इस जिनालय के नीचे एक गुफानुमा भोयरा स्थित है; जिनालय में दाहिनी ओर लगी सीढ़ियों के माध्यम से प्रवेश करते हैं। इस जिनालय में अभी प्रकाश की व्यवस्था नहीं है; अतः दर्शनार्थियों को प्रकाश की व्यवस्था करने के बाद ही इस जिनालय में प्रवेश करना चाहिये। भौयरे के गर्भगृह में भगवान अजितनाथ की अतिशयकारी, भव्य व मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा देशी शिलाखंड पर उत्कीर्ण अतिप्राचीन लगभग 3 फीट अवगाहना वाली पद्मासन मुद्रा में है। इसके दोनों ओर यक्ष-यक्षिणी उत्कीर्ण हैं। ___3. तीसरा जिनालय भगवान शान्तिनाथ का है; जिसमें अतिमनोज्ञ स्वयं चलकर यहाँ अचल हुई भगवान शान्तिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 15 फीट से अधिक ऊँची प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा देशी पाषाण से निर्मित सातिसय है; जिसे स्थानीय निवासी अति श्रद्धाभाव से पूजते हैं व अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु भगवान के चरणों में अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करते हैं। प्रतिमा के दर्शन कर अपूर्व शान्ति तो मिलती ही है, अतिशय पुण्य का बंध भी होता है। इसी जिनालय में श्वेत संगमरमर से निर्मित भगवान पार्श्वनाथ की एक पद्मासन मूर्ति भी विराजमान है। मूर्ति कलात्मक, भव्य व अतिमनोज्ञ है। इसके गर्भगृह की दीवालों पर पहले अनेक तीर्थंकर प्रतिमायें थीं; जो वर्तमान में मंदिर के जीर्णोद्धार के चलते बाहर निर्मित एक अस्थाई जिनालय में विराजमान हैं। 4. उपरोक्त जिनालय के आगे प्राचीन कुएं के पास एक विशाल गंध-कुटी जिनालय है। इस जिनालय में पहुंचने के लिये पांच मार्ग हैं। प्रत्येक दिशा में (चारों ओर) 40-40 सीढ़ियां बनी हुई है। ऊपर चढ़ने पर इस जिनालय में पहुंचते हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्च - 117 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान में इस जिनालय का जीर्णोद्धार कर नया रूप दिया जा रहा है; इसलिये वर्तमान में इस जिनालय से मूर्तियां अस्थाई तौर पर हटाकर नीचे अस्थाई जिनालय में विराजमान कर दी गई है। 5. मानस्तंभ- प्रथम जिनालय के सामने लगभग 25 फीट ऊँचा मानस्तंभ बना हुआ है। जिसमें ऊपर चारों ओर चार जिन - प्रतिमायें विराजमान हैं । यह नवनिर्मित हैं । 6. पार्श्वनाथ जिनालय - यह जिनालय मानस्तंभ के नजदीक स्थित है; जिसमें लगभग 2.5 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है । यह प्रतिमा पद्मासन में है । इसी जिनालय में लगभग 3-3 फीट ऊँची देशी पाषाण से निर्मित 5 अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें कार्योत्सर्ग मुद्रा में आसीन हैं। भगवान मुनिसुव्रतनाथ व भगवान नेमिनाथ की प्रतिमायें भी इस जिनालय में विराजमान हैं। 5 छोटी-छोटी तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी यहाँ प्रतिष्ठित है। दो मेरु व सात धातु से निर्मित प्रतिमायें भी इस जिनालय में आसीन हैं । पाषाण प्रतिमायें प्राचीन हैं । 1 7. यह जिनालय क्षेत्र के मुख्य दरवाज़े के पास स्थित है। यह अस्थाई जिनालय है जिसमें उन जिनालयों से लाकर मूर्तियां रखी गयी हैं; जिनका जीर्णोद्धार हो रहा है। इस जिनालय में लगभग 35 प्रतिमायें रखी हुई हैं । इनमें से लगभग 17-18 जिन - प्रतिमायें अतिप्राचीन खड़गासन मुद्रा में प्रतीक चिह्नों के साथ विराजमान हैं। ये सभी लगभग 3 से 3.5 फीट ऊँची, मनोज्ञ व कलात्मक हैं । इसी जिनालय में 6 पाषाण निर्मित प्राचीन पद्मासन मुद्रा में आसीन प्रतिमायें भी विराजमान हैं, जो भव्य, प्रभावोत्पादक व आकर्षक है। कुछ छोटी तीर्थंकर प्रतिमायें भी इस जिनालय में विराजमान हैं । यह तीर्थ क्षेत्र समतल मैदानी भाग पर स्थित है । इस तीर्थ क्षेत्र पर 25 दिसंबर से 1 जनवरी तक मेला भी लगता है । यहाँ मंदिरों के परिक्रमा पथ में दीवालों और दरवाजों पर भी कलात्मक पच्चीकारी देखने को मिलती है । गोमेद, अम्बिका, तीर्थंकर माता, दिक्कुमारी, पद्मावती देवी आदि की मूर्तियां भी बनी हैं। यहाँ एक नारी की पाषाण मूर्ति भी रखी है। जिसे गोडवाना नरेश बेनु (जिनके नाम पर इस क्षेत्र को बीना के नाम से जाना जाता है) की शीलवती स्त्री कमलावती की बताया जाता है। कहा जाता है कि कमलावती को पद्मावती देवी सिद्ध थीं। देवी के प्रसाद से उनके पास एक पंखा था; जिसे तोड़ने मात्र से शत्रु सेना नष्ट हो जाती थी । यह मूर्ति अलंकरणों से सुसज्जित है व उसके एक हाथ में कटार है। श्रद्धालुओं को इस तीर्थ क्षेत्र के दर्शन अवश्य करना चाहिये। आचार्य श्री विद्यासागर जी के आर्शीवाद से यह तीर्थ क्षेत्र अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है । 118 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र पजनारी यह अतिशय क्षेत्र सागर से वाया छतरपुर-कानपुर सड़क मार्ग पर स्थित बंडा तहसील मुख्यालय से 8 किलोमीटर पहले बायीं ओर जाने वाली एक सड़क मार्ग पर स्थित है। मुख्य सड़क पर क्षेत्र का एक बोर्ड लगा है वर्तमान में यह सड़क निर्माणाधीन है। मुख्य सड़क पजनारी क्षेत्र से 5 किलोमीटर दूर स्थित है। बंडा से यह क्षेत्र पक्के सड़क मार्ग से जुड़ा है। बंडा से पजनारी की दूरी 10 किलोमीटर है। सागर से आने वालों को सड़क स्थित बोर्ड के रास्ते से व टीकमगढ़, छतरपुर से आने वालों को बंडा से पजनारी जाना चाहिये। यह क्षेत्र बंडा-बांदरी रोड़ पर स्थित है। यह तीर्थ-क्षेत्र बाकरई नदी के तट पर स्थित छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। यह पहाड़ी लगभग 250 फीट ऊँची शंक्वाकार है। यह तीर्थ-क्षेत्र 10वीं, 11वीं शताब्दी का चंदेल कालीन है। पहाड़ी की तलहटी में ही एक छोटा सा गांव बसा है। नदी तट पर जैनधर्मशालायें भी बनी हुई हैं। एक मठ के भग्नावशेष तालाब के किनारे यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। यहीं एक गुफा भी है। पहाड़ी पर भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ का शिखरबद्ध एक भव्य जिनालय बना हुआ है; जो दूर से दिखाई पड़ता है। उक्त तीर्थंकरों के जिनालय पूरे बुंदेलखंड व अन्यत्र भी पाड़ाशाह द्वारा निर्मित कराये गये थे। ये जिनालय आज भी अहार जी, सेरोन जी, बजरंगगढ़, देवगढ़, थूबौन आदि क्षेत्रों पर स्थित हैं; किन्तु यहाँ का जिनालय उक्त जिनालयों से कई दृष्टियों से पृथक है। 1. अधिकांश उक्त जिनालय मैदानी भाग पर स्थित हैं; किन्तु यह जिनालय सुंदर शंक्वाकार पहाड़ी पर स्थित है। 2. उक्त जिनालयों में उक्त तीन तीर्थंकरों की बड़ी-बड़ी खड्गासन प्रतिमायें विराजमान हैं; जिनकी ऊँचाई 15 फीट से अधिक ही है; किन्तु इस जिनालय की ये मूर्तियां अवगाहना में छोटी तो हैं ही, मध्य की भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा पद्मासन में है जबकि पार्श्व भागों में स्थित भगवान कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें खड्गासन में हैं। 3. उक्त जिनालयों के शिखरों से इस जिनालय का शिखर भी भिन्न है। 4. मूर्तियों की निर्माण कला भी उक्त से भिन्न है। क्षेत्र दर्शनः पहाड़ी चढ़ने पर हम क्षेत्र तक पहुंचते हैं। यहाँ पुजारी व माली के आवास-कक्ष बने हैं। पहाड़ी के मध्य भव्य-जिनालय बना है; जिसमें भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। मध्य की भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा पद्मासन में आसीन है। जबकि पार्श्व मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 119 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागों की भगवान कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन हैं। तीनों प्रतिमायें अतिप्राचीन हैं। तीनों प्रतिमाओं की अवगाहना लगभग समान हैं। तीर्थंकर मूर्तियों की शान्त वीतराग मुद्रा देखते ही बनती है। क्षेत्र पर दर्शन से अपूर्व शान्ति मिलती है। इस जिनालय में उक्त तीन देशी पाषाण से निर्मित प्रतिमाओं के अतिरिक्त अनेक प्रतिमायें और भी वेदिका पर विराजमान है; जिनमें से कुछ प्राचीन पाषाण से निर्मित, कुछ संगमरमर से निर्मित व शेष धातु निर्मित प्रतिमायें हैं। उक्त तीन तीर्थंकर प्रतिमाओं के ऊपर पाषाण निर्मित छत्र भी बने हैं। मुख के चारों ओर भामंडल व पार्श्व भागों में जैन शासन देवी-देवताओं की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। क्षेत्र के आसपास प्राचीन बावड़ी, शैलचित्र आदि अन्य प्रमुख दर्शनीय चीजें हैं। कभी यह क्षेत्र समृद्ध रहा होगा। ऐसा यहाँ बिखरे खंडहरों से प्रतीत होता है। यात्रियों को सागर-छतरपुर मार्ग से गुजरते समय इस क्षेत्र के दर्शन अवश्य करना चाहिये। क्षेत्र की दशा सुधारने हेतु क्षेत्र सामाजिक सहयोग की अपेक्षा रखता है। 120 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र पटेरिया श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र पटेरिया जी सागर - दमोह सड़क मार्ग पर स्थित तहसील गढ़ाकोटा के समीप स्थित है। यह क्षेत्र गढ़ाकोटा से मात्र 1-1.5 किलोमीटर की दूरी पर पक्के सड़क मार्ग से जुड़ा है व क्षेत्र तक सड़क जाती है । यह क्षेत्र एक विशाल परिसर में स्थित है। इस विशाल परिसर में एक जैनधर्मशाला व कार्यालय के साथ विशाल मैदान है । 1. इसी परिसर में एक भव्य व आलीशान मानस्तंभ स्थित है। जो मानियों के मानभंग का सशक्त माध्यम है। इस विशाल परिसर में एक परकोटे के अंदर एक विशाल व भव्य जिनालय स्थित है। इस भव्य जिनालय के मध्य में गर्भगृह स्थित है। 2. गर्भगृह में भगवान पार्श्वनाथ की तीन विशाल भव्य प्रतिमायें विराजमान हैं; जिनके दर्शन मात्र से दर्शनार्थियों को अपूर्व शान्ति का अनुभव होता है । ये प्रतिमायें देशी पाषाण से निर्मित हैं; व 19वीं सदी की बनी हैं। प्रतिमायें लाल पाषाण पर उकेरी गईं हैं। मध्य की प्रतिमा की ऊँचाई पार्श्ववर्ती मूर्तियों से कुछ अधिक है। सभी प्रतिमायें आकर्षक, मनोज्ञ व अतिशयकारी हैं। ये प्रतिमायें 6 फीट से 7 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं। इन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा एक भट्टारक महोदय ने की थी । पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के बाद आयोजित प्रीतिभोज में जनसैलाब उमड़ने के परिणाम स्वरूप भोजनशाला में घी कम पड़ गया । जब भट्टारक जी के पास यह समाचार पहुँचा तो वे लोक निंदाभय से जोर-जोर से रोने लगे व प्रतिमाओं के समीप पहुँच विनती करने लगे; तब उन्हें एक शान्ति संदेश मिला कि पास स्थित कुंड में जल भरा है उसे कड़ाही में डालते जाओ पूडियां तलते जाओं । भट्टारक जी ने व्यवस्थापकों को ऐसा ही करने का आदेश दिया। व्यवस्थापकों ने वैसा ही किया। देखते ही देखते सारी अव्यवस्थायें व्यवस्थाओं में बदल गई व समस्त आगन्तुकों ने प्रेम पूर्वक भरपेट भोजन किया । तभी से यह क्षेत्र अतिशय क्षेत्र के रूप में विख्यात हो गया। गर्भगृह में ही वेदिका पर एक जहरीला नाग बना. हुआ है, जो अपना मुँह फाड़े है। उस मुँह में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा उत्कीर्ण है। यह दृश्य दर्शकों को रोमांचित कर देता है । वेदिका के चारों ओर परिक्रमा पथ नहीं है; क्योंकि तीनों प्रतिमायें सामने की दीवाल पर स्थित हैं । अतः गर्भगृह से निकलकर ही वेदिका की परिक्रमा की जा सकती है। यहाँ स्थित ये प्रतिमायें अपने आप में अनोखीं व अद्भुत हैं । 3. इस परिक्रमा पथ पर बाईं ओर काले पाषाण की खड्गासन मुद्रा में लगभग 6 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की अतिमनोज्ञ प्रतिमा स्थापित है । मध्य-भारत के जैन तीर्थ 121 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनागर अतिशय क्षेत्र पनागर जबलपुर जिले के पनागर कस्बे में स्थित है; जो जबलपुर से 16 किलोमीटर दूर स्थित है। कहा जाता है कि यहाँ विराजमान प्रतिमा भूगर्भ में स्थित थी। एक रात्रि भट्टारक जी ने स्वप्न में एक स्थान पर जमीन में दबी प्रतिमा दिखी। वे श्रावकों को लेकर गन्तव्य पर गये व खदाई की: जहाँ से उन्हें यह प्रतिमा खुदाई में प्राप्त हुई। यहाँ पहले भट्टारक पीठ रही है। इस छोटे से सुंदर कस्बे में 17 दिगंबर जैन मंदिर हैं। इनमें से चार मंदिर बजरिया में, 2 मंदिर बाजार में, 8 मंदिर रेल्वे लाइन के किनारे अहाते में व 3 मंदिर इस अहाते के बाहर हैं। रेल्वे लाइन के किनारे मंदिर समूह में कुल 12 वेदिकाओं पर तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं। इस क्षेत्र की प्रमुख मूर्ति को लोग जो स्वप्न देकर प्रकट हुई थी, भगवान शान्तिनाथ की मानते हैं। यह प्रतिमा 8.5 फीट ऊँची व लगभग 4 फीट चौड़ी कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन है। यह मूर्ति देशी पाषाण से निर्मित सिलेटी वर्ण की है, जिसके चरणों के नीचे का भाग धरती में दबा हुआ है; अतः प्रतीक चिह्न दिखाई नहीं देता। किन्तु प्रतिमा की बड़ी हुई जटायें व कंधों तक विस्तार्ण जटाओं की तीन लटें देखने से ऐसा आभास होता है कि यह प्रतिमा प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की होनी चाहिये। परिकर में केवल व्याल उत्कीर्ण है, भामंडल नया लगाया गया है। मूर्तिकला की दृष्टि से यह प्रतिमा कलचुरीकालीन 11वीं सदी के आसपास विनिर्मित होनी चाहिये। एक अन्य जिनालय की वेदी पर भगवान पार्श्वनाथ की लगभग 5 फीट ऊँची 3.25 फीट चौड़ी श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान हैं। इस प्रतिमा के शरीर पर धारियां हैं। प्रतिमा सं. 1858 की प्रतिष्ठित है। प्रतिमा मनोहारी व आकर्षक है। एक वेदिका एक नंदीश्वर जिनालय की मनोज्ञ रचना बनी हुई है वेदिका पर भगवान पार्श्वनाथ व भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमायें भी विराजमान हैं; जिनका प्रतिष्ठाकाल क्रमशः सं. 1548 व सं. 1838 है। एक शिलाफलक में श्यामवर्ण की 3 प्राचीन प्रतिमायें भी बनी है। एक बरामदे में 1.5 फीट अवगाहना की काले पाषाण से निर्मित एक प्रतिमा भी रखी हुई हैं; जिसके ऊपर छत्र सुशोभित है, पुष्पवर्षा करते विद्याधर व चेहरे के पीछे भमंडल भी बना हुआ है। गज व चामरधारी इन्द्रों का भी नीचे की ओर उत्कृष्ट अंकन है। यह प्रतिमा पद्मासन में है, किन्तु मूर्ति के दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर मूर्तियां भी स्थित हैं। इस जैन तीर्थ-क्षेत्र के निकट स्थित तालाब के किनारे छत्रियां बनीं हुई हैं, जिनमें चरण-चिह्न स्थापित है। क्षेत्र के समीप स्थित एक बाड़े में जैन शिल्प के अवशेष भी रखे हैं। कुछ खंडित प्रतिमायें भी यहां रखीं है; जिनमें एक प्रतिमा भगवान आदिनाथ की भी है। इस प्रतिमा के नीचे उनका प्रतीक चिह्न वृषभ उत्कीर्ण है व पादमूल में उनके यक्ष-यक्षिणी गोमुख व चक्रेश्वरी भी उत्कीर्ण है। अम्बिका देवी की मूर्तियां भी यहाँ रखी है। 122 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहोरी बंद यह भी जबलपुर जिले के अन्तर्गत एक अतिशय क्षेत्र है; जो सिहोरा तहसील में आता है। जबलपुर से इस तीर्थ-क्षेत्र की दूरी 64 किलोमीटर है। यह तीर्थ-क्षेत्र जबलपुर-कटनी सड़क मार्ग पर स्थित है। यह तीर्थ-क्षेत्र सुंहार नदी के सुरम्य तट को छूती एक छोटी सी पहाड़ी के ऊपर स्थित है। पूर्व में ये कलचुरी व परिहार नरेशों का गढ़ रहा है। यहाँ गुप्तकाल से लेकर मध्यकाल के पुरावशेष बड़ी मात्रा में आसपास के क्षेत्रों में बिखरे पड़े हैं; जो यहाँ की प्राचीन समृद्धि की ओर इशारा करते हैं। __ इस क्षेत्र का प्रमुख आकर्षण यहाँ विराजमान भगवान शान्तिनाथ की अतिशयकारी मनोज्ञ प्रतिमा है, जो शक सं. 1010 की मानी जाती है। यद्यपि मूर्ति पर अंकित सं. 10 है, जो अस्पष्ट सा प्रतीत होता है। यह प्रतिमा स्लेटी वर्ण की कायोत्सर्ग मुद्रा में अवस्थित है, प्रतिमा की अवगाहरना 15.5 फीट है। प्रतिमा के दोनों पावों में पुष्पमाला लिये गगनचारी देवियां उत्कीर्ण हैं। पादपीठ के समीप पार्श्व में सौधर्म व ईशान इन्द्र खड़े हैं व श्रावक-श्राविकायें भक्ति मुद्रा में बैठी है। पामूल में प्रतीक चिह्न हिरण उत्कीर्ण है। . यहाँ भूमि के उत्खनन से अनेक जिन-प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। जिनमें से एक तीर्थंकर प्रतिमा 5.5 फीट ऊँची अतिमनोज्ञ व भव्य है. व उत्खनन से प्राप्त 15 अन्य प्राचीन प्रतिमायें भी यहाँ विराजमान है। एक मूर्ति भगवान नेमिनाथ की यक्षिणी देवी अम्बिका की भी यहाँ रखी है। क्षेत्र पर अनेक नवीन जिनबिम्ब भी प्रतिष्ठापित किये गये हैं। गांव में एक मकान के निकट भी एक तीर्थंकर प्रतिमा रखी है। यहाँ से कुछ दूरी पर स्थित तालाब के किनारे प्राचीन जिनालयों के भग्नावशेष देखे जा सकते हैं। इस क्षेत्र पर स्थित अतिशयकारी प्रतिमा को जो भगवान शान्तिनाथ की है। स्थानीय लोग खुनुआदेव के नाम से पुकारते हैं। यह प्रतिमा पहले लावारिस हालत में जंगल में पड़ी थी। कनिंघम महोदय ने इस मूर्ति को कुनुआदेव लिखा है। कुनुआदेव राजा गयकर्णदेव के पुत्र का नाम था। संभवतः बहोरी बंद उसकी जागीर थी; इसीलिये एक समाधि शिलालेख में यहां लिखा है महाराज पुत्र श्री कुनुआदेव। इस तीर्थ-क्षेत्र पर बड़ी संख्या में स्थानीय लोग मनौती मानने आते हैं। मथ्य-भारत के जैन तीर्च- 123 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मढ़िया जी (जबलपुर) मढ़िया जी जबलपुर में स्थित नवोदित तीर्थ-क्षेत्र है। जबलपुर में हनुमान तालाब व उसके आसपास स्थित जिनालय दर्शनीय हैं। हनुमानताल स्थित भव्य व आलीशान जिनालय मुगल शैली का बना है, जिसमें शिखरों के स्थान पर गुंबद बने हैं। इस जिनालय में 22 वेदिओं पर सैकड़ों जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। इस जिनालय में दो तलों पर वेदिका हैं। इसे पार्श्वनाथ जिनालय कहते हैं। लार्डगंज स्थित जिनालय भी एक आलीशान जिनालय है जिसमें दो तलों में 11 वेदिओं पर सैंकड़ों जिनबिम्ब विराजमान हैं। यह जिनालय भी मुगल शैली में बना है व विशाल परिसर में स्थित है। सराफा बाजार में स्थित पंचायती मंदिर के जिनालय में प्राचीन पीतल की नंदीश्वर जिनालय की रचना है। __ मढ़िया जी में यात्रियों को ठहरने के लिये आधुनिकतम सभी सुविधायें धर्मशालाओं में उपलब्ध हैं। यहाँ बगीचा है, सुंदर पहाड़ी है, प्राकृतिक घने वृक्षों पर उछलते कूदते बंदर हैं और आध्यात्मिक शान्ति तो यहां है ही। रात्रि में दुधिया रोशनी में यह क्षेत्र अलकापुरी सा सुंदर प्रतीत होता है। यह तीर्थ-क्षेत्र जबलपुर-नागपुर सड़क मार्ग पर स्थित है। यह तीर्थ-क्षेत्र पहाड़ी व तलहटी दोनों जगह फैला है। पहाड़ी पर चढ़ने के लिये दो मार्ग हैं; जिस पर जीना (सीढ़ियाँ) बनी हुई हैं। लगभग 300 सीढ़ियाँ चढ़कर हम मढ़ियाजी की पहाड़ी पर पहुँचते हैं। यहाँ से विश्वप्रसिद्ध भेड़ाघाट व धुआंधार जलप्रपात मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह विगत 500 वर्षों से ही प्रकाश में आया तीर्थ-क्षेत्र है। यहाँ पहाड़ी व उसके आसपास पुरातत्व सामग्री बिखरी पड़ी है। कहा जाता है कि उस समय यहाँ गौड़ राजाओं का राज्य था। राजदरबार में एक पेशवा जैन धर्मानुयायी था; इसी ने यहाँ सबसे पहले एक जिनालय बनवाया था। - एक अन्य जनश्रुति के अनुसार जबलपुर में कमानिया दरवाजे के पास एक गरीब विधवा रहती थी; जो आटा पीसकर अपना गुजारा करती थी। एक दिन उसने जैन मुनि का उपदेश सुन एक जिनालय बनवाने की प्रतिज्ञा कर ली। किन्तु उसके पास पैसे की कमी थी। अतः उसने हाथ चक्की से आटा पीसकर पैसा इकट्ठा करने की ठानी। वह दिनभर परिश्रम कर पैसा इक्ट्ठा करती। जब उसके पास कुछ पैसा इक्ट्ठा हो गया तो वह रास्ता साफ कर पहाड़ी पर मंदिर के लिये जगह साफ करने लगी व स्वयं मजदूरी कर मजदूरों के साथ मंदिर बनाने में जुट गई। उसकी मेहनत रंग लाई ऐसा करते देख अन्य श्रद्धालुओं के मन में भी श्रद्धा जागी और देखते ही देखते एक छोटा सा जिनालय बनकर तैयार हो गया। बुढिया की खुशी का ठिकाना नहीं था। शिखर की जगह शिखर पर उसने अपनी चक्की के दोनों पाट चिनवा दिये। जिनालय में श्री जी विराजमान हो गये। तभी से इसे पिसनहारी की मढ़िया के नाम से जाना जाता है। इस जिनालय में आज भी दो 124 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं, जो सं. 1587 की प्रतिष्ठित हैं। एक मूर्ति सं. 1548 की भी है। बाद में सं. 1939 में यहाँ के ऐतिहासिक महत्व, आध्यात्कि साधना हेतु उपयुक्त, प्राकृतिक वातावरण व प्राकृतिक सौन्दर्य देख जबलपुर वासियों ने इस क्षेत्र के विकास का बीड़ा उठाया। 1976 में यहाँ दो गजस्थ सम्पन्न हुये। 1984 में परम पूज्य आचार्य शान्तिसागर जी व गणेश प्रसाद जी वर्णी के प्रवास ने इस क्षेत्र के विकास को तीव्र गति प्रदान की व ये क्षेत्र वर्तमान स्वरूप में आ गया। यहाँ एक जलकुण्ड है; जिसे वर्णीकुंड कहा जाता है। पहले यहाँ एक गड्ढा था; किन्तु आजकल इसमें पर्याप्त जल रहता है। इस क्षेत्र में वर्तमान में 15 से अधिक जिनालय स्थित हैं। 1. पहाड़ी की तलहटी में धर्मशालाओं के पास भगवान महावीर स्वामी का एक भव्य व आकर्षक जिनालय है; जिसमें भगवान महावीर स्वामी की,6 फीट अवगाहना की श्वेत धवल प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। अन्य दर्जनों प्रतिमायें भी वेदिका पर आसीन है। इसकी प्रतिष्ठा वीर नि. सं. 2484 में हुई थी। 2. जिनालय के आगे संगमरमर का विशाल मानस्तंभ स्थित है। इसकी ऊँचाई लगभग 40-45 फीट होगी। शीर्ष भाग पर चारों दिशाओं में चार तीर्थंकर प्रतिमायें इस मानस्तंभ पर विराजमान हैं। 3. महावीर जिनालय के पीछे एक आलीशान, भव्य व गोलाकार विशालकक्ष में नंदीश्वर द्वीप की रचना बनी हुई है। दर्शक इसकी कला को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाता है। इसमें नंदीश्वर द्वीप स्थित 52 जिनालय बने हुये हैं। रचना गोलाकार है। रात्रि में इस जिनालय के ऊपर जगमगाते तारों के नीचे यह रचना अत्यन्त मनोहारी लगती है। 4. पद्मप्रभु जिनालय- पहाड़ी पर चढ़ते समय बायीं ओर दो जिनालय बने हुये है। इनमें से प्रथम जिनालय भगवान पद्मप्रभु का है। यह जिनालय पहाड़ी रास्ते के मध्य में बना है। इस जिनालय में वीर नि. सं. 2483 में प्रतिष्ठित भगवान पद्मप्रभु की प्रतिमा विराजमान है। 5. मध्य में बना दूसरा जिनालय भगवान शान्तिनाथ जिनालय के नाम से जाना जाता है। इस जिनालय में छोटी किन्तु भव्य भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा आसीन है। 6. पार्श्वनाथ जिनालय- पहाड़ी के मध्य भाग में ही सीढ़ीदार मार्ग के दायीं ओर भी दो जिनालय बने हैं। इनमें से प्रथम जिनालय भगवान पार्श्वनाथ स्वामी का है। यह विशाल जिनालय अंदर कलात्मक रंगीन कांच से बना है। भगवान पार्श्वनाथ की काले पाषाण की फणावली युक्त पद्मासन प्रतिमा इस आलीशान, भव्य जिनालय में विराजमान है। 7. एक और छोटा सा जिनालय भी दायीं ओर बना हुआ है। इसमें 1 फीट 10 इंच ऊँची कमलासन पर विराजमान भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। 8. पहाड़ी के मध्य में ही पार्श्वनाथ जिनालय के पीछे खुले आसमान में मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 125 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभव 20 फीट ऊँची भगवान बाहुबली की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित है, जो यात्रियों को दूर से ही दिखाई पड़ती है । 9. इसके आगे एक उच्च भूमि पर 6-7 इंच अवगाहना की एक छोटी सी तीर्थंकर प्रतिमा उच्च भूमि पर विराजमान है । 10. महावीर जिनालय - पहाड़ी के ऊपर स्थित परिक्रमा पथ का यह पहला जिनालय है। इस जिनालय में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन मुद्रा में मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। 11. पास ही पार्श्वनाथ जिनालय में पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा पद्मासन में आसीन है 1 12. क्षेत्र पर स्थित जिनालयों के बीच-बीच में एक भव्य व आकर्षक चौबीसी बनीं हुई है। पृथक-पृथक बने इन छोटे-छोटे जिनालयों में क्रमशः चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमायें विराजमान हैं। ये सभी जिन - प्रतिमायें 1 फीट 9 इंच ऊँची पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं । इनका प्रतिष्ठाकाल वीर नि. सं. 2484 है। 13. महावीर जिनालय- इसी चौबीसी के बीच बना यह प्रथम विशाल जिनालय है; जिसमें भगवान महावीर स्वामी की 4 फीट ऊँची मनोज्ञ प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। इसका प्रतिष्ठाकाल भी वीर नि. सं. 2484 ही है। इस वेदिका पर एक धातु प्रतिमा भी प्रतिष्ठित है । 14. बाहुबली जिनालय - चौबीसी के मध्य स्थित इस जिनालय में भगवान बाहुबली स्वामी की कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 7 फीट ऊँची भव्य व आकर्षक प्रतिमा विराजमान है । प्रतिष्ठाकाल सं. 2484 ही है । 15. आदिनाथ जिनालय - इस जिनालय में वी. नि. सं. 2484 की प्रतिष्ठित मनोहारी लगभग 3 फीट 9 इंच ऊँची भगवान आदिनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। आगे एक पाषाण पर यहीं सर्वतोभद्र रचना भी देखने को मिलती है । 16. शान्तिनाथ जिनालय - भगवान शान्तिनाथ की मनोहारी प्रतिमा स्थित यह जिनालय पहाड़ी का अंतिम जिनालय है । यह प्रतिमा भी पद्मासन मुद्रा में विराजमान अतिमनोज्ञ है। मूर्ति के आगे चरण विराजमान हैं। चरण चौकी पर अष्ट मंगल द्रव्य भी उत्कीर्ण हैं। 17. एक गुफा में सुकौशल मुनिराज की तपस्यारत प्रतिमा बनी हुई है; जिसमें मुनिराज को आत्मध्यान मुद्रा में दिखाया गया है । पहाड़ी पर कुछ अन्य प्राकृतिक दृश्य व रचनायें भी दर्शनीय हैं। रात्रि में पहाड़ी से जबलपुर शहर का रोमांचित कर देने वाला नजारा देखा जा सकता है। सड़क पर उच्च शिक्षा अध्ययनरत विद्यार्थियों की सुविधा हेतु गुरुकुल भी संचालित है । इस स्थान पर भी एक जिनालय बना हुआ है । मुनिओं के ठहरने हेतु यहाँ अच्छी व्यवस्था है । 126 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कोनी जी (कुंडलगिरी) तीर्थ-क्षेत्र कुंडलगिरी (कोनी जी) जबलपुर जिले में पाटन तहसील मुख्यालय से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दमोह-जबलपुर (वाया) तेंदूखेड़ा मुख्य सड़क मार्ग पर तेदूखेड़ा से पाटन के बीच वासन तिराहे से यह मात्र 1.5 किलोमीटर की दूरी पर है। जिनालय मुख्य सड़क मार्ग से ही धवल शिखरों के माध्यम से दिखते हैं। इस क्षेत्र की दूरी जबलपुर से 40 किलोमीटर व दमोह से 70 किलोमीटर है। यह तीर्थ-क्षेत्र कैमोर पर्वतमाला की तलहटी में शान्त व आध्यात्मिक वातावरण में स्थित है। इस तीर्थ-क्षेत्र पर 10वीं शताब्दी से भी प्राचीन प्रतिमायें व कुछ पौराणिक जैन रचनायें स्थित हैं, जिनसे इस तीर्थ-क्षेत्र का महत्व और भी बढ़ जाता है। यहाँ स्थित सहस्रकूट चैत्यालय, नंदीश्वर जिनालय, चौबीसी स्तंभ, भगवान पार्श्वनाथ जिनालय, छोटी सी कलात्मक पद्मावती पार्श्वनाथ की मूर्ति एवं मूर्तियों पर उत्कीर्ण प्रतीक चिह्न (लांछन) विशेष रूप से दर्शनीय है। यह क्षेत्र एक विशाल परिसर में स्थित है। यहाँ यात्रियों को रुकने के लिये धर्मशाला भी बनी हुई हैं। क्षेत्र के चारों ओर बिखरे भग्नावशेष इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यह क्षेत्र कभी काफी समृद्ध रहा होगा। क्षेत्र के समीप से ही कलकल नाद करती हिरन नदी प्रवाहित होती है; जो क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता में चार चांद लगा देती है। यह क्षेत्र पर्याप्त प्राचीन लगता है। कुछ विद्वानों के अनुसार यह वही सिद्धक्षेत्र है; जहाँ से केवली श्रीधर मोक्ष पधारे थे। क्षेत्र स्थित प्राचीन चरण-चिह्न इस ओर इशारा करते हैं कि यह मुनियों की तपोस्थली रही है। यह एक अतिशय क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है। विध्नहरण भगवान पार्श्वनाथ के जिनालय में जैन, अजैन सभी पूर्ण श्रद्धाभाव से मनौती मांगने आते हैं व उनकी मनोकानायें पूर्ण भी होती हैं। नंदीश्वर जिनालय में देवगणों की वाद्य सहित स्तुति ध्वनियाँ सुनी जाती थीं; ऐसा यहाँ के लोगों का कहना है। कुछ समय पूर्व तक यहाँ केशर वर्षा भी होती थी; ऐसी जनश्रुति है। यह क्षेत्र मुगलों के काल में विध्वसंकों व मूर्ति-भंजकों से अछूता रहा है। कोनी क्षेत्र का पुरातत्व 10वीं शताब्दी व उससे भी प्राचीन प्रतीत होती है। यहाँ के सहस्रकूट चैत्यालय व नंदीश्वर जिनालय 10वीं शताब्दी के आसपास के ही हैं। ऐसा कहा जाता है कि 1857 में यह क्षेत्र अंग्रेजों के खिलाफ जन केन्द्र था। यहाँ अनेक बार अंग्रेजों को पराजित होना पड़ा था। तब खेद खिन्न हो अंग्रेजों ने यहाँ दमन नीति अपनाई; जिससे यहाँ सैंकड़ों लोग मारे गये। यहाँ के घरों को आग लगा दी गई। जबलपुर के तत्कालिक कमिशनर एसकिन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है" हमारी विजयी सेनाओं ने क्रांतिकारियों के ग्रामों को भस्मसात करने में कोई कसर नहीं छोड़ी; जो भी ग्रामवासी, वृद्ध, स्त्री, बच्चे सामने पड़े निर्दयतापूर्वक मार दिये गये।" तब यहाँ से कुछ जैन मूर्तियां पाटन पहुँचा दी गई थी। इस सबके बावजूद भी यहाँ के जिनालय पूर्णतः सुरक्षित रहे। