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सिद्ध क्षेत्र सिद्धवरकूट अतिपावन यह सिद्धक्षेत्र रेवा (नर्मदा) नदी के दायें किनारे (नदी के पश्चिमी तट) पर स्थित है। निर्वाण काण्ड में लिखा है
"रेवा नदी सिद्धवर कूट, पश्चिम दिशा देह जहं छूट।
द्वै चक्री दश कामकुमार, उठ कोड़ि वन्दौ भव पार।।" . अर्थात् इस क्षेत्र से दो चक्रवर्ती, 10 कामदेव व 3.5 करोड़ मुनिराज मोक्ष गये। इसी तीर्थ-क्षेत्र को सिद्धवरकूट के नाम से जानते हैं। सनतकुमार व पद्मनाभ चक्रवर्ती यहाँ से मोक्ष गये। ____ इस तीर्थ-क्षेत्र के प्रकाश में आने की भी एक कथा है। कार्तिक कृष्ण 14 संवत् 1935 को इंदौर पट्ट के भट्टारक श्री महेन्द्र कीर्ति ने स्वप्न में इस तीर्थ-क्षेत्र के दर्शन किये। वे स्वप्न में देखे स्थलों की खोज में नर्मदा नदी के किनारे-किनारे चल दिये। वे नदी के पश्चिमी तट के किनारे किनारे जा रहे थे कि जंगल में उन्हें पहले भगवान चन्द्रप्रभु की मूर्ति व कुछ आगे चलकर भगवान आदिनाथ की प्रतिमा मिलीं। और-आगे चलने पर उन्हें भग्न हालत में दिगंबर जैन मंदिर मिले। उन्हें स्वप्न में दिखे स्थान व इस स्थान में साम्य लगा; अतः उन्होंने इसे ही सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र माना। तब से लेकर आज तक इस पावन पुनीत क्षेत्र के दर्शन करने प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं।
इस क्षेत्र के समीप ही ओंकारेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर है; जो नदी की दो धाराओं (नर्मदा व कावेरी) के बीच स्थित मान्धाता टापू पर बना है। यात्री नदी के पूर्वी तट (बायें किनारे) पर पहुंचकर नावों के माध्यम से नदी को पार कर सिद्धवरकूट तीर्थ पहुँचते हैं।
___ 'मध्यप्रदेश के जैन तीर्थ-क्षेत्र' पुस्तक के लेखक ने ओंकारेश्वर, कोल्हापुर के अम्बिका मंदिर व अजमेर की ख्वाजा दरगाह की रचना शैली को एक समान बताया है व लिखा है कि वे कभी जैन मंदिर थे। कुछ के अनुसार मान्धाता टापू ही सिद्धवरकूट था; किन्तु निर्वाण कांड के अनुसार ऐसा नहीं लगता। हो सकता है यह जैन मंदिर रहा हो। इस टापू पर काल भैरव की एक छत्री बनी है। कहा जाता है कि यहां एक छलांग लगाकर चट्टान पर गिरकर मर जाने पर मुक्ति मिलती थी। निश्चित ही यह मुक्ति क्षेत्र रहा है, जिसे कुछ संप्रदाय के लोगों ने गलत प्रथा डाल कर दूषित कर दिया था। ओंकारेश्वर मंदिर के आसपास के भग्नावशेष जैन मंदिर हो सकते हैं; किन्तु यह खोज का विषय है।
वर्तमान सिद्धवरकूट से तीन फंढ्ग की दूरी पर नदी किनारे स्थित एक पहाड़ी पर भग्न मंदिर स्थित है। इस मंदिर में 5 फीट 2 इंच ऊँची राजशाही ठाठ-बाट वाली एक मूर्ति स्थित है। इस मूर्ति के सिर पर एक तीर्थंकर प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह जैन मंदिर रहा
मध्य-भारत के जैन तीर्थ - 167