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________________ यहाँ की कुछ गुफओं में ब्राहमीलिपि में 2000 वर्ष प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुये हैं। कलचुरी काल में इसे सोम स्वामीपुर भी कहा जाता था। नेमिनाथ भगवान की यक्षिणी अम्बिका को यहाँ खैरमाई के नाम से पूजते हैं। यहाँ की अधिकांश जैन मूर्तियां जबलपुर व रायपुर के संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही है। यहाँ हजारों प्रतिमायें खण्डित दशा में विद्यमान हैं, जिनमें भगवान ऋषभदेव की सर्वाधिक हैं। यहाँ सर्वतोभद्रिका, सहस्रकूट व नंदीश्वर की रचनायें भी मिलती हैं। यहाँ की सभी प्रतिमायें अष्ट प्रतिहार्ययुक्त, छत्र, भामंडल, श्रीवत्स, गंधणे व चामरधारी इन्द्रों सहित हैं। यहां अन्य सभी तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी मिलती हैं। सभी प्रतिमायें व जिनालय खण्डित दशा में यत्र-तत्र पड़े हैं। बरहटा यह नरसिंहपुर जिले में स्थित गोटेगांव से 40 किलोमीटर दूर है। यहाँ एक अर्धभग्न प्राचीन जैन मंदिर है। यहाँ 8 तीर्थंकर प्रतिमायें रखीं हैं; जो 5 फीट से 6 फीट ऊँची व पद्मासन मुद्रा में देशी पाषाण से निर्मित हैं। यहाँ की तीर्थंकर मूर्तियों को लोग पांच पांडव मानकर पूजते हैं। मंदिर के दरवाजे पर 6 फीट ऊँची एक तीर्थंकर प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। यहीं पाषाण का 3 फीट वृत्त का धर्मचक्र भी रखा है। भोजपुर यह तीर्थस्थल भोपाल से 28 किलोमीटर दूर है। भोपाल-होशंगाबाद रोड़ पर भोपाल नगर की सीमा से एक पृथक सड़क भोजपुर को जाती है। यह कभी प्राचीन सुरम्य नगरी रही होगी; संभवतः राजा भोज की राजधानी। यह तीर्थस्थल सुरम्य पहाड़ियों व वादियों के बीच नदी घाटी के किनारे स्थित है। यहाँ तक पहुँचने के लिये बसों की सुविधा भी है। राजा भोज ने कुछ मंत्रियों के बहकावे में आकर मुनिश्रेष्ठ आचार्य मानतुंग स्वामी को सांकलों से जकड़कर 48 तालों के अंदर कारागार में डाल दिया था। आचार्य श्री ने प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव की स्तुति में जेल में ही संस्कृत भाषा में 48 श्लोकों वाले भक्ताम्बर पाठ को रचा व एक-एक कर उनका श्रद्धा व भक्ति भाव से पाठ किया। पाठ करते ही उनके शरीर पर जकड़ी साकलें तो स्वतः टूट ही गईं; कारागार के 48 ताले भी एक-एक श्लोक के वाचन पर स्वतः टूटते चले गये। राजा भोज का यह कारागार जिला धार मुख्यालय से 13 किलोमीटर दूर ग्राम आहू में स्थित था। उपसर्ग समाप्त होने पर राजा भोज ने प्रायश्चित किया था; व वह अपनी करनी पर बहुत पछताया था। किन्तु मुनि श्री मानतुंगाचार्य जी ने बेड़ियों से मुक्त होने के बाद अपने गुरु 170 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ
SR No.023262
Book TitleMadhya Bharat Ke Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2012
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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