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 127 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 इस तीर्थ क्षेत्र पर 10 जिनालय हैं; जो एक विशाल परिसर में स्थित हैं । 1. महावीर जिनालय - यह जिनालय क्षेत्र के प्रमुख द्वार के सामने स्थित है इस जिनालय में मूलनायक के रूप में भगवान महावीर स्वामी की 3 फीट ऊँची भव्य व मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान हैं। इसी वेदिका पर कायोत्सर्ग मुद्रा में 3 फीट ऊँची भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा भी विराजमान है। वेदिका पर एक दर्जन से अधिक अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी विराजमान हैं। मूर्तियां मध्यकालीन प्रतीत होती हैं । 2. इस जिनालय में भगवान ऋषभनाथ व उनके दो पुत्रों भरत व बाहुबली की कायोत्सर्ग मुद्रा में नवीन प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें 8 से 10 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं । 3. बाहुबली जिनालय - इस जिनालय में लगभग 5 फीट ऊँची भगवान बाहुबली स्वामी की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है । यह जिनालय भी नवीन है । 4. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में भगवान पार्श्वनाथ की दो पद्मासन व एक खड्गासन मुद्रा में प्रतिमायें विराजमान हैं; जिनकी प्रत्येक की अवगाहना लगभग 1.5 फीट की है। वेदिका पर 4 अन्य प्रतिमायें भी विराजमान हैं। ये सभी तीर्थंकर प्रतिमायें हैं। वेदिका के बाहर एक आले में अति प्राचीन, अत्यन्त सुंदर, कलापूर्ण पद्मावती - पार्श्वनाथ की मूर्ति विराजमान है । 5. सहस्रकूट चैत्यालय - यह सहस्रकूट चैत्यालय अष्टकोणीय अतिप्राचीन है; जिसके मध्य में एक मेरु स्थापित है। इसमें तीन कटनियां हैं। वर्तमान में इस चैत्यालय में 1008 जिन - प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं । नीचे की कटनी में चारों दिशाओं व विदिशाओं में 408 जिन - प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। मध्य की कटनी में भी उपरोक्तानुसार 360 जिन - प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। तृतीय कटनी में आठों दिशाओं में कुल 120 जिन - प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं । इस चैत्यालय में पांच मेरु भी है । ऊपर का मेरु 2 फीट 2 इंच, चारों दिशाओं के मेरु 1 फीट 8 इंच' से 1 फीट 11 इंच के बीच की ऊँचाई वाले व पूर्व दिशा का एक मेरु 8 फीट ऊँचा है। इन मेरुओं पर भी 120 प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं । इस प्रकार तीर्थंकर प्रतिमाओं का कुल योग 1008 हो जाता है । इसीलियें इन्हें सहस्रकूट चैत्यालय कहते हैं । 1 बानपुर, पटनागंज में भी प्राचीन सहस्रकूट चैत्यालय है; किन्तु यह चैत्यालय इन सबसे अलग है। यह 10वीं शताब्दी में निर्मित प्रतीत होता है। आदि पुराण व अन्य पुराणों में इन्द्रों द्वारा भगवान के 1008 नाम लेकर पूजा की जाती थी । संभवतः इसी कारण से इन चैत्यालयों की रचना प्रारंभ की गई होगी। यह चैत्यालय लगभग 7 फीट से 9 फीट व्यास में स्थित है । यहीं एक स्थान पर प्राचीन चरण भी अंकित है; जो इस बात के प्रतीक हैं, कि ये क्षेत्र कभी तपोभूमि रहा है । 6. अतिशयकारी भगवान पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में मूलनायक के रूप में लगभग 4 फीट ऊँची भव्य, चित्ताकर्षक व प्रभावोत्पादक भगवान पार्श्वनाथ की धवल प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। यह प्रतिमा 128 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ विघ्न- विनाशक के नाम से जानी जाती है। इस प्रतिमा के सिर पर सप्तफणी नागों का छत्र बना है। प्रशस्ति वाले भाग पर प्रतीक चिह्न सर्प की जगह कमल सदृश्य प्रतीत होता है। 2 फीट ऊँची दो पद्मासन प्रतिमायें व लगभग इतनी ही अवगाहना की दो कायोत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमायें भी वेदिका पर आसीन हैं। अन्य अनेक और भी तीर्थंकर प्रतिमायें वेदिका पर विराजमान हैं। यहाँ के दर्शन कर मन को असीम शान्ति मिलती है। यहाँ आकर श्रद्धालु अपनी मनोकामना की पूर्ति हेतु विनम्र प्रार्थना भी करते हैं मूलनायक प्रतिमा की प्रतिष्ठा सं. 1863 में हुई थी। इस वेदिका पर कलचुरीकालीन प्रतिमायें भी विराजमान हैं। एक शिलाफलक में लगभग 2.7 फीट ऊँची भगवान महावीर स्वामी की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा भी इस वेदिका पर है। जिसके शिरो भाग के दोनों ओर गंधर्व पुष्प वर्षा के लिये उद्यत हैं। दोनों ओर चमरधारी इन्द्र खडे हैं। लगभग 2.25 फीट ऊँची भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा भी इस वेदिका पर विराजमान है। 7. जीना चढ़कर जाने पर एक कक्ष में एक देशी पाषाण स्तंभ पर चारों ओर चौबीस तीर्थंकर भगवंतों की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। प्रत्येक दिशा में 6-6 तीर्थंकर प्रतिमायें बनी है। यह रचना अतिप्राचीन है तथा अपने आप में अद्भुत है। ऐसी चौबीसी अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। इसे सर्वतोभद्र रचना कहते हैं। इस रचना को आधार नीचे के तल से दिया गया है। 8. नंदीश्वर जिनालय- यह नंदीश्वर की रचना अतिप्राचीन है। ऐसी रचना अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। रचना लाल प्रस्तर खंड पर उकेरी गई है। जिनालय भग्नहाल में अपूर्ण है। इस रचना में चार मेरु चारों दिशाओं में, दो विदिशाओं में व एक मेरु मध्य में बना है। संपूर्ण रचना कमल पुष्प पर स्थित है। यह रचना चार स्तंभों पर आधारित एक वेदी मंडप के नीचे बनी है। मध्य के मेरु में 20 प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। चार दिशाओं में स्थित मेरुओं में भी 20-20 तीर्थंकर प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। यह रचना ऐतिहासिक महत्व की है। 9. भगवान आदिनाथ जिनालय- इस जिनालय में भगवान आदिनाथ की पीत वर्ण की पदमासन प्रतिमा विराजमान है; जिसकी अवगाहना 3.5 फीट है। इसी वेदिका पर भगवान पार्श्वनाथ व वज्रदंड चिह्न युक्त भगवान धर्मनाथ की प्रतिमायें भी विराजमान है। ___10. अजितनाथ जिनालय- यहाँ मूलनायक के रूप में भगवान अजितनाथ जी विराजमान हैं। इसी जिनालय में भगवान शान्तिनाथ एवं कुंथुनाथ की लगभग 4 फीट अवगाहना वाली प्रतिमायें भी योगमुद्रा में प्रतिष्ठापित की गई हैं। ये प्रतिमायें काफी प्राचीन हैं। भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा भी इस वेदिका पर विराजमान है। दायीं ओर पद्मासन मुद्रा में अष्टम तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की अतिमनोज्ञ प्रतिमा भी वेदिका पर विराजमान है। आश्चर्यजनक रूप में इस प्रतिमा के पाद्मूल में स्थित चन्द्रमा उल्टा अंकित हैं; ऐसा अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। यहां प्रतिवर्ष जनवरी में विशाल मेला भी लगता है। . मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 129 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपुरी जबलपुर से पश्चिम में 9 किलोमीटर दूर एक गांव है, यहाँ कलचरियों का शासन रहा है। यह चेदि गणराज्य की राजधानी रही है। 9वीं से 11वीं शताब्दी तक यह राजनीति का प्रमुख केन्द्र बिंदु थीं। कलचुर शासक गागेयदेव के शासन काल में यहाँ का विकास अपने चरम पर था। इनके सोने-चांदी व तांबे के सिक्के प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। कुम्हीं में प्राप्त एक ताम्रलेख के अनुसार गागेयदेव की मृत्यु 150 पत्नियों के साथ प्रयाग के अक्षयवट के नीचे हुई थी। उसका पुत्र लक्ष्मीकर्ण (कर्ण) था जिसने अपने पिता का श्राद्ध तर्पण सन् 1041 में किया था। यहाँ प्रचुर मात्रा में तीर्थंकर प्रतिमायें व यक्ष-यक्षिणीओं की मूर्तियां मिली थी। सैंकड़ों जैन पुरावशेष सड़कों, पुलों, निजी मकानों व मंदिरों में लगा दिये गये हैं। गांव के सरोवर के मध्य बने मंदिर में नेमिनाथ भगवान की यक्षिणी देवी अम्बिका पुत्र सहित यहाँ विराजमान हैं। ____ यहाँ की एक जैन प्रतिमा हनुमानताल के प्रसिद्ध दिगंबर जैन पार्श्वनाथ जिनालय में विराजमान है। यह कलचुरिकाल की प्रतिनिधि रचना है। यह 5 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में है। जिसकी दृष्टि नाशाग्र है। प्रतिमा के परिकर में छत्र, भामंडल, हाथी, मालाधारी देव-देवी, गंधर्व बाला, सौधर्म ईशान इन्द्र व इन्द्राणी आदि उत्कीर्ण हैं। पाद्मूल में प्रतीक चिह्न कमल बना है। यहाँ की मूर्तियां जबलपुर, नागपुर व रायपुर के संग्रहालयों में रखी हैं। 130 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र गोलाकोट घने वन के मध्य पर्वत पर स्थित प्रकृति की गोद में स्थित यह तीर्थ क्षेत्र अतिप्राचीन है । यह क्षेत्र प्रारंभ से ही श्रद्धापरायण, आचारवान और विचारवान धर्मात्माओं का केन्द्र रहा है। बुंदेलखंड प्रान्त के उत्तर-पश्चिम कोने पर चौरासी क्षेत्र स्थित है; जिसकी सीमायें श्री चौरासी दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के संक्षिप्त कार्य विवरण में निम्नानुसार हैं 1 "चारू चौरासी लसै भव्य भारत के बीच; पूर्व में जाके वैत्रवन्ती लहराती है। उत्तर में मंजुल मनोज्ञ मधुमती सोहे, सानवान आन जान्हवती दर्शाती है। दक्षिण में उर्वशी शुशोभित मनोज्ञ चन्द्र, प्रतिभा मनोज्ञ उर्वसी सी लजाती है। पश्चिम दिशा में विंध्य अंचल सोहै, ताकी भगिनी चौरासी कहलाती है ।" इस तरह संपूर्ण चौरासी क्षेत्र प्राकृति सीमाओं से घिरा है। आज की परिस्थितिओं में इस क्षेत्र की सीमाओं को निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं । पूर्व दिशा में वेतवा नदी, दक्षिण दिशा में उर ( ओर या उर्वशी नदी) एवं पश्चिम दिशा में विन्ध्याचल की श्रेणियां व उत्तर दिशा में मऊअर (मधुमती) नदी के बीच चौरासी क्षेत्र स्थित है। वर्तमान में ये शिवपुरी जिले की पिछोर, खनियाधाना तहसील के अन्तर्गत है । उपरोक्त भौगोलिक सीमा के अंदर अनेक जैन व जैन तीर्थ क्षेत्र आते हैं; जो अपनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में असहाय वृद्ध की भांति पड़े हैं व अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं। संस्कृति का इतना तिरस्कार शायद विश्व के किसी दूसरे कोने में देखने को नहीं मिल सकता। ये तीर्थ क्षेत्र उत्तर में पचराई से लेकर दक्षिण में बौन ( खनियाधाना से चंदेरी) तक फैले हैं। इनमें कुछ प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र भियादान्त, वीठला, भामौन, आमनचार, बूढी चंदेरी, गोलाकोट, पचराई, आदि हैं। गुरीलागिरि भी इसी श्रेणी में आता है। ये सभी अतिशय क्षेत्र हैं; जहाँ हजारों की संख्या में मूर्तियाँ आज भी बिखरी पड़ी है। अधिकांश मनोज्ञ व कीमती मूर्तियाँ तस्कारों के हाथों में बिक चुकी हैं। इस धरोहर की रक्षा के नाम पर चंदेरी में मात्र एक वृहद संग्रहालय कुछ वर्षों से स्थापित किया गया है; जहाँ केवल बूढ़ी चंदेरी व आसपास के क्षेत्रों से कुछ सौ मूर्तियाँ संग्रहीत की गई हैं। क्षेत्रों में सुरक्षा का कोई प्रबंध न होने से मूर्तियों की चोरी निरन्तर जारी है। श्री अतिशय क्षेत्र गोलाकोट चंदेरी- शिवपुरी सड़क मार्ग पर चंदरी से 40 किलोमीटर, बामौर से 20 किलोमीटर, खनियाधाना से 6 किलोमीटर व ललितपुर से या राजघाट नहर से 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । क्षेत्र के पास तक पक्की डांवरयुक्त सड़कें हैं। यह क्षेत्र ग्राम गूढर से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । क्षेत्र तक जाने के लिये सीढ़ियां बनी हुई है। तलहटी में एक सुंदर तालाब है व गूढर ग्राम का प्राचीन जिनालय भी पहाड़ पर स्थित है । रास्ते में हरसिंगार के वृक्ष पुष्पों द्वारा यात्रियों का स्वागत करते हैं। पहाड़ी के ऊपर पहुंचते ही चारों ओर घने जंगल के बीच एक वीरान नगर अपने प्राचीन इतिहास को समेटे खंडहरों के रूप में मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 131 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखने को मिलता है; यहीं बिना शिखर के दो जैन मंदिर प्राचीन कोठरी या दालाननुमा जगह पर स्थित हैं। आज से लगभग 85 वर्ष पूर्व प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार यहाँ 145 पूज्यनीय प्रतिमायें थीं व शताधिक की संख्या में खंडित प्रतिमायें भी थीं। वर्तमान में इन जिनालयों में लगभग 120 मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों पर सं. 1000 से 1200 तक के लेख खुदे हुये हैं । कुछ मूर्तियों पर प्रशस्ति व संवत् भी अंकित नहीं है जिससे ये इसके पूर्व की प्रतीत होती हैं । 1. यहाँ स्थित बड़े जिनालय में वर्तमान में दो कमरों में ये प्रतिमायें रखी हुईं है। अंदर के गर्भगृह में भगवान आदिनाथ, अजितनाथ व संभवनाथ की मनोज्ञ पद्मासन प्रतिमायें विराजमान हैं। ये सभी प्रतिमायें देशी पाषाण से निर्मित 4 से 6 फीट ऊँची हैं। इसी गर्भगृह में 16 अन्य जिनबिम्ब भी विराजमान हैं। ये कुछ पद्मासन व कुछ खड्गासन मुद्रा में हैं। मूर्तियों के परिकर में छत्र, भामंडल, इन्द्रदेव, चमरधारी देव व देवियां उत्कीर्ण हैं। इन प्रतिमाओं में से 8 खड्गासन प्रतिमाओं के सिर विगत वर्षों में काट लिये गये थे । कुल 22 जिन - प्रतिमाओं के सिर यहाँ से निकाले गये थे; जो बाद में बरामद कर लिये गये । बाह्य कक्ष में रखी अधिकांश प्रतिमायें खण्डित कर दी गई है। 2. परिसर के अंदर ही एक छोटा जिनालय स्थित है; जिसमें एक बड़ी खंडित व दो छोटी पूज्यनीय मूर्तियां विराजमान हैं यह जिनालय अब खंडहर में बदल चुका है । समीप ही एक नये जिनालय में नवनिर्मित भगवान पार्श्वनाथ की भव्य मनोहारी पद्मासन प्रतिमा स्थापित की गई है। इस वेदिका पर कुछ और भी प्रतिमायें विराजमान है। आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व की बात है । खनियाधाना जैन समाज के नवयुवक कार्यकर्ता श्री दयाचन्द्र जी देखो वाले, निर्मल कुमार जी देदामूरी, कपूरचन्द्र जी बाजार वाले एवं हजारी लाल जी मोदी ने एक संक्षिप्त सूचना पर अपने जानमाल की परवाह किये बगैर यहाँ के मूर्ति-भंजकों को रंगे हाथों पकड़कर पुलिस के सुपुर्द किया था और पुलिस ने अभियुक्त रामगोपाल गोबर्धन दिल्ली के बयानों के आधार पर मोहनजोदड़ो फर्म के शिवचंद बात्रा सुंदरनगर की दुकान पर छापा मारकर 95 मूर्तियों के सिर तथा अन्य पुरातात्विक सामग्री बरामद की थी । यहाँ की अधिकांश मूर्तियों पर प्रशस्तियां नहीं लिखी हैं; जो इस बात का प्रतीक हैं कि ये मूर्तियां उस काल की हैं; जब मूर्तियों के नीचे प्रशस्ति लिखने की परंपरा नहीं थी । लगभग 85 वर्ष पूर्व की रिर्पोट में यह भी कहा गया है कि किंवदंतिओं से पता चलता है कि पहले यहाँ गोलाकोट नाम का प्राचीन शहर था; जहाँ 700 जैन परिवार तो केवल देदामूरी गोत्र के ही निवासरत थे । गोलाकोट में हजारों खंडहर बने टीले, प्राचीन बावड़ियां, परकोटे के चिह्न व किले के अवशेष भी स्थित हैं। समाज को इस तीर्थ क्षेत्र के पुनरुद्वार के प्रयास करना चाहिये । 132 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्बवन (तुमैन) खनियाधाना के आसपास एक स्थान तुमैन है। प्राचीनकाल में इसका नाम तुम्बवन था। ग्रीक इतिहासकार टोलमी ने थोलोबन नाम के एक प्राचीन महत्वपूर्ण स्थान के नाम का उल्लेख किया है। वह यही तुम्बवन (तुमैन) था; क्योंकि तुमैन में गुप्त सं. 116 (ई. सं. 435) का एक संस्कृत अभिलेख मिला है। यहाँ जैन मंदिरों के अवशेष व खंडित मूर्तियां मिलती हैं। जिनका निर्माण काल 5वीं से 11वीं सदी के बीच का माना जाता है। यहाँ एक विशाल पद्मासन प्रतिमा अवस्थित है, जो जैन तीर्थंकर की है। स्थानीय लोग इसे बैठादेव के नाम से पूजते हैं। तेरही गांव में जो महुआ से 2 किलोमीटर व पचराई से 6 किलोमीटर दूर है, कुछ जैन प्रतिमायें खेतों में पड़ी हैं। यहीं 6 फीट ऊँचा एक मानस्तंभ भी है। पुरातत्व संग्रहालय भी यहाँ है। यहाँ 10वीं सदी का नेमिनाथ जिनालय भी होगा; क्योंकि यहाँ के एक स्तंभ पर अम्बिका देवी के मंदिर का उल्लेख है। यह अम्बिका देवी नेमिनाथ भगवान की यक्षिणी थी। इसके अलावा निवोदा, महुआ, इंदार, सकरी, लखारी, सिमलार आदि समीपस्थ ग्रामों में भी जैन तीर्थंकर प्रतिमायें मौजूद हैं। अशोक नगर एवं शिवपुरी जिलान्तर्गत स्थित इन सभी जैन तीर्थ-क्षेत्रों पर अनुसंधान व शोध कार्य कराया जाना तथा इनके विषय में प्रमाणिक एवं विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की जानी अति आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। केन्द्रीय शासन एवं राज्य शासन द्वारा इस सब पुरासंपदा का सम्यक्पे ण संरक्षण किया जाना भी परम आवश्यक है। इन बातों पर अविलम्ब ध्यान न दिये जाने से राष्ट्र को महान क्षति पहुँचेगी जिसके लिये आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी क्षमा नहीं करेंगी। मम्य-भारत के जैन तीर्थ- 133 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचराई यह अतिशय तीर्थ-क्षेत्र चौरासी क्षेत्र का दूसरा महत्वपूर्ण तीर्थ-क्षेत्र है। यह शिवपुरी जिले की खनियाधाना तहसील मुख्यालय से 18 किलोमीटर, कदवाया (ईसागढ) से 10 किलोमीटर व रन्नोद (शिवपुरी) से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां उक्त सभी स्थानों से सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। यह पक्के सड़क मार्ग पर स्थित है, जो खनियाधाना से अशोकनगर ईसागढ़ को जाता है। यह तीर्थ-क्षेत्र एक सुरम्य पठारी मार्ग पर स्थित है, जिसके पास घने वन क्षेत्र हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर 32 जगह दर्शन हैं, व एक परकोटे के अंदर ही लगभग 28 जिनालय एक परिक्रमा-पथ पर स्थित हैं। मुख्य जिनालय मध्य में स्थित है। ये सभी जिनालय शिखर युक्त हैं। परिक्रमा-पथ के बाहर पहले चार जिनालय थे, किन्तु कुछ समय पूर्व बाहर के चबूतरे के बायीं ओर का जिनालय अब नहीं है। दायीं ओर तीन जिनालय स्थित हैं। सभी जिनालय नीचे से ऊपर तक बलुआ पत्थर से निर्मित हैं व अधिकांश जिनालय 6-7 फीट ऊँचे हैं। कुछ बाद के जिनालयों की ऊँचाई 10 से 12 फीट के बीच है। इस ऊँचाई में शिखरों की ऊँचाई शामिल नहीं है। यहां स्थित जिनालयों के अंदर विराजमान अधिकांश जिन-प्रतिमायें आताताईयों द्वारा खण्डित कर दी गई हैं। अधिकांश प्रतिमायें हीरे की पोलिश के कारण चमकदार हैं, व लाल रंग के बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। कुछ प्रतिमायें भूरे रंग के बलुआ पत्थर से भी निर्मित हैं। अधिकांश जिनालयों के द्वार व उनके बाहर की दीवारों की कलात्मकता देखते ही बनती है, जिनमें जिनशासन के देवी-देवताओं के साथ यक्ष-यक्षणियां, हाथी व सिंह की स्नेहमयी कलाकृतियां प्रमुखता से उत्कीर्ण की गई हैं। प्रत्येक जिनालय के द्वार के शीर्ष-भाग पर भी छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें उत्कीर्ण की गई हैं। अंदर गर्भगृहों में अतिमनोज्ञ एक ही पत्थर में उत्कीर्ण अनेक जिनबिम्ब व उनके यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियां स्थापित हैं। - यह तीर्थ-क्षेत्र मध्ययुगीन है। यहाँ सं. 1122 से लेकर सं. 1345 तक के समय में प्रतिष्ठित जिन-प्रतिमायें तो हैं ही, अनेक जिन-प्रतिमायें ऐसी भी हैं, जिन पर निर्माण तिथि अंकित नहीं है। परिसर के बाहर कुछ टीले हैं, जिनमें निश्चित कुछ जिनालय भूगर्भ में होने की संभावना है। इस क्षेत्र की प्राचीनता निम्न शिलालेख से स्पष्ट है 134 - मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्तिनाथो रति मुक्तिनाथः यश्चक्रवर्ती भुवनाग्रवर्ती। सौभाग्य राशि.....राशि स्तान्तः। विणानसौ। विभ्र? ण्णे। श्री कुन्द वृन्दे संताने गणे हे शिक? संज्ञि के मजनंदि गुरौः शिष्यः सूरि श्री लील चन्द्रकः हरीव भूत्या हरिरात देवोवभूव भीमेव हितस्य भीम। सुत स्तदिओ रणपाल नाथ? ।। एतद्वि राज्ये कृति राजनस्य। पर पारान्वये सहेस्तधन्निभ्रा महेश्वरः। महेश्वरेव विख्यात स्वत्सीता धं संज्ञकः। तत्प्रराजने, ज्ञेयः कीर्ति स्तस्ये य मम्दुता। जिनेन्दु वत्स दायत्यन्ते। राजते भुवनत्रयं ।। तस्मिन्तेवान्मये दिव्ये नोम्बिका वरगे सुरभः। पंचमासे स्थितो हये को द्वितियो दद संभासको - व्याज स ह डो। ज्ञेयः समस्त ज (य) स (रा) सा निधिः भ थो? जिनवरस्या यो विख्यातो जिनशाः। सवे।। मंगले महा श्री।। भद्र सत्व जिनशासनाय। (पुरातत्व विभाग-ग्वालियर) एक अन्य शिलालेख जो सं. 1845 का है व परिसर प्रांगण में एक प्रखर शिला पर उत्कीर्ण है, निम्न प्रकार है-- “संवत् 1345 वैशाख वदी 2 सनात्रदो ह श्री पवला ऊँ ग्रामे महाराजा विरा श्री महोपालदेव विजगनामो महाप्रसना राजे प्रियमा खेत सिंह पुत्र वाल्हदेव लोकेगत पंडित नासनसेणा पुत्र न वी सुख वा पुत्री राजसीताग्नि सावित्री नू काल कु हलरोजू" __ यह शिलालेख लेखक ने स्वयं पढ़कर लिखा है, इसके कुछ शब्द अस्पष्ट हैं, किन्तु यह निश्चित है कि पहले इस क्षेत्र का नाम पवला था व यहाँ महाराजा महोपालदेव का शासन था। प्रांगण में ही देवगढ़ शैली का एक 10-11 फीट ऊँचा मानस्तंभ भी बना है। इस क्षेत्र की उन्नति के लिए सर्वप्रथम सन् 1928 में स्व. छक्कूलाल जी ने प्रयास किया था। वे घर परिवार छोड़कर क्षेत्र पर ही रहने लगे थे। इन्होंने तन मन धन से क्षेत्र की सेवा की थी। 27 जनवरी 1934 से गोलाकोट व पचराई क्षेत्र चौरासी दिगंबर तीर्थ-क्षेत्र कमेटी खनियाधाना के अधिकार में है। अब यहां प्रतिवर्ष वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है। पं. परशुराम जी ने पुनः इन क्षेत्रों की उन्नति के लिय बीड़ा उठाया पर पर्याप्त सामाजिक व आर्थिक सहयोग के अभाव के कारण वे भी कुछ खास न कर सके व इंदौर जाकर रहने लगे। यहां केवल साहू शान्तिप्रसाद जी द्वारा प्रदत्त 10826 रू. से कुछ मरम्मत कार्य अवश्य कराये गये। सन् 1968-70 में पं. चेतनदास जी बामौर कलाँ पधारे व खनियाधाना होते हुए वे पचराई पहुंचे व वहीं रहने लगे। किन्तु यहाँ रहते हुये उन्हें कुछ ही दिन हुए थे कि किन्हीं अज्ञात बदमाशों ने अपने कार्य में बाधक मानते हुए उनकी हत्या कर दी। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 135 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज अब यह तीर्थ-क्षेत्र चारों ओर सड़क मार्ग से जुड़ गया है व यात्रीगण भी यहां बड़ी मात्रा में दर्शनों को आने लगे हैं। वर्तमान में क्षेत्र पर अनेक सुधारात्मक कार्य हो रहे हैं, जिससे ये उम्मीद बंधती है कि यह क्षेत्र शीघ्र ही अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर सकेगा। यहां के जिनालयों का विवरण नीचे दिया जा रहा है जिनालय क्र. 1- इस जिनालय में विराजमान मूल जिन-प्रतिमायें चोरी चली गईं है। अब इस जिनालय में सहस्रकूट चैत्यालय का एक भाग रखा है, जिसमें छोटी-छोटी सौ से अधिक दिगंबर जिन-प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। इस प्रस्तर खंड के मध्य भाग में एक देवी प्रतिमा उत्कीर्ण है, जिसके गले में आभूषण भी हैं किन्तु यह उपाध्याय सदृश्य दिखती है। जिनालय के द्वार पर तीन छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। जिनालय क्र. 2- इस जिनालय में विराजमान जिन-प्रतिमायें भी चोरी चली गई है। यहां कुछ शिलाखंडों में उत्कीर्ण छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें रखीं हैं, जिनके दायें-बायें जैन शासन देवी-देवताओं की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। जिनालय क्र. 3- इस जिनालय के द्वार के बाहर कलश लिये द्वार के ऊपर देवियों की सुंदर प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। तीन छोटी दिगंबर प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। जिनालय के अंदर मध्य में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की लगभग 5 फीट ऊँची पदमासन प्रतिमा विराजमान है। दोनों ओर लगभग 3.5 फीट ऊँची भगवान अजितनाथ व संभवनाथ की खड्गासन प्रतिमायें स्थित हैं। इनमें दो प्रतिमायें खंडित हैं जबकि एक अखंडित व पूज्य है। प्रत्येक मूल प्रतिमा के ऊपर तीन-तीन छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। जिनमें मध्य की प्रतिमायें खड्गासन व पार्श्वभाग की प्रतिमायें पदमासन मुद्रा में है व सुरक्षित हैं। तीनों प्रतिमायें हीरे की पोलिश के कारण दैदीप्यमान हैं। जिनालय क्र. 4- चौथे जिनालय में चार जिन-प्रतिमायें स्थित हैं। मध्य की प्रतिमा पद्मासन व बगल में स्थित तीन प्रतिमायें खड्गासन मुद्रा में हैं। एक को छोड़कर शेष तीन प्रतिमायें खंडित हैं। जिनालय क्र. 5- जिनालय क्र. 1 से लेकर जिनालय क्र. 14 तक के जिनालयों के दरवाजों की कृतियां लगभग एक समान हैं। दरवाजे के दोनों ओर दो देवियां मंगल कलश लिये खड़ी हैं। दरवाजे के नीचे हाथी व शेर परस्पर में मित्र मुद्रा में एक दूसरे के मुख को स्पर्श कर रहे हैं। दरवाजों के ऊपर तीन छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें स्थित हैं व दरवाजों की दीवारों को कलात्मक विनिर्मित किया गया है। 136 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भगृह में एक ही पाषाण शिला में सुंदर जालियां, जैन शासन के देवी-देवताओं व यक्ष-यक्षणिओं को अगल-बगल में हाथियों के साथ उत्कीर्ण किया गया है, वहीं उसी पाषाण शिला में कमलासन की रचना कर उस पर पदमासन मुद्रा में भगवान आदिनाथ की जिन - प्रतिमा को उत्कीर्ण किया गया है, जो अतिभव्य व सुंदर है । इस प्रतिमा के दायें व बायें खड्गासन मुद्रा में दूसरे व तीसरे तीर्थंकर भगवान अजितनाथ व संभवनाथ की प्रतिमाओं को उत्कीर्ण किया गया है । ये प्रतिमायें क्रमशः 3.5, 2.5 व 2.5 फीट ऊँची हैं, जिन पर हीरे की पोलिश की चमक आज भी यथावत विद्यमान है । 1 प्रत्येक जिन - प्रतिमा के शीर्ष पर रखे पृथक शिलाखंड में पांच-पांच छोटी-छोटी जिन - प्रतिमायें भी उत्कीर्ण की गई हैं। सभी प्रतिमायें खंडित है 1 जिनालय क्र. 6- छठे जिनालय में गर्भगृह में तीन योगमुद्रा में आसीन प्रतिमायें विराजमान है। मध्य में भगवान शान्तिनाथ, बायीं ओर भगवान अजितनाथ व दायीं ओर भगवान अभिनंदन नाथ की प्रतिमायें प्रतिष्ठित है । सभी प्रतिमायें मूर्ति-भंजकों द्वारा खंडित कर दी गई हैं । किन्तु इन जिन-प्रतिमाओं के शीर्ष भाग पर रखे 1.5 व 6 फीट के शिलाखंड में 9 मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, जो छोटी-छोटी पर अखंडित हैं । इनमें से मध्य की प्रतिमा पद्मासन व बाजू की प्रतिमायें खड्गासन मुद्रा में हैं । जिनालय क्र. 7 - इस जिनालय में उपरोक्त जिनालय क्रमांक 6 की भांति ही दो जिन - प्रतिमायें योगमुद्रा में हैं व सभी खंडित हैं । एक प्रतिमा पर निर्माण काल सं. 1231 लिखा है । मध्य में पद्मासन में 3.5 फीट ऊँची भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमा है। जबकि बायीं ओर 2.5 फीट ऊँची भगवान अजितनाथ की व दायीं ओर 2.5 फीट ऊँची भगवान धर्मनाथ की प्रतिमा स्थापित है। जिनालय क्र. 8- जिनालय में तीन जिन - प्रतिमायें विराजमान हैं। मध्य में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की 5 फीट ऊँची व दायें-बायें 4-4 फीट ऊँची भगवान धर्मनाथ व पदमप्रभु की प्रतिमायें विराजमान हैं। सभी प्रतिमायें खंडित हैं और सं. 1231 में प्रतिष्ठित की गई थीं। सभी प्रतिमायें अतिमनोज्ञ व अतिशय आभा युक्त हैं 1 जिनालय क्र. 9- इन जिनालय में चार तीर्थंकर प्रतिमायें स्थापित हैं । मध्य में 5 फीट ऊँची भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमा है जबकि इसके दायीं व बायीं . ओर भगवान अजितनाथ व संभवनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं । दायीं ओर एक और जिन - प्रतिमा भगवान मुनिसुव्रतनाथ की है। ये सभी जिनबिम्ब मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 137 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.5 फीट ऊँची अति मनोज्ञ किन्तु वर्तमान में खंडित अवस्था में हैं। दायीं दीवाल पर 5 फीट ऊँची एक अन्य जिन-प्रतिमा है जो चिह्न रहित है। प्रतिमाओं के शिखर भाग पर 9 जिन-प्रतिमायें (छोटी-छोटी) स्थित हैं। जिनालय क्र. 10- इन जिनालय के बाद बाहर दीवाल से सटी क्षेत्ररक्षक क्षेत्रपाल की प्रतिमा विराजमान है, जो नग्न मुद्रा में है। इनके दायें हाथ में गदा है। शीर्षभाग पर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा फणावली के साथ उत्कीर्ण है। - जिनालय क्र. 11- इन जिनालय के गर्भगृह में तीन जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। ये सभी जिन-प्रतिमायें चिह्न रहित हैं, व हाथ खंडित कर दिये गये हैं। ये जिन-प्रतिमायें 5 फीट से 6 फीट ऊँची हैं। ऊपर पृथक शिलाखंड नहीं है। जिनालय क्र. 12- इस जिनालय के गर्भगृह में मध्य में पदमासन मुद्रा में भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा (दो फीट) विराजमान है। बायीं ओर भगवान अजितनाथ की व दायीं ओर भगवान धर्मनाथ की प्रतिमा हैं, व लगभग 1.5-1.5 फीट ऊँची हैं। बीच की प्रतिमा खंडित (पैर) हैं, पर दायीं व बायीं ओर स्थित जिन-प्रतिमायें अपने आप में पूर्ण व पूज्यनीय हैं। जिनालय क्र. 13- इस भव्य जिनालय के गर्भगृह में मध्य में पदमासन मुद्रा में लगभग 6 फीट ऊँची भव्य व विशाल जिन-प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। पार्श्व भागों में 5-5 फीट ऊँची (खड्गासन) में दो और प्रतिमायें विराजमान हैं, जिन पर चिह्न नहीं हैं। मध्य की जिन-प्रतिमा पूर्णतः ठीक है, किन्तु पार्श्व भागों की जिन-प्रतिमायें खंडित हैं। जिनालय क्र. 14 इस जिनालय के गर्भगृह में जिनालय क्र. 13 की भांति ही जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं, व लगभग 2-2.5 फीट ऊँची हैं। बायीं ओर की जिन-प्रतिमा भगवान नेमिनाथ की है, दाहिनी ओर की जिन-प्रतिमा के नीचे ऊँ सदृश्य चिह्न अंकित हैं। प्रतिष्ठाकाल सं. 