Book Title: Kalpsootra Subodhika Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दशाश्रुतस्कंधस्य-अष्टम-अध्ययनम्) श्री कल्पसूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “कल्पसूत्र” मूलं एवं [सुबोधिकाख्य]-वृत्ति: [विनयविजयजी रचिता सुबोधिका-वृत्तिः] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [-] गाथा II-II दीप अनुक्रम [-] Jan Education intemationss दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) .......... व्याख्यान [-] मूलं [-] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: AARRRRRRRRAF श्रेष्ठि- देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ६१. श्रुतकेवलिश्रीभद्रबाहुप्रणीतं श्रीकल्पसूत्रम् ( दशाश्रुतस्कन्धाष्टमाध्ययनम्) लोकप्रकाशनयकर्णिकादिग्रन्थसौघसूत्रधार श्रीविनयविजयोपाध्यायविरचितं सुबोधिकाख्यवृत्तियुतम् । मुद्रयिता-सौराष्ट्रान्तर्गत जामनगरवास्तव्यश्रेष्ठिधारशी भाइसुपुत्रलक्ष्मीचन्द्रस्मृतये अस्थिमिञ्जाशासनरक्तपोपट भाइ नामक सुपुत्रयुतश्रेष्ठिधारशी भाइनामधेयश्राद्धवर्यविहितद्रव्य साहाय्येन शाह जीवनचन्द साकरचन्द झवेरी अस्य कोशस्यैकः कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं मोहमय्यां निर्णयसागर यन्त्रालये रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा कोलभाट वीध्यां मुद्रितम्.. पण्यम् २-०-० प्रतयः १००० वीरसंवत् २४४९. *** कल्पसूत्र-सुबोधिका-वृत्तेः मूल संपादकेन संकलित: मुखपृष्ठ: For Pride & Personal Use O ~2~ विक्रम संवत् १९०९. क्राइट सन् १९२३. www.janbary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलांका: २२८ + ७ + ६४ मूलांक: विषय: इस प्रकाशन की भूमिका द्वितियसंस्करण भूमिका | सेनप्रश्नांतर्गत् कल्पसूत्र| उपयुक्त प्रश्नोत्तराणि कल्पसूत्र बृहत् अनुक्रम शैलानानरेशस्य प्रमाणपत्र पृष्ठांक: ००४ ००५ واهه ०११ ०१६ कल्पसूत्रस्य (लघु) विषयानुक्रम मूलांक: ००१०१५ (१) प्रथमम् ०१५-०३६ | (२) द्वितियम् | ०३७-०६७ | (३) तृतीयम् ०६८-०९६ | (४) चतुर्थम् ०९७-११६ | (५) पंचमम् व्याख्यानं पृष्ठांक ०१९ ०६१ १०५ १४५ १७३ ~3~ दीप - क्रमांका: ३११ मूलांक: ११७- १४८ (६) षष्ठम् १४९-२२८ (७) सप्तमम् ००१००७ (८) अष्टमम ००१-०६४ (९) नवमम् ●● प्रशस्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्तिः: अत्र मया संक्षिप्त-विषयानुक्रमः निर्दिष्टः | अस्य बृहत् विषयानुक्रमः मूल संपादकेन रचितः. अग्रे एकादशात् पृष्ठात् पंचदश- पृष्ठ: (११-१५) पर्यंत वर्तते | व्याख्यान पृष्ठांक: २११ २७१ ३३४ ३६१ ४०७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्पसूत्र- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले कल्पसूत्र' के नामसे सन १९२३ (विक्रम संवत १९७९) में देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | कल्पसूत्र के मूल को "बारसासूत्र" भी कहेते है, १२१५ श्लोक प्रमाण कल्प-(बारसा)-सूत्र के अलग से भी बहोत प्रकाशन हुए है, पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित 'कल्प(बारसा)सूत्र' हमने भी 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेनी के 40 वे भागमे छपवाया है | कल्पसूत्र पर दुसरी भी टीकाए है, एक चूर्णि भी हमने देखी है, मगर व्यवहारमे विनयविजयजी रचिता ये टीका ज्यादा प्रसिद्ध होने से उस का प्रकाशन करवा रहे है। * हमारा ये प्रयास क्यों?* आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर सूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ..... मुनि दीपरत्नसागर. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान H] .......... मूलं -1 / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक गाथा ||| लिटलटरdesernetdeseseseeta श्रीकल्पसूत्रस्य भूमिका ।(द्वितीयसंस्करणे) mona उपादीयतां भोः शुभवद्भिर्भवद्भिरनूनमहिममिदमाविष्क्रियमाणं श्रीकल्पसूत्र, प्रणेतारोऽस्य श्रुतकेवलिनो भद्रबाहुवामिनः अष्ठमाध्ययनता दशाभुतस्कन्धस्य पञ्चदिन्या वाच्यमानता ससमाधानानि विवादस्थानानि गर्भापहारस्य कल्याणकत्वानौचिती श्रीवीरजिनस्येतिवृत्त | तस्य राजकुमारता आदिनाथप्रभोर्लेखादिदर्शनमुपकाराय श्रीजम्बूस्खाम्यादिमहापुरुषचरित्रदम्पर्य प्रस्तुताया व्याख्याया मुद्रणे हेतुरित्यादि | प्रतिपादितं प्रथमावृत्तौ द्वीपषड्नन्देन्दु (१९६७) प्रमिताब्दहायनोद्भावितावामिति तत एवावलोकनीयं, सा ह्यावृत्तिः प्रस्तुतसाहित्यो-IN द्वारकोशात सदयेणापि विवाऽभूत , इयं लावृत्तिः सौराष्ट्रदेशीयनूतननगरापराभिधानजामनगरवास्तव्यस्य धर्मंकतानस्य जैनशासनसुधापानहृदयपावनस्याप्रतिमौदार्यगुणजुषः शासनहितकरणैकवद्धलक्षस्य प्रभूतसहस्रगम्भव्ययेनामेयमहिम्मि श्रीसिद्धक्षेत्रापरामिधानपादलिप्तनगरे चतुर्मास्युपधानोद्वाहनादिकारिणः श्रीमतां सेलाणाधिपाना जीवदयापट्टककारिणां गुणैरनुरजितमनस्कतया सेलाणापुर्या श्रीदिलीपसिंहाभि-IK धाननरेन्द्रनामाङ्कितपौषधशालाविधायकवरस्य श्रेष्ठिपोपटभाइइत्याख्यसुपुत्रेण पुत्रीभवत: श्रीधारासिंहश्रेष्ठिनो देवराजापत्यस्य साहाय्येन तत्तनुजलक्ष्मीचन्द्रस्य स्मृत्यर्थ मुद्रिता, अनेन हि श्रेष्ठिना प्राक् मोहमग्या साहित्योद्धारसमितये दत्ता दुम्माः परःसहस्राः, परं संचालकानां शासनपारतण्यानङ्गीकारात् विशीर्णाऽऽमूलचूलंसा, ततस्ते ट्रम्मा वितीर्णत्वादगृहृता दत्त्वाऽस्मभ्यं मुद्रापितेयं, तस्याननुगुणरजितमनस्कतया-8 दीप अनुक्रम ... अत्र पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरेण लिखिता: सुबोधिका-वृत्ते: भूमिका वर्तते ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [-] गाथा II-II दीप अनुक्रम [-] कल्प. सुबो ॥२॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) .......... व्याख्यान [-] मूलं [-] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ऽस्माभिरपि विहितमेतत् कार्य, यद्यपि तेषामभूदिच्छा सर्वासां प्रतीनां प्राभृतीकरणे परं सौकर्याभावं निरीक्ष्य समालोक्य चानेकेषां भव्यात्मनां तथाविधनिष्क्रयरहिते पुस्तकग्रहणे संकोचं विभाव्य चास्मदीयकोशव्यवस्थासौस्थ्यं परः शतं प्रतीनां दत्वा प्राभृताय शेषा अर्धमूल्येन स्थापिताः, तैः आगतद्रम्मैः पुनर्मुद्रयिष्यन्ति नूतनं पुस्तकरन मित्याशास्महे श्रेष्ठिदेवचन्द्रलाल भाइ जैन पुस्तकोद्धाराध्यक्षाः । Jan Education Intematon लेखका:-आमदा उदन्वदन्ताः रखपुर्वी मालवे १९८० ( गूजराती संवत् १९७९) श्रवण लेकादश्याम् । सदा जगज्जीवहितोडुराणां, जिनाधिपानां स्थविरोत्तमानाम् । चरित्रपखं विवृतं मुनीनां वृत्तं च दृष्ट्वा न कस्य हर्षः १ ॥ १ ॥ For Pride & Personal Use Only ~6~ भूमिका. ॥२॥ jantaly.ag Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक H गाथा II-II दीप अनुक्रम [-] 2 दशाश्रुतस्कंध अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र" (मूलं + वृत्तिः ) व्याख्यान [-] मूलं [-] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: सेनप्रश्नान्तर्गतानि कल्पसूत्रोपयोगीनि प्रभोत्तराणि पाठकसौकर्याय अत्रोरूियन्ते, अत्र आद्यभागे योऽङ्कः सोऽत्रत्यवाच्यसूत्राङ्कः पङ्केरन्त्ये एक उल्लाससत्को ऽन्यस्तु प्रश्नोत्तरसत्कः Jan Education Intemations सेनप्रान्तर्गतानि कल्पसूत्राद्युपयुक्तानि प्रक्षोत्तराणि. १४७ मरुदेव्यध्ययनं ( पहाणं नामज्झवणं ) विमावयन्- प्ररूपयन्नित्यर्थः १११ सांवत्सारिक दानात् पूर्वे पञ्चाद्वा लोकान्तिककृता दीक्षाविज्ञप्तिः १११ सप्ताधिकसमवादीनां लोकान्तिकानां प्रत्येकं चतुः सहस्र सामानिकादिः परिवारः, सर्वेषां भवस्थितिर्लोकान्तिकवदिति १-२० 8-48 १-५५ - स्थ. गा. १४ देविड्डिगणं नर्मसामिति पादोपलक्षिता गाथा श्रीदेवर्विगणिशिष्यकृता स्व. स्थविरावल्यां वज्रसेनसूरिशिष्याणां चन्द्रादीनामलिवनमत्र वाचनाभेदेन १९ अष्टशतसंरूपान्तर्गततया सिद्धोऽपि श्रीवृषभदेवो नानन्त कालपतितः सर्वेषामपि जिनानां यथोक्तभवसंरूपाया एवार्वाक् प्रथमसम्यक्त्वलाभात् For File & Fersonal Use Only ~7~ ४२ पचैरुपलक्षितं सरः पद्मसर न तु तन्नामकं किञ्चित् द्वीपान्तरे सरोऽस्ति ••• अत्र कल्पसूत्र- उपयुक्त कतिपयानि सेन प्रश्नोत्तराणि निर्दिष्टानि | १-५६ १-७९ १-१०७ १-१०८ www.janbrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान .......... मूलं [1] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सेनप्रश्ना सत्राक कल्प.सुबो. ॥३॥ गाथा II-11 २-३४ स्थ. आगमव्यवहारिमिः संभूतिसूरिभिरनुज्ञानात् श्रीस्थूल- निकत्रायस्त्रिंशाङ्गरक्षकपार्षद्यानीकाधिपप्रकीर्णकानामेकैका, भद्राणां शय्याता अपि कोशाया गृहे पिण्डादिग्रहणमिति १-१०९ | चत्वारो लोकपालानामिति ६२-१३२-१०-१२-४-४ १४ इन्द्रविमानेभ्यः सामानिकानां त्रायस्त्रिंशानां च ८-८-१-१-१-१-१-१-४२५० २-३० पृथक् पृथक् विमानानि १-११५ सा. २७ विना कारणं संखण्ड्यो साधुभिर्न विहरणं, त्रिंशता चत्वारिंशता वा जनैश्च संखडी, साधर्मिकवात्स| ३१ जिनाना पूर्वदेवादिभवसदृशोऽवधिरिति न सर्व ल्यमपि संखडी जिनाना स समानः १-१२७ १११ लोकान्तिका एकावतारिण एवेति नियमाभावः २-५२ ९९ षष्टिलक्षाधिककोटीमिताः कलशा एवं प्रत्येकमष्ट ९४७ श्रीवीरखायुद्वासप्ततिनपैमानं यत् तम्यूनाधिकमावाराः सहस्रेणाभिषेकात् अष्टसहस्री, कनकमयाविभेदेना | सानामविवक्षणात् , आयुश्च गर्भात् ८२-६४ टधा कलशाः इति चतुःषष्टिसहस्री कलशाना,सार्धद्विशते- स्थ.गणभृतां वाचनाभेदोऽपि परस्परं, तेन चासंभोगिकनाभिषेकेण गुणनाद् यथोक्तसंख्या, अभिषेकसंख्या त्वेव वसंभावनापि मिथः २-८९ | अज्योतिष्काणां द्वाषष्टेरिन्द्राणां द्वाषष्टिः, द्वात्रिंशदधिकशत- १२९ अन्यभरतेषु सर्वेष्वरवतेषु च भस्मग्रहकुमतबाहुल्याविर-९३ सूर्यचन्द्राणां तावन्तः,दक्षिणोत्तरासुरेशेन्द्राणीनां दुश,नवानां १९ एतानि अन्यानि वाऽऽश्चर्याणि दशसु क्षेत्रेषु, परं नागादीनामप्रमहिषीणां द्वादश, व्यन्तराणों ज्योतिष्काणां दशसंख्या नियमः च चत्वारश्चत्वारः,सौधर्मेशानेन्द्राममहिषीणामष्टाष्ट,सामा १९ श्रीवीरः सिंहभवानन्तरं भ्रान्ता चक्की जात इति उटरस्टारटकाकर दीप अनुक्रम | ॥ ३ ॥ SANEducationine ए ~8~ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक H गाथा II-II दीप अनुक्रम H [-] दशाश्रुतस्कंध अध्ययनं ८ "कल्पसूत्र" (मूलं + वृत्तिः ) व्याख्यान [-] मूलं [-] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: सुरादिभवो मध्ये ज्ञातव्यः २११ प्रथमवीर्थंकृता सह दीक्षाग्राहकाः स्वामिवत् दीक्षापाठोच्चारं करोति, अन्यैः सह प्रत्रजितानां तु द्रव्यक्षेत्राद्यनुसारेण तपस्याग्रहणं ११२ तीर्थकुद्दानमभध्या नाप्नुवन्तीति वृद्धवादः, तथाविधमन्थाक्षराणां त्वस्मृतिः १४८ श्रीसुधर्मस्वाम्यादयो नवम पूर्वान्तर्गतमेतदध्ययनं पञ्चदिनीं यावद्माणिपुः १९ भरतैरावतयोर्युग्मिनां न्यूनाधिकता स्यात् न देवकुर्वादिषु ततः संदरणभावे आनयनमेव कुतोऽपि २१० मृतयुग्मिशरीराणि महाखगाः नीडकाष्ठमिवोत्पाट्याम्बुधौ चिचिपुः Jan Education Intemation १-११३ २-१८७ २-१८८ ३ सुपार्श्वचरित्रे श्रीशान्तिनाथचरित्रे च च्यवनकल्याणकेऽपि सुरेन्द्रागमनादि ४ तीर्थकर मातरञ्चतुर्दशापि स्वप्नान् मुखे प्रविशतः २-२०१ ३-१३ ३-३० ३-३३ ~9~ - पश्यंति स्व. यक्षाया बास्यात् मात्रेव पालितत्वात् महागिरिसुहस्तिनोपपदत्वम् ७५ गजकुम्भनृषभाख्यान् स्वप्नान् प्रतिवासुदेवमातरः पश्यन्ति For File & Fersonal Use Only ३-८० ९६ मध्यरात्रे एवं गर्भावतारभावात् सप्तरात्राधिका एव नव मासा भवन्ति, सिद्धान्तशैल्या तु अद्धट्ठमेत्यादि ३-८४ ७४ चक्रवर्त्तिमातरचतुर्दश स्वप्नानस्फुटान पश्यन्ति ३-१०३ १४ सर्वेऽपीन्द्राः सर्वदा सम्यग्दृष्टयः ३-१३३ १४ ऐरावणाचा वाहनकाले गजादिरूपिणः सर्वदा तु ३-५६ १-७७ सुररूपाः १९ महिजिनस्य वैयावृत्ये साध्यस्तिष्ठन्ति पर्षत्स्थितिस्तु सर्वेषां जिनानां समानैव पौषधवत श्रद्धानां कर्पूरादिभिः श्रीकल्पपूजा तद्वतीनां आद्धीनां गुहलिकान्युब्छनादि च न कल्पते ३-१४० ३-१४९ ३-१७० /20/207 www.janbary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान H] .......... मूलं -1 / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सेनप्रश्नाः कल्प.सुबो ॥४॥ सत्राका गाथा II-11 ९ अष्टाविंशत्यधिकशतप्रमृतिभिद्रोणः ३-१८८ | चउत्थभत्तं अन्यथा अभत्तद्वमिति ४-५८ पार्थेऽस्वाध्यायो भवति तदापि अवश्य करणीयत्वात् १४८श्राद्धादीनुदिश्य पठनं कल्पस्व विना पर्युषणां न युक्त४-६१ कल्पवाचनं शुध्यति ... ३-१८९ ___ चातुर्मासिकपाक्षिकप्रतिक्रमणानां चतुर्दश्यां चतुर्मा१३४ तीर्थकता पार्श्वे यैः सम्यक्त्वलामपूर्व देश- सीकरमात् न्यूनाधिकत्वं, परमाचरणया निर्दोष, श्राद्धानां विरतिं सर्वविरति वा प्रतिपन्नास्त एव तत्परिवारभूताः ३-२३२ कल्पसूत्रश्रावणवत् | ९७ भवनपत्यादिवत् कीडाप्रियत्वेन कुमार्यो दिकमायः ३-३२५ सामान्योपयोगीनि चैतानि KRI जातिस्मरणवान् अतीतान संख्यातान् भवान् पश्यति३-३४१ पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकाणां क्षामणानि तांसि ९८ वीर्यकृतां जन्मानन्तरं द्वात्रिंशहिरण्यकोटीमानां च यथाक्रम द्वितीयां पञ्चमी दशमी च यावत् शुभ्यन्ति २-१४॥ वृष्टिं देवाः कुर्वन्ति ३-४४३ घटीद्वयात्मारभ्य मिलन्ती तिथिः शुभध्यति न तु न्यूना३-११६ |१४७ श्रीवीरस्य चतुर्दशीदिनादेशनारम्भः अमावास्या वृद्धौ सत्यां स्वल्पाऽप्यप्रेतना तिथिः प्रमाणम् ३-१८५ यमेकोनत्रिंशन्मुहूर्त्तर्निवाणं च ३-४५० सांवत्सरिके सनमस्कारचत्वारिंशलोकोद्योतचिन्तनं ३-२८६ |१४८ श्रीदेवर्धिगणिभिः सर्वोऽपि सिद्धान्तः पुस्तकारूढः केवलसाधुभिः पाक्षिकप्रतिक्रमणे तपआधतिचारा कता अन्यपुस्तकानि तु पुरापि बहून्येवाभूवन्४ -२३ । यद्यायान्ति वदा कथनीया ३-३३२ सा.२१पारणके उत्तरपारणके चैकाशनकं विनापि च उत्थ आवश्यकचूादौ श्राद्धानां चरवलक ( रजोहरण) भत्तं छट्ठभत्तमित्यादि कथ्यते, परम्परया सैकाशनेऽभक्तार्थे प्रणाक्षराणि ३-३३३ दीप अनुक्रम Sucation ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान ] .......... मूलं - / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: कल्पसूत्रविषयानुक्रमः॥ सत्राक गाथा ||| विषयः सूत्राङ्कः पत्राः विषयः सूत्राद्धः पत्राका विषयः सूत्राः पत्राः मङ्गलादि १चैत्यपरिपाट्यादीनि पञ्च कार्याणि फलस्य पृच्छा विचारणं च १३ |आचेलक्यादयः कल्पाः ४ अष्टमतपसि नागकेतुकथा ८ स्वप्नफलकथनं स्वमाधिकारश्च ८ १५ आचारभेदे कारणं दृष्टान्ताश्च ५ संक्षिप्तवाचनया श्रीवीरचरित्रम् १ ९बाल्यातिक्रमे पुत्रविज्ञानादि फलं ९ १६ चतुर्मास्याः परतः स्थाने कारणानि ५षट्कल्याणकवादखण्डनम् ९खप्रफलनिवेदनम् चतुर्मासीयोग्यक्षेत्रगुणाः ६ मध्यमवाचनया श्रीवीरचरित्रम् २ १० स्वप्नफलाङ्गीकारे हर्षः तृतीयौषधदृष्टान्तः ६ श्रीवीरस्य गर्भावतारः ३ ११ स्वप्नफलवचसोऽङ्गीकारः कल्पमहिमा ७ देवानन्दायाः स्वप्नदर्शनम् ४ १२ इन्द्रस्वरूपं (कार्तिकवेष्ठिकथा) १३ पूर्वलेखने मषीमानम् ७ ऋषभदत्चपाधै गमनम् ५ १२ श्रीवीरगर्भावतारे हर्षः वाचनाभवणाधिकारिण: ७ स्वपनिवेदनम् ६ १३ शक्रस्तवः (मेघकुमारकथा च) १५ दीप अनुक्रम ... अत्र मूल-संपादकेन रचित: अस्या वृत्ते: विषयानुक्रम: वर्तते, तस्य पृष्ठांक: प्रत-पृष्ठांकानुसार ज्ञातव्य: ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान .......... मूलं - / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: कल्प सुबो सत्राका [-] गाथा II-11 eamagramerpasass909aeraa00000 विषयः सूत्राः पत्राः विषयः सूत्राः पत्राविषयः एनाहः पत्रातःविषयानुः इति प्रथमं व्याख्यानम् २१ त्रिशलाकृतं सिद्धार्थजागरणं स्वप्रफलकथनं प्रशंसा त्रिशलाया: क्रमः भीवीरवन्दनं चिन्ता च १५ २३ स्वप्नफलपृच्छा नृपहर्षोऽनुमोदना ४८... निवेदन हों भवनगमन प भहंदागुत्पत्ती योग्यायोग्यकुलानि १६7दारकजन्म दारकस्य चक्रिजिनले निधानोपसंहारो वर्धमाननामकर-८८ आश्चर्यदशकं सप्तविंशतिर्भवाः १७९ स्वप्नाङ्गीकारः जागरिका ५६) णेच्छा च चिन्ता गर्भस्य निश्चलता विलापः ९१ १८१२९ सेवकाहानं नगरशोभा भूपोस्थानं ५७ ) कम्पः हः हर्षचेष्टा श्रीवीश्रीवीरस्य गर्भान्तरसंक्रमः २९ ३६ अभ्यङ्गनानाभरणपरिवारास्था- स्वामिमहा संक्रमज्ञानं श्रीवीरस्त्य ३० ३६ नसभागमनानि ६३ ) गर्भपोषणं दौईदाः ग्रहाणामुञ्चता ९५१ गर्भापहारे देवानन्दास्वप्नापहारः ३१ ३६. भद्रासनरचनास्वापाठकाहानत-६४बीवीरजन्म च त्रिशलावासगृहगर्भसंक्रमौ २२ २८ दागमनैकत्रीभवनाशीर्वाददानानि ६७५ इति चतुर्थ व्याख्यानं गजादिस्वप्नचतुर्दशकम् श्रीवीरस्य जन्मोत्सवो रत्नादिवृष्टिः सूर्य-) तत्तत्स्वप्नवर्णनम् ४६५१ इति तृतीयं व्याख्यानं ६३ चन्द्रदर्शनं ज्ञातिभोजनं नाम- ९७४८६ द्वितीयं ब्याख्यान ४३ पाठकसत्कारःखानिवेदनं फलपु-६८१..करणं सर्वजिनमातृवर्शनीयता स्वप्नानां ४७ ५२ च्छा खासंचालना(स्वप्नाधिकारः)८७६ श्रीवीरस्य नामत्रयं क्रीडा चामलकी दीप अनुक्रम ३३ JABEnicatoni n e ~12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान H] .......... मूलं -1 / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक [-] गाथा ||| विषयः सूत्राः पत्राः विषयः सूत्राः पत्राः विषयः सूत्राधः पाकः हालेखशाला शकागमनं संदेहच्छेदो प्रहः कीलकप्रक्षेपकर्षणे अनगारता- इति षष्ठं व्याख्यानम् १ व्याकरणोत्पत्तिः स्वरूपं विहारः तपः केवलम् । श्रीपार्श्वनाथारिष्टनेमिचरित्रे १४९ इन्द्रभूत्यादिगणधरागमनं शङ्का- (कमठोपसर्गः नेमिविवाहश्च) १८३ पितमातपुत्राषितव्याविनामा १०१ निराकरणं प्रतिबोधो दीक्षा गण-१२२ नभ्यादीनामजितान्तानामन्त- १८४ । दीक्षासंकल्पो देवागमनं सांवत्सरिक- धरपदं त्रिपदीदानं अनुशा च १२१/राणि २०३ |दानममिषेकः शिविका दीक्षामहोत्सवः.. चतुर्मास्यःनिर्वाणं (सैद्धान्तिकमासदि आशीर्वाद उद्यानगमनं ११०पनराश्यापिनामानि) गौतमफेवलं १२८) श्रीषमपरित्रं वंशस्थापना शतपुत्रजन्म दीक्षाच अष्टाशीतिर्महाः निर्मम्यादीना-१२९१...राज्याभिषेकः विनीतानिवेश: शिल्पशतोत्पत्तिः १२३] इति पंचमं व्याख्यान ९६ मनुदयः कुन्थूत्पत्तिः अनशनं १३३ पुरुषकलामहिलागुण- २०४7.. उपसर्गसहनं अचेलकताभवनं श्रमणश्रमणीभावकमाविका- १३४१... शिक्षणं राज्यदान दीक्षा २१११ पुष्पकागमःसंगमोपसर्गा:कम्ब-११७॥ दिपरिवार अन्तकद्भूमिः १४६ नेमिविनम्यधिकारः वर्षान्ते पारणं । लशम्बलवृत्तं गोशालसमागमः १२१११ अन्त्यचतुर्मासी निर्वाणदशा १४७१...श्रेयांसभवा: केवलं मरुदेवीसिद्धिः पाटकदाहः तेजोलेश्योपायः अभि-) निर्वाणपुस्तकान्वरं १४८७ भरतयुद्धं २१२)१५३ 0000000000000000000000 Beaeeeeeeeeeeeeeeses दीप अनुक्रम N ijanelbanaras ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान .......... मूलं [1] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: विषयानुक्रमः सत्राका गाथा II-II कल्प.सुघो- विषयः सूत्राः पत्राः विषयः सूत्राचः पत्रा- विषयः सूत्राः पत्रात: गणधरादिः परिवारः निर्वाण (देवे- २१३१... सुस्थिवमुप्रतिबुद्धादिपरम्परा विकृतिवर्जनं ग्लानाथै विकृति- १४१ न्द्रादिकृतो महा)अन्तकृमिरन्तरं२२८१-कुलगणशाखास्वरूपं च १६५ ग्रहणविधिः श्राद्धगृहेऽयाचनं च १९५ इति सप्तमं व्याख्यानं १५९ राशिकमतोत्पत्तिः १६६ नित्यभक्तादीनां गोचरग- २०१ एकादश गणधरा नव गणाश्च प्रियग्रन्थाचार्याधिकारः १६मनकालमानं पानकविधिः २५ तहेतुः प्रभः वाचनानवकं गण श्रीवास्वाम्बधिकारः १६९ दत्तिग्रहणविधिः २६ १८० धरखरूपं श्रीआर्यसमितिसूर्यधिकारः श्रीसुधर्मस्वामिस्वरूपं २७ १८१ श्रीजम्बूस्खामिस्वरूपं १६१ पद्यवन्धेन फल्गुमित्रादिनतिः । १७१ जिनकल्पिकस्खविरकल्पिकानां वर्षासु गमनावस्थानविधिः २८ श्रीशय्यम्भवखरूपं १६१ इत्यष्टमं व्याख्यानं १७ पूर्वपश्चात्पक्कादानेतरविधिः ३५) श्रीभद्रबाहुखरूपं १६१ पर्युषणाकालस्तछेतुश्च परम्परा १० अर्वागस्तमयाद्वसवावागमनं ॥ श्रीस्थूलभद्रखरूपं १६३ (चूलमासगणनाखण्डन)स्थापना च८' गृहस्थगृहादौ साधुसाव्योः श्रीआर्यमहागिर्यायसुद्द १८२ वर्षांकालावग्रहः एरावत्युत्ताररीतिः ९१.... परस्परमगार्यगारीमिश्च सह स्तिस्वरूपं १६३ दानग्रहणादिविधिः १३ स्थानविधि: १६९ संखडिवर्जनविधिः 2000sesasreasee दीप अनुक्रम ॥६॥ ३९. ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान H] .......... मूलं -1 / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक गाथा ||| 0000000000000000000000 विषयः सूत्रायः पत्राचः विषयः सूत्रादः पवारः विषयः सूबाझा पत्राः परिज्ञाप्याहारानयनं ४०१... वस्त्रादीनामातपे दाने विधिः ५२ १८९ उपाश्रयत्रयप्रमार्जनादि अमिगृहीतशय्यादिवं तद्वत ५३ .. उदकाइँण अभोजनं आराधकता ५४) कल्पस्य श्रीवीरंजिनोकता आरा-६३7 उच्चारप्रश्रवणभूमिप्रमार्जनं ५६ १९० धने तद्भवसिद्धिकत्वादिः ६४ प्राणपनकादिसूक्ष्माष्टकं लोचविधिः ५७ १९१ ४५६१८५अधिकरणप्रतिषेधः (द्विज- ) प्रशतिः १९५-१९६ भाचार्यादीनापृष्य ४६रान्तः) नहिवसीयकलहश्चमणा ५८ गोचरीविहारभूम्यादि विकृति- १८८(उदयनदृष्टान्तः) (उभयाराध- " इति कल्पसूत्रविषयाः। चिकित्सातपोऽनशनकरणं ५१) कतायां मृगावतीदृष्टान्तः) ५९) । 9appea00000000000002ata दीप अनुक्रम ~15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [-] गाथा II-II दीप अनुक्रम [-] नकल मुताबीक असल. गवरी शरीरतदार दरबार ऑफीस सलाना दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) .......... व्याख्यान [-] मूलं [-] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: रुखकार महकमे आलीये ईजलास खास सरकार सैलाना सीश्री माहाराज श्रीराज माहाराजा श्रीश्री १०८ श्री दिलीप सिंहजी साहब बहादुर ता११५ नवम्बर सन् १८२१ सम्पत् १८७८ नंबर HMA ABVE मुद्रा राज्य से लाना १९७९ सं 2 AVIV वरी नकल. दीवान दरबार. 1940 जैन श्वेताम्बर मंदीर मार्गी माहाजनान सैलानाके ••• शैलाना-नगरस्य नृपेण (राज्ञा) पूज्य आनन्दसागरसूरीश्वरं प्रदत्त खिताब: आगमो प्यारक तपागच्छा-चार्य श्री आनंद सागर सूरीजी माहाराज ने हमारी इच्छानुसार इस साल सैलाने में धातु मसि कीय..उनके अनेक विषयों पर व्याख्यान हुबे. वो सु नकर हम खुश हुये. इस खुशी में नीन्ये ली से माफीक हुक्म देने में आता है. १ हर जेक साल भीती. भादवा वीदी १२ सें मीती भाट्या ~ 16~ www.janbrary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान - .......... मूलं ] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक गाथा ||| सुरी तक याने पर्युपरणों के दोनों में सदाबंद माफीफ नकल रबकार हाजाकीबतोर दाखलाजाचार्य पसती रहेगी. इसमें विशेष ये हुक्म दियाजाताहेके. जीआनंदसागर सूरीजी माहाराज वपंचमाहाजने सैलाने की हद में इन दिनों में बकरानहीं मारा जायेगा. सैलाने को देने वास्ते दरबार ऑफीस में भेजा जाये. २ हमारी साल गीरह की तीथी जयरगीहै. इससीय तारिख नपा सन् १४२१ संमत १९७८ हरमहीने की दोनोअट्टमीके दीन याने सालभर में २४, सही ईग्रेजी में श्रीजी हजुर साहबबहादुरकी. दीन ओकादसी व अमावस्या की पलती के माफीक अज महेन्मे आलीये दरबार सैलाना. तमाम ईलाके में पलती होतीरहे. नकल रुबकार हाजाकी जरीये नकल हकम दाना दीप अनुक्रम नंबा रोजना मन्या ५२२. हु. नंवर रसीर ८१५ ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान - .......... मूलं / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक आचार्यजी माहाराज आनंद सागर सूरीमी व पंन्य माहाजनान सैलाना को दीनाये तारीर १८११॥५२॥ संमत् १८७८ सही ईग्रेजी में दीवान साहब दरबार सैलाना गाथा ||| 803 दीप अनुक्रम ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभ्रातृ-जैनपुस्तकोद्धारेश्रीविनयविजयोपाध्यायरचितसुबोधिकाख्यवृत्तियुतं सत्राक श्रुतकेवलिश्रीभद्रबाहुखामिप्रणीतं श्रीकल्पसूत्रम् । [१] गाथा ||| अपश्चिमपूर्वभृत्सकलसिद्धान्तोद्धारकेभ्यः श्रीदेवद्धिंगणिक्षमाश्रमणेभ्यो नमः । णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सवसाहणं, एसो पंचणमुक्कारो, सबपावप्पणासणो । मंगलाणं च सवेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ १॥ पुरिमचरिमाण । कप्पो, मंगलं वद्धमाणतित्थंमि । इह परिकहिया जिणगणहराइथेरावलि चरित्तं ॥१॥ | प्रणम्य परमश्रेयस्करं श्रीजगदीश्वरम् । कल्पे सुयोधिकां कुर्वे, वृत्तिं बालोपकारिणीम् ॥१॥ यद्यपि बहय-ग टीकाः कल्पे सन्त्येव निपुणगणगम्याः। तदपि ममायं यत्रः, फलेग्रहिः खल्पमतिबोधात् ॥२॥ यद्यपि भानुद्युतयः सर्वेषां वस्तुबोधिका बयः। तदपि महीगृहगानां प्रदीपिकैवोपकुरुते द्राक ॥३॥ नास्यामर्थविशेषो। न युक्तयो नापि पद्यपाण्डित्यम् । केवलमर्थव्याख्या.वितन्यते बालबोधाय ।। ४ ॥ हास्यो न स्यां सद्भिः कुर्वन्ने । अनुक्रम कल्प. मु.१ प्रथमं व्याख्यानं आरभ्यते ... अथ कल्पसूत्रस्य वृत्ते: आरंभ: क्रियते ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [3] गाथा II-II दीप अनुक्रम [0] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) .......... व्याख्यान [१] मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कल्प.सुवो ॥ १ ॥ तामंतीक्ष्णबुद्धिरपि । यदुपदिशन्ति त एव हि शुभे यथाशक्ति यतनीयम् ॥ ५॥ अत्र हि पूर्व नवकल्पविहारव्या० १ ० क्रमेणोपागते योग्यक्षेत्रे साम्प्रतं च परम्परया गुर्वादिष्टे क्षेत्रे चतुर्मासीस्थिताः साधवः श्रेयोनिमित्तं आनन्दपुरे सभासमक्षं वाचनादनु सङ्घसमक्षं पचेभिर्दिवसैर्नवभिः क्षणैः श्रीकल्पसूत्रं वाचयन्ति । तत्र कल्प| शब्देन साधूनां आचारः कथ्यते, तस्य च कल्पस्य दश भेदास्तद्यथा - आचेलक्कु १ देसिअ २ सिजायर ३ रायपिंड ४ किकम्मे ५। वय ६ जिह ७ पडिक्कमणे, ८ मासं ९ पजोसणाकप्पे १० ॥ १ ॥ व्याख्या- 'आचेलक' मिति न विद्यते चेलं वस्त्रं यस्य सोऽचेलकस्तस्य भाव आचेलक्यं, विमतत्रत्वं इत्यर्थः तच तीर्थेश्वरानाश्रित्य प्रथमान्तिमजिनयोः शक्रोपनीतदेवदृष्यपगमे सर्वदा अचेलकत्वं अन्येषां तु सर्वदा सचेलकवं । गच किरणावलीकारेण चतुर्विंशतेरपि जिनानां शक्रोपनीतदेवदृयपगमे अचेलकत्वं उक्तं तचिन्त्यम्, 'उसमे अरहा कोसलिए संवच्छरसाहिअं चीवरधारी होत्थ'सि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवचनात् 'सको अ लक्खमुलं. सुरदूसं • १ अष्टौ शेषमासभवा एकचातुर्मासिकः, अभिवर्धिताधिकमासस्याविवक्षा । २ वक्त्राणं पुरिसपुरभो अज्ञा । कुवंति जत्थ मेरा नडपे डगसंनिद्दा जाणे ॥ १॥ ति संबोधप्रकरणवचनात् न साध्या व्याख्यानमात्रस्याप्यधिकारः पुरुषाणां पुरतः, न चौल्पज्ञानाः साधवः पठन्ति पार्श्वे तासां न च ते ता वन्दंते, पुरुषोत्तमत्वं त्वत्रापिं । ३ अणागयं पंचरतं कढिज्जत्यावश्यकायुक्तेः । ४ असंतचेला य तित्थयरा सबे ( पश्ञ्चकल्पभाष्यं) असत्स्वेव चेलेषु सर्वे जिना अचेला इत्यर्थः । ऋषभ अर्हन् कौशलिंकः संवत्सरं साधिकं चीवरधारी अभवत् इति । ६ शक्रश्च लक्षमूल्यं सुरदूष्यं स्थापयति सर्वजिनश्कन्धे । वीरस्य वर्षमेधिकं सदापि शेषाणां तस्य स्थितिः ॥ १ ॥ Jan Education in ... अत्र 'कल्प'स्य दश-भेदानां वर्णनं क्रियते For Five & Fersonal Use Only ~20~ कल्पभेदाः १५ २० ॥ १ ॥ www.janbary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [8] गाथा II-II दीप अनुक्रम [0] Jan Education le दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) .......... व्याख्यान [१] मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: टवइ सम्वजिणखंघे । वीरस्स वरिसमहिअं. सयावि सेसाण तस्स ठिई' ॥ १ ॥ इति सप्ततिशतस्थानकवचनाचेति ज्ञेयं । साधून आश्रित्य च अजितादिद्वाविंशतिजिनतीर्थसाधूनां ऋजुप्राज्ञानां बहुमूल्यविविधवर्णवस्त्र परिभो गांनुज्ञासद्भावेन सचेलकत्वमेव केषाञ्चिच श्वेतमानोपेतवस्त्रधारित्वेन अचेलकत्वमपि इत्यनियतस्तेषामयं कल्पः, श्रीऋषभवीरतीर्थयतीनां च सर्वेषामपि श्वेतमानोपेत जीर्णप्राय वस्त्रधारित्वेन अचेलकत्वमेव । ननु वस्त्रपरिभोगे सत्यपि कथं अचेलकत्वं इति चेद्, उच्यते, जीर्णप्रायतुच्छवस्त्रे सत्यपि अवस्त्रत्वं सर्वजनप्रसिद्धमेव, तथाहि-कृतपोतिका नदीमुत्तरन्तो वदन्ति अस्माभिर्ननीभूय नदी उत्तीर्णा इति, तथा सत्यपि वस्त्रे तन्तुवायरजकादश्व वदन्ति शीघ्रं अस्माकं वस्त्रं देहि वयं नग्नाः स्म इति, एवं साधूनां वस्त्रसङ्गावेऽपि अचेलकत्वं इति प्रथमः १ ॥ तथा 'उद्देसिभ'न्ति औदेशिक आधाकर्मिकं इत्यर्थः साधुनिमित्तं कृतं अशनपानखादिमखादिमवस्त्रपात्रवसतिप्रमुखं तच प्रथमचरमजिनतीर्थे एक साधुं एक साधुसमुदायं एकं उपाश्रयं वा आश्रित्य कृतं तत्सर्वेषां साध्वादीनां न कल्पते, द्वाविंशतिजिनतीर्थे तु यं साध्वादिकं आश्रित्य कृतं तत्तस्यैव अकल्प्यं, अन्येषां तु कल्पते इति द्वितीयः २ ॥ तथा 'सिजायर'ति शय्यातरो वसतिस्वामी तस्य पिण्डः - अशन १ पान २ खादिम ३ खादिम ४ वस्त्र ५पात्र ६ कम्बल ७ रजोहरण ८ सूची ९ पिपलक १० नखरदन ११ कर्णशोधनक १२ लक्षणो द्वादशप्रकार: १ पात्रलेपवत् संयमशुद्ध वर्णपरावन्तोंऽधुना । For Pide & Personal Use On ~21~ janelbrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [?] गाथा II-II दीप अनुक्रम [0] कल्प. सुबो व्या० १ ॥ २ ॥ Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) .......... व्याख्यान [१] मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्ति: : १५ | सर्वेषां जिनानां तीर्थेषु सर्वसाधूनां न कल्पते, अनेषणीयप्रसवसतिदौलभ्यादिव हुदोषसंभवात् । अथ यदि ६ कल्पभेदाः | साधवः समग्रां रात्रि जाग्रति प्रातः प्रतिक्रमणं च अन्यत्र कुर्वन्ति तदा मूलोपापस्वामी शय्यातरो न भवति, यदि च निद्रायन्ति प्रतिक्रमणं च अन्यत्र कुर्वन्ति तदा द्वावपि शय्यातरौ भवतः, तथा तृणडगलभस्म मल्ल कपीठफलक शय्या संस्तारकलेपादिवस्तूनि चारित्रेच्छुः सोपधिकः शिष्यश्च शय्यातरस्यापि ग्रहीतुं कल्पते, इति तृतीयः ३ ॥ 'रायपिंड ति सेनापति १ पुरोहित २ श्रेष्ठि ३ अमात्य ४ सार्थवाह ५ लक्षणैः पञ्चभिः सह राज्यं पालयन् मूर्धाभिषिक्तो यो राजा तस्य पिण्डः-अशनादिचतुष्कं ४ वस्त्रं ५ पात्रं ६ कम्बलं ७ रजोहरणं ८ चेति | अष्टविधः प्रथमचरम जिनसाधूनां निर्गच्छागच्छत् सामन्तादिभिः स्वाध्यायव्याघातस्य अपशकुनबुद्ध्या शरी| रव्याघातस्य च संभवात् खाद्यलोभलघुत्व निन्दा दिदोषसंभवाञ्च निषिद्ध:, द्वाविंशतिजिनसाधूनां तु ऋजुप्रा| झत्वेन पूर्वोक्तदोषाभावेन राजपिण्डः कल्पते इति चतुर्थः ४ ॥ 'किकम्म' ति कृतिकर्म-वंदनकं, तद् द्विधा - अभ्युत्थानं द्वादशावतं च तत्सर्वेषां अपि तीर्थेषु साधुभिः परस्परं यथादीक्षापर्यायेण विधेयं, साध्वीभिश्च चिरदीक्षिताभिरपि नवदीक्षितोऽपि साधुरेव वन्यः, १ राज्ञामतिथिसंविभागव्रताराधनं तु साधर्मिकभक्त्या, साधुसाध्वीश्रावक श्राविकानामतिथितयोंमास्वातिभिर्व्याख्यानात् । For File & Fersonal Use Only ~ 22~ २० ॥ २ ॥ २५ janbrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक [१] गाथा ||| पुरुषप्रधानत्वात् धर्मस्य इति पञ्चमः ५. ॥'वय'त्ति व्रतानि-महानतानि तानि च द्वाविंशतिजिनसाधूनां । चत्वारि, यतस्ते एवं जानन्ति यत् अपरिगृहीतायाः स्त्रियः भोगांसंभवात् स्त्री अपि परिग्रह एवेति परिग्रहे | प्रत्याख्याते स्त्री प्रत्याख्यातेव, प्रथमचरमजिनसाधूनां तु तथाज्ञानाभावात् पञ्च व्रतानि इति षष्ठः ६॥ 'जिह'त्ति ज्येष्ठो-रत्नाधिकः स एव कल्पो वृद्धलघुत्वव्यवहार इत्यर्थः, तत्र आद्यान्तिमजिनयतीनां उपस्थापनातःप्रारभ्य दी-II क्षापर्यायगणना मध्यमजिनयतीनांच निरतिचारचारित्रत्वादीक्षादिनादेव, अथ पितापुत्रमातादुहितराजामात्य-18 श्रेष्ठिवणिकपुत्रादीनांसाई गृहीतदीक्षाणां उपस्थापने को विधिः?, उच्यते, यदि पित्रादयः पुत्रादयश्च समकमेव षड्जीवनिकायाध्ययनयोगोद्बहनादिभिर्योग्यतां प्राप्तास्तदा अनुक्रमेणैवोपस्थापना, अथ स्तोकं अन्तरं तदा किया द्विलम्येनापि पित्रादीनामेव प्रथममुपस्थापना, अन्यथा पुत्रादीनां बृहत्त्वेन पित्रादीनां अप्रीतिः स्यात् , अथ पुत्रादीनां सप्रज्ञत्वेन अन्येषां निष्प्रज्ञत्वेन महदन्तरं तदास पित्रादिरेवं प्रतियोध्या-भो महाभाग! सप्रज्ञोऽपि तव पुत्रः अन्यभ्यो बहुभ्यो लघुर्भविष्यति तव पुत्रे च ज्येष्ठे तवैव गौरवं, एवं प्रज्ञापितः स यदि अनुमन्यते तदा पुत्रादिः प्रथम उपस्थापनीयः, नान्यथा, इति सप्तमः ७॥ 'पडिक्कमणे'त्ति अतिचारो भवतु मा वा परं श्रीऋषभ-10 वीरसाधूनां उभयकाल अवश्यं प्रतिक्रमणं कर्तव्यमेव, शेषजिनमुनीनां च दोषे सति प्रतिक्रमणं नान्यथा, तत्रापि मध्यमजिनयतीनां कारणसद्भावेऽपि देवसिकरात्रिके एव प्रायः प्रतिक्रमणे, न तु पाक्षिकचातुर्मासिक दीप अनुक्रम ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: कल्पभेदा: सत्राका गाथा II-II कल्प सुबो- सांवत्सरिकाणि, तथा चोक्तं सप्ततिशतस्थानकग्रन्थे-'देसिय १ राइय २ पक्खिय,३ चउमासिअ ४ वच्छरीअ नामाउ । दुहं पण पडिकमणा, मज्झिमगाणं तु दो पढमा ॥१॥ तं दुण्ह सय दुकालं. इयराणं कारणे इउ ॥३॥ मुणिणो' इति अष्टमः ८॥'मास'त्ति आयान्त्यजिनयतीनां मासकल्पमर्यादा नियता, दुर्भिक्षाशक्तिरोगादि-15 कारणसावेऽपि शाखापुरफाटककोणकपरावर्सेनापि सत्यापनीयैव, परं शेषकाले मासादधिक न स्थेयं, प्रति-13 बन्धलघुत्वप्रमुखबहुदोषसंभवात्, मध्यमजिनयतीनां तु ऋजुप्राज्ञानां पूर्वोक्तदोर्षाभावेन अनियतो मासकल्पः, ते हि देशोनां पूर्वकोटी यावदपि एकत्र तिष्ठन्ति, कारणे मासमध्येऽपि विहरन्ति, इति नवमः ९॥ 'पज्जोसणाकप्पे'ति परि-सामरत्वेन बघणा-यसनं पर्यपणा, तत्र पर्युषणाशब्देन सामस्वयेन वसनं , वार्षिक पर्ने च द्वर्य अपि कथ्यते, तत्र वार्षिक पर्व भाद्रपदसितपश्वम्यां कालकसूरेग्नन्तरं चतुयामेवेति, सामस्त्येन वसनलक्षप्रणश्च पर्युषणाकल्पो द्विविधा-सालम्बनो निरालम्बनश्च, तत्र निरालम्बनः कारणाभाववान इत्यर्थः, स द्विविधो जघन्य उस्कृष्टश्च, तत्र जघन्यस्तावत् सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादारभ्य कार्तिकचतुर्मासप्रतिक्रमणं यावत् सप्तति७०-19 | १ देवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकवात्सरिकनामानि । द्वयोः ( प्रश्चमान्तिमतीर्थकरतीर्थयोः) पञ्च प्रतिक्रमणानि, मध्यमकानां तु 12 हे प्रथमे ॥ १॥ तत् वयोः सदोमयकालं , इतरेषां कारणे इति मुनीनां । २ चन्द्रसंवत्सरापेश्येदमिति कश्चिन्मुग्धः, शास्त्रापेक्षया पोषापाढयोरेव वृद्धः, किंचाधिकमासप्रमाणीकरणे पौषवृद्धौ माघे आषाढवृद्धौ चाद्यापाढे चतुर्मासीकरणापत्तिः, तस्याः तत्तम्मासप्रतिबद्धत्वेऽत्रापि समानं समाधान । Seeरररररररर दीप अनुक्रम 5 ~24~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक [१] गाथा ||| दिनमानः उत्कृष्टस्तु चातुर्मासिकः, अयं द्विविधो निरालम्बनः स्थविरकल्पिकानां, जिनकल्पिकानां तु एको निरालम्बनश्चातुर्मासिक एव, सालम्बनस्तु कारणिक इत्यर्थः, यत्र क्षेत्रे मासकल्पः कृतस्तत्रैव चतुर्मासककरणे चतुर्मासकानन्तरं च मासकल्पकरणे पाण्मासिका, अयमपि स्थविरकल्पिकानां एव, तथा पञ्चकपञ्चकवृद्ध्या गृहिज्ञातांज्ञातादि विस्लरस्तु नात्र लिखितः, साम्प्रतं सधाज्ञया तस्य विधेयुच्छिन्नत्वाद्विस्तरभयाच, विशेषापिना च कल्पकिरणावल्यादयो विलोक्याः, एवं सर्वत्रापि ज्ञेयं, अथैवंवर्णितस्वरूपः पर्युषणाकल्पः प्रथमान्तिम-18 जिनयोस्तीर्थे नियतः शेषाणां तु अनियतः, यतस्ते हि दोषाभावे एकस्मिन क्षेत्रे देशोनां पूर्वकोर्टि थावत् तिष्ठन्ति | वोषसद्भावे तु न मासं अपि. एवं महाविदेहेऽपि द्वाविंशतिजिनवत् सर्वेषां जिनानां कल्पव्यवस्था ज्ञेया इति दशमः॥१०॥ एते दशापि कल्पा ऋषभवर्धमानतीर्थे नियता एव द्वाविंशतिजिनतीर्थे तु आचेलक्यौ १द्देशिका [प्रतिक्रमण ३ राजपिण्ड ४ मास ५पयुषणा ६लक्षणाः षट् कल्पा अनियताः, शेषास्तु शय्यातर १चतुचेत-1 पुरुषज्येष्ठ ३ कृतिकर्म ४ लक्षणाश्चत्वारो नियता एवेति दशानां कल्पानां नियतानियतविभागः॥ - ननु एकस्मिन् मोक्षमार्गे साध्ये प्रथमचरमजिनसाधूनां द्वाविंशतिजिनसाधूनां च कथं आचारभेद:१, उच्यते, जीवविशेषा एव तत्र कारणं, [पुरिमाणे दुविसोझो, चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो । मज्झिमगाण जिणाणं. १ पूर्वेषां दुर्विशोध्या, चरमाणां दुरनुपालः कल्पः । मध्यमकानां जिनानां, सुविशोभ्यः सुखानुपालश्च ॥ १ ॥ रजुजडाः पूर्व खलु, INIनटाविज्ञाता भवन्ति ज्ञातव्याः । वाजडाः पुनः घरमाः, जुम्राज्ञा मध्यमा भणिताः ॥ २ ॥ दीप अनुक्रम ~25~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [3] गाथा II-II दीप अनुक्रम [0] कल्प. सुवोव्या० १ 118 11 दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) .......... व्याख्यान [१] मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: सुविसुज्झो सुहणुपालो अ ॥ १ ॥ उज्जुजडा पुरिमा, खलु नडाइनायाड हुंति नायव्वा । वक्कज़डा पुण चरिमा उज्जुपण्णा मज्झिमा भणिया ॥ २ ॥ ] तथाहि - श्री ऋषभतीर्थजीवा ऋजुजडास्तेषां धर्मस्य अवयोघो दुर्लभो जडत्वात्, वीरतीर्थसाधूनां च धर्मस्य पालनं दुष्करं वक्रजडत्वात्, अजितादिजिनतीर्थसाधूनां तु धर्मस्य अवबोधः पालनं च द्वयं अपि सुकरं, ऋजुप्राज्ञत्वात् तेन आचारो द्विधा कृतः । अत्र च दृष्टान्ताः प्रदर्श्यन्तेयथा केचित् प्रथमजिनयतयो वहिर्भूमेर्गुरुसमीपं आगताः पृष्टाश्च गुरुभिः-भो मुनयो भवतां इयती बेला क जाता ?, तैरुक्तं स्वामिन्! वयं नटं नृत्यन्तं विलोकयितुं स्थिताः, ततो गुरुभिः कथितं इदं नटविलोकनं साधूनां न कल्पते, तैरपि तथेति अङ्गीकृतं, अथ अन्यदा त एवं साधवश्विरेण उपाश्रयं आगतास्तथैव गुरुभिः पृष्टाः प्रोचुः प्रभो ! वयं नदीं नृत्यन्तीं निरीक्षितुं स्थिताः, तदा गुरुभिरूचे भो महाभागास्तदानीं भवतां नटो निषिद्धो नटे निषिद्धे च नटी सुतरां निषिद्धैव ततस्तैर्विज्ञतं खामिन्! इदं अस्माभिर्न ज्ञातं अथैवं न करिष्यामः, अत्र च जडत्वान्नटे निषिद्धे नटी निषिद्धेवेति तैर्न ज्ञातं, ऋजुत्वाच सरलं उत्तरं दत्सं इति प्रथमः । अत्र द्वितीयोऽपि दृष्टान्तः- यथा कोऽपि कुङ्कुणदेशीयो वणिग वृद्धत्वे प्रव्रजितः स चैकदा ऐर्यापथिकीकायोत्सर्गे चिरं स्थितो गुरुभिः पृष्टः- एतावद्दीर्घे कार्योत्सर्गे किं चिन्तितं ?, स प्रत्युवाच - स्वामिन् ! जीवदया चिन्तिता, कथमिति पुनर्गुरुभिः पृष्ट आह-पूर्व गृहस्थावस्थायां क्षेत्रेषु वृक्षनिषूदनपूर्वकं उप्तानि धान्यानि बहून्यंभूवन् इदानीं मम पुत्रास्तु निश्चिन्ता यदि वृक्षनिपूदनं न करिष्यन्ति तदा धान्याभवनेन वराकाः कथं For Plate & Fersonal Use Only ••• अत्र प्रथम अंतिम तथा मध्यवर्ती तीर्थकराणां कल्प भेदस्य कारणानि निर्दिश्यते ~26~ कल्पभेदकारणं १५ २० ॥ ४ ॥ २५ 8) janbrary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [8] गाथा II-II दीप अनुक्रम [0] Jan Education re दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) .......... व्याख्यान [१] मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: भविष्यन्ति ? इति ऋजुत्वात् खाभिप्राये यथास्थिते निवेदिते गुरुभिः कथितं महाभाग ! दुर्ष्यातं भवता, अहो ! अयुक्तमेतद्यतीनां इत्युक्ते च मिथ्यादुष्कृतं ददौ ॥ तथा वीरजिनयतीनां वक्रजडत्वेऽपि दृष्टान्तद्वयंतत्र केचिद्वरतीर्थसाधवो नटं नृत्यन्तं विलोक्य गुरुसमीपं आगता गुरुभिः दृष्टा निषिद्धाच नटावलोकनं प्रति, पुनरन्यदा नहीं नृत्यन्तीं विलोक्य आगता गुरुभिस्तथैव पृष्टा वक्रतया अन्यानि उत्तराणि ददुर्बा पृष्टाश्च सत्यं प्रोचुः, गुरुभिरुपालम्भे च दत्ते संमुखं गुरूनेय उपालब्धवन्तः - यर्दस्माकं तदा नटनिषेधसमये नटीनिषेधोऽपि कुतो न कृतो ? भवतां एवं अयं दोषः अस्माभिः किं ज्ञायते ? इति प्रथमो दृष्टान्तः । तथा कश्चियवहारिसुतः पित्रा बहुशः शिक्ष्यमाणो जनकादीनां संमुखं जल्पनं न कर्त्तव्यं इति पितृवचनं वक्रतया मनसि दधार, अथैकदा सर्वेषु स्वजनेषु वहिर्गतेषु पुनः पुनः शिक्षयन्तं पितरं अद्य शिक्षयामीति विचिन्य कपाटं दत्त्वा स्थितः आगतेषु च पित्रादिषु द्वारोद्घाटनार्थ बहुशब्दकरणेऽपि न वक्ति न चोद्घाटयति, भित्त्युल्लङ्घनेन मध्ये प्रविष्टेन च पित्रा हसन् दृष्ट उपालब्धश्च कथयामास भवद्भिरेवोक्तं वृद्धानां उत्तरं न देयं इति द्वितीयः ॥ अर्थाजितादियतीनां ऋजुप्राज्ञस्वे दृष्टान्तः- यथा केचिदजितजिनयत्तयो नटं निरीक्ष्य चिरेणागता गुरुभिः पृष्टा यथास्थितं अकथयन् गुरुभिश्च निषिद्धाः अथ अन्यदा ते बहिर्गताः नदीं नृत्यन्तीं विलोक्य प्राज्ञत्वात् विचारयामासुः यदस्माकं रागहेतुत्वाद् गुरुभिर्नटनिरीक्षणं निषिद्धं तर्हि नदी तु अत्यन्तरागकारणत्वात् सर्वधा निषिद्धेवेति विचार्य नहीं नौलोकितवन्तः ॥ ननु तर्हि द्वाविंशतिजिनयतीनां ऋजुप्रा For File & Fersonal Use Only ~27~ Kijaliay.g Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: कस.सुबो सत्राक [१] गाथा II-11 |ज्ञानां भवतु धर्मः, परं प्रथमजिनयतीनां ऋजुजडानां कुतो धर्मः ?, अनवबोधात्, तथा च वऋजडानां वीरय-1 वसतिव्या०१ तीनां तु सर्वथा धर्मस्य अभाव एव, मैचं, ऋजुजडानां प्रथमजिनयतीनां जडत्वेन स्खलनासद्भावेऽपि भावस्य गुणाः विशुद्धत्वाद् भवति धर्मः, तथा बक्रजडानां अपि वीरजिनयतीनां ऋजुप्राज्ञापेक्षया अविशुद्धो भवति परं। ॥५॥ सर्वथा धर्मो न भवतीति न वक्तव्यं, तथा वचने हि महान् दोषः, तदुक्तम्-जो भणइ नस्थि धम्मो,न या सामइयं न चेव य वयाई। सो समणसंघषज्झो, काययो समणसंघेणं ॥१॥" । तथा यो नियतमेवस्थानलक्षणः सप्ततिदिनमानः पर्युषणाकल्प उक्तः सोऽपि कारणाभावे एव, कारणे तु तन्मध्येऽपि विहर्तु कल्पते, तद्यथा अशिवे १भोजनाप्राप्ती २, राज रोग ४ पराभवे । चतुर्मासकमध्येऽपि, विहर्तु कल्पतेऽन्यतः॥१असति स्थण्डिले ५ जीवाकुले ६ च वसती ७ तथा । कुन्थु ८ व्वग्नी ९तथा सर्प १०, विहर्तुं कल्पतेऽन्यतः ॥२॥ तथा एभिः कारणश्चतुर्मासकात्परतोऽपि स्थातुं कल्पते-वर्षादविरते मेघे, मार्गे कर्दमदुर्गमे । अतिक्रमेऽपि कार्तिक्यास्तिष्ठन्ति मुनिसत्तमाः ॥१॥ एवं अशिवादिदोषाभावेऽपि IS|संयमनिर्वाहार्थ क्षेत्रगुणा अन्वेषणीयाः, तच्च क्षेत्रं त्रिविध जघन्य मध्यमं २ उत्कृष्टं ३ च, तत्र चतुर्गुणयुक्तं जघन्यं, ते चामी-'समिई विहारभूमी वियारभूमी य सुलहसज्झाओ।सुलहा भिकखा जाहे जहन्नयं वासखित्तं ॥५॥ तु॥१॥' यन्त्र विहारभूमिः सुलभा-आसन्नो जिनप्रासाद इत्यर्थः १ यत्र स्थण्डिलं शुद्धं निर्जीवं अनालोकं २६ १ यो भणति नास्ति धर्मः न च सामायिक नैव च ब्रतानि । स श्रमणसंघबाहाः कर्तव्यः श्रमणसंघेन ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम 5 HMEDicatonitor ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक [१] गाथा ||| च २ यत्र स्वाध्यायभूमिः सुलभा, अस्वाध्यायादिरहिता ३ यत्र भिक्षा च सुलभा ४, त्रयोदशगुणं उत्कृष्ट, ते चामी-'चिक्खिल्ल १ पाण २ थंडिल्ल,३ वसही ४ गोरस ५ जणाउले ६ विजे ७॥ ओसह ८ निचया ९ हिवई. ११०पासंडा ११ भिक्ख १२ सज्झाए १३ ॥१॥ यत्र भूयान् कर्दमो न भवति १ यत्र बहवः संमूछिमाः प्राणिनो न भवन्ति २ यत्र स्थण्डिलं निर्दोष भवति ३ यत्र वसतिः स्त्रीसंसर्गादिरहिता ४ यन्त्र गोरसं प्रचुरं ५ यत्र जनसमवायो महान् भद्रकश्च ६ यत्र वैद्याश्च भद्रका: ७ यत्र औषधानि सुलभानि ८ यन्त्र गृहस्थगृहाः सकुटुम्बा धनधान्यादिपूर्णाश्च ९ यत्र राजा भद्रका १० यत्र ब्राह्मणादिभ्यो मुनीनामपमानं न स्यात् ११ यत्र भिक्षा सुलभा १२ यत्र स्वाध्यायः शुद्ध्यति १३ 'घउग्गुणोववेयं तु, खित्तं होइ जहन्नयं । तेरसगुणमुक्कोसं,18 दुहं मज्झमि मशिमयं ॥ १॥ पूर्वोक्तचतुर्गुणादधिकं पंचादिगुणं त्रयोदशगुणाच न्यूनं द्वादशगुणपर्यन्तं मध्यम क्षेत्रं, एवं च उत्कृष्टे क्षेत्रे तदप्राप्ती मध्यमे तस्यापि अप्राप्ती जघन्ये क्षेत्रे साम्प्रतं च गुर्वादिष्टे क्षेत्रे साधुभिः पर्युषणाकल्पः कर्तव्यः॥ । अयं च दशप्रकारोऽपि कल्पो दोषाभावेऽपि क्रियमाणस्तृतीयौषधवत् हितकारको भवति, तथाहिकेनचिद् भूपतिना स्वपुत्रस्य अनागतचिकित्सार्थं त्रयो वैद्या आकारिताः, तत्र प्रथमो वैद्य आहन मदीयं औषधं रोगसद्भावे रोग हन्ति रोगाभावे च' दोष प्रकटयति, राज्ञोक्तं-मुप्तसपोत्थापनतुल्येन १ चतुर्गुणोपपेतं तु क्षेत्रं भवति जघन्यकं । त्रयोदशगुणमुत्कर्ष द्वयोमध्ये मध्यमकं ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [?] गाथा II-II दीप अनुक्रम [0] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा [-] .......... व्याख्यान [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्ति: : व्या० १ कल्प. सुबो-अनेन औषधेन किं ?, द्वितीयः प्राह-मदीयं औषधं विद्यमानं व्याधिं हन्ति रोगाभावे च न गुणं न दोषं च करोति, राजा प्राह- भस्मनिहृततुल्येन अनेनापि पर्याप्तं तृतीयः प्राह - मदीयं औषधं सद्भावे रोगं हन्ति, तदभावे च शरीरे सौन्दर्यवीर्यतुष्टिपुष्टिं करोति, राज्ञोक्तं इदं औषधं समीचीनं, तद्वदयमपि कल्पो दोषसद्भावे दोषं निराकरोति, दोषाभावे च धर्मं पुष्णाति । ॥ ६ ॥ तदेवं समुपस्थिते पर्युषणापर्वणि मङ्गलनिमित्तं पञ्चभिरेव दिनैः कल्पसूत्रं वाचनीयं, तच्च यथा देवेषु इन्द्रः, तारासु चन्द्रः न्यायप्रवीणेषु रामः सुरूपेषु कामः रूपवतीषु रम्भा वादत्रेषु भम्भा, गजेषु ऐरावणः, साहसिकेषु रावणः, बुद्धिमत्सु अभयः, तीर्थेषु शत्रुञ्जयः गुणेषु विनयः, धानुष्केषु धनञ्जयः। मन्त्रेषु नमस्कारः तरुषु सहकारस्तथा सर्वशास्त्रेषु शिरोमणिभावं विभर्त्ति, यतः - नार्हतः परमो देवो, न मुक्तेः परमं पदम् । न श्रीशत्रुञ्जयात्तीर्थं श्रीकल्पान्न परं श्रुतम् ॥ १ ॥ तथाऽयं कल्पः साक्षात्कल्पद्रुम एव तस्य च अनानुपूर्व्या उक्तत्वात् श्रीवीरचरित्रं बीजं श्रीपार्श्वचरित्रमङ्कुरः, श्रीनेमिचरित्रं स्कन्धः श्रीऋषभचरित्रं शाखासमूहः । स्थविरावली पुष्पाणि सामाचारीज्ञानं सौरभ्यं फलं मोक्षप्रातिः किञ्च - 'वाचनात्साहाय्यदानात्, सर्वाक्षरश्रुतेरपि । विधिनाऽऽराधितः कल्पः, शिवदोऽन्तभवाष्टकम् ॥ १ ॥ एंगग्गचित्ता जिणसासणम्मि, पभावणापूअपरायणा जे । तिसत्तवारं निसृणंति कप्पं, १ एकाप्रचित्ता जिनशासने प्रभावनापूजापरायणा ये । त्रिसप्तवाराः शृण्वन्ति कल्पं भवार्णवं गौतम ! ते तरन्ति ॥ १ ॥ ••• अत्र वृत्तिकार-रचितं कल्पसूत्रस्य माहात्म्यं वर्णयते For File & Fersonal Use O ~30~ तृतीयौषधसमकल्पमहिमा १५ २० ॥६॥ २६ janelbary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक [१] गाथा ||| भवण्णवं गोअम! ते तरन्ति ॥ २॥ एवं च कल्पमहिमानं आकर्ण्य तपःपूजाप्रभावनादिधर्मकार्येषु कष्टधनव्ययसाध्येषु आलस्यं न विधेयं, सकलसामग्रीसहितस्यैव तस्य वाञ्छितफलप्रापकत्वात्, यथा बीजं अपि वृष्टिवायुप्रभृतिसामग्रीसद्भावे एव फलनिष्पत्ती समर्थ नान्यथा.एवं अयं श्रीकल्पोऽपि देवगुरुपूजाप्रभावनासाध|र्मिकभक्तिप्रमुखसामग्रीसद्भावे एव यथोक्तफलहेतुः, अन्यथा-'इकोऽवि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स बद्धमाणस्स। संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥२॥ इति श्रुत्वा किञ्चित्प्रयाससाध्ये कल्पश्रवणेऽपि आलस्यं भवेत् । ___ अथ 'पुरुषविश्वासे वचन विश्वास' इति कल्पसूत्रस्य प्रणेता वक्तव्यः, स च चतुर्दशपूर्वविद्युगप्रधानः श्रीभद्रवाहुखामी दशाश्रुतस्कन्धस्य अष्टमाध्ययनतया प्रत्याख्यानप्रवादाभिधाननवमपूर्वात् उद्धृत्य कल्पसूत्रं रचितवान् , तत्र पूर्वाणि च प्रथमं एकेन हस्तिप्रमाणमषीपुञ्जन लेख्यं १,द्वितीयं द्वाभ्यां तृतीयं चतुर्भिः ४.चतुर्थं अष्टाभिः ८,पञ्चमं षोडशभिः १३ षष्ठं द्वात्रिंशता ३२,सप्तमं चतुःषष्टया ६४.अष्टम अष्टाविंशत्यधिकशतेन १२८,नवर्म षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयन २५६ दशमं द्वादशाधिकैः पञ्चभिः शतैः ५१२. एकादशं चतुर्विशत्यधिकेन सह- स्रण १०२४. द्वादशं अष्टचत्वारिंशदधिकया द्विसहरुया २०४८ त्रयोदशं षण्णवत्यधिकया चतुःसहख्या ४०९६, चतुर्दशं च अष्टसहरूया द्विनवत्युत्तरशताधिकया ८१९२, सर्वाणि पूर्वाणि पोडशभिः सहस्ररुयशीत्यधिकै| त्रिभिः शतेश्च १६३८३ हस्तिप्रमाणमषीपुजैर्लेख्यानि, तस्मान्महापुरुषप्रणीतखेन मान्यो गम्भीरार्थश्च, यत: १ एकोऽपि नमस्कारो जिनववृषभस्य बर्द्धमानस्य । संसारसागरातू तारयति नरं वा नारी वा ॥ १॥ दीप १ अनुक्रम कन्य . स. २ ... कल्पसूत्रस्य कर्तारः नाम्न: एवं उद्धरनास्य वर्णनं क्रियते ~31~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक [१] गाथा II-11 INI'सम्बनेईणं जइ हुन वालुआ सब्वोदहीण जं उदयं । तत्तो अणंतगुणिओ. अत्थो इकस्स मुत्तस्स ॥१॥ न्या०१ मुखे जिह्वासहस्रं स्यादू, हृदये केवलं यदि । तथापि कल्पमाहात्म्य, वक्तुं शक्यं न मानवैः ॥२॥ अधिकारी अथ तस्य श्रीकल्पस्य वाचने श्रवणेच अधिकारिणो मुख्यवृत्त्या साधुसाध्व्यस्तत्रापिकाल तोरात्रौ विहितकाल-IS ॥७॥ कृत्यपंचक ग्रहणादिविधीनांसाधूनांवाचनं श्रवणं च, साध्वीनांच निशीथचूायुक्तविधिना दिवाऽपि श्रवणं, तथा श्रीवीरनिर्वाणादशीत्यधिकनवशत ९८० वर्षातिक्रमे,मतान्तरेण च त्रिनवत्यधिकनवशतवर्षा ९९३ तिक्रमे ध्रुवसेननृपस्य पुत्रमरणार्तस्य समाधिमाधातुमानन्दपुरे सभासमक्षं समहोत्सवं श्रीकल्पसूत्रं वाचयितुमारब्धं, तताप्रभृति चतुर्विघोऽपि सङ्घः श्रवणेऽधिकारी, वाचने तु विहितयोगानुष्ठानः साधुरेव ॥ अथ अस्मिन् वार्षिकपर्वणि कल्पश्रवणवत् इमान्यपि पञ्च कार्याणि अवश्यं कार्याणि, तद्यथा-चैत्यपरिपाटी| १.समस्तसाधुवन्दनं २.सांवत्सरिकपतिक्रमणं ३,मिथ: साधर्मिकक्षामणं ४,अष्टमं तपश्च ५, एषां अपि कल्पश्रवरणवद् वाञ्छितदायकत्वं अवश्यकर्तव्यत्वं जिनानुज्ञातत्वं च ज्ञेयं, तत्र अष्टमं तप उपवासत्रयात्मकं महाफलका रणं रत्नत्रयवदान्यं शल्यत्रयोन्मूलनं जन्मन्त्रयपावनं कायवाङ्मानसदोषशोषकं विश्वत्रयाश्यपदप्रापकं निःश्रे-IST यसपदाभिलाषुकैरंवश्यं कर्तव्यं नागकेतुवत्, तथाहि-चन्द्रकान्ता नगरी, तत्र विजयसेनो नाम राजा, श्रीका १ सर्वनदीनां यावत्यो भवेयुर्वालुकाः सर्वोदधीनां यदू उदकं । ततोऽनंतगुणितोऽर्थ एकस्य सूत्रस्य ॥१॥२ आधुनिकसंघश्रावणापेक्षया ३ नेदं कचित् ४ काले विणए बहुमाणे उबहाणे इत्युक्तः दीप अनुक्रम 5 JABEnicatonirnal ... पर्युषण-पर्व-निमित्त अवश्य-कर्तव्याणि पंच-कार्याणि निर्दिश्यते ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक [१] गाथा ||| easasara9e2009a90saeaerasa तारुयश्च व्यवहारी, तस्य श्रीसखी भार्या, तया च बहुप्रार्थित एका सुतः प्रसूता, स च बालक आसन्ने पर्युषणापर्व|णि कुटुम्बकृतां अष्टमवार्ता आकर्य जातजातिस्मृतिः स्तन्यपोऽपि अष्टमं कृतवान् , ततस्तं स्तन्यपानर्मकुर्वाणं पर्युषितमालतीकुसुममिव म्लानं आलोक्य मातापितरौ अनेकान् उपायांचातुः, क्रमाच मूच्छा प्राप्तं तं बाल मृतं ज्ञात्वा खजना भूमौ निक्षिपन्ति स्म, ततश्च विजयसेनो राजा तं पुत्रं तदुःखेन तल्पितरं च मृतं विज्ञाय तद्धनग्रहणाय सुभटान् प्रेषयामास, इतश्च-अष्टमप्रभावात् प्रकम्पितासनो धरणेन्द्र: सकलं तत्स्वरूपं विज्ञाय भूमिस्थं तं बालकं अमृतच्छटया आश्वास्प विप्ररूपं कृत्वा धनं गृहतस्तान निवारयामास, तत् श्रुत्वा राजाऽपि त्वरितं तत्रागत्योवाच-भो भूदेव! परम्परागतं इदं अस्माकं अपुत्रधनग्रहणं कथं निवारयसि ?, धरणोऽवादीराजन् ! जीवत्यैस्य पुत्रा, कथं कुत्रास्तीति राजादिभिरुक्ते भूमेस्तं जीवन्तं चालकं साक्षात्कृत्य निधानमिव दर्शयामास, ततः सर्वैरपि सविस्मयैः स्वामिन् ! कस्त्वं कोऽयमिति पृष्टे सोऽवदत्-अहं धरणेन्द्रो नागराजः कृताष्टमतपसोऽस्य महात्मनः साहाय्यार्थ आगतोऽस्मि, राजादिभिरुक्तं-खामिन् ! जातमात्रेण अनेन अष्टमतपः कथं कृतं?, धरणेन्द्र उवाच-राजन् ! अयं हि पूर्वभवे कश्चिदणिकपुत्रो पाल्येऽपि मृतमातृक आसीत्, सच अपरमात्राऽत्यन्तं पीयमानो मित्राय खदुःखं कथयामास, सोऽपि त्वया पूर्वजन्मनि तपान कृतं तेनैवं पराभवं लभसे इत्युपदिष्टवान् , ततोऽसौ यथाशक्ति तपोनिरतः आगामिन्यां पर्युषणायां अवश्यं अष्टमं करिष्या-1 मीति मनसि निश्चित्य तृणकुटीरे सुष्याप, तदा च लब्धावसरया विमात्रा आसन्नपदीपनकादेमिकणस्तत्र अनुक्रम RECOIN tandjanutbraryana ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: पत सत्राक [१] गाथा II-11 कल्पासबो-निक्षिप्तः तेन च कुटीरके ज्वलिते सोऽपि मृतः अष्टमध्यानाच अयं श्रीकान्तमहेभ्यनन्दनो जाताअष्टमतपसि व्या०१ततोऽनेन पूर्वभवचिन्तितं अष्टमतपः साम्प्रतं कृतं, तदसौ महापुरुषो लघुकर्माऽस्मिन् भवे मुक्तिगामी नागकेत Iयत्नात् पालनीयो, भवतां अपि महते उपकाराय भविष्यतीति उक्त्वा नागराजः खहारं तत्कण्ठे निक्षिप्प कथा ॥८॥ स्वस्थानं जगाम, ततः खजनैः श्रीकान्तस्य मृतकार्य विधाय तस्य नागकेतुरिति नाम कृतं, क्रमाच स पाल्या-12 दपि जितेन्द्रियः परमश्रावको बभूव, एकदा च विजयसेनराजेन कश्चिद् अचीरोऽपि चौरकलङ्केन हतो ग्यन्तरो जातः समग्रनगरविघाताय शिला रचितवान्, राजानं च पादप्रहारेण रुधिरं वमन्तं सिंहासनाद् भूमी पा-II तयामास, तदा स नागकेतुः कथं इमं सहप्रासादविध्वंसं जीवन् पश्यामीतिबुद्ध्या प्रासादशिखरमारुध शिलांना पाणिना दः, ततः स ब्यन्तरोऽपि तत्तपःशक्तिं असहमान: शिलां संहृत्य नागकेतुं नतवान्, तद्वचनेन | भूपालं अपि निरुपद्रवं कृतवान् । अन्यदा च स नागकेतुर्जिनेन्द्रपूजां कुर्वन् पुष्पमध्यस्थितसर्पण दष्टोऽपि तथैवांव्यग्रो भावनारूढः केवलज्ञानं आसादितवान् , ततः शासनदेवताऽर्पितमुनिवेषंश्चिरं विहरति स्म, एवं| नागकेतुकयां श्रुत्वा अन्यैरपि अष्टमतपसि यतनीयं । इति नागकेतुकथा॥ | अथात्र श्रीकल्पसूत्रे त्रीणि वाच्यानि यथा-'पुरिमचरिमाण कप्पो.मंगलं बद्धमाणतित्थम्मि । इह परि|कहिया जिणगणहराइरावली चरितं ॥१॥' व्याख्या-'पुरिमचरिमाण'त्ति ऋषभवीरजिनयोः 'कप्पत्ति अयं कल्प:-आचारः यत् वृष्टिर्भवतु मा वा परं अवश्यं पर्युषणा कर्तव्या, उपलक्षणत्वात् कल्पसूत्रं वाचनीयं दीप अनुक्रम 5 ... कल्पसूत्रे त्रीणि वाच्यानि कथनं ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक [१] गाथा ||| च, मङ्गलमिति एक अयं आचारः अपरं च मङ्गलं-मङ्गलकारणं भवति वर्धमानतीर्थे, कस्मादेवं इत्याह-यमादिह परिकथितानि 'जिण'सि-जिनानां चरितानि १'गणहराइथेरावली ति गणधरादिस्थविरावली २'चरित्त'|न्ति-सामाचारी ३ । तत्र प्रथमाधिकारे जिनचरितेषु आसन्नोपकारितया प्रथम श्रीवीरचरित्रं वर्णयन्तः श्रीभद्रबाहुखामिनो जघन्यमध्यमवाचनात्मकं प्रथम सत्रं रचयन्ति| (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले, अवसर्पिणीचतुर्थारकपर्यन्तलक्षणे, णकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारार्थः (तेणं समएणं) निर्विभाज्य: कालविभागः समयस्तस्मिन् समये (समणे भगवं महाबीरेत्ति) श्रमण:-तपोनिरतः 'भगवंति-भगवान् अर्कयोनिवर्जितद्वादशभगशब्दार्थवान्, यदाहः-भगोऽर्क १ज्ञान २ माहात्म्य,३ यशो४ वैराग्य ५ मुक्तिषु ६। रूप ७ वीर्य ८ प्रयत्ने ९च्छा ,१० श्री ११ धमै १२ श्वर्य १३ योनिषु १४ ॥१॥' अत्र आयन्त्यिौ अथौँ वर्जनीयौ, ननु अन्त्योऽर्थस्तु वयं एव, परं अर्कः कथंः वज्ये?, सत्यं, उपमानतया अर्को भवति परं वत्प्रत्ययान्तत्वेन अर्कवान् इत्यों न लगतीति वर्जितः, 'महावीरे'त्ति कर्मवैरिपराभवसमर्थः श्रीवर्धमानस्वामीत्यर्थः (पश्चहत्युत्तरे होत्थत्ति) हस्तोत्तरा-उत्तराफाल्गुन्यः, गणनया ताभ्यो हस्तस्य उत्तर-18 त्वात् , ताः पञ्चसु स्थानेषु यस्य स पञ्चहस्तोत्तरो भगवान् होत्य'त्ति अभवत् ॥ अथ षटकल्याणकवादी आहननु 'पञ्चहत्युत्तरे साइणा परिनिव्वुडे' इति वचनेन महावीरस्य पट्कल्याणकत्वं संपन्नमेष, मैवं, एवं उच्यमाने 'पञ्चउत्तरासावे.अभीइछठे होस्थ' त्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञसिवचनात् श्रीऋषभस्यापि षट् कल्याणकानि वक्तव्यानि दीप अनुक्रम Eco A wdianelbanaras ... अत्र प्रथम सूत्र एव वर्तते किंतु बारसासूत्रस्य संपादने अस्य सूत्रस्य क्रमांकन '२' इति लिखितं ~35~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: पत सत्राक [१] गाथा II-II कल्प-सुबो 18 स्युः, न च तानि त्वयाऽपि तथोच्यन्ते, तस्माद्यथा पश्चउत्तरासाढे इत्यत्र नक्षत्रसाम्यात् राज्याभिषेको मध्ये षटकल्या. व्या०१ 18|गणितः परं कल्याणकानि तु 'अभीइण्डे' इत्यनेन सह पश्चैव तथाऽत्रापि 'पश्चहत्थुत्तरे' इस्य॑त्र नक्षत्रसा- कनिरासः म्यात् गर्भापहारोमध्ये गणितः, परं कल्याणकानि तु 'साइणा परिनिम्बुडे' इत्यनेन सह पश्चैव, तथा श्रीआचा-18 ॥९॥ राङ्गटीकाप्रभृतिषु 'पञ्चहत्थुत्तरे' इत्यंत्र पञ्च वस्तून्येव व्याख्यातानि, न तु कल्याणकानि। किञ्च-श्रीहरिभद्रसूरिक-18 तयात्रापञ्चाशकस्य अभयदेवसूरिकृतायां टीकायां अपि-आषाढ शुद्धषष्ठयां गर्भसंक्रमः १ चैत्रशुद्धत्रयोदश्यां | जन्म २ मार्गासितदशम्यां दीक्षा ३ वैशाखशुद्धदशम्यां केवलं ४ कार्तिकामावास्यायां मोक्षः ५ एवं श्रीवीरस्य पत्र कल्याणकानि उक्तानि, अथ यदि षष्ठं स्यात्सदा तस्यापि दिनं उक्तं स्यात् । अन्यच नीनोंचविगाकरूपस्य अतिनिन्धस्य आश्चर्यरूपस्य गोपहारस्यापि कल्याणकत्वकथनं अनुचितं ॥ अथ 'पश्चहत्थुत्तरे' इत्यत्र गभों ताच पचासु स्थानेषु गर्भाधानसंहरणजन्मदीक्षाज्ञानोत्पत्तिरूपेषु संवृत्ता इवि प्रथमाङ्गे 'चवणाईणं छण्ई वस्थूण'ति कल्पचूणौं । मोच. नार्थत्वाभावादपहारस्थानेन संक्रमानर्थान्तरसामुक्त्वाऽप्यपहारस्य कल्याणकतया प्रथनं बकुः पृथुस्थूलबुद्धेरनुमापक। कल्याणकानि वस्तुस्थानरूपाणि न तु वस्तुस्थानानि कल्याणकानीति तु सुबोधमेव २ महोत्सबार्थ वीरकल्याणकभणनप्रसंगे एतदुक्तः, षष्ठकल्याणकवर्णनमाकाशकुसुमकल्पं, जिनवल्लभात् प्राक् न केनापि च लेशतोऽपि तदुक्तं, जिनवल्लभश्च सूत्रोत्तीर्णवादीति जीवाभिगमप्रज्ञापनादौ मलयगिरयः, परेषामनु- ॥९॥ गतिरनाभोगिकी ३ गर्भापहारोऽशुभः गर्भसंक्रमस्तूतमकुले उत्तमः, विचार्यों भेदोऽनयों वदूका, अपहारे हि आजन्ने वक्षो देवानन्दया, उत्तमकुळादुत्तमकुले संक्रमेऽपि पितृदयादिना स्पष्टवांशुभता, र दीप अनुक्रम JABEnicatonindia ... भगवन्त महावीरस्य पंच-कल्याणकानां निर्देश: ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सत्राक [१] गाथा ||| |पहरणं कथं उक्तं इति चेत् सत्यं, अन हि भगवान् देवानन्दाकुक्षौ अवतीर्णः, प्रसूतवती च त्रिशलेति असं-181 गतिः स्यात् तन्निवारणाय 'पश्चहत्थुत्तरे'त्ति वचनं, इत्यलं प्रसङ्गेन, कल्याणकानि पञ्चैव (१)(तंजहत्ति) तद्यथा-191 पञ्चहस्तोत्तरत्वं भगवतो मध्यमवाचनया दर्शयति-(हत्युत्तराहिं चुएत्ति) उत्तराफल्गुनीषु च्युतो देवलोकात् (चइता गम्भं वक्रतेत्ति) च्युत्या गर्भ उत्पन्न: (हत्युत्तराहिं गब्भाउ गब्भं साहरिएत्ति) उत्तराफाल्गुनीषु गर्भात्, गर्भ संहता, देवानन्दाग त्रिशलागौं मुक्त इत्यर्थः, (हत्थुत्तराहि जाएत्ति) उत्तरफाल्गुनीपु जात:(हत्थुत्तराहिं | मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअं पव्वइएत्ति) उत्तराफाल्गुनीषु मुण्डोभूत्वा,तत्र द्रव्यतोमुण्डाकेशलुश्चनेन, भावतो मुण्डा रागद्वेपाभावेन,अगारात्-गृहात् निष्क्रम्येति शेषः अनगारिता-साधुतां पब्वइए'त्ति-प्रतिपन्नः, तथा (हत्थुत्तराहिति) उत्तराफाल्गुनीपु (अणन्तेति) अनन्तं-अनन्तवस्तुविषय (अणुत्तरेसि) अनुपम (निषाघाएत्ति) निर्व्याघातं-भित्तिकटादिभिरस्खलितं (निरावरणेति) समस्तावरणरहितं (कसिणेत्ति) कृत्सं-सर्वपर्यायोपेतवस्तुज्ञापकं (पडिपुण्णेत्ति ) परिपूर्ण-सर्वावयवसंपन्नं, एवंविधं यत् (केवलवरनाणदसणे समुप्पन्नेतिर वरं-प्रधानं केवलज्ञानं केवलदर्शनं च तत् उत्तराफाल्गुनीषु प्राप्तः, (साइणा परिनियुए भयवन्ति ) स्वाति-18 नक्षत्रे मोक्षं गतो भगवान (२)॥ अथ विस्तरवाचनया श्रीवीरचरित्रम् -(तेणं कालेणंति) तस्मिन् काले बहुकल्याणकार्थं बहुवचन मिति प्रणेतारो बालिशा एव,यतः फाल्गुन्योविचनान्तता स्वतः कोशादिसंगता,द्वित्वे च प्राकृते बहुत्वं स्वभावादेव, किंच 'फल्गुनीप्रोष्ठपदस्य भे' (२-२-१२३) इत्यपि नेक्षितं तैरमहाकुलैः बहुकल्याणेत्यायुपशायमानः, कथमैन्यथा बहुत्र वाक्येषु बहुवचनं । दीप अनुक्रम MEnication ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२] कल्प. सुबो व्या० १ ॥ १० ॥ ( तेणं समएणंति ) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरेति ) श्रमणो भगवान् महावीरः (जे से गिम्हाणंति) योऽसौ ग्रीष्मकालस्य (चउस्थे मासेत्ति) चतुर्थी मासः (अट्टमे पक्खेत्ति ) अष्टमः पक्षः, कोऽर्थः १- (आसाटसुद्धेप्ति) आषाढशुक्लपक्षः (तस्स णं आसाढसुद्धस्सत्ति) तस्य आषाढशुक्लपक्षस्य (छट्ठीपक्खेणंति) षष्ठीरात्री ( महाविजयपुप्फुत्तरपवरपुंडरीआओ महाविमाणाओति ) महान् विजयो यत्र तन्महाविजयं 'पुप्फुसर'त्ति २४ पुष्पोत्तरनामकं 'पवरपुंडरीआओ ति प्रवरेषु - अन्य श्रेष्ठविमानेषु पुण्डरीकमिव- श्वेतकमलमिव अतिश्रेष्ठं इत्यर्थः तस्मात् 'महाविमाणाओ ति महाविमानात्, किंविशिष्टात् ? -(वीसंसागरोवमठिह आओत्ति) विंशतिसागरोपमस्थितिकात्, तत्र हि देवानां विंशतिः सागराणि उत्कृष्टा स्थितिर्भवति भगवतोऽपि एतावत्येव स्थितिरासीत्, अथ तस्माद्विमानात् ( आउखएणंति) देवायुःक्षयेण ( भवखएणंति ) देवगतिनामकर्मक्षयेण ( ठिइखएणंति ) स्थिति:- वैक्रियशरीरेऽवस्थानं तस्याः क्षयेण पूर्ण करणेन ( अणन्तरंति) अन्तररहितं ( चयं इतत्ति ) च्यवं - च्यवनं कृत्वा ( इहेव जम्बुद्दीवे दीवेत्ति ) अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपनान्नि द्वीपे ( भारहे वासेत्ति ) भरतक्षेत्रे (दाहिणभर हेत्ति) दक्षिणार्ध भरते (इमी से ओसप्पिणीएत्ति) यत्र समये समये रूपरसादीनां हानिः स्यात् साऽवसर्पिणी, ततोऽस्यां अवसर्पिण्यां (सुसम सुसमाए समाए विज्ञताएत्ति) सुषमसुषमानानि चतुष्को| टाकोटिसागरप्रमाणे प्रथमारके अतिक्रान्ते (सुसमाए समाएत्ति) सुषमानान्नि त्रिकोटाकोटिसागरप्रमाणे द्वितीयारके ( विताए ) अतिक्रांते (सुसमद्समाए समापत्ति) सुषमदुष्वमानानि द्विकोटाको दिसागरप्रमाणे Educatoo दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] मूलं [२] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: resenese ~38~ कल्याणकपंचकं सु. २ कुक्षावचतारः सू. ३ १५ २० ॥ १० ॥ २६ janbary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] मूलं [२] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: तृतीयारके ( बिताए ) व्यतिक्रान्ते अतीते ( दूसमसुसमाए समापत्ति) दुष्षम सुषमानानि चतुर्थारके ( बहुविकताएत्ति) बहुव्यतिक्रान्ते किञ्चिदूने, तदेवाह -- ( सागरोत्रमकोडाकोडीए बायालीसाए बाससहस्सेहिं ऊणियाएत्ति) द्विचत्वारिंशद्वर्षसहरुमा ४२००० ऊना एका सागर कोटा कोटिचतुर्थारकप्रमाणं तत्रापि चतुर्था रकस्य (पञ्चहत्तरीए वासेहिं अद्धनवमेहि अ मासेहिं सेसेर्हिति ) पञ्चसप्तति ७५ वर्षेषु सार्द्धाष्टमा साधिकेषु शेषेषु श्रीवीरावतारः, द्वासप्ततिर्वर्षाणि च श्रीवीरस्यायुः, श्रीवीरनिर्वाणान त्रिभिर्वर्षैः सार्द्धाष्टमासैश्वतुर्धारकसमाप्तिः ततः, पूर्वोक्ता या द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्री सा एकविंशत्येकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणयोः पञ्चमारकषष्ठारकयोः सम्बन्धिनी ज्ञेया, (इक्कवीसाए तित्थयरेहिंति) एकविंशती तीर्थंकरेषु (इक्खागकुलसमुप्पन्नेहिंति ) ईक्ष्वाकुकुलसमुत्पन्नेषु ( कासवगुतेर्हिति ) काश्यपगोत्रेषु (दोहि अत्ति ) द्वयोः मुनिसुव्रतनेम्योः (हरिवंस कुलसमुप्पन्नहिंति) हरिवंश कुलसमुत्पन्नयोः (गोयमसगुत्तेहिंति) गौतमगोत्रयोः, एवं च (तेवीसाए तित्थयरेहिं बिकतेहिंति ) त्रयोविंशती तीर्थंकरेषु अतीतेषु ( समणे भगवं महावीरेत्ति ) श्रमणो भगवान् महावीरः, किंविशिष्टः ? - ( चरमतित्थयरेत्ति ) चरमतीर्थङ्करः पुनः किंविशिष्टः ? - ( पुवतित्थयरनिद्दिट्ठेत्ति ) पूर्वतीर्थङ्करनिर्दिष्टः- श्रीवीरो भविष्यतीत्येवं पूर्वजिनैः कथितः ( माहणकुंङग्गामे नयरेत्ति ) ब्राह्मणकुण्डग्राम१ पूर्व तीर्थ करे त्यस्वादिजिनेनेत्यर्थं कथयित्वा भववर्णनं कृतं केनचित् सचिन्त्यं सर्वजिनैश्चतुः वैशतिस्तवोदितेः, निर्गमसंबन्धेनावश्यक दौ भवक्रमसंबन्धेन च वीरचरित्रादी पूर्व भववर्णनं दृष्ट्वाऽत्राप्यत्रैव भववर्णनं युक्तमित्याख्यानं अनाभोगमूलं Jan Education Inma For File & Fersonal Use Only ~ 39~ १० १२ janetbalyag Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२,३] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: पत सत्राक [३] ॥११॥ गाथा II-II कल्प.सुबो-नामके नगरे (उसमदत्तस्स माहणस्सत्ति) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य, किंविशिष्टस्य ? (कोडालसगुत्तस्सत्ति) १४खप्नदव्या०१ कोडालैः समानं गोत्रं यस्य स तथा तस्य, कोडालगोत्रस्येत्यर्थः (भारिआए देवाणंदाए माहणीएत्ति) तस्यर्शन मू. ४ भार्याया देवानन्दाया ब्राह्मण्याः (जालन्धरसगुत्ताएत्ति) जालन्धरसगोत्रायाः (पुब्बरत्तावरत्तकालसमयंसि) १५ पूर्वरात्रापररात्रकालसमये मध्यरात्रे इत्यर्थः (हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं) उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे (जोगमुवागएणंति) चन्द्रयोगं प्राप्ते सति, कया?-(आहारवऋतिएत्ति) आहागपक्रान्त्या-दिव्याहारत्यागेन (भववकंतिएत्ति) दिव्यभवत्यागेन (सरीरवकंतिएत्ति) दिव्यशरीरत्यागेन (कुच्छिसि गम्भत्ताए वकते) कुक्षौगर्भतया व्युक्रान्तः, अथ (समणे भगवं महावीरे) यदा श्रमणो भगवान महावीरः गर्भ उत्पन्नस्तदा (तिनाणोधगए आवि ? होत्थत्ति) ज्ञानत्रयोपगत आसीत् ( चइस्सामित्ति जाणइ) ततः च्योष्ये इति जानाति, च्यवनभविष्यत्कालं | जानातीत्यर्थः, (चयमाणे न याणइ ) च्यवमानो नो जानाति, एकसामयिकत्वात् (युएमित्ति जाणइ)। च्युतोऽस्मीति च जानाति (३)। तथा (जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरेत्ति) यस्यां रजन्यां श्रमणो भगवान् | महावीरः ( देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दाया ब्राह्मण्याः(जालंधरसगुत्ताए)जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिसि गन्मत्ताए वकंते) कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः (तं रयणि च णं सा देवाणंदा माहणीति) तस्यां रजन्यां सा ॥ ११ ॥ कादेवानन्दा ब्राह्मणी (सयणिज्जसि)शयनीये-पल्यके (सुत्तजागरसि)नाति निद्रायन्ती नातिजाग्रती, अत एव १ दशमदेवलोकाइक्षिणार्धभरतागती वफगतिमत्त्वेनानेकसमयतायामपि देवलोकवियोगरूपं च्यवनमेकसामयिकमेव दीप अनुक्रम janutbayog ... देवानन्दाया: कुक्षौ भगवन्त महावीरस्य उत्पत्ति: ~ 40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||||| दीप अनुक्रम [५] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [ १ ] ............ मूलं [ ३,४] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्ति: : TAL सुत्तजागरा ओहिमाणि २ त्ति ) अल्पां निद्रां कुर्वती (इमेति ) इमान् (एयारूवेत्ति ) एतद्रूपान् वक्ष्यमाणखरूपान उरालेति) उदारान् प्रशस्तान् (कल्लाणेत्ति ) कल्याणहेतून (सिवेत्ति ) शिवान् उपद्रवहरान् ( धन्नेति धन्यान्- धन हेतून (मंगलेत्ति ) मङ्गलकारकान् ( सस्सिरीएत्ति ) सश्रीकान् ( चउद्दस महासुमिणे ) ईदृशान चतुर्दश महास्वनान् (पासित्ता णं पडिबुद्धत्ति ) दृष्ट्वा जागरिता, (तंजहत्ति ) तद्यथा - (गय १ वसह २ सीह३ अभिसे ४ दाम ५ ससि ६ दिणयरं ७ झयं ८ कुंभं ९ । पउमसर १० सागर ११ विमाणभवण १२ रयणुचय १३ सिहिं च १४ ॥ १ ॥ ) हस्ती १ वृषभः २ सिंहः ३ अभिषेकः श्रियाः सम्बन्धी ४ पुष्पमाला ५ चन्द्रः ६ सूर्यः ७ ध्वजः ८ पूर्णकुम्भः ९ पद्मोपलक्षितं सरः १० समुद्रः ११ विमानं देवसम्बन्धि भवनं गृहं तत्र यः खर्गादवतरति तन्माता विमानं पश्यति यस्तु नरकादायाति तन्माता भवनमिति द्वयोरेकतरदर्शनाच्चतुर्दशैव स्वप्नाः १२ रत्नानां उच्चयो - राशिः १३ शिखी - निर्धूमोऽग्निः १४ (४) । (तएणं सा देवानंदा माहणी) ततः सा देवानन्दा ब्राह्मणी (इमेति ) इमान् (एयारूवेत्ति ) एतद्रूपान् ( उरालेति ) उदारान् प्रशस्तान ( जावत्ति ) यावत्शब्देन पूर्वपाठोऽनुसरणीय:, (चउद्दस महासुमिणेत्ति) यथोक्तान् चतुर्दश महाखमान् (पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणीति) दृष्ट्वा जागरिता सती (हट्ठत्ति ) हृष्टा विस्मयं प्राप्ता (तुहृत्ति) संतोषं प्राप्ता (चित्तमाणंदिअत्ति ) चित्तेन आनन्दिता (पीइमणत्ति) प्रीतिर्मनसि यस्याः सा तथा प्रीतियुक्तचित्ता ( परमसोमणस्सिआ ) परमं सौमनस्यं सन्तुष्टचित्तत्वं जातं यस्याः सा तथा (हरिसबसत्ति ) हर्षवशेन ( विसप्पमाणत्ति ) विस्तारवत् Jan Education ~41~ 1 ५ १० १-४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: ||१२|| गाथा कल्प M सुबो (हिअयात) हृदयं यस्याः सा तथा, पुनः किं भूता! (धाराहयकयंचपुष्फगंपिवत्ति) धारया मेघजलधारया सिक्तं एवंविधं यत्कदम्बतरकुसुमं तहि मेघधारया फुल्लति ततस्तहत् (समुस्ससिअरोमकूवा) समुसितानि रोमाणि कूपेषु यस्याः सा तथा एवंविधा सती (सुमिणुग्गहं करेइ २ चा) खप्नानां अवग्रहं स्मरणं करोति, तत्कृत्वा च (सयणिज्जाओ अब्भुटेइ) शय्याया अभ्युत्तिष्ठति, (अब्भुटुित्ता) अभ्युत्थाय (अतुरिआत्ति) अत्वरितया मानसौत्सुक्यरहितया (अचवलत्ति) अचपलया कायचापल्यवर्जितया, (असंभन्ताएति) असम्भ्रान्तया अस्खलन्त्या (अविलंबिआएत्ति) विलम्बरहितया (रायहंससरिसीए गइए) राजहंससदृशया गत्या (जेणेव उसभदत्ते) माहणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उसभदत्तं माहगं जपणं विजएणं बद्धावेइ, वद्धावित्ता भदासणवरगया आसस्था वीसस्था सुहासणवरगया करयलपरिग्गाहयं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कह एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिआ, अज सयणिज्जंसिमाहणे) यत्रैव रुषभदत्तो प्राह्मणः (तेणेव उवागच्छइ) तत्रैवोपागच्छति (उवागच्छिता) उपागत्य (उसमदत्त माहर्ण) रुषभदत्तं ब्राह्मणं (जएणं विजएणं वडावेइ) जयेन विजयेन वर्धापयति आशिर्ष ददाति, तत्र जयःस्वदेशे विजयः परदेशे (वहावित्ता) वर्धापयित्वा च (भदासणवरगया) भद्रासनवरगता ततश (आसत्थात्ति) आश्वस्ता श्रमापनयनेन (बीसत्थात्ति) विश्वस्ता क्षोभाऽभावेन, अत एव (सुहासणवरगयाति) सुखेन आसनवरं प्राप्ता, (करयलपरिग्गहिअं दसनह) करतलाभ्यां परिगृहीतं कृतं दश नखाः समुदिता यत्र तम् (सिरसावत्रान्ति) शिरसि आवर्तः प्रदक्षिणभ्रमणं यस्य तं एवंविधं (मत्यए अंजलिं कटु) अञ्जलिं मस्तके कृत्वा देवानन्दा (एवं बयासीति) एवं अवादीत् , किं तदित्याह-॥ ५ ॥ (एवं खलु अहं देवाणुपिअ) एवं निश्चयेन अहं हे देवानुप्रिय हे स्वामिन (अज सयणिज्जंसि) अद्य दीप अनुक्रम ||१२|| ~42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ “कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राका गाथा ॥१..|| सुत्तजागरा ओहीरमाणीति) सुप्तजागरा-अल्पनिद्रां कुर्वती(इमेत्ति) इमान् (एयारूवेत्ति). एतद्रूपान उरालत्ति) उदारान् (जाव सस्सिरीएत्ति) यावत् सश्रीकान् (चउस महासुमिणेत्ति) चतुर्दश महा खमान (पासित्ता णं पडिवुद्धत्ति) दृष्ट्वा जागरिता (तंजहा ) तद्यथा (गय जाव सिहि चत्ति) गय इत्याMIदितः सिहिं चेति यावत् पूर्वोक्ताः खमा ज्ञेयाः (६)॥ (एएसि णं देवाणुप्पिअसि) एतेषां देवानुप्रिय ! (उरालाणंति) प्रशस्तानां (जाव चउदसण्हं महासुमिणाणंति) यावत् चतुर्दशानां महाखमानां (के मण्णे | कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइत्ति) मन्ये-विचारयामि कः कल्याणकारी फलवृत्तिविशेषो भविष्यति ?, तत्र फल-पुत्रादि वृत्तिः-जीवनोपायादिः, (तए णं से उसभदत्ते माहणे ) ततः स ऋषभदत्तो ब्राह्मणः (देवाणंदाए माहणीएत्ति) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (अंतिएत्ति) अन्तिके-पाई (एअम8 सुचा) एतंह अर्थ श्रुत्वा कर्णाभ्यां (निसम्मत्ति) निशम्य-चेतसा अवधार्य (हहतुट्ठजावाहियएत्ति) हृष्टः तुष्टः यावत् || हर्षवशेन विसर्पद्धृदयः (धाराहयकर्यवपुष्पगंपिय समुस्ससिअरोमकूवेत्ति) मेघधारया सिक्तकदम्बवृक्षपुष्पवत् समुच्छसितानि रोमाणि कूपेषु यस्य सः, एवंविधः सन् (सुमिणुग्गहं करेहति) स्वमधारणं करोति (करि-1 त्तत्ति) कृत्वा च (ईहं अणुपविसइ) ईहां-अर्थविचारणां प्रविशति (ईहं अणुपविसित्ता) तां कृत्वा च । (अप्पणो साहाविएणं मइपुत्वएणं बुद्धिविन्नाणणंति) आत्मन:-खात्मनः खाभाविकेन मतिपूर्वकेण बुद्धिविज्ञानेन, तत्र अनागतकालविषया मतिः, वर्तमानकालविषया बुद्धि, विज्ञानं चातीतानागतवस्तुविषयं, १४ दीप अनुक्रम ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: [७] ॥१३॥ गाथा ॥१..|| श(तेसिं सुमिणाणं अस्थुग्गहं करेइत्ति) तेषां स्वमानां अर्थनिश्चयं करोति (अत्युग्गहं करिता)तं कृत्वा खनफले (देवाणंदं माहणिं) देवानन्दा ब्राह्मणी (एवं वयासीत्ति) एवं अवादीत् (७)। किं तदिल्याह-(उराला णं तुमे प्रश्नोत्तरी देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा) उदारास्त्वया देवानुप्रिये ! खमा दृष्टाः ( कल्लाणा णं जाच सस्सिरीपति पुत्रस्वरूपं कल्याणकारकाः यावत् सश्रीकाः (आरोग्गत्ति) आरोग्य-नीरोगत्वं (तुहित्ति) तुष्टि:-संतोषः (दीहा-स.७-८ उत्ति) दीर्घायु:-चिरजीवित्वं (कल्लाणत्ति) कल्याणं-उपद्रवाभावः ( मङ्गलकारगाणं तुमे देषाणुप्पिए । सुमिणा दिहा) मङ्गलं-वाञ्छितावाप्तिः, एतेषां वस्तूनां कारकास्त्वया हे देवानुप्रिये ! खमा दृष्टाः (संजहत्ति) तद्यथा (अस्थलाभो देवाणुप्पिएत्ति) अर्थलाभो भविष्यति हे देवानुप्रिये! (भोगलाभो देवाणुप्पिएत्ति) भोगाना लाभः हे देवानुप्रिये ! (पुत्तलामो देवाणुप्पिएत्ति) पुत्रस्य लाभ: हे देवानुप्रिये! ( सुक्खलाभो । देवाणुप्पिएत्ति) सौख्यलाभो हे देवानुप्रिये ! भविष्यतीति सर्वत्र योज्यं, (एवं खलु तुमं देवाणुप्पिएत्ति) एवं खलु त्वं देवानुप्रिये !(नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणंति ) नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु ( अट्ठमाण राईदिआणं विकताणं) सार्द्धसप्ताहोरात्राधिकेषु अतीतेषु, एतादृशं दारक-पुत्रं (पयाहिसित्ति) प्रजनिष्यसीति सम्बन्धः, किंविशिष्टं दारकं ? (सुकुमालपाणिपायंति ) सुकुमालं पाणिपादं यस्यैवंविधं, किंचि० ॥