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________________ आज अब यह तीर्थ-क्षेत्र चारों ओर सड़क मार्ग से जुड़ गया है व यात्रीगण भी यहां बड़ी मात्रा में दर्शनों को आने लगे हैं। वर्तमान में क्षेत्र पर अनेक सुधारात्मक कार्य हो रहे हैं, जिससे ये उम्मीद बंधती है कि यह क्षेत्र शीघ्र ही अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर सकेगा। यहां के जिनालयों का विवरण नीचे दिया जा रहा है जिनालय क्र. 1- इस जिनालय में विराजमान मूल जिन-प्रतिमायें चोरी चली गईं है। अब इस जिनालय में सहस्रकूट चैत्यालय का एक भाग रखा है, जिसमें छोटी-छोटी सौ से अधिक दिगंबर जिन-प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। इस प्रस्तर खंड के मध्य भाग में एक देवी प्रतिमा उत्कीर्ण है, जिसके गले में आभूषण भी हैं किन्तु यह उपाध्याय सदृश्य दिखती है। जिनालय के द्वार पर तीन छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। जिनालय क्र. 2- इस जिनालय में विराजमान जिन-प्रतिमायें भी चोरी चली गई है। यहां कुछ शिलाखंडों में उत्कीर्ण छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें रखीं हैं, जिनके दायें-बायें जैन शासन देवी-देवताओं की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। जिनालय क्र. 3- इस जिनालय के द्वार के बाहर कलश लिये द्वार के ऊपर देवियों की सुंदर प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। तीन छोटी दिगंबर प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। जिनालय के अंदर मध्य में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की लगभग 5 फीट ऊँची पदमासन प्रतिमा विराजमान है। दोनों ओर लगभग 3.5 फीट ऊँची भगवान अजितनाथ व संभवनाथ की खड्गासन प्रतिमायें स्थित हैं। इनमें दो प्रतिमायें खंडित हैं जबकि एक अखंडित व पूज्य है। प्रत्येक मूल प्रतिमा के ऊपर तीन-तीन छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। जिनमें मध्य की प्रतिमायें खड्गासन व पार्श्वभाग की प्रतिमायें पदमासन मुद्रा में है व सुरक्षित हैं। तीनों प्रतिमायें हीरे की पोलिश के कारण दैदीप्यमान हैं। जिनालय क्र. 4- चौथे जिनालय में चार जिन-प्रतिमायें स्थित हैं। मध्य की प्रतिमा पद्मासन व बगल में स्थित तीन प्रतिमायें खड्गासन मुद्रा में हैं। एक को छोड़कर शेष तीन प्रतिमायें खंडित हैं। जिनालय क्र. 5- जिनालय क्र. 1 से लेकर जिनालय क्र. 14 तक के जिनालयों के दरवाजों की कृतियां लगभग एक समान हैं। दरवाजे के दोनों ओर दो देवियां मंगल कलश लिये खड़ी हैं। दरवाजे के नीचे हाथी व शेर परस्पर में मित्र मुद्रा में एक दूसरे के मुख को स्पर्श कर रहे हैं। दरवाजों के ऊपर तीन छोटी-छोटी जिन-प्रतिमायें स्थित हैं व दरवाजों की दीवारों को कलात्मक विनिर्मित किया गया है। 136 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ
SR No.023262
Book TitleMadhya Bharat Ke Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2012
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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