1222 लिखा है। सभी खंडित हैं। जिनालय क्र. 15- इन जिनालय के गर्भगृहों में तीन जिनबिम्ब स्थापित हैं। मध्य का जिनबिम्ब 5 फीट ऊँचा है व भगवान मुनिसुव्रतनाथ का है। बायीं ओर धर्मनाथ भगवान की चार फीट ऊँची व दायीं ओर 4 फीट ऊँची भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमा विराजमान है। दायीं ओर की दीवाल पर 4 फीट ऊँची एक अन्य योगमुद्रा वाली जिन-प्रतिमा भी विराजमान है, जिस पर पहचान चिह्न अंकित नहीं है। सभी जिन-प्रतिमायें खंडित हैं, किन्तु प्रतिष्ठाकाल सं. 1222 साफ पढ़ा जा सकता है। जिनालय क्र. 16- यह जिनालय अपेक्षाकृत बड़ा है। इन जिनालय की 158 - मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत की ऊँचाई 12 फीट के आस पास होगी। देव रक्षित तीन जिनबिम्ब इस भव्य जिनालय में विराजमान है। इन जिनालय की प्रतिमायें अतिप्राचीन हैं, क्योंकि ये जिन-प्रतिमायें निर्माण शैली की दृष्टि से भिन्न आकार की हैं। इस भव्य व प्राचीन जिनालय में तीन जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं, जो पूर्णतः ठीक हालत में हैं व पूज्यनीय हैं। इन प्रतिमाओं पर हीरे की पॉलिश भी नहीं है तथा ये लाल पत्थर से बनी भी नहीं हैं। मध्य में आठ फीट ऊँची भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा है, किन्तु पादमूल में बना चिह्न शूकर प्रतीत होता है। दायें व बायें स्थित जिनबिम्ब भी लगभग साढ़े सात फीट ऊँचाई वाले हैं, दायीं ओर की जिन-प्रतिमा में कोई प्रतीक चिह्न नहीं है। बायीं ओर की जिन-प्रतिमा के नीचे विशिष्ट चिह्न बना है। यह प्रतिमायें परिसर के मध्य में स्थित जिनालय से लाकर यहां प्रतिष्ठित की गई हैं। 'जिनालय क्र. 17- इन जिनालय का द्वार अत्यन्त कलात्मक है, किन्तु पूर्व स्थित जिनालयों से पृथकता लिये हैं। द्वार पर दण्ड सहित देवी-देवताओं के चिह्न उत्कीर्ण हैं। इस जिनालय में स्थित जिनबिम्बों पर रचनाकाल उत्कीर्ण नहीं है। इस जिनालय की सभी मूर्तियां पूज्यनीय व अच्छी हालत में हैं। इन जिनालय में तीन जिनबिम्ब स्थापित हैं। मध्य में छः फीट ऊँची खड्गासन प्रतिमा पर चिह्न नहीं है, जबकि बायीं ओर की जिन-प्रतिमा भगवान अजितनाथ की है व दायीं ओर की जिन-प्रतिमा भगवान वासुपूज्य की है। ये दोनों जिनबिम्ब साढे तीन फीट ऊँचे हैं। इन जिनालय में एक मानस्तंभ का ऊपरी भाग भी रखा है, जिस पर चारों ओर जिनबिम्ब उत्कीर्ण है। जिनालय क्र. 18- इन जिनालय में सं. 1210 में प्रतिष्ठित जिनबिम्ब विराजमान हैं। मध्य में साढ़े पांच फीट ऊँचाई वाले जिनबिम्ब में चिह्न नहीं हैं, किन्तु मूल प्रतिमा के बायीं ओर एक पद्मासन व दो योगमुद्रा की तथा दायीं ओर भी ऐसी ही छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। बायीं ओर के जिनबिम्ब पांच-पांच फीट ऊँचे है, जिनके दायीं व बायीं ओर चार-चार छोटी-छोटी मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। बायीं ओर की दीवाल पर एक छः फीट ऊँची अन्य जिन-प्रतिमा भी इन जिनालय में विराजमान हैं। निर्माण सं. 1210 साफ पढ़ा जा सकता है। . जिनालय क्र. 19- इन जिनालय में प्रतिष्ठित जिनबिम्ब चोरी कर लिये गये हैं। इस जिनालय में वर्तमान में किसी दरवाजे का खण्ड भाग रखा है, जिसमें नौ छोटे-छोटे जिनबिम्ब उत्कीर्ण हैं। मध्य के जिनबिम्ब पदमासन में व बगल के योगमुद्रा में हैं। दरवाजे के बाहर ऊपरी भाग पर 13 जिनबिम्ब उत्कीर्ण मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 139 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किये गये हैं। मध्य का जिनबिम्ब पदमासन में व अगल-बगल के छः-छः जिनबिम्ब कायोत्सर्ग मुद्रा हैं, किन्तु छोटे-छोटे हैं। जिनालय क्र. 20- यह इस क्षेत्र का एक प्राचीन जिनालय है, जिसमें सं. 1124 में प्रतिष्ठित जिनबिम्ब विराजमान हैं। मध्य में नंदीश्वर द्वीप की रचना एक चौकोर शिलाखंड में उत्कीर्ण की गयी है। प्रत्येक दिशा में 13-13 जिनबिम्ब उत्कीर्ण किये गये हैं। इनमें से 12 जिनबिम्ब कायोत्सर्ग मुद्रा में व नीचे उत्कीर्ण जिनबिम्ब पदमासन मुद्रा में हैं। सभी जिनबिम्ब छोटे-छोटे हैं। इसके दायीं व बायीं ओर चार-चार फीट ऊँचे दो अन्य जिनबिम्ब स्थापित हैं, दायीं ओर के जिनबिम्ब पर 12 अन्य छोटी-छोटी जिनबिम्ब की आकृतियां उकेरी गयीं हैं। तीन अन्य रखे शिलाखंडों पर भी क्रमशः तीन-तीन व दो जिनबिम्ब उत्कीर्ण हैं, जो छोटे-छोटे हैं। सभी मूर्तियां चिह्न रहित हैं। जिनालय क्र. 21- यह भगवान शान्तिनाथ जिनालय हैं, जिसमें सभी प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन हैं। यह भव्य व ऊँचा जिनालय है। इस जिनालय के गर्भगृह में मध्य में भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान हैं। यह प्रतिमा 11 फीट ऊँची है। यह प्रतिमा पूज्यनीय व पूर्णरूपेण ठीक है। इसके दायीं बायीं ओर स्थित जिन-प्रतिमायें लगभग सात-सात फीट ऊँची हैं, किन्तु खंडित अवस्था में है। यहां प्रतिमा के नीचे साऊसाहुल नाम लिखा है। इसी जिनालय में एक अन्य तीन फीट ऊँचा कायोत्सर्ग मुद्रा में जिनबिम्ब भी विराजमान हैं। दो अन्य प्रस्तरों पर चार खड्गासन व दो पदमासन छोटे-छोटे जिनबिम्ब भी बने हुये हैं। जिनालय क्र. 22- यह क्षेत्र के सबसे विशाल कक्ष रूप में स्थित जिनालय हैं। इस जिनालय के बाहर तीन से पांच फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में छः प्रतिमायें खंडित अवस्था में रखीं हैं। यह विशाल जिनालय लगभग 12 फीट ऊँचा है। इस जिनालय में सर्वाधिक संख्या में जिनबिम्ब स्थापित किये गये हैं। मध्य में भगवान ऋषभनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा काफी भव्य व आकर्षक है। ऊँचाई लगभग 6 फीट है। इस जिनबिम्ब के बायीं ओर 10 जिनबिम्ब स्थापित हैं, जो सभी 3 से 5 फीट ऊँचे हैं, व कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। दायीं ओर छः जिनबिम्ब कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित है। अधिकांश प्रतिमाओं के पादमूल में कोई प्रतीक चिह्न न होने से यह जिनालय इस क्षेत्र का सबसे पुराना जिनालय प्रतीत होता है। इन जिनालय की लगभग सभी प्रतिमायें खंडित कर दी गयी हैं। प्रतिमायें अधिकांश हाथों से खंडित हैं। जिनबिम्ब अतिमनोज्ञ व मनोहारी है। 140 - मय-भारत के जैन तीर्थ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनालय क्र. 23- इन जिनालय में एकमात्र जिनबिम्ब कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं। इस जिनबिम्ब की ऊँचाई लगभग 9 फीट होगी। जिनबिम्ब को खंडित कर दिया गया है। • जिनालय क्र. 24- यह भव्य जिनालय भगवान चन्द्रप्रभु को समर्पित है। जिसमें 5 फीट ऊँची भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है। बायीं ओर 4 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान हैं। दायीं ओर भी 4 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में एक प्रतिमा विराजमान हैं, जिसमें चिह्न उत्कीर्ण नहीं है। सभी जिनबिम्ब एक ही प्रखर खंड में उकेरे गये हैं। शीर्ष भाग पर भगवान पार्श्वनाथ की छोटी सी प्रतिमा उत्कीर्ण हैं। __ जिनालय क्र. 25- इस जिनालय की एक मूर्ति 10 वर्ष पूर्व चोरी चली गई, ऐसा क्षेत्र पर निवासरत पुजारी ने बताया। वर्तमान में इस कक्ष में बायीं ओर एक देवी प्रतिमा स्थापित है, जिसके शीर्ष पर जिनबिम्ब स्थापित है। जिनालय क्र. 26- यह परिक्रमा-पथ का आखिरी जिनालय है। इन जिनालय में भगवान आदिनाथ, अजितनाथ व संभवनाथ के कायोत्सर्ग मुद्रा में जिनबिम्ब स्थापित हैं, जो सं. 1213 के प्रतिष्ठित हैं। मध्य में भगवान आदिनाथ की प्रतिमा 4 फीट ऊँची है जबकि अगल-बगल में स्थित भगवान अजितनाथ व संभवनाथ के जिनबिम्ब साढे तीन फीट ऊँचे है। इसी जिनालय में बायीं ओर दो अन्य जिनबिम्ब भी कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं जबकि दायीं ओर 16 जिनबिम्ब एक (एक प्रस्तर खंड में उत्कीण) भी विराजमान हैं। जिनालय क्र. 27- प्रागंण के मध्य में 40 फीट ऊँचा शिखरबंद प्राचीन भव्य जिनालय है। जिसमें अनेक नवीन जिनबिम्ब स्थापित हैं। इसमें एक प्राचीन शिलालेख है। इस जिनालय की प्राचीन मूर्तियां जिनालय क्र. 16 में विराजमान कर दी गई हैं। इस जिनालय में भगवान नेमिनाथ की लगभग 6 इंच व 5 इंच ऊँची प्राचीन प्रतिमायें भी रखी हैं जो महुआ ग्राम से लाई गई हैं। जिनालय क्र. 28- मंदिर प्रागंण के आंगन में अन्त में जिनालय क्र. 21 के सामने एक प्राचीन मानस्तंभ बना है। जिसके ऊपर चारों ओर जिनप्रतिमायें विराजमान है। इसी के पास सं. 1345 का एक शिलालेख लगा है। जिनालय क्र. 29- मूल मंदिर प्रांगण के बाहर तीन जिनालय बाहर के चबूतरे के दायीं ओर स्थित हैं। इस जिनालय के गर्भगृह में तीन जिन-प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं। ये जिन-प्रतिमायें 4 से साढ़े चार फीट ऊँची हैं। सभी खंडित हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 141 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनालय क्र. 30- इस जिनालय के गर्भगृह में मध्य में पदमासन मुद्रा में 3 फीट ऊँची भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा विराजमान है। दोनों पार्श्व भागों में कायोत्सर्ग मुद्रा में एक ओर भगवान सुपार्श्वनाथ व दूसरी ओर संभवनाथ व पुष्पदन्त भगवान की प्रतिमायें स्थित हैं। इसमें सं. 1242 लिखा है, सभी खंडित हैं। जिनालय क्र. 31- इस क्षेत्र का यह अंतिम जिनालय है, जिसमें चार-चार फीट ऊँचे तीन जिनबिम्ब स्थापित हैं। प्रतिमाओं के नीचे अंकित चिह्नों को पहचाना नहीं जा सकता। सभी प्रतिमायें खंडित है। अन्त के तीन जिनालयों को छोड़कर सभी जिनालयों के आगे दालान बनी हुई है। ___मंदिर परिसर में एक प्राचीन बावड़ी, क्षेत्र कार्यालय व छोटी-सी धर्मशाला भी स्थित है। इस क्षेत्र के विषय में अधिकारी विद्वानों द्वारा शोध कार्य द्वारा इसकी प्राचीनता तथा शैलीगत कलात्मक विशेषताओं को प्रमाणिक ढंग से प्रस्तुत किया जाना अति आवश्यक है। साथ ही इसके संरक्षण एवं विकास के लिये उचित योजनायें बनाकर समाचार-पत्रों व इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से प्रचारित प्रसारित किया जाकर धन संग्रह एकत्रित किया जाना चाहिये। इस कार्य में भारतवर्षीय श्री दिगम्बर जैन तीर्थ कमेटी, मुम्बई तथा अन्य केन्द्रीय संस्थाओं को ध्यान देने की विशेष आवश्यकता है। वर्ष 2011 के अंत में जंगल वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध आचार्य श्री चिन्मय सागरजी के सान्निध्य में विशाल पंचकल्याणक महोत्सव का आयोजन किया गया; जिसमें एकत्रित राशि से क्षेत्र के विकास की योजनायें बनाई जा रही हैं। गोलाकोट क्षेत्र में उपरोक्त पंचकल्याणक में प्रतिष्ठित भगवान श्री पार्श्वनाथ स्वामी की मूर्ति अनेकों प्रयास करने के बावजूद भी श्रावकों से मूल वेदी पर नहीं जा पा रही थी। तब जंगल वाले बाबा अपने आगे के गमन को छोड़ यहां वापिस आये। तभी मूर्ति को अपनी मूल जगह पर स्थापित किया जा सका। इस घटना को पारस चैनल पर अनेक बार प्रसारित किया गया। 142 - मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र थूबौन अतिशय क्षेत्र थूबौन चंदेरी से 20 किलोमीटर दूर चंदेरी-अशोकनगर वाया थूबौन मार्ग पर स्थित है। वर्तमान में यह तीर्थ-क्षेत्र मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिलान्तर्गत आता है। अशोकनगर से इस क्षेत्र की दूरी लगभग 45 किलोमीटर है। क्षेत्र तक बसें आती जाती हैं व मार्ग पक्का डांवर युक्त है। .. __अतिशय क्षेत्र थूबौन वेतवा नदी की सहायक उर्वशी (ओर/उर) नदी के सुरम्य तट से कुछ ही दूरी पर स्थित है। इस क्षेत्र के दूसरी ओर लीलावती नदी प्रवाहित होती है। इन युगल सरिताओं के मध्य स्थित यह तीर्थ-क्षेत्र शहरी कोलाहल से दूर, शान्त व सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में स्थित है। यह तीर्थ-क्षेत्र एक पठारी भाग पर स्थित है, चारों ओर हरे-भरे लहलहाते खेत मन को आह्लादित करते हैं दूर-दूर से उच्च-धवल जिनालयों के शिखरों पर फहराती ध्वजायें दर्शनार्थियों को क्षेत्र पर पहुंचने के पहले ही उन्हें प्रमुदित कर देती हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर तीर्थंकरों की विशालकाय प्रतिमायें खड्गासन मुद्रा में अवस्थित है व अधिकांश क्षेत्र के आसपास की चट्टानों से ही निर्मित हैं। कुछ अर्धनिर्मित मूर्तियां भी इस क्षेत्र के आसपास आज भी देखी जा सकती है। एक ही स्थान पर इतनी बड़ी संख्या में तीर्थंकरों की इतनी विशाल प्रतिमायें देवगढ़ के अलावा अन्यत्र देखने को नहीं मिलतीं। यहां की मूर्तियां का शिल्प भी अन्य तीर्थ-क्षेत्रों पर स्थित मूर्तियों के शिल्प से बिल्कुल अलग है। तीर्थ-क्षेत्र के दर्शन से यात्रियों की थकान मानो रफूचक्कर हो जाती है। इस तीर्थ-क्षेत्र पर स्थित जिनालयों के दरवाजे छोटे-छोटे हैं, जिनमें यात्रियों को झुककर ही प्रवेश करना पड़ता है। अभिमानी दर्शनार्थियों के सिर भी यहाँ स्वतः झुक जाते हैं। अधिकांश जिनालयों के गर्भगृह प्रवेश द्वार से काफी नीचे हैं; अतः दर्शनार्थियों को प्रवेश द्वार में प्रवेश करने के बाद कुछ सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर 28 जिनालय विद्यमान हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र के आसपास काफी मात्रा में पुरातत्व सामग्री मीलों तक बिखरी पड़ी है; विशेषकर थूबौन ग्राम के सामने स्थित पठारी भाग पर खोज करने पर और भी मूर्तियां मिल सकती हैं। कुछ और जिनालय (जो खंडहरों में बदल गये हैं) यहाँ मिल सकते हैं। यहाँ की अधिकांश जिन-प्रतिमायें बिल्कुल सही हालत में व बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। यह एक प्राचीन अतिशय क्षेत्र है। कहा जाता है कि सेठ पाड़ाशाह का रांगा यहाँ आकर चाँदी हो गया था। उन्होंने यहाँ कई जिनालयों का निर्माण कराया था। कहा जाता है कि एक बार मुगलकाल में यहाँ आताताइयों ने इस क्षेत्र को ध्वंश करने के उद्देश्य से आक्रमण किया किन्तु जब वे मूर्तियों को तोड़ने के लिये आगे बढे; तो उन्हें मूर्ति दिखाई देना बंद हो गया; तब वे कुछ जिनालयों के बाहरी भाग को क्षति पहुंचाकर ही चले गये। मंदिर क्रमांक 15 में स्थित सबसे बड़ी प्रतिमा भगवान ऋषभनाथ की है; जो मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 143 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड्गासन में लगभग 30 फीट ऊँची, अतिमनोज्ञ है। कहा जाता है कि जब इस प्रतिमा को खड़ा किया जाना था; तो लाख कोशिशों के बावजूद भी इसे खड़ा नहीं किया जा सका। तब प्रतिष्ठाकारक ने स्वयं आकर स्तुति व विनती की। ऐसा करने पर प्रतिमा आसानी से खड़ी हो गई। यहाँ आसपास के ग्रामवासी व तीर्थयात्री मनौती लेकर आते हैं; और उनकी मनोकामनायें पूर्ण हो जाती है। पहले क्षेत्र के चारों ओर घना वन था। उसमें भयानक जंगली जानवर विचरण करते रहते थे किन्तु कभी किसी क्रूर पशु ने आज तक किसी तीर्थयात्री को कोई क्षेति नहीं पहुंचाई। यहाँ के अनेक जिनालयों में अष्टान्हिका व पयूर्षण पर्यों में रात्रि में देवताओं के पूजन-वंदन की संगीतमय ध्वनियां सुनाई देती हैं। यहाँ आने वाले तीर्थयात्री दर्शन कर चरम आत्मिक शान्ति एवं प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर जिनालय एक परिक्रमा-पथ पर स्थित है व संख्या में 28 है। जिनालयों का क्रमवार विवरण नीचे दिया जा रहा है 1. पार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में 15 फीट से भी अधिक ऊँची मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की फणावली सहित प्रतिमा विराजमान है। पार्श्व भागों पर चार पद्मासन व दो कायोत्सर्ग मुद्रा में छोटी-छोटी प्रतिमायें भी उसी शिलाखंड में उत्कीर्ण की गई हैं। ऊपर यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियां भी दोनों ओर उत्कीर्ण हैं। नीचे पाद्मूल में पार्श्व भागों पर चमर लिये इन्द्र खड़े हैं। इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा सं. 1864 में थूबौन ग्राम के ही निवासी श्री लक्ष्मण मोदी व पंचम सिंघई जी ने करवाई थी। गर्भगृह लगभग 11 x 11 फीट का है। . 2. पार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में भी 12 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है। मूल प्रतिमा के पार्श्व भागों पर दो पद्मासन व दो कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमायें भी मूल प्रस्तर खंड में ही बनीं है। इसका प्रतिष्ठाकाल सं. 1869 है। इस जिनालय का गर्भगृह भी उपरोक्त जिनालय के समान ही है। 3. आगे चलकर हम एक दालाननुमा बरामदे में पहुंचते हैं। बरामदे से सटे तीन कमरे हैं। तीनों कमरों में जिनबिम्ब स्थापित है। प्रथम कक्ष में भगवान आदिनाथ, भगवान शान्तिनाथ व भगवान महावीर स्वामी की खड्गासन मुद्रा में प्रतिमायें विराजमान है। तीनों जिन-प्रतिमाओं की अवगाहना क्रमशः 5, 7.5 व 4.5 फीट के लगभग है। इन जिन-प्रतिमाओं का प्रतिष्ठाकाल सं. 1694 है। 4. नेमिनाथ जिनालय- मध्य के कक्ष में मूलनायक के रूप में भगवान नेमिनाथ जी की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है। इस प्रतिमा की अवगाहना 5 फीट है। इस जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा 1872 में हुई थी। ऊपर दो पद्मासन जिनबिम्ब भी उत्कीर्ण हैं। पाद्मूल के पार्श्व भागों में हाथी पर चावरधारी 144 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र खड़े हैं। कक्ष के द्वार के ऊपर भी 1 पद्मासन व दो खड्गासन जिनबिम्ब उत्कीर्ण है। 5. अंतिम व तीसरे कक्ष में तीन जिनबिम्ब प्रतिष्ठित हैं। ये जिनबिम्ब भगवान संभवनाथ, चन्द्रप्रभु व अरहनाथ तीर्थंकरों के हैं। ये प्रतिमायें क्रमशः 4.75, 6.9 व 4.5 फीट ऊँची हैं। ये सभी जिनबिम्ब कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हैं। 6. इन जिनालयों के सामने विशाल संग्रहालय बनाया गया है, जो देखरेख के अभाव में अच्छी हालत में नहीं है। यत्र-तत्र गंदगी का साम्राज्य है। किन्तु इसमें कायोत्सर्ग मुद्रा में एक प्राचीन जिनबिम्ब स्थापित है; जो भगवान अजितनाथ का है। यह जिनबिम्ब सही हालत में है। इस प्रतिमा के मुखमंडल के पीछे एक आकर्षक भामंडल है। मूर्ति के दोनों ओर यक्ष-यक्षिणी भी उत्कीर्ण है।। 7. शान्तिनाथ जिनालय- यह जिनालय क्षेत्र स्थित प्राचीनतम जिनालयों में से है। इस जिनालय का प्रवेश द्वार व जिनालय का बाहरी भाग कलापूर्ण है। इस जिनालय का मुख उत्तर की ओर है। जिनालय के गर्भगृह में प्रभामंडल युक्त भगवान शान्तिनाथ की 18 फीट ऊँची प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन है। इस प्रतिमा के पार्श्व भागों में तीन पद्मासन व 4 खड्गासन छोटी-छोटी प्रतिमायें भी बनी हुई है। शीर्ष के दोनों पार्श्व भागों में पुष्पमाल लिये गंधर्व अंकित है। अधोभाग में बायीं ओर पद्मावती देवी व दाई ओर अम्बिका देवी की मूर्तियां बनी हुई है। इनकी अवगाहना लगभग 5 फीट है। अम्बिका की गोद में एक बालक है। जबकि दूसरा बालक उंगली पकड़े खड़ा है। शीर्ष पर एक आम्र स्तबक पर नेमिनाथ की प्रतिमा भी उत्कीर्ण है। पद्मावती के फण के ऊपर भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है। जिसके दोनों ओर गन्धर्व नृत्य कर रहे हैं। यह जिनालय खजुराहो जिनालयों की शैली के समान है। ___ यह प्रतिमा समचतुरस्त्र संस्थान वाली है। प्रतिमा के मुख-मंडल का लावण्य व उसकी छटा मनोहारी है। इस जिनालय में कोई मूर्ति लेख नहीं मिलता; किन्तु कला की दृष्टि से ये 12वीं सदी का जिनालय प्रतीत होता हैं ___8. इस जिनालय में तीन जिनबिम्ब प्रतिष्ठित हैं। ये जिनबिम्ब भगवान शान्तिनाथ, नेमिनाथ व पार्श्वनाथ के हैं। सभी प्रतिमायें लगभग समान अवगाहना वाली 5 से 6 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। मंदिर के बाहर एक शिलालेख है; जिससे इस जिनालय का निर्माण काल सं. 1680 निश्चित होता है। इसे छोटे पंचभाइयों का जिनालय भी कहते हैं। 9. इस जिनालय में मूलनायक के रूप में भगवान पार्श्वनाथ की लगभग 15 फीट ऊँची प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। इसके दोनों ओर दो खड्गासन व दो पद्मासन प्रतिमायें भी इसी शिलाखंड में उत्कीर्ण हैं। अधोभाग में गज पर चामर लिये इन्द्र खड़े हैं व पास में हाथ जोड़े श्रावक भी बने हैं। 10. इस जिनालय की बायी ओर की दीवाल में भगवान चन्द्रप्रभु व भगवान नेमिनाथ के जिनबिम्ब स्थापित हैं; जो क्रमशः 13.3 फीट व 8 फीट ऊँचे कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। दाईं ओर की दीवाल में भगवान शान्तिनाथ व भगवान मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 145 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामी की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमायें हैं जो क्रमशः 8 फीट व 13.3 फीट ऊँची हैं। इस जिनालय का निर्माण सं. 1671 में हुआ था । इसे बड़े पंचभाइयों का जिनालय भी कहते हैं 1 10 (अ). यह हनुमान जी का स्थान है। इसमें हनुमान जी के कंधों पर दो मुनिराज विराजमान हैं। यह पुराणों में मुनियों के उपसर्ग निवारण का प्रसंग मिलता है । यह मूर्ति लगभग 7 फीट ऊँची है I 10 (ब). इसमें लगभग 5.3 फीट ऊँची शासन देवी की मूर्ति स्थित है। शासन देवी के शीर्ष पर पद्मासन मुद्रा में व दोनों पार्श्व भागों पर खड्गासन मुद्रा में तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । इस मूर्ति के पार्श्व भाग में 3.5 फीट अवगाहना की सरस्वती की मनोहारी प्रतिमा स्थित है, जो हंस पर आसीन है व आठ भुजाओं वाली है, हाथ में वीणा है। दायीं, बायीं ओर देवियां खड़ी है। दायीं दीवाल पर एक शिलाखंड में अम्बिका की मूर्ति स्थित है; जिसकी गोद में बालक है। मुख्यद्वार के ऊपर पद्मासन में तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है । 11. मल्लिनाथ जिनालय - इस जिनालय में बालयति 19वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 12 फीट ऊँची प्रतिमा विराजमान है । पार्श्व भागों में खड्गासन में चार छोटी-छोटी जिन - प्रतिमायें भी उत्कीर्ण की गई हैं। सप्तफणी भगवान पार्श्वनाथ व पंचफणी भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमायें भी यहां विराजमान हैं। एक मूर्ति भगवान चन्द्रप्रभु की भी विराजमान हैं 12. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में फणावली युक्त कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति विराजमान है। यह जिनबिम्ब 16 फीट ऊँचा अतिमनोज्ञ है। पार्श्व भागों दो पद्मासन मुद्रा में छोटे-छोटे जिनबिम्ब भी बनाये गये हैं। पार्श्व में हाथी पर चामरधारी इन्द्र खड़े हैं । 13. पार्श्वनाथ जिनालय - नौ फणावली युक्त 16 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा इस जिनालय में प्रतिष्ठित हैं। दोनो ओर दो पद्मासन मूर्तियां भी हैं । गज पर सवार चामरधारी इन्द्र भगवान की सेवा में रत दिखाई पड़ते हैं । पामूल के दोनों ओर दो श्राविकायें हाथ जोड़े खड़ी है । इसका प्रतिष्ठाकाल सं. 1645 है। मंदिर के शिखर में तीन ओर तीन जिनबिम्ब बने हैं । 14. शान्तिनाथ जिनालय - इसमें 12 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान शांतिनाथ जी की प्रतिमा विराजमान है। सिर के ऊपर तीन छत्र बने हैं; जिसके दोनों ओर दो पद्मासन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । यह प्रतिमा सं. 1855 में प्रतिष्ठित हुई थी । प्रतिमा के पार्श्व भागों में नीचे चामर लिये हाथी पर सवार इन्द्र बने हैं । 15. आदिनाथ जिनालय - सं. 1672 में प्रतिष्ठित प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की यह प्रतिमा क्षेत्र पर विराजमान सभी प्रतिमाओं में सबसे बड़ी, भव्य, आकर्षक व मनोहारी है। वीतरागता की प्रतिमूर्ति यह प्रतिमा ऐसी लगती है; मानों अभी बोलने वाली है। कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित यह प्रतिमा 25 फीट से अधिक 146 ■ मध्य- भारत के जैन तीर्थ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँची है। जिनालय का प्राचीन मंडप व गर्भगृह जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण उसके स्थान पर नवनिर्मित सभा मंडप (विशाल हॉल) तैयार किया गया है, जिसमें एक साथ 4-5 हजार व्यक्ति बैठकर भजन पूजन का आनंद ले सकते हैं। इस प्रतिमा के दर्शन मात्र से मन को अपूर्व शान्ति मिलती है। गले में पड़े तीन बल अति सुंदर प्रतीत होते है। छाती पर श्री वत्स का चिह्न है; इसके दोनों ओर चामरधारी इन्द्र सेवा भाव से खड़े हैं। मूर्ति के दोनों ओर दो खड्गासन व दो पद्मासन प्रतिमायें भी उत्कीर्ण है; जो छोटी-छोटी हैं। चरण तल में श्रावक-श्राविकायें भक्ति भाव मुद्रा में आसीन हैं। यह प्रतिमा अतिशयकारी है। 16. अजितनाथ जिनालय- जैनधर्म के द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ का कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित यह जिनबिम्ब 16 फीट ऊँचा है। मुख से वीतरागता झलकती है व चेहरे पर मंद मुस्कान परिलक्षित होती है। ऊपर भाग में पद्मासन मुद्रा में दो छोटी-छोटी प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। अधोभाग के पार्श्व भागों में चामरधारी इन्द्र सेवा में खड़े हैं। नीच पादमूल में चार श्रावक भी श्रद्धावनत हैं। बायीं ओर दीवाल के सहारे तीसरे तीर्थंकर भगवान संभवनाथ की लगभग 7 फीट ऊँची प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन है। इसके ऊपरी पार्श्व भागों में दो पद्मासन मूर्तियों भी उत्कीर्ण है। अधोभाग के पार्श्व भागों में चामरधारी इन्द्र खड़े हैं। यह जिनालय भी सं. 1672 का निर्मित है। इसके प्रतिष्ठाचार्य धर्मकीर्ति भट्टारक थे। 17. अभिनंदन नाथ जिनालय- इस जिनालय में कायोत्सर्ग मुद्रा में चौथे तीर्थंकर भगवान संभवनाथ की 16 फीट ऊँची भव्य व अतिमनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। इस जिनालय की प्रतिष्ठा सं. 1708 में हुई थी। मूल प्रतिमा के ऊपर पार्श्व भागों पर दो पद्मासन मूर्तियां उत्कीर्ण है। नीचे चामर लिये इन्द्र खड़े हैं। शिखर में तीन ओर तीन जिनबिम्ब भी स्थापित हैं। दूसरे, तीसरे व चौथे तीर्थंकरों की प्रतिमायें विशाल व मनोज्ञ हैं। .. 18. अरहनाथ जिनालय- इस जिनालय में कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 5 फीट ऊँची भगवान अरहनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इस जिनालय का निर्माण 1923 में अमरोद निवासी घेवनलाल मोदी ने कराया था। _____19. महावीर जिनालय- इस जिनालय में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की 6.5 फीट ऊँची खड्गासन प्रतिमा स्थापित है। यह जिनालय भी सं. 1923 का बना है। चंदेरी की एक श्रद्धालु अमरोबाई ने इसका निर्माण कराया था। 20. चन्द्रप्रभु जिनालय- प्रतिमा के चरणों के नीचे पाद्मूल में चन्द्रमा चिह्न से अंकित यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की है। 8 फीट ऊँची भव्य व मनोहारी इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा सं. 1923 में हुई थी। ... 21. वर्धमान जिनालय- इस जिनालय में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 8 फीट ऊँची भव्य प्रतिमा विराजमान है। इसका प्रतिष्ठाकाल भी सं. 1923 ही है। इस जिनालय में एक स्थान पर लगभग एक फीट की पद्मासन प्रतिमा भी विराजमान है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 147 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. शान्तिनाथ जिनालय- इस क्षेत्र पर 16वें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी का यह तीसरा जिनालय है; जिसमें भगवान शान्तिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 8 फीट ऊँची प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इसकी प्रतिष्ठा चंदेरी वाले चौ. रामचन्द्र जी ने सं. 