१३॥ (अहीणत्ति) अहीनानि-लक्षणोपेतानि ( पडिपुन्नपश्चिन्दिअसरीरत्ति ) स्वरूपेण प्रतिपूर्णानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तादृशं शरीरं यस्य स तथा तं, तथा (लकखणवंजणगुणोववेअंति) लक्षणानि व्यञ्जनानि च लक्षणव्य दीप अनुक्रम Daese JABEducational ~44~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: ८) गाथा ॥१..|| अनानि तेषां गुणास्तैरुपपेतं, तत्र लक्षणानि छत्रचामरादीनि चक्रितीर्थकृतां अष्टोत्तरसहस्रं बलदेववासुदेवानां | अष्टोत्तरशतं अन्येषां तु भाग्यवता द्वात्रिंशत्, तानि चेमानि-छन १ तामरसं २ धनू ३ रथवरो ४ दम्भोलि ५-६ कर्मा इन्कुशा ७, वापी ८ स्वस्तिक९ तोरणानि १० च सरः,११ पञ्चाननः१२ पादपः १३१चक्रं १४ शक १५-18 गजी १६ समुद्र १७ कलशौ,१८ प्रासाद १९ मत्स्या २० यवा २१, यूप २२ स्तूप २२ कमण्डलू २४ न्यवनिभृत् २५ सच्चामरो २६ दर्पणः २७ ॥१॥ उक्षा २८ पताका २९ कमलाभिषेकः ३०, सुदाम ३१ केकी ३२ धनपुण्यभाजाम् ॥ तथा 'इह भवति सप्तरक्तः,षडन्नतः पञ्चसूक्ष्मदीर्घश्च । त्रिविपुललघुगम्भीरोद्वात्रिंशल्लक्षणास पुमान् ॥१॥ तत्र सप्त रक्तानि-नख १चरण रहस्त ३ जिह्वा ४ ओष्ठ ५ तालु ६ नेत्रान्ताः ७, षडन्नतानि-कक्षा १हृदयं २ ग्रीवा ३ नासा ४ नखा ५ मुखं च ६, पश्च सूक्ष्माणि-दन्ताः१ व २ केशा ३ अङ्गुलिपोणि ४ नखाश्च ५, तथा पञ्च दीघोणि-नयने १हृदयं २ नासिका ३ हनु: ४ भुजौ च ५, त्रीणि विस्तीर्णानि-भालं १ उरः२वदनं च ३, त्रीणि लघूनि-ग्रीवा १ जङ्घा २ मेहनं च ३, त्रीणि गम्भीराणि-सत्त्वं वरः२माभिश्च ३, मुखमधु शरीरस्य, सर्व वा मुखमुच्यते। ततोऽपि नासिका श्रेष्ठा, नासिकायाश्च लोचने ॥१॥ यथा नेत्रे तथा शीलं, यथा नासा तथाऽर्जवम् । यथा रूपं तथा वित्तं, यथा शीलं तथा गुणाः॥२॥ अतिहखेऽतिदीर्धेऽति-18 स्थूले चांतिकृशे तथा। अतिकृष्णेऽतिगौरे च, षट्सु सत्त्वं निगद्यते॥३॥ सद्धर्मः सुभगो नीरुक, मुखमः सुनयः कविः । सूचयत्यात्मनः श्रीमान्, नर स्वर्गगमागमा ॥ ४॥ निर्दम्भः सदयो दानी, दान्तो दक्षः सदा ऋजुः। दीप अनुक्रम १४ ... अत्र द्वात्रिन्शत् लक्षणानाम् वर्णनं क्रियते ~45~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [<] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [s] कल्प. सुबो व्या० १ ॥ १४ ॥ Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [१] मूलं [८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: मर्त्ययोने: समुद्भूतो, भविता च पुनस्तथा ॥ ५ ॥ मायालोभक्षुधालस्यवाहारादिचेष्टितैः । तिर्यग्योनेः समुत्पत्तिं, ख्यापयत्यात्मनः पुमान् ॥ ६ ॥ सरागः खजनद्वेषी, दुर्भाषो मूर्खसङ्गकृत् । शास्ति स्वस्य गतायात, नरो नरकवर्त्मनि ॥ ७ ॥ आवन्तों दक्षिणे भागे, दक्षिणः शुभकृन्नृणाम् । वामो वामेतिनिन्द्यः स्यादिगन्यत्वे तु मध्यमः ॥ ८ ॥ अरेखं बहुरेखं वा, येषां पाणितलं नृणाम् । ते स्युरल्पायुषो निःखा, दुःखिता नात्र संशयः ॥ ९ ॥ अनामिकाऽन्त्यरेखायाः, कनिष्ठा स्याद्यदाऽधिका । धनवृद्धिस्तदा पुंसां मातृपक्षो बहुस्तथा ॥ १० ॥ मणिबन्धात् पितुर्लेखा, करभाद्विभवायुषोः । लेखे द्वे यान्ति तिस्रोऽपि, तर्जन्यङ्गुष्ठकान्तरम् ॥ ११ ॥ 9 येषां रेखा मास्तिस्रः, सम्पूर्णा दोषवर्जिताः । तेषां गोवधनायूंषि, सम्पूर्णान्यन्यथा न तु ॥ १२ ॥ उल्लङ्घयन्ते च यावत्योऽङ्गुल्यो जीवितरेखया । पञ्चविंशतयो ज्ञेयास्तावत्यः शरदां बुधैः ॥ १३ ॥ यवैरंङ्गुष्ठमध्यस्थैर्विद्याख्यातिविभूतयः । शुक्लपक्षे तथा जन्म, दक्षिणाङ्गुष्ठगैश्च तैः ॥ १४ ॥ न स्त्री त्यजति रक्ताक्षं नार्थः कनकपिङ्गलम् । दीर्घबाहुं न चैश्वर्य, न मांसापचितं सुखम् ॥ १५ ॥ चक्षुःस्नेहेन सौभाग्यं, दन्तस्नेहेन भोजनम् । वपुः स्नेहेन सौख्यं स्यात्, पादस्नेहेन वाहनम् ॥ १६ ॥ उरोविशालो धनधा न्यभोगी, शिरोविशालो नृपपुङ्गवश्च । कटीविशालो बहुपुत्रदारो, विशालपादः सततं सुखी स्यात् ॥ १७ ॥ इमानि लक्षणानि, व्यञ्जनानि च-मपतिलकादीनि तेषां ये गुणास्तैरुपेतं पुनः किंवि० ( माणुम्माणपमाण| पडिपुन्नसुजायसवंग सुंदरंगति) तत्र मानं-जलभृतकुण्डान्तः पुरुषे निवेशिते यज्जलं निस्सरति यदि तज्जलं For File & Fersonal Use Only ~46~ लक्षणवर्णनं २० २५ ॥ १४ ॥ २८ wjanebary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: [८ गाथा द्रोणमानं भवेत् तदा स पुरुषो मानप्राप्ता, यदि च तुलारोपितोऽर्धभारमानः स्यात्तदा स उन्मानप्राप्तः, तत्र भारमानं-'षट्सर्षपैर्यवस्त्वेको, गुजैका च यवैत्रिभिः। गुञ्जात्रयेण बल्लः स्यादु, गयाणे ते च षोडश॥१॥पले च दश गद्याणास्तेषां सार्धशतं मणे । मणैर्दशभिरेका च, धटिका कथिता बुधैः ॥२॥ धटिभिर्दशभिस्ताभिरेको भारः प्रकीर्तितः अत्र 'तेषां सार्द्धशतं मणे' इति तेषां गवाणानां इति वाच्यं न तु पलानां, पलानां सार्धशतेन मणकथने हि भारे अष्टसॅप्सतिर्मणाः स्युस्तदधं च एकोनचत्वारिंशन्मणाः, एतावच शरीरमानं न सम्भवति, गद्याणानां सार्धशतेन मणकथने तु भारे चत्वारिंशत्शेरमानेन पादोना अष्ट मणाः किञ्चिदधिका जायन्ते, स-11 म्भवति च तदर्धमानं पश्चशेराधिकपादोनचतुर्मणप्रमाणं शरीरमिति, संभवति च गद्याणकानां सार्धशतस्थापि मणत्वं, कचिद्देशे किश्चिदूनशेरत्रयस्यापि मणत्वव्यवहारात्, तथा 'पमाण'त्ति खाकुलेन अष्टोत्तरशताङ्गुलोच उत्तमपुरुषः, मध्यहीनपुरुषौ च षण्णवतिचतुरशीत्यङ्गुलोचौ स्यातां, अत्र उत्तमपुरुषोऽपि अन्य एव, तीर्थङ्करस्तु द्वादशाङ्गुलोष्णीषसद्भावेन विंशत्यधिकशताङ्गुलोचो भवति, ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि सुजातानि सर्वाङ्गानि-शिरःप्रमुखाणि यत्र एवंविधं सुन्दरं अङ्गं यस्य तथा तं, पुनः किंवि० (ससिसोमागारेत्ति) शशिवत्सौम्याकारं (कन्तन्ति) कमनीयं (पियदंसगंति) वल्लभदर्शनं (सुरुवंति) शोभनरूपं (दारयं पयाहिसित्ति) दारकं प्रजनिष्यसीति ज्ञेयम् (0)॥ ॥ (सेवि अ णं दारएत्ति) सोऽपि दारक एवंविधो भविष्यति, किंवि०-15 ( उम्मुक्कबालभावेत्ति) स्वक्तवाल्यो-जाताष्टवर्षः, पुनः किंवि०?-(विन्नायपरिणयमित्तेत्ति) विज्ञानं परिण-18| १४ 900000000000000000000 ॥१..|| दीप अनुक्रम Ecole ~ 47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सत्राक [१] गाथा ॥१..|| कल्प.सुबो तमात्रं यस्य स तथा, क्रमाच्च किंवि० (जोवणगमणुपत्तेत्ति) यौवनं अनुप्रासः, पुनः किंवि०१-( रिउव्वेम- पुत्रवरूपे व्या०१ 18 जउव्वेअ-सामवेअ-अथव्वणवेअत्ति) अत्र षष्ठीबहुवचनलोपात् ऋग्वेद १ यजुर्वेद २ सामवेद ३-15 यौवनख अथर्वण ४ वेदानां, कीदृशानां ?-(इतिहासपञ्चमाणति) इतिहासपुराणं पञ्चमं येषां ते तथा तेषां, पुनः रूपं मू.९ कीदृशाना ? (निघंटुछट्ठाणंति ) निघण्टु:-नामसङ्ग्रहः षष्ठो येषां ते तथा तेषां, पुनः कीदृशानां (संगो-| वंगाणति) अङ्गोपाङ्गसहितानां, तत्र अङ्गानि-शिक्षा १ कल्पो २ व्याकरण ३ छन्दो४ ज्योति ५ निरुक्तयः ६, उपाङ्गानि-अङ्गार्थविस्तररूपाणि, पुनः कीदृशानां ? ( सरहस्साणंति) तात्पर्ययुक्तानां (चवण्हं वेयाणंति) ईशानां पूर्वोक्तानां चतुर्णा वेदानां (सारणत्ति) मारकः अन्येषां विस्मरणे (बारएति) बारकः, अन्येषां अशुद्धपाठनिषेधात् (धारएत्ति) धारणसमर्थः, इदृशो दारको भावी, पुन: किंवि०१-(सडंगविसि) पूर्बो-12 तानि षट् अङ्गानि वेत्ति-विचारयतीति षडङ्गवित्, ज्ञानार्थत्वे तु पौनरुत्यं स्यात्, पुनः किंवि०१-(सद्वितंतविसारएत्ति) षष्टितनं-कापिलीयं शास्त्र तत्र विशारदः-पण्डिता, पुन: किंवि०१-(संखाणेत्ति) गणितशास्त्रे, यथा-'अर्ध तोये कर्दमे द्वादशांशा, षष्ठो भागो वालुकायां निमग्नः। सा! हस्तो दृश्यते यस्य तस्य, स्तम्भ-18 स्थाशुब्रूहि मानं विचिन्त्य ॥१॥' स्तम्भो हस्ताः६, कचित् (सिक्खाणेत्ति पाठः) तत्र सिक्खाणशब्देन आचार- ॥१५॥ ग्रन्थः, (सिक्खाकप्पेति ) शिक्षा-अक्षराम्नायग्रन्धः कल्पश्च-यज्ञादिविधिशास्त्रं तत्र, तथा (बागरणेत्ति) व्याकरणे-शब्दशाने, तानि च विंशतिः-पेन्द्र १ जैनेन्द्र रसिद्धहेमचन्द्र ३ चान्द्र ४ पाणिनीय ५ सारखत - दीप अनुक्रम JABEnicatonirl ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१०] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०] गाथा ||१..|| शाफटायन ७ वामन ८ विश्रान्त ९ युद्धिसागर १० सरस्वतीकण्ठाभरण ११ विद्याधर १२ कलापक १३-181 भीमसेन १४ शैव १५ गौड १६ नन्दि १७ जयोत्पल १८ मुष्टिव्याकरण १९ जयदेवाभिधानानि २०, (छंदेसि) छन्दःशास्त्रे (निरुत्तेत्ति ) पदभञ्जने व्युत्पत्तिरूपे टीकादौ इत्यर्थः (जोइसामयणेत्ति ) ज्योति:शास्त्रे (अन्नेसु अ बहुसुत्ति) एषु पूर्वोक्तेषु अन्येषु च बहुषु (बंभपणएमुसि) ब्रामणहितेषु शास्त्रेषु ( परि-18 ब्वायएसुत्ति) परिवाजकसम्बन्धिषु (नएम) नयेषु-आचारशास्त्रेषु (सुपरिनिहिए यावि भविस्सइत्ति) अति-18 निपुणो भविष्यतीति योगः (९) । (तं उराला गं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिहा) तस्मात् कारणात् ४ | उदाराः त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वमा दृष्टाः (जाव आरुग्गतद्विदीहाउमंगलकारगा मंति) यावत आरो-18 ग्यतुष्टिदीर्घायु:कल्याणमङ्गलानां कारकाः (तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिहत्ति) त्वया हे देवानुप्रिये ! खमा दृष्टाः (इतिकडुत्ति) इतिकृत्वा (भुजो भुलो अणुवूहइत्ति) भूयो भूयो-वारं वारं अनुहयति-अनुमोदयति (१०)॥ (तए णं सा देवाणंदा माहणीति) ततः सा देवानन्दा ब्राह्मणी (उसभदत्तस्स माहणस्स अंतिए) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य पार्थे (एयमल सुचत्ति) इमं अर्थ श्रुत्वा (निसम्मसि) चेतसा अवधार्य (हहतुजावहिययत्ति) हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहृदया (करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कड्छु) करतलाभ्यां कृतं दश नखा मिलिताः यत्र तं, शिरसि आवर्ती यत्र तं, इदृशं मस्तके करसकम्पुटं कृत्वा (उसभवत्तं माहणं) ऋषभदत्तं ब्राह्मणं ( एवं वयासी)ततः सा देवानन्दा एवं अवादीत् (११) दीप अनुक्रम [१०] JABEnicationini V ianetbornerg ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [११] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [११] गाथा तीच्छा ||१..|| कल्प.सुबो- किमित्याह (एवमेअं देवाणुप्पिअत्ति) एवमेतत् देवानुप्रिये ! (तहमेअं देवाणुपियत्ति ) तथैतद्देवानुखप्नोपहा ध्या०१ प्रिय ! यथा यथा भवद्भिरुक्तं (अवितहमेअं देवाणुप्पियत्ति ) यथास्थितं एतद्देवानुप्रिय! (असंदिद्धमे विनयः प्र देवाणुप्पियत्ति ) सन्देहरहितं एतद्देवानुप्रिय ! (इच्छिअमेअं देवाणुप्पियत्ति) ईप्सितं एतद्देवानुप्रिय! (पडि-1 च्छिअमेअं देवाणुप्पियत्ति) प्रतीष्टं-युष्मन्मुखात् पतदेव गृहीतं देवानुप्रिय ! (इच्छियपडिच्छिअमेअंदेवाणु-न्द्रवणनमः प्पियत्ति) उभयधर्मोपेतं देवानुप्रिय ! (सच्चे णं एस अद्वेत्ति) सत्यः स एषोऽर्थः (से) अथ (जहेयंति) १०-१३ येन प्रकारेण इमं अर्थ (तुन्भे वयहति) यूयं वदथ (इति कटु) इति कृत्वा-इति भणित्वा (ते सुमिणे सम्म पडिच्छात्ति) तान् समान सम्यग् अङ्गीकरोति (पडिच्छित्तत्ति) अङ्गीकृत्य (उसमदत्तेणं माहणेणं सद्धिति) कषभदत्तत्राह्मणेन सार्ध (उरालाईमाणुस्सगाईति)उदारान् मानुष्यकान् (भोगभोगाईति) भोगार्हो भोगा भोगभोगास्तान् भोगाईभोगान् (मुंजमाणा विहरइ) भुञ्जाना विहरति (१२)॥ (तेणं कालेणंति) तस्मिन् काले (तेणं समएणंति) तस्मिन् समये स शक्रो विहरतीति सम्बन्धः, किंविशिष्टः?-(सक्केत्ति) शक्रनामसिंहासनाधिष्ठाता (देविंदेत्ति) देवानां इन्द्रः (देवरायात्ति) देवेषु राजा-कान्त्यादिगुणैः राजमानः ( वजपाणित्ति ) करधृ-RI तवज्रः (पुरंदरेत्ति) दैत्यनगरविदारकः (सयकात्ति) शतं क्रतवः-श्राद्धपश्चमप्रतिमारूपा नियमविशेषा यस्य ॥१६॥ स शतक्रतुः, इदं हि कार्तिकश्रेष्टिभवापेक्षया, तथाहि-पृथिवीभूषणनगरे प्रजापालो नाम राजा, कार्सिकनामा । श्रेष्ठी, तेन श्राद्धपतिमानां शतं कृतं, ततः शतक्रतुरितिख्यातिः, एकदा च गैरिकपरिवाजको मासोपवासी| दीप अनुक्रम [११] २८ LABEducation.irta ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१३] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३] गाथा ॥१..|| तत्रागतः, एकं कार्तिकं विना सर्वोऽपि लोकस्तद्भक्तो जाता, तच ज्ञात्वा कार्तिकोपरि गैरिको रुष्टा, एकदा च राज्ञा निमन्त्रितोऽवदत्-यदि कार्तिकः परिवेषयति तदा तव गृहे पारणां करोमि, राज्ञा तथेति प्रतिपद्य कार्तिकायोंक्तं यत्त्वं मद्गृहे गैरिकं भोजय, ततः कार्तिकेणोक्तं-राजन् ! भवदाज्ञया भोजयिष्यामि, ततः श्रेष्ठिना भोज्यमानो गैरिको धृष्टोऽसीति अङ्गुलिना नासिका स्पृशंश्चेष्टां चकार, श्रेष्ठी यो-यदि मया पूर्व दीक्षा | गृहीताऽभविष्यत्तदाऽयं न पराभविष्यदिति विचिन्त्याष्टाधिकसहस्रेण वणिकपुत्रैः सह श्रीमुनिसुव्रतखा|मिसमीपे चारित्रं गृहीत्वा द्वादशाङ्गीं अधीत्य द्वादशवर्षपर्यायः सौधर्मेन्द्रोऽभूत, गैरिकोऽपि निजधर्मतस्तद्बा हनं ऐरावणोऽभवत्, ततः कार्तिकोऽयमिति ज्ञात्वा पलायमानं तं धृत्वा शक्रः शीर्ष आरूढः स च शक्र-18 भापनार्थ रूपद्यं कृतवान्, शक्रोऽपि तथा, एवं रूपचतुष्टयं, शक्रोऽपि तथा, ततश्चावधिना ज्ञातखरूपस्तं तर्जितवान् तर्जितश्च स्वाभाविक रूपं चक्रे, इति कार्तिकश्रेष्ठिकथा ॥ 8 (सहस्सक्खेत्ति) मन्त्रिदेवपश्चशत्या लोचनानि इन्द्र कार्यकराणीति इन्द्रसम्बन्धीन्येवेति सहस्राक्षः (मघवंति) मघा-महामेघा वशे सन्त्यस्येति मघवान् (पागसासणेत्ति ) पार्क-दैत्यं शास्ति-शिक्षयतीति पाकशासनः ( दाहिणड्डलोगाहिवइत्ति ) मेरोदक्षिणतो यल्लोकाध तस्याधिपतिः, उत्तरलोकार्घस्य ईशानस्वामिकत्वात् (एरावणवाहणेत्ति) ऐरावणवाहनः (सुरिंदेत्ति) सुराणां इन्द्रः-आह्लादकः ( बत्तीसविमाणसयसहस्साहिवइत्ति)द्वात्रिंशल्लक्षविमानाधिपतिः(अरयत्ति) अरजस्कानि-रजोरहितानि (अंबरवस्थधरेत्ति) स्वच्छतया दीप अनुक्रम [१३] १४ ... शक्रेन्द्रस्य वर्णनं ~51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१३] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१३] कल्प. सुबो व्या० १ ॥ १७ ॥ Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [१] ............ मूलं [१३] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्ति: : अम्बरतुल्यानि वस्त्राणि अम्बरवस्त्राणि तानि घरतीति अरजोऽम्बरवस्त्रधरः ( आलइअमालमउजेति आलगितौ यथास्थानं परिहितो मालामुकुटी येन स तथा (नवत्ति ) नवाभ्यां इव ( हेमन्ति ) हेमसत्काभ्यां ( चारुति ) चारुभ्यां - मनोज्ञाभ्यां (चित्तत्ति ) चित्राभ्यां चित्रकारिभ्यां ( चवलकुंडलत्ति ) चपलाभ्यांइतस्ततः कम्पमानाभ्यां ईदृशाभ्यां कुण्डलाभ्यां (विलिहिज्ज़माणगल्लेत्ति ) विलिख्यमानौ गल्लौ यस्य स तथा ( महिडीएस ) महती ऋद्धि:-छत्रादिराजचिन्हरूपा यस्य स तथा ( महजुइएत्ति ) महती श्रुतिः| आभरणशरीरादिकान्तिर्यस्य स तथा ( महव्यलेत्ति ) महाबल: ( महायसेत्ति ) महायशाः (महाणुभावेत्ति ) महान अनुभावो-महिमा यस्य स तथा ( महासुक्खेत्ति ) महासुखः, पुनः किंवि० ? - ( भासुरत्ति) भासुरंदेदीप्यमानं ( बोंदित्ति ) शरीरं यस्य स तथा पुनः किंवि० ? ( पलंबवणमालधरेत्ति ) प्रलम्बा- आपादलस्विनी बनमाला - पञ्चवर्णपुष्पमाला तां धरति यः स तथा, अथ स कुत्र वर्तते इत्याह - ( सोहम्मे कप्पेत्ति ) सौधर्मे कल्पे ( सोहम्मबसिए बिमाणेत्ति ) सौधर्मावतंस के विमाने ( सुहम्माए सभापति ) सुधर्मायां सभायां ( सर्कसि सीहासणंसित्ति ) शक्र इति नामके सिंहासने, अथ स किं कुर्वन् विहरतीत्याह - ( से णं तस्थ बत्तीसार विमाणावाससयसाहस्सीणंति ) स इन्द्रस्तत्र देवलोके द्वात्रिंशद्विमानावासशतसहस्राणां द्वात्रिंशल्लक्षविमानानां इत्यर्थः (चउरासीए सामाणिअसाहस्सीणंति ) चतुरशीतिसामानिकसहस्राणां ते हि इन्द्रसमानऋद्धयः ( तायत्तीसाए तायत्तीसगाणंति ) त्रयस्त्रिंशत् त्रायस्त्रिंशाः, ते हि महत्तराः इन्द्रपूज्या For Private & Personal Use O ~ 52~ इन्द्रवर्णने कार्तिककथा २० २५ ॥ १७ ॥ २८ janelbrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१३] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१३] Jan Education H दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [१] ............ मूलं [१३] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: मन्त्रिकल्पा वा तेषां (चउन्हं लोगपालाणंति ) चतुर्णी लोकपालानां सोम १ यम २ वरुण ३ कुबेरा ४ भिधानानां (अट्टहं अग्गमहिसीण ) अष्टानां अग्रमहिषीणां ता हि पद्मा १ शिवा २ शची ३ अञ्जु ४ अमला ५अप्सरो ६ नवमिका ७ रोहिणी ८ त्यभिधानाः, किंविशिष्टानां तासां ? - ( सपरिवाराणंति) सपरिवाराणां प्रत्येकं षोडशसहस्रपरिवाराणां तथा (तिन्हं परिसाणंति) तिसृणां पर्षदां, बाह्य १ मध्यमा २ भ्यन्तराणां ३ (सत्तण्हं अणिआणंति) सप्तानां अनीकानां - सैन्यानां गन्धर्व १ नाटक २ अश्व ३ गज ४ रथ ५ सुभट ६ वृषभ ७ संज्ञकानां, भवनपत्यादीनां वृषभस्याने महिषा भवन्तीति ज्ञेयं, तथा ( सत्तण्डं अणिआहिवईणंति ) सप्तानां सेनापतीनां (चउण्डं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणंति ) चतसृषु दिक्षु प्रत्येकं चतुरशीतिसहस्रमितानामात्मरक्षकदेवानां सर्वसङ्ख्यया च षत्रिंशत्सहस्राधिकलक्षत्रयमितानां (३३६०००) (अनसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणिआणं देवाणं देवीण यत्ति) अन्येषां च बहूनां सौधर्मकल्पवासिनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च ( आहेवचंति) अधिपतिकर्म-रक्षां इत्यर्थः (पोरेवचंति) अग्रगामित्वं ( सामित्तंति ) नायकत्वं (भहितंति ) भर्तृत्वं पोषकत्वं (महत्तरमत्तंति ) गुरुतरत्वं ( आणाईसरसेणावचंति ) आज्ञया ईश्वरो यः सेनापतिः तत्त्वं, स्वसैन्यं प्रति अद्भुतं आज्ञाप्राधान्यं इत्यर्थः ( कारेमाणेति ) कारयन् नियुक्तैः ( पालेमाणेत्ति ) पालयन् स्वयमेव, पुनः किं कुर्वन् ? - ( महयत्ति ) तत्र महतेति रवेण इत्यनेन योज्यते, महता शब्देनेत्यर्थः, केषां इत्याह- ( अहयत्ति ) अविच्छिन्नं एवंविधं यत् (नहगीअति) नाटकं गीतं - प्रसिद्धं ( वाइअन्ति ) वादितानि For Pride & Personal Use O ~53~ ५ १० १४ janelbary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१४] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४] गाथा ॥१..|| कल्प.सुबो-यानि तन्त्र्यादीनि तेषां, तत्र (तंतीतलतालत्ति) तत्री-वीणा तलताला:-हस्ततालाः ( तुडियत्ति ) त्रुटि-वीरदर्शनं व्या०१ तानि-अन्यवादित्राणि (घणमुइंगत्ति) घनमृदङ्गो-मेघध्वनिमर्दलो, तथा (पडपडहवाइयरवेणंति) पटुपटहस्यम. १४ यद्वादित-वादनं एतेषां महता शब्देन (दिवाई भोगभोगाई भुञ्जमाणे विहरइ) देवयोग्यान् भोगाईभोगान ॥१८॥ भुजानो विहरति ॥ (१३)॥ पुनः स किं कुर्वन्नित्याह-(इमं च णंति) इमं (केवलकप्पंति) सम्पूर्ण ( जंबुद्दीवं दीवंति ) जम्बूद्वीपं द्वीप (विउलेणंति ) विपुलेन-विस्तीर्णेन (ओहिणत्ति ) अवधिना (आभोएमाणे आभोएमाणे विहरहत्ति) अवलोकयन अवलोकयन विहरति-आस्ते इति सम्बन्धः (तत्थ णं समणं भगवं महावीरेत्ति) तत्र समये श्रमणं भगवन्तं महावीरं (जंबुद्दीवे दीवेत्ति) अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपनाम्नि द्वीपे (भारहे वासेत्ति) भरतक्षेत्रे (दाहिणभरहेत्ति) दक्षिणार्धभरते (माहणकुंडग्गामे नयरे) ब्राह्मणकुण्डग्रामनामके नगरे (उसभदत्सस्सत्ति ) ऋषभदत्तस्या INI(माहणस्सत्ति) ब्राह्मणस्य, किंवि०(कोडालसगुत्तस्सत्ति) कोडालैः समानं गोत्रं यस्य स तथा, कोडाल-| गोत्रस्येत्यर्थः (भारिआए देवाणंदाए माहणीएत्ति) तस्य भार्याया देवानन्दाया ब्राह्मण्याः ( जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुञ्छिसि गम्भत्ताए वक्तंति) कुक्षौ गर्भतया उत्पन्न ( पासइ पासित्ता) ॥१८॥ पश्यति दृष्ट्वा ( हदृतुद्वचित्तमाणंदिए ) हृष्टः तुष्टः चित्तेन आनन्दितः (णंदिएत्ति) हर्षधनेन समृद्धतां गतः (परमाणंदिएत्ति) अतीव समृद्धभावं गतः(पीइमणे) प्रीतिर्मनसि यस्य सः ( परमसोमणस्सिए ) परमं | | २८ दीप अनुक्रम [१४] ... देवानन्दा कुक्षौ स्थित: भगवन्त महावीरस्य दर्शनं ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१४] करूप. सु. ४ Jan Education Ingema दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [१] ............ मूलं [१४] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: सौमनस्यं तुष्टचित्तत्वं प्राप्तः (हरिसवसविसप्पमाणहि अए) हर्षवशेन विसत् हृदयं यस्य सः, प्रमुदितचित्तप्राग्भारेणैव ( धाराहयकवसुरहिकुसुमत्ति ) धाराहतं यत्कदम्वस्य सुरभिकुसुमं तद्वत् ( चंचुमालहअन्ति रोमाञ्चितः, अत एव ( ऊससिअरोमकूवेत्ति ) उच्छ्रितरोमकूपः, तथा ( विअसिअवरकम लाणणन यणेत्ति) विकसितं वरं प्रधानं यत्कमलं तद्वत् आननं मुखं नयने च यस्य स तथा, प्रमोदपूरितत्वात् ( पयलिअत्ति प्रचलितानि - भगवद्दर्शनेन अधिकसम्भ्रमवत्त्वात् कम्पितानि ( वरकडगन्ति ) वराणि कटकानि - कङ्कणानि (तुडिअत्ति) त्रुटिता-बाहुरक्षकाः 'बहिरखा' इति लोके ( केऊरति) केयूराणि च अङ्गदानि 'बाजूबन्ध' इति लोके (कुंडलन्ति) मुकुटं कुण्डले च प्रसिद्धे, पतानि प्रचलितानि यस्य स तथा (हारविरायंत वच्छेत्ति) हारेण विराजमानं हृदयं यस्य स तथा ततो विशेषणसमासः, ( पालंबलंबमाणत्ति ) प्रलम्बमानं यत्प्रालम्बोझुम्बनकं ( घोलंत भूसणघरेत्ति) दोलायमानानि भूषणानि च तानि घरति यः स तथा (ससंभमंति) सादरं (तुरिअं चवलं सुरिंदे सीहासणाओ अभुट्ठेहसि ) त्वरितं - सौत्सुक्यं चपलं कायचापल्योपेतं एवं यथा स्यात् तथा सुरेन्द्रः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति (अम्मुट्ठित्तत्ति) अभ्युत्थाय यावत् (पादपीढाओ पचोरुहहत्ति) यत्र पादौ स्थाप्येते तरपादपीठं कथ्यते तस्मात्प्रत्यवतरति (पञ्चोकहित्तत्ति ) प्रत्यवतीर्य च पादुके अवमुञ्चति, किंविशिष्टे ते ? ( वेरुलिअत्ति ) वैढूर्य - मरकतं नाम नीलरत्नं (वरिहरिह अंजणन्ति ) वरिष्ठे - प्रधाने रिष्ठअञ्जननानी श्यामरले, एतै रत्नैः कृत्वा (निउणोवचिअत्ति ) निपुणेन शिल्पिना रचिते इव, पुनः किंवि० ? ••• भगवन्तस्य च्यवन अवसरे शक्रेन्द्र-कृत् भक्ति एवं स्तवना For Pride & Personal Use Only ~55~ १० १४ janbary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१४] कल्प. सुबो व्या० १ ॥ १९ ॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [१] ............ मूलं [१४] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: (मिसिमिसिंतत्ति ) देदीप्यमानानि ( मणिरयणमंडिआउत्ति ) मणयः- चन्द्रकान्तादयः रत्नानि - कर्केतनादीनि तैर्मण्डिते ( पाउआओ ओमुअइत्ति ) इश्यौ पादुके अवमुञ्चति (ओमुहत्तत्ति ) अवमुच्य ( एमसाडिअं उत्तरासंगं करेइ, करितन्ति ) एकपट उत्तरासङ्गं करोति, तत् कृत्वा च ( अञ्जलिमउलि अग्गहत्थेत्ति) अञ्जलिकरणेन मुकुलीकृती - योजिती अग्रहस्ती येन स तथाभूतः (तिस्थयराभिमुद्दे सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइत्ति ) सप्ताष्ट पदानि तीर्थकराभिमुखोऽनुगच्छति (अणुगच्छित्तत्ति ) तथा कृत्वा ( वामं जाणुं अंचेइत्ति ) वामं जानुं उत्पाटयति- भूमौ अलग्नं स्थापयति (अंचित्तत्ति) तथा संस्थाप्य ( दाहिणं जाणं धरणितलंसित्ति ) दक्षिणं जानुं धरणीतले (साहद्वृत्ति) निवेश्य ( तिक्खत्तोत्ति ) वारत्रयं ( मुद्वाणं धरणितलंसि निवेसेइत्ति ) मस्तकं धरणीतले निवेशयति (निवेसित्ता) तथा कृत्वा (ईसि पन्नमत्ति ) ईषत् प्रत्युन्नमति - उत्तरार्धेन क भवतीत्यर्थः (पशुनमित्तत्ति ) ऊर्द्धाभूय (कडगतुडिअर्थभिआओ भुआओ साहरइत्ति) कटकत्रुटिकाः कङ्कणबाहुरक्षकास्ताभिः स्तम्भिते भुजे वालयति ( साहरितत्ति ) वालयित्वा ( करयलपरिग्गहिअं दसनहंति) करतलपरिगृहीतं - हस्तसम्पुटघटितं दृश नखाः समुदिता यत्र स तथा तं (सिरसावत्तंति ) शिरसि - मस्तके आवर्त्तःप्रदक्षिणभ्रमणं यस्य एवंविधं (मत्थए अंजलिं कुहुत्ति) मस्तके अञ्जलिं कृत्वा ( एवं व्यासीत्ति) एवं अवादीत्, (१४) किं तदित्याह - ( नमुत्थु णंति) णङ्कारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारार्थः, नमोऽस्तु, केभ्यः ? - (अरहंताणंति) अर्हज्य:त्रिभुवनकृत पूजायोग्येभ्यः, रागद्वेषरूपकर्मवैरिहननात् 'अरिहन्ताणं' इति पाठः, रागद्वेषरूपकर्मबीजाभावेन Jan Education in ... शक्रस्तव स्तोत्रस्य अर्थ विचारणा For File & Fersonal Use Only ~ 56~ च्यवनकल्याणके इन्द्रहृषेः सू. १४ २० २५ ॥ १९ ॥ २८ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१५] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१५] Jan Educaton दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [१] ............ मूलं [१५] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: भवक्षेत्रे प्ररोहणाभावात् 'अरुहन्ताणं' इति पाठा ( भगवंताणंति ) भगवद्भयो-ज्ञानादिमन्यः (आइगराणंति) आदिकरेभ्यः आदिकरत्वं खखतीर्थापेक्षया धर्मस्येति ज्ञेयं (तित्थयराणंति) तीर्थकरेभ्यः, तत्र तीर्थ सङ्घः प्रथमगणधरो वा तत्स्थापकेभ्यः (सयंसंबुद्धाणंति ) स्वयंसम्बुद्धेभ्यो, न तु परोपदेशेन ( पुरिसुत्तमाणंति ) पुरुषेषु उत्तमेभ्यः, अनन्तगुणनिधानत्वात् (पुरिससीहाणंति) पुरुषसिंहेभ्यः, कर्मवैरिषु निर्दयशूरत्वात् (पुरिसवरपुंडरी आणंति) पुरुषवरपुण्डरीकेभ्यः, पुरुषेषु वरं प्रधानं यत्पुण्डरीकं श्वेतपद्मं तत्तुल्येभ्यः, यथा पुण्डरीकं पले जातं जलैर्वृद्धं जलपङ्कौ त्यक्त्वा उपरि तिष्ठति एवं भगवन्तोऽपि कर्मकर्द्दमे उत्पन्नाः भोगजलेन वृद्धाः कर्मभोगौ त्यक्त्वा पृथग तिष्ठन्ति (पुरिसवरगंधहत्थीणं ) पुरुषवरगन्धहस्तिभ्यः, यथा गन्धहस्तिगन्धेन अन्ये गजाः पलायन्ते तथा भगवत्प्रभावेण दुर्भिक्षादयोऽपि (लोगुत्तमाणं) लोकेषु भव्यसमूहेषु चतुस्त्रिंशदतिशययुक्तत्वात् उत्तमास्तेभ्यो लोकोत्तमेभ्यः (लोगनाहाणं) लोकानां भव्यानां नाथेभ्यो-योगक्षेमकारिभ्यः, तत्र योग:- अप्राप्तज्ञानादिप्रापणं क्षेमं च प्राप्तज्ञानादिरक्षणं (लोगहिआणं) लोकानां सर्वजीवानां हितेभ्योहितकारकेभ्यो, दयाप्ररूपकत्वात् (लोगपईवाणं) लोकप्रदीपेभ्यः, मिध्यात्वध्वान्तनाशकत्वात् (लोगपजोअगराणं) लोकप्रयोतकरेभ्यः, सूर्यवत् सर्ववस्तुप्रकाशकत्वात् (अभयदयाणं ) भवानां अभावः अभयं तदायकेभ्यः, भयानि सप्त, तद्यथा - मनुष्यस्य मनुष्याद्भयं इहलोकभयं १ मनुष्यस्य देवादेर्भयं परलोकभयं २ धनादिग्रहणायं आदानभयं ३ बाह्यनिमित्तनिरपेक्षं भयं अकस्माद्भयं ४ आजीविकाभयं ६ मरणभयं For Pile & Personal Use O ~ 57~ १० १४ janetary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [१५] गाथा ॥१..|| कल्प.सुबो- अपयशोभयं चेति (चक्खुदयाण) चक्षुःसमानश्रुतज्ञानदायकेभ्यः (मरगदपाणंति) मार्गस्य-सम्प-18 शक्रस्तवः व्या०१ ग्दर्शनादिमोक्षमार्गस्य दायकेभ्यः, यथा केचिजनाश्चौरैलण्टितधना लोचने पट्टबन्धं कृत्वा उन्मार्गे म.१५मेषपातिताः स्युस्तेषां कोऽपि पट्टकापनयनेन धनापणेन मार्गदर्शनेन उपकारी भवति एवं भगवन्तोऽपि कुमारकथा कषायलण्टितधर्मधनानां मिथ्यात्वाच्छादित विवेकनयनानां श्रुतज्ञानसद्धर्ममुक्तिमार्गदानेन उपकारिणो भवन्ति,R सिरणदयाणंति) भवभीतानां शरणदायकेभ्यः (जीवदयाति) जीवनं जीवा-सर्वथा मरणाभावस्तद्दा यकेभ्यः, कचिद् बोहियाणंति पाठस्तत्र योधिः-सम्यक्त्वं तद्दायकेभ्यः (धम्मदयाणंति) धर्म:-चारित्ररूपस्तदायकेभ्यः (धम्मदेसयाणंति) धर्मोपदेशदायकेभ्यः, धर्मदेशकत्वं च एतेषां धर्मखामित्वे सति न पुनर्नटवदिति दर्शयन्नाह-(धम्मनायगाणंति) धर्मनायकेभ्यः (धम्मसारहीणंति) धर्मस्य सारथय इव, यथा सारथिः उन्मार्गे गच्छन्तं रथं मार्गे आनयति एवं भगवन्तोऽपि मार्गभ्रष्टं जनं मार्गे आनयंति, अत्र चार मेघकुमारदृष्टान्तो यथा-एकदा श्रीवीरखामी राजगृहे समवस्तः, तत्र श्रेणिकधारिण्योः सुतो मेघकुमारः| प्रतिवुद्धः, कथमपि पितरौ आपृच्छयाष्टौ प्रियाः परित्यज्य दीक्षां गृहीतवान् , प्रभुणा च शिक्षार्थ स्थविराणां अर्पितः, तत्र अनुक्रमेण संस्तारककरणे द्वारपाचे मेघकुमारस्य संस्तारक आगतः, ततः प्रश्रवणाद्यर्थ ॥२०॥ गच्छदागच्छत्साधुपादरजोभिर्भरितः मेघकुमारः समग्रायां रजन्यां क्षणमपि निद्रां न प्राप्ता, चिन्तयामासक मे सुखशय्या क चेदं भूलुठनं ?, कियत्कालं इदं दुःखं मया सोढव्यं ?, ततः प्रातः प्रभुमापृच्छय गृहं २८ दीप अनुक्रम [१५] ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५] गाथा यास्यामीति प्रभाते प्रभुपार्श्वमागता, प्रभुणाऽपि मधुरवचनेन आभाषितः-वत्स! त्वया निशि एवं दानं कृतं, परं अविचारितं एतत्, नरकादिदुःखाग्रे कियदेतदू दुःखं ?, तान्यपि दुःखानि सागरोपमाणि अनेकानि यावत् प्राणिना बहुशः सोढानि, कि-वरमग्गिम्मि पवेसो,वरं विसुद्धेण कम्मुणा मरणं । मा गहियषयभङ्गो मा जीअं खलिअसीलस्स ॥१॥ तथा इदं चारित्रादिकष्टानुष्ठानं महते फलाय भवति, यथा त्वयैव पूर्वभवे अनुभूतं धमीर्थ कष्टं एतावत्फलमापकं अभवत्, शृणु ततः पूर्वभवान् , यथा इतस्तृतीये भवे वैतापभूमौ || षड्दन्तः शुभ्रो हस्तिनीसहस्रभा भुमेरुभनामा त्वं गजराजोऽभू, अन्यदा दावानलागीतः पलायमानस्तृषितः पङ्कबहलं एक सरःप्राप्तस्तत्र ज्ञातमार्गः पङ्के निमग्नो नीरात्तीराच्च भ्रष्टः पूर्ववैरिहस्तिना दन्तैह-18 न्यमानः सप्त दिनानि वेदनां अनुभूय सविंशं शतं आयुः समाप्य विन्ध्याचले रक्तवर्णश्चतुर्वन्तः सप्तहस्तिनी-18) |शतभा हस्ती जाता, क्रमेण च दावानलं दृष्ट्वा जातजातिस्मरणः पूर्वभवं स्मृतवान्, ततो दावानलपराभ|वरक्षणाय योजनपरिमितं मण्डलं कृतवान् , तत्र वर्षाणां आदी मध्ये अन्ते च यत् किञ्चित् तृणवल्ल्यादि भवति तत् सर्वं उन्मूलयति, अन्यदा च दावानलागीताः सर्वे वनजीवास्तन्मण्डलं व्याप्तवन्तः त्वमपि शीघ्र आगत्य तत्र मण्डले स्थितः, कदाचिद् देहकण्डूयनेच्छया एकं पादं उत्पादितवान् , उत्पाटिते च तस्मिन् पादे । १ वरमन्नौ प्रवेशो वरं विशुद्धन कर्मणा मरणं । मा गृहीवव्रतभंगो मा जीवितं स्खलितशीलस्य ॥ १॥ २ अलब्धसम्यक्त्वेनाप्यनुकशम्पायै पादस्यानोचनेन ३ शशकरक्षणात् ४ विद्याधरैः कृतं नामेदमस्य । दीप अनुक्रम ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [१] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: कल्प.सुबोव्या०१ प्रत सुत्रांक [१५]] गाथा ॥ २१॥ अन्यत्र साङ्कीर्ण्यपीडितः शशकस्तत्र आगत्य स्थितः, गात्रं कण्डूयित्वा च पादं मुश्चन् शशकं दृष्ट्वा तयया शक्रस्तवः साई दिनद्वयं तथैव पादं स्थापितवान् , उपशान्ते च दावानले सर्वेषु जीवेषु स्वस्थानं गतेषु विलगितपादोम.१५ मेघझटिति भूमौ पतितस्ततो दिनत्रयं क्षुधया तृषा च पीडितः कृपापरः शतवर्ष आयुः परिपाल्यांत्र श्रेणिकधा-18 कुमारकथा रिण्योः पुत्रत्वेन जातस्त्वं, ततो भो मेघ! तदानी तिर्यग्भवेऽपि स्वया धर्मार्थ तत्कष्टं सोढं तर्हि जगद्वन्धसाधूनां चरणैर्घटयमानः किं दूयसे ?, इत्याद्युपदेशेन भगवता धर्मे स्थिरीकृतोऽवातजातिस्मरणो नेत्रे विमुच्यान्यत्सर्व शरीरं मया व्युत्सृष्टं इय॑भिग्रहं कृतवान्, क्रमात् निरतिचारं चारित्रमाराध्यान्ते मासिकी संले-11 खनां कृत्वा विजयविमाने सुरोऽभवत्, ततश्युतो महानिदेहे सेत्स्यति, इति श्रीमेघकुमारकथा । ॥१..|| दीप NarsatsaaseeastsansasrainrararaperanaRAPHIRanama A RRA इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां प्रथमं व्याख्यानं समाप्तम् । Ferrer Eserseroase sencere Sengeres SerGELADO अनुक्रम NRSas प्रथम व्याख्यान समाप्त ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [१५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत ॥ अथ द्वितीयं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ सूत्रांक [१५] गाथा (धम्मवरचाउरंतचकवट्टीणं) त्रयः समुद्राश्चतुर्थो हिमवानिति चत्वारोऽन्तास्तेषु प्रभुतया भवाश्चातुरन्ताःशचतुरन्तस्वामिनः एवंविधा ये चक्रवर्तिनस्ते चातुरन्तचक्रवर्तिनः धर्मस्य वरा:-श्रेष्ठाः चातुरन्तचक्रवर्तिनो धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनः, धर्मनायका इत्यर्थः, तेभ्यः (दीवो) समुद्रे मज्जतां द्वीप इव संसारसमुद्रे आधारः, (ताणं) त्राणं-अमर्थप्रतिघातहेतुः, अत एव (सरणं) कर्मोपद्रवेभ्यो भीतानां शरणं (गई) गम्यते सौIS|स्थ्याय दुस्थैराश्रीयते गतिः (पइद्वा) भवकूपपतत्प्राणिना अवलम्बन, वीवो ताणं इत्यादीनि पदानि प्रथमा न्तान्यपि चतुर्थ्यर्थषष्ठवन्ततया व्याख्येयानि (अप्पडिहयवरनाणदसणधराणं) अप्रतिहते-कटकुट्यादिभिरस्खलिते बरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने केवल ज्ञानदर्शने धरन्ति येते तथा तेभ्यः (विअछउमाण) व्यावृत्तंगतं छम-घातिकर्माणि येभ्यस्ते व्यावृत्तच्छमानस्तेभ्यः (जिणाणं) रागद्वेषजेतृभ्यः (जावयाण) उपदेशदानादिना भव्यसत्त्वै रागादिजापकास्तेभ्यः (तिनाणं) भवसमुद्रं तीर्णेभ्यः (तारयाणं) सेवकानां तारकेभ्यः (बुद्धाणं) सर्वतत्वबुद्धेभ्यः (बोहयाणं) अन्येषां बोधकेभ्यः (मुत्ताणं) मुक्तेभ्यः कर्मपञ्जरात् (मोअगाणं) सेवकानां मोचकेभ्यः (सवणं) सर्वज्ञेभ्यः (सबदरिसीणं) सर्वदर्शिभ्यः (सिव) निरुपद्रवं (अयलं) दीप अनुक्रम द्वितियम् व्याख्यानं आरभ्यते ... अत्र शक्रस्तव-स्तोत्रस्य शेष-वर्णनं वर्तते ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] .......... मूलं [१५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५] गाथा ॥१..|| कल्प.सबो- अचलं (अरुअं) अरुजं-रोगरहितं (अणंत) अनन्तं अनन्तवस्तुविषयज्ञानखरूपत्वात् (अक्खयं) क्षयर- शक्रस्तवः व्या०२४ाहितं, साधनन्तत्त्वात् (अवाबाई) याबाधारहितं (अपुणरावित्ति) पुनरावृत्ति:-पुनरागमनं तेन रहितं. सू.१५ एवंविधं (सिद्भिगइनामधेयं) सिद्धिगतिनामकं (ठाणं संपत्ताणं) यत्स्थान तत्सम्पातेभ्यः (नमो जिणाणं) ॥२२॥ नमो जिनेभ्यो (जिअभयाण) जितभयेभ्यः, एवं सर्वजिनान्नमस्कृत्याथ शक्रः श्रीवीरं नमस्करोति-(नमोऽत्थु-1॥ ण समणस्स भगवओ महावीरस्स) नमोऽस्तु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पुवतित्थयरनिहिस्स) पूर्व-18 तीर्थङ्करैः निर्दिष्टस्य (जाव संपाविउकामस्स) यावत् सिद्धिगतिनामक स्थान सम्प्राप्तुकामस्य, श्रीवीरो हि |अथ मुक्तिं यास्यतीत्येवं विशेषणं, इमानि सर्वाण्यपि विशेषणानि चतुर्थ्यर्थषष्ट्येकवचनान्तानि ज्ञेयानि, (वंदामि गं भगवंतं तत्थगयं इहगए) वन्दे अहं भगवन्तं तत्रगतं-देवानन्दाकुक्षौ स्थितं इत्यर्थः, अत्र स्थितोऽहं (पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयंति कट्ठ) पश्यतु मां भगवान् तत्र स्थित इह स्थित इति उक्त्वा (समणं भगवं महावीरं) श्रमणं भगवन्तं महावीरं (वंदा नमसइ) वन्दते नमस्यति (वंदित्ता नमंसित्ता) वन्दित्वा नमस्थित्वा (सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे सन्निसणे) पूर्वाभिमुखः सिंहासने सन्निपण उपविष्ट इत्यर्थः (तए णं तस्स सकस्स देविंदस्स देवरन्नो) ततः तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवानां राज्ञः ॥२२॥ (अयमेआरूवे) अयं एतद्रूपः (अम्भत्थिए) आत्मविषप इत्यर्थः (चिंतिए) चिन्तात्मक: (पस्थिए)। प्रार्थिता-अभिलाषरूपः (मणोगए) मनोगतो, न तु वचनेन प्रकाशितः, इदृशः (संकप्पे) संकल्पो-विचारः दीप अनुक्रम janelbanyang ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१६] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१६] Jan Education i दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ २ ] ............ मूलं [१६] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: (समुप्पजित्था ) समुत्पन्नः ॥ (१५) | कोऽसौ इत्याह- ( न खलु एअं भूअं ) न निश्चयेन एतद् भूतं अतीतकाले ( न भवं ) न भवति एतत्, वर्त्तमानकाले ( न भविस्सं ) एतत् न भविष्यति आगामिनि काले, किं तदित्याह -- (जन्नं अरहंता वा ) यत् अर्हन्तो वा (चक्कवही वा) चक्रवर्त्तिनो वा (बलदेवा वा ) बलदेवा वा ( वासुदेवा वा ) वासुदेवा वा (अंतकुलेसु वा ) अन्त्यकुलेषु शुद्रकुलेषु इत्यर्थः (पंतकुलेसु वा ) प्रान्तकुलेषुअधमकुलेषु (तुच्छ कुलेसु वा) तुच्छा:- अल्पकुटुम्बास्तेषां कुलेषु वा (दरिद्दकुलेसु वा ) दरिद्रा - निर्धनास्तेषां कुलेषु वा (किविणकुलेस वा) कृपणाः - अदातारस्तेषां कुलेषु वा (भिवखागकुलेसु वा ) भिक्षाका :- तालाचरास्तेषां कुलेषु वा ( माहणकुलेसु वा ) ब्राह्मणकुलेषु वा, तेषां भिक्षुकत्वात्, एतेषु ( आयाइंसु वा ) आगता अतीतकाले ( आयाइति वा ) आगच्छन्ति वर्तमानकाले ( आयाइस्संति वा ) आगमिष्यन्ति अनागतकाले, एतन्न भूतमित्यादियोगः ॥ (१६) । तर्हि अर्हद्रादयः ४ केषु कुलेषु उत्पद्यन्ते ? इत्याह- ( एवं खलु ) एवं अनेन प्रकारेण खलु निश्चये (अरहंता वा ) अर्हन्तो वा (चक्कवही वा ) चक्रवर्त्तिनो वा ( बलदेवा वा ) बलदेवा वा (वासुदेवा वा वासुदेवा वा (उग्गकुलेसु वा ) उग्राः - श्री आदिनाथेन आरक्षकतया स्थापिता जनाः तेषां कुलेषु (भोगकुलेसु वा ) भोगाः- गुरुतया स्थापिताः तेषां कुलेषु ( रायन्नकुलेसु वा ) राजन्पाः - श्री ऋषभदेवेन मित्रस्थाने स्थापिताः तेषां कुलेषु (इक्खागकुलेसु वा ) इक्ष्वाका: श्रीऋषभदेववंशोद्भवाः तेषां कुलेषु (खतियकुलेसु वा ) क्षत्रियाः-श्रीआदिदेवेन प्रजालोकतया स्थापिताः तेषां कुलेषु (हरिवंसकुलेसु वा) तत्र 'हरि' For File & Fersonal Use Only ~63~ १० १४ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१७] कल्प. सुबो व्या० २ ॥ २३ ॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ २ ] ............ मूलं [१७] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्ति: : ति पूर्वभववैरिसुरानीत हरिवर्षक्षेत्रयुगलं तस्य वंशो हरिवंशस्तत्कुलेषु (अन्नयरेसु वा ) अन्यतरेषु वा (तह|प्पगारेसु विमुद्धजाइकुलवंसेसु) विशुद्धे जातिकुले यत्र एवंविधेषु वंशेषु तत्र जाति:- मातृपक्षः कुलंपितृपक्षः, इदृशेषु कुलेषु ( आयाइंस वा ) आगता अतीतकाले ( आयाइति वा ) आगच्छन्ति वर्त्तमानकाले ( आयाइस्संति वा ) आगमिष्यन्ति अनागतकाले, न तु पूर्वोकेषु ॥ ( १७ ) ॥ तर्हि भगवान् कथं उत्पन्न ? इत्याह--( अत्थि पुण एसेऽवि भावे ) अस्ति पुनः एषोऽपि भावो भवितव्यताख्यः (लोगच्छेरयभूए) लोके आश्चर्यभूतः (अनंताहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं) अनन्तासु उत्सर्पिण्यंवसर्पिणीषु (विइयंताहिं समुप्पज्जइ) व्यतिक्रान्तासु इदृशः कञ्चित्पदार्थ उत्पद्यते, तत्रास्यां अवसर्पिण्यां इदृशानि दश आश्चर्याणि जातानि यथावसग्ग १ गम्भहरणं २ इत्थीतित्थं ३ अभाविआ परिसा ४ । कण्हस्स अवरकंका ५ अवयरणं चंदसुराणं ६ ॥ १ ॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती ७ चमरुप्पाओ ८ अ अट्ठसय सिद्धा ९ । अस्संजयाण पूआ १० दसवि अणतेण कालेणं ॥ २ ॥ व्याख्या- 'उवसग्गन्ति उपसर्गा-उपद्रवाः, ते हि श्रीवीरस्वामिनः छद्मस्थावस्थायां अग्रे वक्ष्यमाणा बहवोऽभवन् किञ्च - अस्य भगवतः केवल्यवस्थायां अपि स्वप्रभावप्रशमित सर्वोपद्रवस्यापि स्वशिष्याभासेन गोशालकमात्रेणापि उपद्रवः कृतः तथाहि एकदा श्रीवीरो विहरन् श्रावस्त्यां समवसृतः, गोशालकोऽपि जिनोऽहं इति लोके ख्यापयन् तत्रागतः, ततो द्वौ जिनौ श्रावस्त्यां वर्तते इति लोके प्रसिद्धिर्जाता, तां श्रुखा श्रीगौतमेन भगवान् पृष्टः खामिन्! कोऽसौ द्वितीयो जिन इति खं ख्यापयति ?, श्रीभगवानुवाच ... अथ दश- आश्चर्याणां वर्णनं क्रियते For Pile & Fersonal Use On ~64~ अर्हदायुत्पत्तिवि चारः सू. १६-१८ २० २५ ॥ २३ ॥ २८ january.org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१८] Jan Education int दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [२]........... मूलं [१८] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: गौतम ! नायं 'जिनः, किंतु शरवणग्रामवासी मङ्खलेः सुभद्राभार्यायां गोबहुलब्राह्मणगोशालायां जातत्वात् गोशालनामा अस्माकं एव शिष्यीभूतोऽस्मत्त एवं किञ्चिदू बहुश्रुतीभूतो मुधा खं जिन इति ख्यापयति, ततः सर्वतः प्रसिद्धां इमां वार्ता आकर्ण्य रुष्टो गोशालो गोचरचर्यागतं आनन्दनामानं भगवच्छिष्यं जगाद्-भो आनन्द ! एकं दृष्टान्तं शृणु, यथा- केचिद्वणिजो धनोपार्जनाथ विविधक्रयाणकपूर्णशकटाः परदेशं गच्छन्तोऽरण्यं प्रविष्टास्तत्र जलाभावेन तृषाकुला जलं गवेषयन्तः चत्वारि वल्मीकशिखराणि पश्यन्ति स्म, तत स्तैरेकं शिखरं स्फोटितं, तस्माद्विपुलं जलं निर्गतं, तेन जलेन गतपिपासाः पयःपात्राणि पूरितवन्तः, तत एकेन वृद्धेनोक्तं सिद्धं अस्माकं समीहितं अथ मा स्फोटयन्तु द्वितीयं शिखरं इति निवारिता अपि द्वितीयं स्फोटयामासुस्तस्माच्च सुवर्ण प्राप्तवन्तः तथैव वृद्धवारिता अपि तृतीयं स्फोटितवन्तस्तस्माद्रनानि प्राप्य तथैव बहुवारिता अपि लोभान्धाश्चतुर्थं अपि स्फोटयन्ति स्म, तस्माच प्रादुर्भूतेन दृष्टिविषसर्पेण सर्वेऽपि खदृष्टिपातेन पञ्चत्वं प्रापिताः, स हितोपदेशको वणिक् तु न्यायित्वात् आसन्नदेवतया स्वस्थाने मुक्तः, एवं तव धर्माचार्योऽपि एतावत्या खसम्पदा असन्तुष्टो यथातथाभाषणेन मां रोषयति, तेनाहं खतपस्तेजसा भक्ष्यामि, ततस्त्वं शीघ्रं तत्र गत्वा एनं अर्थं तस्मै निवेदय, त्वां च वृद्धवणिजमिव हितोपदेशकत्वात् जीवन्तं रक्षिष्यामीति श्रुत्वा भीतोऽसौ मुनिर्भगवदग्रे सर्व व्यतिकरं कथितवान् ततो भगवता उक्तं-भो आनन्द ! शीघ्रं त्वं गौतमादीन् मुनीन् कथय यत् एष गोशाल आगच्छति न केनास्य For Pride & Personal Use O ~65~ १० १४ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [PC] कल्प. सुषो व्या० २ ॥ २४ ॥ Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ २ ] ............ मूलं [१८] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: संभाषणं कर्त्तव्यं इतस्ततः सर्वेऽपसरन्तु, ततस्तैस्तथाकृते गोशाल आगत्य भगवन्तं अवादीत् भो काश्यप ! किमेवं वदसि यदयं गोशालो मङ्गलिपुत्र इत्यादि, स तव शिष्यस्तु मृतः अहं तु अन्य एव परीषहसहनसमर्थं तच्छरीरं ज्ञात्वा अधिष्ठाय स्थितोऽस्मि, एवं च भगवतिरस्कारं असहमानी सुनक्षत्रसर्वानुभूती अनगारौ मध्ये उत्तरं कुर्वाणी तेन तेजोलेश्यया दग्धौ स्वर्ग गती, ततो भगवता उक्तं-भो गोशाल ! स एव त्वं नान्यो, सुधा किं आत्मानं गोपायसि ? न ह्येवं आत्मा गोपयितुं शक्यः, यथा कश्चिचौर आरक्षकैर्दृष्टोऽङ्गुल्या तृणेन वा आत्मानमाच्छादयति स किं आच्छादितो भवति १, एवं च प्रभुणा यथास्थितेऽभिहिते स दुरात्मा भगवदुपरि तेजोलेश्यां मुमोच सा च भगवन्तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य गोशालकशरीरं प्रविष्टा, तथा च दग्धशरीरो विविधां वेदनां अनुभूय सप्तमरात्रौ मृतः, भगवानपि तस्यास्तापेन षण्मासीं यावल्लोहितवचबाधां अनुभूतवान् तदेवं नामस्मरणशमित सकलदुःखस्य भगवतोऽप्येवं यदुपसर्गस्तदाश्चर्यं (१) 'गन्भहरणं' ति गर्भस्य हरणं- उदरान्तरमोचनं तत् कस्यापि जिनस्य न भूतपूर्वं श्रीवीरस्य जातं इत्याश्वर्यं २ 'इत्थीतित्थ' न्ति १ कर्मेदमात्रजन्येयं न गोशालक तेजोलेश्योद्भवेति तु सूत्रानवबोधत एव । २ यथा महीजिनस्य स्त्रीत्वेन प्रतिमादि न क्रियते आश्चर्यरूपत्वात्तस्य तद्वदिदमपि न कल्याणकतामञ्चति, न च स्थानवस्तुप्रभृतिभिः स्पष्ठे व्यापके व्याख्याने व्याप्यकल्याणकन्याख्यानस्य ग्रहणं बुद्धिमत्तामर्ह, स्पष्टं चोक्तं कल्याणकपरिगणनायां वीरस्य च्युतिजन्मदीक्षा केवलमोक्षरूपाणां पञ्चकमेव कल्याणानां पञ्चाशके चान्द्रकुलीनाभयदेवसूरिभिः For File & Personal Use O ~66~ अर्हदाधुउत्पत्तिवि चारे आसदशकं २० २४ ॥ २४ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ||१..|| तीर्थकरा हि भगवन्तः पुरुषोत्तमा एव भवति, अत्रावसर्पिण्यां च मिथिलापतिकुम्भराजस्य पुत्री मल्लिनाम्नी 8 एकोनविंशतितमजिनत्वेनोत्पन्ना तीर्थ प्रवर्तितवतीति आश्चर्य (३) 'अभाविया परिस'त्ति अभाविता पर्षद, भगवतो हि देशना कदापि निष्फला न भवति, अत्र च समुत्पन्नकेवलेन श्रीवर्धमानखामिना प्रथमसमव-| सरण एव देशना दत्ता, न च तया कस्यापि विरतिपरिणामो जात इत्याश्चर्य (४) 'कण्हस्स'त्ति कृष्णस्यनवमवासुदेवस्य द्रौपदीनिमित्तं अपरकङ्कागमनं आश्चर्य, तच्चैवं-पुरा किल पाण्डवभार्यया द्रौपद्या असंयतत्वान्नारदस्य अभ्युत्थानादि न कृतं, तेन च रुष्टेन तस्याः कष्टे पातनार्थ धातकीखण्डभरते अपरक राजधानीप्रभोः पश्चोत्तरस्य स्त्रीलुब्धस्य पुरतो रूपवर्णनं कृतं, तेनापि स्वमित्रदेवेन द्रौपदी स्वगृहं आना|यिता, इतश्च पाण्डवमात्रा कुत्या विज्ञपितेन कृष्णेन द्रौपदीगवेषणव्यग्रेण नारदमुखादेव स समाचारो लब्धः, ततः सोऽपि आराधितसुस्थितदेवताप्रदत्तमार्गो द्विलक्षयोजनायाम लवणसमुद्रं अतिक्रम्य अपरकङ्का गतः, तत्र च तर्जितपाण्डवं पद्मोत्तरं नरसिंहरूपकरणेन विजित्य द्रौपदीवचसा जीवन्तं मुक्त्वा च द्रौपद्या| सह पश्चाद्वलितः, बलमानश्च शङ्ख आपूरितवान् , तच्छब्दं श्रुत्वा च तन्त्र विहरमानमुनिसुव्रतजिनवचनेन कृष्णं आगतं ज्ञात्वा मिलनोत्सुकः कपिलवासुदेवोऽपि जलधितटमुपेत्य शङ्ख आपूरितवान् , ततो मिथः शङ्खशब्दौ मिलितो, ततोऽस्यां अवसर्पिण्यां कृष्णस्य अपरकङ्कागमनं आश्चर्य (५) 'अवयरणं चंदसूराणति कायत कौशाम्व्यां भगवतः श्रीवर्धमानस्वामिनो वन्दनार्थं मूलविमानेन सूर्याचन्द्रमसौ उत्तीणों तदाश्चर्य (६) Sooraemrakaenerage20200302230 दीप अनुक्रम [१८] ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [१८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८ गाथा ||१..|| कल्पना हरिवंसकलुप्पत्ति'सि सा कुत्रचिन्नगरे केनचिद्राज्ञा वीरकशालापतिभार्या वनमालानानी सुरूपेति आश्चर्यदव्या०१खान्तःपुरे क्षिसा, स च शालापतिस्तस्या वियोगेन विकलो जातो, यं कश्चन पश्यति तं वनमाला वनमालेति | शकम् जल्पयति, एवं च कौतुकाक्षिप्तैरनेकै.कैः परिवृतः पुरे भ्रमन् वनमालया समं क्रीडता राज्ञा दृष्टः, ततश्चा-1 ॥२५॥ स्माभिरनुचितं कृतं इति चिन्तयन्तौ तौ दम्पती तत्क्षणाद्विद्युत्पातेन मृतौ हरिबर्षक्षेत्रे युगलित्वेन समुत्पन्नौ, शालापतिश्च ती मृतौ श्रुत्वा आः पापिनोः पापं लग्नं इति सावधानोऽभूत्, ततोऽसौ वैराग्यात्तपस्तप्त्वा 18 व्यन्तरोऽभूत, विभङ्गज्ञानेन च तौ दृष्ट्वा चिन्तितवान्-अहो इमी मद्वैरिणी युगलसुखं अनुभूय देवो भविपाध्यतस्तत इमी दुर्गती पातयामीति विचिन्त्य खशक्त्या संक्षिप्तदेही ती इहानीतवान्, आनीय च राज्य दत्त्वा सस व्यसनानि शिक्षिती, ततस्तौ तथाभूतौ नरकं गतौ, अथ तस्य वंशो हरिवंशः, अत्र युगलिकस्यात्रानयनं शरीरायुःसंक्षेपणं नरकगमनं चेति सर्व आश्चर्य (७) 'चमरुप्पाओ'ति चमरस्य-असुरकुमारराजस्य उत्पाता, स चैवं-पूरणनामा ऋषिस्तपस्तप्त्वा चमरेन्द्रतया उत्पन्न:, स च नवोत्पन्नः शिरस्थं सौधर्मेन्द्रं विलोक्य कोपाक्रान्तः परिघं गृहीखा श्रीवीरं शरणीकृत्य सौधर्मेन्द्रात्मरक्षकांनासयन सौधर्माव-RI तंसकविमानवेदिकायां पादं मुक्त्वा शक्रं आक्रोशयामास, ततो रुष्टेन शक्रेण जाज्वल्यमानं वजं तं प्रति मुक्तं, ततोऽसौ भीतो भगवत्पादयो नः, ततो ज्ञातव्यतिकरण इन्द्रेण सहसाऽऽगत्य चतुरङ्गुलाप्रासं वजं गृहीतं, भगवत्प्रसादान्मुक्तोऽसीत्युक्त्वा चमरो मुक्तः, इयं चमरस्योर्ध्वगमनं आश्चर्य (८) 'अट्ठसयत्ति दीप अनुक्रम [१८] SANEducationing ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ||१..|| एकस्मिन् समये उत्कृष्टावगाहनावन्तः अष्टाधिकशतमिता न सिध्यन्ति, ते च अस्यां अवसर्पिण्यां सिद्धाः यतः-'वृषभो १ वृषभस्य सुता९९.भरतेन विवर्जिताच नवनवतिः। अष्टौ भरतस्य सुताः१०८ शिवं गता एकस-18 मयेन ॥१॥ (९) 'असंजयाणं ति असयंता:-असंयमवन्तः आरम्भपरिग्रहमसक्तास्तेषां पूजा, |संयता एव सर्वदा पूज्यन्ते, अस्यां अवसर्पिण्यां तु नवमदशमजिनयोरेन्तरे असंयतानां अपि ब्राह्मणादीनां पूजा प्रवृत्तेति आश्चर्य (१०) इमानि दशापि आश्चर्याणि अनन्तकालातिक्रमे अस्यां अवसर्पिण्यां जातानि, एवं च कालसाम्यात् |शेषेष्वपि चतुर्यु भरतेषु पञ्चसु ऐरवतेषु च प्रकारान्तरेण दश आश्चर्याणि ज्ञेयानि । अथ दशानां आश्चर्याणां तीर्थव्यक्ति: अष्टाधिकशतसिद्धिगमनं श्रीऋषभतीर्थे १ हरिवंशोत्पत्तिः शीतलतीर्थे २ अपरककागमनं श्रीनेमितीर्थे ३ स्त्रीतीर्थकरी मल्लितीर्थे ४ असंयतपूजा सुविधिजिनतीर्थे ५, शेषाणि च उपसर्ग १ गर्भापहारINR अभाविता पर्षत् ३ चमरोल्पात ४ चन्द्रसूर्यावतरणलक्षणानि ५ पञ्च आश्चर्याणि श्रीचीरतीर्थे, एकं तावत् आश्चर्य इदं, अपरञ्च-(नामगुत्तस्स वा कम्मस्स) नाना गोत्रं इति प्रसिद्धं यत्कर्म गोत्राभिधानं करेंत्यर्थः तस्य, किंविशिष्टस्य ? ( अक्खीणस्स ) अक्षीणस्य, स्थितेः अक्षयेण ( अवेइअस्स) अवेदितस्य, रसस्य |अपरिभोगेन (अणिजिण्णस्स) अनिर्जीर्णस्य, जीवप्रदेशेभ्योऽपरिशटितस्य, इदृशस्य गोत्रस्य-नीचैर्गोत्रस्य(उदएणं) उदयेन भगवान् ब्राह्मणीकुक्षी उत्पन्न इति योगः। दीप अनुक्रम [१८] JABEnication IOUjanelbanaras ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [१८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प.सुबोव्या०१ ॥२६॥ [१८] गाथा ||१..|| तच नीचर्गानं भगवता स्थूलसप्तविंशतिभवापेक्षया तृतीयभवे बद्धं, तथाहि-प्रथमभये पश्चिममहाविदेहे श्रीवीरस नयसारनामा ग्रामपतिः, स चैकदा काष्ठनिमित्तं वनं गतः, तत्र मध्याहे भोजनसमये सार्थभ्रष्टान् साधून दृष्ट्वा २७ भवाः हष्टश्चिन्तितवान-अहो मे भाग्य! यदस्मिन् समये अतिथिसमागमः, ततः परमप्रमोदेन साधवोऽशनपाना-181 दिभिः प्रतिलम्भिताः, पश्चाभोजनानन्तरं साधून नत्वा उवाच-चलन्तु महाभागा! मार्ग दर्शयामि, ततो मार्गे गच्छद्भिः साधुभियोग्योऽयमिति धर्मोपदेशेन सम्यक्तवं प्रापितः, अन्ते च नमस्कारस्मरणपूर्व मृत्वा द्वितीयभवे सौधर्मदेवलोके पल्योपमायुर्देचो जातः, ततश्युत्वा तृतीयभषे मरीचिनामा भरतचक्रवर्तिपुत्रो जाता, स च प्राप्तवैराग्यः श्रीऋषभदेवपार्श्वे प्रवजितः स्थविरपाचे एकादशाङ्गीं अधीतच, एकदा च ग्रीष्मकाले तापादिपीडितश्चिन्तितवान्-अतिदुष्करोऽयं संयमभारो मया निवाई न शक्यते गृहे गमनं च सर्वथा अनचितं इति ध्यात्वाऽभिनवं वेषं रचितवान्, तथाहि-श्रमणास्त्रिदण्डविरताः अहं तु न तथा इति मम निदण्डं चिह्नमस्तु, श्रमणा द्रव्यभावाभ्यां मुण्डाः अहं तु न तथेति मम शिरसि चूडा क्षुरमुण्डन चास्तु, तथा श्रमणानां सर्वेभ्यः प्राणातिपातादिभ्यो विरतिर्मम तु स्थूलेभ्यः साऽस्तु, शीलसुगन्धाः साधवो २५ नाहं तथेति मम चन्दनादिविलेपनमस्तु, तथा अपगतमोहाः श्रमणाः अहं तु मोहाच्छादित इति मे छन्त्रकं ॥ २६॥ अस्तु, श्रमणा अनुपानधरणा: मम तु चरणयोरुपानद् अस्तु, श्रमणा निष्कषायाः अहं तु सकषाय इति इति मम काषाय्यं वस्त्रं अस्तु, श्रमणाः स्नानाद्विरताः मम तु परिमितजलेन लानं पानं चास्तु, एवं खवुझ्या दीप अनुक्रम [१८] ... अथ भगवन्त महावीरस्य भावानां वर्णनं आरभ्यते ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [PC] Jan Education in! दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [२]........... मूलं [१८] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: परिव्राजकधर्म विकल्पितवान्, ततस्तं विरूपवेषं विलोक्य सबै जना धर्म पृच्छन्ति तत्पुरश्च साधुधर्म प्ररूपयति देशनाशक्त्या च अनेकान् राजपुत्रादीन् प्रतिबोध्य भगवतः शिष्यतथा ददाति भगवता सहैव व विहरति, एकदा भगवान् अयोध्यायां समवसृतस्तंत्र वन्दनार्थं आगतेन भरतेन पृष्टं खामिन्! अस्यां पर्षद कोऽपि भरतक्षेत्रेऽस्यां चतुर्विंशतिकायां भाविजिनोऽस्ति ?, भगवानुवाच भरत! तव पुत्रोऽयं मरीचिनामा अस्यां अवसर्पिण्यां वीरनामा चतुर्विंशस्तीर्थकृत् १ विदेहे मूकाराजधान्यां प्रियमित्रनामा चक्री २ अत्रैव भरते प्रथमो वासुदेवश्च ३ भविष्यतीति श्रुत्वा हर्षितो भरतो गत्वा त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य मरीचिं वन्दित्वा अवदत्-भो मरीचे! यावन्तो लाभास्ते त्वयैय लब्धाः, यतस्त्वं तीर्थंकरो वासुदेवश्चक्री च भविष्यसि, अहं च तव पारिव्राज्यं न वन्दे किंतु त्वं चरमतीर्थंकरो भविष्यसीति वन्दे इति पुनः पुनः स्तुत्वा भरतः स्वस्थानं गतः, मरीचिरपि तत् श्रुत्वा हर्षोद्रेकात्रिपदीं आस्फोव्य नृत्यन्निदं अवोचत्- 'प्रथमो वासुदेवोऽहं कायां चक्रवहम् । चरम स्तीर्थराजोऽहं ममाही उत्तमं कुलम् ॥ १ ॥ आयोऽहं वासुदेवानां पिता मे चक्रवर्तिनाम् । पितामहो जिनेन्द्राणां ममाहो उत्तमं कुलम् ॥ ॥ २ ॥ इत्थं च मदकरणेन नीचे बद्धवान्, यतः - 'जाति १ लाभ २ कुलै ३ श्वर्य: ४ वल ५ रूप ६ तपः ७ श्रुतैः ८ । कुर्वन् मदं पुनस्तानि, हीनानि लभते जनः ॥ ३ ॥ ततो भगवति निर्वृते प्राग्वज्जनान् प्रतिबोध्य साधूनां शिष्यान् कुर्वन् तैः सह विहरति, एकदा च ग्लानीभूतस्य तस्य न कोऽपि वैयावृत्यं करोति, तदा स चिन्तितवान्- अहो एते बहुपरिचिता अपि पर For Pride & Personal Use On ~71~ १० १४ janelbary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ||१..|| कल्प.सुयो-1 कीया एव निर्ग्रन्धाः, ततो यदि नीरोगो भवामि तदैक वैयावृत्यकरं शिष्यं करोमीति, क्रमेण च नीरोगोश्रीवीरख व्या०१ जातः, एकदा कपिलनामा राजपुत्रो देशनां निशम्य प्रतिबुद्धो मरीचिना प्रोक्तो-भो कपिल! याहि साधुस-18 २७ भवाः ॥२७॥ मीपे चारित्रं गृहाण, तदा कपिलेन प्रोक्तं-खामिन्! भवद्दर्शने एवं व्रतं ग्रहिष्यामि, तदा मरीचिरुवाच-भो। कपिल ! श्रमणास्त्रिदण्डविरताः अहं तु त्रिदण्डवानित्यादि सर्व खरूपं कथितं, तथापि स बहुलकर्मा चारिअपराङ्मुखः प्रोवाच-किं भवदर्शने सर्वथा धर्मों नास्ति ?, तदा मरीचिना एष मम योग्यः शिष्य इति विचिन्त्य उक्तं-कविला इत्थंपि इहयंपि' कपिल ! जैनमार्गेऽपि धर्मोऽस्ति मम मार्गेऽपि विद्यते, तत् श्रुत्वा च कपिलस्तत्पाचे प्रवजितः, मरीगिरपि अनेन उत्सूचवचनेन कोटाकोटिसागरममाणं संसारं उपोजयामास, यत्तु किरणावलीकारेण प्रोक्तं 'कविला इत्यपि इहयंपीति' वचनं उत्सूत्रमिश्रितमिति, तदुत्सूत्रभाषिणां नियमाव-18 नन्तः संसार इति खमतस्थापनरसिकतयेति ज्ञेयं, इदं हि तन्मतं-उत्सूत्रभाषिणस्तावनियमादनन्तः एव संसारः स्यात्, यदि च इदं मरीचिवचनमुत्सूत्रमित्युच्यते तदा अस्यापि अनन्तः संसारः प्रसज्यते न चासी सम्पनस्तदिदं उत्सूत्रमिश्रितमिति, तच्चायुक्तं, उत्सूत्रभाषिणां अनन्त एव संसार इति नियमाभावात्, श्रीभगवत्यादिबहुग्रन्थानुसारेण उत्सूत्रभाषिशिरोमणेर्जमालिनिलवस्थापि परिमितभवत्वदर्शनात्, न चोत्सू ॥२७॥ मिश्रस्वकथनेऽपि अस्य मरीचिवचनस्य उत्सूत्रत्वं अपगच्छति, विषमिश्रितान्नस्यापि विषत्वमेवेत्यलं | 8 २७ esepersececeeeeeeeesese दीप अनुक्रम [१८] Parijanalbornerg ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] ........... मूलं [१८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| प्रसङ्गेन, ततोऽनालोचिततत्कर्मा चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि आयुः परिपाल्य मृत्वा चतुर्थे भवे ब्रह्मलोके दशसाग|रस्थितिः सुरः सञ्जातस्ततश्च्युतः पञ्चमे भवे कोल्लाकसन्निवेशे अशीतिलक्षपूर्वायुर्विप्रो भूत्वा विषयासक्तो निःशूकः प्रान्ते त्रिदण्डीभूत्वा बहुकालं संसारे भ्रान्तः, ते हि भवाः स्थूलभवमध्ये न गण्यन्ते, ततः पहे18 भवे स्थूणायां नगयों द्वासप्ततिलक्षपूर्वायुः पुष्पनामा द्विजस्त्रिदण्डीभूत्वा मृतः ससमे भये सौधमें कल्पे मध्यस्थितिः सूरोऽभूत् , ततब्युतोऽष्टमे मवे चैत्यसन्निवेशे षष्टिलक्षपूर्वायुः अग्निद्योतो नाम विपत्रिदण्डी-18 भूत्वा मृतो नवमे भवे ईशानदेवलोके मध्यस्थितिका सुरः, ततश्युतो बशमे अवे मन्दरसन्निवेशे षट्पञ्चाश-1, लक्षपूर्वायुरनिभूतिनामा ब्राह्मणः अन्ते त्रिदण्डीभूत्वा एकादशे भवे तृतीयकल्पे मध्यस्थितिका सुरः, तत-12 अयुतो दावशे भवे श्वेताम्ब्यां नगर्यां चतुश्चत्वारिंशल्लक्षपूर्वायुर्भारयाजनामा विप्रस्त्रिदण्डीभूत्वा मृत्वा प्रयो वो भवे माहेन्द्रकल्पे मध्यस्थितिः सुरः, ततश्युतः कियत्कालं संसारे भ्रान्त्वा चतुरंशे भये राजगृहे चतुर्ति-18 शल्लक्षपूर्वायुः स्थावरो नाम विप्रस्त्रिदण्डीभूत्वा मृतः पश्चदशे भवे ब्रह्मलोके मध्यस्थितिको देवः योशे भवे| कोटिवर्षायुर्विश्वभूतिनामा युवराजपुत्रः सम्भूतिमुनिपादान्ते चारित्रं गृहीत्वा वर्षसहस्रं दुस्तपं तपस्तप्यमानो मासोपवासपारणायां मथुरायां गोचरचर्यार्थ गतः, तत्र एकया धेन्वा तपःकृशत्वाद्भुवि पातितः, तद् दृष्ट्वा च 181 १ दुर्भाषितेनैकेनेत्याधुपदेशमालायां, कविलेत्यादेः निरुपचरितो जैनधर्मे अत्र तु सोपचरित इति मलयगिरिपादाः, जमालेमतान्तरे णानन्ता भवा उक्ताः वयं लोकप्रकाशे दीप अनुक्रम [१८] Enabone P ujanutbayog ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [PC] कल्प. सुबोव्या० २ ॥ २८ ॥ Jannication in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ २ ] ............ मूलं [१८] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: परिणयनार्थं तत्रागतेन विशाखनन्दिनाम्ना पितृव्यपुत्रेण हसितः सन् कुपितस्तां धेनुं शृङ्गयोर्गृहीत्वा आकाशे भ्रमितवान्, निदानं चैवं कृतवान्- यदनेन उग्रतपसा भवान्तरे भूयिष्ठवीर्यो भूयासं, ततो मृत्वा सप्तदशे भवे महाशुक्रे उत्कृष्टस्थितिः सुरः ततश्च्युतः अष्टादशे भवे पोतनपुरे खपुत्रीकामुकस्य प्रजापते राज्ञो मृगावत्याः पुत्र्याः पत्न्याञ्च कुक्षौ चतुरशीतिलक्षवर्षायुस्त्रिष्टष्टनामा वासुदेवः तत्र बाल्येऽपि प्रतिवासुदेवशालिक्षेत्रविप्रकारिणं सिंहं विमुक्तशस्त्रः कराभ्यां विदारितवान् क्रमेण च वासुदेवत्वं प्राप्तः, एकदा च शय्यापालक आदिष्टवान् पर्वस्मासु निद्राणेषु एते गायना गीतगानान्निवारणीयाः, तेन च गीतरसासक्तेन वासुदेवे निद्राणेऽपि ते न निवारिताः, ततः क्षणात् प्रतिबुद्धेन वासुदेवेन आः पाप ! मदाज्ञापालनादपि तव गीतश्रवणं प्रियं लभख | तर्हि तत्फलं इत्युक्तवा तत्कर्णयोस्तप्तं त्रपु क्षिप्तवान् तेन च कर्णयोः कीलकप्रक्षेपकारणं कर्मोपार्जितवान् एवं च कृतानेकदुष्कर्मा ततो मृत्वा एकोनविंशे भवे सप्तमनरके नारकतया उत्पन्नः, ततो निर्गत्य विंशतितमे भवे सिंहस्ततो मृत्वा एकविंशतितमे भवे चतुर्थनरके, ततो निर्गत्य यहून् भवान् भ्रान्त्वा द्वाविंशे भवे मनुष्यत्वं प्राप्योपार्जितशुभकर्मा त्रयोविंशे भवे मूकायां राजधान्यां धनञ्जयस्य राज्ञो धारिण्या देव्याः कुक्षौ चतुरशीतिलक्षपूर्वायुः प्रियमित्रनामा चक्रवर्ती वभूव स च पोहिलाचार्यसमीपे दीक्षां गृहीत्वा वर्षकोटिं यावत् परि १ जिनभवात् प्राक् षष्ठे भत्रे पोट्टिलकुमार : मृतश्च सहस्रारेऽभूदिति समवाये, उक्तभवग्रहणं विना हि नान्यद्भवग्रहणं षष्ठं श्रूयते भगवत इत्ये तदेव पष्ठभवप्रणतया व्याख्यातमिति वाक्यार्थमनवबुध्य यथारुचि कथनं खाद्यानां न मतिमतां मान्यं, नहि भवद्वयेन कल्याणकालिसंगतिरुचिता For Pile & Ferson Use O ~74~ श्रीवीरस्य २७ भवाः १५ २० २४ ॥ २८ ॥ nebary.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [१८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१..|| पाल्य पसुर्विशतितमे भवे महाशुक्रे देवः, ततश्च्युतः पञ्चविंशे भये इहैव भरतक्षेत्रे छत्रिकायां नगर्या जितशत्रुनृपतेर्भद्रादेव्याः कुक्षी पञ्चविंशतिवर्षलक्षायुनन्दनो नाम पुत्रः, स च पोटिलाचार्यपाचे चारित्रं गृहीत्वा | यावज्जीवं मासक्षपणैविशतिस्थानकाराधनेन च तीर्थकरनामकर्म निकाच्य वर्षलक्षं चारित्रपर्यायं परिपाल्य || मासिकया संलेखनया मृत्वा षड्विंशतिसमे भवे प्राणतकल्पे पुष्पोत्तरावतंसकविमाने विंशतिसागरोपमस्थितिको देवो जातः, ततश्च्युत्वा तेन मरीचिभवबद्धेन नीचैर्गोत्रकर्मणा भुक्तशेषेण ससर्विशे भवे ब्राह्मणकुण्ड-18 ग्रामे नगरे ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः कुक्षी उत्पन्नः, ततः शक्र एवं चिन्तयति (जन्नं अरहंता वा) यत् एवं नीचैर्गोत्रोदयेन अर्हन्तो वा (चकवटी वा) चक्रवर्तिनो वा (बलदेवा वा) बलदेवा वा (वासुदेवा वा) वासुदेवा वा ( अन्तकुलेसुवा) अन्त्याः-शहास्तेषां कुलेषु वा (पन्तकुलेसुवा) प्रान्ता-अधमाचाराः तेषां कुलेषु वा (तुच्छकुलेसु वा) तुच्छा-अल्पकुटुम्बास्तेषां कुलेषु वा (दरिदकुलेसु वा दरिद्रा-निर्धनास्तेषां कुलेषु वा (किविणकुलेसु वा) कृपणा:-अदातारस्तेषां कुलेषु वा (भिकूखागकुलेसु वा) भिक्षाका:-चारणादयस्तेषां कुलेषु वा (माहणकुलेसुचा) ब्राह्मणानां कुलेषु वा (आयाईसुवा) आगता अतीतकाले (आयाइंति धा) आगच्छन्ति वत्तेमानकाले (आयाइस्संति वा) आगमिष्यन्ति अनागतकाले। (कुञ्छिसि ) कुक्षौ (गन्भत्ताए) गर्भतया (वक्कर्मिसु चा) उत्पन्ना वा (वकर्मति वा) उत्पद्यन्ते वा (वकमिस्संति वा) उत्पत्स्यन्ते वा, परं (नो चेवणं) नैव (जोणीजम्मणनिकखमणेणं) योन्या यत् दीप अनुक्रम [१८] ~75~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] .......... मूलं [१९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१९] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-जन्मार्थ निष्क्रमणं तेन (निक्खमिंसु वा ) निष्क्रान्ता वा (निकखमंति वा) निष्कामन्ति वा (निकखमि-नीचगोत्रे. व्या०२ संति वा ) निष्क्रमिष्यन्ति च, अयमर्थ यद्यपि कदाचित् कमोदयेन आश्चर्यभूतस्तुच्छादिकुलेषु अहंदादीनां वजन्मवि. अवतारो भवति परं जन्म तु कदाचिन्न भूतं न भवति न भविष्यति च ॥ (१८)॥ नीचगोत्रो॥ २९॥ RI (अयं च णं) अयं प्रत्यक्षः (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (जंबुद्दीवे दीवे) त्पत्तिः संहजंबूद्वीपे द्वीपे (भारहे वासे) भरतक्षेत्रे (माहणकुंडग्गामे नयरे ) ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे (उसमदत्तस्स माहणस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य ( कोडालसगुत्तस्स) कोडालसगोत्रस्य (भारिपाए भार्यायाः (देवाण-1 दाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुसाए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुञ्छिसि गन्भत्ताए वकंते) कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः ।। (१२)। (तं जीअमेयं) तस्मात् हेतोः जीतं एतत्-आचार एष इत्यर्थः, केषां इत्याह-(तीअपच्चुप्पन्नमणागयाणं) अतीतवर्तमानानागतानां (सकाणं देविंदाणं देवरायाणं) शकाणां% देवेन्द्राणां,देवराजानां, कोऽसौ? इत्याह-यत् (अरिहंते भगवते) अर्हतो भगवतः (तहप्पगारेहितो.) तथाप्रकारेभ्यः (अंतकुलेहितो) अन्तकुलेभ्यः (पंतकुलेहितो) प्रान्तकुलेभ्यः (तुच्छकुलेहितो) तुच्छकु-1 पालेभ्यः (दरिदकुलहितो) दरिद्रकुलेभ्यः (भिक्खागकुलहितो) भिक्षाचरकुलेभ्यः (किविणकुलेहितो कृपण-||२९ ॥ कुलेभ्यः (माहणकुलेहितो ब्राह्मणकुलेभ्यश्चादाय (तहप्पगारेसु) तथाप्रकारेषु (उग्गकुलेसु वा) उग्रकुलेषु वा ( भोगकुलेसु वा ) भोगकुलेषु वा (रायन्नकुलेसु वा) राजन्यकुलेषु वा (नायकुलेसु वा) ज्ञातकुलेषु वा | २८ दीप अनुक्रम [१९] JABEnications ... भगवन्त महावीरस्य गर्भ-संहरण-वृतान्त ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [२०] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२०] गाथा ॥१..|| (खत्तियकुलेसु वा) क्षत्रियकुलेषु वा (हरिवंसकुलेसु वा ) हरिवंशकुलेषु वा (अन्नयरेसु वा ) अन्यतरेषु वा । (तहप्पगारेसु) तथाप्रकारेषु (विसुद्धजाइकुलवंसेसु) विशद्धे जातिकले यत्र इहशेष वंशेषु (जाव रज्ज-I I सिरिं) यावत् राज्यश्रियं (कारेमाणे ) कुर्वत्सु (पालेमाणे) पालयत्सु च ( साहरावित्तए) मोचयितुं इन्द्राणां एषः आचारः, (तं सेयं खलु ममवि) ततः श्रेयः खलु युक्तमेतन्ममापि (समणं भगवं महावीर) श्रमणं भगवन्तं महावीरं ( चरमतित्थयरं ) चरमतीर्थकर (पुब्बतिस्थयरनिदि) पूर्वतीर्थकरैनिर्दिष्टं (माहणकुंडगामाओ नयराओ) ब्राह्मणकुण्डग्रामात् नगरात् ( उसमदत्तस्स माहणस्स) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य (भारियाए) भार्यायाः ( देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दाया: ब्राह्मण्याः (जालंधरसगोत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिओ) कुक्षेमध्यात् (खत्तिअकुंडग्गामे नयरे)क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (नाया-11 ण खत्तिआणं) ज्ञातानां-श्रीऋषभखामिवंश्यानां क्षत्रियविशेषाणां मध्ये (सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य ( कासवगुत्तस्म) काश्यपगोत्रस्य (भारियाए)भार्यायाः(तिसलाए त्रिशलायाः (खत्ति-का ____ १ अत्राह कश्चित् यत् अनेन पूर्वतीर्थकरैर्महावीरस्य गर्भापहारः कल्याणकतया प्रतिपादित इति, तत् अभिनिवेशमहिमानमेव गमयति, यतोऽत्र मोचनार्थकेन संहरणेनान्वयः श्रेयःशब्दस्य, पूर्वतीर्थकर इत्यादीनि तु श्रीवीरविभोविशेषणानि प्रागनेकशः प्रतिपादितानि, २ |संहरणाईताज्ञापनाय, सिद्धार्थस्य नृपत्वं नानेन हन्यते, 'रजेण रहेण मित्याधुक्त: 'चिच्चा रज चिच्चा रटु'मित्यायुक्तेः 'स्फीतमपहाय राज्य'मित्युक्तेश्च न कल्पिता नृपतिता 9009009009999090805 Sradasaeraoe2eBORSearera2020 दीप अनुक्रम [२०] Janemicatonid I dianusbanoos ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [२०] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२०] गाथा ||१..|| कल्प.सुवो- आणीए) क्षत्रियाण्याः (वासिहसगुत्ताए) वाशिष्टसगोत्रायाः (कुञ्छिसि गन्भत्ताए) कुक्षौ गर्भतया संहरणादेव्या०२ (साहरावित्तए) मोचयितुं, तथा-(जेविअ णं से तिसलाए खत्तिआणीए गन्भे) योऽपि च तस्याः त्रिश-IN शःम. ॥३०॥ लायाः क्षत्रियाण्याः गर्भः पुत्रिकारूपः (तंपिअ णं देवाणंदाए माहणीए)तं अपि देवानन्दायाः ब्रामण्याः (जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिसि गम्भत्ताए ) कुक्षौ गर्भतया (साहरावित्तए) मोच-18 यितुं, (तिकट्ठ) इति कृत्वा (एवं संपेहेइ) एवं-पूर्वोक्तं विचारयति (संहिता) विचार्य च (हरिणेगमेसिंग हरिनैगमेषिनामकं (पाइत्ताणीआहिवई ) पदातिकटकाधिपतिं (देवं सहावेइ) देवं आकारयति, (सहावित्ता आकार्य (एवं बयासी) एवं इन्द्रः अवादीत् ।। (२०)॥ किं तदित्याह-(एवं खलु देवाणुप्पिआ!) एवं निश्च येन हे हरिनैगमेषिन् ! (न एअं भूअं) न एतद्भूतं (न ए भब्वं) न एतत् भवति (न एअं भविस्) न एतत् भविष्यति (जन्नं अरिहंता वा) यत् अर्हन्तो वा ( चकवहिवा) चक्रधरा वा (बलदेवा वा) बलदेवा वा (वासुदेवा) वासुदेवा वा (अंतकुलेसु वा) अन्त्यकुलेषु वा (पंतकुलेसु चा) प्रान्ता:-अधमा- २० चाराः तेषां कुलेषु वा (तुच्छकुलेसु वा) तुच्छा:-अल्पकुटुम्बास्तेषां कुलेषु वा (दरिदकुलेसु वा) दरिद्रा:निर्धनास्तेषां कुलेषु वा (किविणकुलेसु वा) कृपणा:-अदातारस्तेषां कुलेषु वा (भिक्खागकुलेसु वा) ॥३०॥ मिक्षाकाः-चारणादयः तेषां कुलेषु वा (माहणकुलेसु वा) ब्राह्मणानां कुलेषु वा (आयाइंसु वा) आगताः || अतीतकाले (आयाइंति वा) आगच्छन्ति वत्तेमानकाले (आयाइस्संति वा) आगमिष्यन्ति अनागतकाले, २४ दीप अनुक्रम [२०] ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] .......... मूलं [२१] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२१] गाथा ॥१..|| (एवं खलु अरहंता वा) अनेन प्रकारेण निश्चयेन अर्हन्तोवा (चक्कवट्टी वा चक्रवर्तिनोवा (वलदेवा वा बलदेवा वाजिनाद्यागRI(वासुदेषाचा वासुदेवा वा (उग्गकुलेसुवा)श्रीऋषभेण आरक्षकतया स्थापिता: उग्राः तेषां कुलेषुषा (भोगकुलेसुर मनआश्चर्य वा) गुरुतया स्थापिताः भोगाः तेषां कुलेषु वा (राइण्णकुलेसु वा)मित्रस्थाने स्थापिता राजन्यास्तेषां कुलेषु । जन्मनोया (खत्तियकुलेसु वा ) प्रजालोकतया स्थापिताः क्षत्रियास्तेषां कुलेषु वा (हरिवंसकुलेसु वा) पूर्ववैरिसुरानी भावः मू. सहरिवर्षक्षेत्रयुगलस्य वंशो हरिवंशस्तस्य कुलेषु वा (अण्णयरेसुवा) अन्यतरेषु वा (तहप्पगारेसु) तथा| २१-२२ 18 प्रकारेषु (विसुडजाइकुलवंसेसु) विशुद्धे जातिकुले यत्र इदृशेषु वंशेषु, मातृपक्षो जातिः पितृपक्षः कुलं PI(आयाइंसुवा) आगता वा (आयाइंति वा) आगच्छन्ति वा (आयाइस्संति वा) आगमिष्यन्ति वा, (२१) ॥ तर्हि भगवान् कथमुत्पन्न ? इत्याह-(अस्थि पुण एसेवि भावे) अस्ति पुनः एषोऽपि भवितव्यतानामपदार्थः (लोगच्छेरयभूए) लोके आश्चर्यभूतः ( अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं । अनन्तासु उत्सपिण्यवसर्पिणीषु (विकताहिं ) व्यतिक्रान्तासु सतीषु (समुप्पजइ) इदृशः कश्चिद्भावः समुत्पद्यते (नाम गुत्तस्स वा) नाना कृत्वा गोत्रस्य, अर्थात् नीचैर्गात्रनामकस्य वेति पक्षान्तरे (कम्मस्स) कर्मणः, किंविशिRष्टस्य ? (अक्खीणस्स) स्थितेः अक्षयेण अक्षीणस्य, पुन: किंवि०१ ( अबेइअस्स) रसस्यापरिभोगेन - अवे-IN दितस्य, पुनः किंवि०१ (अणिजिण्णस्स) अत एव अनिर्जीर्णस्य-आत्मप्रदेशेभ्यः अपृथग्भूतस्य (उदएणं) साउदपेन कृत्वा (जनं अरहंता वा) यल् मीचयोदयेन कृत्वा अर्हन्तो वा (चकवही वा ) चक्रवर्तिनो वा दीप अनुक्रम [२१] कल्प . स. ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२२] कल्प. सुबोव्या० १ ० ॥ ३१ ॥ Jan Education! tresese दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [ २ ] ............ मूलं [२२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: (बलदेवा वा ) बलदेवा वा ( वासुदेवा वा ) वासुदेवा वा ( अंतकुलेसु वा ) अन्त्यकुलेषु वा (पंतकुलेसु वा ) प्रान्तकुलेषु वा (तुच्छकुलेसु वा) तुच्छकुलेषु वा (दरिद्दकुलेसु वा) दरिद्रकुलेषु वा (भिक्खागकुलेसु वा) भिक्षाचरकुलेषु वा (किविणकुलेसु वा ) कृपणकुलेषु वा ( माहणकुलेसु वा ) ब्राह्मणकुलेषु वा ( आयाइंसु वा आगता वा ( आयाइति वा ) आगच्छन्ति वा ( आयाइस्संति वा ) आगमिष्यन्ति वा ( कुच्छिसि ) कुक्षौ ( गभस्ताए ) गर्भतया ( वक्कमिंसु वा ) उत्पन्ना वा (वक्कमंति वा) उत्पद्यन्ते वा (वक्कमिस्संति वा) उत्पत्स्यन्ते वा (नो चेत्र णं) परं नैव (जोणीजम्मणनिक्खमणेणं) योनिमार्गेण जन्मनिमित्तं निष्क्रमणेन कृत्वा (निक्खमिंसु वा) निष्क्रान्ता वा (निक्खमंति वा) निष्क्रामन्ति वा (निक्खमिस्संति वा ) निष्क्रमिष्यन्ति वा ॥ (२२) || (अयं चणं ) अयं प्रत्यक्षः (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (जंबुद्दीचे दीवे) जंबूद्वीपे द्वीपे (भारहे वासे) भरतक्षेत्रे (माहणकुंडग्गामे नयरे ) ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे (उसभदत्तस्स माहणस्स ) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य ( कोडालसगुत्तस्स ) कोडालसगोत्रस्य (भारियाए ) भार्यायाः ( देवाणंदाए माहणीए ) देवानन्द्रायाः ब्राह्मण्याः ( जालंधरसगुत्ताए ) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिसि भत्ताए वकते ) कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः ॥ (२३) ॥ ( तं जीअमेयं) तस्मात् आचार एषः (तीअपच्चुप्पन्नमणागयाणं ) अतीतवर्त्तमानानागतानां ( सकाणं देविंदाणं देवरायाणं ) शक्राणां देवेन्द्राणां देवराजानां (अरिहंते भगवंते ) अर्हतो भगवतः ( तहप्पगारे For Private & Personal Use On ~80~ श्रीवीरागमनं संहर णाचारः सू. २३-२४ २० २५ ॥ ३१ ॥ २८ janelbrary.org Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२४] Jan Educaton दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [२]........... मूलं [२४] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: हिंतो ) तथाप्रकारेभ्यः (अंतकुलेहिंतो ) अन्तकुलेभ्यः ( पंतकुलेहिंतो ) प्रान्तकुलेभ्यः (तुच्छकुलेहिंतो ) तुच्छकुलेभ्यः ( दरिद्दकुलेहिंतो ) दरिद्रकुलेभ्यः ( किविणकुलेहितो ) कृपणकुलेभ्यः ( वणीमगकुलेहिंतो ) मिक्षाचरकुलेभ्यः (माहणकुलेहिंतो ) ब्राह्मणकुलेभ्यश्च (तहप्पगारेसु ) तथाप्रकारेषु ( उग्गकुलेसु वा ) उग्रकुलेषु वा ( भोगकुलेसु वा ) भोगकुलेषु वा ( रायन्नकुलेसु वा ) राजन्यकुलेषु वा (नायकुलेसु वा ) ज्ञातकुलेषु वा ( खत्तिअकुलेसु वा ) क्षत्रियकुलेषु वा (इक्खागकुलेसु वा ) इक्ष्वाककुलेषु वा ( हरिवंसकुलेख वा ) हरिवंशकुलेषु वा ( अण्णयरेसु वा ) अन्यतरेषु वा (तहप्पगारेषु ) तथाप्रकारेषु ( विसुद्धजाइकुलवंसेसु) विशुद्धजाति कुलवंशेषु (साहरावित्तए) मोचयितुं ॥ (२४) ॥ ( तं गच्छ णं देवाणुप्पिए ) यस्मात् कारणात् इन्द्राणां एष आचारः तस्मात्कारणात् त्वं गच्छ देवानुप्रिय ! हे हरिणैगमेषिन् । ( समणं भगवं महावीरं ) श्रमणं भगवन्तं महावीरं ( माहणकुंडग्गामाओ नयराओ ) ब्राह्मणकुण्डग्रामात् नगरात् ( उसभदत्तस्स माहणस्स ) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य ( कोडालसगुत्तस्स ) कोडालसगोत्रस्य (भारियाए ) भार्यायाः (देवानंदाए माहणीए ) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः ( जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः ( कुच्छिओ ) कुक्षेः लात्वा (खत्तियकुडग्गामे नयरे ) क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (नायाणं खत्तिआणं) ज्ञानजातीयानां क्षत्रियाणां मध्ये (सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य (कासवगुत्तस्स ) काश्यपगोत्रस्य (भारियाए ) भार्यायाः (तिसलाए खत्तिआणीए ) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः ( वासिहसगुत्ताए ) वाशिष्ठ गोत्रायाः For File & Fersonal Use Only ~81~ गर्भसंहरणादेशः सू. २५ ५ १० १४ wwjanbary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२५] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२५] कल्प. सुबो ब्या० १ ॥ ३२ ॥ Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ २ ] ............ मूलं [ २५ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ( कुच्छिसि गन्मत्ताए ) कुक्षी गर्भतया ( साहराहि ) मुञ्च, (जेsविय णं ) योऽपि च (से तिसलाए ) तस्याः | त्रिशलायाः (खत्तिआणीए ) क्षत्रियाण्याः (गभे) गर्भः ( तंपिय णं ) तं अपि ( देवानंदाए माहणीए ) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरगोत्रायाः (कुच्छिसि कुक्षौ (गन्भत्ताए) गर्भतया (साहराहि) मुञ्च ( साहरिता) मुक्तवा (मम एमाणत्तिअं) मम एतां आज्ञप्ति - आज्ञां (खिप्पामेव) शीघ्रमेव (पञ्चष्पिणाहि) प्रत्यर्पय, कार्य कृत्वाऽऽगत्य मयैतत् कार्यं कृतं इति शीघ्रं निवेदय इत्यर्थः ॥ (२५) ॥ (तए णं से हरिणेगमेसी) ततः स हरिणैगमेषी ( पायत्ताणियाहिवई देवे ) पदात्यनीकाधिपतिर्देवः (सक्केणं देविंदेणं) शक्रेण देवन्द्रेण ( देवरन्ना ) देवराजेन ( एवं उसे समाणे ) एवं उक्तः सन् (हट्ठ) (जाब ) यावत्करणात् तुट्ठचित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण इत्यादि सर्वे वक्तव्यं (हियए) हर्षपूर्णहृदयः, अथैवंविधः सन् हरिणैगमेषी ( करयल ) करतलाभ्यां (जाव ) यावत्कारणात् परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि इति प्राग्वत् वाच्यं ( कट्टु ) तथा मस्तके अञ्जलिं कृत्वा ( जं देवो आणवेइत्ति ) यत् शक्रः आज्ञापयति इत्युक्तत्वा ( आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ ) आज्ञाया-उक्तरूपाया यद्वचनं तद्विनयेन प्रतिशृणोति-अङ्गीकरोति ( पडिणित्ता ) प्रतिश्रुत्य च - अङ्गीकृत्य च ( उत्तरपुरच्छिमं दिसि१ यदा संहरणस्य कल्याणकता तदा इन्द्रः स्वयमेव तदकरिष्यत् न पदात्यनीकाधिपेनाकारयिष्यत् श्रेयःप्रकर्षाभिलाषयुक्तत्वात्तस्य, जन्मादिकल्याणकवत् ऋपभराज्याभिषेकः स्वयं कृत इन्द्रेणेति तस्म विशेषेण खाद्येन कल्याणकता स्वीकार्या । ••• हरिणेगमेषीदेवेन कृत भगवन्त महावीरस्य गर्भ - संहरण For Pride & Personal Use O ~82~ संहरणं सू. २६ २० ॥ ३२ ॥ २६ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [२६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: ta प्रत क्रियकरणं सूत्रांक [२६] गाथा ॥१..|| भामं ईशाणकोणनामके दिग्विभाग इत्यर्थः तत्र (अवकमह ) अपक्रामति गच्छतीत्यर्थः (अवकमित्ता) अपक्रम्य-गत्वा च ( विउविअसमुग्धाएणं समोहणह ) वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धन्ति-वैक्रियशरीरकरणार्थ | प्रयत्नविशेष करोतीत्यर्थः (समोहणित्ता) प्रयत्नविशेषं कृत्वा (संखिजाई जोअणाई) संख्येययोजनप्रमाणं (दंडं दण्डाकारं शरीरचाहल्यं ऊध्वाधआयतं जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूहं (निस्सिरह) शरीराहहिः निष्कासयतीत्यर्थः, तत्कुर्वाणस्तु एवंविधान पुद्गलान् आदत्ते, (तंजहा) तद्यथा-(रयणाणं) रत्नानां-कर्केतनादीनां १ यद्यपि रनपुद्गला औदारिका वैक्रियशरीरकरणे असमर्थाः तत्र वैक्रियवर्गणापुद्गला एव उपयुज्यन्ते तदपि रवानां इव सारपुद्गला इति ज्ञेयं (वयराणं) वज्राणां-हीरकाणां २ (वेरुलिआण) वैडूर्याणां-नीलरत्नानां ३ (लोहिअक्खाणं) लोहिताक्षाणां ४ (मसारगल्लाणं) मसारगल्लानां ५ (हंसगम्भाणं) हंसगर्भाणां ६ (पुलयाण) पुलकानां ७(सोगंधिआणं) सौगन्धिकानां ८ (जोईरसाणं) ज्योतीरसानां ९ (अंजणाणं) अजनानां १० (अंजणपुलयाण) अन्चनपुलकानां ११ (जायरूवाणं) जातरूपाणां १२ (सुभगाणं)सुभगानां १३ ( अंकाणं) अङ्कानां १४ (फलिहाणं) स्फटिकानां १५ (रिहाणं) रिष्ठानां १६ एताः षोडश रत्नजातयस्तेषां च (अहाबायरे ) यथावादरान्-अत्यन्तं असारान् स्थूलान् इत्यर्थः (पुग्गले) तान् पुद्गलान् (परिसाडेइ) परित्यजति, दीप cersecticerseceseseseses अनुक्रम [२६] १ लब्ध्याऽन्यवर्गणापुद्गलानामन्यवर्गणावेन परिणतेपैदारिकाण्यपि वा सन्तु २ उदितवैक्रियनामकर्मपुद्गलानिति श्रीहरिभद्राधा आचार्या ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२७] कल्प. सुबो व्या० १ ॥ ३३ ॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ २ ] ............ मूलं [२७] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ( परिसाडित्ता ) परित्यज्य ( अहामुहमे ) यथासूक्ष्मान् अत्यन्तं सारान् इत्यर्थः, तान् ( पुग्गले ) पुद्गलान् (परिआएइ) पर्यादन्ते-गृह्णातीत्यर्थः ॥ (२६) || ( परियाइत्ता ) पर्यादाय गृहीत्वा (दुशंपि ) द्वितीयवारं अपि ( वेडविय समुग्धारणं) वैकियसमुद्घातेन (समोहणइ) समुद्धन्ति पूर्ववत् प्रयत्नविशेषं करोति, (समोहणित्ता) प्रयत्नविशेषं कृत्वा ( उत्तरवेधिअं रूवं ) उत्तर वैक्रियं भवधारणीयापेक्षया अन्यत् इत्यर्थः ईदृशं रूपं ( विउचर ) विकुर्वति-करोति (विउद्वित्ता ) तथा कृत्वा (ताए ) तथा ( उक्किट्ठाए ) उत्कृष्टया - अन्येषां गतिभ्यो मनोहरया ( तुरिआए ) त्वरितया - चित्तौत्सुक्यवत्या (चवलाए ) काय चापल्ययुक्तया ( चंडाए ) चण्डया - अत्यन्ततीव्रया ( जयणाए ) शेषगतिजयनशीलया (उद्धआए) उद्भूतया - प्रचण्ड पवनोद्भूतधूमादेरिव (सिग्धाए ) अत एव शीघ्रया, छेआपत्ति कुत्रचित् पाठः तत्र छेकया-विमपरिहारदक्षया, ( दिखाए ) देवयोग्यया, इदृश्या ( देवगहए ) देवगत्या ( वीड्वयमाणे बीइवयमाणे) अतिगच्छन् २- अधस्तादुत्तरन २ ( तिरिअमसंखिजाणं दीवसमुदाणं ) तिर्यग असंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां (मज्झमज्झेणं) मध्यंमध्येन - मध्यभागेन जेणेव जंबुद्दीवे दीवे) यत्रैव जम्बूद्वीपो द्वीपः ( भारहे वासे) भरतक्षेत्रं ( जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे ) यत्रैव ब्राह्मणकुण्डग्रामनगरं ( जेणेव उसभदत्तस्स माह णस्स गिहे ) यत्रैव ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य ( जेणेव देवाणंदा माहणी ) यत्रैव देवानन्दा ब्राह्मणी (तेणेव १ वैक्रियनिर्माणयोग्यान् । २ वैक्रियरूपनिर्माणाय । Jan Education Intimations For Pilde & Ferson Use O ~84~ देवस्य गमनादि सू. २७ १५ २० ॥ ३३ ॥ २५ janelbary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [२७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२७] गाथा ॥१..|| उबागच्छद) तत्रैव उपागच्छति ( उवागच्छित्ता) उपागत्य च (आलोए) आलोके-दर्शनमात्रे (समणस्सगर्भसंक्राभगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पणामं करेइ) प्रणामं करोति ( पणाम करित्ता) मर्ण प्रणामं कृत्वा च (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः ( सपरिजणाए) सपरिवारायाः (ओसोवर्णि) अवस्वापिनी निद्रा (दलह) ददाति (दलित्ता) तां दत्त्वा च (असुभे पुग्गले ) अशुचीन पुद्गलान अपवित्रानित्यर्थः (अवहरइ) अपहरति-दूरीकरोति ( अवहरित्ता) तथा कृत्वा च (सुभे पुग्गले) शुभान |8| पुद्गलान्, पवित्रपुद्गलानित्यर्थः (पक्खिबह ) प्रक्षिपति, (पक्खिवित्ता) प्रक्षिप्य च ( अणुजाणउ मे भयवंतिकट्ठ) अनुजानातु-आज्ञां ददातु मह्यं भगवान् इतिकृत्वा-इत्युक्त्वा (समणं भगवं महावीर) श्रमणं भग-8 वन्तं महावीरं ( अबाबाई)च्याबाधारहितं (अबाबाहेणं) अव्याबाधेन-मुखेन (दिवेणं पहावेणं) दिव्येन प्रभावेण (करयलसंपुडेणं गिण्हइ) करतलसम्पुटे गृह्णाति, न च तेन गृह्यमाणस्थापि गर्भस्य काचित् पीडा|S स्यात्, यदुक्तं भगवत्यां-'प्रभू णं भंते ! हरिणेगमेसी सक्कदूए इत्थीगभं नह सिरंसि वा रोमकूवंसि वा साह १ प्रणामक्रियादर्शनेन शक्रस्तवपाठाभ्युपगमकारिणां च्यवनयाभ्युपगमवता जडिममनानामत्रापि शकस्तवाभ्युपगमप्रसंगः २ 'रुहिरकलमलाणि य न हवन्तीति वाक्यं तु विशिष्टाशुचिपुद्गलनिषेधख्यापक, प्रक्षेप्यदिव्यपुद्गलापेक्षया वाऽत्राशुचिपुद्गलाः ।। ३ प्रभुः भदन्त । हरिणैगमेपी शकदूतः खीगर्भ नखशिरसि वा रोमकूपे वा मोक्तं वा निष्कासयितुं वा , हन्त प्रभुः, नैव तस्य गर्भस्य आबाधां वा विवाधां वा उत्पादयेत् , छविच्छेदं पुनः कुर्यात् । २ (भग० सू० १८६) दीप अनुक्रम [२७] FO ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२७] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ २ ] ........... मूलं [२७] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ॥ ३४ ॥ कल्प. सुबो- 8 रितए वा निहरित्तए वा ?, हंता पभू, नो चेव णं तस्स गन्भस्से आवाहं वा विवाहं वा उपाएजा, छविच्छेअं व्या० २ पुण करिज्जा' छविच्छेदं-त्वकछेदनं अकृत्वा गर्भस्य प्रवेशयितुं अशक्यत्वादिति ( करयलसंपुडेणं गिण्हित्ता ) हस्ततलसम्पुटे गृहीत्वा च ( जेणेव खत्तियकुण्डरगामे नयरे ) यत्रैव क्षत्रियकुण्डग्रामनगरं ( जेणेव सिद्धत्यस्स खतियस्स गिहे ) यत्रैव सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य गृहं ( जेणेव तिसला खत्तियाणी ) यत्रैव त्रिशला क्षत्रियाणी ( तेणेव उवागच्छइ ) तत्रैव उपागच्छति ( तिसलाए खत्तिआणीए ) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः ( सपरिअणाए ) परिवारसहितायाः (ओसोवणिं ) अवखापिनीं निद्रां ( दलह ) ददाति ( दलित्ता ) तां दत्त्वा च ( असुभे पुग्गले अवहरइ ) अशुभान् पुद्गलान् दूरीकरोति ( अवहरिता ) तथा कृत्वा (सुभे पुग्गले पक्खिवइ) शुभान् पुङ्गवान् प्रक्षिपति, (पक्खिवित्ता) प्रक्षिप्य च ( समणं भगवं महाबीर ) श्रमणं मगवन्तं महावीरं ( अधाबाहं ) व्याबाधारहितं ( अधाबाहेणं ) अब्याबाधेन सुखेन ( दिघेणं पहावेणं) दिव्येन प्रभावेण ( तिसलाए खत्तिआणीए ) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः ( कुच्छिसि गन्भत्ताए ) कुक्षौ गर्भतया (साहरइ ) मुञ्चेति, अत्र गर्भाशयात् गर्भाशये, गर्भाशयात् योनौ, यो नर्गर्भाशये, योनेयनी, इति गर्भसंहरणे चतुर्भङ्गी संभवति, तत्र योनिमार्गेण आदाय गर्भाशये मुञ्चतीत्ययं तृतीयो भङ्गोऽनुज्ञातः शेषाञ्च निषिद्धाः श्रीभगवंतीसूत्रे (जेविअ णं से तिसलाए खत्तिआणीए गन्भे ) योऽपि च तस्याः त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः १ गर्भसंक्रमस्यापि कल्याणकता चेत् जन्ममहादिवत् स्वयं स्यात् कर्त्तव्यमिदं, न नियुक्तः कारणीयं, २-(भग० २१९ पत्रे सू० १८६) Jan Education For File & Ferton Use Only ~86~ गर्मपरावृत्तिः १५ २० ॥ ३४ ॥ २३ Xyg Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] .......... मूलं [२८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२८] गाथा ||१..|| गर्भः पुत्रीरूपः (तंपिअ) गर्भ (देवाणंदाए माहणीए) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (कुञ्छिसि गम्भत्ताए) (कुक्षि- आज्ञापविषये गर्भतया (साहरइ । मुञ्चति (साहरित्ता) मुक्त्वा च (जामेव दिसिं पाउन्भूए) यस्याः एव दिशः त्यर्पणं मू. सकाशात् प्रादुर्भूतः-आगतः (तामेव दिसिं पडिगए) तस्यां एवं दिशि पश्चाद्गतः स देव इति ॥ (२७) ॥ ॥ ताए उकिट्ठाए ) तया अन्येषां गतिभ्यो मनोहरया (तुरिआए)चित्तौत्सुक्यवत्या (चवलाए ) कायचाप|ल्ययुक्तया (चंडाए) अत्यन्ततीव्रया (जयणाए) सकलगतिजेच्या ( उद्धआए) ऊद्धतया (सिग्धाए) अत एव शीघ्रया (दिवाए) देवयोग्यया (देवगइए) इदृश्या देवगत्या (तिरिअमसंखिजाणं)तियंग असख्येयानां (वीवसमुदाणं मझमझेणं) बीपसमुद्राणां मध्यमध्येन-मध्यभागेन भूत्वा (जोषणसयसाहस्सिएहिं)योजनलक्षप्रमाणाभिः (विग्गहेहि) वींखाभिः-विग्रह:-पदन्यासान्तः चींखाभिगतिभिरत्यर्थः (उप्पयमाणे) ऊध्र्व उत्पतन् २ (जेणामेव सोहम्मे कप्पे) यत्र स्थाने सौधर्म कल्पे (सोहम्मवडिसए विमाणे) सौधर्माव-18 तंसकविमाने ( सकसि सीहासणंसि ) शक्रनामनि सिंहासने ( सके देविंदे देवराया) शक्रो देवेन्द्र देवराजोस्ति (तेणामेव उवागच्छद) तत्रैव स्थाने उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य च (सकस्स देविंदस्स देवरनो) शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य (तमाणत्तिअंखिप्पामेव)तां पूर्वोक्तां आज्ञां शीघ्रमेव ( पचप्पि-16 Kणइ) प्रत्यर्पयति-कृत्वा निवेदयति स देव इति । (२८)॥ दीप अनुक्रम [२८] ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२९] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२९] कल्प. सुबो व्या० २ ॥ ३५ ॥ Education in! दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [ २ ] ............ मूलं [२९] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ( तेणं काले ) तस्मिन् काले ( तेणं समएणं ) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भगवान् महावीर : (जे से वासाणं तचे मासे) योऽसौ वर्षाणां वर्षाकालसम्बन्धी तृतीयो मासः (पंचमे पक्खे) पञ्चमः पक्षः, कोऽसौ ? इत्याह- (आसोअबहुले) आश्विनमासस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं आसोअबहुलस्स) आश्विनकृष्णपक्षस्य (तेरसीपक्खेणं) त्रयोदश्याः पक्षः पश्चार्धरात्रिरित्यर्थः, तस्यां (बासीह राईदिएहिं विषंतेहि) व्यशीती अहोरात्रेषु अतिक्रान्तेषु (तेसीइमस्स राइदिअस्स ) व्यशीतितमस्याहोरात्रस्य (अंतरा वट्टमाणस्स ) अन्तरकाले-रात्रिलक्षणे काले वर्त्तमाने ( हिओणुकंपणं) हितेन खस्य इन्द्रस्य च हितकारिणा तथा अनुकम्पकेन- भगवतो भक्तेन, अनुकम्पायाश्च भक्तिवाचित्वं 'आयरिअअणुकंपाए गच्छो अणुकंपिओ महाभागी' इति वचनात् (हरिणेगमेसिणा देवेणं ) इदृशेन हरिणैगमेषिनामकेन देवेन (सक्कवयणसंदिद्वेणं ) शक्रवचनसंदिष्टेन - प्रेषितेन ( माहणकुंडग्गामाओ ) ब्राह्मणकुण्डग्रामात् ( नयराओ ) नगरात् ( उस भदन्तस्स माहणस्स ) ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य ( कोडालसगुत्तस्स ) कोडालसगोत्रस्य ( भारिआए देवाणंदाए माहणीए ) भार्याया देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधरसगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिओ ) कुक्षितः (खति १ मासपक्षादिदर्शनेन कल्याणकताभिसन्धिः सत्यसन्धाशून्यानामेव, कुत्रापि तादृशस्तलक्षणस्याश्रुतेः; किंच-मेघकुमारादीनां दीक्षादावपि तच्छ्रुतेः, इन्द्रादिमहोत्सवस्तु नात्र गन्धतोऽपि २ हितानुकम्पकदेव कृतत्वेन न कल्याणकताया लेशोऽपि, कल्याणकस्य भक्तिमात्रविहितत्वात् ३ आचार्य भक्त्या महामागो गच्छो मक्तः ( ओष० १२७ भाष्यं ) For Pile & Fersonal Use On ~88~ संहरणका लादि सू. २९ १५ २० २४ ।। ३५ ।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] .......... मूलं [२९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२९] गाथा ॥१..|| अकुंडग्गामे नयरे ) क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (नायाणं खत्तिआणं) ज्ञातजातीयानां क्षत्रियाणां (सिद्धत्थस्स संहरणद| खत्तियस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य ( कासवगुत्तस्स) काश्यपगोत्रस्य (भारिआए तिसलाए खत्तिआणीए शायां ज्ञाभार्यायास्त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः (बासिट्ठसगुत्ताए) वाशिष्टगोत्रायाः (पुत्वरत्तावरत्तकालसमयंसि) मध्य-13 | नत्रयं मू. रात्रकालसमये (हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं) उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे (जोगमुवागएणं ) चन्द्रेण सम्बन्धं उपागते (अबाबाह)पीडारहितं यथा स्यात्तथा(अवाबाहेणं दिवेणं पहावेण)अव्याबाधेन दिव्यप्रभावेण(कुञ्छिसि गम्भत्ताए। साहरिए) कुक्षिविषये गर्भतया संहृतः-मुक्त इत्यर्थः । अत्र कवेरुत्प्रेक्षा-'सिद्धार्थपार्थिवकुलाप्तगृहप्रवेशे, मौहूर्तमागमयमान इव क्षणं यः।रात्रिंदिवान्युषितवान् भगवान ह्यशीति, विप्रालये स चरमो जिनराः पुनातु ॥(२९)18 । (तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले (तेणं समएणं ) तस्मिन् समये च (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान 8 महावीरः (तिनाणोवगए आवि हुत्था) त्रिभिानः उपगतः-सहितः अभवत्, (साहरिज्जिस्सामित्ति जाणइ) संहरिष्यमाण:-मां इतः संहरिष्यति इति जानाति, ( साहरिज्जमाणे नो जाणइ) संह्रियमाणः |संहरणसमये न जानाति, (साहरिएमित्ति जाणइ) संहतोऽस्मीति च जानाति, ननु संहियमाणो न जानातीति। कथं युक्तं?, संहरणस्य असख्यसामयिकत्वात् भगवतश्च संहरणकर्तृदेवापेक्षया विशिष्टज्ञानवत्वात् , उच्यते, IS| इदं वाक्यं संहरणस्प कौशल ज्ञापक, तथा तेन संहरणं कृतं भगवतः यथा भगवता ज्ञातमपि अज्ञातमिवाभूत पीडाऽभावात् , यथा कश्चिद्वदति त्वया मम पादासथा कण्टक उद्धृतो यथा मया ज्ञात एच नेति, सौख्यातिशये दीप अनुक्रम [२९] ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३०] गाथा ||||| दीप अनुक्रम [३१] कल्प. सबोव्या० २ ॥ ३६ ॥ Jan Educaton le दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [ २ ] ............. मूलं [३०] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: च सत्येवंविधो व्यपदेशः सिद्धान्तेऽपि दृश्यते, तथाहि - 'तहिं देवा वंतरिआ, वरतरुणीगी अवाइअरवेणं । निचं सुहिअपमुद्दआ, गयंपि कालं न याति ॥ १ ॥ इत्यादि, तथा च 'साहरिज्जमाणेचि जाणई' ( ३९९ सू० ) इत्याचाराङ्गोक्तेन विरोधोऽपि न स्यात्, इति मन्तव्यम् ॥ (३०) ॥ (जं स्यणि चणं) यस्यां च रात्रौ (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भगवान् महावीरः ( देवाणंदाए माहणीए ) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधर सगुत्ताए ) जालंधरसगोत्रायाः ( कुच्छिओ ) कुक्षितः (तिसलाए खत्तिआणीए ) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः ( वासिसगुत्ताए ) वाशिष्टगोत्रायाः (कुच्छिसि गन्मत्ताए साहरिए) कुक्षौ गर्भतया मुक्तः ( तं रयणि चणं ) तस्यां एव रात्रौ ( सा देवानंदा माहणी ) सा देवानन्दा ब्राह्मणी (सयणिनंसि ) शय्यायां (सुत्तजागरा) सुसजागरा ( ओहीरमाणी ओहीरमाणी ) अल्पनिद्रां कुर्वती ( हमे एयारुवे उराले ) इमान् एतद्रूपान् प्रशस्तान ( जाव चउद्दस महासुमिणे) यावत् चतुर्दश महाखमान् ( तिसलाए खतिआणीए हडे पासिता णं पडिवुद्धा ) त्रिशलया क्षत्रियाण्या हृता इति दृष्ट्वा जागरिता, (तंजहा) तद्यथा ( गयवसह गाहा) 'गयवसह' इति गाथाऽत्र वाच्या ॥ ( ३१ ) ॥ (जं स्यणिं च णं) यस्यां च रात्रौ (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (देवाणंदाए माहणीए ) देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः (जालंधर सगुत्ताए) जालन्धरसगोत्रायाः (कुच्छिओ) कुक्षितः ( तिसलाए खत्तिआणीए ) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः ( वासिहसगुत्ताए ) वाशिष्टसगोत्रायाः (कुच्छिसि गन्भ For File & Fersonal Use Only ~90~ स्वप्नापहारः सू. ३१ २० २५ ॥ ३६ ॥ २८ janetbrary.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३३] गाथा ||||| दीप अनुक्रम [३५] हल्प. सु. दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [ २ ] ............. मूलं [३३] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ताए साहरिए) कुक्षौ गर्भतया मुक्तः ( तं स्यणिं च णं) तस्यां रजन्यां (सा तिला वत्तिआणी ) सा त्रिशला क्षत्रियाणी ( तंसि ) तस्मिन् (तारिसगंसि) तादृशे वक्तुं अशक्यस्वरूपे महाभाग्यवतां योग्ये ( वासघरंसि ) वासगृहे, शयनमन्दिरे इत्यर्थः, किंविशिष्टे वासगृहे ? - ( अभितरओ सचिन्तकम्मे ) मध्ये चित्रकर्मरमणीये, पुनः किंवि० ? (बाहिरओ) बायभागे (दुमिअ) सुधादिना घवलिते (घट्टे) कोमलपाषाणादिना घृष्टे, अत एव (महे) सुकोमले, पुनः किंवि० १- (विचितउल्लो अचिल्लिअसले) विचित्रो - विविधधित्रकलित उल्लोक - उपरिभागो यत्र तत्तथा ( चिल्लिअ ) देदीप्यमानः (तलः ) अधोभागो यत्र तत्तथा ततः कर्मधारये विचित्रोल्लोक चिल्लिअतले, पुनः किंवि० १ (मणिरयणपणासि अंधयारे ) मणिरत्नप्रणाशितान्धकारे, पुनः किंवि० ? (बहुसमत्ति ) अत्यन्तं समः - अविषमः पञ्चवर्णमणिनिबद्धत्वात् (सुविभत्तत्ति ) सुविभक्तः-विविधस्वस्तिकादिरचना मनोहरः एवंविधो ( भूमिभागे ) भूमिभागो यत्र तस्मिन् पुनः किंवि० ? ( पंचवन्नसरससुरहिमुकपुष्फ पुंजोवयारकलिए ) पञ्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा 'मुक'ति इतस्ततो विक्षिप्तेन ईदृशेन पुष्पपुञ्जलक्षणेन उपचारेण पूजया कलिते, पुनः किंचि० ? ( कालागुरुन्ति) कृष्णागरु प्रसिद्धं (पवर कुंदुरुक्कत्ति) विशिष्ट| श्रीडाभिधानो गन्धद्रव्यविशेषः (तुरुकत्ति ) तुरुष्कं सिल्हकाभिधानं सुगन्धद्रव्यं (उज्झतधूवत्ति ) दह्यमानो धूपो- दशाङ्गादिरनेक सुगन्धद्रव्यसंयोगसमुद्भूतः एतेषां वस्तूनां सम्बन्धी यो (मघमघंतत्ति) मघमधायमानोऽतिशयेन गन्धवान् (गंधुदुआभिरामे) उद्भूतः - प्रकटीभूतः एवंविधो यो गन्धस्तेनाभिरामे, पुनः किंवि० १ Jan Education Intemations For File & Fersonal Use Only ~ 91~ वासगृहशु यनीयवर्णनं सू. ३३ ५ १० १४ www.janbary.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [३३] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३३] गाथा कल्प.सदो-(सुगंधवरगंधिए ) सुगन्धाः-सुरभयो ये वरगन्धा:-प्रधानचूर्णानि तेषां गन्धो यत्र तत् तथा तस्मिन् , पुनः वासगृहशच्या० २ किंवि० ? (गंधवद्दिभूए) गन्धवर्तिः-गन्धद्रव्यगुटिका तत्सदृशेऽतिसुगन्धे इत्यर्थः, एतादृशे वासभवने, अथानीयवर्णन (संसि तस्मिन् (तारिसगंसि) तादृशे-वक्तं अशक्यखरूपे महाभाग्यवतां योग्ये (सपणिज्जेसि) शय-15 ।। ३७॥ नीये, पल्यके इत्यर्थः, इदं विशेष्यं, किंविशिष्टे ?-(सालिंगणवट्टिए) सालिङ्गनवर्तिके-आलिङ्गनवर्तिका नाम शरीरप्रमाणं दीर्घ गण्डोपधानं तया सहिते, पुनः किंवि०? (उभओ) उभयत:-शिरोऽन्तपादान्तयोः (विष्योअणे) उच्छीर्षके यत्र तत्तथा तस्मिन्, पुनः किंवि०? (उभओ उन्नए) यत उभयत उच्छीर्षकयुक्ते अत एव उभयत उन्नते, पुनः किंवि०? (मज्झे णयगंभीरे) तत एव मध्ये नते गम्भीरे च, पुनः किंवि० ? MI(गंगापुलिणवालआउद्दालसालिसए)तत्र 'उद्दाल'त्ति उद्दालेन-पादविन्यासे अधोगमनेन गटातटवालुका-17 सहशे, अयमर्थः यथा गङ्गापुलिनवालुका पादे मुक्त अधो ब्रजति तथा अतिकोमलत्वात् स पल्यङ्कोऽपीति | ज्ञेयं, पुन: किंवि०१(उवचिअत्ति)परिकर्मितं (खोमिअत्ति) क्षौम-अतसीमयं (दगुल्लपट्टत्ति) दुकले-वस्त्रं तस्य । यः पट्टो-युगलापेक्षया एकपट्टः तेन (पडिच्छन्ने ) आच्छादिते, पुनः किंवि०? (सुविरइअरयत्साणे) सुष्छु। विरचितं रजत्राणं-अपरिभोगावस्थायां आच्छादनं यत्र तस्मिन् , पुन: किंवि०? (रत्तंसुअसंवुढे) रक्तांशु ॥३७॥ केन-मशकगृहाभिधानेन रक्तवस्त्रेणाच्छादिते तथा (सुरम्मे) अतिरमणीये, पुनः किंवि०१(आइणगरूअ-11 बूरनवणीअतूलतुल्लफासे) आजिनक-परिकर्मितं चर्म रूतं-कर्पासपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतं-प्रक्षणं । दीप २५ अनुक्रम [३५] medicatonial ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३३] गाथा ||||| दीप अनुक्रम [३५] ॥३२॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [२] ........... मूलं [३३] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: तुलं - अर्कतूलं एभिः तुल्यः समानः स्पर्शो यस्य स तथा तस्मिन्, एतद्वस्तुवत्कोमले इत्यर्थः पुनः किंवि० १ (सुगंधवरकुसुम चुन्नसयणोवयारकलिए ) सुगन्धवरैः - अतिसुगन्धैः कुसुमैः चूर्णैः- वासादिभिश्च यः शयनोपचारः- शय्यासंस्क्रिया तेन कलिते, कुसुमैः चूर्णेव मनोहरे इत्यर्थः, (पुच्चरन्तावरतकाल समयंसि ) मध्यरात्रकालप्रस्तावे ( सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी ) सुप्रजागरा-अल्पनिद्रां कुर्वती २ (इमे एयारूवे ) इमान् एतद्रूपान् (उराले ) प्रशस्तान् ( जाव चउद्दस महासुमिणे ) यावत् चतुर्दश महास्वशान् (पासित्ता णं पडिवुद्धा ) दृष्ट्वा जागरिता, (तंजहा ) तद्यथा-गय १ बसह २ सीह ३ अभिसेअ ४ दाम ५ ससि ६ दिनपरं ७ झयं ८ कुंभं ९ । पूउमसर १० सागर ११ विमाण-भवण १२ रयणुचय १३ सिद्धिं च १४ ॥ १ ॥ इयं गाथा सुगमा ॥ ( तर णं सा तिसला सत्तिआणी ) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी (तप्पढमयाए ) तत्प्रथमतथा प्रथमं इत्यर्थः इभं स्वप्ने पश्यतीति सम्बन्धः, अत्र प्रथमं इमं पश्यतीति यदुक्तं तत् बह्रीभिर्जिनजननीभिस्तथादृष्टत्वात् पाठानुक्रममपेक्ष्योक्तं, अन्यथा ऋषभमाता प्रथमं वृषभं वीरमाता च सिंहं ददर्शेति, अथ कीदृशं इमं पश्यति ? - ( उत्ति ) चत्वारो दन्ता यस्य स चतुर्दन्तस्तं कचित् 'तओअचउद्दत' इति पाठस्तत्र ततौजसो-महाबलवन्तश्चत्वारो दन्ता यस्येति व्याख्येयं पुनः कीदृशं ? - ( उसिअत्ति ) उच्छ्रित-उत्तुङ्गस्तथा (गलिअ १ एवं पश्वकल्याण पाठोऽपि बाहुल्यापेक्षयेति वचस्तु कस्पनोद्भवत्वेन न मानं यथाssवश्यकादी स्वप्रदर्शनविषये स्पष्ट उल्लेखः न तथा षट्कल्याणकगन्धोऽपि जिनवल्लभात् प्राक् प्रत्युत पश्चाशके श्रीवीरस्यैव परिगणितानि पञ्च कल्याणकानि Jan Education I For Filde & Personal Use Only *** भगवन्त माता - त्रिशालायाः दृष्ट १४ स्वप्नानाम दर्शनं एवं स्वप्नानाम् फल-कथनं ~93~ गजवनव र्णनं सू. ३३ ५ १० १२ Tag Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३३] गाथा ||||| दीप अनुक्रम [३५] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [ २ ] ............. मूलं [३३] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कल्प. सुबो व्या० २ गजस्वमच १५ विपुलजलहर ) गलितो वर्षणादनन्तरकालभावी, स हि दुग्धवर्णो भवति, एवंविधो यो विपुलजलधरो-महामेघस्तथा (हारनिकरत्ति ) पुञ्जीकृतो- मुक्ताहारः (खीरसागरति) दुग्धसमुद्रः (ससंककिरणत्ति) चन्द्रकिरणाः ६ र्णनं सू. ३३ ( दगरयत्ति ) जलकणाः ( रययमहासेलपंडरं ) रजतस्य- रूप्यस्य महाशैलो - महान् पर्वतो वैताढ्यः तद्वस्पाण्डुरः, ॥ ३८ ॥ ४ त उच्छ्रितश्वासौ पूर्वोक्तसर्ववस्तुवत्पाण्डुरचेति कर्मधारयः तमस्तं पुनः कीदृशं ? - ( समागपत्ति) समागता - गन्धलोभेन मिलिताः (महुअरति) मधुकरा- भ्रमरा यत्र तादृशं यत् ( सुगंधत्ति ) विशिष्टगन्धाधिवासितं ( दाणत्ति ) मदवारि तेन (वासिअत्ति ) सुरभीकृतं ( कवोलमूलं ) कपोलयोर्मूलं यस्य स तथा तं, तस्य कपोलमूलं दानवासितं अस्ति तद्गन्धेन भ्रमरा अपि तत्र मिलिताः सन्तीति भावः पुनः कीदृशं ? ( देवरायकुंजरवरप्यमाणं ) देवराजो - देवेन्द्रस्तस्य कुञ्जरो- हस्ती तद्वत् वरं शास्त्रोक्तं प्रमाणं देहमानं यस्य स तथा तं (पिच्छ ) प्रेक्षते पश्यतीति इदं क्रियापदं 'इभ' इत्यनेन पूर्व योजितं पुनः कीदृशं १ ( सजलघणविपुलजलहरगज्जि अगंभीरचारुघोसं ) सजलो-जलपूर्णस्तस्य हि ध्वनिर्गम्भीरो भवति एवंविधो यो घनो- निविडो विपुलजलधरो-महामेघस्तस्य यगर्जितं तद्वत् गम्भीरश्चारुः मनोहरश्च घोषः शब्दो यस्य स तथा तं, महामेघवत् स गजो गर्जतीति भावः, ( इथं ) गजं, इदं विशेष्यं, पुनः कीदृशं ? (सुभं ) शुभं प्रशस्यं पुनः कीदृशं ? (सब्बलक्खणकथंबिअं ) सर्वलक्षणानां कदम्ब:-समूहस्तज्जातं यस्य स तथा तं पुनः कीदृशं ? ( वरोरुं ) वरः - प्रधानः उरुः - विशालश्च, एवंविधं हस्तिवरं प्रथमे खमे त्रिशला पश्यतीति १ ॥ (३३) ॥ ॥ ३८ ॥ २६ For Pride & Personal Use O ~94~ २० Story.org Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र Brea प्रत सूत्रांक [३४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [३६] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ २ ] ............ मूलं [३४] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: (तओ पुणो ) ततः पुनः - गजदर्शनानन्तरं वृषभं पश्यतीति सम्बन्धः, अथ किंविशिष्टं वृषभं ? (धवलकमलपत्तत्ति) धवलानां उज्ज्वलानां कमलानां यानि पत्राणि तेषां (पयरत्ति) प्रकर:- समूहस्तस्मात् (अगत्ति) अतिरेका-अधिकतरा ( रूवप्पभं ) रूपप्रभा -- रूपकान्तिर्यस्य स तथा तं पुनः किंवि० ? (पहासमुदओवहारेहिं ) प्रभा - कान्तिस्तस्याः समुदयः - समूहस्तस्य उपहारा-विस्तारणानि तैः (सव्वओ) सर्वतो -दशापि दिशः (चेव) निश्चयेन (दीवयंतं) दीपयन्तं - शोभयन्तं पुनः किंवि० ? (अइसिरिभरत्ति) अतिशयितः श्रीभरः- शो भासमूहस्तेन कृता या ( पिल्लुणा) प्रेरणा, उत्प्रेक्ष्यते तथैव (विसप्तत्ति) विसर्पत्-उल्लसत् अत एव ( कंतत्ति) कान्तं-दीतिमत् तत एव (सोहतत्ति ) शोभमानं ( चारु) मनोहरं ( ककुहं ) ककुदं स्कन्धो यस्य स तथा तं, अयमर्थः - यद्यपि स्कन्ध उन्नतत्वात् स्वयमेव उल्लसति तथापि अतिश्रीभरप्रेरणयैव उल्लसतीत्युत्प्रेक्ष्यते, पुनः किंवि० ? (तसुद्धसुकुमालत्ति) तनूनि - सूक्ष्माणि शुद्धानि - निर्मलानि सुकुमालानि ईदृशानि यानि (लोमत्ति) रोमाणि तेषां (शिद्धछविं ) स्निग्धा सस्नेहा न तु रूक्षा छविः - कान्तिर्यस्य स तथा तं पुनः किंवि० १ (थिरसुबद्धत्ति) स्थिरं दृढं अत एव सुबद्धं (मंसलोवचिअ ) मांसयुक्तं अत एव 'उवचिय'त्ति पुष्टं (लट्ठत्ति) लष्टं प्रधानं (सुविभत्तत्ति) सुविभक्तं यथास्थानस्थित सर्वावयवं ईदृशं (सुंदरंगं) सुन्दरं अङ्गं यस्य स तथा तं, (पिच्छइ ) सा त्रिशला प्रेक्षते इदं क्रियापदं पुनः किंवि० ? (घणवत्ति) घने निचिते वृत्ते-पर्तुले (लट्टउहित्ति) लष्टात्प्रधानादपि उत्कृष्टे अतिप्रधाने इत्यर्थः (तुप्पग्गत्ति ) म्रक्षिताग्रे ( तिक्खसिंगं) तीक्ष्णे ईदृशे शृङ्गे यस्य स तथा Educatoon For Filde & Personal Use Only ~ 95~ वृषभखप्नवर्णनं सू. ३४ १० १४ Say Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३५] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [३७] कल्प. सुबो व्या० २ ४ ॥ ३९ ॥ Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [२]........... मूलं [३५] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: तं पुनः किंवि० ? (दंतं) दान्तं - अक्रूरं (सिवं ) उपद्रवहरं, पुनः किंचि० १ (समाणसोहंतसुद्धदंतं) समाना:तुल्यप्रमाणाः अत एव शोभमानाः श्वेता निर्दोषा वा दन्ता यस्य स तथा तं पुनः किंचि० १ ( अमिअगुणमंगलमुहं ) अमिता गुणा येभ्य एवंविधानि यानि मङ्गलानि तेषां मुखं द्वारं आगमनकारणमित्यर्थः २ ॥ (३४) ॥ (तओ पुणो ) ततः पुनर्वृषभदर्शनानन्तरं सा त्रिशला सिंहं पश्यति, अथ किंविशिष्टं सिंहं ? - ( हारनिकर खीरसागरससंककिरणद्गरयरययम हासेल पंडुरतरं ) हारनिकरक्षीरसागर शशाङ्ककिरणद्करजोरजतमहाशैलाः --- पूर्व व्याख्यातास्तद्वत्पाण्डुरं-- उज्ज्वलं पुनः किंवि० १ ( रमणिज्जपिच्छणिज्जं ) रमणीयं- मनोहरं अत एव प्रेक्षणीयं- द्रष्टुं योग्यं पुनः किंचि०१ (थिरलट्टत्ति ) स्थिरौ-हडौ- अत एव लष्टौ प्रधानौ (पउद्रत्ति ) | प्रकोष्टौ कलाचिके 'पउंचा' इति लोकप्रसिद्धौ हस्तावयवा यस्य स तथा तं पुनः किंवि० १ ( वहत्ति) वृत्ता:वर्तुला: (पीवरत्ति) पीवरा:-पुष्टाः (सुसिलिट्ठत्ति) सुठिष्टा- अन्योऽन्यं अन्तररहिताः अत एव (विसित्ति) विशिष्टाः प्रधानाः (तिक्खत्ति ) तीक्ष्णा एवंविधा याः (दाढा ) दंष्ट्रास्ताभिः (विडंविअमुहं ) विडम्बितं, कोऽर्थः ? - अलङ्कृतं मुखं यस्य स तथा तं, ततो विशेषणकर्मधारयः, पुनः किंवि० ? (परिकम्मिअति) परिकर्मिताविव परिकर्मिती (जथकमलकोमलत्ति ) जात्यं - उत्तमजातिसम्भवं यत्कमलं तद्वत् कोमलौ, तथा ( पमाणसोमंतत्ति ) यथोक्तमानेन शोभमानौ तथा (लहउ ) लष्टौ प्रधानों एवंविधौ ओष्ठौ यस्य स तथा तं पुनः किंवि० १ ( रतुप्पलपतन्ति ) रक्तोत्पलं-रक्तकमलं तस्य यत् पत्रं तद्वत् ( मउअसुकुमालतालुत्ति ) मृदुसुकुमालं For Pile & Personal Use O ~96~ सिंहस्वप्नवजैनं सू. ३५ २० २५ ॥ ३९ ॥ २८ janelbary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [२] .......... मूलं [३५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३५] गाथा ||१..|| 18 तालु, तथा (निल्लालिअग्गजीहं ) निर्लोलिता-लपलपायमाना अय्या-प्रधाना जिला यस्य, कोऽर्थः ?-उक्त-सिंहस्वप्नव स्वरूपं तालु उक्तरूपा जिह्वा च विद्यते यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०१ (मूसागयपवरकणगताविअआवत्ता- म.३५ यंतवदृत्ति) मूषा-मृन्मयभाजनं यत्र सुवर्णकारेण सुवर्ण प्रक्षिप्य गाल्यते, तस्यां स्थितं तापितं आवायमान-प्रदक्षिणं भ्रमत् एवंविधं यत् प्रवरकनकं तद्वत् वृत्ते (तडिविमलसरिसनयणं) विमला या तडित्-विद्युत् तत्सदृशे नयने-लोचने यस्य स तथा तं, पुनः किंविशिष्टं ? (विसालपीवरवरोरु) विशालो-विस्तीणों पीवरौ-पुष्टौ वरौ-प्रधानौ उरू यस्य स तथा तं, पुनः किंवि० ?(पडिपुन्नविमलखंघ) प्रतिपूर्ण:-अन्यूनः विमलश्च स्कन्धों यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०? (मिउविसयत्ति) मृदूनि-सुकुमाराणि विशदानि-धवलानि (सुहुमत्ति) सूक्ष्माणि (लक्षणपसत्यत्ति) प्रशस्तलक्षणानि (पिच्छिण्णत्ति) विस्तीर्णानि-दीर्घाणि (केसराडोवसोहिअं) केसराणि-स्कन्धसम्बधिरोमाणि तेषां आटोप-उद्धृतत्वं तेन शोभितं, पुन: किंवि०? (उसिअसुनिम्मिअसुजायत्ति) उच्छ्रितं-उन्नतं मुनिर्मितं-कुण्डलीकृतं सुजातं-सशोभं यथा स्यात्तथा (अप्फोडिअलंगूलं ) आस्फोटितं लालं-पुच्छं येन स तथा तं, तेन पूर्व लालं आस्फोट्य पश्चात् कुण्डलीकृतमिति भावः, पुनः किंवि० ? (सोमं ) सौम्यं-मनसा अक्रूरं ( सोमागारं) सौम्याकार-सुन्दराकृतिमित्यर्थः, पुनः किंषि०? (लीलायंत) सविलासगति, पुनः किंवि० ? (नयलाओ उवयमाणं) आकाशतलात् अवपतन्तं-अधस्तादुत्तरन्तं, ततश्च (नियगवयणमइवयंत)निजकवदनमैनुप्रविशन्तं (पिच्छइ सापेक्षते सा त्रिशला, पुनः किंवि०१ (गाढतिक्खग्ग Reeeeeese दीप लटseroea अनुक्रम [३७] Parela JABEducation M ilanetbraryana ~97~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [३६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा कल्प.सुमो-नहंगा-अत्यन्तं तीक्ष्णानि अग्राणि येषां एवंविधा नखा यस्य स तथा तं (सीहं) केसरिणं इति विशेष्य, लष्यमिव्या०२ पुनः विवि (वयणसिरित्ति) बदनस्य श्री:-शोभा तदर्थं (पल्लवपत्तत्ति) पल्लववत् प्रसारिता(चारुजीह) मनो- वेकवर्णन हरा जिह्वा येन स तथा तं ३॥ (३५)॥ ॥४०॥ । तओ पुणो) ततः पुन:-सिंहदर्शनानन्तरं (पुन्नचंदवयणा) पूर्णचन्द्रवदना त्रिशला भगवतीं श्रियं-श्रीढेवतां पश्यतीति योजना, अथ किंविशिष्टां तां? (उच्चागयठाणलहसंठिअं) उच्चो योग:-पर्वतो हिमवान तत्र जातं उच्चागज एवंविधं लष्टं-प्रधानं यत् स्थान-कमललक्षणं तत्र संस्थितां, तचैवं-एकशतयोजनो१००चो।। द्वादशकलाधिकद्विपश्चाशद्योजनोत्तरयोजनसहस्र १०५२१२ पृथुल: वर्णमयो हिमवन्नामा पर्वतः, तदुपरि च दशयोजनावगाढः पञ्चशतयोजनपृथुलः सहस्र१०००योजनदी| वज्रमयतलभागः पद्माइदनामा हृदः, तस्य मध्यभागे जलात् क्रोशद्वयोचं,एकयोजनपृथुलं, एकयोजनदीघ, नीलरत्नमयदशयोजननालं वज्रमयमूलं रिष्ठरत्नमयकन्दं रक्तकनकमयबाह्यपत्रं कनकमयमध्यपत्रं एवंविधं एक कमलं, तस्मिन् कमले च क्रोशमयपृथुला, क्रोशद्वयदीर्घा, एककोशोचा रक्तसुवर्णमयकेसराविराजिता एवंविधा कनकमयी कर्णिका, तस्या मध्ये च अर्ध-RI क्रोशपृथुलं, एकक्रोशदीर्घ किंचिदूनैकक्रोशोचं,श्रीदेवीभवनं, तस्य च त्रीणि द्वाराणि पश्चशतधनुरुचानि तदधमानपृथुलानि पूर्वदक्षिणोत्तरदिकस्थितानि, अथ तस्य भवनस्य मध्यभागे सार्धशतद्वयधनुर्मिता रत्नमयी ॥४॥ वेदिका, तदुपरि च श्रीदेवीयोग्या शय्या, अथ तस्मान्मुख्यकमलात्परितश्च श्रीदेव्या आभरणभृतानि वलया २८ दीप अनुक्रम [३८] ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र ཌྜུཙྪཱཊྛལླཱཡྻ [३६] ||..|| अनुक्रम [३८] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) व्याख्यान [२]........... मूलं [ ३६ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: काराणि पूर्वोक्तमानादर्धमानोचत्वदीर्घत्वपृथुत्वानि अष्टोत्तरशतकमलानि, एवं सर्वेष्वपि वलयेषु क्रमेणार्धामानत्वं ज्ञेयं, इति प्रथमं वलयम्, द्वितीयवलये वायव्येशानोत्तरदिक्षु चतुःसहस्रसामानिकदेवानां चतुःसहस्री कमलानां, पूर्वदिशि चत्वारि महतराकमलानि, आग्नेय्यां गुरुस्थानीयाभ्यन्तरपर्षदेवानां अष्टसहस्रकमलानि, | दक्षिणदिशि मित्रस्थानीयमध्यमपर्षदेवानां दशसहस्रकमलानि, नैर्ऋत्यां किङ्करस्थानीयवाह्य पर्षदेवानां द्वादशसहस्रकमलानि, पश्चिमायां च हस्ति १ तुरङ्गम २ रथ ३ पदाति ४ महिष ५ गन्धर्व ६ नाट्य ७ रूपसप्तकटकनायकानां सप्त कमलानि इति द्वितीयं वलयम्, ततस्तृतीये वलये तावतां अङ्गरक्षकदेवानां षोडशसहस्रकमलानि इति तृतीयम् वलयं, अथ चतुर्थे वलये अभ्यन्तराभियोगिकदेवानां द्वात्रिंशल्लक्षकमलानि पञ्चमे | वलये मध्यमाभियोगिकदेवानां चत्वारिंशल्लक्षकमलानि, षष्ठे वलये बाह्याभियोगिकदेवानां अष्टचत्वारिंशलक्षक्रमलानि, सर्वसंख्पया च मूलकमलेन सह एका कोटिविंशतिर्लक्षाः पञ्चाशत् सहस्राः शतमेकं विंशतिश्च - १२०५०१२० कमलानामिति । अथ एवंविधं यत्कमललक्षणं स्थानं तत्र स्थितां पुनः किंवि० १ ( पसत्थरूवं ) प्रशस्तरूपां - मनोहररूपां इत्यर्थः पुनः किंवि० ? (सुपइट्ठिअत्ति ) सुप्रतिष्ठितौ सम्यकतया स्थापिती यौ (कण| गमयकुम्मत्ति ) कनकमयकच्छपौ तयोः (सरिसोवमाणचलणं ) सदृशं युक्तं उपमानं ययोः एवंविधौ चरणौ यस्याः सा तथा तां पुनः किंवि० ? (अच्चुन्नयत्ति) अत्युन्नतं तथा (पीणत्ति) पीनं-पुष्टं यत् अङ्गुष्ठादि अगं तत्र स्थिताः (रअ) रञ्जिता इव, अयमर्थः- श्रीदेव्याः स्वयमेव नखास्तथा रक्ताः सन्ति यथा उत्प्रेक्ष्यन्ते For Filde&Fersonal Use On ~99~ वलयपूरि वारवर्णनं सू. ३६ ५ १० १४ janelbary.org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [३६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा कल्पसुपो- लाक्षादिना रञ्जिता इव (मंसलउवचिअत्ति) मांसयुक्ताः तत एव उपचिताः-पुष्टाः (तणुतंबणिद्धनह) तनवः-श्रीदेवीवव्या०२ सूक्ष्माः न तु स्थूलाः ताम्रा-अरुणाः,स्निग्धा-अरुक्षा,नखा यस्याः सा तथा तां, पुन: किंवि०१(कमल-णिनं सू.३६ ॥४१॥ पलाससुकुमालंकरचरणं) कमलस्य पलाशानि-पत्राणि तद्वत् सुकुमालं करचरणं यस्याः सा तथा तां (कोम-1 लिवरंगुलिं) कोमला अत एव वरा:-श्रेष्ठाः अङ्गुलयो यस्याः सा तथा तां, ततो विशेषणसमासः, पुनः किवि०१ (कमविंदावत्तत्ति) करुविन्दावत-आवर्तविशेष आभरणविशेषो वा तेन शोभिते (वहाणुपवत्ति) वृत्तानुपूर्वे, कोऽर्थः-पूर्व बहुस्थूले ततः स्तोकं स्तोकं स्थूले करिकरवत् (जंघं) ईदृशे जो यस्याः सा तथा तां, पुनः किंवि० (निगढजाएं निगूढे-गुप्ते जानुनी यस्याः सा तथा तां, पुनः किंवि०१ (गयवरकरसरिसपीवरोरु) गजवरोगजेन्द्रस्तस्य कर:-शुण्डा तत्सदृशे पीवरे-पुष्टे उरू यस्याः सा तथा तां, उरुशब्देन लोके 'साधल' इत्युच्यते, पुनः किंवि०? (चामीकररइअमेहलाजुत्तं ) सुवर्णरचिता-सुवर्णमयी इत्यर्थः एवंविधा या मेखला तया युक्तं, अत एव (कंतविच्छिन्नसोणिचकं) मनोहरं विस्तीर्ण श्रोणिचक्र-कटितट यस्याः सा तथा तां, पुनः किंवि०? A(जर्चजणत्ति) जाल्याञ्जनं-मर्दितं तैलादिना अञ्जनं (भमरजलयपयरत्ति) भ्रमराणां-प्रसिद्धानां जलदानां च- २५ मेघानां या प्रकर:-समूहः तत्समानवर्णतया जास्याञ्जनभ्रमरजलदप्रकर इव (उजुअसमसंहिअत्ति) ऋजुका-॥४१॥ | प्रध्वरा अत एव समा-अविषमा,संहिता-निरन्तरा.(तणुअआइज्जलडहति)तनुका-सूक्ष्मा आदेया-सुभगा, लटभा-विलासमनोहरा (सुकुमालमउअत्ति) सुकुमालेभ्यः-शिरीषपुष्पादिवस्तुभ्योऽपि मृदुका तत एव (रम-18 २८ दीप अनुक्रम atene [३८] JABEducationiruta ~100~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [३६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [३६] गाथा ||१..|| |णिज्जरोमराई) रमणीया रोमराजिंपस्याः सा तथा तां, पुनः किवि? (नाभिमंडलसुंदरविसालपसत्थजघणं श्रीदेवीवनाभिमण्डलेन सुन्दरं विशालं-विस्तीर्ण प्रशस्तं-लक्षणोपेतं एवंविधं जघनं-अग्रेतनकव्यधोभागो यस्याः सातथा नं.३६ तां, पुनः किंवि० १ (करयलमाइअत्ति) करतलमेयो-मुष्टिग्राह्य इत्यर्थः (पसत्थतिवलिअत्ति) प्रशस्ता त्रिवलि:तिस्रो बल्यो रेखा यत्रैवंविधो (मज्झं) मध्यभाग-उदरलक्षणो यस्याः सा तथा तां, पुनः किंवि० १ (नाणामणिकणगरयणत्ति) नानाजातीया मणय:-चन्द्रकान्तप्रभृतयः, कनकं-पीतवर्ण सुवर्ण,रत्नानि-वैडूर्यप्रभृतीनि (विम- ५ लमहातवणिजत्ति) विमलं-निर्मलं. महत्-महाजातीयं एवंविधं तपनीयं-रक्तवर्ण सुवर्ण, एतत्सम्बन्धीनि यानि (आभरणभूसणत्ति) आभरणानि-अपरिधेयानि अवेयककङ्कणादीनि.भूषणानि-उपाङ्गपरिधेयानि मुद्रिका-18 दीनि तैः (विराइअमंगुवंगि) विराजितानि अङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि उपाङ्गानि-अङ्गुल्यादीनि, यस्याः सा तथा तां, कोऽर्थः-आभरणैः श्रीदेव्या अङ्गानि भूषितानि सन्ति भूषणैश्च उपाङ्गानीति, पुनः किंवि० (हारविरायंतत्तिाहारेण-मौक्तिकादिमालया विराजत्-शोभमानं (कुंदमालपरिणद्धत्ति) कुन्दादिपुष्पमालया परिणद्धं-व्यासं (जल-RI जलिंतत्ति) जाज्वल्यमानं-देदीप्यमानं एवंविधं यत् (थणजुअलविमलकलसं) स्तनयुगलं, तदेव सदृशाकारतया विमलौ कलशौ यस्याः सा तथा तां, अनेन च अभेदरूपकालंकारेण कनककलशवत् पीनौ -कठिनौ वृत्ती श्रीदेव्याः स्तनौ वर्तते इत्यर्थः सूचिता, पुनः किंवि०१(आइअपत्तिअत्ति) आयुक्ताभिः-यथास्थानस्थापिताभिःST पत्रिकाभिः-मरकतपत्रः 'पानां' इतिलोकप्रसिद्धैः (विभूसिएणं) विभूषितेन अलकृतेन (सुभगजालुज्ज- १४ दीप अनुक्रम [३८] ( O dianelbanoos ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [३६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा लेणं सुभगानि-दृष्टिसुखकराणि यानि जालानि-मुक्तागुच्छानि,तैः उज्ज्वलेन, एवंविधन (मुसाकलावए-श्रीदेवीवव्या०२ ) मुक्ताकलापकेन-मौक्तिकहारेण शोभितां, अन्न शोभितां इतिपदं सूत्रे अनुक्तं अपि अध्याहार्य. एवं अग्रेणिनं मू.३६ विशेषणद्वयेऽपि, पुनः किंवि०१ ( उरत्थदीणारमालविरइएणं ) उरःस्थया-हृदयस्थितया, दीनारमालया-सौव॥४२॥ [णिकमालया विराजितेन ( कंठमणिसुत्तएणं ) कण्ठमणिसूत्रकेन च-कण्ठस्थरत्नमयदवरकेण, शोभितां इति पूर्ववत्, पुनः किंवि०१ (कुंडलजुअलुल्लसंतअंसोवसत्तसोभतसप्पमेणं ) तत्र ईदृशेन शोभागुणसमुदयेनMRI कान्तिगुणप्रारभारेण शोभितां इति योजना, अथ कीदृशेन शोभागुणसमुदयेन ?, अत्र 'अंसोवसत्स' इति पदं प्राक योज्यं ततः 'अंसोवसत्त'त्ति अंसयोः स्कन्धयोः उपसक्तं-लग्नं यत् कुण्डलयोयुगलं तस्य 'उलसंत'त्ति-उल्लसन्ती 'सोभंत 'सि-शोभमाना अत एव 'सत्ति सती-समीचीना 'पभ'त्ति प्रभा-कान्तिर्यस्मिन् एवंविधेन (सोभागुणसमुदएणं) शोभागुणसमुदयेन, पुनः कीदृशेन शो०? (आणणकुटुंबिएणं) आननस्य-मुखस्य कौटुम्यिकेनेव, यथा राजा कौटुम्बिकैः-सेवकैः शोभते एवं श्रीदेव्या आननं तेन शोभागुणसमुदयेनेति भावः, अत्र 'उल्लसंतत्ति 'सोभन्ते'त्यादीनि शोभागुणसमुदयस्य विशेषणानि 'अंसोवसत्तेति च कुण्डलयुगलविशेषणं, ननु तर्हि प्रभागुणसमुदयविशेषणयोमध्ये कुण्डलयुगलविशेषणं कथं न्यस्त ? तथा ॥४२॥ 'अंसोवसत्ते' त्यस्य कुण्डलयुगलात् परनिपातश्च कथं? अंसोवसत्तकुंडलजुयलुल्लसंतेति पाठः कथं न कृत इति । चे, उच्यते, प्राकृतत्वात् अन्यविशेषणमध्येऽप्यन्यविशेषणावतारो विशेषणस्य परनिपातश्च भवति, एवं २८ दीप अनुक्रम [३८] एलटाटchee २५ JABEnicationinा ~102~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [३६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] गाथा ॥१..|| सर्वत्र विशेषणपरनिपाते हेतु यः, पुनः किंविशिष्टां श्रीदेवतां ? ( कमलामलविसालरमणिज्जलोअर्णि) श्रीदेव्यMe कमलवत् अमले-निर्मले विशाले-विस्तीर्णे,रमणीये-मनोहरे च लोचने,यस्याः सा तथा तां, पुनः किंवि०?-Nभिषेका (कमलपज्जलंतकरगहिअसि ) तत्र पूर्ववत् प्राकृतत्वात् विशेषणस्य परनिपातः, ततः प्रज्वलन्तौ-देदीप्यमानी यो करौ-हस्ती ताभ्यां गृहीते ये कमले ताभ्यां (मुक्कतोयं ) मुक्तं-क्षरत् तोयं-मकरन्दरूपं जलं.यस्याः सा तथा तां, अयमर्थ:-श्रीदेव्या तावद् द्वयोः करयोः प्रत्येकं कमलं गृहीतमस्ति, तस्साच मकरन्दविन्दवः अवन्तीति, पुनः किंवि०?-(लीलावायत्ति) लीलया न तु प्रखेदापनोदाय प्रखेदस्य दिव्यशरीरेष्वभावात् , लीलया पायत्ति-बातोदीरणार्थ ( कयपक्वएणं) कृन्ता-अवधूतो, या पक्षका-तालवृन्तं . तेन शोभितां, अत्रापि शोभितां इति पदं अध्याहार्य, पुनः किंवि०?-(सुचिसदत्ति)सुविशद:-सुविविक्तो,न पुनर्जटाजूटवत् पिरस्परसंलग्नः (कसिणत्ति) कृष्णः-श्यामवर्णः ( घणत्ति) घन:-अविरलो न तु मध्ये मध्ये रिक्तः 18( सहत्सि ) सूक्ष्मो न तु शूकररोमवत्स्थूलः (लवंतत्ति ) लम्बमानः (केसहत्थं) केशहस्तो-वेणिर्यस्याः सा तथा तां, पुन: किंवि०-(पउमद्दहकमलवासिर्णि) पद्मद्रहस्थ यत्कमलं पूर्वोक्तखरूपं तत्र निवसन्ती (सिरिं) श्रिय-श्रीदेवतां, इदं विशेष्यं, पुनः किंवि०१-(भगवई) भगवती-ऐश्वर्यादियुतां (पिच्छाइ) प्रेक्षते इदं क्रियापदं, पुनः किंवि०-(हिमवंतसेलसिहरे) हिमवन्नामा पर्वतस्तस्य शिखरे| दीप अनुक्रम [३८) कल्प.सु.८ ~103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [२] ........... मूलं [३६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३६] कल्प-सुवो-18(दिसागइंदोरुपीवरत्ति) दिग्गजेन्द्रा:-ऐरावणादयः तैः उरुपीवरैः-दीधैः पुष्टश्च एवंविधैः (कराभिसिचमाणि) व्या०२ | करैः-शुण्डाभिः कृत्वा अभिषिच्यमानां-लप्यमानाम् ४ ॥ (३६) ॥ गाथा ॥४३॥ दीप REASORCEREM maraasarameswareasanatharastraRanamasan इति महोपाध्यायधीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयमणिविरचिताया कल्पसुबोधिकायां द्वितीयः क्षणः समाप्तः । ग्रन्थानम् ॥ ७४१ । योाख्यानयोः ग्रन्थानम् ॥ १४०६ ।। RepsensessersERSEASURGERSeAGESSESERSereserAsEReseasesserabar अनुक्रम [३८] ॥४३॥ दवितीयं व्याख्यानं समाप्तं ~104 ~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [३७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक Seneral ५ पुष्पदाम ॥ अथ तृतीयं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ [३७] गाथा दीप अनुक्रम (तओ पुणो) ततः पुनर्नभस्तलादेवपतद् दाम पुष्पमाल्यं त्रिशला पञ्चमे खमे पश्यति इति योजना, अथक किंविशिष्टं पुष्पदाम :-(सरसत्ति) सरसानि-सद्यस्का नि(कुसुमत्ति) कुसुमानि-पुष्पाणि येषु एवंविधानि यानि ISI(मंदारदामत्ति) मन्दारदामानि-कल्पवृक्षमाल्यानि तैः (रमणिजभूअं) रमणीयभूतं-अतिमनोहरमित्यर्थः, पुनः किंवि०-(चंपगासोगत्ति) चम्पकः प्रतीतः,अशोकोऽपि प्रतीतः,तथा (पुन्नागनागपियंगुसिरिसत्ति) पुन्नाग-2 नागप्रियशिरीषाः वृक्षविशेषाः तथा (मुग्गरत्ति) मुद्गरः प्रतीत(मल्लिाजाइजूहिअत्ति)मल्लिकाजातियूधिका-18 वल्लीविशेषाः प्रतीताः (अंकोल्लत्ति) अकोल्लः प्रतीतः (कोजकोरिटत्ति) कोजकोरण्टौ अपि वृक्षविशेषी (पत्सदमणयत्ति) दमनकपत्राणि तथा(नवमालिअत्ति)नयमालिका लताविशेष:(चउलत्ति) बउल सिरी इति नामा यकलवृक्षविशेषः (तिलयत्ति) तिलकनामा वृक्षविशेषः (वासंतिअत्ति) वासन्तिकाऽपि लताविशेषः (पउम्मुप्पलत्ति) पद्मानि-सूर्यविकाशिकमलानि, उत्पलानि-चन्द्रविकाशिकमलानि. (पाडलकुंदाइमुसत्ति) पाटलकुन्दातिमुक्ताः |वृक्षविशेषाः (सहकारत्ति) सहकारः प्रतीतः, एतेषां चम्पकाशोकादीनां सहकारान्तानां कुसुमानां-पुष्पाणां (सुरभिगंधि) सुरभिः-घाणतर्पणो गन्धो यत्र तत्तथा, पुनः किंवि०?-(अणुवममणोहरेणं गंघेणं) अनुपमो & [३९] Eacaronion तृतीयं व्याख्यानं आरभ्यते ... भगवन्त महावीरस्य च्यवन-अवसरे माता-त्रिशालाया: दृष्ट: १४ स्वप्नानाम् वर्णनं वर्तते ~105~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [३९] कल्प. सुबो व्या० ३ ॥ ४४ ॥ Jan Education XE दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [३] .......... मूलं [३७] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: य उपमानरहितः अद्वितीय इतियावत् मनोहरश्च - चित्ताहादकः एवंविधेन गन्धेन ( दस दिसाओवि वासयंतं) दशापि दिशः वासयत्-सुरभीकुर्वत्, पुनः किंवि० : - ( सवोउअसुरभिकुसुममल्लधवलत्ति ) सर्वर्त्तुकं यत् सुरभि-सुगन्धं पुष्पमाल्यं तेन धवलं, अयमर्थः षण्णां अपि ऋतूनां सम्बन्धिन्यः पुष्पमालास्तत्र दामनि वर्त्तन्ते इति, तथा (विलसंतत्ति) दीप्यमाना अत एवं ( कंतत्ति) कान्ता - मनोहरा ये (बहुवन्नभत्तिचित्तं) बहवो वर्णा- रक्तपीतादयस्तेषां 'भत्ति'त्ति रचना तया चित्रं- आश्चर्यकारि अथवा चित्रयुक्तं इव, ततख विशेषणद्वयस्य कर्मधारयः कर्त्तव्यः, अनेन च विशेषणेन तत्र पुष्पदामनि भूयान् धवल एव वर्णो वर्त्तते. स्तोकस्तोकाच अन्येऽपि वर्णा वर्त्तन्ते इत्यर्थः सूचितः पुनः किंवि० १- ( छप्पयमहुअरिभमरगणगुमगुमायंतनिलिंतगुंजंतदेसभागं ) अत्रापि विशेषणस्य परनिपातो गुमगुमायमानो - मधुरं शब्दं कुर्वन् अन्यस्थानात् आगत्य तत्र दामनि लयं प्राप्नुवन्- अव्यक्तं शब्दविशेषं कुर्वन् एवंविधो यः षट्पद १ मधुकरी भ्रमराणां भ्रमरजातिविशेषाणां यो गणः समूहः स देश भागेषु - शिखा प्रभाग पार्श्वद्वयाऽधोभागादिकेषु देशभागेषु यत्र तत्तथा, कोऽर्थः १तद्दाम सौरभ्यातिशयात् सर्वभागेषु भ्रमरैः सेवितमस्तीति भावः, अत्र षट्पदमधुकरीभ्रमराणां च वर्णादिभिर्भेदो ज्ञेयः (दामं ) पुष्पदाम, इदं विशेष्यं ( पिच्छ ) प्रेक्षते इति क्रियापदं पुनः किंवि० १ - ( नभंगणतणलाओ ) नभोऽङ्गणतलात् ( उवयंत) अवपतत् - उत्तरत् ५ ॥ (३७) ।। ( ससिंच) ततः पुनः सा त्रिशलादेवी षष्ठे खमे शशिनं पश्यति, अथ कीदृशं ? - ( गोखीरफेणदगरयर For Plate & Fersonal Use On ~106~ २५ पुष्पदाम सू. ३७ १५ २० ॥ ४४ ॥ nebary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र ཊྛཙྪཱཛལླཱསྶ [३८] ||..|| अनुक्रम [४०] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [३] ........... मूलं [३८] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ययकलसपंडुरं ) गोक्षीरं - धेनुदुग्धं, फेनं प्रसिद्धं दकरजांसि - जलकणाः रजतकलशो-रूप्यघटः, तद्वत् पाण्डुरंउज्ज्वलं, पुनः किंवि० ? - ( सुभं ) शुभं - सौम्यं, पुनः किंवि० ? - ( हिअयनयणकंतं ) अत्र लोकानां इति शेषः, ततश्च लोकानां हृदयनयनयोः कान्तं वल्लभं पुनः किंवि० १ - ( पडिपुण्णं ) प्रतिपूर्ण-पूर्णमासीसत्कं पुनः किंवि० ? ( तिमिरनिकरन्ति) तिमिराणां - अन्धकाराणां निकरेण - समूहेन (घणगुहिरन्ति ) घना - निविडा गम्भीरा ये वनगह्वरादयस्तेषां (वितिमिरकर) अन्धकाराभावकरं, वनगह्नरस्थितान्धकारनाशकं इत्यर्थः, यदुक्तं- 'विरम तिमिर ! साहसादमुष्मा - यदि रविरस्तमितः खतस्ततः किम् ? | कलयसि न पुरो महोमहोर्मिस्फुटतर कैरवितान्तरिक्षमिन्दुम् ? ॥१॥ पुनः किंवि० ? - ( पमाणपक्वतत्ति) प्रमाणपक्षी - वर्षमासादिमान कारिणो यो पक्षी-शु कृष्णपक्षौ तयोः अन्तः- मध्ये पूर्णिमायां इत्यर्थः तत्र ( रायलेहं ) राजन्त्यः -शोभमानाः, लेखाः- कला यस्य स तथा तं पुनः किंचि० ? - ( कुमुअवणवियोगं ) कुमुदवनानां चन्द्रविकाशिकमलवनानां विबोधकं विकाशकं, यतः - 'दिनकरतापच्याप प्रपन्नमूर्च्छानि कुमुद गहनानि । उत्तस्थुरमृतदीधितिकान्तिसुधा से कतस्त्वरितम् ॥ १ ॥ पुनः किंवि० १- ( निसासोहगं ) निशाशोभकं - रात्रिशोभाकारकं पुनः किंवि० ? - ( सुपरिमाणतलोमं) सुपरिमृष्टं सम्यकप्रकारेण रक्षादिना उज्ज्वलितं यत् दर्पणतलं तेन उपमा यस्य स तथा तं पुनः किंवि० ? - ( हंसपवनं ) हंसवत् पटुवर्ण- उज्ज्वलवर्ण इत्यर्थः पुनः किंवि० ? - ( जोइसमुहमंडगं ) ज्योतिषां मुखमण्डकं, पुनः किंचि० ? - ( तमरिपुं ) अन्धकारवैरिणं, पुनः किंवि० ? - ( मयणसरापूरगं ) मदनस्य - कामस्य For File & Ferton Use O ~ 107~ ६ शशी सू. ३८ ५ १४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [३८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक कल्प.सुबो- व्या० ३ ॥४५॥ शशी सू. ३८ [३८] गाथा शरापूरमिव-तूणीरमिच, अयमर्थ:-यथा धनुर्धरस्तूणीरं प्राप्य मुदितो निःशङ्क मृगादिकं शरैविध्यति एवं मदनोऽपि चन्द्रोदयं प्राप्य निःशई जनान् बाणैाकुलीकरोति, पुनः किंवि०१-( समुहदगपूरगं) समुद्रोद- कपूरक-जलधिवेलावर्धकं इत्यर्थः, पुनः किंवि०१-(दुम्मणं जणं दइअवज्जि) दुर्मनस्कं-व्यग्रं, ईदृशं दयिते-11 न-पाणवल्लभेन रहितं जनं, विरहिणीलोकं इत्यर्थः, (पाएहिं सोसयंतं) पादैः-किरणैः शोषयन्त, वियोगि-18 दुःखदं इत्यर्थः, यतः-रजनिनाथ ! निशाचर ! दुर्मते ! विरहिणां रुधिरं पिबसि ध्रुवम् । उदयतोऽरुणता कथमन्यथा, तब कथं च तके तनुताभूतः १ ॥१॥ (पुणो) पुनःशब्दो धुरि योजितः, पुनः किंवि०१-(सोमचा-18 रुरूवं) यःसौम्यः सन् चारुरूपो-मनोहररूपः तं, (पिच्छद) प्रेक्षते इति क्रियापदं (सा) सा, पुनः किंवि०१(गगणमंडलत्ति) गगनमण्डलस्य-आकाशतलस्य (विसालत्ति) विशाल-विस्तीर्ण (सोमत्ति) सौम्यं-सुन्दराकारं (चंकम्ममाणत्ति) चक्रम्यमाणं-चलनखभावं, एवंविधं (तिलयं) तिलक, तिलकमिव शोभाकरत्वात्, पुनः किंवि०१-(रोहिणीमणत्ति) रोहिण्या:-चन्द्रवल्लभाया मन:-चित्तं तस्य (हिअयत्ति) हितदो-हितकारी, एकपाक्षिकप्रेमनिरासार्थ हितद इति विशेषणं, ईदृशो ( वल्लहं ) वल्लभो यस्तं, इदं कविसमयापेक्षया, अन्यथा रोहिणी किल नक्षत्र, चन्द्रनक्षत्रयोश्च स्वामिसेवकभाव एव सिद्धान्ते प्रसिदो न तु स्त्रीभतभावः, (देवी) देवी-त्रिशला ( पुग्नचंदं ) पूर्णचन्द्रं, इदं विशेष्य ( समुल्लसतं ) ज्योत्लया शोभमानम् ६॥ (३८) । (तओ पुणो) ततः पुन:-चन्द्रदर्शनानन्तरं सप्तमे स्वमे सूर्य पश्यति अथ किविशिष्टं सूर्य ? (तमपडलप दीप अनुक्रम [४०] ॥४५॥ ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [३९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३९] गाथा ||१..|| रिप्फुड ) तम:पटल-अन्धकारसमूहस्तस्य परिस्फोटक-नाशकं इत्यर्थः (चेय) निश्चयेन पुनः किंवि०१-(ते- सूर्यखमः हा असा पर्जलतरूवं) तेजसेव प्रज्ज्वलत्-जाज्वल्यमानं रूपं यस्य स तथा तं, स्वभावतस्तु सूर्यबिम्बवर्सिनोस. २९ चादरपृथ्वीकायिकाः शीतला एव, किन्त्वांतपनामकर्मोदयात्तेजसैव एते जनं व्याकुलीकुर्वन्तीति ज्ञेयं, पुनः किंवि०१-(रत्तासोगत्ति) रक्ताशोकः-अशोकवृक्षविशेषः (पगासकिंसृत्ति) प्रकाशकिंशुका-पुष्पितपलाशः (सुअमुहगुंजद्धत्ति) शुकमुखं गुञ्जाधं च प्रसिद्धं (रागसरिसं) एतेषां वस्तूनां यो रागो-रक्तस्वं तेन सदृशं, पूर्वोक्तवस्तुबत् रक्तवर्ण इत्यथैः, पुनः किंवि०१-(कमलवणालंकरणं) कमलवनानां अलङ्करण-शोभाकारक। विकाशकं इतियावत, विकसितानि हि तानि अलङकृतानीव विभान्ति, पुनः किंवि०१-(अंकणं जोहसस्स) ज्योतिषस्य-ज्योतिश्चक्रस्य अङ्कनं-मेषादिराशिसंक्रमणादिना लक्षणज्ञापकं, पुनः किंवि०-(अंबरतलपईवं) अम्बरतले प्रदीपं-आकाशतलप्रकाशक, पुनः किंवि०१-(हिमपडलगलग्ग) हिमपटलस्य-हिमसमूहस्य, गलग्रह-गलहस्तदायकं, हिमस्फोटकमित्यर्थः, पुनः किंवि०-(गहगणोरुनायगं) ग्रहगणस्य-ग्रहसमूहस्य उरुः-महान नायको यः स तथा तं, पुनः किंवि० ? ( रत्तिविणासं) रात्रिविनाशं-रात्रिविनाशकारणं इत्यर्थः। पुनः किंवि०१ ( उदयस्थमणेसु मुहुत्तं सुहदसणं ) उदयास्तसमययोः-उदयवेलायां अस्तवेलायां च मुहूर्त यावत् सुखदर्शनं-मुखेन अवलोकनीयं इत्यर्थः, (दुनिरिक्खरूवं) अन्यस्मिन् काले दुर्निरीक्ष्यरूपं-सम्मुखं विलोकयितुं न शक्यते इत्यर्थः, पुनः किंवि ?-रित्तिमुद्धंतत्ति) रात्री उद्धता:-स्वेच्छाचारिणः,मकारोऽत्र प्राकृ दीप अनुक्रम [४१] ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [३९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३९] गाथा ||१..|| ॥४६॥ कल्प सबो-तत्वात् , एवंविधाये (दुप्पयारप्पमहणं) दुष्पचाराः चौरादयोऽन्यायकारिणस्तान् प्रमईयति यस्तै, अन्यायकारि-11 सूर्यस्वनः TRप्रचारनिवारकं इत्यर्थः पुनः किंवि०१-(सीअवेगमहणं) शीतवेगमथनं, आतपेन शीतवेगनिवारणात.(पि-II च्छइ) प्रेक्षते इति क्रियापदं प्राग्योजितं, पुनः किंवि०१-(मेरुगिरिसययपरिवड्यं) मेरुगिरेः सततं परिवर्तक मेर आश्रित्य प्रदक्षिणया भ्रमन्तं इतियावत्, पुनः किंवि०१-(विसालं) विशालं-विस्तीर्णमण्डलं (सूरं) सूर्य इत्यपि विशेष्यं योजितं, पुनः किंवि०१-(रस्सीसहस्सपयलिअत्ति) रश्मिसहस्रेण-किरणदशशल्या कृत्वा प्रदलिता-प्रस्फोटिता (दित्ससोह) दीप्तानां-चन्द्रतारादीनां शोभा येन स तथा तं, येन खकिरणः सर्वेषां, IS अपि प्रभा विलुप्ताऽस्तीति भावः, अत्र सहस्रकिरणाभिधानं तु लोकप्रसिद्धत्वात् , अन्यथा कालविशेषे अधि का अपि तस्य किरणा भवन्ति, तथा चोक्तं लौकिकशास्त्रेषु-'ऋतुभेदात्पुनस्तस्यातिरिच्यन्तेऽपि रश्मयः। शतानि द्वादश १२०० मधौ, त्रयोदश १३०० तु माधवे ॥१॥ चतुर्दश १४०० पुनज्येष्ठे, नभोनभस्ययोस्तथा १४००-१४००। पंचदरीव १५०० वाषादे, पोडशैव १६०० तथाऽऽश्विने ॥२॥ कार्तिके त्वेकादश च ११००, शतान्येवं ११०० तपस्पपि । मार्गे च दश सार्धानि १०५०, शतान्येवं १०५० च फाल्गुने ॥३॥ पीप एव परं| मासि, सहस्रं १००० किरणा रवेः ७॥ (३९)। | चैत्र वैशाख | ज्येष्ठे | आषाढे | श्रावणे भाद्रपदे आश्विने आर्तिके मागे । पौषे माघे फाल्गुने १२०० । १३०० । १४००-१५००-१४०० १४००१६०० ११०० १०५०१००० ११०० दीप अनुक्रम [४१] ।१०५० JABEdication ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४०] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४०] गाथा ||१..|| (सओ पुणो)ततः पुनः सा त्रिशला अष्टमे स्वमे ध्वज पश्यति, किंविशिष्टं ध्वजं?(जच्चकणगलडिपाइरजखहिअं) जात्यं-उत्तमजातीयं यत् कनक-सुवर्ण, तस्य या यष्टिस्तत्र प्रतिष्ठितं, सुवर्णमयदण्डशिखरे स्थितं इत्य- माम.. थैः, पुनः किंचि०१-(समूहनीलरत्तपीअसुकिल्लत्ति) समूहीभूतानि बहूनीत्यर्थः नीलरक्तपीत शुक्लानि कृष्णनीलयोरैक्यात् पञ्चवर्णमनोहराणीत्यर्थः ( सुकुमालुल्लसिअत्ति) सुकुमालानि उल्लसन्ति-वातेन लहलहायमानानि इत्यर्थः एवंविधानि यानि (मोरपिच्छकयमुद्धयं) मयूरपिच्छानि तैः कृता मूर्धजा इव-केशा इव यस्य स तथा [तं, अयमर्थ:-यथा मनुष्यशिरसि वेणिर्भवति तथा तस्य ध्वजस्य वेणिस्थाने मयूरपिच्छसमूहः स्थापितोऽ| स्तीति (धयं) ध्वज इवं विशेष्यं, पुनः किंचि०१ ( अहिअसस्सिरीअं) अधिकसश्रीकं-अतिशोभितं इत्यर्थः, पुनः किंवि०१-एवंविधन सिंहेन राजमानं इति विशेषणयोजना, अथ कीडशेन सिंहेन ?(फलिअसंखंकत्ति) स्फटिक-रत्नविशेषः शङ्ख:-प्रसिहा अङ्कोऽपि-रत्नविशेषः (कुंददगरयत्ति) कुन्दस्य-धवलपुष्पविशेषस्य माल्य Hदकरजांसि-जलकणाः (रययकलसत्ति) रजतकलशो-रूप्यघटः (पंडुरेण) उक्तसर्ववस्तुवत् उज्ज्वलवर्णेन, ( मस्थयत्थेण ) मस्तकस्थितेन चिनतया ध्वजशिरसि आलेखितेनेत्यर्थः ( सीहेण ) सिंहेन इति विशेष्यं, पुनः कीदृशेन सिंहेन ?-(रायमाणेण) राजमानेन सुन्दरत्वात् शोभमानेनेत्यर्थः (रायमाणं) राजमान इति तु योजितं, पुनः कीदृशेन सिंहेन ? (भित्तुं) भेत्तु-विधाकर्तु, किं ? (गगणतलमंडलं) आकाशतलमण्डलं (चेच) उत्प्रेक्षायां (वयसिएणं) सोयमेनेव, अयमर्थ:-ध्वजस्तावद्वायुतरङ्गेण कम्पते, कम्पमाने च ध्वजे सिंहोऽपि १४ दीप अनुक्रम [४२ ~111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [४०] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४०] गाथा कल्प.सुबो- गगनं प्रति उच्छलति, तथा च उत्प्रेक्ष्यते-अयं सिहः किंगगनतलं भेन्चु उद्यमं करोतीति ?, (पिच्छइ) प्रेक्षते इति ९ बज व्या०३क्रियापदं, अथ पुनः किंविशिष्ट ध्वजं?-(सिबत्ति)शिवः-सौम्यःसुखकारी अत एव (मउअत्ति) मृदुको-मन्द-INIH.४१ ॥४७॥ मन्द इतियावत् एवंविधो यो (मारुअत्ति) मारुतो-वायुस्तस्य (लयसि) लय-आश्लेषो मिलन मितियावत् तेन । ISI(आहयत्ति) आहत-आन्दोलितो यः, तत एव (कंपमाणं) चलनखभावो यः स तथा तं, पुनः किंवि०? (अइप्पमाणं) अतिप्रमाणं-महान्तं इत्यर्थः, पुन: किंवि०१-(जणपिच्छणिजरूवं) जनानां प्रेक्षणीयं-द्रष्टुं । योग्य, रूपं-खरूपं यस्य स तथा तं ८॥ (४०)। (तओ पुणो) ततः पुनः सा त्रिशला क्षत्रियाणी नवमे स्वप्ने रजतपूर्णकलशं-रूप्यमयं पूर्णकुम्भं पश्यति, अथ किविशिष्टं रजतपूर्णकलशं ?-(जचकंचणुज्जलंतरूव) जात्यकाश्चनवत्-उत्तमसुवर्णवत् उत्-प्राबल्येन दीप्यमानं| रूपं यस्य स तथा तं, यथा किल जात्यकाश्चनस्य रूपं अतिनिर्मलं भवति तथा तस्य कलशस्यापि रूपं इति तात्पर्य, पुनः किंवि०१-(निम्मलजलपुन्नमुत्तम) निर्मलेन जलेन पूर्ण अत एव उत्तम-शुभसूचक, पुन: किंवि०१-(दिप्पमाणसोह)दीप्यमाना शोभा यस्य स तथा तं, पुन: किंवि०१-(कमलकलावपरिरायमाणं) कमलकलापेन-कमल- २५ समूहेन परिराजमान-सर्वतः शोभमानं, पुनः किंवि०१-(पडिपुन्नत्ति)प्रतिपूर्णा न तु न्यूना एवंविधा ये (सव्वम- ॥४७॥ गलभेअत्ति) सर्वमङ्गलभेदा–मङ्गलप्रकारास्तेषां (समागम) समागमः-सङ्केतस्थानमिव, यथा सङ्केतकारिणो| जनाः सङ्केतस्थाने अवश्य प्राप्यन्ते तथा तस्मिन् कलशे दृष्टे अवश्यं सर्वे मङ्गलभेदाः प्राप्यन्ते इति भावः, पुनः दीप अनुक्रम [४२ २८ JABETicatoniral hanelbanaras ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [४१] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [४१] गाथा ||१..|| किंवि०१-(पवररयणपरिरायंतकमलढिअं) प्रवररत्नैः परिराजमानं यत् कमलं तत्र स्थितं, रत्नमयविकसित-१०पनसरः कमलोपरि स कलशो मुक्तोऽस्तीति भावः, पुन: किंवि०?-(नयणभूसणकर) नयनानां भूषणकर-आनन्द- खप्नः मू. करमित्यर्थः, नयनयोहि आनन्द एव भूषणं यथा पद्मस्य विकाशः पुनः किंवि०१-(पभासमाणं) प्रभासमान-| दीप्यमानं प्रभया वाऽसमान-निरुपम, पुनः किंवि० (सब्बओ चेव दीवयंत) सर्वतः-सर्वदिशं निश्चयेन दीपयन्तं, पुनः किंवि०१-(सोमलच्छित्ति) सौम्या-प्रशस्ता या लक्ष्मीस्तस्याः (निभेलणं ) गृहं, अयं देश्यः शब्दः, पुनः किंवि०-(सव्वपावपरिवजिअं) सर्वेः पापैः-अमङ्गलः परिवर्जितं-रहितं, अत एव (मुभा भासुरं) शुभं भासुर-दीप्यमानं (सिरिवरं ) श्रिया-शोभया प्रधान, पुनः किवि०१ ( सव्वोउअसुरभिकुसुमत्ति) सर्वत्तुकानां-सर्वऋतुजातानां, सुरभिकुसुमानां-सुगन्धिपुष्पाणां सम्बन्धीनि (आसत्तमल्लदाम) आसक्तानि-कण्ठे स्थापितानि माल्यदामानि यस्मिन् कलशे स तथा तं, (पिच्छइ) प्रेक्षते इति क्रियापदं (सा) सा त्रिशला (रययपुन्नकलसं) रजतस्य पूर्णकलशं इदं विशेष्यम् ॥९॥४१॥ (तओ पुणो) ततः पुनः सा त्रिशला दशमे खप्ने पद्मसरः पश्यति, अथ किंविशिष्टं पद्मसर:-( रविकिरणतरुणवोहिअत्ति) प्राकृतत्वाद्विशेषणस्य परनिपातात् तरुणो-नूतनो यो रविस्तस्य ये किरणास्तवाधितानि यानि (सहस्सपत्तत्ति) सहस्रपत्राणि-महापानि तैः (सुरभितरत्ति) अत्यन्तं सुगन्धि (पिंजरजलं) पीतं रक्तं च जलं यस्य तत्तधा, पुनः किंवि०१-(जलचरपहकरत्ति) जलचरा-जलजीवास्तेषां 'पहकर'त्ति समूहस्तेन दीप अनुक्रम [४३] ~113~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४२] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४२] गाथा ||१..|| एर ब्रटटटटटटटटट कल्प.सुबो-(परिहत्थगत्ति) परिपूर्ण-सर्वतो व्याप्त इत्यर्थः, तथा (मच्छपरिभुजमाणजलसंचयं) मत्स्यैः परिभुज्य-१० पासरः व्या०३ मानो-व्याप्रियमाणो जलसञ्चयो यस्य तत्तथा, ततः कर्मधारयः, पुनः किंवि०१-(जलंतमिव) ज्वल- खमः . | दिव-वेदीप्यमानं इव, केन ?-(कमलत्ति ) कमलानि-सूर्यविकाशीनि अम्बुजानि (कुवलयत्ति) कुवा ४२ ॥४८॥ |लयानि च-चन्द्रविकाशीनि कमलानि (उप्पलत्ति) उस्पलानि-रक्तकमलानि (तामरसत्ति) तामरसानिमहापद्मानि (पुंडरीयत्ति) पुंडरीकानि-उज्ज्वलकमलानि, एतेषां नानाजातीयकमलानां यः (उरु) उरु:-विस्तीणः (सप्पमाणत्ति) सर्पन्-प्रसरन् , एवंविधो यः (सिरिसमुदएणं) श्रीसमुदया-शोभासमूहस्तेन, कमलानां शोभाप्रकरण हि शोभमानत्वं एवं स्यात् न तु सूर्यबिम्बादिवदेदीप्यमानत्वं अत उत्प्रेक्ष्यते-एतेषां विविधकमलानां शोभाप्राग्भारेण ज्वल दिव-देदीप्यमानमिवेति, पुनः किं०-(रमणिजरूबसोह) रमणीया-मनोरमा रूपशोभा यस्य तत्तथा, पुनः किंवि०१-(पमुहअंत)प्रमुदितं अन्त:-चित्तं येषां ते प्रमुदितान्तरः एवंविधा ये (भमरगणत्ति) भ्रमरगणाः (मत्तमहुअरिगणुकरोलिजमाणकमल) मत्तमधुकरीगणाच-भ्रमरजातिविशेषगणास्तेषां उत्करा:-समूहाः, भ्रमरमधुकरीणां बहूनि वृन्दानि इत्यर्थः, तैः अवलिह्यमानानि-आस्वाथमानानि डा कमलानि यत्र तत्तथा,पुनः किंवि.?-(कार्यबगबलाहयचक्कत्ति)कादम्बा:-कलहंसाः बलाहका-पलाका चक्रा- ॥४८॥ चक्रवाकाः (कलहंससारसत्ति) कला-मधुरशन्दा ये हंसाः कलहंसा राजहंसा इत्यर्थः सारसा-दीघेजानुका जीवविशेषाः इत्यादयो ये (गब्धिअत्ति) गर्विता:-ताहकस्थानप्राप्त्याऽभिमानिनो ये (सउणगणमिहुणसेविज-| २० दीप अनुक्रम [४४] LABEnicatomire ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [४४] क. सु. ९ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [३] ........... मूलं [ ४२ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: माणसलिलं शकुनिगणाः-पक्षिसमूहास्तेषां मिथुनैः - द्वन्द्वैः सेव्यमानं सलिलं यस्य तत् तथा पुनः किंचि० १(प्रमिणिपत्तो लग्गज लबिंदुनिचयश्चित्तं ) पद्मिन्यः - कमलिन्यस्तासां पत्राणि तत्र उपलग्ना ये जलबिन्दुनिचयास्तैचित्रं मण्डितमिव, इन्द्रनीलरत्नमयानीव पद्मिनीपत्राणि मुक्ताफलानुकारिभिर्जलबिन्दुभिरतीव शोभन्ते, तैश्च पत्रैस्तत् सरः कृतचित्रं इव भातीति भावः, ( पिच्छइ ) प्रेक्षते इति क्रियापदं ( सा ) सा त्रिशला, पुनः किंवि० ? - ( हिअयनयणकतं ) हृदयनयनयोः कान्तं वल्लभं ( पउमसरं नाम सरं ) पद्मसर इति नाम्ना सरः-सरोवरं, इदं विशेष्यं, किंवि० : - ( सररुहाभिरामं ) सरस्सु अई-पूज्यं अत एव अभिरामंरमणीयम् १० ।। (४२) ॥ (तओ पुणो ) ततः पुनरेकादशे स्वप्ने शरद्रजनिकर सौम्यवदना सा त्रिशला क्षीरोदसागरं पश्यति, अथ किंविशिष्टं क्षीरोदसागरं ? - ( चंद्रकिरणरासित्ति) चन्द्रस्य किरणराशि:- किरणसमूहस्तेन ( सरिससिरिवच्छसोहं ) सदृशा श्री:- शोभा यस्याः एवंविधा वक्षः शोभा यस्य स तथा तं वक्षःशब्देन हि हृदयं उच्यते, त प्राणिनो भवति न तु समुद्रस्य, ततो हृदयशब्देनात्र मध्यभागः प्रोच्यते इति, ततोऽत्युज्ज्वलो मध्यभागो यस्येति ज्ञेयं, पुनः किंवि० १- ( चउग्गमणपवद्धमाणजलसंचयं ) चतुर्षु गमनेषु - दिग्मार्गेषु प्रकर्षेण वर्धमानो जलसञ्चयो - जलसमूहो यस्य स तथा तं चतसृष्वपि दिक्षु तत्र अगाध एव जलप्रवाहोऽस्तीति भावः पुनः किंवि० १- ( चवलचंचलुच्चायम्पमाणकलोललोलंततोयं ) चपलचञ्चला - चपलेभ्योऽपि चपला Jan Education remon For Pride & Personal Use On ~ 115~ पद्मसरःख प्र. सू. ४२ क्षीरोदसागरःस्. ४३ ५ १० १४ www.janelbary.org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [४३] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक धीरसागरः मू.४३ [४३] गाथा कल्प सुबो- अतिचपला इतियावत् तथा उचं आत्मप्रमाणं येषामेवंविधा ये कल्लोलास्तैलोलत्-पुनः पुनरेकीभूय पृथग्भवत व्या० ३ एवंविधं तोयं-पानीयं यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०१-(पडुपवणाहयत्ति) पटुना-अमन्देन पवनेन आहता- ॥४९॥ आस्फोटिताः सन्त: अत एव (चलिअत्ति) चलिता-धावितुं प्रवृत्ताःतत एव (चवलत्ति) चपलाः (पागडत्ति)। प्रकटा: (तरंगत्ति) एवंविधास्तरङ्गा:-कल्लोला तथा (रंगतभंगत्ति)रत-इतस्ततो नृत्यन्तः एवंविधा भंग'त्ति| कल्लोलविशेषाः तथा (खोखुन्भमाणत्ति) अतिक्षुभ्यन्तः-भयभ्रान्ता इव भ्रमन्तः (सोभंतत्ति) शोभमानाः (निम्मलत्ति) निर्मला:-स्वच्छाः (उक्कडत्ति) उत्कटा:-उद्धताः (उम्मीत्ति) ऊर्मयो-विच्छित्तिमन्तः कल्लोला, ततः एतैः सर्वैः पूर्वोक्तैः कल्लोलप्रकारैः (सहसंबंधत्ति) सह यः सम्बन्धो-मिलनं तेन (धावमाणावनियत्त भासुरतराभिरामं) धावमान:-त्वरितं तीराभिमुखं प्रसन् अपनिवर्तमान:-तटात् पश्चादलमान: सन् भासुवारतर:-अत्यन्तं दीपोऽत एव अभिरामो-मनोहरो यः स तथा तं, पुनः किंवि०१-(महामगरमच्छत्ति) महान्तो मकरा मत्स्याश्च प्रसिद्धाः तथा (तिमितिमिगिलनिरूद्धतिलितिलियाभिघायत्ति ) तिमयः १ तिमिङ्गिलाः २ निरुद्धाः ३ तिलितिलिका ४ श्च जलचरजीवविशेषाः, अर्थतेषां अभिघातेन-पुच्छाच्छोटनेन उत्पन्नः (कप्पूरफेणपसरं) कर्पूरवदुज्ज्वलः फेनप्रसरो यस्य स तथा तं, पुनः किंवि०?-(महानईतुरियवेगसमागय- भमत्ति) महत्यो नद्यो महानद्यो-गङ्गाद्यास्तासां ये त्वरितवेगा:-शीघ्रं आगमनानि तैः आगतभ्रम-उत्पन्नभ्रमणो यो (गंगावत्तत्ति ) गङ्गावर्त्तनामा आवर्तविशेषस्तत्र (गुप्पमाणुचलंतत्ति) व्याकुलीभवत् अत एव उच्छलत् दीप अनुक्रम [४५) peececeneselictimes २५ ४९ ।। २८ 10manusbaryana ~116~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४३] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [४५] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [३] ........... मूलं [ ४३ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: विमानखआवर्त्तपतितत्वेन अन्यत्र निर्गमावकाशाभावात् ऊर्ध्वं उच्छलत् (पञ्चोनियतत्ति) प्रत्यवनिवृत्तं ऊर्ध्वं उच्छ ल्य तत्रैव पुनः पतितं, अत एव ( भ्रममाणलोलसलिलं ) तत्र आवर्त्ते एव भ्रमत् तत एव च लोलं खभावतः सू. ४४ तञ्चञ्चलं, एवंविधं सलिलं - पानीयं यत्र स तथा तं, (पिच्छइ) प्रेक्षते इति क्रियापदं ( खीरोअसायरं ) क्षीरोदसागरं इदं विशेष्यं ( सरघरयणिकर सोमवयणा ) शरत्कालीनः रजनीकरः- चन्द्रस्तद्वत् सौम्यं वदनं यस्याः, एवंविधा त्रिशला ११ ॥ (४३) । (तओ पुणो ) ततः सा त्रिशला द्वादशे स्वप्ने विमानवरपुण्डरीकं प्रेक्षते, अथ किंविशिष्टं विमानवरपुंडरीकं ? - ( तरुणसूरमंडलसमप्यहं ) तरुणो-नूतनो यः सूर्यस्तस्य मण्डलं विम्बं तेन समा प्रभा - कांतिर्यस्य तत्तथा पुनः किंवि०१ ( दिव्यमाणसोहं ) दीप्यमाना शोभा यस्य तत्तथा पुनः किंवि० ? ( उत्तमकंचणमहामणिसमूह परते अअद्वसहस्सत्ति ) उत्तमैः काञ्चनमहामणिसमूहैः- सुवर्णरत्नप्रकरैः प्रवरा ये अष्टाधिकसहस्रसंख्याः तेकाः-स्तम्भाः तैः (दिप्पंतनहपई ) दीप्यमानं सत् नभ - आकाशं प्रदीपयति यत् तत् तथा, पुनः किंचि ० १ - कणगपयरलंयमाणमु सासमुज्जलंति) कनकप्रतरेषु सुवर्णपत्रेषु लम्बमानाभिर्मुक्ताभिः समुज्ज्वलं प्राबल्येन दीप्तिमत् पुनः किंवि० ? (जलंतदिव्यदामंति) ज्वलन्ति - दीप्यमानानि देवसम्बन्धीनि अर्थालम्बितानि दामानि-पुष्पमाल्यानि यत्र तत्तथा पुनः किंवि० ? - ( इहामिगाउसभतुरगति ) इहामृगा-वृका 'वरगडा जीव इति लोके' ऋषभा-वृषभाः तुरगा अश्वाः (नरमगर विहगत्ति) नरा- मनुष्याः मकराः विहगाः For File & Ferton Use O ~ 117 ~ ५ १४ www.janelbrary.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [४४] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४४] गाथा कल्प.सुबो-पक्षिणः ( वालगकिन्नररुरुसरभचमरसंसत्तत्ति) व्यालका:-सर्पाः,किन्नरा-देवजातिविशेषाः,करवो-मृगभेदाः विमानस्वव्या०३शरभा-अष्टापदाः, चमयों-धेनवः, संसक्ताः-श्वापदविशेषाः (कुंजरवणलयपउमलयति) कुजरा-हस्तिनःRTH.४४ वनलता-अशोकलताद्याः, पद्मलताः-पद्मिन्यः एतेषां सर्वेषां या (भत्तिचित्तं ) भक्ती-रचना चित्राणि इतियावत् तैः चित्रं-आश्चर्यकारि, पुनः किंवि०१-(गंधब्बोपयजमाणसंपुन्नधोसं) गान्धर्वशब्देन इह गीतं ।। उच्यते उपवाद्यमानशब्देन वादित्राण्युच्यन्ते, ततो गान्धर्वोपवाद्यमानानां-गीतवादित्राणां सम्पूर्णो घोष:शब्दो यन्त्र तत्तथा, पुनः किंवि०१-(निचं सजलघणविउलजलहरत्ति) नित्यं-निरन्तरं सजलो-जलसम्पूर्ण घनो-निबिडो विपुल:-पृथुला एवंविधो यो जलधरो-मेधस्तस्य यत् ( गजिअसहाणुणाइणा) गर्जितशब्दोगोरव इत्यर्थः तस्य अनुनादिना-सदृशेन एवंविधेन (देवदुंदुहिमहारवेणंति) देवसम्पन्धिदुन्दुभिमहाशब्देन| (सयलमचि जीवलोपरयंत) सकलमपि जीवलोकं पूरयत शब्दव्याप्तं कुर्वत् इत्यर्थः, पुनः किवि०१-(काला-16 गुरुपवरकुंदुरुकतुरुकत्ति) कृष्णागुरु १ प्रबरकुन्दुरुष्क २ तुरुष्काः ३ प्राग्व्याख्याताः तथा (डझतमाणधूव-| वासंगत्ति) Bह्यमानधूपो-दशाङ्गादिधूपो.वासाङ्गानि-सुगन्धद्रव्याणि एतेषां सर्वेषां यो (मघमघंतत्ति) मघमघायमानो (गन्धुदुआभिराम) उद्धत-इतस्ततः प्रसृतश्च यो गन्धस्तेन अभिरामं, पुनः किंवि०-(निचा-IR ॥५०॥ लोअं) नित्यं आलोक:-उद्योतो यत्र तत्तथा, पुनः किंवि०१-(सेअं) श्वेत-उज्ज्वलं अत एव (सेअप्पमं) श्वेता-उज्ज्वला प्रभा-कान्तिर्यस्य तत्तथा, पुनः किंवि०१-(सुरवराभिरामं) सुरवरैः प्रधान-शोभितं, न तु । दीप अनुक्रम [४६) २५ ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४५] गाथा डड ||..|| दीप अनुक्रम [ ४७ ] Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [ ३ ] ........... मूलं [ ४५ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: रिक्तं, पिछड़ ) प्रेक्षते इति क्रियापदं (सा) सा त्रिशला इति प्राग्योजितं, पुनः किंवि० १- ( साओवभोगं सातस्य सातावेदनीयस्य कर्मण उपभोगो यत्र तत् सातोपभोग, ईदृशं (विमाणवरपुंडरीयं ) विमानवरपुण्डरीकं विमानवरेषु पुण्डरीकमिव अत्युत्तमत्वात् इदं विशेष्यं १२ ॥ (४४) ॥ (तओ पुणो ) ततः पुनः सा त्रिशला त्रयोदशे खमे रत्ननिकरराशि पश्यति, अथ किंविशिष्टं रत्ननिकराशि १ - पुलगवेरिंदनीलत्ति) पुलकं १ वज्रं २ इन्द्रनीलं- नीलरत्नं ३ ( सासगन्ति ) सस्यकं - रत्नविशेषः ४ (कअणत्ति) कर्केतनं ५ (लोहियक्खति) लोहिताक्षं ६ (मरगयत्ति) मरकतं ७ (मसारगल्लत्ति) मसारगलं ८ पवालत्ति) प्रवालं ९ (फलिहत्ति) स्फटिक १० (सोगंधियत्ति) सौगन्धिकं ११ ( हंसगव्भत्ति) हंसगर्भ १२ (अंजगत्ति) अञ्जनं-अञ्जनप्रभं श्यामरत्नं १३ (चंदप्पहत्ति) चन्द्रप्रभः- चन्द्रकान्तरत्नं १४ (वररयणेहिं) एभी रत्नप्रकारैः (महिअलपट्टि ) महीतलप्रतिष्ठितं ( गगणमंडलतं पभासयंतं ) महीतले स्थितमपि गगनमण्डलस्यान्तं यावत् प्रभासयन्तं, लोकप्रसिद्धस्य आकाशस्यापि शिखरं स्वकान्त्या शोभयन्तं इत्यर्थः पुनः किंवि० १(तुंगं ) उवं, किंप्रमाणं ? इत्याह- ( मेरुगिरिसन्निगासं) मेरुगिरिसदृशं (पिच्छह) प्रेक्षते इति क्रियापदं (सा) सा त्रिशला ( रयणनिकररासिं) रत्ननिकराणां राशि:- उच्छ्रितः समूहस्तं इदं विशेष्यम् १३|| (४५) । ( सिहिं च ) सिंहिं चेति पदं प्रागुक्तगाथागतं 'तओ पुणो ' इत्यर्थसूचकं, ( सा ) ततः सा त्रिशला चतुदेशे स्वप्ने ईदृशं शिखिनं- अग्निं पश्यति, अथ किंविशिष्टं शिखिनं ? - ( विउलुजलपिंगलमहुघय परिसिचमाणन्ति) For File & Personal Use O ~ 119~ रनोचयस्व प्रः सू. ४५ १० १४ janbrary.org Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [४६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४६] गाथा Heraenace99609 पो.विपुला-विस्तीर्णा, तथा उज्ज्वलपिंगलेन मधुघृतेन परिषिच्यमाना-उज्ज्वलेन घृतेन पिङ्गलेन च मधुना अनिखप्तः ज्या०३||सिच्यमाना अत एव (निमत्ति) निघूमा (धगधगाइअति) धगधगितिकुर्वत्यो (जलंतजालजलाभिराम) ज्वलन्त्यो-दीप्यमाना या ज्वालास्ताभिः उज्ज्वलं अत एव अभिरामं, पुनः किंवि० ? (तरतमजोगजुत्तेहिं) जिनजननीतरतमयोगयुक्तैः (जालपयरेहिं ) ज्वालाप्रकरैः (अनुन्नमिव अणुपइन्नं) अन्योऽन्यं अनुमकीर्ण इच, तस्य |दृश्यता सर्वा अपि ज्वाला अन्योऽन्यं प्रविष्टा इव सन्तीति भावः, (पिच्छइ) प्रेक्षते इति क्रियापदं, पुनः किंवि०?(जालुजलणगत्ति) ज्वालानां ऊर्ध्व ज्वलनं ज्वालोज्ज्वलनं, स्वार्थिककप्रत्यये च ज्वालोज्ज्वलनकं, अन तृती-1 यैकवचनलोपः तेन ज्वालोज्ज्वलनकेन (अंबरं व कत्थइ पयंतं) कचित्प्रदेशे अम्बरं-आकाशं पचन्तं इव. अभ्रंलिहत्वेन भाकाशपचनसमर्थं इवेत्यर्थः, पुनः किंवि० -(अइवेगचंचलं) अतिवेगेन चञ्चलं (सिहिं)% शिखिनं-अग्निं, इदं विशेष्यम् १४ ॥ (४६)॥ 8 (इमे एयारिसे) इमान् एतादृशान् ( सुभे)शुभान-कल्याणहेतून् (सोमे) उमया-कीर्त्या सहितान् (पियदसणे) प्रियदर्शनान-दर्शनमात्रेण प्रीतिकरान् (सुरूवे) सुरूपान् (सुविणे) खमान् ( दद्दूण सयण- २५ मज्झे पडिवुद्धा) शयनमध्ये-निद्रामध्ये दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा-जागरिता सती (अरविंदलोयणा) अरविन्दलोच- ॥