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श्री शान्तिनाथो रति मुक्तिनाथः यश्चक्रवर्ती भुवनाग्रवर्ती। सौभाग्य राशि.....राशि स्तान्तः। विणानसौ। विभ्र? ण्णे। श्री कुन्द वृन्दे संताने गणे हे शिक? संज्ञि के मजनंदि गुरौः शिष्यः सूरि श्री लील चन्द्रकः हरीव भूत्या हरिरात देवोवभूव भीमेव हितस्य भीम। सुत स्तदिओ रणपाल नाथ? ।। एतद्वि राज्ये कृति राजनस्य। पर पारान्वये सहेस्तधन्निभ्रा महेश्वरः। महेश्वरेव विख्यात स्वत्सीता धं संज्ञकः। तत्प्रराजने, ज्ञेयः कीर्ति स्तस्ये य मम्दुता। जिनेन्दु वत्स दायत्यन्ते। राजते भुवनत्रयं ।। तस्मिन्तेवान्मये दिव्ये नोम्बिका वरगे सुरभः। पंचमासे स्थितो हये को द्वितियो दद संभासको - व्याज स ह डो। ज्ञेयः समस्त ज (य) स (रा) सा निधिः भ थो? जिनवरस्या यो विख्यातो जिनशाः। सवे।। मंगले महा श्री।। भद्र सत्व जिनशासनाय। (पुरातत्व विभाग-ग्वालियर)
एक अन्य शिलालेख जो सं. 1845 का है व परिसर प्रांगण में एक प्रखर शिला पर उत्कीर्ण है, निम्न प्रकार है--
“संवत् 1345 वैशाख वदी 2 सनात्रदो ह श्री पवला ऊँ ग्रामे महाराजा विरा श्री महोपालदेव विजगनामो महाप्रसना राजे प्रियमा खेत सिंह पुत्र वाल्हदेव लोकेगत पंडित नासनसेणा पुत्र न वी सुख वा पुत्री राजसीताग्नि सावित्री नू काल कु हलरोजू"
__ यह शिलालेख लेखक ने स्वयं पढ़कर लिखा है, इसके कुछ शब्द अस्पष्ट हैं, किन्तु यह निश्चित है कि पहले इस क्षेत्र का नाम पवला था व यहाँ महाराजा महोपालदेव का शासन था।
प्रांगण में ही देवगढ़ शैली का एक 10-11 फीट ऊँचा मानस्तंभ भी बना है।
इस क्षेत्र की उन्नति के लिए सर्वप्रथम सन् 1928 में स्व. छक्कूलाल जी ने प्रयास किया था। वे घर परिवार छोड़कर क्षेत्र पर ही रहने लगे थे। इन्होंने तन मन धन से क्षेत्र की सेवा की थी। 27 जनवरी 1934 से गोलाकोट व पचराई क्षेत्र चौरासी दिगंबर तीर्थ-क्षेत्र कमेटी खनियाधाना के अधिकार में है। अब यहां प्रतिवर्ष वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है। पं. परशुराम जी ने पुनः इन क्षेत्रों की उन्नति के लिय बीड़ा उठाया पर पर्याप्त सामाजिक व आर्थिक सहयोग के अभाव के कारण वे भी कुछ खास न कर सके व इंदौर जाकर रहने लगे। यहां केवल साहू शान्तिप्रसाद जी द्वारा प्रदत्त 10826 रू. से कुछ मरम्मत कार्य अवश्य कराये गये।
सन् 1968-70 में पं. चेतनदास जी बामौर कलाँ पधारे व खनियाधाना होते हुए वे पचराई पहुंचे व वहीं रहने लगे। किन्तु यहाँ रहते हुये उन्हें कुछ ही दिन हुए थे कि किन्हीं अज्ञात बदमाशों ने अपने कार्य में बाधक मानते हुए उनकी हत्या कर दी।
मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 135