1923 में ही कराई थी। प्रतिमा के ऊपर पार्श्व भागों में दो पद्मासन प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। नीचे चामर लिये इन्द्र खड़े हैं। लगभग 2 फीट ऊँची एक अन्य प्रतिमा भी इस जिनालय में विराजमान है। 23. वर्धमान जिनालय- यह एक नवनिर्मित जिनालय है। इस जिनालय में भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा अन्य चार प्रतिमाओं के साथ विराजमान है। 24. पार्श्वनाथ जिनालय- इस जिनालय में कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 6.5 फीट अवगाहना की भगवान पार्श्वनाथ की फणावली युक्त प्रतिमा प्रतिष्ठित है। ऊपर के पार्श्व भागों में दो पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। इस क्षेत्र पर सर्वाधिक प्रतिमायें भगवान पार्श्वनाथ की ही हैं। 25. महावीर जिनालय- इस जिनालय में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी मूलनायक के रूप में विराजमान हैं। इस क्षेत्र पर महावीर स्वामी का यह चौथा जिनालय है। 26. ऋषभदेव जिनालय- 15वें जिनालय के बाद इस तीर्थ-क्षेत्र पर भगवान आदिनाथ जी के नाम पर यह दूसरा जिनालय है। इस जिनालय में भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्ग मुद्रा में 16 फीट ऊँची भव्य व आकर्षक प्रतिमा प्रतिष्ठित है। छत्र के दोनों ओर दो छोटी-छोटी तीर्थंकर प्रतिमायें भी मूल चट्टान में उत्कीर्ण है। नीचे चावरधारी व चरण चौकी पर दोनों ओर हाथी खड़े हैं। इसकी प्रतिष्ठा सं. 1873 में चंदेरी के चौबीसी निर्माता ने ही कराई थी। ___27. चन्द्रप्रभु जिनालय- इस जिनालय में भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा अन्य नवीन प्रतिमाओं के साथ आसीन है। यह नवीन जिनालय है। 28. मानस्तंभ- अंतिम जिनालयों के सम्मुख एक चबूतरे पर एक उत्तंग व मनोहारी मानस्तंभ बना हुआ है। इसका निर्माण वी.नि.सं. 2181 में हुआ था। इस क्षेत्र पर तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिये धर्मशाला आदि भी बनी हुई हैं। इसका प्राचीन नाम तपोवन रहा होगा; जो बिगड़ते-बिगड़ते थोबन और फिर थूबौन में परिवर्तित हो गया। 148 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ क्षेत्र चंदेरी एवं खंदार जी तीर्थ क्षेत्र चंदेरी ललितपुर से 40 किलोमीटर, सेरोन से 20 किलोमीटर, देवगढ़ से 75 किलोमीटर तथा थूबौन से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । चंदेरी एक प्राचीन ऐतिहासिक नगरी है; जिसके खंडहर 10 किलोमीटर दूर तक बिखरे पड़े हैं । यहाँ ऐतिहासिक महत्व की कई प्राचीन इमारतें विद्यमान हैं। वर्तमान में चंदेरी तहसील हैं, जो अशोकनगर जिले के अन्तर्गत आती है। बीनाकोटा रेल्वे लाईन पर मुंगावली व अशोकनगर रेल्वे स्टेशनों से चंदेरी की दूरी क्रमशः 40 व 50 किलोमीटर है। यह कस्बा चारों ओर पक्के सड़क मार्गों से जुड़ा है। यहाँ से खनियाधाना 35 किलोमीटर दूरी पर है। गोलाकोट एवं पचराई जैन तीर्थ क्षेत्रों की दूरी यहाँ से मात्र 40 व 50 किलोमीटर है। चंदेरी विश्वप्रसिद्ध साड़ियों के लिये तो प्रसिद्ध है ही, यहां के जौहर स्मारक, किला, कोठी, जागेश्वरी मंदिर, सिहपुर महल, रामनगर महल, कोसक महल आदि भी दर्शनीय हैं। इस नगरी में खिन्नी व सीताफल जैसे देशी फल प्रचुर मात्रा में होते हैं । चंदे का एक पहाड़ी के पार्श्व भाग पर बसा हुआ है। यहाँ चारों ओर प्राकृतिक सौदर्य बिखरा पड़ा है। समीपस्थ प्राकृतिक झरने, तालाब, छोटी-छोटी कृत्रिम झीलों, प्राचीन बावड़ियां, पत्थर के बने मकान यहाँ के सौंदर्य में चार चांद लगा देते हैं। पहले चंदेरी के चारों ओर पत्थर का विशाल परकोटा था; उसमें 4-5 बड़े-बड़े दरवाजे थे; किन्तु वर्तमान में दरवाजे तो हैं; परकोटा समाप्त हो गया है। वर्तमान चंदेरी से लगभग 15 किलोमीटर दूर प्राचीन चंदेरी के भग्नाशेष आज भी मौजूद हैं; जिसे आज बूढी चंदेरी के नाम से जाना जाता है। यह जैनियों व जैन मंदिरों की नगरी थी। यहां से आजादी के पूर्व व आजादी के बाद लगातार मूर्तियां की तश्करी होती रही । शेष बची मूर्तियों में से सैंकड़ों जैन प्रतिमायें अब वहाँ से लाकर चंदेरी के शासकीय संग्रहालय में रख दी गईं हैं। नवीन चंदेरी की स्थापना शायद 11वीं शताब्दी में हुई थी । 1. छोटा जैन मंदिर- यह जिनालय विश्व प्रसिद्ध चौबीसी जैन मंदिर के पास 200-300 गज की दूरी पर स्थित है। यह दो मंजिला जिनालय है । भूमितल पर एक वेदिका व एक प्राचीन मानस्तंभ स्थित है। प्रथम तल पर 5 वेदिकाओं पर बडी संख्या में जिनबिम्ब विराजमान हैं। ये सभी जिनबिम्ब काफी प्राचीन, भव्य व मनोज्ञ हैं; व पद्मासन मुद्रा में स्थित हैं। इस जिनालय में कांच की सुंदर चित्रकारी की गई है। 2. बड़ा जैन मंदिर व चौबीसी - यह एक बड़ा व भव्य जिनालय है । जो पहाड़ी की तलहटी में बस्ती के बीचोंबीच स्थित है । इस विशाल जिनालय में तीन आंगन है। प्रथम आंगन में शास्त्र प्रवचन हॉल, शास्त्र भंडार व पूजन सामग्री कक्ष आदि है। दूसरे आंगन (चौक) में हम एक छोटे से दरवाजे से प्रवेश करते हैं । इस मध्य-भारत के जैन तीर्थ 149 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौक में चारों दिशाओं में 12 वेदियां बनी हुई हैं; व सभी वेदियां प्राचीन हैं व इन वेदिओं पर कांच की सुंदर चित्रकारी की गई है। अनेक वेदिओं पर 10वीं से 15वीं सदी तक की प्रतिमायें विराजमान हैं। कुछ प्रतिमाओं को छोड़ सभी प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में आसीन है। कुछ बलुआ पत्थर से बनी प्रतिमा जी हैं; किन्तु अधिकांश प्रतिमायें संगमरमर से या बेसाल्ट पत्थर से निर्मित हैं। इसी भाग में एक छोटा मानस्तंभ भी 7-8 फीट ऊँचा स्थित है। इसके पश्चात हम तीसरे आंगन (चौक) में एक छोटे से दरवाजे से होकर प्रवेश करते हैं। यहीं इसी चौक में विश्वप्रसिद्ध चौबीसी स्थित है। इस चौक में चारों ओर 24 जिनालय बने हुये हैं; जो सभी शिखर सहित हैं। ये शिखर दूर से देखने पर इस महान तीर्थ की याद दिलाते हैं। प्रथम दिशा में चार, द्वितीय दिशा में आठ, तृतीय दिशा में सात व अंतिम दिशा में पांच वेदियां बनी हुई है। इन्हीं वेदियों पर प्रथम से अंतिम तीर्थंकर तक की जिन-प्रतिमायें क्रमशः विराजमान हैं। इन जिन-प्रतिमाओं की ऊँचाई में थोड़ी सी भिन्नता देखने को मिलती है। ये सभी जिनबिम्ब लगभग 3 फीट से 4 फीट ऊँचाई वाले हैं। वीतरागी मुद्रा लिये ये जिनबिम्ब अतिमनोज्ञ व मन को शान्ति प्रदान करने वाले हैं। सभी जिन-प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं। इन मूर्तियों का वर्ण शास्त्रोक्त है। अर्थात् शास्त्रों में जिस तीर्थंकर का जो वर्ण बताया गया है; उन तीर्थंकरों के ये जिनबिम्ब उसी वर्ण के हैं। अर्थात् 16 स्वर्ण वर्ण के, 2 श्वेत वर्ण के, 2 श्याम वर्ण के, 2 हरित वर्ण के व 2 रक्त वर्ण के हैं। इन सभी जिन-प्रतिमाओं की रचना शैली समान है। इनकी कला अनुपम है। ऐसी सुंदर व शास्त्रोक्त चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमायें अन्यत्र देखने को नहीं मिलती हैं। इस विश्वप्रसिद्ध चौबीसी का निर्माण संधाधिपति सवाईसिंह वजगोत्रीय खंडेलवाल ने करवाया था; जिनकी पत्नी का नाम कमला था। इन सभी प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा फाल्गुन कृष्णा 11, सं. 1893 को सोनागिर के भट्टारक श्री चन्द्रभूषण जी प्रतिष्ठाचार्य ने करवाई थी। इस चौबीसी चौक में ही महावीर स्वामी के गर्भगृह के बगल में एक गंधकुटी बनी हुई है, जिसके नीचे 8, मध्य में 4, ऊपर 4 व शीर्ष में 4 कलिकायें बनी हैं। इस प्रकार कुल 20 कलिकायें निर्मित हैं। संभवतः इन पर विद्यमान विदेह क्षेत्र के 20 तीर्थंकरों को विराजमान करने की योजना रही हो। पर आज ये जीर्ण हालत में है। इसी चौक के मध्य में एक स्तंभ है। शायद एक प्रकाश स्तंभ हो या फिर मानस्तंभ बनाने की कोई योजना रही हो। 3. खंदार जी- ये प्राकृतिक अकृत्रिम जिनालय चंदेरी किला एवं कटीघाटी के मध्य में स्थित पहाड़ी पर स्थित हैं व चौबीसी से लगभग 1.5 किलोमीटर दूरी पर . स्थित है। इस पहाड़ी की गुफाओं में (पहाड़ी की चट्टानों में ही) तीर्थंकर मूर्तियां उकेरी गईं हैं। यहाँ 1132, 1717 व 1718 के शिलालेख भी हैं। तलहटी में एक मानस्तंभ, कुआं, धर्मशाला आदि है। यहाँ 6 मंदिर हैं। गुफा एक में सीढ़ियों से होकर एक छोटे से दरवाजे में प्रवेश करते हैं। गुफा 150 - मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की छत भी नीची है। यह 16वीं शताब्दी निर्मित है। इस गुफा में मूलनायक के रूप में तीसरे तीर्थंकर भगवान संभवनाथ की 3.5 फीट ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके परिकर में गज पर सवार चमर धारी इन्द्र दोनों ओर खड़े हैं। इस प्रतिमा के दायीं ओर चन्द्रप्रभु, शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व पुष्पदन्त की तथा बाईं ओर अनन्तनाथ, महावीर स्वामी, पार्श्वनाथ, पद्मप्रभु: व संभवनाथ की प्रतिमायें विराजमान है। ये सभी जिन-प्रतिमायें मूलनायक की प्रतिमा से छोटी है। इसी गुफा में कायोत्सर्ग मुद्रा में बाहुबली स्वामी की मूर्ति बनी है। जिनकी ग्रीवा में, कटिभाग में, पैरों पर सर्प लिपटे हुये हैं। नाभि के ऊपर दोनों ओर दो चूहे बने हैं व दोनों हाथों पर दो छिपकलियां बनी हुई हैं। यह जिनबिम्ब अनूठा व दुर्लभ है। गुफा दो में 35 फीट ऊँची भगवान आदिनाथ जी की एक पाषाण प्रतिमा उकेरी गई है; जो खंडित थी, किन्तु अब अपने पूर्ण रूप में है। मूर्ति के अधोभाग में 6 खड्गासन प्रतिमायें व इनके नीचे 5 पद्मासन प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। प्रतिमा के दायीं ओर 16 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर मूर्ति भी चट्टान में उकेरी गई हैं। बड़ी प्रतिमा के चरणों के पार्श्व भागों में हाथियों पर खड़े चमरधारी इन्द्र भगवान की सेवा में लीन हैं। __गुफा नं. 3 में श्रेयांसनाथ भगवान की 16 फीट ऊँची 16वीं शताब्दी में निर्मित प्रतिमा स्थापित है। दो और प्रतिमायें 8-8 फीट ऊँची है। यहीं सं. 1717 में स्थापित शिलाखंडो पर चरण भी उत्कीर्ण हैं। . गुफा नं. 4 तीसरी गुफा के ऊपर है। 16वीं सदी की इस गुफा में तीन तीर्थंकर प्रतिमायें उत्कीर्ण है। ये सभी प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में है व लगभग 3.5 फीट ऊँची है। मध्य की प्रतिमा के दोनों ओर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमायें बनी है। इनके दोनों ओर धरणेन्द्र-पद्मावती की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। ये प्रतिमायें फणावली सहित हैं। गुफा नं 5 में दो जिन-प्रतिमायें है। इनमें से एक तीर्थंकर प्रतिमा है; किन्तु दूसरी प्रतिमा खड्गासन में भगवान बाहुबली की है। जो प्रथम गुफा में स्थित भगवान बाहुबली की प्रतिमा के ही सदृश्य है। गुफा नं. 6 पर्वत स्थित अंतिम गुफा है। यह गुफा (कंदरा) सबसे प्राचीन है व इसके मूर्तिलेखों में सं. 1283 साफ पढ़ा जा सकता है। इस गुफा में तीर्थंकर प्रतिमायें व तीन यक्ष प्रतिमायें हैं। एक प्रतिमा यक्षिणी अम्बिका देवी की है। जिसकी गोद में एक बालक ऊँगली पकड़े खड़ा है। तीर्थंकर प्रतिमाओं में एक प्रतिमा खड्गासन मुद्रा में व शेष पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। मध्य-भारत के जैन तीर्व- 151 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरीलागिरी यह अतिशय क्षेत्र अशोकनगर जिले के तहसील मुख्यालय चंदेरी से 7 किलोमीटर दूर स्थित है। ललितपुर से इस क्षेत्र की दूरी 30 किलोमीटर है। सिरसौद ग्राम से गुरीलागिरी मात्र 1.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां 12वीं सदी के विख्यात धर्मात्मा श्रद्धालु पाड़ाशाह ने एक मंदिर बनवाया था। इसके अतिरिक्त यहाँ अन्य जिनालय भी हैं। प्राचीन काल में यहाँ विशाल नगर था। क्योंकि यहाँ सैंकड़ों भवनों के भग्नावशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। मुगल शासकों ने यहाँ के मंदिरों व मूर्तियों को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोडी। यहाँ स्थित जिनालय जिस रंग के पाषाण से बने हैं, उस जिनालय में उसी रंग के पाषाण की मूर्तियां भी विराजमान है। स्थानीय निवासियों में इस क्षेत्र के प्रति अगाढ़ श्रद्धा देखने को मिलती है; इसीलिये स्थानीय लोग अपने बच्चों का मुंडन यहीं कराते हैं। यहाँ आकर लोग मनौती भी मांगते हैं व इच्छा पूर्ण होने पर पूजा-अर्चना करते व चढ़ावा भी चढ़ाते हैं। यह तीर्थ सुरम्य 'प्राकृतिक वातावरण के बीच घने वनों से आच्छादिक सुंदर पहाड़ी के ऊपर स्थित है। पर्वत की तलहटी में एक सुंदर तालाब बना है। पहले यहाँ हजारों जैन प्रतिमायें थीं; जो चोरी कर ली गई । यहाँ के क्षेत्र पर स्थित जिनालय का वर्णन इस प्रकार है शान्तिनाथ जिनालय- मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार के ऊपर एक छोटी सी तीर्थंकर प्रतिमा उत्कीर्ण है। उसके शिरोभाग के दोनों ओर हाथी बने हैं। इन्द्र-इन्द्राणी भगवान की सेवा में भक्ति भाव से बैठे हैं। इस जिनालय में भगवान शान्तिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में 16 फीट ऊँची प्रतिमा विराजमान हैं। सिर पर ऊपर तीन लोक के नाथ होने के कारण तीन छत्र सुशोभित हैं। छत्रों के ऊपर दुन्दिभिवादक हैं। चरणों के पार्श्व भागों में चमर लिये इन्द्र खड़े हैं। दो श्राविकायें भी पूजनरत उकेरी गई हैं। __इस जिनालय में एक शिलाफलक पर भगवान नेमिनाथ स्वामी की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा भी विराजमान है। दोनों पार्यों में अम्बिका की दो मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। एक अन्य जगह भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा के दोनों ओर दो-दो तीर्थंकर प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित है। दायीं ओर की प्रतिमा व पार्श्वनाथ स्वामी के सिर पर फणावली खंडित है। एक पद्मासन प्रतिमा जो खंडित है; यहाँ रखी 152 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। पांच बालयती तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी एक जगह विराजमान हैं । मध्य की प्रतिमा पद्मासन व शेष कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। 6 अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी यहाँ विराजमान हैं । चौबीसी जिनालय - यह जिनालय काले पाषाण से निर्मित हैं; जिसकी तीर्थंकर प्रतिमायें भी काले पाषाण से निर्मित हैं; सभी मूर्तियों की अवगाहना 4 फीट हैं। बाहुबली भगवान की प्रतिमा भी यहाँ रखी है । किन्तु ये सभी प्रतिमायें खंडित हैं । जिनालय के स्तंभों पर नृत्य मुद्रा में श्रावक-श्राविकायें उत्कीर्ण हैं। इस जिनालय में दो पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमायें 48 दल वाले कमल पर विराजमान है । इनके भी सिर नहीं है । यहाँ शेष जिनालय भग्न दशा में पड़े हैं लगभग 600 जिन - प्रतिमायें परकोटे की दीवाल में टिकाकर रखी हुई है। एक शिलाफलक पर उत्कीर्ण 24 तीर्थंकर प्रतिमाये सही हालत में हैं। मानस्तंभ भी हैं; जिसमें पद्मप्रभु की प्रतिमा है । मध्य-भारत के जैन तीर्थ = 153 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बूढ़ी चंदेरी चंदेरी से पिछोर, खनियाधाना शिवपुरी सड़क मार्ग पर चंदेरी से 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह क्षेत्र अतिप्राचीन है । वास्तव में प्राचीन चंदेरी यही है । यहाँ मुख्य सड़क से हटकर 5 किलोमीटर अंदर जाना पड़ता है। चंदेरी ईशागढ़ सड़क मार्ग पर स्थित भाण्डरी गांव से भियादान्त होते हुये भी यहाँ पहुँचा जा सकता है। इस मार्ग से बूढ़ी चंदेरी 21 किलोमीटर की दूरी पर है। यह घने जंगलों के बीच सुरम्य पर्वत पर स्थित है । यह तीर्थ मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिला के अर्न्तगत आता है । भारतीय पुरासंपदा की जितनी अधिक क्षति यहाँ पहुँचाई गई है; व तस्करी आदि के माध्यम में जो हानि पहुँचाई गई है उसका शब्दों से वर्णन करना कठिन है । तस्करों ने वर्षों तक यहां से हजारों मूर्तियों की तस्करी की है। 15वीं सदी के पहले तक यह चंदेरी एक बड़ा शहर था। फारसी इतिहासकार फरिस्ता व इब्नबतूता ने इसी चंदेरी का उल्लेख किया है । इन नगर को शिखर पर पहुंचाने का श्रेय चंदेल शासकों को जाता है; जिन्होंने यहां का खूब विकास किया। वर्तमान में यहाँ की अधिकांश शेष प्रतिमायें पुरातत्व विभाग ने वर्तमान चंदेरी स्थित संग्रहालय में सुरक्षित रख दी हैं । आमनचार यह तीर्थक्षेत्र चंदेरी - मुंगावली मार्ग पर स्थित सेहराई गांव से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दोनों ही जगह से यह 22 किलोमीटर दूर है । यहाँ गांव के भीतर बाहर, गालियों, बाजारों, घरों, कुओं, पेड़ों के नीचे सभी जगह जैन मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। गांव में एक जिनालय भी है; जिसमें प्राचीन काल का एक सहस्रकूट चैत्यालय भी स्थित है। यह शिल्प का एक अद्भुत नमूना है । यहाँ की मूर्तियां आदि 11-12वीं सदी की हैं भियादान्त यह तीर्थ क्षेत्र उर्वशी ( ओर) नदी के सुरम्य तट पर स्थित एक सुंदर पहाड़ी के ऊपर स्थित है वर्तमान में यह अशोकनगर जिले में आता है । यह स्थान चंदेरी ईसागढ़ रोड़ पर चंदेरी से 13 किलोमीटर दूर स्थित भाण्ड गांव से 5 किलोमीटर दूर कच्चे मार्ग पर स्थित है यहाँ चंदेरी ईसागढ़ रोड़ 154 ■ मध्य- भारत के जैन तीर्थ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर स्थित महौली गांव से भी पहुंचा जा सकता है। यहाँ से यह 5 किलोमीटर यहाँ के जिनालय में एक विशाल पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान हैं। प्रतिमा अत्यन्त सुंदर, आकर्षक, मनोज्ञ व प्रभावोत्पादक है। स्थानीय अहीर व गूजर इसे भीमसेन बाबा कहते हैं। ग्रामीण लोग इसे बैठादेव कहते हैं। बीठला यह तीर्थक्षेत्र भी चंदेरी-ईसागढ़ मार्ग पर चंदेरी से 13 किलोमीटर दूर स्थित भाण्डरी गांव से भियादान्त होते हुये भाण्डरी गांव से 8 किलोमीटर दूर है। महौली गांव से यह क्षेत्र 6 किलोमीटर दूर है। मार्ग कच्चा है। बीठला गांव से दो फर्लाग की दूरी पर एक प्राचीन जैन मंदिर स्थित है। इस जिनालय के आसपास भी अनेक खंडित प्रतिमायें पड़ी हुई हैं; जिसमें भगवान संभवनाथ व मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमाओं को पहचाना जा सकता है। यह जिनालय 10-12वीं सदी का है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 155 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक तीर्थ-क्षेत्र भद्दलपुर विदिशा व उदयगिरी की गुफायें भरत क्षेत्र के वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में से 10वें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ की गर्भ, जन्म व तप कल्याणक भूमि भद्दलपुर ही है; यह निर्विवाद सत्य है। पौराणिक भद्दलपुर के अन्य अनेक नाम भी मूर्तियों के नीचे दी गई प्रशस्तियों में मिलते हैं। ये नाम हैं-भद्दिलपुर, भद्रपुर, बेसनगर, विश्वनगर, वैश्यनगर, वैदिसा, बेदसा, भेलसा आदि। भगवान शीतलनाथ के चरण कमलों से यहां की धरा का कण-कण पवित्र है। यही नहीं पौराणिक गाथाओं में यह भी उल्लेख है कि भगवान नेमिनाथ का समवशरण भद्दलपुर आया था। भगवान महावीर स्वामी ने भी यहां आकर चातुर्मास किया था। श्वेतांबर ग्रंथ त्रिशष्टि शलाका में उल्लेख है, कि 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने यहां 5वां चातुर्मास किया था। उत्तर पुराण के अनुसार भगवान महावीर का समवशरण विदिशा के निकट रथावर्त पर्वत पर आया था। इस पर्वत का उल्लेख रामायण में भी आता है। विदिशा के पास स्थित उदयगिरी की गुफायें ही, जो एक पर्वत पर हैं; रथावत पर्वत है। कुजरावर्त पर्वत से आर्यवज्र स्वामी ने तपस्या कर मोक्ष प्राप्त किया था। डॉ. जगदीशचन्द्र ने अपनी पुस्तक 'भारत के प्राचीन तीर्थ' में इन्हीं दो पर्वतों को उदयगिरी कहा है। इस गिरी पर 20 प्राचीन गुफायें हैं। जिनमें से नं.1 व नं.20 गुफायें जैन गुफा मंदिर के रूप में है। गुफा नं.5 व 6 में उत्कीर्ण शिलालेख भी जैन आम्नाय से संबंधित है; जिनमें सिद्ध भगवान को नमस्कार किया गया है। ये गुफायें जैन श्रमणों की तपस्थली रही है। गिरनार गौरव' पुस्तिका पृ. 26-27 में लिखा है- "धर्मचक्र प्रवर्तन के लिये सर्वज्ञ प्रभु नेमिनाथ ने बिहार किया; वे भद्दलपुर गये और वहाँ देवकी के 6 पुत्रों को मुनि दीक्षा दी।" हरिवंश पुराण व महापुरण में भी इस तीर्थ का उल्लेख आता है। ग्वालियर गजेटियर के अनुसार पौराणिक काल में विदिशा का नाम भद्रावती या भद्रावतीपुरम था। जैन ग्रंथों में इसका नाम भद्दलपुर या भद्दिलपुर मिलता है। इसी गजेटियर में जैन श्रमण भद्रबाहु का उल्लेख भी मिलता है। जो ई.पू. 53 से 150 के बीच यहाँ से उज्जैन व फिर उज्जैन से यहाँ पधारे थे। मध्यप्रदेश गजेटियर खण्ड विदिशा में लिखा है "विदिशा जैनधर्म की पीठ रही है। 10वें तीर्थंकर शीतलनाथ जी का जन्म यहाँ हुआ था। आज भी शीतल जयन्ती यहाँ उत्साह पूर्वक मनाई जाती है।" जन्म पट्टावलियां एकमत से उल्लेख करती है कि मूलसंघ के प्रथम 26 भट्टारकों की पीठ भद्दलपुर रही है। शवें भट्टारक महाकीर्ति मुनिराज भद्दलपुर में हुये; किन्तु वे अपनी पीठ यहाँ से उज्जैन ले गये थे; (पीटरसन रिपोर्ट 1883-84 इन्डियन ऐण्टी क्वेरी 21 पृ. 58)। आज भी महाकीर्ति मुनिराज की दुर्लभ प्रतिमा 156 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदिशा के श्री शीतलनाथ दिगंबर जैन मंदिर में स्थापित है; जिसमें इनकी सल्लेखना का भी उल्लेख है। जिनालय- विदिशा नगर स्थित बड़े मंदिर में विराजमान भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा सं. 1534 में प्रतिष्ठित व अतिभव्य प्रतिमा है। विदिशा के इस जिनालय का नाम, श्री शीतलनाथ दिगंबर जैन मंदिर है। यह धवल श्वेत वर्ण की प्रतिमा है। सन् 1940 में ठाकुर भैरोंसिंह की विजय मंदिर के पास स्थित हवेली से एक विशाल पत्थर निकालते समय 10 फीट नीचे एक विशाल जैन मंदिर निकला। इस मंदिर में जमीन में दबी हुई सुन्दर व कलात्मक जैन दिगंबर प्रतिमायें निकली थीं। इनमें एक प्रतिमा भगवान शीतलनाथ की थी; इस मूर्ति के दोनों ओर चंवर लिये इन्द्र उत्कीर्ण हैं। शिरोभाग के दोनों ओर भी 7 जिन-प्रतिमायें 5 खड्गासन व 2 पद्मासन मुद्रा में उत्कीर्ण हैं। शासन देवियां भी बनी हुई हैं। प्रतिमा की ऊँचाई लगभग 5 फीट हैं। उदयगिरी की गुफायें- ये गुफायें विदिशा से 6 किलोमीटर व सांची से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां 2 किलोमीटर लंबी पहाड़ी पर गुफायें बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। प्राचीन भद्दलपुर पहले बेतवा नदी के इस पार और उस पार दोनों ओर लगभग 4-5 किलोमीटर विस्तार में बसा हुआ था। वर्तमान में उदयगिरी की विश्वप्रसिद्ध प्राचीन गुफायें वर्तमान विदिशा नगर से 3 किलोमीटर की दूरी पर बेतवा नदी के दूसरे किनारे पर स्थित हैं। इस गिरी पर कहने को तो 20 गुफायें हैं। किन्तु इनमें से गुफा क्र.1 देश की प्राचीनतम गुफाओं में से है। इस गुफा में जैनधर्म के 7वें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ की भव्य पाषाण प्रतिमा विराजमान हैं। समीपवर्ती प्राकृतिक दीवाल पर भी कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। प्रतिमा के दोनों ओर चांवरधारी इन्द्र, हाथी, शेर आदि भी उत्कीर्ण हैं। पहाड़ी के उत्तरी छोर पर गुफा क्रमांक 20 स्थित हैं। इस गुफा में 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की 10वीं सदी की 4.25 फीट ऊँची भूरे रंग की अतिमनोज्ञ प्राचीन पाषाण प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा पद्मासन में स्थित है। एवं इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि अष्ट प्रतिहार्यों से युक्त है। मस्तक के ऊपर सात फणावली अवस्थित है। गंधर्व देव, अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें, शार्दूल, गज, चमरधारी इन्द्र भी प्रतिमा के परिकर में उत्कीर्ण हैं। आगे के कक्ष में दो पद्मासन प्रतिमायें भगवान पार्श्वनाथ की उत्कीर्ण हैं। प्रतिमाओं के मध्य में विद्याधर पूजा की सामग्री लिये खड़े हैं। एक अन्य भीतरी कक्ष में 8.5 फीट ऊँची भगवान आदिनाथ की प्रतिमा भी उत्कीर्ण हैं। चेहरे के पीछे भव्य भामंडल का अंकन भी है। यक्ष-यक्षिणी, चमरधारी इन्द्र भी परिकर में उत्कीर्ण हैं। मुनियों की तपस्या के लिये दोनों ही कक्षों में गुफानुमा स्थान उत्कीर्ण किय गये हैं। यहाँ गुप्त सं. 106 का भी भित्ति पर उल्लेख है। यह मध्यप्रदेश में प्राप्त जैन अभिलेखों में सबसे प्राचीन है, जिसमें पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति की प्रतिष्ठा का उल्लेख है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 157 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति लेख का आशय निम्नलिखित है- “ सिद्धो को नमस्कार हो । वैभव संपन्न, गुणों के समुद्र गुप्त वंश के राजाओं के राज में सं. 