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आमुख
प्राचीन (मूल) भारतीय संस्कृति को लोक परंपराओं, प्राचीन साहित्य एवं प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से तो समझा ही जा सकता है; किन्तु भारतीय कला कृतियों के माध्यम से इसे समझने में ज्यादा सुविधा होती है; क्योंकि कलाकृतियां हजारों वर्षों तक अपने को अपने मूल रूप में सुरक्षित रखने की सामर्थ्य रखती हैं। भारत में ये कलाकृतियां मंदिरों, मूर्तियों, चित्रों, मुद्राओं, शैलचित्रों, भित्तिचित्रों, किलों, महलों आदि के रूप में कुछ सीमा तक आज भी सुरक्षित हैं व देश में विपुलता में उपलब्ध हैं ।
प्राचीन भारतीय संस्कृति में जैन साहित्य, जैन धार्मिक ग्रंथों, जैन लोक परंपराओं व जैन कला कृतियों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। जैन कला कृतियों में जिन मंदिर, जिनबिम्ब, भित्तिचित्र, तैलचित्र आदि आते हैं; जो संपूर्ण भारत में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं । हिन्दू सांस्कृतिक विरासतों के साथ ही जैन सांस्कृतिक विरासतों को भी मुगल काल में काफी क्षति पहुँचाई गई; साथ ही हिन्दू एवं बौद्धों ने भी जैन सांस्कृतिक विरासतों को समय-समय पर हानि पहुँचाने का प्रयास किया है। अधिकांश इतिहासविदों ने भी प्राचीन जैन साहित्य, जैन संस्कृति की खोज; उसके वर्णन व महत्व के विषय में न्याय नहीं किया एवं उनको उचित स्थान न देते हुए उन पर समुचित प्रकाश नहीं डाला; यही कारण है कि भारतीय इतिहास में इनका विवरण नहीं के बराबर मिलता है; जबकि वास्तविकता यह है कि इस देश के संपूर्ण भागों में तो जैन सांस्कृतिक विरासतों के अनगिनत भंडार हैं ही; पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, चीन आदि एशियाई देशों में भी बड़ी संख्या में जैन संस्कृति के अनगिनत अवशेष चिह्न उपलब्ध हैं । ये सभी इस बात के प्रतीक हैं कि प्राचीन काल में जैनधर्म व जैन संस्कृति का प्रभाव दूर-दूर तक फैला हुआ था।
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इस पुस्तक में केवल बुंदेलखंड के जैन तीर्थ क्षेत्रों को ही छूने का प्रयास किया है। लेखक ने विशेषकर मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, दतिया, दमोह, सागर, जबलपुर, पन्ना, शिवपुरी, विदिशा, भोपाल व अशोक नगर जिलों तथा उत्तर प्रदेश के झांसी व ललितपुर जिलों में स्थित तीर्थ क्षेत्रों के संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । इन तीर्थ क्षेत्रों में हमें जैन सांस्कृतिक विरासतों के दर्शन तो होते ही हैं, साथ ही उनमें प्राचीन जैन
मध्य-भारत के जैन तीर्थ 3.