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________________ कलातीर्थ देवगढ़ देवगढ़ अर्थात् जहां देवता गढ़े (बनाये) जाते हों या फिर देवताओं का गढ़ (निवास स्थान) जहां सभी प्रकार के देवताओं का वास हो। देवगढ़ का प्राचीन नाम लुअच्छगिरि, कीर्तिगिरि था। लुअच्छगिरि को हम लक्ष्यगिरि का अपभ्रंस मान सकते हैं। ऐसा पावन पुनीत अतिशय क्षेत्र, साधना क्षेत्र व धर्म-प्रभावना क्षेत्र जहां प्राकृतिक झरने, घने वन, नीचे कलकल बहती वेत्रवती नदी, सुरम्य पर्वत व उसकी तलहटी ने यहां की सुंदरता में चार चांद लगा दिये हैं। प्रकृति की गोद में बसे इस ऐतिहासिक व पुरातात्विक महत्व के केन्द्र में वह सब कुछ है जो आप देखना चाहते हैं। पर्वत पर स्थित लगभग 1 किमी. लम्बे परकोटे के अंदर 41 विशाल जिनालय गगनचुम्बी शिखरों के साथ विद्यमान हैं। परिसर में परिक्रमा-पथ में सैकड़ों प्राचीन दुर्लभ मूर्तियां आदि स्तंभों पर सुरक्षित की गई हैं। यहां की गुप्तकालीन गुफायें इस बात की ओर संकेत करती हैं कि ये महामुनियों की साधना-स्थली रही है। सिद्ध गुफा इस बात की ओर इंगित करती है कि यहां से कुछ मुनि तपश्चरण पश्चात् मोक्ष भी गये हैं। यह स्थल दिल्ली-मुम्बई मुख्य रेलवे लाइन पर स्थित ललितपुर स्टेशन से मात्र 28 किमी. दूर 300 फीट ऊँची सुरम्य पहाड़ी पर स्थित है व पक्के सड़क मार्ग से जुड़ा है। यह तीर्थ-क्षेत्र गुर्जर, प्रातिहार्य, चंदेल व कलचुरि राजवंशों के राज्यकाल से जैन समाज के सक्षम धर्मवत्सल बंधुओं के सहयोग से निरन्तर विकसित होता रहा। देवगढ़ लगभग 1500 वर्षों से भी अधिक प्राचीन इतिहास का साक्षी है। देवगढ़ पूर्व में जैन विद्या का केन्द्र था। सं. 1333 में एक शिलालेख में शालश्री व उदयश्री नामक शिष्याओं व देव नामक शिष्य द्वारा श्रद्धापूर्वक उपाध्याय की मूर्ति के समर्पण का उल्लेख है। प्राचीन क्रम में मंदिर क्रमांक चार के मंडप स्तंभ के लेख में भट्टारक साधुओं की वंशावली भी दी गई है। __ यहां जैन कला के विकास का मूल कारण इसकी व्यापारिक मार्ग पर स्थिति, आर्थिक समृद्धि, चतुर्विध जैन संघ का संगठित व प्रभावशाली रहना व बलुआ पत्थर की खदानों की प्रचुरता रहा है। यहां हजारों की संख्या में जैन मूर्तियां प्राचीन मंदिर क्रमांक 12 की चारदीवारी के दोनों ओर की दीवारों पर लगी हैं। जैन परम्परा की 24 यक्षणियों के निरुपण का प्रारम्भिक प्रयास यहीं से प्रारंभ हुआ प्रतीत होता है। यहां आकर कोई भी कला-प्रेमी व धर्म-जिज्ञासु अति शान्ति व अत्यन्त आनंद का अनुभव करता है। यहां की विविधतापूर्ण यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियां अन्यत्र देखने को नहीं मिलतीं। यहां का जैन संघ इतना प्रभावी व महत्वपूर्ण था कि यहां आचार्यों व उपाध्यायों की अधिक मूर्तियां बनीं व उन्हें जिन-प्रतिमाओं के साथ निरुपित किया 92 - मध्य-भारत के जैन तीर्थ
SR No.023262
Book TitleMadhya Bharat Ke Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2012
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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