106 के कार्तिक मास की कृष्ण पंचमी के दिन गुफा के द्वार पर विस्तृत सर्पफण से युक्त शत्रुओं को जीतने वाले जिन श्रेष्ठ पार्श्वनाथ की मूर्ति शमदम युक्त शंकर ने बनवायी जो आचार्य भद्र के अन्वय के भूषण और आर्य कुलोत्पन्न आचार्य गोशर्म मुनि का शिष्य था। दूसरों द्वारा अजेय, शत्रुओं का विनाश करने वाले अश्वपति संघिल भट और पद्मावती का पुत्र था । शंकर इस नाम से विख्यात था और यतिमार्ग में स्थित था । वह उत्तर कुरुओं के सदृश्य उत्तर दिशा के श्रेष्ठ देश में उत्पन्न हुआ था । उसके इस पावन कार्य में जो पुण्य हुआ हो, वह सब कर्मरुपी समूह के क्षय के लिये हो ।" यह कुमार गुप्त के शासन काल में था । इसी गुफा की पश्चिमी दीवाल पर एक आला बना हुआ है। इस आले में भगवान शीतलनाथ के चमत्कारी चरण-चिह्न उत्कीर्ण हैं; जिनके दर्शन मात्र से लोगों के पाप धुल जाते हैं, व दर्शनार्थी की भावनायें पवित्र होने लगती हैं। गुफा भित्ति पर भी चार जिन - प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं व एक तीर्थंकर मूर्ति विराजमान है। यह मूर्ति, मूर्ति-भंजकों द्वारा ध्वंस की गई है। इस मूर्ति के पास ही एक शिलालेख है; जिस पर भगवान पार्श्वनाथ की जिन-प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख है । एक अन्य प्राचीन जिनालय में पहाड़ी पर 4.5 फीट ऊँची 5 फणावली युक्त जिसके परिकर में छत्र, आकाशगामी गंधर्व, यक्ष, यक्षिणी (मानवी / काली), श्रावक-श्राविकायें आदि उत्कीर्ण हैं; भगवान सुपार्श्वनाथ की भव्य प्रतिमा विराजमान है । यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में है। परिकर में कुछ अन्य छोटी-छोटी 2 तीर्थंकर प्रतिमायें भी है। जिनालय - गुफाओं के पास एक धर्मशाला का निर्माण किया गया है; जिसमें भी एक जिनालय में नवीन जिनबिम्ब की स्थापना की गई है । अन्य जिनालय - इसी प्रकार गुफाओं की ओर जाते समय मार्ग में एक परकोटे में बगीचा स्थित है । इस बगीचे में भी एक जिनालय स्थित है; जिसमें खड्गासन मुद्रा में भगवान शीतलनाथ का विशाल जिनबिम्ब प्रतिष्ठित है । उदयगिरी स्थित गुफा क्रं 6 व 7 में भी शिलालेख उत्कीर्ण हैं । इस शिलालेख में सिद्ध भगवंतों को नमस्कार किया गया है। ये गुफायें जैन श्रमणों की साधना स्थली रही है । विदिशा में दो से अधिक दिगंबर धर्मशालायें स्थित है; जहां ठहरने की आधुनिकतम सुविधायें उपलब्ध हैं । एक जैनधर्मशाला उदयगिरी में भी स्थित है; जहां सभी आधुनिकतक सुविधायें उपलब्ध हैं । दक्षिण भारत के जैन बद्री स्थित, एक शिलालेख में उल्लेख है कि प्रमुख जैन संत आचार्य समन्तभद्र स्वामी विदिशा आये थे; व उन्होंने यहां आकर जिनशासन की ध्वजा पताका फहराई थी। विदिशा -नगर में अनेक भव्य जिनालय स्थित हैं। श्रद्धालुओं को यहां के दर्शन भी करना चाहिये । विदिशा नगर दिल्ली-भोपाल रेलमार्ग पर भोपाल से पहले का स्टेशन है । यहां कुछ लंबी दूरी की रेलगाड़ियां रुकती हैं। बस मार्ग से यह भोपाल से लगभग / 158 ■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । विश्वप्रसिद्ध सांची के स्तूप विदिशा नगरी से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यात्रियों को यहां के दर्शन कर अवश्य ही धर्मलाभ लेना चाहिये । उदयपुर यह स्थान विदिशा से 45 किलोमीटर उत्तर में है। इस नगर की स्थापना राजा भोज के भाई उदयादित्य ने की थी । वर्तमान में यहाँ एक जिनालय भग्न दशा में है; जिसमें कई विशाल तीर्थंकर मूर्तियाँ अवस्थित हैं । ये मूर्तियाँ काफी प्राचीन 10वीं शताब्दी के पूर्व की लगती हैं 1 पठारी यह विदिशा से उत्तर-पूर्व दिशा में 80 किलोमीटर दूर गडोरी ज्ञाननाथ पहाड़ियों के बीच स्थित है। यहाँ 47 फीट ऊँचा मूर्तिविहीन एक मानस्तंभ है । यहाँ सभी धर्मों के धर्मस्थल बने हैं। पहाड़ी के दक्षिण-पूर्व में बढ़ोह ग्राम के पास विशाल कलापूर्ण अलंकृत एक गडरमल नाम का विशाल मंदिर बना है । कहते हैं यह जिनालय एक गडरिये ने बनवाया था; जो भेड़ें चराता था; किन्तु कई दिनों से इसके समूह में एक भेड़ आकर मिल जाती व शाम को झुंड से अलग हो वापिस चली जाती। एक दिन गड़रिये ने उस भेड़ का पीछा किया; तो वह एक गुफा में पहुंचा जहाँ भेड़ तो नहीं एक मुनि तपस्यारत थे । गड़रिये ने उनसे भेड़ की चराई मांगी। तो मुनि ने उसकी झोली में कुछ डाल दिया । घर जाकर देखने पर ये मक्के के दाने थे; जिसे गड़रिये ने क्रोध में आकर एक कंडों के ढेर में फेंक दिया। उनके प्रभाव से सारे कंडे सोने के हो गये । प्रसन्न हो इसी गड़रिये ने यह जिनालय व इसके आसपास तालाब आदि बनवाये । इस मंदिर के उत्तर-पश्चिम में पहाड़ी की तलहटी में जैन मंदिरों का एक समूह है। ये 8वीं शताब्दी के है; जो जीर्ण हालत में हैं । किन्तु इनमें कुछ वेदियां व मूर्तियों ठीक हालत में हैं । मूर्तियां 8 फीट से 12 फीट ऊँची हैं तथा कायोत्सर्ग व पद्मासन दोनों मुद्राओं वाली है। एक जगह चरण - चिह्न भी विराजमान है । यहीं ज्ञाननाथ पहाड़ी पर एक 3 भाग वाली गुफा है; जहां गड़रिये को मुनि श्री के दर्शन हुये थे । इस गुफा में अलंकृत खंबे हैं। जिन पर जैन मूर्तियां बनीं हुई हैं। ग्यारसपुर 1 यह विदिशा सागर मार्ग पर विदिशा से 38 किलोमीटर दूर दो प्राकृतिक सुंदर पहाड़ियों के मध्य बसा है । यह शीतलनाथ भगवान की तपोभूमि है । यहाँ वज्रमठ व मालादेवी ये दोनों जैन मंदिर हैं। इनका शिल्प सौष्ठव अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का है इसे अतिशय क्षेत्र भी कहते हैं । यहाँ नगर के जिनालय में 5 फीट ऊँचे प्रस्तर खंड में 24 तीर्थंकरों की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं; जिनके मध्य में भगवान पार्श्वनाथ की सप्तफणी प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित है। परिकर में पुष्पमाला लिये देवियां, मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 159 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M.IHAR लियोडोरस मोडोरस स्तम्भ यारसपर साधी धरणेन्द्र पद्मावती की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। यह प्रतिमा 10वीं सदी की हैं व चंदेल शैली की हैं। जिनालय के ऊपर स्थित वेदिका में नवीन जिनबिम्ब विराजमान है। मालादेवी जिनालय 2 फर्लाग दूर है। यह जिनालय नागर-शैली का है। इसके गर्भगृह में 5.25 फीट ऊँची भगवान शान्तिनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसके परिकर में तीन छत्र, आकाशचारी गंधर्व, चमरेन्द्र, यक्ष- यक्षिणी व गज बने हैं। दायीं ओर 5 फीट 5 इंच ऊँची एक कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान है। यहीं दीवाल के सहारे 4.5 फीट तथा 3.25 फीट ऊँची पद्मासन प्रतिमायें भी विराजमान हैं। एक अन्य गर्भगृह में 10.5 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा व 7 अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं। ये सभी 2 फीट से 3 फीट ऊँची कुछ पद्मासन व कुछ कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। बायीं ओर की दीवाल में भी 5 फीट 3 इंच ऊँची भगवान शान्तिनाथ जी की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा विराजमान है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर भगवान शान्तिनाथ की यक्षिणी महामानसी का सुंदर अंकन है। इस जिनालय की सुर सुन्दरी नामक मूर्ति को विश्व मूर्तिकला प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हो चुका है। मंदिर परिसर में चार चरण-चिह्न भी बने हैं, जिनके पास एक तीर्थंकर प्रतिमा भी उत्कीर्ण है। इससे स्पष्ट होता है कि यह मुनियों की तपोभूमि रही हैं। एक अन्य स्थान पर 1 चरण-चिह्न और अंकित है। वज्रमठ- यहां से दो फर्लाग की दूरी पर वज्रमठ जिनालय है। यह जिनालय खजुराहो के पार्श्वनाथ जिनालय के सदृश्य है। इस जिनालय में तीन गर्भगृह हैं। मध्य के गर्भगृह में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की 7 फीट ऊँची पद्मासन प्रतिमा आसीन है। जिसके परिकर में तीन छत्र, भामंडल, गज, गंधर्व, चमरेन्द्र आदि उत्कीर्ण हैं। परिकर में दो पद्मासन व दो कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। बायीं ओर के गर्भगृह में लगभग 8 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान हैं। परिसर में छत्र, चैत्यालय स्थित प्रतिमायें आदि बनीं हैं। दायीं ओर के गर्भगृह में लगभग 5 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान है। परिकर में तीन छत्र, गंधर्व आदि उत्कीर्ण है। पास में 2 फीट ऊँची एक पद्मासन प्रतिमा भी कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। इस जिनालय की बाह्य भित्तियां अलंकृत हैं। ये सभी जिनालय 9-10वीं शताब्दी के बीच के निर्मित हैं। 160 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदेश के अन्य तीर्थ मक्सी पार्श्वनाथ यह तीर्थ-क्षेत्र उज्जैन से 38 किलोमीटर, इंदौर से 72 किलोमीटर व मक्सी रेल्वे स्टेशन से 3 किलोमीटर दूर है। यह शाजापुर जिले में स्थित है। महमूद गजनवी ने मक्सी पहुंचकर रात्रि विश्राम किया व यहाँ के पार्श्वनाथ मंदिर व मूर्ति को तोड़ने की योजना बनाई। किन्तु रात को वह भयानक रूप से बीमार पड़ गया । यह सोच कि यह भगवान पार्श्वनाथ का चमत्कार है; उसने फौज को आदेश दिया कि इस मंदिर व मूर्ति को कोई नुकसान न पहुँचाया जावे। प्रायश्चित स्वरूप उसने मंदिर के मुख्य द्वार पर ईरानी शैली के 5 कंगूरे बनवाये जिससे भविष्य में भी कोई मुस्लिम इसे हानि न पहुँचाये। ये अभी भी बने हैं। ... एक जनश्रुति के अनुसार कुछ चोर ताला तोड़ कर चोरी के इरादे से यहाँ घुसे, किन्तु जब उन्होंने गठरी बांध ली तो अंधे हो गये व रात भर रास्ता खोजने पर भी उन्हें रास्ता नहीं मिला। सुबह वे माल सहित पकड़े गये। औरतें आज भी ब्याह शादियों में गीत गाती हैं। "मक्सी के पारसनाथ, बन्ना/बन्नी (दूल्हा/ दुल्हन) पर रक्षा कीजिये।" इन सब बातों से इस तीर्थ-क्षेत्र का महत्व स्वतः सिद्ध है। ___ मदनकीर्ति व आचार्य जिनप्रभ सूरि ने इस तीर्थ-क्षेत्र का वर्णन किया है। ये 13वीं सदी के थे। इससे स्पष्ट है कि इस मंदिर का अस्तित्व 11वीं सदी के पहले से है। स्थानीय लोग इसे पहले भैरों के नाम से पूजते थे, सिंदूर आदि लगाते थे; क्योंकि एक प्रचलित कथा के अनुसार एक ब्राह्मण यहाँ प्याऊ चलाता था। स्वप्न में उसे प्याऊ के नीचे भगवान के दबे होने की बात पता चली। उसने खोदा तो यह मूर्ति निकली। कहा जाता है कि शाजापुर के एक दिगंबर जैन श्रावक ने एक विशाल जिनालय बनाकर उसमें इस मूर्ति को प्रतिष्ठित कराया था। यह प्रतिमा काले पाषाण से निर्मित अतिभव्य व मनोहारी पद्मासन मुद्रा में आसीन है। प्रतिमा की अवगाहना 3.5 फीट लगभग है। मूर्ति के सिर पर 7 नाग छाया किये हुये हैं। परिकर में गज, श्रावक-श्राविका व चामरधारी इन्द्र भी बने हैं। मूलवेदी के दायें, बायें स्थित पार्श्व वेदिकाओं पर क्रमशः नेमिनाथ व पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमायें विराजमान हैं। इनके भी पार्श्व में कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान है। ___टीकमगढ़ निवासी चौ. लक्ष्मणदास प्राणसुखदास ने यहाँ छोटे मंदिर का निर्माण कराया था। बड़े मंदिर की वेदी में परिक्रमा-पथ में 42 छोटे-छोटे देवालय बनें है; जिनमें 38 जिनबिम्ब स्थापित हैं। इनकी स्थापना सं. 1548 मध्य-भारत के. जैन तीर्य--161 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जीवराज पापड़ी वाले ने कराई थी। छोटे मंदिर जी में सं. 1899 में प्रतिष्ठित कृष्ण वर्ण की 2.5 फीट ऊँची भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। सुपार्श्वनाथ के पार्श्व में मुंगिया वर्ण की भगवान महावीर स्वामी व सुपार्श्वनाथ की पद्मासन मूर्तियां विराजमान हैं। ये 1.8 फीट अवगाहना की है। कुछ अन्य प्रतिमायें भी विराजमान है। महामंडप में 5 फीट ऊँची कृष्ण वर्ण की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा भी विराजमान है। यात्रियों को रुकने के लिये धर्मशालायें भी हैं। गुरुकुल संचालित हैं। व मेला फाल्गुन शुक्ल 8 से 15 तक लगता है। उज्जैन भगवान महावीर स्वामी पर मुनि अवस्था में घोर उपसर्ग यहीं के अतिमुक्तक श्मशान घाट पर (परीक्षा हेतु) महादेव रुद्र ने किया था। यहीं अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु संघ सहित पधारे थे तथी निमित्त ज्ञान से पता चला कि यहाँ 12 वर्ष का घोर अकाल पड़ने वाला है। वे बिना आहार लिये व राजा चन्द्रगुप्त को दीक्षा दे व अपने साथ ले यहाँ से दक्षिण भारत चले गये थे। चन्द्रगुप्त का नाम दीक्षा के बाद विशाख रख दिया गया। इस अकाल के समय उत्तर भारत के साधु भ्रष्ट होकर श्वेत वस्त्र धारण करने लगे थे व मुनि आचार के विरुद्ध आचरण करने लगे थे। ऐसा आचार्य विशाख ने लौटने पर देखा। इस तरह यहीं से श्वेतांबर पंथ प्रारंभ हुआ। यहीं अकंपनाचार्य व उनके संघ के साथ बलि का विवाद हुआ था। ऐसी अनेक कथायें उज्जैन से जुड़ी है। - ग्रंथों में ईसा की प्रथम शताब्दी से चौदहवीं सदी तक मंगलपुर के अभिनंदन नाथ भगवान का जिक्र आता है। आचार्य जिनप्रभ सूरि ने मंगलपुर के निकट मेदपल्ली से अभिनंदन नाथ की मूर्ति होने का उल्लेख किया है; जो अतिशयकारी थी व 9 खंड होने पर भी स्वतः जुड़ गई थी। वर्तमान में यह कहना कठिन है कि वह प्रतिमा किस स्थान पर विराजमान थी। उज्जैनी चन्द्रगुप्त की उप-राजधानी थी। बदनावर धार जिले की एक तहसील, परमार युग में इसका नाम वर्द्धनापुर था। यहाँ के संग्रहालय में 27 जैन प्रतिमायें 9वीं से 14वीं शताब्दी के बीच की रखीं हैं। इंदौर से यह 90 किलोमीटर दूर बलवन्ती नदी के किनारे है। इसके वर्धनपुर; वर्धमानपुर नाम भी प्राप्त होते हैं। 162 - मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधर्वपुरी यह देवास जिले के तहसील मुख्यालय से 9 किलोमीटर दूर सोमवती (सोनवती) नदी के तट पर स्थित है। यहाँ तक पक्की सड़क है। इसका प्राचीन नाम गंधावल है। यह हिन्दू व जैनों का केन्द्र रहा है। यहाँ ग्राम पंचायत भवन के समीप पुरातत्व विभाग के व शीतला माता के चबूतरे पर ग्रामवासियों ने पुरातत्व साम्रगी को इकट्ठा करके रखा है। भगवान ऋषभदेव की एक प्रतिमा जिनके कंधों पर जटायें हैं, पुरातत्व सामग्री के साथ जमीन पर लेटी है। चरणों के दोनों ओर क्रमशः गोमुख यक्ष व चक्रेश्वरी यक्षिणी का अंकन हैं। दूसरी प्रतिमा गांव के बीच चमरपुरी की मात नामक एक पतली गली के किनारे किसी प्राचीन भग्न मंदिर के टीले पर खड़ी है, जो घुटनों तक भूमि में दबी है। ऊपर निकला भाग 9.5 फीट का है। यह दोनों प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। दोनों पार्यों में 6.5 फीट ऊँचे चमरेन्द्र बने हैं। चक्रेश्वरी के 20 हाथ हैं। यहाँ पार्श्वनाथ, महावीर, शान्तिनाथ, पद्मप्रभु सुमतिनाथ भगवान की मूर्तियां भी हैं। चूलगिरी यह म. प्र. के बडवानी जिलान्तर्गत आता है। यहाँ से कुंभकर्ण, इन्द्रजीत आदि मोक्ष गये। इसे चूलाचल ने नाम से भी जानते हैं। क्षेत्र पर 1380 में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं की संख्या सबसे ज्यादा है। मदनकीर्ति ने (12वीं शदी) यहाँ भगवान आदिनाथ की 50 हाथ ऊँची मूर्ति का जिक्र किया था। यह नगर पहले वृहदपुर के नाम से विख्यात था। पद्मपुराण "विन्ध्यवन की महाभूमि में जहाँ इन्द्रजीत के साथ मेघवाहन मुनिराज विराजमान रहे। मेघरव नाम का तीर्थ बन गया तथा रजो व तमोगुण से रहित महामुनि कुंभकर्ण योगी नर्मदा के जिस तीर से निर्वाण को प्राप्त हुये वह पिठरक्षत नाम का तीर्थ बना। पद्मपुराण "रावण की मृत्यु के बाद 56000 आकाशचारी मुनियों के साथ अनन्तवीर्य मुनिराज लंका पधारे। उन्हें रात्रि में केवलज्ञान प्राप्त हो गया। तब देवों ने आकर केवलज्ञान की पूजा की व गंधकुटी की रचना की। राम, लक्ष्मण, वानरवंशी, ऋक्षवंशी व राक्षसवंशी सभी लोग केवली के दर्शनों को आये व केवली का उपदेश सुन वहीं इन्द्रजीत, मेघनाथ, कुंभकर्ण, मारीच आदि ने लंका के कुसुमायुध उद्यान में व उनके समीप मुनि दीक्षा ले ली। 84 फीट ऊँची, भगवान आदिनाथ जी मूर्ति 29 फीट 6 इंच चौड़ी है जिनके पैर की लंबाई 13 फीट 9 इंच, नाक 3 फीट 11 इंच, आंख 3 फीट 3 इंच, कर्ण 9 फीट 8 इंच, पांव के पंजे की चौड़ाई 5 फीट है। एक लेख सं. 1223 का है। जीर्णोद्वार सं. 1516 में हुआ। निर्माण अर्ककीर्ति ने कराया था। मुख्य मंदिर के निकट 10 जिनालयों का निर्माण 15वीं सदी में हुआ था। बड़वानी के दिगंबर जैन मंदिर में सं. 1380 की भगवान नेमिनाथ की भव्य प्रतिमा विराजमान है। मारत और तीर्थ- 163 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र.. 1. नेमिनाथ जिनालय- इस जिनालय में 1 फीट 2 इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा कृष्ण वर्ण की सं. 1939 में प्रतिष्ठित है, भगवान नेमिनाथ की विराजमान है। भगवान चन्द्रप्रभु की 2 फीट 1 इंच ऊँची श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा भी विराजमान है। 2. आदिनाथ जिनालय- यहां 3 फीट 8 इंच ऊँची देशी पाषाण से निर्मित सं. 1380 में प्रतिष्ठित भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। बगल के गर्भगृह में 3 फीट 3 इंच ऊँची नेमिनाथ भगवान की 1967 में प्रतिष्ठित पदमासन प्रतिमा, पार्श्वनाथ की 3 फीट 5 इंच ऊँची सं. 1939 में प्रतिष्ठित व 3 फीट 5 इंच ऊँची खड्गासन भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा भी विराजमान है। अन्य गर्भालय में 10 फीट ऊँची भगवान शान्तिनाथ की सं. 1380 में प्रतिष्ठित कायोत्सर्ग मुद्रा में आसीन है। परिकर में सभी हैं। दायें-बायें कुंथुनाथ व अरहनाथजी की प्रतिमा आसीन है। 3. पार्श्वनाथ जिनालय- यहां 4 फीट 7 इंच ऊँची पद्मासन मुद्रा में सं. . 1242 में प्रतिष्ठित प्रतिमा विराजमान है। ___ 4. 84 फीट ऊँची भगवान आदिनाथ की प्रतिमा पहाड़ी में उकेरी गई है। जिसका विवरण ऊपर दिया जा चुका है। 5. आदिनाथ जिनालय- यहां सं. 1380 में प्रतिष्ठित पद्मासन प्रतिमा 2 फीट ऊँची विराजमान है। अन्य प्रतिमायें भी हैं। पहाड की चोटी पर चूलगिरी जिनालय में निम्नांकित प्रतिमायें विराजमान हैं 6. इस विशाल जिनालय में मुनियों के चरण-चिह्न, चन्द्रप्रभु, मल्लिनाथ के अलावा 36 प्रतिमायें और हैं। 14 मूर्तियों पर सं. 1380 लिखा है। इन प्रतिमाओं में 7 श्वेत, 6 कृष्णवर्ण व 13 भूरे रंग की हैं। 4 शिलालेख क्रमशः 1116, 1223 व 1508 के हैं। परिसर में 22 खंडित मूर्तियां रखीं हैं। इनमें 4 फीट 4 इंच ऊँची नेमिनाथ व 4 फीट 3 इंच ऊँची पार्श्वनाथ की प्रतिमायें प्रमुख हैं। मंदिर के पृष्ठ में 2 फीट 2 इंच ऊँची नग्न हाथ जोड़े 1 फीट 8 इंच ऊँची मूर्ति, मुनिमूर्ति 2 हैं। इस जिनालय में स्थित जिनबिंब अधिकांश पदमासन मुद्रा में किंतु विशालकाय हैं। तलहटी में मानस्तंभ सहित 20 जिनालय है। मुनिसुव्रतनाथ भगवान की दो प्रतिमायें सं. 1131 की हैं। धर्मशालायें, शिकार की मनाही, वार्षिक मेला पौष सुदी 8 से 15 तक लगता है। तालनपुर यह क्षेत्र धार जिले के कुक्षि से 3 किलोमीटर दूर है, बड़वानी से यह 22 किलोमीटर है। क्षेत्र तक पक्की सड़क है। एक विशाल दिगंबर जैन मंदिर में 2.6 फीट अवगाहना की पद्मासन पाषाण प्रतिमा भगवान मल्लिनाथ की विराजमान है। यह प्रतिमा सं. 1325 की है। जिनालय में बिना लेखवाली अन्य 164 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषाण प्रतिमायें भी हैं। ये प्रतिमायें किसान को खेत में हल जोतते समय हल रुक जाने से स्वप्न देकर खुदाई में प्राप्त हुई थी। कुल 13 प्रतिमाओं में से 8 श्वेतांबर ले गये। शेष 5 प्रतिमाओं को यहाँ विराजमान कर विशाल जिनालय बनवाया गया; क्योंकि गाड़ी में ले जाने का प्रयास करने पर गाड़ी के पहिये जाम हो गये। जहाँ मूर्तियां मिली थी, वहाँ छत्री बनाकर चरण स्थापित किये गये थे। श्वेतांबरों ने भी यहाँ पृथक जिनालय बनवाकर आठों प्रतिमायें उस जिनालय में स्थापित कराई थीं। क्षेत्र पर धर्मशाला भी हैं। पावागिरी यह सिद्धक्षेत्र है; जहाँ से स्वर्णभद्र आदि मुनि मोक्ष गये थे। एक पावागिरी (पवाजी) ललितपुर उ.प्र. में हैं उनकी भी ऐसी ही मान्यता है। उक्त क्षेत्र का वर्णन इसके पूर्व हम कर चुके हैं। स्वर्णभद्र, उज्जयनी नरेश श्रीदत्त के पुत्र थे। ऊन के राजा बल्लाह ने यहाँ स. 1195 में 100 मंदिरों को निर्माण कराया था। यहाँ सं. 1218, 1252, 1263 की मूर्तियां हैं। मूर्तियों के नीचे प्रशस्ति पर प्रतिष्ठाकाल सं. 299 अंकित हैं। यहीं बेलना नदी बहती है जो चेलना का अपभ्रंस बताया जाता है। यहाँ 5 मूर्तियां व चरण भूगर्भ से मिले। ये प्रतिमायें लगभग 2 फीट ऊँची हैं। धर्मशाला के पीछे एक मूर्ति मिली थी (संभवनाथ की) 2 फीट 8 इंच, सं. 1218। जिनालय 1. चौबारा डेरा नं. 1- इसमें पार्श्वनाथ भगवाना की प्रतिमा 5 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में आसीन है। 3 खंडित प्रतिमायें भी। भग्न जिनालय। 2. चौबारा डेरा नं. 2- (नहाल अवाल का डेरा) जीर्ण- कोई प्रतिमा नहीं। ____3. ग्वालेश्वर मंदिर- पहाड़ी पर, नीचे गर्भगृह में तीन विशाल प्रतिमायें योगासन मुद्रा में हैं। भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ की विशाल प्रतिमायें क्रमशः 12 फीट 9 इंच व 8-8 फीट ऊँची अतिभव्य हैं। वर्तमान जिनालय 1. महावीर जिनालय- सं. 1252 में स्थापित इन जिनालय में 2 फीट 2 इंच ऊँची भगवान पद्मप्रभु व आदिनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। 8 धातु प्रतिमायें भी वेदिका पर विराजमान है। 2. महावीर जिनालय- इसमें 1 फीट 9 इंच ऊँची पद्मासन मुद्रा में महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापित हैं। 3. चन्द्रप्रभु जिनालय- इसमें 11 फीट ऊँची पद्मासन में श्वेत वर्ण की भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा स्थापित है। पार्श्व में शान्तिनाथ भगवान की धवल प्रतिमा विराजमान है। 4. मानस्तंभ 5. पंचपहाड़ी- 1. बाहुवली, 2. चरण-चिह्न-शान्तिसागर, 3. शान्तिनाथ जिनालय, 4. शान्तिनाथ, 5. पार्श्वनाथ एवं 6. आदिनाथ स्वामी का जिनालय। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 165 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनैडिया बनैडिया अतिशय क्षेत्र इंदौर जिले में स्थित है। इस क्षेत्र की दूरी इंदौर से 15 किलोमीटर है। इंदौर से इस क्षेत्र तक बसें चलती हैं। यह पश्चिमी रेल्वे पाविमा रेल्वे स्टेशन से 29 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ऐसी किंवदन्ती है कि कोई यति गुजरात के किसी स्थान से मंत्रवल से एक जिनालय को कहीं ले जा रहा था। किसी कारणवश उस यति को बनैड़िया में उतरना पड़ा। वह यति प्रयास करने पर भी इस जिनालय को आगे नहीं ले जा सका। तब से यह जिनालय बनैडिया में ही स्थित है। इसीलिये कहा जाता है। कि इस जिनालय की नींव नहीं है। इसे उड़ा हुआ जिनालय भी कहते हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर धर्मशाला, तालाब, कुएं आदि स्थित हैं। यहाँ सभी धर्मों के लोग बड़े ही श्रद्धा भाव से भगवान के दर्शन करने आते हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर चैत्र सुदी 13 से 15 तक वार्षिक मेला भी लगता है। ____ 1. प्राचीन जिनालय- यह वही जिनालय है; जिसका ऊपर वर्णन किया जा चुका है। इस जिनालय की वेदिका पर मूलनायक के रूप में दूसरे तीर्थंकर भगवान अजितनाथ की श्वेतवर्ण की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं। इस प्रतिमा की अवगाहना 3 फीट 88 इंच है। यह प्रतिमा सं. 1548 की है वेदिका पर 1548 में ही प्रतिष्ठित 48 जिन-प्रतिमायें और भी विराजमान हैं। इन सभी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा श्री जीवराज पापड़ीबाल, उनकी माता श्री एवं उनकी धर्मपत्नी ने कराई थी। इन जिनालय में भगवान आदिनाथ की दो प्रतिमायें 3 फीट 3 इंच व 2 फीट 8 इंच अवगाहना की, भगवान अजितनाथ की दो प्रतिमायें क्रमशः 2 फीट इंच व 2 फीट 8 इंच अवगाहना की व भगवान चन्द्रप्रभु की एक प्रतिमा जो श्वेत पाषाण से निर्मित है व अतिभव्य तथा मन को आल्हादित करने वाली है; भी इस वेदिका पर विराजमान है। इस वेदिका पर कुछ प्रतिमायें सं. 1678 से 1784 के बीच की भी विराजमान है। 2. नवीन जिनालय- यह नवनिर्मित जिनालय है। इसमें चार वेदिकायें बनी है। सामने प्रथम वेदिका पर भगवान अजितनाथ की प्रतिमा के साथ सात अन्य पाषाण प्रतिमायें विराजमान हैं। बायीं ओर स्थित वेदिका पर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के साथ 21 अन्य प्रतिमायें भी विराजमान हैं। दाईं ओर स्थित वेदिका पर भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। साथ में वेदिका पर 34 अन्य जिनबिम्ब विराजमान हैं। चौक में स्थित वेदिका पर प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान हैं। चबूतरे पर स्थित गंधकुटी में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान हैं। इंदौर आने वाले तीर्थयात्रियों को इस पावन तीर्थ के दर्शन अवश्य करना चाहिये। 166 - मध्य-भारत के जैन तीर्य Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध क्षेत्र सिद्धवरकूट अतिपावन यह सिद्धक्षेत्र रेवा (नर्मदा) नदी के दायें किनारे (नदी के पश्चिमी तट) पर स्थित है। निर्वाण काण्ड में लिखा है "रेवा नदी सिद्धवर कूट, पश्चिम दिशा देह जहं छूट। द्वै चक्री दश कामकुमार, उठ कोड़ि वन्दौ भव पार।।" . अर्थात् इस क्षेत्र से दो चक्रवर्ती, 10 कामदेव व 3.5 करोड़ मुनिराज मोक्ष गये। इसी तीर्थ-क्षेत्र को सिद्धवरकूट के नाम से जानते हैं। सनतकुमार व पद्मनाभ चक्रवर्ती यहाँ से मोक्ष गये। ____ इस तीर्थ-क्षेत्र के प्रकाश में आने की भी एक कथा है। कार्तिक कृष्ण 14 संवत् 1935 को इंदौर पट्ट के भट्टारक श्री महेन्द्र कीर्ति ने स्वप्न में इस तीर्थ-क्षेत्र के दर्शन किये। वे स्वप्न में देखे स्थलों की खोज में नर्मदा नदी के किनारे-किनारे चल दिये। वे नदी के पश्चिमी तट के किनारे किनारे जा रहे थे कि जंगल में उन्हें पहले भगवान चन्द्रप्रभु की मूर्ति व कुछ आगे चलकर भगवान आदिनाथ की प्रतिमा मिलीं। और-आगे चलने पर उन्हें भग्न हालत में दिगंबर जैन मंदिर मिले। उन्हें स्वप्न में दिखे स्थान व इस स्थान में साम्य लगा; अतः उन्होंने इसे ही सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र माना। तब से लेकर आज तक इस पावन पुनीत क्षेत्र के दर्शन करने प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं। इस क्षेत्र के समीप ही ओंकारेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर है; जो नदी की दो धाराओं (नर्मदा व कावेरी) के बीच स्थित मान्धाता टापू पर बना है। यात्री नदी के पूर्वी तट (बायें किनारे) पर पहुंचकर नावों के माध्यम से नदी को पार कर सिद्धवरकूट तीर्थ पहुँचते हैं। ___ 'मध्यप्रदेश के जैन तीर्थ-क्षेत्र' पुस्तक के लेखक ने ओंकारेश्वर, कोल्हापुर के अम्बिका मंदिर व अजमेर की ख्वाजा दरगाह की रचना शैली को एक समान बताया है व लिखा है कि वे कभी जैन मंदिर थे। कुछ के अनुसार मान्धाता टापू ही सिद्धवरकूट था; किन्तु निर्वाण कांड के अनुसार ऐसा नहीं लगता। हो सकता है यह जैन मंदिर रहा हो। इस टापू पर काल भैरव की एक छत्री बनी है। कहा जाता है कि यहां एक छलांग लगाकर चट्टान पर गिरकर मर जाने पर मुक्ति मिलती थी। निश्चित ही यह मुक्ति क्षेत्र रहा है, जिसे कुछ संप्रदाय के लोगों ने गलत प्रथा डाल कर दूषित कर दिया था। ओंकारेश्वर मंदिर के आसपास के भग्नावशेष जैन मंदिर हो सकते हैं; किन्तु यह खोज का विषय है। वर्तमान सिद्धवरकूट से तीन फंढ्ग की दूरी पर नदी किनारे स्थित एक पहाड़ी पर भग्न मंदिर स्थित है। इस मंदिर में 5 फीट 2 इंच ऊँची राजशाही ठाठ-बाट वाली एक मूर्ति स्थित है। इस मूर्ति के सिर पर एक तीर्थंकर प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह जैन मंदिर रहा मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 167 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा। यह प्रतिमा उस शासक या महापुरुष की हो सकती है, जिसने सिद्धवरकूट में जिनालय बनवाये हों या उनका जीर्णोद्धार करवाया हो। यह तीर्थ-क्षेत्र इंदौर व खंडवा से 77 किलोमीटर की दूरी स्थित है व पक्के सड़क मार्ग से जुड़ा है। बड़वाह रेल्वे स्टेशन से यह तीर्थ-क्षेत्र 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित है; अतः यात्री यहां रेलमार्ग से भी पहुंच सकते हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर यात्रियों को रुकने के लिये अनेक धर्मशालायें बनी हुई हैं। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन सुदी 13 से 15 तक वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है। जिसमें दूर-दूर से तीर्थयात्री शामिल होकर धर्मलाभ लेते हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर 10वीं से 12वीं शताब्दी के बीच की अनेक जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। यहाँ स्थित जिनालयों व चरण छत्रियों का वर्णन हम निम्न क्रम में कर सकते हैंक्र. जिनालय मूलनायक व ___ अवगाहना आसन वर्ण सं. अन्य प्रतिमायें 1. नेमिनाथ जिनालय श्री नेमिनाथ भगवान+2 1 फीट 7 इंच पद्मासन श्वेत 1957 .. 2. शांतिनाथ जिनालय श्री शान्तिनाथ भगवान+6 3 फीट 2 इंच पद्मासन श्वेत 2463 · 3. चरण छत्री कामदेव व चक्रवर्तिओं के चरण- चिह्न स्थापित हैं 4. बाहुबली जिनालय भगवान बाहुबली जी 8 फीट कायोत्सर्ग श्वेत 2491 5. महावीर जिनालय श्री महावीर भगवान+2 . कायोत्सर्ग श्वेत 1951 बड़ा मंदिर श्रीसंभवनाथ भगवान+31 3 फीट 1 इंच पद्मासन श्वेत 1951 बाईं मंदिर श्री चन्द्रप्रभु भगवान 1 फीट 9 इंच पद्मासन श्वेत दाईं मंदिर श्री पार्श्वनाथ भगवान 1 फीट 2 इंच पद्मासन धातुनिर्मित अन्य वेदिका श्री संभवनाथ भगवान+5 1 फीट 10 इंच पद्मासन - 1548 6. छत पर श्री आदिनाथ स्वामी पद्मासन - 1548 7. अजितनाथ जिनालय श्री अजितनाथ भगवान+2 1 फीट 6 इंच __ पद्मासन श्वेत 1548 8. महावीर जिनालय श्री महावीर भगवान+2 2 फीट 7 इंच पद्मासन कृष्ण 1548 9. आदिनाथ जिनालय श्री ऋषभदेव भगवान 1 फीट 2 इंच कायोत्सर्ग कृष्ण लेख नहीं 10. पार्श्वनाथ जिनालय श्री पार्श्वनाथ भगवान 2 फीट 11 इंच पद्मासन कृष्ण भगवान शान्तिनाथ धातु 11. शान्तिनाथ जिनालय 10 कामकुमार व 2 चक्रवर्ती - प्रेतिमायें - यात्रियों को इस सिद्धक्षेत्र के दर्शन कर अवश्य लाभान्वित होना चाहिये। 168 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लखनादोंन यह जबलपुर-नागपुर रोड़ पर जबलपुर से 83 किलोमीटर दूरी पर सिवनी जिले में स्थित तहसील मुख्यालय है। यहाँ दो राष्ट्रीय राजामर्ग आकर मिलते हैं (नं.7 व नं.26)। यहाँ 20-25 किलोमीटर के वृत्त में पुरातत्व सामग्री बिखरी पड़ी है। इसे लक्ष्मण द्रोण नामक महाभारत युगीन मानते हैं। स्व. डा. हीरालाल जैन के अनुसार यहाँ 8वीं से 10वीं सदी के बीच कोई भव्य जिनालय अवश्य रहा होगा; क्योंकि एक द्वार शिलाखंड का मिलना व बाद में सन् 1971 में खेत जोतते समय शारदा प्रसाद को प्रतिमा का मिलना इस बात की पुष्टि करता है। यह जिनबिम्ब 4 फीट x 2.5 फीट के प्रस्तर खंड में उत्कीर्ण है व वर्तमान में स्थानीय जैन मंदिर में विराजमान हैं। इस प्रतिमा की भाव-अभिव्यंजना, अंग-विन्यास कला, अंकन व शिल्प-सौष्ठव प्रभावी व सजीव है। यह प्रतिमा पद्मासन में अवस्थित है व परिकर में तीन छत्र, भामंडल, गजारुढ़ इन्द्र दम्पत्ति व चमरधारी इन्द्र प्रतिमा की शोभा को चार चांद लगा रहे हैं। नीचे यक्ष मातंग व यक्षणी सिद्धायनी भी बनी है। यह प्रतिमा भगवान महावीर स्वामी की है। पतियानदाई सतना से दक्षिण-पश्चिम में 9 किलोमीटर दूर सिन्दूरिया पहाड़ी पर एक भग्न मंदिर है; जिसे डुबरी की मढ़िया या पतियाना दाई के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर में कनिंघम ने सन् 1874 में वेदिका पर 24 जैन यक्षिणी की मूर्तियां देखीं थीं। यहाँ एक विशाल शिला पर 24 जैन यक्षिणीयों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। ऐसा अंकन अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। मध्य में देवी अम्बिका की मूर्ति सिंहासनारूढ़ है। जिस पर एक बालक सिंह पर आरुढ़ है व दूसरा देवी का हाथ पकड़े खड़ा है। ये प्रियंकर व शुभंकर हैं। देवी के शिरोभाग पर 5 तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, जिनमें 3 पद्मासन व 2 कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। 8 खड्गासन प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं यह सभी कला गुप्त काल की निर्मित हैं। कारीतलाई यह तीर्थ मैहर से 35, कटनी से 46 व उचहरा से 50 किलोमीटर दूर कैमूर पर्वत श्रेणिओं में स्थित है। इसका प्राचीन नाम कर्णपुर था। कहते हैं विजय राधोगढ़ के किले का निर्माण कारीतलाई के प्राचीन पत्थरों से हुआ था। यहां गुप्त काल के मंदिर व पुरासामग्री है। इसके निकट स्थित भरहुत, शंकरगढ़, उचहरा, खो, भुमारा आदि स्थानों पर गुप्तकाल से लेकर परिहार व कलचुरि काल तक के अभिलेख व मूर्तियां मिलती हैं। यहाँ के ताम्रलेख गुप्त सं. 