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________________ जिनालय में कमलासन पर श्री जी विराजमान हैं। इस तरह हम पर्वत के सबसे ऊपरी भाग में स्थित चन्द्रप्रभु जिनालय के पास पहुँचते हैं। यहां सर्वप्रथम हमें एक विशाल समतल प्रांगण नजर आता है। इसी समतल प्रांगण के बायीं ओर इस क्षेत्र का सबसे बड़ा चन्द्रप्रभु जिनालय बना है। ___57. चन्द्रप्रभु जिनालय : यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा विशाल व प्रमुख जिनालय है; जिसके मध्य में विशाल आंगन व तीन ओर बरामदे बने हुए हैं। मुख्य प्रवेश द्वार आकर्षक व विशाल है। इस जिनालय में अनेक वेदियां हैं। बायीं ओर बरामदे में लगभग 1.25 फीट अवगाहना की श्वेत वर्ण की भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह नव स्थापित है। इस बरामदे में आगे एक वेदी पर भगवान पार्श्वनाथ की श्यामवर्ण की 1.5 फीट अवगाहना की सं. 1930 में प्रतिष्ठित प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। इस भव्य जिनालय में सामने तीन वेदिकायें हैं। बाईं ओर की दालान में स्थित भगवंतों के दर्शन कर हम बाईं ओर स्थित सामने की प्रथम वेदिका में प्रवेश करते हैं। यहां आकर यात्रियों की थकान स्वतः दूर हो जाती है व यात्री अति आनंद का अनुभव करते हैं। इस वेदिका पर सं. 1392 में प्रतिष्ठित कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान शीतलनाथजी की 6.5 फीट अवगाहना की भव्य व मनोहारी प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा मूगिया वर्ण की है, जिसके शिरोभाग पर 3 छत्र सुशोभित हैं। प्रतिमा के पार्श्व में छोटी-छोटी दो तीर्थंकर प्रतिमायें और भी बनी हुई हैं। इस वेदिका पर दर्शन करने के बाद श्रद्धालु उस स्थान पर पहुँचता है; जहां पहुँचते ही अलौकिक आनंद का अनुभव होता है व हृदय कमल खिल जाता है। जी हां, यह प्रतिमा अति अतिशयकारी, क्षेत्र की सबसे बड़ी, भव्य व आकर्षक प्रतिमा भगवान चन्द्रप्रभु की है, जिनका समवशरण इस क्षेत्र पर आया था; तथा उन्होंने भव्य जीवों के कल्याण हेतु उपदेश दिया था। संभवतः यह प्रतिमा यही स्थित शिलाफलक पर उकेरी गई है। यह कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित प्रतिमा मनोज्ञ है; जिसकी आंखों का सौंदर्य देखते ही बनता है। प्रतिमा के सिर पर 3 छत्र सुशोभित हैं, जो इस बात के प्रतीक हैं कि वे तीन लोक के नाथ हैं। प्रतिमा की अवगाहना 10 फीट के लगभग है। चेहरे के पीछे विशाल आकर्षक भामंडल उत्कीर्ण किया गया है। यह प्रतिमा इस तीर्थ-क्षेत्र की सबसे प्राचीन प्रतिमा है; जिसकी प्रतिष्ठा सं. 335 में हुई थी। __ इस जिनालय का जीर्णोद्धार सं. 1883 में सेठ लक्ष्मीचन्द्र जी मथुरा वालों ने कराया था। पादपीठ नीचे दबी हुई है। यहां आकर श्रद्धालु आत्मिक शान्ति का अनुभव करते हैं। तीसरे व दाईं ओर के सामने के गर्भगृह में लगभग 6.5 फीट अवगाहना की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिष्ठापित है। इसके सिर पर भी तीन छत्र शोभायमान हैं। छत्र के दोनों ओर छोटी-छोटी तीर्थंकर प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। नीचे गज पर सवार चंवर लिए इन्द्र खड़े हैं। अधोभाग में श्रावक भी भक्ति मुद्रा में उत्कीर्ण किए गए हैं। 72 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ
SR No.023262
Book TitleMadhya Bharat Ke Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2012
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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