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पार्श्वनाथ की हैं। इसी प्रतिमा के बायें व दायें लगभग 8.5 फीट ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमायें कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान हैं। प्रतिमायें अति मनोज्ञ व आल्हादकारी हैं। मूल प्रतिमा के नीचे पाद्मूल में एक अन्य प्रतिमा भी आकार में छोटी, किन्तु कला की दृष्टि से बड़ी मूर्ति से साम्यता रखती है; सामान्यतः इस प्रकार का समवशरण भारत के किसी अन्य तीर्थ-क्षेत्र पर नहीं है।
इतना ही नहीं, पार्श्व भाग स्थित दीवालों पर (दायें व बायें) भी अतिप्राचीन देशी पाषाण से निर्मित जिनबिम्ब स्थापित किये गये हैं। दोनों ओर भगवान पार्श्वनाथ व भगवान महावीर स्वामी की भव्य, प्राचीन व अतिमनोज्ञ प्रतिमायें विराजमान हैं। इस तरह इस जिनालय में तीन दीवालों में मूर्तियों को प्रतिष्ठित कर गर्भगृह की शोभा में वृद्धि की गई हैं। इसी जिनालय में एक मानस्तंभ पर दो अन्य छोटे आकार की जिन-प्रतिमायें भी उत्कीर्ण हैं। ___भगवान महावीर स्वामी की विशाल पद्मासन प्रतिमा के दायीं ओर एक हाथ में नाल सहित कमल व दूसरे हाथ में विकसित कमल लिये तथा बाईं हाथ में गदा लिये रक्षक देव खड़े हैं। बड़ी मूर्ति के पार्श्व भागों में विराजमान जिनबिम्ब सं. 1842 में प्रतिष्ठित है। कुछ मूर्तियों पर सं. 1850 भी लिखा है।
इस विशाल मंदिर के प्रवेश द्वार पर बने द्वारपालों के बगल में भगवान पार्श्वनाथ की दो मूर्तियाँ भी उकेरी गई हैं। जिसमें से एक सप्त व दूसरी नौ फण युक्त है। स्थानीय लोग इस विशाल प्रतिमा को बड़े देव के नाम से पुकारते हैं।
इन जिन मंदिरों के सामने सड़क के दूसरे ओर जैनधर्मशाला भी बनी हुई है वार्षिक मेला प्रायः माघ मास में लगता है। अपने जीवन को सफल बनाने के लिये श्रद्धालुओं को इस तीर्थ-क्षेत्र के दर्शन अवश्य करने चाहिये।
इतनी सब विशेषताओं के होते हये भी इस क्षेत्र का समुचित विकास अभी तक नहीं हो पाया है। मेरी समझ में इस क्षेत्र के विकास में धनाभव सबसे बड़ी समस्या है। क्षेत्र की व्यवस्थायें अस्त-व्यस्त सी लगती हैं। क्षेत्र पर कमेटी का प्रभुत्व भी ढीला नजर आता है। क्षेत्रवासियों को चाहिये कि वे इस क्षेत्र का प्रचार-प्रसार कर इस क्षेत्र की विशेषताओं को जन-जन तक पहुँचायें व श्रद्धालुओं को भी चाहिये कि वे इस क्षेत्र के विकास हेतु मुक्त हस्त से दान देकर इस क्षेत्र के विकास में सहयोगी बनें।
मध्य-भारत के जैन तीर्थ. 115