156 से 214 तक के हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 169 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ की कुछ गुफओं में ब्राहमीलिपि में 2000 वर्ष प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुये हैं। कलचुरी काल में इसे सोम स्वामीपुर भी कहा जाता था। नेमिनाथ भगवान की यक्षिणी अम्बिका को यहाँ खैरमाई के नाम से पूजते हैं। यहाँ की अधिकांश जैन मूर्तियां जबलपुर व रायपुर के संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही है। यहाँ हजारों प्रतिमायें खण्डित दशा में विद्यमान हैं, जिनमें भगवान ऋषभदेव की सर्वाधिक हैं। यहाँ सर्वतोभद्रिका, सहस्रकूट व नंदीश्वर की रचनायें भी मिलती हैं। यहाँ की सभी प्रतिमायें अष्ट प्रतिहार्ययुक्त, छत्र, भामंडल, श्रीवत्स, गंधणे व चामरधारी इन्द्रों सहित हैं। यहां अन्य सभी तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी मिलती हैं। सभी प्रतिमायें व जिनालय खण्डित दशा में यत्र-तत्र पड़े हैं। बरहटा यह नरसिंहपुर जिले में स्थित गोटेगांव से 40 किलोमीटर दूर है। यहाँ एक अर्धभग्न प्राचीन जैन मंदिर है। यहाँ 8 तीर्थंकर प्रतिमायें रखीं हैं; जो 5 फीट से 6 फीट ऊँची व पद्मासन मुद्रा में देशी पाषाण से निर्मित हैं। यहाँ की तीर्थंकर मूर्तियों को लोग पांच पांडव मानकर पूजते हैं। मंदिर के दरवाजे पर 6 फीट ऊँची एक तीर्थंकर प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। यहीं पाषाण का 3 फीट वृत्त का धर्मचक्र भी रखा है। भोजपुर यह तीर्थस्थल भोपाल से 28 किलोमीटर दूर है। भोपाल-होशंगाबाद रोड़ पर भोपाल नगर की सीमा से एक पृथक सड़क भोजपुर को जाती है। यह कभी प्राचीन सुरम्य नगरी रही होगी; संभवतः राजा भोज की राजधानी। यह तीर्थस्थल सुरम्य पहाड़ियों व वादियों के बीच नदी घाटी के किनारे स्थित है। यहाँ तक पहुँचने के लिये बसों की सुविधा भी है। राजा भोज ने कुछ मंत्रियों के बहकावे में आकर मुनिश्रेष्ठ आचार्य मानतुंग स्वामी को सांकलों से जकड़कर 48 तालों के अंदर कारागार में डाल दिया था। आचार्य श्री ने प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव की स्तुति में जेल में ही संस्कृत भाषा में 48 श्लोकों वाले भक्ताम्बर पाठ को रचा व एक-एक कर उनका श्रद्धा व भक्ति भाव से पाठ किया। पाठ करते ही उनके शरीर पर जकड़ी साकलें तो स्वतः टूट ही गईं; कारागार के 48 ताले भी एक-एक श्लोक के वाचन पर स्वतः टूटते चले गये। राजा भोज का यह कारागार जिला धार मुख्यालय से 13 किलोमीटर दूर ग्राम आहू में स्थित था। उपसर्ग समाप्त होने पर राजा भोज ने प्रायश्चित किया था; व वह अपनी करनी पर बहुत पछताया था। किन्तु मुनि श्री मानतुंगाचार्य जी ने बेड़ियों से मुक्त होने के बाद अपने गुरु 170 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभचन्द्राचार्य से समामिचरण व्रत ले लिया था; व भोजपुर में ही उनकी अंतिम समाधि हुई थी । समाधि स्थल पर आज भी आचार्य श्री मानतुंगाचार्य के चरणचिह्न बने हुये हैं। राजा भोज इन सब घटनाओं से बहुत चिंतित थे । उसने बाद में पश्चाताप स्वरूप यहाँ मुनि श्री की समाधि स्थल का निर्माण कराया था; व यहीं एक भव्य व विशाल जिनालय का निर्माण भी कराया था; जो इस सारी घटनाक्रम का साक्षी है । जिनालय - 1. भगवान शान्तिनाथ जिनालय - 65 x 65 फीट के चौकोर स्थल पर यहां 1000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन जिनालय बना है । यह जिनालय शिल्प की दृष्टि बेजोड़ है । इस जिनालय में 16वें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ की 22.5 फीट ऊँची विशाल प्रतिमा विराजमान है । यह खड्गासन मुद्रा में आसीन है। चेहरे से असीम शान्ति झलकती है। यहाँ के दर्शन करने से दर्शकों की मनोकामनायें पूर्ण होती हैं । यही यहाँ का सबसे बड़ी अतिशय है । भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा के दोनों पार्श्व भागों में 8 फीट ऊँची भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमायें खड्गासन मुद्रा में प्रतिष्ठित हैं । पादपीठ में स्थित शिलालेख से यह स्पष्ट होता है कि इन प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा सं. 1157-58 में की गई थी। जहाँ यह जिनालय बना हुआ है उसे स्थानीय लोग मनुआ भांड का टेकरा कहते हैं । भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा के मुखमंडल के चारों ओर आकर्षक आभामंडल बना हुआ है व पार्श्व में चांवर ढोरते दो इन्द्रों की मूर्तियां भी बनीं है । कहते हैं कि विशाल मूर्ति के निर्माण हेतु शिलाखंड पास की चट्टान से लिया गया था; जो धर्मशाला के बाजू में स्थित है। सभी जगह प्रायः भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा के दायें व बायें भगवान कुंथुनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें ही बनीं देखने को मिलती हैं; किन्तु इस जिनालय में दोनों ओर भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमायें स्थापित हैं; यह विशेष ध्यान देने की बात है । इस जिनालय के सामने ही आचार्य श्री मानतुंग स्वामी की प्राचीन छत्री बनी हुई है; जिसमें उनके चरण-चिह्न प्रस्तर शिला पर उत्कीर्ण हैं । I उक्त मंदिर के दर्शन को जाने के पहले ही दाहिनी ओर सिद्ध शिला बनी हुई हैं । यहीं आचार्य मानतुंग साधना किया करते थे । शिला के पृष्ठभाग में आचार्य श्री की प्रतिमा स्वाध्याय करते हुये उकेरी गई है । इस शिला के सामने भी खड्गासन में जिन - प्रतिमा स्थापित है। क्षेत्र पर यात्रियों को रुकने के लिये आधुनिक धर्मशालायें बनीं हुई हैं; यहाँ सभी प्रकार की सुविधायें उपलब्ध हैं। इस क्षेत्र के जीर्णेद्धार में उ.प्र. ललितपुर जिले के ग्राम बालावेहट निवासी लालचन्द जैन का योगदान भुलाया नहीं जा मध्य-भारत के जैन तीर्थ = 171 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता; जिनका अपर नाम बाबा भी है। क्षेत्र स्थल पर बच्चों के मनोरंजन हेतु विविध प्रकार के झूले भी लगाये गये हैं। ___ अतिशय क्षेत्र दिगंबर जैन मंदिर के अतिरिक्त भोजपुर विशाल शिव मंदिर के लिये भी विख्यात है। इस मंदिर में शिव की विशाल शिवपिंडी रखी हुई है। जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। यह मंदिर अत्यन्त कलात्मक बना हुआ है। भोपाल से आने वाले श्रद्धालुओं को भोजपुर क्षेत्र स्थित जिनालय के दर्शन अवश्य करना चाहिये। भिण्ड जिले के तीर्थ-क्षेत्र ___ 1. बरासो- भिण्ड से यह क्षेत्र लगभग 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित है अधिकांश प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में हैं। यह अतिप्राचीन जैन तीर्थ-क्षेत्र व मुनियों की तपस्थली भिण्ड जिले में स्थित है। यहाँ भगवान महावीर स्वामी का समवरशरण आया था। कुछ दूरी पर 3वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी के बीच की प्रतिमायें 3 जिनालयों में विराजमान हैं। पास से एक नदी प्रवाहित होती है। मंदिरों के बीच की दूरी लगभग 6 फलाँग है। चरण-चिह्न भी हैं। 2. बरही- यह चंबल नदी के किनारे भिण्ड-इटावा मार्ग पर स्थित है। नदी के किनारे स्थित इस जिनालय में 3 वेदिकायें हैं। यहाँ भी भगवान महावीर स्वामी का समवशरण आया था। 3. पावई (रत्नागिरी)- भिण्ड से इसकी दूरी 20 किलोमीटर है। भिण्ड जिले में पावई ग्राम के समीप कुवारी नदी के बीहणों में यह स्थित है। टीलों पर अनेक प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष पड़े हुये हैं। खुदाई करने पर अनेक जिनालय मिल सकते हैं। यहाँ ईंट, गारे व चूने से बनी तीर्थंकर प्रतिमायें बड़ी संख्या में मंदिर परिसर में रखीं है। अधिकांश जिनबिम्ब पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं। मूल जिनालय में लगभग 2 दर्जन प्रतिमायें विराजमान हैं। प्रतिमायें काफी प्राचीन 5वीं से 11वीं शताब्दी के बीच की हैं। क्षेत्र जीर्ण स्थिति में हैं। इस जिनालय में तीन वेदिकाओं पर जिन प्रतिमायें विराजमान हैं। कहते हैं यहां पहले 108 जिनालय स्थित थे। भगवान नेमिनाथ व चन्द्रप्रभुजी की प्रतिमायें अति मनोज्ञ है। मुरैना जिले के तीर्थ-क्षेत्र सिंहोनिया- भगवान शान्तिनाथ की 16 फीट ऊँची व भगवान कुंथुनाथ व अरहनाथ की 8-8 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में भव्य व आकर्षक प्रतिमायें 11वीं शताब्दी की हैं। भूगर्भ से प्राप्त कुल 19 अन्य प्रतिमायें भी हैं। ___ ग्वालियर किला- हाथी दरवाजा व सासबहू के मंदिर के बीच जिनालय सं. 1034 में बनवाया था। कनिंघम के अनुसार मुगल काल में यहाँ मंदिर की जगह 172 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्जिद बनाई गयी। खुदाई करते समय यहाँ एक कमरा मिला है। जिसमें कई दिगंबर मूर्तियां मिली हैं। एक लेख सं. 1165 का भी मिला है। किले में कुल 1500 जैन मूर्तियां हैं जो 6 इंच से लेकर 57 फीट तक ऊँची हैं। उरखाई दरवाजे के बाहर आदिनाथ भगवान की मूर्ति 37 फीट तक ऊंची दोनों ही मुद्राओं में है। उरखाई गेट के बाहर श्री ऋषभ देवजी की 57 फीट ऊंची प्रतिमा स्थित है। यहीं बायें समूह में 40 खड्गासन, 24 पद्मासन, लघुप्रतिमायें 840, उपाध्याय व साधु मूर्तियां, चार यक्ष व यक्षिणी देवी-देवताओं की 12 मूर्तियां हैं। 4 चैत्य स्तंभ भी बने हैं। इस समूह में 10 शिलालेख हैं। जो सं. 1510 के आसपास के हैं। दायीं तरफ के समूह में 47 खड्गासन व 31 पद्मासन, 6 यक्ष, 6 चैत्यस्तंभ व 3 शिलालेख हैं। किले के ऊपर सास-बहू के मंदिर तथा तेली का मंदिर पहले जैन मंदिर थे, जो सं. 1093 में बनें थे। ये नंदीश्वर द्वीप की आकृति के जिनालय थे। तेली के मंदिर के बगल में बने कमरे को सं. 1844 में कनिंघम ने पार्श्वनाथ का मंदिर बताया है जो सं. 1108 का बना था। पत्थर की बावड़ी पर 144 जिन-प्रतिमायें हैं। सबसे बड़ी पद्मासन प्रतिमा पार्श्वनाथ भगवान की 37 फीट ऊँची है; जबकि सबसे ऊँची खड्गासन प्रतिमा 36 फीट है। इनका निर्माण सं. 1440-73 के बीच महाराजा डूंगर सिंह ने करवाया था। मनहरदेव- यह तीर्थ डबरा से 19 किलोमीटर व करहिया ग्राम से 8 किलोमीटर दूर है। यहाँ 11 जिनालय थे जो अब जीर्ण-शीर्ण हो चुके हैं। यहां की 15 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित प्रतिमा अब सोनगिर तलहटी में विराजमान है। सन् 1967 में मूर्ति चोरों ने यहाँ की 19 मूर्तियों के सिर काट दिये थे। यहाँ 10-11वीं शताब्दी की प्रतिमायें हैं। पास के ग्राम में चैत्यालय है। पनिहार-चौबीसी जिनालय, ये भोयरे में स्थित है। जहाँ दाईं ओर की वेदी पर 6, सामने की पर 5 व बाई ओर की वेदी पर 7 जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। 4 मूर्तियां खंडित अवस्था में यहीं रखी हैं। 2 प्रतिमायें प्यारेलाल के मंदिर मामा के बाजार लश्कर में ले जाईं गई हैं। ये प्रतिमायें सं. 1429 की हैं। यह ग्वालियर शिवपुरी रोड पर ग्वालियर से 30 किलोमीटर दूर हैं। बरई- ये भी इसी मार्ग पर बरई ग्राम के समीप स्थित है। यहाँ चार गर्भगृहों में क्रमशः तीन 16 फीट ऊँची तीर्थंकर प्रतिमा, 18 फीट ऊँची खड्गासन प्रतिमा नेमिनाथ की, 13 फीट ऊँची तीर्थंकर प्रतिमा, व अन्य अनेक क्षतिग्रस्त प्रतिमायें विराजमान हैं। . बजरंग गढ़ यह अतिशय क्षेत्र मध्यप्रदेश राज्य के गुना जिला मुख्यालय से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। शिल्प कला की दृष्टि से देखने पर थूबौन स्थित शान्तिनाथ जिनालय, अहार स्थित शान्तिनाथ जिनालय जैसा ही यह विशाल जिनालय है। इस प्राचीन जिनालय को विगत कुछ वर्षों से नया रूप देने का प्रयास किया गया है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 173 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले यहाँ इस जिनालय में भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अहरनाथ की भव्य खड्गासन प्रतिमायें ही इस जिनालय में प्रतिष्ठित थीं । किन्तु वर्तमान में अब इस जिनालय में 5 अधिक नवीन वेदिकाओं का निर्माण कर उनमें अनेक जिनबिम्ब स्थापित किये गये हैं । प्राचीन मूर्तियों पर पालिश करा दी गयी है। जिससे जिनालय की प्राचीनता पर काफी असर पड़ा है। भगवान शान्तिनाथ की मूर्ति लगभग 18 फीट ऊँची हैं जबकि पार्श्व भागों में विराजमान प्रतिमाओं की ऊँचाई 10 फीट के आसपास होगी । नेमावर (रवातट) - निर्वाण कांड में जिस रेवा तट से करोड़ों मुनियों के मोक्ष जाने की बात कही गई है। आचार्य श्री विद्यासागर जी के अनुसार नेमावर वही सिद्धक्षेत्र है । यह मध्यप्रदेश के हरदा जिले में आता है। आचार्य श्री ने यहां नर्मदा नदी से कुछ प्राचीन प्रतिमाओं को खोज निकाला था । वर्तमान में यहाँ अनेक भव्य नये जिनालयों का निर्माण किया गया है । कारी टोरन यह ललितपुर जिलान्तर्गत मेहरोनी तहसील में आता है। ग्राम कारीटोरन में एक अतिप्राचीन जिनालय में अनेक खड्गासन व पद्मासन मुद्रा में प्रतिमायें विराजमान हैं । समसगढ़ यह प्राचीन तीर्थ क्षेत्र मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ की अतिभव्य व मनोज्ञ प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं। इसी तरह देवास जिले में पुष्पगिरी एक नवोदित तीर्थ क्षेत्र है । कुराना भोपाल के अन्तर्राष्ट्रीय भोज विमान तल से 3-4 किलोमीटर आगे कुराना तीर्थ क्षेत्र में अतिप्राचीन खड्गासन मुद्रा में लगभग 20 फीट ऊँची भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है । 174■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों की जन्म-भूमियाँ जन्म भूमि बन्दै जो कोई, नरक पशुगति कभी न होई। . बार-बार बन्दै जो कोई, निश्चय नर-सुर गति ही होई।। 1. अयोध्या- यह प्राचीनतम तीर्थ-क्षेत्र है। वर्तमान उ.प्र. राज्य के पूर्वी भाग में फैजाबाद नगर से इसकी दूरी मात्र 7 किलोमीटर है। अयोध्या रेल्वे स्टेशन भी है एवं यहाँ अन्तर्राज्यीय बस अड्डा भी है। लखनऊ से अयोध्या की दूरी लगभग 135 किलोमीटर है। इलाहाबाद, वाराणसी व गोरखपुर से अयोध्या की दूरी क्रमशः 160, 192 व 130 किलोमीटर है। फैजाबाद से अयोध्या के लिये प्रतिसमय टैक्सियां मिलती है। यहाँ तीर्थ यात्रियों को रुकने के लिये रायगंज बड़ी मूर्ति जिनालय में विशाल धर्मशाला है। इसके अलावा सुमतिनाथ जिनालय में भी तीर्थयात्रियों के रुकने की सुविधा है। जैन धर्मावलंबियों के लिये यह तीर्थ-क्षेत्र विशेष महत्व रखता है, क्योंकि इस धरा पर न केवल प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने जन्म लिया था। बल्कि यह तीर्थ-क्षेत्र अन्य चार तीर्थंकरों की जन्मभूमि भी है। चतुर्थकाल के अन्त में अयोध्या नगरी में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जिन्हें आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है; ने जन्म लिया था। भगवान आदिनाथ के जन्म के 9 माह पूर्व से ही उनके महलों में दैवीय रत्न वृष्टि होती रही थी। जन्म के समय तो सारी अयोध्या नगरी में ही दैवीय रत्न वृष्टि हुई थी। ऐसा ही अन्य चार तीर्थंकरों के जन्म के समय भी इस नगरी में हुआ था। तीर्थ यात्रियों को रायगंज स्थित बड़ी मूर्ति जिनालय से रिक्शा या टैक्सी कर अयोध्या स्थित पांचों तीर्थंकरों की जन्मभूमि के दर्शन कर पुण्य अर्जित करना चाहिये। अयोध्या नगरी के विषय में यह धारणा है कि अनादि काल से यहाँ सभी 24 तीर्थंकरों का जन्म होता आया है। काल का परिवर्तन होने पर भी हुंडावसर्पिणी काल के कारण 5 तीर्थंकरों का जन्म हुआ है। काल का परिवर्तन होने पर भी नये सिरे से स्वास्तिक चिह्न से विभूषित यह भूमि स्वतः प्रकट हो जाती थी। इसी पावन वसुंधरा पर भगवान आदिनाथ के अलावा श्री अजितनाथ, श्री अभिनंदन नाथ, श्री सुमतिनाथ और श्री अनन्तनाथ भगवान ने जन्म लिया। यही वह पावन भूमि है, जहाँ भगवान बाहुबली एवं प्रथम चक्रवर्ती भगवान भरत का जन्म भी हुआ था। ज्ञातव्य है कि इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इस नगरी में राष्ट्रनिर्माता, रामराज्य के संस्थापक मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र जी का जन्म भी हुआ था। अयोध्या को साकेत, विनीता, कौशल, हरिण्या, जया नंदनी, सत्या, चिन्मया, अनुज्झा, औध, राजिता, अपराजिता, रामपुरी, प्रथमपुरी, अवधर आदि नामों से भी जाना जाता रहा है। पहले जहाँ भगवान आदिनाथ का प्राचीन मंदिर था; वहाँ मस्जिद बनवाई गई थी; किन्तु तभी दिल्ली निवासी दीवान कुलभूषण श्री केसरी सिंह जैन ने ... मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 175 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगल नवाब फैजुद्दीन से निवेदन किया कि जहांपनाह इस स्थान पर आदि युगावतार भगवान ऋषभनाथ जी का जन्म स्थान था, अतः इसके नीचे आदिनाथ भगवान के जन्म स्थान का स्मारक होना चाहिये। नवाब ने दीवान से इसका प्रमाण मांगा। तब उन्होंने कहा अमुक स्थान पर खुदाई करने से घी का एक चौमुखी दीपक, एक साथिया व एक नारियल रखा मिलेगा। नवाब के आदेश से खुदाई करवाने पर वहाँ पर ये सब चीजें रखी मिलीं। तब नवाब ने वहाँ भगवान आदिनाथ जी का मंदिर बनवाने का हुक्म दिया व शेष मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। वर्षों पूर्व इस महान तीर्थ-क्षेत्र की सोचनीय दशा को देखकर आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने इस तीर्थ-क्षेत्र के उद्धार का संकल्प लिया व अयोध्या के रायगंज में 31 फीट ऊँची भगवान आदिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित प्रतिमा की स्थापना करवाई। जिसमें दिल्ली निवासी सेठ पारसदास व साहू शान्तिप्रसाद ने पर्याप्त आर्थिक सहयोग दिया। . यहाँ का वार्षिक मेला भगवान ऋषभदेव की जन्म जयन्ती चैत्र वदी नवमी के दिन बड़ी धूमधाम से संपन्न होता है। यहाँ स्थित जन्मभूमियों व जिनालयों का विवरण इस प्रकार है 1. भगवान ऋषभनाथ जन्मभूमि- भगवान ऋषभनाथ का यह जन्मस्थान बड़ी मूर्ति से लगभग 1 किलोमीटर दूर है। कभी यहां से सरयू नदी बहा करती थी। यहाँ वर्तमान में एक नवनिर्मित जिनालय स्थित है। जो प्रथम तल पर स्थित है। इस जिनालय में भगवान ऋषभदेव की लगभग 4 फीट ऊँची प्रतिमा विराजमान हैं। संगमरमर निर्मित यह श्वेत वर्ण की प्रतिमा के दर्शन करने से श्रद्धालुओं के मन को असीम शान्ति मिलती है। इसी तल पर भगवान के चरणों सहित एक छत्री का निर्माण किया गया है। यह जन्मभूमि तुलसीनगर में स्थित है। 2. चरण छत्री श्री अजितनाथ- भगवान ऋषभनाथ की जन्मभूमि से भगवान अजितनाथ की जन्मभूमि की दूरी लगभग 100 कदम होगी। सड़क से 40-50 फीट हटकर वृक्षावल्लरियों से घिरे एक परकोटे में भगवान अजितनाथ के जन्मस्थान पर एक छत्री में चरणचिन बने हुये हैं। दर्शनार्थी इस छत्री स्थित चरण-चिह्नों के दर्शन कर अपने को धन्य मानते हैं। यह चरण-चिह्न छत्री वक्सारिया टोला मुहल्ला में तुलसीनगर में स्थित है। 3. चरण छत्री श्री अभिनंदन नाथ- यह चरण छत्री बड़ी मूर्ति जिनालय से लगभग 1.5 किलोमीटर की दूरी पर बस्ती के मध्य में स्थित है। यहाँ भी एक परकोटे के अंदर स्थित छत्री में भगवान श्री अभिनंदन नाथ के चरण-चिह्न विराजमान हैं। श्रद्धालु भावविभोर होकर यहाँ के दर्शन कर अपने को पुण्यशाली मानते हैं। यह चरण छत्री एक टीले की ओर जाने वाली सड़क के किनारे किन्तु मुख्य सड़क से कुछ हटकर है। यह चरण छत्री पानी की टंकी के पास अशर्फी भवन चौराहा, सुरहटी मुहल्ला में स्थित है। 4. भगवान सुमतिनाथ जिनालय एवं चरण छत्री- यह भव्य जिनालय चरण 176 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्री कटरा मुहल्ला में मुख्य सड़क पर स्थित है। यहाँ पास में ही एक श्वेताम्बर जिनालय भी है । यहाँ पर परिसर में चार वेदिकाओं पर श्री जी विराजमान हैं । प्रथम मुख्य जिनालय में भगवान ऋषभनाथ, अजितनाथ व श्री सुमतिनाथ की भव्य व आर्कषक मूर्तियां विराजमान है। ये सभी प्रतिमायें लगभग समान अवगाहना की 2.5 फीट के आसपास हैं । भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा की अवगाहना लगभग 3 फीट है । दूसरी वेदिका में जो आंगन के बायीं ओर स्थित है। भगवान श्री पार्श्वनाथ, पद्मप्रभु व चन्द्रप्रभु की प्रतिमायें विराजमान हैं । इन प्रतिमाओं की ऊँचाई क्रमशः 2, 1.5 व 1 फीट है। सभी प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं व चित्त को आकर्षित करने वाली है । तीसरी वेदिका आंगन (प्रांगण) के मध्य में स्थित है । यहाँ खड्गासन में स्थित भगवान ऋषभदेव व उनके पुत्रों भरत व बाहुबली भगवान की प्रतिमायें स्थापित हैं । भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा लगभग 8 फीट व शेष दो प्रतिमायें लगभग 6 फीट ऊँची भव्य व आकर्षक है । इस अंतिम जिनालय में जो आंगन के दायीं ओर स्थित है, प्राचीन प्रतिमायें विराजमान हैं, इनमें कुछ प्रतिमाओं पर प्रशस्तियां व स्थापना की तिथि अंकित नहीं है । जिससे यह प्रतीत होता है। कि यह अतिप्राचीन है। एक मूर्ति पर सं. 1548 अंकित है । ये सभी प्रतिमायें 1-2.5 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में विराजमान जिनके दर्शन पूजन से श्रद्धालुओं के पाप धुल सकते हैं । 1 आंगन के मध्य में भगवान सुमतिनाथ के चरण चिह्न एक छत्री में स्थित हैं । यही भगवान सुमतिनाथ की जन्मभूमि मानी जाती है । 5. जन्मभूमि भगवान श्री अनन्तनाथ - जैनधर्म के 14वें तीर्थंकर भगवान श्री अनन्तनाथ जी का जन्म यहीं हुआ था । यह अतिसुंदर स्थान सरयू नदी के तट पर स्थित है। यहाँ आकर श्रद्धालुओं की सारी थकान दूर हो जाती हैं व उनका मन-मयूर खुशी से झूम उठता है । अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य के मध्य स्थित यह स्थान अति सुंदर है । इसके एक ओर सुंदर विशाल बगीचा है; तो दूसरी ओर कल-कल नाद करती सरयू नदी है । इस स्थान की प्राचीनता यहाँ स्थित अनेक ऋषियों व तीर्थंकरों के प्राचीन चरणों से स्वतः सिद्ध है । यहां एक विशाल चबूतरे पर स्थित छत्री में भगवान अनन्तनाथ जी के प्राचीन चरण कमल स्थित हैं । यहीं छत्री के बायीं ओर एक कक्ष में सप्तऋषिओं के चरण-चिन्ह स्थित हैं; जो अतिप्राचीन हैं। मूल छत्री के दायीं ओर एक अन्य कक्ष में भगवान ऋषभदेव की दो पुत्रियों ब्राह्मी व सुंदरी के चरण - चिह्न स्थित हैं। संभवतः आर्यिका दीक्षा के बाद यहीं इन दोनों ने घोर तप कर स्त्री पर्याय का हमेशा के लिये छेदन किया था। इतना ही नहीं, इसके आगे एक अन्य कक्ष में 12 तीर्थंकरों व 7 अन्य के भी प्राचीन चरण-चिह्न स्थित हैं। पास में स्थित एक सरकारी उद्यान में 21 फीट ऊँची एक भव्य व मनोरम प्रतिमा पद्मासन में भगवान ऋषभदेव की विराजमान है। इस प्रतिमा के ऊपर छाया नहीं है व खुले स्थान में विराजमान है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ 177 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. बड़ी मूर्ति जिनालय- अयोध्या के रायगंज स्थित एक विशाल परिसर में यह भव्य व आर्कषक जिनालय स्थित है। यहाँ कुल मिलाकर तीन पृथक-पृथक जिनालय बने हुये हैं। मुख्य जिनालय के बायीं ओर तीन चौबीसी जिनालय स्थित हैं। इस जिनालय में भरतक्षेत्र की भूत, वर्तमान व भविष्य की तीन चौबीसी निर्मित की गई है। यह एक कमलाकार आकृति पर स्थित है। मंदिर में परिक्रमापथ भी है। मुख्य जिनालय के दायीं ओर भगवान श्री ऋषभदेव का समवशरण मंदिर स्थित है। इस जिनालय में भगवान के समवशरण की रचना की गई है। यह जिनालय आकृति में गोलाकार है। जिससे जिनालय की परिक्रमा की जा सकती है। समवशरण के मध्य में शीर्ष पर भगवान ऋषभनाथ की चारों दिशाओं में प्रतिमायें विराजमान हैं। मुख्य दरवाजे के सामने स्थित इस भव्य व विशाल जिनालय में भगवान ऋषभनाथ की 31 फीट ऊँची संगमरमर से निर्मित भव्य व आकर्षक प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिष्ठित है। यह प्रतिमा उत्तर भारत की विशालतम प्रतिमा है। इसके बायीं ओर एवं दायीं ओर कुछ दूरी पर 3-3 फीट ऊँची तीर्थंकरों की ख गासन प्रतिमायें विराजमान हैं। ये सभी प्रतिमायें लगभग 4-4 फीट ऊँची व अति सुंदर हैं। ये प्रतिमायें भगवान श्री धर्मनाथ, चन्द्रप्रभु, अजितनाथ, अभिनंदन नाथ, सुमतिनाथ व श्री अनन्तनाथ भगवानों की हैं। इस जिनालय के प्रथम तल पर भी दो वेदिकायें स्थित हैं। ये वेदिकायें क्रमशः बायें व दायें किनारों पर स्थित हैं; जिनमें कुछ प्राचीन छोटी-छोटी प्रतिमायें रखी हुई हैं। एक वेदिका पर रत्नमयी प्रतिमा भी विराजमान है। - श्रद्धालुओं को इस महान व प्राचीनतम जन्मभूमियों के दर्शन अवश्य करना चाहिये व पुण्य लाभ लेना चाहिये। यहाँ दर्शनार्थियों के भोजन की भी व्यवस्था है। अयोध्या में वैसे तो सैंकड़ों दर्शनीय स्थल हैं। क्योंकि यहाँ का कण-कण पवित्र है। फिर भी रामकोट मुहल्ला स्थित रामजन्मभूमि, हनुमानगड़ी, दशरथमहल, लवकुशमहल, लक्ष्मण मंदिर विशेष दर्शनीय हैं। एक बार जो गया अयोध्या उसका हुआ भला है। भक्तों को भगवान बनाने वाली यहाँ कला है।। श्रावस्ती जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर भगवान श्री संभवनाथ का जन्म इसी श्रावस्ती नगरी में हुआ था। इस नगरी का अपना अलग ऐतिहासिक महत्व है। यह तीर्थ-क्षेत्र अयोध्या से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अयोध्या से गोंडा, बलरामपुर होकर श्रावस्ती जाना चाहिये। यही वह पवित्र स्थान भी है; जहाँ गौतमबुद्ध को बोधि प्राप्ति हुई थी। बोधिवृक्ष यहीं है। एक परिसर से बोधिवृक्ष के 178 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलावा पुरातत्व विभाग के संरक्षण में बौद्ध से संबंधित अनेक पुरातत्वीय महत्व के स्मारकों के अवशेष स्थित हैं। जिनमें प्राचीन स्तूप, बौद्ध भिक्षुओं के रहने के आवास आदि हैं। श्रावस्ती में अनेक बौद्ध मंदिर है; जहाँ प्रतिदिन सैंकड़ों देशीविदेशी यात्री आते रहते हैं। बौद्ध धर्म के विकास के पूर्व श्रावस्ती जैन बस्ती थी। यहाँ भगवान संभवनाथ ने न केवल जन्म लिया था; बल्कि यहीं उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी; और केवलज्ञान भी उन्हें यहीं प्राप्त हुआ था। पुरातत्व विभाग के संरक्षण में नगर के परकोटे के बाहर एक अतिप्राचीन जिनालय के खंडहर है, जिसमें शिखर का आधा भाग भी शेष है। श्रावस्ती में वर्तमान में प्रमुख जिनालयों का विवरण इस प्रकार है___1. भगवान श्री संभवनाथ जिनालय- मुख्य सड़क पर एक विशाल परिसर में यह जिनालय स्थित है। सन् 1962 के पूर्व यहाँ एक प्राचीन जिनालय स्थित था; जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था। यहाँ के वर्तमान पुजारी के परदादा आदि उसमें दर्शन पूजन किया करते थे। वर्तमान में इस जिनालय में भगवान संभवनाथ की 5 फीट से भी अधिक ऊँची भव्य व मनोहारी प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। इनके दर्शन मात्र से श्रद्धालुओं की मनोकामनायें पूर्ण होती हैं। वेदिका पर उक्त पाषाण प्रतिमा के अलावा भगवान श्री पार्श्वनाथ की एक अन्य पाषाण प्रतिमा भी विराजमान है। अष्टधातु की चार अन्य प्रतिमायें भी वेदिका पर विराजमान है वेदिका पर ही भगवान संभवनाथ के तीन चरण-चिह्न भी स्थित हैं। वेदिका के पीछे की दीवाल पर बहुत ही सुंदर ढंग से भगवान संभवनाथ के जन्म के पूर्व उनकी माता को दिखे 16 स्वप्न भी चित्रित किय गये हैं। 