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________________ अतिशय क्षेत्र थूबौन अतिशय क्षेत्र थूबौन चंदेरी से 20 किलोमीटर दूर चंदेरी-अशोकनगर वाया थूबौन मार्ग पर स्थित है। वर्तमान में यह तीर्थ-क्षेत्र मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिलान्तर्गत आता है। अशोकनगर से इस क्षेत्र की दूरी लगभग 45 किलोमीटर है। क्षेत्र तक बसें आती जाती हैं व मार्ग पक्का डांवर युक्त है। .. __अतिशय क्षेत्र थूबौन वेतवा नदी की सहायक उर्वशी (ओर/उर) नदी के सुरम्य तट से कुछ ही दूरी पर स्थित है। इस क्षेत्र के दूसरी ओर लीलावती नदी प्रवाहित होती है। इन युगल सरिताओं के मध्य स्थित यह तीर्थ-क्षेत्र शहरी कोलाहल से दूर, शान्त व सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में स्थित है। यह तीर्थ-क्षेत्र एक पठारी भाग पर स्थित है, चारों ओर हरे-भरे लहलहाते खेत मन को आह्लादित करते हैं दूर-दूर से उच्च-धवल जिनालयों के शिखरों पर फहराती ध्वजायें दर्शनार्थियों को क्षेत्र पर पहुंचने के पहले ही उन्हें प्रमुदित कर देती हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर तीर्थंकरों की विशालकाय प्रतिमायें खड्गासन मुद्रा में अवस्थित है व अधिकांश क्षेत्र के आसपास की चट्टानों से ही निर्मित हैं। कुछ अर्धनिर्मित मूर्तियां भी इस क्षेत्र के आसपास आज भी देखी जा सकती है। एक ही स्थान पर इतनी बड़ी संख्या में तीर्थंकरों की इतनी विशाल प्रतिमायें देवगढ़ के अलावा अन्यत्र देखने को नहीं मिलतीं। यहां की मूर्तियां का शिल्प भी अन्य तीर्थ-क्षेत्रों पर स्थित मूर्तियों के शिल्प से बिल्कुल अलग है। तीर्थ-क्षेत्र के दर्शन से यात्रियों की थकान मानो रफूचक्कर हो जाती है। इस तीर्थ-क्षेत्र पर स्थित जिनालयों के दरवाजे छोटे-छोटे हैं, जिनमें यात्रियों को झुककर ही प्रवेश करना पड़ता है। अभिमानी दर्शनार्थियों के सिर भी यहाँ स्वतः झुक जाते हैं। अधिकांश जिनालयों के गर्भगृह प्रवेश द्वार से काफी नीचे हैं; अतः दर्शनार्थियों को प्रवेश द्वार में प्रवेश करने के बाद कुछ सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र पर 28 जिनालय विद्यमान हैं। इस तीर्थ-क्षेत्र के आसपास काफी मात्रा में पुरातत्व सामग्री मीलों तक बिखरी पड़ी है; विशेषकर थूबौन ग्राम के सामने स्थित पठारी भाग पर खोज करने पर और भी मूर्तियां मिल सकती हैं। कुछ और जिनालय (जो खंडहरों में बदल गये हैं) यहाँ मिल सकते हैं। यहाँ की अधिकांश जिन-प्रतिमायें बिल्कुल सही हालत में व बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। यह एक प्राचीन अतिशय क्षेत्र है। कहा जाता है कि सेठ पाड़ाशाह का रांगा यहाँ आकर चाँदी हो गया था। उन्होंने यहाँ कई जिनालयों का निर्माण कराया था। कहा जाता है कि एक बार मुगलकाल में यहाँ आताताइयों ने इस क्षेत्र को ध्वंश करने के उद्देश्य से आक्रमण किया किन्तु जब वे मूर्तियों को तोड़ने के लिये आगे बढे; तो उन्हें मूर्ति दिखाई देना बंद हो गया; तब वे कुछ जिनालयों के बाहरी भाग को क्षति पहुंचाकर ही चले गये। मंदिर क्रमांक 15 में स्थित सबसे बड़ी प्रतिमा भगवान ऋषभनाथ की है; जो मध्य-भारत के जैन तीर्थ- 143
SR No.023262
Book TitleMadhya Bharat Ke Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2012
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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