2. दूसरा जिनालय भी इसी परिसर में स्थित है; जो बर्मन शैली में बनाया गया है। यह नवीन जिनालय देखने में अति आकर्षक व अन्य दिगंबर जिनालयों से बिल्कुल अलग है। जिनालय के शीर्ष भाग पर (शिखर) चारों दिशाओं में 4 तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं। इस विशाल जिनालय में सामने तीन वेदिकायें स्थित हैं। मध्य की वेदिका पर भगवान संभवनाथ की आकर्षक व प्रभावोत्पादक प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा व जिनालय की शेष अधिकांश प्रतिमायें संगमरमर से निर्मित हैं। यह प्रतिमा लगभग 4-4.5 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में है। चार अन्य प्रतिमायें भी इसी वेदिका पर विराजमान है। इस वेदिका के बायें हाथ की ओर भगवान भरत व दायें हाथ की ओर भगवान बाहुबली की कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 6 फुट ऊँची आकर्षक प्रतिमायें विराजमान है। इसी जिनालय में शेष तीन ओर दीवालों पर छोटी-छोटी वेदिकायें बनाकर चौबीसी का निर्माण किया गया है। इस चौबीसी में वर्तमान काल के चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियों अलग-अलग विराजमान है। प्रत्येक जिनबिम्ब की ऊँचाई 1.5 फीट एक समान है व सभी पद्मासन मुद्रा में आसीन है। ___ 3. अतिप्राचीन जिनालय-शहर के प्राचीन परकोटे के बाहर किन्तु उपरोक्त मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 179 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनालयों से लगभग दो किलोमीटर दूर पुरातत्व विभाग ने एक प्राचीन जिनालय के अवशेषों को खोद निकाला है। पुरातत्व के अनुसार यहाँ भगवान संभवनाथ का विशाल जिनालय था। पुरातत्व के अनुसार ही खुदाई में इस जिनालय से लगभग एक दर्जन से अधिक प्राचीन जिनबिम्ब प्राप्त हुये थे। इनमें से एक प्राचीन जिनबिम्ब समीपस्थ जिला मुख्यालय बहराइच के जिन मंदिर में विराजमान हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान मूल जिनालय भगवान श्री संभवनाथ का जन्मस्थान था; जो बस्ती के अंदर था। तथा बस्ती व परकोटे के बाहर स्थित जिनालय का स्थान भगवान के दीक्षा तथा केवलज्ञान प्राप्ति का स्थान था; योंकि दीक्षा के लिये तीर्थंकर बिहार कर नगर के बाहर स्थित उद्यानों में दीक्षा लिया करते थे। यहाँ यात्रियों का स्वागत मुख्य सड़क पर स्थित विशाल प्रवेश द्वार करता है; जिसके ऊपर एक घोड़े पर राजकुमार श्री संभवनाथ को बैठा हुआ प्रदर्शित किया गया है। समीप ही श्वेताम्बर जिनालय भी स्थित है। यात्रियों की सुविधा के लिये इस पावन पुनीत तीर्थ-क्षेत्र पर सभी आधुनिक सुविधायें उपलब्ध हैं। यात्रियों के ठहरने के लिये विशाल धर्मशाला बनी हुई है व यहाँ यात्रियों के भोजन की भी सुंदर व्यवस्था है। यात्रियों को ऐसे पावन पुनीत भगवान संभवनाथ के जन्मस्थान के दर्शन अवश्य करना चाहिये व अपना जीवन सार्थक कर ऐसे जन्मस्थलों की सुरक्षा के लिये पर्याप्त मात्रा में खुले दिल से दान कर भी अपना जीवन सफल बनाना चाहिये। कौशाम्बी इलाहाबाद से 40 किलोमीटर दूरी पर फफीसा गांव के समीप प्राचीन नगरी कौशाम्बी स्थित थी। यहाँ छठे तीर्थंकर भगवान श्री पद्मप्रभु स्वामी का जन्म हुआ था। इस तीर्थ-क्षेत्र पर यात्रियों के रुकने व भोजन आदि की सभी व्यवस्थायें रहती हैं। यहाँ भगवान के चार कल्याणक हुये थे। विशाल परिसर में यहाँ भव्य जिनालय स्थित है। वाराणसी वाराणसी.व उसके आसपास स्थित चार तीर्थंकर भगवंतों के जन्म स्थान हैं। यह पावन नगरी प्रारंभ से ही पवित्र भूमि रही है। सातवें तीर्थंकर भगवान श्री सुपार्श्वनाथ स्वामी का जन्म स्थान इस नगरी के भदेनीघाट स्थान पर है। यहीं आपके गर्भ, जन्म व दीक्षा कल्याणक संपन्न हुये। इस स्थान पर वर्तमान में एक विशाल परिसर में भव्य व मनोज्ञ जिनालय स्थित है; जिसमें भगवान श्री सुपार्श्वनाथ विराजमान हैं। वेदिका पर अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी विराजमान हैं। 180 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ पर पूज्य श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी ने एक रुपये के 64 पोस्ट कार्ड खरीद कर व उन्हें हाथ से लिखकर देश के 64 जैन दाताओं के पास भेजा था और भगीरथ वर्णी की सहायता से स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना की थी। इस संस्था के वर्णी जी संस्थापक थे और उसके विद्यार्थी भी रहे। यह एक ऐसा महाविद्यालय रहा है जिसने देश व समाज को बड़े-बड़े जैन विद्वानों-पं. पन्नालाल जी साहित्यचार्य, पं. फूलचन्द शास्त्री, कैलाशचन्द्र आदि को पैदा किया। जिन्होंने आगे चलकर जैनधर्म का संदेश देश-विदेश के कोने-कोने तक पहुँचाया और अभूतपूर्व जागरण जैन समाज में पैदा किया। यहाँ से हम वाराणसी के भेलूपुर स्थान पर पहुंचते हैं। यह पावन पुनीत स्थान तेईसवें तीर्थंकर भगवान श्री पार्श्वनाथ की जन्मभूमि है। यहाँ पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर में भगवान श्री पार्श्वनाथ स्वामी की भव्य, आकर्षक व मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान हैं। साथ ही यहीं पद्मावती माता अपने शिरोभाग पर भी भगवान श्री पार्श्वनाथ को विराजमान किये स्थित हैं। यहाँ भगवान पार्श्वनाथ स्वामी . के गर्भ, जन्म व तप कल्याणक संपन्न हुये थे। यहीं पर एक भव्य मानस्तंभ व सुविधासंपन्न जैनधर्मशाला है। वराणसी से 7 किलोमीटर दूर स्थित सारनाथ का नाम ही तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ जी के नाम पर पड़ा है। सारनाथ जिसे पहले सिंहपुरी के नाम से जाना जाता था, में विश्वप्रसिद्ध स्तूप के समीप ही भगवान श्री श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि पर एक जिनालय स्थित है। यहाँ भी भगवान के प्रथम तीन कल्याणक संपन्न हुये थे। जिनालय में भगवान श्रेयांसनाथ की भव्य व आर्कषक प्रतिमा विराजमान है। भगवान श्री चन्द्रप्रभु का गर्भ व जन्म कल्याणक स्थान बनारस से 13. व सारनाथ से 10 किलोमीटर दूर गंगा तट पर स्थित है। इस सुरम्य व मनोहारी भू-भाग पर वर्तमान में एक विशाल प्राचीन जिनालय स्थित है, जिसमें भगवान श्री चन्द्रप्रभु की सकल कष्टहारी जीवों, को आनंद प्रदान करने वाली प्रतिमा विराजमान है। काकिंदी - - यह प्राचीन नगरी 9वें तीर्थंकर भगवान श्री पुष्पदन्त की जन्मभूमि है। यहां भगवान श्री पुष्पदन्त के गर्भ, जन्म व तप कल्याणक संपन्न हुये थे। वर्तमान में यह नगरी उत्तर प्रदेश राज्य के देवरिया जिले में स्थित है। गोरखपुर से काकिंदी तीर्थ-क्षेत्र पहुँचते हैं। गोरखपुर से काकिंदी तीर्थ-क्षेत्र की दूरी लगभग 120 किलोमीटर हैं। यहां एक विशाल परिसर में स्थित जिनालय में भगवान श्री पुष्पदन्त की विशाल प्रतिमा विराजमान है। इनमें से कुछ तीर्थ-क्षेत्रों का वर्णन विस्तार रूप से मध्य भारत के तीर्थ-क्षेत्र में किया गया है। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 181 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दलपुर इसे अनेक नामों से जाना जाता है । यह दिल्ली-भोपाल रेल मार्ग पर स्थित है । वर्तमान की विदिशा नगरी के आसपास ही भद्दलपुर स्थित था। यहां 10वें तीर्थंकर भगवान श्री शीतलनाथ जी के प्रथम तीन कल्याणक सम्पन्न हुये थे । यह नगरी पवित्र बेतवा नदी के किनारे स्थित है। नगर में अनेक जिनालय हैं; किन्तु 3-4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित उदयपुर की गुफायें भी प्राचीन भद्दलपुर में थीं। यहां भी भगवान श्री शीतलनाथ के चरण-चिह्न व प्राचीन जिनालय हैं। चंपापुरी बिहार के प्रसिद्ध शहर भागलपुर में स्थित चंपापुरी तीर्थ क्षेत्र 12वें तीर्थंकर भगवान श्री वासुपूज्य की गर्भ, जन्म, तप, दीक्षा व मोक्ष स्थली है। यहाँ पर एक भव्य व आलीशान जिनालय है जिसका प्रवेश-द्वार अति मनमोहक है व जिसके दरवाजे पर 12 भव्य मढ़िया बनी हैं। भगवान श्री वासुपूज्य के चरण-चिह्न व पीतवर्ण जैसी एक विशाल पद्मासन प्रतिमा जिनालय में अनेक जिन - प्रतिमाओं के साथ विराजमान हैं । इसी जिनालय में लगभग 20 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में एक भव्य व मनोज्ञ प्रतिमा भगवान वासुपूज्य की विराजमान है । दूसरी ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में ही भगवान श्री महावीर स्वामी की विशाल प्रतिमा स्थित है। इस मुख्य जिनालय के बाहर एक अन्य शिखरबंद जिनालय में काले पत्थर की लगभग 6-7 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में भगवान वासुपूज्य की मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान हैं । यहीं कमठ के उपसर्ग को भी बड़े ही अतिशय पूर्ण ढंग से बतलाया गया है। भव्य व आकर्षक चौबीसी का निर्माण भी किया गया है । यही एकमात्र ऐसी जन्मभूमि है; जहां उन्हीं भगवान के पांचों कल्याणक हुये हैं । कंपिलाजी (कंपिल) 13वें तीर्थंकर भगवान श्री विमलनाथ का यह पावन पुनीत जन्मस्थान है । यहाँ की पावन धरा पर तीर्थंकर श्री विमलनाथ के चार कल्याणक हुये थे । अतः इन नगरी की पावन धरा पूज्यनीय व वंदनीय है । महसती द्रौपदी का जन्म भी यहीं हुआ था । कपिल मुनि की यह तपस्थली रही है। भगवान पार्श्वनाथ व महावीर स्वामी के समवशरण इस पावन धरा पर भी आये थे । कपिल या कंपिला सड़क मार्ग पर स्थित है। यहाँ का समीपस्थ रेल्वे स्टेशन कानपुर अछनेरा मीटर गेज रेल्वे लाइन पर कायमगंज हैं। कायमगंज से कंपिला की दूरी मात्र 10 किलोमीटर है। जो पक्की सड़क से जुड़ा है। कायमगंज से कपिला 182 मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये प्रति समय टैक्सियां, तांगे, इक्के व बसें मिलती हैं। उ.प्र. व देहली राज्य परिवहन की बसें भी कायमगंज, ऐटा, फरुखाबाद, अलीगढ़, आगरा व देहली से यहाँ आती हैं। आगरा से ऐटा होकर भी यहाँ पहुँचा जा सकता है। आगरा, कानपुर व दिल्ली से कपिला की दूरी क्रमशः 150, 180 व 325 किलोमीटर है। यह जन्मस्थली गंगा नदी के सुरम्य तट पर स्थित है। वेदों व पुराणों में इस नगरी का अनेक स्थानों पर वर्णन मिलता है। यहाँ एक अघातिया टीला है। कहा जाता है कि यहीं भगवान विमलनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी। वास्तव में यहां पहले दिगंबर जैन मंदिर था। खुदाई करने पर उसके भग्नावशेष प्राप्त हो सकते हैं। पहले पौराणिक काल में अखण्ड पांचाल्य राज्य की राजधानी काम्पिल्य ही थी। यहाँ चैत्र कृष्ण अमावस्या से तीन दिन का तथा क्वार की कृष्णपक्ष अमावस्या से भी तीन दिन तक जैन मेला लगता है। यहां एक विशाल परिसर में एक भव्य व आलीशान दिगंबर जैन मंदिर स्थित है। जिसमें 11 जगह दर्शन हैं। जिनालय लगभग 2 मीटर ऊँची जगती पर बना है। जिसका अपना विशाल प्रवेश द्वार है। जिनालय में स्थित वेदिकाओं आदि का विवरण इस प्रकार है 1. विशाल मानस्तंभ- जिनालय में प्रवेश करते ही दायीं ओर मुख्य प्रवेश द्वार के पास यह भव्य मानस्तंभ 45 फीट ऊँचा है; जिसके चारों ओर तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं। मानस्तंभ में कुल 8 जिनबिम्ब स्थित हैं। 2. बड़ी प्रतिमा- मानस्तंभ के ठीक सामने लगभग 15 फीट ऊँची विशाल भव्य व आकर्षक भगवान श्री विमलनाथ की मनोहारी प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। यह प्रतिमा काले पाषाण से निर्मित हैं व नवीन है। 3. चौबीसी- इस प्रतिमा के दर्शन करने के बाद श्रद्धालु चौबीसी जिनालय पहुंचता है। यहाँ आमने-सामने 12-12 जिनबिम्ब कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं। सभी प्रतिमायें समान आकार, प्रकार व लंबाई की हैं व मनोहारी हैं। कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित चौबीसी देश के कम स्थानों पर ही है। _4. चरण-चिह्न- आगे प्रवेश करने पर एक चबूतरे पर भगवान विमलनाथ के.प्राचीन चरण स्थापित हैं। यह चरण इसी जिनालय की नींव खोदते मुख्य द्वार के पास श्रद्धालुओं को प्राप्त हुये थे। इन चरणों के दर्शन मात्र से मन प्रफुल्लित हो जाता है। 5. चरण छत्री-आगे एक अन्य परिसर में प्रवेश करने के पूर्व श्रद्धालुओं को एक चरण छत्री में स्थित भगवान के चरण-चिह्नों के दर्शन होते हैं। ____6. छत्री के पास ही एक भव्य वेदिका पर तीन जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। जिनमें मध्य में स्थित भगवान विमलनाथ व उसके पार्श्व भागों में विराजमान भगवान शान्तिनाथ जी एवं मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमायें विराजमान हैं। भगवान विमलनाथ की प्रतिमा पद्मासन में है, जबकि अन्य दो प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। वेदिका पर दो अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी विराजमान हैं। मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 183 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. आगे हमें बायीं ओर स्थित दूसरी वेदिका पर भगवंतों के दर्शन होते हैं । यहाँ भी मध्य में भगवान विमलनाथ की पद्मासन मुद्रा में प्रतिमा विराजमान हैं, जबकि पार्श्व भागों में भगवान आदिनाथ व भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमायें विराजमान हैं । वेदिका पर 4 अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं । इस वेदिका की सभी प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं। 8. प्रवेश द्वार के सामने 3 वेदिकायें बनी हुई हैं । बायीं ओर स्थित वेदिका पर प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान हैं । वेदिका पर 6 अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी विराजमान हैं, एक प्रतिमा पर प्रशस्ति नहीं है। न ही प्रतीक चिह्न स्थित हैं । जिससे यह प्रतिमा अतिप्राचीन प्रतीत होती है। इससे सिद्ध होता है कि यह जिनालय अतिप्राचीन है। जिसका समय-समय पर जीणोद्धार होता रहा है । 9. श्रद्धालु अब जिनालय के सबसे महत्वपूर्ण भाग में मध्य वेदिका के सामने पहुँचता है; जहाँ गंगा नदी के जल से उद्भूत प्राप्त हुई प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें अति अतिशयकारी, मनमोहक व भव्य हैं । वेदिका पर मध्य में जिनालय के मूलनायक भगवान श्री विमलनाथ विराजमान हैं । यह प्रतिमा चॉकलेटी ( कत्थई वर्ण की) रंग की पद्मासन मुद्रा में मुस्कराती प्रतीत होती है । इस प्रतिमा के बाल गुच्छ हैं व ऊपर चोटी के रूप में दिखाई पड़ते हैं । प्रतिमा के कर्ण कन्धों को स्पर्श करते हैं । मूलनायक के बायीं व दायीं ओर प्रथम व अंतिम तीर्थंकर भगवंतो की पद्मासन प्रतिमायें विराजमान हैं। एक प्रतिमा के पादमूल में प्रशस्ति, चिह्न व निर्माण काल भी अंकित नहीं है। श्रद्धालु यहां आकर भावविभोर हो जाते हैं और उनका यहां से हटने को मन नहीं करता । मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली इन प्राचीन प्रतिमाओं के दर्शन करने मात्र से पाप नष्ट होते हैं । वेदिका पर दो अन्य प्रतिमायें भी विराजमान हैं । 10. मध्य वेदिका के दायीं ओर स्थित मनोहारी वेदिका पर कुल 7 प्रतिमायें विराजमान हैं । वेदिका के मध्य में आसीन प्रतिमा भगवान विमलनाथ की है जो अकल्पनीय रूप से अति कलात्मक व कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित है । . 11. इस वेदिका पर भी कुल 7 जिनबिम्ब स्थापित हैं, जिनमें मध्य में विराजमान प्रतिमा भगवान विमलनाथ की है । इस वेदिका पर प्रतिष्ठापित प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में स्थित है इस तरह इस क्षेत्र के दर्शन कर दर्शनार्थियों का मन मयूर नाच उठता है व उन्हें पुनः इस क्षेत्र के दर्शन करने के लिए आने को प्रेरित करता है । क्षेत्र पर आधुनिकतक सभी सुविधाओं युक्त धर्मशाला मौजूद है । यहाँ यात्रियों को रुकने व भोजन पानी की समुचित व्यवस्था भी उपलब्ध है। यहां सरकारी अतिथि गृह भी है । जिसमें श्रद्धालु रुक सकते हैं। श्रद्धालुओं को चाहिये कि वे इस पावन पुनीत भगवान विमलनाथ की चार कल्याणक संपन्न भूमि व क्षेत्र के दर्शन कर अपने आप को कृतार्थ करें व क्षेत्र के विकास में अपना योगदान दें । 184■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपुरी जैनधर्म के 15वें तीर्थंकर भगवान श्री धर्मनाथ का जन्मस्थान फैजाबादलखनऊ रोड पर फैजाबाद से 17 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम सोहावल के पास राई थाना कोतवाली से मात्र 1.5 किलोमीटर दूरी पर स्थित है । रत्नपुरी नामक यह स्थल ग्राम में स्थित मुस्लिम आबादी से घिरा है । यहाँ ग्राम में प्रवेश करने पर सबसे पहले श्वेताम्बर जिनालय दिखाई पड़ता है। इस जिनालय के पश्चात् एक संकीर्ण गली से हम प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण स्थल पर पहुंचते हैं। यह स्थल एक टीला है जिसकी खुदाई करने पर भगवान धर्मनाथ की जन्मभूमि से संबंधित पुरातत्व साक्ष्य मिल सकते हैं। इसी टीले से कलकल नाद करती सुरम्य सरयू नदी को प्रवाहित होते देख कर मन को असीम शान्ति मिलती है व अति आनंद की अनुभूति होती है। भगवान धर्मनाथ जिनालय- इसी टीले के पास भगवान श्री धर्मनाथ की जन्मभूमि पर एक विशाल परिसर में भगवान धर्मनाथ का भव्य जिनालय स्थित है। इस जिनालय में अतिशयकारी, भव्य व मनोहारी भगवान धर्मनाथ की वज्र चिह्न युक्त तीन फीट से अधिक ऊँची प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं; जिनके दर्शन करते ही हृदय कमल खिल जाता है व दर्शनार्थी का यहाँ से हटने का मन नहीं करता। जिनालय में स्थित इस एकमात्र वेदिका पर भगवान धर्मनाथ की प्रतिमा के अतिरिक्त लगभग एक फीट ऊँची भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा भी विराजमान है। इसके अलावा वेदिका पर भगवान धर्मनाथ, शान्तिनाथ की अन्य प्रतिमायें भी विराजमान हैं वेदिका पर एक अन्य प्रतिमा विराजमान हैं; जिस पर प्रतीक चिह्न अंकित नहीं है । यहीं वेदिका के पास भगवान धर्मनाथ के अष्टधातु निर्मित चरण भी स्थापित हैं । यही भगवान धर्मनाथ की जन्मभूमि मानी जाती है । वेदिका के समीप ही माता पद्मावती देवी की दो मूर्तियां भी विराजमान है। । 1 चरण छत्री - यह छत्री जिनालय से लगभग 500 कदम की दूरी पर पवित्र सरयू नदी के किनारे स्थित है। यह छत्री ऊँचाई पर एक छोटे से टीले पर अवस्थित है । इस छत्री में भगवान धर्मनाथ के चरण स्थापित हैं । यहीं एक शिलालेख में भगवान के गर्भकल्याण का वर्णन है । चरण - चिह्न एक से 1.5 मीटर ऊँचाई पर स्थित है। इस चरण वेदिका के बाईं ओर भी एक शिलालेख वालुका पत्थर की चट्टान पर खुदा हुआ है। जिसमें रत्नपुरी नगरी का नाम भगवान धर्मनाथ के साथ खुदा है । यह शिलालेख एक पुराने शिलालेख के स्थान पर (जो कालवश नष्ट हो गया था ।) सं. 1839 में पुनः लगाया गया था । अयोध्या आने वाले दर्शनार्थिओं को भगवान धर्मनाथ की जन्मभूमि के दर्शन कर अवश्य पुण्य लाभ लेना चाहिये व तीर्थ के विकास हेतु यथोचित मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 185 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान भी देना चाहिये। फैजाबाद से सोहावल ग्राम व रनाई थाना कोतवाली तक के लये हमेशा टैक्सियां उपलब्ध रहती है। रनाई थाना के बगल से जिसके किनारे एक शासकीय विद्यालय भी है; रत्नपुरी को एक सड़क जाती है। यहाँ से रत्नपुरी मात्र 1.5 किलोमीटर दूर है। यात्रियों को सोहावल ग्राम या रनाई थाने से रत्नपुरी पहुँचने के लिये रिक्शे मिलते हैं। मुख्य सडक से यहाँ तक पैदल भी जाया जा सकता है। यात्रियों को यहाँ रुकने के लिये धर्मशाला की सुविधा भी उपलब्ध है। हस्तिनापुर यह तीर्थ-क्षेत्र उ.प्र. के मेरठ शहर से 30 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। दिल्ली से हस्तिनापुर की दूरी लगभग 100 किलोमीटर है। दिल्ली व मेरठ से यहाँ के लिये सीधी बसें मिलती हैं। यहाँ यात्रियों को ठहरने के लिये सर्वसुविधा-युक्त धर्मशालायें विद्यमान हैं। यात्रियों के भोजन की यहाँ समुचित व्यवस्था है। इस धरा पर 16वें तीर्थंकर भगवान श्री शांतिनाथ, 17वें तीर्थंकर भगवान श्री कुंथुनाथ एवं 18वें तीर्थंकर श्री अरहनाथ जी ने जन्म लिया था। यह वह पवित्र स्थान है। जहाँ कामदेव व चक्रवर्ती रहे भगवान श्री शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ के पहले तीन कल्याणक संपन्न हुये थे। यहाँ अनेक विशाल जिनालय हैं। बस स्टेण्ड के पास प्राचीन जिनालय स्थित हैं। इस स्थान से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर जंगलों से घिरे प्राकृतिक वातावरण में नसिया जी हैं। सड़क किनारे स्थित नसिया में भगवान श्री कुंथुनाथ व अरहनाथ जी के चरण-चिह्न विराजमान है। जबकि यहाँ से और 500 गज की दूरी पर एक अन्य नसिया जी में भगवान श्री शांतिनाथ के चरण-चिह्न स्थित हैं। यहां एक भव्य जिनालय का निर्माण लगभग पूर्णता की ओर है। बस स्टेण्ड के पास स्थित जिनालयों का विस्तृत विवरण इस प्रकार है यहाँ जंबूद्वीप, सुमेरुपर्वत की रचना, त्रिकाल चौबीसी जिनालय, कमल मंदिर, त्रिमूर्ति जिनालय, पहाड़ी पर भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ जिनालय; प्राचीन जिनालय आदि प्रमुख दर्शनीय है। एक विशाल टीलेनुमा आकृति में त्रिकाल चौबीसी की भव्य संरचना है। सर्वोच्च भाग पर अति मनोहर भगवान आदिनाथ की विशाल पद्मासन प्रतिमा विराजमान हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर गणिनीप्रमुख विदुषी आर्यिका श्री ज्ञानमति माता जी का सान्निध्य प्रायः उपलब्ध रहता है। आपकी ही प्रेरणा के परिणामस्वरूप यह तीर्थ-क्षेत्र दिनों-दिन उन्नति के शिखर की ओर अग्रसर हो रहा है। 186 - मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथिलापुरी 19वें तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ एवं 21वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ की जन्मभूमि पुराणों के अनुसार बंगदेश में स्थित थी । जिसका सही-सही पता अभी. तक नहीं चल पाया है। हाँ, कुछ जैन विद्वान वर्तमान नेपाल की सीमा पर स्थित जनकपुरी को ही मिथिलापुरी मानते हैं। यहां उपरोक्त तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म व तप (दीक्षा) कल्याणक संपन्न हुये थे । इस नगरी की सही स्थिति ज्ञात करना शोध का विषय हैं। राजगृही यह वह प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र है, जहां भगवान महावीर स्वामी का समवरण अनेक बार आया था । यहाँ के राजा श्रेणिक भगवान महावीर स्वामी के अनन्य भक्त थे । रानी चेलना ने राजा श्रेणिक को सही राह दिखाई थी । यह तीर्थ क्षेत्र कई किलोमीटर के क्षेत्र में विस्तृत है। यहां चार पहाड़ियों पर अतिप्राचीन दिगंबर जैन मंदिर स्थित है । यही वह पवित्र नगरी है; जहां 20वें तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ के गर्भ, जन्म व तप कल्याणक संपन्न हुये थे। यहां भगवान मुनिसुव्रतनाथ का विशाल व भव्य जिनालय है। एक स्तंभ (मानस्तंभनुमा आकृति) पर चारों ओर भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमायें स्थित हैं। शहर में भी कुछ प्राचीन जिनालय स्थित हैं । यहीं विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर स्वामी की प्रथम देशना हुई थी व उनका समवशरण आया था । इसी स्थल पर इस उपलक्ष्य में भगवान महावीर स्वामी के 2500 वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर एक विशाल भव्य व वास्तुशिल्प के लिये प्रसिद्ध जिनालय का निर्माण किया गया है। जिसके भीतर सीढ़ियों के मार्ग से ऊपर तक जाकर चारों दिशाओं में स्थित भगवान महावीर की प्रतिमा के दर्शन किये जाते हैं और जिसकी परिक्रमा तीर्थयात्री बड़े ही भक्तिभाव से किया करते हैं । शौरीपुर (बटेश्वर ) उ.प्र. के शिकोहाबाद से इस तीर्थ क्षेत्र की दूरी 14 किलोमीटर की है । उ.प्र. के ही इटावा से वाह होकर इस तीर्थ क्षेत्र की दूरी 50 किलोमीटर है। मध्यप्रदेश . के भिण्ड नगर से यह तीर्थ क्षेत्र 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है तथा आगरा से भी इस तीर्थ क्षेत्र की दूरी 80 किलोमीटर हैं । यह तीर्थ क्षेत्र यमुना नदी के किनारे अति रमणीक टीले जैसी भूमि पर स्थित है। यमुना किनारे ही हिंदुओं का पवित्र तीर्थ बटेश्वर स्थित है; जहाँ सौ से अधिक शिवलिंग स्थापित हैं । बटेश्वर मध्य-भारत के जैन तीर्थ ■ 187 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भी एक विशाल जिनालय स्थित है। जिसके ऊपरी तल पर तीन विशाल वेदियां हैं, जिनमें सौ से अधिक जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं। यहाँ से शौरीपुर की दूरी मात्र 2.5 किलोमीटर की है। यमुना किनारे यह पवित्र क्षेत्र ही 22वें तीर्थंकर भगवान श्री नेमिनाथ स्वामी की गर्भ व जन्मभूमि है। इस पवित्र भूमि पर भगवान नेमिनाथ की चरण छत्रियां भी स्थित हैं। एक विशाल परिसर में दो भव्य जिनालय स्थित हैं। प्रथम जिनालय में काले पत्थर की भगवान श्री नेमिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में अति आकर्षक.व कलापूर्ण प्रतिमा विराजमान हैं। दूसरे जिनालय में तीन वेदिकायें हैं, मध्य की वेदिका पर पद्मासन मुद्रा में भगवान श्री नेमिनाथ की लगभग 4 फीट अवगाहना की मनोज्ञ मूर्ति विराजमान हैं। जिसके दर्शन मात्र से कर्मों का क्षय होता है। बटेश्वर में यात्रियों को रुकने के लिये विशाल धर्मशाला भी स्थित है। पास में प्राचीन श्वेतांबर जिनालय भी स्थित है। बटेश्वर स्थित जिनालय में तलभाग में अतिशयकारी भगवान श्री अजितनाथ की प्रतिमा विराजमान है, यह प्रतिमा अतिप्राचीन है व पाषाण खण्ड पर उत्कीर्ण पद्मासन मुद्रा में है। कुडलपुर यह अंतिम तीर्थेश भगवान श्री महावीर स्वमी की गर्भ, जन्म व दीक्षा कल्याणक भूमि है। यहाँ एक परिसर में श्वेतवर्ण की पद्मासन मुद्रा में लगभग 6 फीट ऊँची विशाल व मनोज्ञ प्रतिमा भगवान श्री महावीर स्वामी की विराजमान है। यहीं जिनालय के सामने स्थित चबूतरे पर भगवान श्री महावीर स्वामी के चरण-चिह्न स्थापित हैं। यह जन्मभूमि प्राचीनतम नालंदा के समीप एक वृहद परिसर में स्थित है वर्तमान में यह झारखंड राज्य में स्थित है। यहीं पर पू. आर्यिका ज्ञानमती माताजी के सदप्रयासों से नंधावर्त नामक राजमहल का निर्माण किया गया है, जो अंतिम तीर्थंकर महावीर की बाल-लीलाओं एवं क्रीड़ाओं की स्थली रहा है। 188 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिच्छेत्र पार्श्वनाथ जहाँ घोर उपसर्ग सहा था; यह स्थान वही है। केवलज्ञान प्राप्त कर पारस, भगवन बने यहीं हैं। उ.प्र. के बरेली जिलान्तर्गत आंवला तहसील में रामनगर किला स्थित अहिच्छत्र पार्श्वनाथ तीर्थ-क्षेत्र जैनियों का वह महान तीर्थ-क्षेत्र है; जहाँ श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर ने घोर उपसर्गों को अपने कर्मों का फल समझ वीतरागता धारणा कर केवलज्ञान प्राप्त किया था। यह वह पावन धरा है; जहाँ नाग योनि से धरणेन्द्र- पद्मावती बने देवों ने स्वर्गलोक से आकर तीर्थंकर के ऊपर हो रहे उपसर्गों को देख अपने फण से उपसर्ग दूर किया था। __ इस स्थान को तिखाल ("आला") वाले बाबा के नाम से जाना जाता है वर्तमान नवीन जिनालय के स्थान पर हजारों वर्ष प्राचीन एक जिनालय था। प्राचीनकाल में जब इस जिनालय का जीर्णोद्धार हो रहा था, उन दिनों रात्रि में मंदिर के पुजारी व माली ने मंदिर के अंदर कुछ काम करने की आवाजें सुनी तो रात्रि में ही उन्होंने मंदिर का ताला खोला, तो यह देख उन्हें आश्चर्य हुआ कि वहां एक दीवाल बनी हुई है, जिसमें एक आले “तिखाल" में भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। निश्चित ही ये दैवीय रचना थी। तभी से इसकी ख्याति 'तिखाल' वाले बाबा के नाम से हो गयी। सन् 1975 में पुनः इस जिनालय का जीर्णोद्धार कराया गया। तब वेदिका को ऊँचा करने हेतु खुदाई में एक जगह आले में दीपक और सिक्का रखा मिला था। जिसे दर्शनार्थियों के लिए एक महीने तक रखा गया। तत्पश्चात् विद्वानों के कहने पर इन्हें वैसा ही रख दिया गया। यह तीर्थ-क्षेत्र सड़क मार्ग पर स्थित है। यात्रियों को अहिच्छत्र पहुँचने के लिये दिल्ली, आगरा व बरेली से ट्रेन द्वारा आंवला या रेवती बहोड़ाखेड़ा स्टेशन पर उतरना चाहिये। यहाँ से अहिच्छत्र के लिये टैक्सियां, बसें, इक्के आदि हमेशा उपलब्ध रहते हैं। ये सभी साधन सीधे अहिच्छत्र के जिनालय के सामने स्थित बस स्टैण्ड पर ही यात्रियों को उतारते हैं। मथुरा, आगरा, अलीगढ़, बरेली व दिल्ली से यह क्षेत्र बस मार्ग से भी जुड़ा है। क्षेत्र तक पक्का, सड़क मार्ग है। रेवती वहोड़ा खेड़ा से क्षेत्र की दूरी 7 किलोमीटर व आंवला से लगभग 20 किलोमीटर है। यही वह तीर्थ भी है। जहाँ वादीश्रेष्ठ, पात्रकेसरी मुनि महाराज ने 7वीं सदी में देवागमस्त्रोत (आप्त मीमांसा) सुनकर अपने 500 शिष्यों के साथ जैनधर्म स्वीकार किया था व जो बाद में विद्यानंद जी मुनि के नाम से विख्यात हुये। बाद में आपने ही 8000 श्लोक प्रमाण अष्टसहस्त्री ग्रंथ व तत्वार्थ सूत्र पर महाभाष्य टीका लिखकर जन-जन का उपकार किया। यहीं किले में एक टीले पर विशाल व ऊँची कुर्सी पर पाषाण का एक 7 फीट ऊँचा स्तंभ है; जो भग्न मानस्तंभ का हिस्सा प्रतीत होता है। खुदाई करने पर यहाँ प्राचीन जिनालय के अवशेष व मूर्तियां प्राप्त हो सकती हैं। पास ही एक अन्य मध्य-भारत के जैन तीर्च- 189 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किले में पार्श्वनाथ नाम का टीला भी है; जहाँ से निकली प्राचीन जिन मूर्तियां लखनऊ व दिल्ली म्यूजियम की शोभा बढ़ा रहीं हैं । इस तीर्थ क्षेत्र पर यात्रियों को निम्नांकित जिनालयों के दर्शन कर पुण्यलाभ लेना चाहिये मूल विशाल पार्श्वनाथ जिनालय - इस विशाल जिनालय का निर्माण प्राचीन जिनालय के स्थान पर किया गया है । जो सं. 1978 का निर्मित है । यह सात शिखरों वाला भव्य व आकर्षक जिनालय भूतल पर न होकर प्रथमतल पर स्थित है। इस जिनालय में कलापूर्ण विभिन्न आकृतियों वाली 7 वेदिकायें हैं। 1. तिखाल वाले बाबा मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की वेदी- 10वीं सदी में निर्मित आले (तिखाला) से प्राप्त भगवान पार्श्वनाथ जी काले पाषाण से निर्मित प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में वेदिका पर जिनालय के मूलनायक के रूप में विराजमान हैं । यह अतिसकारी प्रतिमा जन-जन के संकटों को दूर करने वाली है । यह प्रतिमा लगभग 1 फीट ऊँची है व प्रतिमा के सिर पर सातफण सुशोभित हैं । दर्शनमात्र से लोगों को असीम शान्ति का अनुभव होता है व श्रद्धालुओं को यहाँ से हटने का मन नहीं करता । वेदिका पर मूल प्रतिमा के आगे चरण-चिह्न स्थित हैं; जो एक बालुका पत्थर पर उत्कीर्ण हैं । चरणपादुका पर निम्न लेख उत्कीर्ण है - " श्री मूलसंघे नैद्य संवाये बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाचार्यनार्थ अहिच्छत्र नगरे श्री श्री पार्श्वनाथर्चन चरण प्रतिष्ठिापित श्री रस्तु ।" इस शिलालेख से ये स्पष्ट है कि इस क्षेत्र पर परम पूज्य आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी तपस्या रत रहे हैं। यहां श्रद्धालु घंटों बैठकर प्रतिमा को निहारता रहता है; फिर भी उसके नयन तृप्त नहीं होते। यह वेदिका जिनालय के मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित हैं । 2. यह वेदिका उपरोक्त मूल वेदिका के बाईं ओर स्थित है। यह वेदिका तीन सुंदर हंसो व कमलाकार आकृति वाली है । इस सुंदर वेदिका पर अंतिम तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी की 6 फीट ऊँची मनोहारी प्रतिमा विराजमान है । यह प्रतिमा चाकलेटी रंग वाली है। इस प्रतिमा की शान्त मुद्रा व वीतरागी छवि देखते बनती है। 3. उपरोक्त वेदी समान वेदिका पर भगवान श्री पार्श्वनाथ की श्यामवर्ण की 5 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में मूर्ति विराजमान है । इस प्रतिमा के सिर पर 11 सर्पफणों की फंणावली है, जो अति आकर्षक है। यह वैदिका के दायीं ओर स्थित है । 4. आगे की वेदिका समवशरण रूप है। इस भव्य व आकर्षक समवशरण में शीर्ष भाग पर पार्श्वनाथ की चारों दिशाओं में मुख किये चार सुंदर पद्मासन मूर्तियां विराजमान हैं। ये प्रतिमायें अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान हैं। रचना की प्रतिष्ठा सन् 1990 में आचार्य अजितसागर जी के सानिध्य में हुई थी। इस समवशरण में चार अति सुंदर विमान पुष्पवृष्टि करते दिखाई गये हैं। इस समवशरण का विशेष महत्व इसलिये है कि इसी क्षेत्र पर भगवान पार्श्वनाथ ने 190■ मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान प्राप्ति के बाद समवशरण में विराजमान होकर प्रथम देशना दी थी। इस समवशरण के दर्शन से वह याद ताजी हो जाती है। 5. यह वेदिका सातफणी है जो अपने आप में अनूठी है व अलौकिक है। इस सुंदर वेदिका पर 7 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन मुद्रा में प्रतिमा विराजमान हैं। इस प्रतिमा के ऊपर ग्यारह फणों वाली फणावली सुशोभित है। इस प्रतिमा के दर्शन करने से ऐसा आभास होता है मानों कलाकार ने संपूर्ण वीतरागता को पाषाण में उकेर कर साकार कर दिया है। इस वेदिका व छठी वेदिका के बीच मां पद्मावती देवी की मूर्ति प्रतिष्ठित की गई है। यह प्रतिमा मनमोहारी व इच्छापूर्ति करने वाली है। 6. इस वेदिका पर 10वीं सदी के पूर्व की तीन प्राचीन मनोहर प्रतिमायें विराजमान है। सभी तीनों प्रतिमायें पाषाण खण्ड़ों पर उत्कीर्ण हैं। बायीं ओर स्थित पाषाण खंड पर पंच बालयति की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं व उनके मध्य फणालंकृत भगवान पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा बनी हुई है। परिकर के नीचे एक यक्ष व दो यक्षणिओं की प्रतिमायें भी बनी है। इनके ऊपर कायोत्सर्ग मुद्रा में 10 इंच आकार की तीर्थंकर प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। मध्य में स्थित फणावली युक्त प्रतिमा जो पद्मासन मुद्रा में है; भगवान पार्श्वनाथ की है। यह प्रतिमा 2.5 फीट ऊँची है। इस प्रतिमा के पादपीठ पर दो सिंह है। दायीं ओर स्थित शिलाखंड पर तीन फीट अवगाहना की भगवान ऋषभदेव की मूर्ति उत्कीर्ण है जिसके पार्श्व भागों में यक्ष-यक्षिणी बने हैं। भामंडल के दोनों ओर हाथी उत्कीर्ण हैं। इसके ऊपर इन्द्र हाथों में स्वर्ण कलश लिये क्षीरसागर के पावन जल से भगवान का अभिषेक करते नजर आते हैं। प्रतिमाओं के दर्शन कर मन मयूर प्रसन्न होकर नाचने लगता है। इस वेदिका पर 12 से अधिक और जिन-प्रतिमायें भी विराजमान हैं। 7. प्रथमतल पर स्थित जिनालय की यह अंतिम वेदिका है। इस कलापूर्ण वेदिका पर मध्य में सप्त फणावली युक्त श्यामवर्ण की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा मिट्टी को पकाकर बनाई गई है। ऐसी प्रतिमायें देश में कुछेक स्थानों पर ही हैं। इस प्रतिमा के नीचे छोटी-छोटी चौबीस प्रतिमायें भी बनीं हैं; जो चौबीसी की प्रतीक हैं। प्रतिमा के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित हैं व कान कंधों को स्पर्श करते हैं। बाईं ओर भगवान पार्श्वनाथ की व प्राचीन प्रतिमा है; जो प्राचीन जिनालय में विराजमान थी व आतताइयों के आक्रमण के समय इस मूर्ति को लेकर मंदिर का माली कई दिनों तक कुयें में छिपा रहा था। प्रतिमा के सिर पर पंचमुखी फण हैं। इसमें छह अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। दायीं ओर भगवान पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा फणावली सहित विराजमान है। यह प्रतिमा संगमरमर निर्मित है। इसी वेदिका पर भू-गर्भ से प्राप्त दो अत्यन्त प्राचीन मनोज्ञ व कलापूर्ण प्रतिमायें भी विराजमान हैं। जो इस क्षेत्र की प्राचीनता की प्रतीक हैं। प्रथम मूर्ति अष्टधातु से निर्मित है व इसमें पांच बालयति तीर्थंकरों की प्रतिमायें स्थित हैं। दूसरी प्रतिमा त्रितीर्थ है; मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 191 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसमें वालुका प्रस्तर पर भगवान शान्तिनाथ, कुंथनाथ व अरहनाथ की प्रतिमायें स्थित हैं। वेदिका पर विराजमान प्रतिमाओं के दर्शन कर हृदय की कली-कली खिल जाती है। नीचे पृथ्वीतल पर भी नवनिर्मित कला से परिपूर्ण दो भव्य शिखरबंद जिनालय बने हये हैं। 8. तीस चौबीसी जिनालय- यह भव्य व चित्ताकर्षक जिनालय ग्यारह शिखरों वाला है व अपने आप में अनूठा है। इस जिनालय का निर्माण आर्यिका शिरोमणी श्री ज्ञानमति माता की प्रेरणा से हुआ। इस जिनालय में दायीं व बाईं ओर 10 कमलाकार विशाल रचनायें हैं। इन कमलाकार रचनाओं में से प्रत्येक पर तीन स्तरों में (नीच, मध्य व ऊपर) कमल पंखुड़ियों पर 24-24 तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान हैं जो भूत, भविष्यत व वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों की प्रतीक हैं। इस तरह 10 कमलाकार आकृतियों पर कुल 720 जिनबिम्ब विराजमान है। 10 कमलाकार आकृतियां ढाई द्वीप के पांच भरत, पांच ऐरावत, कुल दस क्षेत्रों की तीनों कालों की चौबीसियों के प्रतीक हैं। पांच कमल बायीं व पांच कमल दायीं ओर बनाये गये हैं। दोनों के मध्य में सामने की दीवाल पर अतिमनोज्ञ 13 फीट 6 इंच ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में काले पाषाण से निर्मित नाग देवता व फणावली युक्त भगवान श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा को विराजमान किया गया है। जो मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगा देती है। मेरी दृष्टि में देश में अन्यत्र कहीं भी इतना भव्य, आकर्षक, कलापूर्ण व मनोज्ञ जिनालय नहीं है। 8. भगवान पार्श्वनाथ (पद्मावती-धरणेन्द्र) जिनालय- इस भव्य जिनालय का उद्घाटन 2007 में गणिनी प्रमुख आर्यिका ज्ञानमती माता जी के सान्निध्य में संपन्न हुआ था। इस जिनालय में प्रवेशद्वार के ठीक सामने 6 फीट ऊँची भव्य व मनोहारी पद्मासन में व काले पाषाण से निर्मित फणावली युक्त भगवान श्री पार्श्वनाथ की अतिमनोज्ञ प्रतिमा विराजमान हैं। इस प्रतिमा के दोनों पार्श्व भागों में मां पद्मावती देवी व धरणेन्द्र की अति सुंदर प्रतिमायें विराजमान हैं। मां पद्मावती व धरणेन्द्र की इतनी विशाल प्रतिमायें अन्यत्र बहुत कम हैं। रामनगर स्थित अन्य जिनालय इस प्रकार हैं- ज्ञान मंदिर जी- अहिच्छेत्र तीर्थ स्थान के मुख्य गेट से सड़क पार ज्ञान मंदिर परिसर स्थित है। इस परिसर में दो जिन मंदिर स्थित है। परिसर में एक प्राचीन व एक नवनिर्मित जिनालय है। प्रथम जिनालय अंदर की ओर स्थित है। इस जिनालय में मूलनायक के रूप में 1.5 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में भगवान श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। वेदिका पर लगभग एक दर्जन से अधिक जिनबिम्ब भी विराजमान है। एक नवनिर्मित विशाल जिनालय में जो ज्ञान मंदिर के प्रवेश द्वार के नजदीक है। भगवान श्री पार्श्वनाथ की 11.5 फीट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा को प्रतिष्ठापित किया गया है। परिसर में धर्मशाला व छात्रनिवास भी है। गांव का मंदिर-क्षेत्र से लगभग 500 मीटर की दूरी पर गांव में एक भव्य 192 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनालय स्थित है। यह जिनालय शिखर युक्त हैं। जिनालय के गर्भगृह में 4 फीट 3 इंच ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की अतिमनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा श्याम वर्ण की है। इस प्रतिमा की विशेषता यह है कि इस मूर्ति के शिरोभाग पर स्थित फणावली अप्रत्याशित रूप से मूर्ति से पृथक है। साथ ही इस प्रतिमा की फणावली पर निम्न श्लोक भी लिखा है- ...' अन्यथासिद्धसाध्यत्व, यत्र-तत्र त्रवेण किम। नान्यथासिद्धसाध्यत्व, यत्र-तत्र त्रवेण किम।। इस वेदिका पर लगभग 1.5 फीट अवगाहना की दो पद्मासन प्रतिमायें जो अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की है; भी विराजमान है वेदिका पर अन्य प्रतिमायें भी हैं, जिनमें कुछ धातु निर्मित हैं। कहा जाता है कि प्रातः, दोपहर व सांयकाल में प्रतिमा को देखने पर अलग-अलग रूप दिखाई पड़ते हैं। यह जिनालय तीर्थ-क्षेत्र कमेटी के अधीन है। इस तीर्थ-क्षेत्र पर चैत्र कृष्ण अष्टमी से बारस तक विशाल मेला लगता है। श्रावण शुक्त सप्तमी व पौष कृष्ण एकादशी को क्रमशः भगवान का निर्माण महोत्सव व पार्श्वनाथ जयन्ती मनाई जाती है। तीर्थ-क्षेत्र पर वह कुआं स्थित है। जिसमें माली मूर्ति लेकर कई दिनों तक छिपा रहा था। कहा जाता है कि इस कुएं का जल रोग दूर करने की सामर्थ्य रखता है। कहा जाता है। कि मंदिर में एक विशाल सर्प का जोड़ा भी आता है, जो मूल वेदिका की प्रदक्षिणा भी देता है। आज तक इस जोड़े ने किसी को हानि नहीं पहुंचाई। स्थानीय वासियों के द्वारा रात्रि में जिनालय से घण्टे बजने आदि की आवाज आना भी बताया जाता है। क्षेत्र पर यात्रियों के निवास हेतु सर्वसुविधायुक्त धर्मशालायें बनी हुई हैं। क्षेत्र के बाहर प्रथम परिसर में क्षेत्र की कमेटी भोजनालय भी संचालित करती है। मानस्तंभ मंदिर से पूर्व की ओर एक विशाल, सुंदर व मनोरम मानस्तंभ भी स्थित है; जिसमें शीर्ष पर चारों दिशाओं में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमायें विराजमान है। __ क्षेत्र पर 17500 वर्गफीट के विशाल मैदान में चौबीस शिखरों युक्त चौबीसी का निर्माण कार्य भी चल रहा है। जिसमें प्रत्येक वेदिका पर 7 फीट 3 इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमायें विराजमान की जायेंगी। कमठ उपसर्ग को प्रदर्शित करने वाली आकृतिओं का निर्माण भी प्रस्तावित है। श्रद्धालुओं को चाहिये कि वे इस क्षेत्र के अवश्य दर्शन कर पुण्य लाभ कमायें व क्षेत्र के विकास में अपना योगदान दें। मथुरा से हाथरस, सिकंदरा, कासगंज व बदायूं होकर अहिच्क्षेत्र पहुंचा जा सकता है। यह सड़क मार्ग है व मथुरा से अहिच्क्षेत्र की दूरी 210 किलोमीटर है। मध्य-भारत के जैन तीर्व. 193 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ-क्षेत्र जम्बूस्वामी (मथुरा) अंतिम केवली भगवान श्री जम्बूस्वामी ने इसी धरा से निर्वाण प्राप्त किया था। यह तीर्थ-क्षेत्र अतिप्राचीन है। यहीं कंकाली टीले से प्राचीनतम जैन प्रतिमायें व स्तूप उत्खन्न से प्राप्त हुये थे। वर्तमान में प्राचीन जिनालय को नवीन स्वरूप प्रदान किया गया है। पहले यह तीर्थ-क्षेत्र जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था। .. यह तीर्थ-क्षेत्र देहली-भोपाल रेल व सड़क मार्ग पर स्थित हैं। यहाँ स्थित विशाल जिनालय व उनमें प्रतिष्ठापित जिन-प्रतिमायें काफी प्राचीन व ऐतिहासिक महत्व की है। यहाँ का प्रमुख जिनालय भगवान श्री जंबूस्वामी के तपस्थल पर स्थित है व प्रथम तल पर स्थित है। इस जिनालय में 9 वेदिकायें स्थित हैं। जिनका विवरण इस प्रकार है 1. मुख्य प्रवेशद्वार के ठीक सामने एक विशाल वेदिका स्थित है। इस वेदिका पर अत्यन्त आकर्षक व मनोज्ञ भगवान श्री अजितनाथ की विशाल पद्मासन मुद्रा में आसीन प्रतिमा विराजमान हैं। इस प्रतिमा के प्रति सहज ही श्रद्धालुओं का ध्यान आकर्षिक होकर केन्द्रित हो जाता है। श्रद्धालुओं को यहाँ से हटने का मन नहीं करता। यह जिन-प्रतिमा श्वेत संगमरमर से निर्मित है व लगभग 5 फीट ऊँची है। प्रतिमा के पीछे अभिषेक का दृश्य अति मनोहारी हैं। इन्द्र देवता अपने विमानों से पुष्प वर्षा करते भी यहाँ दृष्टिगोचर होते हैं। प्रतिमा के ठीक सामने जंबू स्वामी के चरण-चिह्न स्थापित हैं; जो प्राचीन हैं व बालू प्रस्तर शिलाखंड पर उत्कीर्ण हैं। इनके दर्शन मात्र से पापों का क्षय होता है। 2. इस प्रमुख वेदिका के परिक्रमा-पथ में दीवालों के सहारे शेष अन्य वेदिकायें स्थित हैं। बायीं ओर से परिक्रमा करने पर हम सर्वप्रथम भगवान बाहुबली की वेदी के सामने पहुंचते हैं। इस वेदिका पर संगमरमर निर्मित भगवान बाहुबली की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिष्ठापित है। भगवान बाहुबली की प्रतिमायें सभी जगह इसी मुद्रा में स्थित हैं। यह प्रतिमा कलात्मक व लगभग 2.5 फीट ऊँची हैं। श्रद्धालु इस वेदिका पर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुये आगे बढ़ता है। 3. तीसरी वेदिका एक बड़े आकार के आले के रूप में है; जिसमें बालुका प्रस्तर पर नंदीश्वर द्वीप की रचना उकेरी गई है। यह रचना भी लगभग 2.5 फीट ऊँची है। जिसके चारों ओर तेरह-तेरह जिन-प्रतिमायें बनी हुई हैं। इस वेदिका के सामने एक टेबिल पर पद्मासन मुद्रा में अतिमनोज्ञ प्रतिमा विराजमान हैं; जो भगवान मुनिसुव्रतनाथ की है। यह नयनाभिरामी प्रतिमा श्यामवर्ण की है व लगभग 2 फीट ऊँची है। 194 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. बायें कोने पर इस चौथी वेदिका पर कलापूर्ण लगभग 3 फीट ऊँचाई की पद्मासन मुद्रा में भगवान श्री पार्श्वनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। इसी वेदिका पर 6 अन्य जिनबिम्ब प्रतिष्ठापित हैं; जो इसी सिद्धक्षेत्र से मोक्षगति की प्राप्त हुये 6 मुनिराजों के हैं। दर्शन कर श्रद्धालु अपने आपको धन्य अनुभव करता है। 5. चन्द्रप्रभू वेदिका- यह वेदिका भी एक विशाल आले के रूप में दिखाई पड़ती है। इस वेदिका में प्रतिष्ठापित सभी तीर्थंकर प्रतिमायें धातु से निर्मित हैं। इस वेदिका पर विराजी मूर्तियों में सबसे बड़ी मूर्ति अष्टम तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु भगवान की है। ये अधिकांश प्रतिमायें काफी प्राचीन तथा ऐतिहासिक महत्व की हैं। इनमें से अधिकांश के पादमूल में प्रशस्तियां भी अंकित हैं। अधिकांश प्रतिमायें पद्मासन मुद्रा में स्थित है। प्रतिमायें 1 फीट अवगाहना व उनसे छोटी हैं। __6. पार्श्वनाथ वेदिका- यह वेदिका प्रथम वेदिका के ठीक पीछे स्थित है। इस वेदिका पर विराजमान तीनों प्रतिमायें तेईसवें तीर्थंकर भगवान श्री पार्श्वनाथ की है। सबसे प्राचीन प्रतिमा जिस पर सं. 189 अंकित है, वेदिका के मध्य भाग में विराजमान है। इस वेदिका को अतिशयकारी कहा जाता है। इस वेदिका पर विराजमान तीर्थंकरों भगवंतों की आराधना से श्रद्धालुओं की मनोकामनायें अनायास की पूर्ण होती देखी गईं हैं। इस वेदिका पर विराजमान तीनों प्रतिमायें पद्मासन वीतरागी मुद्रा में हैं, व सभी मूर्तियों की अवगाहना लगभग समान (1.5 फीट) है। 7. इस वेदिका पर तीन प्रमुख प्रतिमायें विराजमान है। कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान श्री नेमिनाथ की प्रतिमा तथा पद्मासन मुद्रा में भगवान पार्श्वनाथ व श्री पदमप्रभु की प्रतिमायें विराजमान हैं। वेदिका पर कुछ अन्य छोटी-छोटी प्रतिमायें भी विराजमान हैं ____8. महावीर वेदिका- दायीं ओर के कोने में स्थापित इस वेदिका पर 3 फीट ऊँची अतिमनोज्ञ पद्मासन मुद्रा में भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा विराजमान हैं। चेहरे पर वीतरागता के भाव साफ परिलक्षित होते हैं। वेदिका पर 6 से अधिक अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी विराजमान है। 9. इस विशाल जिनालय की अंतिम वेदिका पर भगवान श्री जंबूस्वामी की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं। यह प्रतिमा भी 2.5 फीट ऊँची सफेद संगमरमर से निर्मित है। यह वेदिका भगवान बाहुबली स्वामी की वेदी के ठीक सामने स्थित है। 10. चौबीसी जिनालय- जिनालय के निम्न तल पर तीन ओर एक भव्य व आकर्षक चौबीसी का निर्माण किया गया है। इस तल पर कुल 25 वेदिकायें हैं; मध्य-भारत के जैन तीर्व- 195 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमें से चौबीस वेदिकाओं पर चौबीस तीर्थंकर प्रतिमायें विराजमान है। अंतिम वेदिका पर जंबूस्वामी की प्रतिमा को प्रतिष्ठापित किया गया है। इस चौबीसी में विराजमान तीर्थंकर प्रतिमाओं के रंग शास्त्रों में वर्णित रंगों से मेल खाते हैं। सभी प्रतिमायें समान आकार की 2 फीट ऊँची पद्मासन मुद्रा में आसीन है। _11. बड़ी प्रतिमा- मुख्य जिनालय के पीछे एक सुंदर बगीचे में खुले आसमान के नीचे एक बड़ी एवं ऊँची जगती पर जंबूस्वामी की निर्वाण स्थली पर भगवान श्री जंबूस्वामी की एक विशाल पद्मासन प्रतिमा विराजमान हैं। यह प्रतिमा लगभग 30 फीट ऊँचाई वाली भव्य, आकर्षक व मनोज्ञ है। यहाँ यात्रियों को असीम शान्ति मिलती है। ___12. चैत्यालय जिनालय- जंबूस्वामी क्षेत्र परिसर से हटकर एक जैन वोर्डिंग हाउस में एक मनोज्ञ चैत्यालय स्थित है। इस चैत्यालय में एक दर्जन से अधिक जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं । यह चैत्यालय परिसर से लगभग 200 मीटर की दूरी पर स्थित है। __ जंबूस्वामी निर्वाण क्षेत्र का परिसर काफी विशाल है। इसमें कार्यालय, यात्रीनिवास, मुनिजन निवास, भोजनशाला, बाग-बगीचे, पाठशाला आदि स्थित हैं। शादी ब्याह के लिये भी परिसर का उपयोग होता रहता है। यह क्षेत्र रेल्वे स्टेशन/बस स्टेशन से लगभग 2.5 किलोमीटर दूर है। 196 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ का शांतिनाथ मंदिर (9वीं सदी) पंचायतन शैली का सबसे प्राचीन मंदिर शेषशैय्या विष्णु दशावतार मंदिर (6वीं सदी) यक्षी लक्ष्मी मध्य भारत के जैन तीर्थ.197 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेा गिरारगिरिजी (ललितपुर) मलनायक श्री १००८ श्री आदिनाथ भगवान सैरोन (ललितपुर) की कुंथुनाथ, शांतिनाथ और अरहनाथ की प्रतिमायें गिरारगिरि के आदिबाबा 19४. मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांशगिरि में अवस्थित आदिनाथ की प्राचीनतम प्रतिमा बड़ागांव (घसान) में विराजमान श्री आदिप्रभ श्री सिद्धक्षेत्र फलहोड़ी बड़ागांव मध्य भारत के जैन तीर्थ.199 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटनागंज (रहेली) के गगनचुम्बी जिनालय THRILAnm सहस्त्रकूट चैत्यालय सहस्त्रफणी पार्श्वनाथ 2000 मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपौरा जी के भगवान आदिनाथ द्रोणगिरि दर्शन मध्य भारत के जैन तीर्थ .201 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेरोन के पार्श्वप्रभु अहारजी के शांतिप्रभू कम्पिला जी के भगवान विमलनाथ 2020 मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रभ, चहारदीवारी देवगढ़ (10 वींशती) अजितनाथ चहारदीवारी देवगढ़ (10 वीं शती) मध्य भारत के जैन तीर्थ 203 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती देवगढ़ (11वीं शती) लक्ष्मी देवगढ़ (11 वीं शती) 2040 मध्य भारत के जैन तीर्थ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणगिरि के भगवान आदिनाथ 35 मलनायक भगगन विमलनाथ भगवान विमलनाथ मध्य भारत के जैन तीर्थ 205 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 • मध्यभारत के तीर्थ सिद्ध क्षेत्र पावागिरि Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पाश्वनाथ, जूड़ी तलैया, जबलपुर मध्यभारत के तीर्थ.207 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलपुर के बड़े बाबा 208. मध्यभारत के तीर्थ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीना जी बारह के शांतिनाथ बीना जी बारहा के बड़े बाबा पजनारी जी, बण्डा-सागर क्षेत्र स्थित प्रतिमाएं मध्यभारत के तीर्थ.209 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोनी जी के पार्श्वप्रभु 210● मध्य भारत के जैन तीर्थ थूवौन जी Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थूबौन जी के आदीश्वर महाराज खंडारगिरी क्षेत्र स्थित प्रतिमाएं खंदार के आदिप्रभु मध्य भारत के जैन तीर्थ •211 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयगिरि गुफाएं 212 • मध्य भारत के जैन तीर्थ ունիով, उदयगिरि गुफा क्रमांक 20 में उत्कीर्ण चरण चिन्ह एवं शिलालेख Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूगर्भ से प्राप्त प्राचीन प्रतिमायें नैनागिरि कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा कुंडलपुर मध्य भारत के जैन तीर्थ.213 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | नए प्रकाशन जैन.वाङ्मय रत्न कोश सं. आचार्य अशोक सहजानन्द (सैट-चार खंड) 3000 रु. ग्रंथराज वही है जो हमारी आत्मचेतना को जगा दे, जिसमें उच्च चिंतन हो और जीवन-सत्य का प्रकाश हो। जैन धर्म- दर्शन की वास्तविकता को समझने के लिए मात्र यही एक कोश पर्याप्त है। इसमें चारों वेदों का सार है। आप घर बैठे चारों धाम की यात्रा का आनन्द ले सकते हैं। गृहस्थ में रहते हुए भी संन्यास को यथार्थ रूप में अनुभव कर सकेंगे। हर पुस्तकालय के लिए आवश्यक रूप से संग्रहणीय ग्रंथराज। . जैन वाङ्मय में तीर्थकर एवं अन्य महापुरुष प्रो. पी.सी. जैन 400 रु. इस कृति में सृष्टिक्रम एवं काल विभाजन के वर्णन के साथ ही जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध किया गया है। चौदह कुलकर, बारह चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण, रूद्र, नारद, कामदेव आदि के वर्णन के साथ चौबीस तीर्थकर एवं उनके माता-पिता का प्रमाणिक वर्णन है। एक संग्रहणीय एवं पठनीय कृति।। तीर्थ वंदन संग्रह सं. कुसुम जैन 400 रु. जैन तीर्थों के इतिहास से सम्बद्ध इस कृति में 40 स्वनामधन्य लेखकों के विशिष्ट साहित्यिक उल्लेख संकलित हैं। सभी लेखकों के विवरण भी ग्रंथ में उपलब्ध है। एक विशिष्ट संदर्भ ग्रंथ। महावीर कथा आचार्य अशोक सहजानन्द 200 रु. इस कृति में भगवान महावीर के जीवन की.बड़ी ही प्रामाणिक प्रस्तुति है। निर्वाण के पूर्व भगवान द्वारा दिये गये अन्तिम अमर संदेश को भी संकलित किया गया है। जन-जन की आस्था के केन्द्र चांदनपुर (श्री महावीरजी) का परिचय भी इसमें है। साथ ही भगवान की आराधना हेतु चालीसा, आरतियों, स्तोत्रों एवं भजनों का अनुपम संकलन भी। धनंजय नाममाला सं. आचार्य अशोक सहजानन्द 200 रु. ___'धनंजय नाममाला' कविराज श्री धनंजय कृत शब्दकोश है, जिसमें गागर में सागर भरा हुआ है। शब्दों को समझने के लिए तथा आगमों व अन्य ग्रंथों के रहस्य Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को समझने के लिए विशिष्ट बोधिदायक ग्रंथ है। इसमें एक-एक शब्द के अनेक अर्थों को बताने के साथ, शब्द बनाने की प्रक्रिया को भी समझाया गया है। गणित और गणितज्ञ 300रु. प्रो. लक्ष्मी चन्द्र जैन इस पुस्तक में गणित की महत्वपूर्ण तिथियों आकृतियों एवं संदृष्टिओं के विवरण के साथ इतिहास में भारतीय गणितज्ञों का स्थान, भारतीय लोकोत्तर गणित, गणित के मूल आधार और संरचनाओं के विकास जैसे महत्वपूर्ण विषयों का समावेश है। साथ ही विश्व के महान गणितज्ञों के जीवन वृत्तान्त भी उपलब्ध हैं। योग साधना रहस्य आचार्य अशोक सहजानन्द 300 5. योग साधना पर हजारों पुस्तकें हैं पर यह ग्रंथ लीक से हटकर योग-साधना के गूढतम रहस्यों से आपका परिचय कराता है। जो आपको मानसिक रूप से तो स्वस्थ बनायेगा ही इसके अतिरिक्त आपकी पारलौकिक यात्रा में भी मार्गदर्शक बनेगा। एक विशिष्ट उपहार, गागर में सागर । संस्कृत - प्राकृत का समानांतर अध्ययन 200 डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव इस कृति में प्राकृत- संस्कृत के समानान्तर तत्वों का सांगोपांग अध्ययन है। प्राकृत वाङ्मय में प्राप्त उन सारस्वत तत्वों की ओर संकेत है, जिनसे संस्कृत वाङ्मय के समानांतर अध्ययन में तात्विक सहयोग की सुलभता सहज संभव है। श्री स्वरोदय सं. आचार्य अशोक सहजानन्द 150 रु. श्री कल्पादि जैनागमों में अष्टांग निमित्त में स्वर को प्रधान अंग माना गया है। स्वरोदय ज्ञान के अभाव में ज्योतिषी भी लंगडा है। श्वास की परख कर ही ज्योतिषी सही समाधान दे सकता है। श्री स्वरोदय स्वर शास्त्र की एक दुर्लभ कृति है। इसे प्रथम बार सुंसंपादित कर उपलब्ध कराया गया है। ज्ञान प्रदीपिका ( प्रश्न - ज्योतिष ) सं. आचार्य अशोक सहजानन्द 150 रु. ज्ञान प्रदीपिका प्रश्न ज्योतिष का एक प्राचीन दुर्लभ ग्रंथ है। इसे सुसंपादित कर प्रथम बार प्रकाशित किया गया है। जैन ज्योतिष से संबद्ध शोधपूर्ण मौलिक सामग्री के संकलन ने इस ग्रंथ को अभूतपूर्व बना दिया है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य पठनीय एवं संग्रहणीय प्रकाशन 1 Gems of Jaina Wisdom (8-Vols) Set Rs. 4000/2 TilloyaPannati(3Vols) Ach Yati Brishabha Rs.3000/World Ethnology from 6000 B.C. G-Jayasene Rs.400/Real Wisdom Ach. Ashok Sahajanand Rs.400/Ancient Republics of Bharat Dr. R.C. Jain Rs.450/6. Ancient Geography of Ayodhya Dr-SN.Pande Rs.200/7. Meru Temples of Angkor Dr.J.D.Jain Rs.200/& Jaina Way of Life . Dr. P.K. Jain Rs.350/9. Jaina &Hindu Logic Dr. P.K. Jain Rs.400/10. Prominent Jaia Eulogies Dasrath Jain Rs.600/11. Jaina Astronomy Dr.S.S. Lishk Rs.400/12. Tao of Jaina Sciences Pro.L.C.Jain Rs.500/13. The Ultimate Destination G.Anandini Rs.150/14. Astrological Talks Dr.S.S. Lishk Rs.80/15. Seevets of face reading Dr S.S. Lishk Rs.80/16. Introduction to Mythology L.Spence Rs.400/17. ज्योतिष कौमुदी (नक्षत्र खंड) पं. दुर्गाप्रसाद शुक्ल 200/18. द्वादश भाव रहस्य पं. दुर्गाप्रसाद शुक्ल 160/19. रल प्रश्नोत्तरी पं. दुर्गाप्रसाद शुक्ल 150/20. आपका हाथ-आपका सच्चा मित्र पं. दुर्गाप्रसाद शुक्ल 250/21. ग्रह शांति दीपिका आचार्य अशोक सहजानन्द 200/22. सुखी और समृद्ध जीवन आचार्य अशोक सहजानन्द 200/23. सिद्ध मंत्र संग्रह आचार्य अशोक सहजानन्द 200/24. सिद्ध तंत्र संग्रह आचार्य अशोक सहजानन्द 300/25. सिद्ध यंत्र संग्रह आचार्य अशोक सहजानन्द 300/26. वास्तुदोष : आध्यात्मिक उपचार आचार्य अशोक सहजानन्द 300/27. अदृश्य रहस्यों की कुंजी आचार्य अशोक सहजानन्द 200/28. स्वरयोग : एक दिव्य साधना आचार्य अशोक सहजानन्द 200/29. पद्मावती साधना और सिद्धि आचार्य अशोक सहजानन्द 200/30. श्री मणिभद्र साधना (घंटाकर्ण कल्प सहित) आचार्य अशोक सहजानन्द 200/31. महामंत्र णमोकार : वैज्ञानिक अन्वेषण डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन -100/32. अहिंसा और विश्व शांति डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन 50/33. सप्तसंधान महाकाव्य : समीक्षात्मक अध्ययन डॉ. श्रेयांस कुमार 150/34. नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन डॉ. अनिरूद्ध शर्मा 350/35. आत्मा का वैभव दर्शन लाड़ 100/जिनसहस्त्रनाम कल्प कुसुम जैन 20/37. इतिहास के अनावृत पृष्ठ आचार्य सुशील कुमार 20/38. जैन गीता आचार्य विद्यासागर 20/39. पुण्य विवेचन पं. रतन चंद्र मुख्यार 100/40. त्रिषष्ठि शलाकापुरुष चरितम् (मूल संस्कृत) 650/ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगरा को इटावा को निन्द हानि गोपांचला गया लयर कानपुर का सोनागिरि दतिया श्योपुर पमासा कोशम्बी इलाहबाद को प्रयाग गोनाको मिजापुर को Asyl तुरपुर गा सीरगढ़ ईयराHILESO बिलहेडी चित्तौड़गढ़ को दादखडी - अजयगढ़ गुनादेटिकमगढX hg झालावाड़ का खदाशगरपापिनी प्रन्ना सतना निरागिरि वहीपाश्र्वनाश शान्तिनाथ बामात मदसार मारासपा नमामिरिकुलपुर सिरीज पजगारी अरचना नसियाजी करनी दमाह जामनेर नौगामा सियाज विदीशा पारसपुर पटरियाणा बहोरीबंद रतलाम कानीखनागर शहडोल वागोल पाटगाथा रामसिनाबनाना विधि जमहसुस बनदिया पूष्पगिरि सिहोर नरसिम्हाररला होशंगाबाद डिडोरी मानतुगनिार मारदा सिद्धोदयः लगानादीन तालमपुर मंडला सिदभरकर बावनगजल खरगोनखण्डवा जिन्दवाडासिवनी बालाघाट भोपालासन नाउन शाजापुर मिडिया बैखण्डपुर का Sमानतु गानारी गोयगिरि गाय बिलासपुर को पार्वगिरि महदानी पले को कोडण्यपर नागपुर को