५१॥ ना त्रिशला (हरिसपुलइअंगी) हर्षपुलकिताङ्गी-प्रमोदभररोमाञ्चितगात्री ॥ अत्र प्रसङ्गेन एतेषां स्वमानां गर्भकाले सकलजिनराजजननीविलोकनीयत्वं दर्शयन्नाह-(एए चउदस सुविणे) एतान् चतुर्दश स्वमान् दीप अनुक्रम ४ि८ S 0909aerve टे JABEnicationiaN.. ~ 120~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [४८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४८] गाथा 18( सव्वा पासेइ तित्थयरमाया।) सर्वाः पश्यन्ति तीर्थकरमातरः (जं रयणि वक्कमइ ) यस्यां रजन्यां श्रीसिद्धार्थ18 उत्पद्यन्ते (कुञ्छिसि महायसो अरिहा ॥१॥) कुक्षौ महायशसः अर्हन्तः॥ (४७)॥ जागरणं (तएणं सा तिसला खत्तिआणी) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी (इमे एयास्वे) इमान् एतदुरूपान सू.४८ चिउद्दस महासुमिणे) चतुर्दश महास्वमान (पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी) दृष्ट्वा जागरिता सती (हङ्कतुजावहिअया) हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहृदया (धाराहयकयंवपुप्फगंपिव) मेघधाराभिः सिक्तं यत् कदंबपुष्प-कदंबतरुकुसुमं तद्वत् (समुस्ससिअरोमकूवा ) उल्लसितानि रोमाणि कूपेषु यस्याः सा (सुमि|णुग्गहुं करेइ) स्वमानां अवग्रह-स्मरणं करोति (करित्ता) कृत्वा च (सयणिजाओ अब्भुट्टेद) शय्यायाः अभ्युत्तिष्ठति ( अन्भुहिता) अभ्युत्थाय (पायपीढाओ पचोरुहइ) पादपीठात् प्रत्यवतरति (पबोरुहित्ता) प्रत्यवतीय च (अतुरियं) अत्वरितया-चित्तौत्सुक्यरहितया (अचवलं) अचपलया-फायचापल्परहितयार ( असंभंताए ) असम्भ्रान्तया-कुत्रापि स्खलनारहितया (अविलम्बियाए ) विलम्बरहितया (रायहंससरिसीए) राजहंसगतिसदृशया (गइए ) एवंविधया गत्या (जेणेव सयणिजे ) यत्रैय शयनीयं (जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए) यत्रैच सिद्धार्थनामा क्षत्रियः (तेणेव उवागच्छइ ) तत्रैव उपागच्छति ( उथागच्छित्ता) उपागत्य च (सिद्धत्थं खत्तियं) सिद्धार्थ क्षत्रियं ताभिर्गीर्भि:-वाणीभिः संलपन्ती २ प्रतिबोधयतीति सम्बन्धः । अथ कीदृशीभिर्वाणीभिरित्याह-(ताहिं ) ताभिर्विशिष्टगुणसंयुक्ताभिः, पुन: किंवि०१-( इवाहिं ) इष्टाभिः दीप अनुक्रम [५०] JABEducation ... स्वप्न-दर्शनान्तर माता त्रिशालाया: जागरण एवं राजा सिद्धार्थ सह कृत: स्वप्न-विषयक-संवादः ~ 121~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [४८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४८] गाथा ||१..|| व्या०३ तस्य वल्लभाभिः, पुनः किंवि०?-(कंताहिं) कान्ताभि:-सर्वदा वाञ्छिताभिः अत एव (पियाहिं) प्रिया-श्रीसिद्धार्थभि:-अद्वेष्याभिः, पुनः किंवि०१-(मणुण्णाहिं ) मनोज्ञाभिः-मनोविनोदकारिणीभिः, अत एव (मणामाहि जागरणं मनोऽमाभिः-मनसा अम्यन्ते-पुनः पुनर्गम्यन्ते न तु कदापि विस्मार्यन्ते एवंविधाभिः, पुनः किंवि०१(उरा- सू. ४८ ॥५२॥ IS लाहिं ) उदाराभिः-सुन्दरध्वनिवर्णसंयुताभिः, पुनः किंवि०? ( कल्लाणाहिं ) कल्याणानि-समृद्धयस्तत्कारि-11 णीभिः, पुन: किंवि०१-(सिवाहि) शिवाभिः-उपद्रवहरीभिः तथाविधवर्णसंयुक्तत्वात् , अत एव (धन्नाहिं धन्याभि:-धनप्रापिकाभिः, पुनः किंवि०१ ( मंगल्लाहिं ) मङ्गलकरणे प्रवीणाभिः, पुनः किंवि० ? (सस्सिरी- २० आहिं) सश्रीकाभिः-अलङ्कारविराजिताभिः, पुनः किंवि० ? (हिअयगमणिजाहि ) कोमलतया सुबोधतया॥ च हृदयङ्गमाभिः, पुनः किंवि०? (हिअयपल्हायणिजाहिं ) हृदयप्रह्लादनीयाभिः-हगतशोकायुच्छेदिकाभिः, पुन: किंवि०मिअमहरमंजुलाहिं) मिता:-अल्पशब्दाः बहाश्च मधुरा:-श्रोत्रसुखकारिण्या, मञ्ज-18 ला-मुललितवर्णमनोहरा. ततः पदवयस्य कर्मधारये मितमधुरमञ्जलाभिरिति (गिराहिं) एवंविधाभिः | वाणीभिः (संलवमाणी २) संलपन्ती-वदन्ती (पड़ियोहेइ) जागरयति ॥(४८)॥ । (तए णं) ततोऽनन्तरं जागरणानन्तरं ( सा तिसला खत्तिआणी) सा त्रिशला क्षत्रियाणी (सिद्धत्येणं ॥५२॥ रना) सिद्धार्थेन राज्ञा (अन्भणुण्णाया समाणी) अभ्यनुज्ञाता सती (नाणामणिकणगरयणभत्तिचित्तंसि) नानामणिकनकरत्नानां भक्तिभिः-रचनाभिः, चित्रे-आश्चर्यकारिणि (भद्दासणंसि निसीयइ) भद्रासने २८ दीप अनुक्रम [५०] JABEducation ~122 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४९] गाथा Fors ||..|| दीप अनुक्रम [५१] Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ३ ] ........... मूलं [ ४९ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: निषीदति ( निसीहत्ता ) निषद्य च ( आसत्था ) मार्गजनितश्रर्मापगमेन आश्वस्ततां उपगता, अत एव (वीसस्था ) विश्वस्ता क्षोभाभावेन ( सुहासणवरगया ) सुखासनवरं गता, सुखेन उपविष्टा सती (सिद्धत्थं खत्तियं ) सिद्धार्थ क्षत्रियं ( ताहिं इट्ठाहिं ) ताभिः इष्टाभिः ( जाव संलवमाणी २) यावत् पूर्वोक्तखरू - पाभिर्वाणीभिः ( एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ (४९ ) ॥ तत् किमित्याह ( एवं खलु अहं सामी) एवं निश्चयेन अहं हे खामिन् ! ( अन तंसि तारिसगंसि ) अच तस्मिन् तादृशे ( सवणिज्जंसि ) पल्यङ्के ( वण्णओ) वर्णकः पूर्वोक्तः ( जाव पडिवुडा) यावत् जागरिता तावद्वाच्यः, (तंजहा ) तद्यथा ( गयवसहगाहा ) 'गयवसह' इति गाथाप्यत्र वाच्या ( तं एएसि सामी) तस्मात् एतेषां | हे स्वामिन्! ( उरालाणं ) प्रशस्तानां ( चउदसण्हं महासुमिणाणं ) चतुर्दशानां महास्वमान (के म मन्ये इति वितर्काथों निपातः, ततः कः ? अहं विचारयामि ( कलाणे ) कल्याणकारी ( फलवित्तिविसेसे [ भविस्सह ) फलवृत्तिविशेषो भविष्यतीति ॥ ( ५० ) ॥ (तए णं से सिद्धस्थे राधा ) ततः स सिद्धार्थों राजा ( तिसलाए खत्तिआणीए ) त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः (अंतिए) अन्तिके-पार्श्वात् (एअमहं ) एनमर्थं (सुधा) श्रुत्वा श्रोत्रेण (निसम्मत्ति) निशम्य हृदयेनावधार्य (तुजावहियए) हृष्टस्तुष्टः यावत् हर्षपूर्णहृदयः (धाराहृयनी वसु र हिकुसुमत्ति ) धारासिक्को यो नीपवृक्षः तस्य सुगन्धि पुष्पं तद्वत् ( चंचुमालइयरोमकुबे ) उल्लसितानि रोमाणि कूपेषु यस्य स तथा, एवं For Pide & Farson Use O ~ 123~ स्वम निवेद नं सू. ४९ फलपृच्छा सू. ५० ५ १० १४ www.janbary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र ཝོལླཊྛལླཱཡྻ [५१] ||..|| अनुक्रम कल्प, सुबोव्या० ३ ॥ ५३ ॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ३ ] ........... मूलं [ ५९ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: विधः सन् ( ते सुमिणे ओगिण्हइ ) तान् स्वमान् अवगृह्णाति चेतसि धरति ( ओगिरिहत्ता ) अवगृह्य च ( ईहं अणुपविसह ) ईहां - सदर्थविचारणालक्षणां अनुप्रविशति (अणुपविसित्ता) अनुप्रविश्य च (अध्पणो साहाविएणं ) आत्मनः खभावतः उत्पन्नेन तथा (महपुच्चएणं ) मतिपूर्वकेण एवंविधेन (बुद्धिविष्णाणेणं ) बुद्धिविज्ञानेन कृत्वा ( तेर्सि सुमिणाणं ) तेषां स्वप्नानां ( अत्युग्गह करे ) अर्थावग्रहं - अर्थनिश्चयं करोति ( करिता ) अर्थनिश्चयं कृत्वा च (तिसलं खत्तियाणि ) त्रिशलां क्षत्रियाणीं प्रति ( ताहिं इद्वाहिं ) ताभिः इष्टाभिः ( जाव सस्सिरीयाहिं ) यावत् सश्रीकाभिः ( वग्गूहिं संलवमाणे २) एवंविधाभिः वाग्भिः संल पन् सन् ( एवं वयासी ) एवं अवादीत् ॥ ( ५१ ) ॥ किमित्याह -- (उराला गं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिट्ठा) उदाराः - प्रशस्ताः त्वया हे देवानुप्रिये !-सरलस्वभावे स्वमाः दृष्टाः ( कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिट्ठा ) तथा कल्याणकारिणः त्वया हे देवानुप्रिये स्वम दृष्टाः ( एवं ) अनेनाभिलापेन ( सिवा धन्ना मंगल्ला ) उपद्रवहराः धनप्रापकाः मङ्गलकारकाः ( सस्सिरिया) शोभया सहिताः (आरुग्गतुद्विदीहाउन्ति) नीरोगत्वं चित्तानन्दः चिरजीवित्वं (कल्लाणमंगलकारगाणं ) कल्याणं - समृद्धिः मङ्गलं-वाञ्छितप्राप्तिः एतेषां वस्तूनां कारकाः (तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा) त्वया हे देवानुप्रिये ! खनाः दृष्टाः । अथ तेषां स्वमानां महिना किं भविष्यतीत्याह - (अत्थलाभो देवाशुप्पिए) अर्थो मणिकनकादिः तस्य लाभः हे देवानुप्रिये ! ( भोगलाभो देवाणुप्पिए ) भोगाः - शब्दादय Jan Education le ... राजा सिद्धार्थ एवं निमित्तकैः कृत स्वप्न-फ़ल्-वर्णनं For File & Fersonal Use Only ~ 124 ~ मत्यादिभिरथेनिश्वयः सू. ५१ फलकथनम् सू. ५२ २० २५ ॥ ५३ ॥ २८ Aelbrary.org Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [५२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [ ५४ ] Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ३ ] ........... मूलं [ ५२ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: स्तेषां लाभः हे देवानुप्रिये ! ( पुत्तलाभो देवाणुप्पिए) पुत्रस्य लाभ: हे देवानुप्रिये ! ( सुक्खलाभो देवाणुप्पिए) सौख्यं मनसो निवृत्तिस्तस्य लाभः हे देवानुप्रिये ! (रजलाभो देवाणुप्पिए ) राज्यं - स्वाभ्यैमात्य सुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गसैन्यलक्षणं सप्ताङ्गं तस्य लाभो भविष्यतीति ॥ अथ सामान्येन फलान्युक्त्वा विशेषतो मुख्यं फलमाह - ( एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! ) अनेन प्रकारेण निश्चयेन त्वं हे देवानुप्रिये ! हे त्रिशले ! ( नवहं मासाणं ) नवसु मासेषु ( बहुपडिपुन्नाणं ) बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु ( अट्टमाण राइंदियाणं ) अर्द्धाष्टमरात्रिदिवसाधिकेषु ( विज्ञताणं ) व्यतिक्रान्तेषु सुरूपं दारकं पुत्रं प्रजनिष्यसीति सम्बन्धः, किंविशिष्टं ? - ( अम्हं कुलकेड ) अस्माकं कूले केतुरिव केतुः चिन्हं ध्वजस्तत्सदृशं अत्यद्भुतं इत्यर्थः ( अम्हं कुलदीवं ) अस्माकं कुले दीप इव दीपस्तं प्रकाशकं मङ्गलकारकं च ( कुलपव्वयं) कुले पर्वत इव पर्वतः अपराभवनीयः स्थिर, कुलस्य आधार इत्यर्थः, ( कुलवर्डिस) कुले अवतंसक इव-मुकुट इव यस्तं, शोभाकरत्वात्, अत एव (कुलतिलयं ) कुलतिलकं मस्तकधार्यत्वात् (कुलकित्तिकरं ) कुलकीर्त्तिकरं शुभाचारित्वात् ( कुलवित्तिकरं ) कुलस्य वृत्ति:- निर्वाहस्तस्य कारकं (कुलदिणयरं ) प्रकाशकत्वात् कुले दिनकरसमानं ( कुलआधारं ) कुलाधारः - पृथ्वीवत् कुलस्याधारं (कुलनंदिकरं ) कुलस्य नन्दि:-वृद्धिस्तस्याः करं कारकं ( कुलजसकरं ) कुलस्य यशः - सर्वदिग्गामिनी ख्यातिः तस्य कारकं, 'एकदिग्भामिनी कीर्तिः, सर्वदिग्गामुकं यशः' इति वचनात् ( कुलपायचं) छायाकरत्वात् आश्रयणीयत्वाच्च कुले पादपसमानं, For Pride & Personal Use On ~125~ भाविपुत्र वर्णनं सू. ५२ ५. १० १४ wijanbary.org Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [१२] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२] कल्प.सुबो- न्या०३ ॥५४॥ गाथा ||१..|| पादप:-वृक्षः (कुलविवद्धणकरं) कुलस्य विवर्धनं-सर्वतो वृद्धिस्तस्य कर-कारक (सुकुमालपाणिपायं) शीर्यादिवसुकुमालं पाणिपादं यस्य स तथा तं (अहीणपडिपुन्नपचिंदियसरीरं) लक्षणोपेतानि तथा स्वरूपेणापि पूर्णानिनं सू.५३ एवंविधानि पञ्चेन्द्रियाणि यन्त्र एवंविधं शरीरं यस्य स तथा तं (लक्खणबंजणगुणोववेय) लक्षणानां व्यञ्जनानां च ये गुणाः तैः उपपेतं-सहितं (माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुंदरंग) मानेन उन्मानेन प्रमाणेन च प्रतिपूर्णानि तथा सुजातानि-शोभायुक्तानि एवंविधानि सर्वाणि अङ्गानि यन एवंविधं सुन्दरं अङ्ग-शरीरं॥ यस्य स तथा तं (ससिसोमागारं ) चन्द्रवत् सौम्याकारं (कंतं ) वल्लभं (पियदसणं) प्रियं दर्शनं यस्य स २० तथा तं (सुरूप) शोभनरूपं (दारयं) एवंभूतं पुत्रं (पयाहिसि) प्रजनिष्यसि ॥ (५२)॥ (सेविय गं दारए)सोऽपि च बालकः ( उम्मुक्कबालभावे) उन्मुक्तो बालभावो येन सः (विनायपरि-16 णयमिते) विज्ञातं-विज्ञानं तत् परिणतमात्रं यस्य स तथा, परिपक्कविज्ञान इत्यर्थः (जुब्वणमणुपत्ते) यौवनं ४ अनुप्राप्तः सन् (सूरे) शूर:-दाने अङ्गीकृत निर्वाह च.समर्थ इत्यर्थः (वीरे) वीर: संग्रामे समर्थः (विकते) विक्रान्ता-परमण्डलाक्रमणसमर्थः पराक्रमवानित्यर्थः (विच्छिण्णविउलबलवाहणे) विस्तीर्णादपि विपुले २५ अतिविस्तीर्णे इत्यर्थः एवंविधे बलवाहने यस्य स तथा, तत्र वलं-सेना वाहनं-गवादिकं ( रजवई राया भवि- ॥५४॥ स्सइ) राज्यस्य खामी एवंविधो राजा भविष्यति ।। (५३)॥ (तं उराला णं जाव सुमिणा विट्ठा) तस्मात् प्रशस्ता यावत् त्वया खमाः दृष्टाः (दुचंपि तचंपि अणुबू दीप अनुक्रम [५४] JanEnicatonind ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [१४] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५४] गाथा ||१..|| हह) एवं वारद्वयं वारत्रयं प्रशंसति (तए णं सा त्रिसला खत्तियाणी) ततोऽनन्तरं सा त्रिशला क्षत्रिया- तथाकृतिः णी (सिद्धस्थस्स रनो) सिद्धार्थस्य राज्ञः (अंतिए एयमई सुच्चा) पार्षे एतं अर्थ श्रुत्वा (निसम्म) प्रतिजागरनिशम्य-अवधार्य (हतुहजाव हिअया) हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहृदया (करयलपरिग्गहियं) करतलाभ्यां णं च म, कृतं (जाव मत्थए अंजलिं कट्ठ) यावत् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा (एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ (५४)॥ | (एवमेयं सामी!) एवं एतत् हे खामिन् ! (तहमेयं सामी) तथैतत् हे खामिन् ! (अवितहमेयं सामी) ५ यथास्थितं एतत् हे स्वामिन् ! ( असंदिद्धमेयं सामी) संदेहरहितं एतत् हे स्वामिन् ! (इच्छियमेयं सामी) वाञ्छितं एतत् हे स्वामिन् ! (पडिच्छियमेयं सामी) युष्मन्मुखापतदेव गृहीतं एतत् हे स्वामिन् ! (इच्छियपडिच्छियमेयं सामी) वाञ्छितं सत् पुनः पुनः वाञ्छितं एतत् हे खामिन् !(सचे णं एस अट्टे) सत्यः एषोऽथे। I( से जहेयं तुम्भे वयहत्ति कट्ठ)स यथा-येन प्रकारेण इमं अर्थ यूयं वदथ इति उत्तवा (ते सुमिणे सम्म पडिकछह) तान् स्वमान् सम्यक प्रतीच्छति-अङ्गीकरोति (पडिच्छित्ता) अङ्गीकृत्य च (सिद्धत्धेणं रना) | सिद्धार्थेन राज्ञा (अन्मणुनाया समाणी) अभ्यनुज्ञाता-स्वस्थानं गन्तुमनुमता (नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ)नानामणिरत्नभक्तिभिश्चित्रात भद्रासनात् (अन्भुढेद) अभ्युत्तिष्ठति, (अन्भुद्वित्ता) अभ्युत्थाय च ( अतुरियमचवलमसंभंताए) अत्वरितया अचपलया असम्भ्रान्तवा (अविलंवियाए) विलम्बरहितया (रायहंससरिसीए गइए) राजहंससदृशया गत्या (जेणेव सए सयणिजो) यत्रैष स्वकं शयनीय दीप अनुक्रम [५६) काप.स. १. ~127 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [५६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५६] गाथा सू. ५७ कल्प.सुबो-INणेव पवागछह) तत्रैव उपागछति ( उवागच्छित्ता) उपागस्य च (एवं वयासी) एवं अवादीत-(५५) कौटुम्बिव्या० ३ (मा मे एए उत्तमा) मा इति निषेधे लोके 'रखे' इति, मम एते उत्तमा:-स्वरूपतः सुन्दराः (पहाणा) काकारण सत्फलदायकत्वात् प्रधानाः अत एव (मंगल्ला) मङ्गलकारिणः (सुमिणा दिट्ठा) स्वमाः दृष्टाः (अन्नेहिं| पावसुमिणेहिं ) अन्यैः पापस्वमैः (पडिहम्मिस्संतित्तिकट्ठ) मा प्रतिहन्यन्तां-विफलीक्रियन्तां इतिकृत्वा (देवयगुरुजणसंबध्धाहिं) देवगुरुजनसम्बध्धाभिः अत एव (पसत्थाहिं) प्रशस्ताभिः (मंगल्लाहिं) मङ्गलकारिणीभिः (धम्मियाहिं ) धार्मिकाभिः (कहाहिं) कथाभिः ( सुमिणजागरियं जागरमाणी) स्वामजाग-1 रिकां-स्वसंरक्षणार्थं जागरिका स्वमजागरिका तां जाग्रती (पडिजागरमाणी विहरह) तान् स्वप्नानेव स्वापनिवारणेन प्रतिचरन्ती आस्ते इत्यर्थः ॥ (५६)॥ 8 (तए णं सिद्धत्थे खत्तिए) ततः सिद्धार्थः क्षत्रियः (पच्चूसकालसमयंसि ) प्रभातकालसमये (कोथुषि-18 रायपुरिसे सद्दावेइ ) कौटुम्बिकपुरुषान-सेवकान् आकारयति (सहावित्ता) आकार्य च ( एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ (५७)॥ किमित्याह २५ (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!) क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव अरे सेवकाः ! (अन्ज सविसेस) अद्य उत्सवदिनलात् विशेषप्रकारेण (बाहिरियं उबढाणसालं ) बाह्यां उपस्थानशाला'कचेरी' इति लोके, किंविशिष्टां ? (गंधो-15 वयसित्तं) सुगन्धोदकेन सिक्तां (सुइसमजिओवलितं) शुचिं-पवित्रा, संमार्जितां कचवरापनयनेन उप-1| २८ SadS2020206ass दीप अनुक्रम ५८) 5359900080928 ~128 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [३] .......... मूलं [१८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [५८] गाथा लिप्तां छगणादिना, ततः पयस्य कर्मधारयः, (सुगंधवरपंचवण्णपुप्फोवयारकलियं) सुगन्धानां वराणां | सिंहासनपञ्चवर्णानां च पुष्पाणां य उपचारस्तेन कलितां (कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघंतगंधुझ्याभिराम) रचनादि तथा दद्यमाना ये कृष्णागुरुपवरकुन्दुरुषकतुरुष्कधूपास्तेषां मघमघायमानो यो गन्धस्तेन उद्धताभिरामा (सुगंविरगंधियं) तथा सुगन्धवराणां-चूर्णादीनां गन्धो यत्र तथा तां (गंधवहिभूयं) गन्धद्रव्यगुटिकासमानां ( करेह ) एवंविधां उपस्थानशालां कुरुत खयं (कारचेह) अन्यैः कारयत (करिता कारवित्ता य) कृत्वा ५ कारयित्वा च तत्र (सीहासणं रयावेह रयावित्ता) सिंहासनं रचयत रचयित्वा मम एयमाणसियं खिप्पा-18 मेव पञ्चप्पिणह) मम एतां आज्ञां शीघ्रमेव प्रत्यर्पयत ।। (५८)॥ | (तए णं ते कोटुंबियपुरिसा) ततोऽनन्तरं ते कौटुम्विकपुरुषाः (सिद्धत्थेणं रना) सिद्धार्थेन राज्ञा (एवं वुत्ता समाणा) एवं उक्ताः सन्तः (हतुजावहिअया) हृष्टास्तुष्टा इत्यादि पूर्ववत् हर्षपूर्णहृदयाः (जावर अंजलिं कड) यावत् अञ्जलिं कृत्वा (एवं सामित्ति) हे स्वामिन् ! यथा यूयं आदिशथ तत्तथैव अस्माभिरवश्यं कर्त्तव्यं इत्युक्त्वा (आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति) आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति (पडिसुणि-18 ता) प्रतिश्रुत्य च (सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिआओ) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य पार्थात् (पडिनिक्खमंति) बहिस्तान्निष्कामन्ति (पडिनिक्खमित्ता) तथा कृत्वा (जेणेव बहिरिआ उवट्ठाणसाला) यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला (तेणेव उवागच्छंति ) तत्रैव उपागच्छन्ति (उवागच्छित्ता) उपागत्य ( खिप्पामेव ) शीघं एव दीप अनुक्रम [६०] JABEnicatoon ( O dianelbanaras ~ 129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [५९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५९] गाथा ||१..|| (सविसेसं बाहिरियं उचट्ठाणसालं) विशेषप्रकारेण बायां उपस्थानशाला (गंधोदयसित्तं सुई) गन्धोदकेन सिंहासनरसिक्ता तथा शुचिं च कृत्वा (जाव सीहासणं रयाविति) यावत् तत्र सिंहासनं रचयन्ति (रयावित्ता)रच-चनादि स. यित्वा (जेणेव सिद्धत्थे वत्तिए) यत्रैव सिद्धार्थः क्षत्रियः (तेणेव उवागच्छंति) तत्रैव उपागच्छन्ति (स्वाग-५९उत्थानं ॥ ५६ ॥ च्छित्ता) उपागत्य (करयल जाव मत्थए अंजलिं कट्ट) करतलाभ्यां यावत् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा (सिद्ध- पू. ६० स्वस्स खत्तियस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य (तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति ) तां आज्ञा प्रत्यर्पयन्ति, तत्तथैव सर्व कृत्वा अस्माभिर्भवदादेशः कृत इति निवेदयन्तीत्यर्थः ॥ (५९)॥ INI (तए णं सिद्धस्थे खत्तिए) ततः स सिद्धार्थः क्षत्रियः (कलं पाउप्पभाए रयणीए) कल्ये-आगामिनि दिने 'प्रादुरित्यव्ययं प्रकाशे' ततः प्रकटप्रभातायां एवंविधायां रजन्यां जातायां सत्यां (फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि) फुल्लं-विकसितं यत् उत्पलं-पद्मं कमलश्च-हरिणविशेषस्तयोः सुकुमाल उन्मिलितंविकसनं दलानां नयनयोश्च यस्मिन्नेवंविधे (अहापंडुरे पभाए) अथ-रजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे-उज्ज्वले प्रभाते, अयमर्थ:-यस्मिन्प्रभाते पद्माना दलविकासेन विकसनं जातं हरिणानां च नयनविकासेनेति, तमिन प्रभाते जाते, पूर्व रजनी विभाता तत ईषत्प्रकाशो जातः ततश्च पाण्डुरं-उज्ज्वलं प्रभातं जातं ततश्च क्रमेण ॥५६॥ 18 सूर्य उगते सति, अथ किंविशिष्ट सूर्य ? ( रत्तासोगप्पगासत्ति) रक्तस्य अशोकस्य य: प्रकाश:-प्रभासमूहः। (किंसुअत्ति) किंशुकंच-पलाशपुष्प (सुअमुहत्ति) शुकमुख-शुकचञ्चुपुटं (गुंजद्धरागत्ति) गुञ्जाया अर्धे कृष्णभा-II २८ दीप अनुक्रम [६१] २५ JABEnication N ilanetbraryana ~130~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [६०] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [६२] Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ३ ] ........... मूलं [ ६०] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: गार्दैन्य भागलक्षणं एतेषां यो रागो-रक्तत्वं तथा (बंधुजीवगत्ति) बन्धुजीवकं - पुष्पविशेषः 'वपोहरीआ फुल इति लोकप्रसिद्धं (पारावयचलणनयणत्ति) पारापतस्य चरणनयनं (परहु असुरत्तलो अणत्ति) परभृतस्य को किलस्य सुरक्तें - कोपादिना रक्तीकृते ये लोचने (जामुअणकुसुमरासित्ति) जपापुष्पस्य 'जासूद' इति लोकप्रसिद्वस्य यो राशि:- समूहस्तथा ( हिंगुलनिअराइरेगरेहंतसरिसे) हिंगुलनिकरश्च प्रसिद्धः, एतेभ्यः सर्ववस्तुभ्यः अतिरेकेण राजमानः सन् सदृशः, अत्र यः अतिरेकेण राजमानः स सदृशः कथं भवतीत्याशङ्कायां रक्तत्वमात्रेण सदृशः कान्त्या तु अतिरेकेण राजमान इति वृद्धाः, अथवा रक्ताशोकप्रकाशादीनां हिङ्गुलनिकरान्तानां यो राजमानोऽतिरेकः- प्रकर्षस्तत्सदृश इति, पुनः किंविशिष्टे सूर्ये १ ( कमलायरसंडविबोहए ) कमलानां आकरा - उत्पत्तिस्थानानि ये पद्महदादयस्तेषु यानि खण्डानि कमलवनानि तेषां विकाशके (उट्ठियंमि सूरे) एवंविधे अभ्युदिते सूर्ये सति, पुनः किंवि० १ ( सहस्सरस्सिमि) सहस्ररइमौ पुनः किंवि० १ ( दिणयरे) दिनकरे - दिनकरणशीले, पुनः किंवि० १ ( तेअसा जलते ) तेजसा देदीप्यमाने ( तस्स य करपहरापरर्द्धमि अंधयारे ) तस्य च श्रीसूर्यस्य करमहारै: - किरणाभिघातैः अन्धकारे अपराद्धे विनाशिते सति, अथ च ( बालायवकुंकुमेणं खचियत्व जीवलोए ) बालातपः प्रसिद्धः स कुङ्कुममिव तेन जीवलोके मनुष्यलोके खचिते - व्याप्ते सति, कोऽर्थः ? - यथा कुङ्कुमेन किञ्चिद्वस्तु पिञ्जरीक्रियते तथा बालातपेन जीवलोके पिञ्जरीकृते सति (सयणिजाओ अब्भुट्ठेइ ) शयनीयात् अभ्युत्तिष्ठति ॥ (६०) ॥ For Pride & Personal Use Only ~ 131~ नृपस्योत्था नं सू. ६० ५ १० १४ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [६१] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६१] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- (सयणिज्जाओ अन्भुट्टित्ता) स सिद्धार्थः शयनीयादभ्युत्थाय ( पायपीढाओ पचोरुहइ) पादपीठात् अनशाव्या०३ प्रत्यवतरति (पचोरुहिता) प्रत्यवतीयें (जेणेव अदृणसाला) यत्रैव अहन शाला-परिश्रमशाला (तेणेव लागमादि उवागच्छद) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्सा) उपागत्य च (अदृणसालं अणुपविसइ) अद्दनशालाम. ६१ ॥५७॥ अनुप्रविशति (अणुपविसित्ता) अनुप्रविश्य च (अणेगवायामत्ति) अनेकानि व्यायामाय-परिश्रमाय (जोग्ग-II बग्गणत्ति) योग्या-अभ्यासः 'खुरली तु श्रमो योग्याऽभ्यास' इति वचनात् वल्गन-अन्योऽन्यं उपर्युपरि पतनं (वामहणत्ति) व्यामर्दनं-परस्परेण बाहाद्यङ्गमोटनं (मल्लजुद्धकरणेहिं) मल्लयुद्धानि प्रतीतानि, करणानि च-अङ्गगभड्गविशेषाः मल्लशास्त्रोक्ताः एतैः कृत्वा (संते परिस्संते) श्रान्तः-सामान्येन श्रम उपगतः, परिश्रान्तः-16 सर्वाङ्गीणश्रमं प्राप्तः, एवंविधः सन् (सयपागसहस्सपागेहिं) शतवारं नवनवौषधरसेन पकानि, अथवा यस्य पाके शतं सौवर्णा लगन्ति तानि शतपाकानि.एवं सहस्रपाकानि एवंविधैः (सुगंधवरतिल्लमाइएहिं ) सुगन्धवरतैलादिभिः, आदिशब्दात् कपूरपानीयादीनि ग्राध्याणि, अथ कीदृशैः तैलादिभिः ? (पीणणिज्जेहिं) प्रीणनीयैः-रसरुधिरादिधातुसमताकारिभिः ( दीवणिज्जेहिं) दीपनीय:-अग्निदीसिकरैः (मयणिज्जेहिंा मदनीयैः कामवृद्धिकरैः (विहणिज्जेहिं ) बृहणीयैः-मांसपुष्टिकरैः ( दप्पणिज्जेहिं ) दर्पणीयैः-बलकारिभिः ॥ ५७॥ (सबिदियगायपल्हायणिज्जेहिं ) सर्वाणि इन्द्रियाणि गात्राणि च तेषां प्रह्लादनीयैः-आप्यायनाकारिभिः 18 एतादृशैः तैलादिभिः (अभंगिए समाणे) अभ्यङ्गितः सन् (तिल्लचम्मंसि ) तैलचर्मणि, तैलाभ्यङ्गानन्तरं ses24 दीप अनुक्रम [६३] Stoticers EacaronliOR ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [६१] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [६३] Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ३ ] ........... मूलं [ ६९ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: एवंविधैः पुरुषैः संवाहितः सन् अपगतपरिश्रमो जात इति योगः, अथ किंविशिष्टैः पुरुषैः ? (निउणेहिं ) निपुणैः- उपायविचक्षणैः, पुनः किंवि० १ ( पडिपुन्नपाणिपाय सुकुमालको मलत लेहिं ) प्रतिपूर्णस्य पाणिपादस्य सुकुमालकोमलानि - अत्यन्तकोमलानि तलानि येषां ते तथा तैः अत्र किरणावलीकारेण दीपिकाकारेण च प्रतिपूर्णानां पाणिपादानां इति प्रयोगो लिखितः स तु चिन्मः ' प्राणितूर्यांगाणा' मितिसूत्रेणावश्यं हैमव्याकरणमते एकवद्भाब भवनात् पुनः किंवि० ? (अभंगणपरिमद्दणुब्वलणकरणगुणनिम्मापहिं ) अभ्यङ्गनं-तैलादिना प्रक्षणं परिमर्दनं तस्य तैलस्य मर्द्दनं उदलनं तस्य तैलस्य बहिः कर्षणं उद्वर्तनं वा एतेषां करणे ये गुणविशेषास्तेषु निर्माते:- विशिष्टाभ्यासवद्भिः पुनः किंवि० १ ( छेएहिं ) छेकै:-अवसरजैः पुनः किंवि० १ ( दक्खेहिं ) दक्षैः- त्वरितत्वरित कार्यकारिभिः पुनः किंवि० १ ( पट्टेहिं ) प्रष्ठै:-मर्द्दनकारिणां अग्रेसरैः पुनः किंवि० ? ( कुसलेहिं ) कुशलैः - विवेकिभिः पुनः किंवि० ? (मेहाविहिं ) मेघाविभि: - अपूर्वविज्ञानग्रह - णसमर्थैः पुनः किंवि० ? ( जिअपरिस्समेहिं ) जितपरिश्रमैः - बहुपरिश्रमकरणेऽपि श्रममनाप्नुवद्भिः (पुरिसेहिं ) एवंविधैः पुरुषः ( अहिसुहाए ) अस्थनां सुखकारिण्या (मंससुहाए ) मांसस्य सुखकारिण्या ( तयासुहाए ) स्वचः सुखकारिण्या (रोमसुहाए) रोम्णां सुखकारिण्या ( चउब्बिहाए ) इत्येवंरूपया चतुप्रकारया ( सुहपरिकम्मणाए ) सुखा- सुखकारिणी परिकर्मणा - अङ्गशुश्रूषा यस्यां सा तथा एवंविधया ( संवाहणाए ) सम्बाधनया-विश्रामणया (संवाहिए समाणे ) संवाहितः कृतविश्रामणः सन् ( अवगयपरि ~ 133~ अनशालागमादि सू. ६१ ५ १० १४ www.janbary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६२] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६२] गाथा कल्प.सुबो-स्समे) अपगतपरिश्रमः (अहणसालाओ पडिनिक्खमह) अष्टनशालायाः प्रतिनिष्कामति । (६१) मज्जनादि व्या० ३18 (अट्टणसालाओ पडिनिक्खमित्ता) अहनशालायाः प्रतिनिष्क्रम्य (जेणेव मजणधरे ) यत्रैव मज्जनगृहंसू.६२ ॥५॥ (तेणेव उवागच्छा) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य (मज्जणघरं अणुपविसह) मज्जनगृहं अनुप्रविशति ( अणुपविसित्ता) अनुप्रविश्य (समुत्तजालाकुलाभिरामे) समुक्त-मुक्ताफलयुक्तं यत् जालंगवाक्षस्तेन आकुलो-व्याप्तोऽभिरामश्च तस्मिन् (विचित्तमणिरयणकुहिमतले ) विचित्राणां मणिरत्नानां बद्धभूभागो यस्य स तथा तस्मिन ( रमणिज्जे) रमणीये (पहाणमंडसि ) एवंविधे स्वानमण्डपे (नाणामणिरयणभत्तिचिससि) तथा नानामणिरत्नभक्तिभिः चिने (पहाणपी सि) एवंविषे स्नानपीठे (सुहनिसन्ने) सुखेन निषण्ण:-उपविष्टः सुखनिषण्णः सन् (पुष्फोदएहि य) पुष्पोदक:-पुष्परसमिौजले (गंधो दएहि य ) गन्धोदकैः- श्रीखण्डादिरसमिर्जलैः (उण्होदएहि य) उष्णोदक (महोदएहि य) शुभोदकैःहातीर्थजलेः (सुद्धोदएहि य) शुद्धोदक:-खभावनिर्मलोदकैः एवंप्रकारविविधपानीयैः कृत्वा (कल्लाणकरणप-12 वरमज्जणविहियमज्जिए ) कल्याणकरणे प्रथर:-प्रवीण, एवंविधो यो मन्जन विधिस्तेन मज्जितस्ताहरीः पुरुषैरिति शेषः (तत्थ कोउअसएहिं बहुविहेहिं) तत्र-लानावसरे कौतुकशतैः- रक्षादीनां शतैः बहुविधैः संयुक्ते ॥५४॥ अथ कीदृशो राजा १(कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे) कल्याणकारि एवंविधं यत् प्रवरमजनं तस्यावसाने-प्रान्ते (पम्हलसुकुमालगंधकासाइअलूहियंगे) पक्ष्मला अत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना कापायिका-कषायरक्ता दीप अनुक्रम [६४]] JABEducation anusbanvaro ~134~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [६२] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: र प्रत सूत्रांक [६२] गाथा ||१..|| शाटिका तया लूक्षित-निर्जलीकृतं अझं-शरीरं यस्य स तथा, पुनः कीदृशो राजा? (अयसुमहग्घदूसरयण- मज्जनादि सुसंकुडे) अहतं-अव्यकं सुमहाप-बहुमूल्यं ईदृशं यत् दूष्यरत्नं- वस्त्ररत्नं तेन सुष्ठ संवृतः, परिहितध्यरत्नसू. ६२ इत्यर्थः, पुनः किंवि०१ (सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते ) सरसेन सुरभिणा च गोशीर्षचन्दनेन अनु-ISI लिसं गात्रं यस्य स तथा, पुनः किंवि०१ (सुइमालावन्नगविलेवणे ) तत्र माला-पुष्पमाला वर्णकविलेपनं चमण्डनकारि कुक्कुमादिविलेपनं तत् उभयं शुचि-पवित्रं यस्य स तथा, पुन: किंवि०(आविद्धमणिसुषन्ने) आविद्धानि-परिहितानि,मणिसुवर्णानि-लक्षणया मणिसुवर्णमयानि भूषणानि येन स तथा, पुनः किंवि० पा(कप्पियहारद्धहारतिसरयत्ति) कल्पिता-विन्यस्ता ये हारादयः, सत्र हार-अष्टादशसरिक: अर्घहारो-नवस-16 |रिकत्रिसरिकं च प्रतीतं तथा (पालंवपलंबमाणत्ति) प्रलम्बमानःप्रालम्बो-मुम्बनकं (कडिसुत्तत्ति) कटिसूत्रं च-18 कव्याभरणं एतैः कृत्वा (सुकयसोहे) सुष्ठ कृता शोभा यस्य स तथा, पुनः किंवि०१ (पिणद्धगेबिजे) पिन-श द्धानि-परिहितानि अवेयानि-ग्रीवाभरणानि येन स तथा, पुनः किंवि०१ (अंगुलिज्जगललियकयामरणे) अङ्गुलीयकानि-अङ्गुल्याभरणानि ललितानि यानि कचाभरणानि-केशमण्डनानि पुष्पादीमि यस्य स तथा, पुनः किंवि०१ (वरकडगतुडिअर्थभिअमुए) वरैः-प्रधानः कटकैः-वलयः त्रुटिकैश्च-बाहाभरणैः स्तम्भिती इव भुजौ | यस्य स तथा, पुनः किंवि०१६ अहिअरूवसस्सिरीए) अधिकरूपेण सश्रीको यः स तथा, पुनः किंवि०१ (कुचलुज्जोइआणणे) कुण्डलाभ्यायोतितमाननं-मुखं यस्य स तथा, पुनः किंवि०१(मउडदित्तसिरए) दीप अनुक्रम [६४ H RECatore ijanutbraryana ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [६२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [ ६४ ] कल्प. सवो व्या० ३ मुकुटेन दीसं शिरो यस्य स तथा पुनः किंवि० ? ( हारुच्छ्य सुकयरइयवच्छे ) हारेण अवस्तृतं - आच्छादितं अत एव सुष्ठु कृतरतिकं द्रष्टृणां प्रमोददायि एवंविधं वक्षो-हृदयं यस्य स तथा पुनः किंवि० ? ( मुद्दियापिंगलंगुलिए) मुद्रिकाभिः 'पिङ्गलाः- पीतवर्णा अङ्गुलयो, यस्य स तथा पुनः किंवि० १ ( पालंबलंबमाणसु॥ ५९ ॥ ६ कपडउत्तरिज्जे) प्रलम्बेन - दीर्घेण अत एव प्रलम्बमानेन ईदृशेन पदेन सुष्ठु कृतः उत्तरासङ्गो येन स तथा, पुनः किंवि० १ ( नाणामणिकणगरयणविमलत्ति ) नानाप्रकारैर्मणिकनकरत्नैर्विमलानि-दीसिमन्ति अत एव (महरिहत्ति) महार्हाणि ( निउणोवचियत्ति) निपुणेन शिल्पिना उपचितानि - परिकर्मितानि (मिसिमिसिंतत्ति) ||देदीप्यमानानि एवंविधानि (विरयत्ति ) विरचितानि (सुसिलिट्ठत्ति) सुश्लिष्टानि सुयोजितसन्धीनि अत एव (विसिवृत्ति) विशिष्टानि - अन्येभ्योऽतिरमणीयानि (लट्टत्ति) लष्टानि - मनोहराणि एवंविधानि (आविद्धवीरवलए ) आविद्धानि-परिहितानि वीरवलयानि - वीरत्वगर्वसूचकानि वलयानि येन स तथा यः कश्चिद्वीरंमन्यः स मां विजित्य इमानि मोचयतु इतिबुद्ध्या घृतवीरवलय इत्यर्थः, उपसंहरति - ( किंबहुना ) बहुना वर्णकवाक्येन किं ? ( कप्परुक्खए विव अलंकियविभूसिए) कल्पवृक्ष इव अलङ्कृतविभूषितः, तत्र कल्पवृक्षः | अलङ्कृतः पत्रादिभिः विभूषितश्च पुष्पादिभिः राजा तु अलङ्कृतो मुकुटादिभिः, विभूषितो वस्त्रादिभिः, ईदृशो ( नरिंदे ) नरेन्द्रः ( सकोरिंटमलदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं ) कोरिंटवृक्षसम्बन्धीनि माल्यानि-पुष्पाणि मालायै हितानीति व्युत्पत्तेस्तेषां दामभिः सहितेन छत्रेण धियमाणेन (सेयवरचामराहिं उदुवमाणीहिं ) दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ३ ] ........... मूलं [६२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: Jan Education For File & Fersonal Use Only ~136~ मज्जनादि सू. ६२ २० २५ ॥ ५९ ॥ २८ www.janelbary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [६२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [ ६४ ] Jan Education! दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ३ ] ............ मूलं [६२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: श्वेतवरचामरैरुद्यमानैश्च शोभित इति शेषः पुनः किंवि० १ ( मंगलजयसद्दकयालोए) मङ्गलभूतो जयशब्दः कृत आलोके-दर्शने यस्य स तथा यस्य दर्शने लोकैर्जयजयशब्दः क्रियमाणोऽस्तीति ज्ञेयं, पुनः किंवि० १ ( अणेगगणनायगन्ति ) अनेके ये गणनायकाः खखसमुदायस्वामिनः (दंडनायगत्ति) दण्डनायकाः तन्त्रपालाः खराष्ट्रचिन्ताकर्त्तारः इत्यर्थः (रायत्ति) राजानो - माण्डलिकाः (ईसरन्ति) ईश्वराः -युवराजाः 'पाटबीकुंबर' इति लोके, अत्र किरणावलीकारेण दीपिकाकारेण च ईश्वरा युवराजान इति प्रयोगो लिखितः, स तु चिन्त्यः, अट्समासान्तागमनेन युवराजा इति प्रयोगभवनात् (तलवरत्ति) तलबरा:- तुष्ट भूपालप्रद सपबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः (माडंवियन्ति) माडम्बिका:- मडम्बखामिनः (कोडुंबियत्ति) कौटुम्बिका :- कतिपथकुटुम्पस्वामिनः (मंतित्ति) मन्त्रिणो - राज्याधिष्ठायकाः सचिवाः (महामंतिति) महामन्त्रिणः त एव विशेषाधिकारवन्तः (गणगत्ति) गणका :- ज्योतिषिकाः (दोवारियत्ति) दौवारिका:-प्रतिहारा : (अमचत्ति) अमात्या:सहजन्मानो मन्त्रिणः (चेडत्ति) चेटा-दासाः (पीढमदन्ति) पीठमईका :- पीठं आसनं मर्दयन्तीति पीठमर्दकाःआसन्नसेवकाः वयस्या इत्यर्थः (नगरत्ति) नागरा-नगरवासिनो लोकाः (निगमन्ति) निगमा - वणिजः (सिट्टित्ति) श्रेष्ठिनो -- नगरमुख्यव्यवहारिणः (सेणावइति) सेनापतयः चतुरङ्ग सेनाधिकारिणः (सत्थवाहत्ति) सार्थवाहा :सार्थनायकाः (अन्ति ) दृताः - अन्येषां गत्वा राजादेशनिवेदकाः (संधिवालत्ति) सन्धिपालाः- सन्धिरक्षकाः (सद्धिं संपरिवुडे ) एतैः सर्वैः सार्धं संपरिवृतः, ईदृशो नरपतिर्मज्जनगृहात् प्रतिनिष्क्रामतीति योगः, अथ For Filde & Fersonal Use Only ~ 137~ ५ १० १४ Mjanetbalyog Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र =ལླཎྜལླཱསྶ [६२] ||..|| अनुक्रम [ ६४ ] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ३ ] ........... मूलं [६२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ॥ ६० ॥ कल्प. सुवो-मज्जनगृहान्निष्क्रमणे उपमां आह् - ( धवलमहामेह निग्गए इव ) धवलमहामेघनिर्गत इव-यथा ( गहगणव्या० ३ दिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससिव्व ) ग्रहसमूहदीप्यमानऋक्षतारागणानां मध्ये वर्त्तमानः शशीव, अत्र ग्रहगणऋक्षतारागणतुल्यः पूर्वोक्तः परिवारः शशितुल्यस्तु राजेति कीदृशो नृपः १ ( पियदसणे ) प्रियं दर्शनं यस्य स तथा यथा हि वार्दलान्निर्गतो नक्षत्रादिपरिवृतञ्च शशी प्रियदर्शनी भवति तथा सोऽपि नरपतिरिति भावः पुनः कीदृशो नृपः ? (नरवत्ति ) नरपति:- प्रजापालकः (नरिंदे ) नरेन्द्र:-नरेषु इन्द्रसमान: (नरवसहे ) नरवृषभः - घरांभारधुरन्धरत्वान्नरेषु वृषभसमानः ( नरसीहे ) नरसिंहो- दुस्सह पराक्रमस्वात् नरेषु सिंहसमानः पुनः किंवि० १ ( अम्महिपरायतेघलच्छीए दिव्यमाणे ) दीप्यमानः, कया ?-अभ्यधिकराजतेजीलक्ष्म्या, एवंविधो नृपतिः (मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ ) मज्जनगृहात् स्नानमन्दिरात् प्रतिनिष्क्रामति ॥ ( ६२ ) ॥ (मजणघराओ पडिनिक्खमित्ता) लानमन्दिरात् प्रतिनिष्क्रम्य ( जेणेव बहिरिया उवाणसाला ) यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला ( तेणेव उवागच्छद्द) तत्रैव उपागच्छति ( जवागच्छित्ता ) उपागत्य ( सीहासणंसि पुरस्थाभिमुहे निसीअह ) सिंहासने पूर्वाभिमुखो निषीदति-उपविशति ॥ (६३) ॥ (सीहासांसि पुरत्थामुहे निसीहत्ता ) सिंहासने पूर्वाभिमुखो निषध-उपविश्य ( अप्पणो ) आत्मनः | सकाशात् ( उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए ) ईशानकोणे दिग्भागे ( अट्ठ भद्दासणाई ) अष्ट भद्रासनानि, अथ ००००० For Five & Fersonal Use Only ~138~ सिंहासने उपवेश: सू. ६३ २० २५ ॥ ६० ॥ २८ Kinarya Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [ ६४ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [६६] कम्प. सु. ११ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ३ ] ........... मूलं [ ६४ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कीदृशानि १ (सेयवत्थपच्चुत्थयाई ) श्वेतवस्त्रेण आच्छादितानि पुनः किंवि० ? ( सिद्धत्थकयमंगलोक्याराई) सिद्धार्थ:-श्वेतसर्षपैः कृतो मङ्गलनिमित्तं उपचार:- पूजा येषु तानि (रयाबे ) रचयति ( रयावित्ता ) रचयित्वा च (अप्पणो अदूरसामंते ) आत्मनो नातिदूरे नातिसमीपे इत्यर्थः यवनिकां रचयतीति योजना, अथ किंविशिष्टां यवनिकां ? ( नाणामणिरयणमंडियं ) नानाप्रकारैर्मणिरत्रैर्मण्डितां - शोभमानां अत एव ( अहियपिच्छणिज्जं ) अधिकं प्रेक्षणीयां द्रष्टुं योग्यां, पुनः किंवि० ? ( महग्घवरपट्टणुग्गयं) महार्घा - बहुमूल्या बरे-प्रधाने पत्तने-वस्त्ररत्नोत्पत्तिस्थाने उद्गता निष्पन्ना ततो विशेषणसमासस्तां, पुनः किंवि० (सहपट्टभत्तिसयचित्तताणं ) लक्षणं यत्पसूत्रं तन्मयः भक्तीनां रचनानां शतानि ते वित्रस्तानको यस्यां सा तथा तां पुनः किंवि० १ ( इहामियउस भतुरगनर मगर विहग वा लगकिन्नररुरुसर भचूमरकुंजर वणलप्पड मलय (भत्तिचित्रां) इहामृगा- वृका: वृषभाः तुरगाः नराः मकराः विहङ्गा व्यालकाः सर्पाः किन्नराः रुरवो-मृगभेदाः शरभा-अष्टापदाः महाकायाः अटवीपशवः चमय- गावः कुञ्जराः- हस्तिनः वनलता:- चम्पकलतादयः पद्मलताः प्रतीताः एतेषां या भक्तयो-रचनाः ताभिः चित्रां, एवंविधां (अभितरिअं जवणिअं ) अभ्यअन्तरां यवनिकां (अंछावेह) रचयति (अंछावित्ता) रचयित्वा भद्रासनं रचयति, अथ किंविशिष्टं भद्रासनं ? ( नाणामणिरयणभत्तिचित्तं) विविधजातीयमणिरत्नानां भक्तिभी-रचनाभिश्चित्रं, पुनः किंवि० १ ( अत्थरयमिउमसूरगोत्थयं ) आस्तरक:- प्रतीतः मृदुर्यो मसूरक- आस्तरणविशेषस्ताभ्यां अवस्तृतं - आच्छा Jan Education Intematon For Pide & Personal Use On ~ 139~ सिंहासने उपवेश: सू. ६३ ५ १० १४ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६४] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: उपवेशः प्रत सूत्रांक [६४] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-दितं यद्वा अस्तरजसा-निर्मलेन मृदुना-कोमलेन मसूरकेण-चाकलो गादी इति जनप्रसिद्धेन आच्छादित सिंहासने व्या०३पुनः किंधि०? (सेअवस्थपच्चुत्थयं) श्वेतेन वस्त्रेण प्रत्यवस्तृतं-उपरि आच्छादितं, पुनः किंवि०? (सुमउअं सुतरां मृदुकं-अतिकोमलं, पुनः किंचि० ? (अंगसुहफरिसर्ग) अङ्गस्य सुखा-सुखकारी स्पों यस्य स तथा, ॥ ६१॥ अत एव (विसिड) विशिष्टं-शोभनं (तिसलाए खत्तिआणीए) त्रिशलायै क्षत्रियाण्यै तद्योग्य इत्यर्थः, ईदृशं । (भहासणं रयाबेड) भद्रासनं रचयति (रयाचित्ता) रचयित्वा च ( कोटुंविअपुरिसे सहावेह) कौटुम्चिक-1 पुरुषान् शब्दयति (सहावित्ता) शब्दयित्वा च एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ १४॥ किमित्याह। (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ!) शीघ्रमेव भो देवानुप्रियाः-सेवकाः! खमलक्षणपाठकान शब्दयत, अथ किंविशिष्टान् खालक्षणपाठकान् ! ( अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए) अष्ट अङ्गानि यत्र एवंविधं यत् महा-181 निमित्त-निमित्तशास्त्रं भाविपदार्थसूचकखमादिफलव्युत्पादको अन्धस्तस्य सूत्रार्थों धारयन्ति येते तथा तान्, तत्र निमित्तस्य अष्ट अङ्गानि इमानि-अॉ१ खमं २ खरं ३ चैव, भौम ४ व्यजन ५ लक्षणे ६ । उत्पाद -1 मन्तरिक्षं च ८. निमित्तं स्मृतमष्टधा ॥१॥ तत्र पुंसां दक्षिणाले, स्त्रीणां वामाझे स्फरणं सुन्दरमित्याह-III २५ विद्या १ खमानां उत्सममध्यमाधमविचार: खमविद्या २ दुर्गादीनां खरपरिज्ञानं खरविद्या ३ भीम-भूमिक-ISI॥६१॥ Mम्पादिविज्ञानं ४ व्यञ्जनं-मषीतिलकादि ५ लक्षणं-करचरणरेखादि सामुद्रिको उत्पात-उल्कापातादिः। . अन्तरिक्ष-ग्रहाणां उदयास्तादिपरिज्ञानम् ८ पुन: किंवि०? (विविहसत्यकुसले) विविधानि यानि २८ दीप अनुक्रम [६६] Inction V ianelbanaras ~140~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [ ६५ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [६७] Jan Education A दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [३] .......... मूलं [ ६५ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: | शास्त्राणि तत्र कुशलाः तान् (सुविणलक्खणपाढए) एवंविधान् खलक्षणपाठकान् ( सदावेह ) आकारयत ॥ ( तए णं ते कोटुंबियपुरिसा) ततः ते कौटुम्बिकाः पुरुषाः ( सिद्धत्थेणं रन्ना एवं युत्ता समाणा ) सिद्धार्थेन राज्ञा एवं उक्ताः सन्तः ( हट्ट जाव हिअया) हृष्टतुष्टाः यावत् हर्षपूर्णहृदयाः (करयल जाव | पडिसुगंति ) करतलाभ्यां यावत् प्रतिशृण्वन्ति यावत्करणात् " करयलपरिग्गहिअं दसमहं सिरसावत्तं मत्थए अञ्जलिं कट्टु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुगंति " इति वाच्यं, आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति ॥ ( ६५ ) ॥ ( पडिणित्ता) प्रतिश्रुत्य ( सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिआओ ) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य पार्श्वात् (पडिनिक्खमंति) बहिः निस्सरन्ति ( पडिनिक्खिमित्ता) प्रतिनिष्क्रम्य ( कुंडग्गामं नयरं ) क्षत्रियकुंडग्रामस्य नगरस्य (मसंमज्झेणं) मध्यभागेन ( जेणेव सुमिणलक्खणपाढगाणं गेहाई) यत्रैव स्वलक्षणपाठकानां गृहाणि सन्ति ( तेणेव उवागच्छंति ) तत्रैव उपागच्छन्ति (उवागच्छित्ता ) उपागत्य (सुविणलक्खण पाढए सद्दाविंति ) खमलक्षणपाठकान् शब्दयन्ति ॥ ( ३६ ) ॥ एते सुविलक्खणपाढगा) ततः - अनन्तरं ते खमलक्षणपाठकाः (सिद्धत्थस्स खत्तियस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य (कोटुंबियपुरिसेहिं) कौटुम्बिकपुरुषैः (सद्दाविया समाणा) आकारिताः सन्तः (हहतुह्जावहि अया ) हृष्टाः तुष्टाः यावत् हृदयाः पुनः किंविशिष्टास्ते ? (व्हाया) जाताः पुनः किंवि० ? ( कयवलिकम्मा ) कृतं ~ 141 ~ स्वप्नपाठकाकारणागमने सू. ६६-६७ ५ १० १४ janelbrary.org Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [६७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६७]] गाथा कल्प.सबो- बलिकर्म-पूजा यैस्ते, पुनः किंचि०१ (कयकोउयमंगलपायच्छित्ता) कौतुकानि-तिलकादीनि मङ्गलानि-दधि-18 खानपाठव्या० ३ दूर्वाक्षतानि तान्येव प्रायश्चित्तानि-दुःखमादिविध्वंसकानि कृतानि यैस्ते तथा, पुनः किंवि० ? (सुद्धप्पवे कागमः ॥६२॥ साई मंगल्लाई वत्थाई पबराई परिहिया ) शुद्धानि-उज्ज्वलानि प्रवेश्यानि-राजसभाप्रवेशयोग्यानि उत्सवा सू. ६७ सादिमङ्गलसूचकानि एवंविधानि प्रवरवस्त्राणि परिहितानि यैस्ते तथा, पुन: किंवि०१ (अप्पमहग्घाभरणालं-II II कियसरीरा) अल्पानि-स्तोकानि अथ च महाणि-बहुमूल्यानि एवंविधानि यानि आभरणानि तैः अल-11 कृतं शरीरं येषां ते तथा, पुन: किंवि०१ (सिद्धत्थयहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा) सिद्धार्थाः-श्वेतसर्षपाः हरितालिका-दूर्वा तद् उभयं कृतं मङ्गलनिमित्तं मूर्धनि यैस्ते तथा, एवंविधाः सन्तः (सएहिं सएहिं गेहे हितो निग्गच्छति) स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो गेहेभ्यः निर्गच्छन्ति (निग्गच्छित्ता) निर्गस्य च (खत्तियकुंडग्गामं नयरं ।। मजझमजोणं) क्षत्रियकुंडस्य ग्रामस्थ नगरस्य मध्यंमध्येन (जेणेव सिद्धत्थरस रनो) यत्रेव सिद्धार्थस्य राज्ञः (भवणवरवडिंसगपडिदुवारे ) भवनवरावतंसकप्रतिद्वारं, भवनवरेषु-भवनश्रेष्ठेषु अवतंसक इव-मुकुट |इव भवनवरावतंसकस्तस्य प्रतिद्वारं-मूलद्वारं (तेणेव उवागच्छंति ) तत्रैव उपागच्छन्ति ( उवागच्छित्ता) ॥ उपागत्य च (भवणवरवळिसगपडिदुवारे) भवनवरावतंसकप्रतिद्वारे (एगओ मिलंति) एकत्र मिलन्ति-सम्म तीभवन्ति, सर्वसम्मतमेकं पुरस्कृत्य अन्ये तदनुयायिनो भवन्तीति तत्त्वं ॥ यतः-सर्वेऽपि यत्र नेतारा, सर्वे पण्डितमानिनः। सर्वे महत्त्वमिकछन्ति, तदन्दमवसीदति ॥१॥ दृष्टान्तश्च अन्न पञ्चशतसुभटानां, तद्यथा दीप अनुक्रम [६९ ॥६२॥ M ilanetbraryana ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [३] .......... मूलं [६७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६७] गाथा ॥१..|| काचित्सुभटानां पञ्चशती परस्परमसम्बद्धा सेवानिमित्तं कस्यचिद्राज्ञः पुरो ययौ, राज्ञा च मन्त्रिवचसा परि-1 F खमपाठक्षार्थं एकैव शय्या प्रेषिता, ते च सर्वेऽपि अहमिन्द्रा लघुवृद्धव्यवहाररहिताः परस्परं विवदमानाः सर्वैरपि। कागमः एषा शय्या व्यापार्या इति बुझ्या शय्यां मध्ये मुक्त्वा तदभिमुखपादाः शयितवन्तः, प्रातश्च प्रच्छन्नमुक्तपुरु-18 यथावयतिकरे निवेदिते.कथं एते स्थितिरहिताः परस्परं असम्बद्धाः युद्धादि करिष्यन्तीति राज्ञा निर्भस्य निष्कासिता इति । ततस्ते स्वप्रपाठकाः (एगओ मिलित्ता) एकत्र मिलित्वा (जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला) यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला (जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए) यत्रैव सिद्धार्थःक्षत्रियः (तेणेव उवागच्छन्तिा तत्रैवोपागच्छन्ति (उवागच्छिता) उपागला (करगलजान अंजलिं कह) करतलाभ्यां यावत् अञ्जलिं कृत्वा (सिद्धत्थं वत्तियं) सिद्धार्थ क्षत्रियं प्रति (जएणं विजएणं वद्धाविति) जयेन विजयेन त्वं वर्धस्व इत्याशीर्वाद दत्तवन्तः, स चैवं-दीर्घायुर्भव वृत्तवान् भव भव.श्रीमान् यशस्वी भव, प्रज्ञावान् भव भूरिसत्वकरुणादानकशौण्डो भव । भोगायो भव भाग्यवान् भव महासौभाग्यशाली भव, प्रौढश्रीभव कीर्तिमान भव सदा। विश्वोपजीव्यो भव ॥१॥ अन किरणावलिदीपिकाकाराभ्यां कोटिभरस्त्वं भवेति पाठो लिखितस्तत्र कोर्टि-TRI भर इति प्रयोगश्चिन्त्यः । कल्याणमस्तु शिवमस्तु धनागमोऽस्तु, दीर्घायुरस्तु सुतजन्मसमृद्धिरस्तु । वैरिक्षयो । ऽस्तु नरनाथ ! सदा जयोऽस्तु, युष्मस्कुले च सततं जिनभक्तिरस्तु ॥ २॥ (६७)॥ दीप अनुक्रम [६ ] LABEnicatond onx ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [३] .......... मूलं [६७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: ॥६३॥ प्रत सूत्रांक [६७] गाथा iteshseksepen SRARRORareranamamaRatnanartuastaanandasstatwastram इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां तृतीयः क्षणः समाप्तः। ग्रन्थाग्रम् ॥ ७००|त्रयाणामपि व्याख्यानानां ग्रन्थानम् ॥ २१०६ ॥ श्रीरस्त &enseRcerseasesenserASEASEANERURREAR260525ERSepseeBARBASEASE HAKRAM दीप अनुक्रम [६९) ||६३|| तृतीयं व्याख्यानं समाप्तं ~144~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [ ६८ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [७०] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [ ६८ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ॥ अथ चतुर्थ व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ (तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा) ततस्ते स्वलक्षणपाठकाः (सिद्धत्थेणं रत्ना वंदिअत्ति ) सिद्धार्थेन राज्ञा वन्दिताः गुणस्तुतिकरणेन ( पूइ अत्ति ) पूजिताः पुष्पादिभिः (सक्कारिअत्ति) सत्कारिताः फलवस्त्रादिदानेन ( सम्माणिआ समाणा ) सन्मानिताः अभ्युत्थानादिभिः, एवंविधाः सन्तः ( पत्तेयं पत्तेयं पुछनत्थेसु भद्दासणेसु निसीअंति ) प्रत्येकं प्रत्येकं पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति ॥ ( ६८ ) । (तर णं सिद्धस्थे खत्तिए) ततः सिद्धार्थः क्षत्रियः ( तिसलं खत्तिआणि) त्रिशलां क्षत्रियाणीं ( जबणिअंतरियं ठावेइ ) यवनिकान्तरितां स्थापयति (ठाविता ) स्थापयित्वा (पुप्फफल पडिपुन्नहत्थे ) पुष्पै:प्रतीतैः फलैः- नालिकेरादिभिः प्रतिपूर्णो हस्तौ यस्य स तथा, यतः- रिक्तपाणिर्न पश्येच, राजानं दैवतं गुरुम् । निमित्तज्ञं विशेषेण, फलेन फलमादिशेत् ॥ १ ॥ ततः पुष्पफलप्रतिपूर्णहस्तः सन् ( परेणं विणएणं ) उत्कृष्टेन विनयेन ( ते सुविणलक्खणपाढए) तान् खमलक्षणपाठकान् ( एवं वयासी) एवमवादीत् ॥ (६९) ॥ किमित्याह ( एवं खलु देवाणुपिया ! ) एवं निश्चयेन भो देवानुमियाः । ( अज्ज तिसला खत्तिआणी ) अद्य त्रिशला Jan Education Intemations For Pile & Personal Use On चतुर्थं व्याख्यानं आरभ्यते ~145~ स्वप्नपाठकानामुपवेशनं स त्कारः सू. ६८-६९ ५ १० www.janbary.org Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र बुडब प्रत सूत्रांक [७०] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [ ७०] कल्प. सुबो व्या० ४ ॥ ६४ ॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [ ७०] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: क्षत्रियाणी ( तंसि तारिसगंसि) तस्मिन् तादृशे शयनीये (जाब सुत्तजागरा ओहीरमाणी) यावत् सुप्तजागरा अल्पनिद्रां कुर्वती (इमे एयारूवे ) इमान् एतद्रूपान् (उराले चउदस महासुमिणे ) प्रशस्तान् चतुर्द्दश महास्वप्नान् (पासित्ता णं पडिबुद्धा ) दृष्ट्वा जागरिता ॥ ( ७० ) ॥ (तंजहा ) तद्यथा ( गयवसहगाहा ) 'गयवसह ' इति गाथा चात्र वाच्या (तं एएसिं) तस्मात् एतेषां ( चउदसण्हं महासुमिणाणं ) चतुर्द्दशानां महास्वमानां ( देवाणुपिया) हे देवानुप्रियाः ! ( उरालाणं ) प्रशस्तानां (के मन्ने ) कः विचार्यामि ( कल्लाणे ) कल्याणकारी ( फलवित्तिविसेसे भविस्सह ) फलवृत्तिविशेषः भविष्यति १ ॥ ( ७१ ) ॥ (तए णं ते सुमिणलक्खणपाढगा ) ततः ते लक्षणपाठकाः (सिद्धत्थस्स खत्तियस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य ( अंतिए एयम सुच्चा ) पार्श्वे एनं अर्थं श्रुत्वा (निसम्म ) निशम्य च (हहँतुट्ठ जाव हिअया) हृष्टाः तुष्टाः पावत् हर्षपूर्णहृदयाः (ते सुमिणे सम्म ओगिण्हंति ) तान् खमान् सम्पग हृदि घरन्ति (ओ गिण्हिता) हृदि धृत्वा (ईहं अणुपविसंति ) अर्थविचारणां अनुप्रविशन्ति (अणुपविसित्ता ) अनुप्रविश्य च ( अन्नमन्त्रेणं सद्धिं संचालिति ) अन्योऽन्येन - परस्परेण सह सञ्चालपन्ति संवादयन्ति पर्यालोचयन्तीत्यर्थः ( संचालित्ता) सञ्चाल्य च (तेसिं सुमिणाणं) तेषां खमानां (लडट्ठा) लब्धोऽर्थो यैस्ते लब्धार्था:-खवज्याऽवगतार्थाः (गहिया) परस्परतो गृहीतार्थाः (पुच्छियट्ठा) संशये सति परस्परं पृष्टार्थाः, तत एव (वि Education le ... स्वप्न फ़ल पाठकैः कथित स्वप्न फल-वर्णनं For Pride & Personal Use On ~146~ स्वमानां कथनं फलप्रश्नो वि चारः सू. ७०-७१-७२ १५ २० ॥ ६४ ॥ २५ janelbrary.org Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [७२] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७२] गाथा ||१..|| खानविचार: णिच्छियहा) विनिश्चितार्थाः, अत एव (अहिगयट्ठा ) अभिगनार्थाः-अवधारितार्थाः सन्तः (सिद्धत्थस्स रनो पुरओ) सिद्धार्थस्य राज्ञः पुरतः (सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उचारेमाणा) खमशास्त्राण्युचारयन्तः। (सिद्धत्थं खत्तियं) सिद्धार्थ क्षत्रिय (एवं वयासी) एवमेवादिषुः, स्वमशास्त्राणि पुनरेवं-अनुभूतः१ श्रुतो दृष्टः३, प्रकृतेश्च विकारजः ४ । स्वभावतः समुद्भूत ५ चिन्तासन्ततिसम्भवः ६॥ १॥ देवताद्युपदेशोत्थो ७ धमेकोप्रभावजः ८। पापोद्रेकसमुत्थश्च ९, स्वमः स्यान्नवधा नृणाम् ॥२॥ प्रकारैरादिमः पड्भिरशुभश्च शुभोऽपि वा । दृष्टो निरर्थकः स्वमा, सत्यस्तु त्रिभिरुत्तरः॥३॥रात्रेश्चतुर्यु यामेषु, दृष्टः खमः फलप्रदः। मासैद्वादशभिः षडिखिभिरेकेन च क्रमात् ॥४॥ निशाऽन्त्यघटिकायुग्मे, दशाहारफलति ध्रुवम् । दृष्टः सूर्योदये स्वप्नः, सद्यः फलति निश्चितम् ॥ ५॥ मालास्वप्नोऽहि दृष्टश्च, तथाऽऽधिव्याधिसम्भवः । मलमूत्रादिपीडोत्था, स्वमः सर्यो निरर्थकः ॥६॥ धर्मरतः समधातुयेः स्थिरचित्तो जितेन्द्रियः सदयः प्रायस्तस्य प्रार्थितम) स्वामः प्रसाधयति ॥७॥ न श्राव्यः कुस्वमो.गुर्वादेस्तदितरः पुनः श्राव्यः । योग्यश्राव्याभावे, गोरपि करें। प्रविश्य वदेत् ॥८॥ इष्टं दृष्ट्वा स्वप्नं न सुप्यते नाप्यते फलं तस्य । नेया निशाऽपि सुधिया जिनराजस्तवनसंस्त-|| वतः ॥९॥ खप्नमनिष्टं दृष्ट्वा सुप्यात्पुनरपि निशामवाप्यापि । नायं कथ्यः कथमपि केषांचित् फलति न Sस यस्मात् ॥ १०॥ पूर्वमनिष्टं दृष्टा स्वनं यः प्रेक्षते शुभं पश्चात् । स तु फलदस्तस्य भवेद् द्रष्टव्यं तयदिष्टेऽपि ११॥ स्वमे मानवमृगपतितुरमातङ्गकृषभसिंहीभिः।युतं रथमारूढो यो गच्छति भूपतिः स भवेत् ॥१२॥ 98000000000000000oaesaera दीप अनुक्रम [७२) REDICTATI ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [७२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [७२] कल्प. सुबो व्या० ४ शस्त्र ॥ ६५ ॥ Jan Education le दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [७२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्ति: : अपहारो हयवारणयानासनसदननिवसनादीनाम् । नृपशङ्काशोककरो, बन्धुविरोधार्थहानिकरः ॥ १३॥ यः सूर्याचन्द्रमसोर्विभ्वं प्रसते समग्रमपि पुरुषः । कलयति दीनोऽपि महीं ससुवर्णा सार्णवां नियतम् ॥ १४ ॥ हरणं प्रहरणभूषणमणिमौक्तिक कनकरूप्यकुप्यानाम् । धनमानम्लानिकरं दारुणमरणावहं बहुशः ॥ १५ ॥ आरूढः शुभ्रमिभं, नदीतटे शालिभोजनं कुरुते । भुङ्क्ते भूमीमखिलां स जातिहीनोऽपि धर्मधनः ॥ १६ ॥ निजभार्याया हरणे, वसुनाशः परिभवे च संक्लेशः । गोत्रस्त्रीणां तु नृणां जायेते बन्धुवधवन्धौ ॥ १७ ॥ शुभ्रेण दक्षिणस्यां यः फणिना दश्यते निजभुजायाम् । आसादयति सहस्रं कनकस्य स पश्चरात्रेण ॥ १८ ॥ जायेत यस्य हरणं, निजशयनोपानहां पुनः स्वमे । तस्य म्रियते दयिता, निविडा स्वशरीरपीडा च ॥ १९ ॥ यो मानुषस्य मस्तकचरणभुजानां च भक्षणं कुरुते । राज्यं कनकसहस्रं तदर्धमाप्नोत्यसौ क्रमशः ॥ २० ॥ द्वारपरिघस्य शयनप्रेङ्खो|लनपादुका निकेतानाम्। भञ्जनमपि यः पश्यति तस्यापि कलन्ननाशः स्यात् ॥ २१ ॥ कमलाकररत्नाकरजलसपूर्णापगाः सुहृन्मरणम् । यः पश्यति लभते सार्वनिमित्तं वित्तमतिविपुलम् ॥ २२ ॥ अतितरां पानीयं, सगोमयं गड्डुलमौषधेन युतम् । यः पिवति सोऽपि नियतं त्रियतेऽतीसाररोगेण ॥ २३ ॥ देवस्य प्रतिमाया यात्रा: २५ स्वपनोपहारपूजादीन् । यो विदधाति स्वप्रे तस्य भवेत् सर्वतो वृद्धिः ॥ २४ ॥ स्वप्ने हृदयसरस्य यस्य प्रादुर्भ विन्ति पद्मानि । कुष्टविनष्टशरीरो, यमवसतिं याति स त्वरितम् ॥ २५ ॥ आज्यं प्राज्यं स्वमे, यो विन्दति वीक्षते यशस्तस्य । तस्याभ्यवहरणं वा क्षीरान्नेनैव सह शस्तम् ॥ २६ ॥ हसने शोचनमचिरात् प्रवर्त्तने नर्त्तने च वध ।। ६५ ।। ~ 148~ स्वप्नवि चारः १५ २० २८ janelbrary.org Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [७२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [७२] Jan Education 20200 दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [७२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: बन्धी । पठने कलह, नृणामेतत् प्राज्ञेन विज्ञेयम् ॥ २७ ॥ कृष्णं कृत्स्नमशतं मुक्तत्वा गोवाजिराजगजदेवान् । सकलं शुक्लं च शुभं त्यक्त्वा कर्पासलवणादीन् ॥ २८ ॥ दृष्टाः स्वमा ये स्वं प्रति तेऽत्र शुभाशुभा नृणां स्वस्य । ये प्रत्यपरं तस्य ज्ञेयास्ते स्वस्य नो किञ्चित् ॥ २९ ॥ दुःखमे देवगुरून् पूजयति करोति शक्तितश्च तपः । सततं धर्मरतानां दुःस्वप्रो भवति सुस्वप्रः ॥ ३० ॥ तथा सिद्धान्तेऽपि "इत्थी वा पुरिसो वा सुविणन्ते एवं महन्तं खीरकुम्भं वा दहिकुंभ वा घयकुम्भं वा महुकुम्भं वा पासमाणे पासइ उप्पाडेमाणे उप्पाडे उप्पाडिअमिति अप्पाणं मन्नइ तक्खणामेव वुज्झइ तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अन्तं करेह । इत्थी वा पुरिसो वा सुमिणन्ते एवं महन्तं हिरण्णरासिं वा रयणरासिं वा सुवणरासिं वा दयररासिं वा पासमाणे पासह दुरूहमाणे दुरूहइ दुरूढमिति अप्पाणं मन्नइ तक्खणामेव वुझह तेणेव भवग्गणेणं जाव अन्तं करेइ, एवमेव अपरासिं तउअरासि तम्बरासिं सीसगरासिंति सूत्राणि वाच्यानि, नवरं दुचेणं सिज्झइ ( भ० ५८१ ) इति वाच्यम् ॥ ( ७२ ) ॥ ( एवं खलु देवाणुप्पिया) एवं निश्चयेन हे देवानुप्रिय ! हे सिद्धार्थराजन् ! ( अम्हं सुमिणसत्थे ) अस्माकं स्वमशास्त्रे (यायालीसं सुमिणा ) द्विचत्वारिंशत् स्वप्राः - सामान्यफलाः (तीसं महासुमिणा ) त्रिंशत् महास्वमा:- उत्तम फलदायकाः ( बावन्तारं सङ्घसुमिणा दिट्ठा ) द्वासप्ततिः सर्वे स्वप्नाः कथिताः ( तत्थ णं देवागुप्पिया ) तत्र च हे देवानुप्रिय ! (अरहंतमायरो वा ) अर्हन्मातरो वा (चक्कवहिमायरो वा ) चक्रवर्त्ति For Private & Farson Use O ~149~ स्वमविचारः ५. १४ janelbrary.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [७३] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [७३] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [७३] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कल्प. सुत्रो - मातरो वा (अरहंतंसि वा ) अर्हति वा (चकहरंसि वा ) चक्रधरे वा ( गर्भ वक्कममार्णसि ) गर्भ व्युत्क्राव्या० ४ मति - प्रविशति सति (एएसिं तीसाए महासुमिणाणं ) एतेषां त्रिंशतः महास्वशानां मध्ये ( इमे चउदस महासुमिणे ) इमान चतुर्दश महास्वमान् (पासिता णं पडिबुज्झति ) दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते - जाग्रति ॥ (७३) (तंजहा) तद्यथा - ( गयवसहगाहा ) 'गयवसह ' इति गाथा वाच्या ॥ ( ७४ ॥ ॥ ६६ ॥ ( वासुदेव मायरो वा ) वासुदेवमातरो वा ( वासुदेवंसि ) वासुदेवे (गर्भ वक्कममाणंसि ) गर्भ व्युत्क्रा मति सति (एएसिं चउद्दण्डं महासुमिणाणं) एतेषां चतुर्दशानां महास्वमानां मध्ये ( अण्णयरे सत्त (सुमिणे ) अन्यतरान् सप्त स्वप्मान (पासित्ता णं पडिवुज्झति ) दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते ॥ ( ७५ ) ॥ (बलदेवमायरो वा) बलदेवमातरो वा (बलदेवंसि) बलदेवे (गन्भं वक्कममाणंसि) गर्भ व्युत्क्रामति सनि (एएसिं चउदसण्हं महासुमिणाणं ) एतेषां चतुर्दशानां महास्वनानां मध्ये (अण्णयरे चत्तारि महासुमिणे ) अन्यतरान् चतुरः महास्वमान् (पासित्ताणं पडिवुज्झंति ) दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते ॥ (७३) ॥ ( मंडलियमायरो वा ) माण्डलिको देशाधिपतिः तस्य मातरो वा (मण्डलियंसि) माण्डलिके (गर्भ वक्कममाणंसि) गर्भ व्युत्क्रामति (एएसिं चउदसण्डं महासुमिणाणं) एतेषां चतुर्दशानां महास्वमानां मध्ये ( अण्णय रं ( एवं महासुमिणं ) अन्यतरं एक महास्वमं ( पासिताणं पडिवुज्झति ) दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते ॥ (७७) । (इमे यणं देवाप्पिया ) इमे च हे देवानुप्रिय ( तिसलाए खत्तियाणीए ) त्रिशलया क्षत्रियाण्या Jan Education For File & Fero Use O ~ 150~ स्वप्नफलानि सू. ७३ ७४-७५ ७६-७७ १५ २० २५ ॥ ६६ ॥ २८ www.janelbrary.org Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र ཌོལླཛོལླཱཡྻ [७८] ||..|| अनुक्रम [७७] कल्पसु दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [ ७८ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: चउदस महासुमिणा दिट्ठा ) चतुर्दश महास्वनाः दृष्टाः (तं उराला णं ) तस्मात् प्रशस्ताः (देवाणुपिया) हे देवानुप्रिय (तिसलाए खत्तियाणीए) त्रिशलया क्षत्रियाण्या (सुर्मिणा दिट्ठा ) स्वमा दृष्टाः (जाब मंगलकारगाणं ) यावत् माङ्गल्यकारकाः (देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ! (तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिन ) त्रिशलया क्षत्रियाण्या खमा दृष्टाः, महास्वमत्वात् महाफलत्वं दर्शयति - ( तं० अत्थलाभो देवाणु(पिया) तस्मात् अर्थलाभो भविष्यति हे देवानुप्रिय ! ( भोगलाभो देवाशुप्पिया) भोगलाभो हे देवानप्रिय ! (पुतलाभो देवाशुप्पिया) पुत्रलाभो हे देवानुप्रिय ! (सुक्खलाभो देवाणुप्पिया) सुखलाभो हे देवानुप्रिय ! (रबलाभो देवाशुपिया) राज्यलाभो हे देवानुप्रिय ! (एवं खलु देवाणुप्पिया) अनेन प्रकारेण निञ्चयेन हे देवानुप्रिय ! (तिसला खत्तियाणी) त्रिशला क्षत्रियाणी (नवण्हं मासाणं) नवसु मासेषु (बहुपडिपुन्नाणं) बहुप्रतिपूर्णेषु (अद्धमाण राइंदियाणं) सार्द्धसप्तसु च अहोरात्रेषु (विकताणं ) व्यतिक्रान्तेषु सत्सु ( तुम्हं कुलके) युष्माकं कुले केतुसमानं (कुलदीवं) कुले दीपसमानं (कुलवर्डिसयं) कुले मुकुटसमानं (कुलपञ्चयं) कुलस्य (पर्वतसमानं (कुलतिलयं ) कुलस्य तिलकसमानं (कुलकित्तिकरं) कुलस्य कीर्त्तिकारक (कुलवित्तिकरं ) कुलस्य निर्वाहकारकं ( कुलदियणरं) कुले सूर्यसमानं (कुलाधारं ) कुलस्याधारं ( कुलजसकरं ) कुलस्य यशः कारकं (( कुलपाय ) कुले वृक्षसमानं ( कुलतंतुसंताणविवद्धणकरं) कुलस्य तन्तुसन्तान:- परम्परा तस्य विवर्धन(कारकं ( सुकुमालपाणिपायं ) सुकुमालं पाणिपादं यस्य तं ( अहीणपडिपुन पंचिदियसरीरं ) अहीनानि प्रति Jan Education G, For Pride & Personal Use On ~ 151~ महामफ लम्मू.७८ ५ १० १४ 1Qjnetary g Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [७८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७८] गाथा कल्प.सुबो-पूर्णानि च पञ्चेन्द्रियाणि यत्र एवंविधं शरीरं यस्य स तथा तं (लक्खणवंजणगुणोववेयं ) लक्षणव्यानानां चतुर्दशस्त्रम्या० गुणैरुपपेतं (माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसवंगसुंदरंग) मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि सुजातानि चशमफलम् सर्वाङ्गानि यत्र एवंविधं सुन्दरं अझं यस्य स तथा तं (ससिसोमागारं ) चन्द्रवत् सौम्याकारं (कंत) स. ७९ वल्लभं (पियदसणं) प्रियं दर्शनं यस्य स तथा तं (सुरूवं) सुरूपं (दारयं पयाहिसि) एवंविधं दारकं-पुत्रं प्रजनिष्यति ॥ (७८)॥ | (सेऽपि प णं दारए) सोऽपि च दारका (उम्मुक्कबालभावे) उन्मुक्तवालभावः (विष्णायपरिणयमिते) २० विज्ञानं परिपक्वं यस्य स तथा तं (जोवणगमणुप्पत्ते) यौवनावस्थामनुप्राप्तः सन् (सूरे वीरे विकते) दानादिषु शूरः सङ्ग्रामे वीरः परमण्डलाक्रमणसमर्थः (विच्छिण्णविपुलबलवाहणे) विस्तीर्णविपुले बलवाबाहने यस्य स तथा तं (चाउरंतचक्कवट्टी रजवई राया भविस्सह) चतुरन्तखामी एवंविधश्चक्रवर्ती राज्यखामी। राजा भविष्यति (जिणे वा तिलुकनायगे धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी) जिनो वा त्रैलोक्यनायको धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, तत्र जिनत्वे चतुर्दशानां अपि स्खमानां पृथक पृथक फलानि इमानि-चतुईन्तहस्तिदर्शनाचतुर्धा |धर्म कथयिष्यति । वृषभदर्शनाद् भरतक्षेत्रे बोधिवीजं वपस्यति २ सिंहदर्शनात् मदनादिदुर्गजभज्यमानं । ॥६७॥ भव्यवनं रक्षिष्यति ३ लक्ष्मीदर्शनाद् वार्षिकदानं दत्त्वा तीर्थकरलक्ष्मी भोक्ष्यते ४ दामदर्शनात् त्रिभुवनस्य मस्तकधार्यों भविष्यति ५ चन्द्रदर्शनात् कुवलये मुदं दास्यति ६ सूर्यदर्शनाद्भामण्डलभूषितो भविष्यति | २८ दीप अनुक्रम [७७) २५ ~152~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [७९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७९] गाथा ध्वजदर्शनाद्धर्मध्वजभूषितो भविष्यति ८ कलशदर्शनात् धर्मप्रासादशिखरे स्थास्यति ९ पद्मसरोदर्शनात्म श्लाघा सुरसञ्चारितकमलस्थापितचरणो भविष्यति १० रत्नाकरदर्शनात् कैवल्यरत्नस्थान भविष्यति ११ विमानदर्श- हषः फलतनाद् वैमानिकानामपि पूज्यो भविष्यति १२ रनराशिदर्शनाद रत्नप्राकारभूषितो भविष्यति १३ निर्धमाग्नि-थाकारःस. IR60-८१-८२ दर्शनाद् भव्यकनकशुद्धिकारी भविष्यति १४ चतुर्दशानामपि समुदितफलं तु चतुर्दशरजवात्मकलोकायस्थायी भविष्यतीति ॥ (७९)॥ । (तं उराला णं देवाणुप्पिआ) तस्मात् उदाराः हे देवानुप्रिय ! (तिसलाए खसिआणीए सुमिणा विवा) त्रिशलया क्षत्रियाण्या खमाः दृष्टाः (जाव मंगलकारगाणं) यावत् माङ्गल्यकारकाः (देवाणुप्पिा )हे देवानुप्रिय ! (तिसलाए खत्तिआणीए सुमिणा दिट्ठा) त्रिशलया क्षत्रियाण्या खनाः दृष्टाः ।। (८०)॥ (तए णं सिद्धत्थे राया) ततोऽनन्तरं सिद्धार्थों राजा (तेसिं सुमिणलक्खणपाढगाणं) तेषां खमलक्षणपाठकानां (अंतिए एयमहूँ सुच्चा निसम्म) पार्थे एनं अर्थ श्रुत्वा निशम्य च (हतुट्ट जाब हियए) हृष्टः १. | तुष्टः यावत् हर्षपूर्णहृदयः (करयल जाव ) करतलाभ्यां यावत् अञ्जलिं कृत्वा (ते सुमिणलक्खणपाढए) |तान स्खमलक्षणपाठकान (एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ (८१)॥ I (एवमेयं देवाणुप्पिआ) एवं एतत् हे देवानुप्रिया !हे पाठकाः ! (तहमेयं देवाणुप्पिा ) तथैतत् हे पाठकाः! (अवितहमेयं देवाणुप्पिआ) यथास्थितं एतत् भो पाठकाः !(इच्छियमेअं देवाणुप्पिा) वाञ्छितं दीप अनुक्रम [७८] Recece MEnicatorNI ~153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [८२] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८२] गाथा कल्पासबोएतत् भोः पाठकाः! (पडिच्छियमयं देवाणुप्पिआ) युष्मन्मुखात् पतदेव गृहीतं एतद् भोः पाठकाः18 कागमनं खा(इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया) वाञ्छितं सत् पुनः पुनर्वाञ्छितं एतदू भोः पाठकाः ! (सच्चेणं एस तत्कलश्राअद्वे) सत्यः एषोऽथें: (से जहेयं तुम्भे वयहत्ति कट्ट) येन प्रकारेण इमं अर्थ यूयं बदध इति उत्तवा (ते वर्ण प्रती।। ५८ ॥ सुमिणे सम्म पडिकछह) तान् खमान् सम्यक प्रतीच्छति-(पडिकिछत्ता) तथा कृत्वा (ते सुमिणलक्षण-| च्छनं सू. ८२-८७ पाढए) तान् खमलक्षणपाठकान् (विउलेणं असणेणं) विपुलेन अशनेन-शाल्यादिना (पुष्फवत्थगंधमलालंकारेणं) पुष्पैः-अग्रथितर्जात्यादिपुष्पैः वस्त्रैः प्रतीतैः गन्धैः-वासचूर्णैः माल्यैः-प्रथितपुष्पैः अलङ्कारैः-मुकु- टादिभिः ( सकारेइ सम्माणेइ ) सत्कारयति सन्मानयति च विनयवचनप्रतिपया ( सकारिता सम्माणि-18 सा) सत्कार्य सनमान्य च (विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइ) विपुलं जीचिकाई-आजन्म निर्वाहयोग्य भीतिदानं ददाति (दलित्ता पडिविसजेड ) प्रीतिदानं दत्त्वा च प्रतिविसर्जयति ।। (८२)॥ (तए णं सिद्धत्थे खत्तिए) ततः सिद्धार्थः क्षत्रियः (सीहासणाओ अन्भुढेइ)सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठति ( अन्भुद्वित्ता) अभ्युत्थाय (जेणेव तिसला खत्तियाणी) यत्रैव त्रिशला क्षत्रियाणी (जवणियंतरिया) यवनिकान्तरिता (तेणेव उवागच्छह) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य च (तिसलं खत्तियार्णि)IImaan त्रिशला क्षत्रियाणी ( एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥८३)। (एवं खलु देवाणुप्पिए) एवं खलु हे त्रिशले ! | सुमिणसत्थंसि वायालीसं सुमिणा ) स्वमशास्त्रे द्विचत्वारिंशत् खमाः (तीसं महासुमिणा) त्रिंशत् महा-12 यcccweecene दीप अनुक्रम [८१] २५ २८ Jan Educatonirmane ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [८४] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८४] गाथा ||१..|| स्वमाः इत्यंत आरभ्य (जाय एर्ग महासुमिणं पासित्ता णं पडिघुझंति) यावत् एकं महास्वमं दृष्ट्वा प्रति- गमनं स्वमबुद्धयन्ते इति पूर्वपाठः उक्तः ।। (८४)॥(इमे य णं तुमे देवाणुप्पिए ) इमे च त्वया हे त्रिशले ! (चाउछस तत्फल श्रामहासुमिणा विद्वा) चतुर्दश महास्वमाः दृष्टाः (तं उराला गं तुमे देवाणुप्पिए) तस्मात् उदाराः त्वया है। वर्ण प्रतीत्रिशले ! (सुमिणा विहा) स्वमाः दृष्टाः (जाव जिणे वा तेलफनायगे) यावत् तीर्थकरो वा त्रैलोक्यना-18 च्छनं सू. यकः (धम्मवरचाउरंतचकवडी) धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती भविष्यति ।। (८५) ॥ (तए णं सा तिसला खत्ति-18 ८२-८७ याणी) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी (एयमटुं सोचा निसम्म) एनं अर्थ श्रुत्वा निशम्य (हतुट्ठ जावहियया) हृष्टा तुष्टा यावत् हपूणेहदपा (करयल जाव) करतलाभ्यां यावत् अञ्जलिं कृत्वा (ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ) तान् स्वमान् सम्यक् प्रतीच्छति-हदि धत्ते । (८६)॥ (पडिच्छित्ता) प्रतीच्छय च (सिद्ध-| स्थणं रक्षा) सिद्धार्थेन राज्ञा (अब्भणुन्नाया समाणी) अभ्यनुज्ञाता सती (नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ) नानामणिरत्नभक्तिचित्रात् (भद्दासणाओ अन्भुट्टेड) भद्रासनात् अभ्युत्तिष्ठति (अन्भुट्टिता) अभ्युत्थाय । (अतुरियमचवलं) अस्वरितया अचपलया (जाव रायहंससरिसीए गइए) यावत् राजहंससदृशया गत्या (जेणेव सए भवणे ) यत्रैव स्वकं मन्दिरं (तेणेव उबागच्छइ) तत्रैव उपागच्छति ( उवागच्छित्ता) उपागत्य (सयं भवणमणुपविहा) स्वकं मन्दिरं अनुप्रविष्टा ॥ (८७)॥ | (जप्पभिहं च णं समणे भगवं महावीरे) यतः प्रभृति-धस्मादिनात् आरभ्य श्रमणो भगवान् महावीरः दीप अनुक्रम 1८३] JABEnicator ~155~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [८८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [८८] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-(तंसि रायकुलंसि साहरिए) तस्मिन् राजकुले संहृतः (तप्पभिई च णं) ततः प्रभृति-तस्मादिनादारभ्य निधानसं (बहवे बेसमणकुंडघारिणो) बहवः वैश्रमणो-धनदः तस्य कुण्ड:-आपसता तस्य धारिणः अर्थात् वैश्रमणा-क्रमासू.८८ ॥६९॥ यत्ताः(तिरियजंभगा देवा) तिर्यग्लोकवासिनो जम्भकजातीयाः तिर्यगजृम्भकाः उच्यन्ते, एवंविधाः देवाः (सकरपणेणं) शक्रवचनेन, शक्रेण वैश्रमणाय उक्तं वैश्रमणेन तियेंगजृम्भकेभ्य इति भाव। (से जाई।। इमाई) से'त्ति अथशब्दार्थे, अथ ते तिर्यगजृम्भका देवाः यानि इमानि वक्ष्यमाणखरूपाणि (पुरा पोरा-11 णाई) पुरा-पूर्व निक्षिसानि अत एव पुराणानि-चिरन्तनानि (महानिहाणाई भवंति) महानिधानानि भवन्ति (तंजहा) तद्यथा, तानि कीदशानि?-(पहीणसामिआई) प्रहीणस्वामिकानि-अल्पीभूतखामिकानीत्यर्थः, अत एव (पहीणसेउआइं) प्रहीणसेक्तृकानि, सेक्का-हि उपरि धनक्षेप्ता स तु स्वाम्येव भवति, पुनः किंवि०१(पहीणगोत्तागाराई) येषां महानिधानानां धनिकसम्बन्धीनि गोत्राणि अगाराणि च मही-18 णानि-विरलीभूतानि भवन्ति तानि पहीणगोत्रागाराणि एवं ( उच्छिन्नसामिआई) उच्छिन्नः-सर्वथा अभावंI प्राप्तः स्वामी येषां तानि उच्छिन्नस्वामिकानि (उच्छिन्नसेउआई) उच्छिन्नसेक्तृकाणि (उच्छिन्नगोत्तागा-1 राई) उच्छिन्नगोत्रागाराणि, अथ केषु केषु स्थानेषु तानि वर्त्तन्ते ? इत्याह-(गामागरनगरखेडकब्बडमडंच-11 ॥ ६९ ॥ दोणमुहपट्टणासमसंवाहसंनिवेसेसु) ग्रामा:-करवन्तः,आकरा:-लोहाद्युत्पतिभूमयः नगराणि-कररहितानि। खेटानि-धूलिप्राकारोपेतानि, कर्बटानि-कुनगराणि, मडम्बानि-सर्वतोर्धयोजनात्परतोऽवस्थितग्रामाणि, द्रोण- २८ दीप अनुक्रम १८६) E mai ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [८८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८८] गाथा मुखानि-यत्र जलस्थलपथावुभावपि भवतः,पत्सनानि-जलस्थलमार्गयोरन्यतरेण मार्गेण युक्तानि आश्रमा:- निधानसंतीथेस्थानानि तापसस्थामानि वा, संवाहा:-समभूमौ कृषि कृत्वा कृषीवला यत्र धान्यं रक्षार्थ स्थापयन्ति क्रमासू.८८ सन्निवेशा:-सार्थकटकादीनां उत्तरणस्थानानि एतेषां द्वन्द्वः तेषु, तथा (सिंघाडएसु वा) शृङ्गाटकेपु-शृङ्गाटकफलाकारत्रिकोणस्थानेषु वा (तिएसु वा) त्रिकेपु-मार्गत्रयमिलनस्थानेषु वा (चउक्केसु वा) चतुष्केघु-मार्गचतुष्टयमिलनस्थानेषु वा (चचरेसु वा) चत्वरेषु-बहुमार्गमिलनस्थानेषु वा (चउम्मुहेसु वा) चतुर्मुखे- ५ घु-देवकुलच्छत्रिकादिषु वा ( महापहेसुवा)महापथेषु-राजमार्गेषु वा, तथा (गामहाणेसु वा) ग्रामस्थानानि-उद्बसग्रामस्थानानि तेषु वा (नगरहाणेसु वा) उद्वसनगरस्थानानि तेषु वा (गामनिद्धमणेसु वा)। ग्रामसम्बन्धीनि निर्धमनानि-जलनिर्गमाः 'खाल' इति प्रसिद्धारतेषु (नगरनिद्धमणेसु वा) एवं नगरनिर्घमनेषु वा (आवणेसु वा ) आपणा-हवास्तेषु (देवकुलेसु वा) देवकुलानि-यक्षाद्यायतनानि तेषु ( सभासु। वा) सभासु-जनोपवेशनंस्थानेषु (पचासु वा ) प्रपासु-पानीयशालासु (आरामेसु वा ) आरामेपु-कदल्या-18| १० द्याच्छादितेषु स्त्रीपुंसयोः क्रीडास्थानेषु ( उजाणेसु वा) उद्याने घु-पुष्पफलोपेतवृक्षशोभितेषु बहुजनभोग्येषु । उद्यानिकास्थानेषु इत्यर्थः (वणेसु बा) बनेषु-एकजातीयवृक्षसमुदायेषु (वणसंडेसुवा) वनखण्डेषु-अनेकजातीयोत्तमवृक्षसमुदायेषु (सुसाणसुन्नागारगिरिकंदरत्ति) श्मशानं,शुन्यागारं-शन्धगृह गिरिकन्दरा-प्रतीता पर्वतगुहेत्यर्थः ( संतिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसु वा ) अन गृहशब्दः प्रत्येकं योज्यः, ततः शान्तिगृहा:-शान्ति-1| १४ दीप अनुक्रम 1८६) JABEnicatoonhianx ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [८८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [८८] गाथा ||१..|| कल्प.सुवो-कर्मस्थानानि, शैलगृहा:-पर्वतगृहाः पर्वतं उत्कीर्य कृता गृहा इत्यर्थः उपस्थानगृहा:-आस्थानसभाः,भवनगृ-II नामसंकव्या०४ हा:-कुटुम्बिवसनस्थानानि, ततः श्मशानादीनां द्वन्द्वः, अथ एतेषु ग्रामादिषु शृङ्गाटकादिषु च यानि महा- ल्पोद्भवः निधानानि (संनिक्खित्ताई चिट्ठति) पूर्व कृपणपुरुषैः संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति (ताई सिद्धत्थरायभवणंसि || ॥ ७०॥ साहरंति ) तानि तिर्यगजृम्भका देवाः सिद्धार्थराजभवने संहरन्ति-मुंचन्तीति योजना ॥ (८८)॥ NI (जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे) तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे यस्यां च रात्री श्रमणो भगवान् महावीर (नायकुलंसि साहरिए) ज्ञातकुले संहृतः (तं रयाणं च णं तं नायकुलं) तस्यां रात्रौ-तता प्रभृ-18 ति इत्यर्थः तत् ज्ञातकुळ (हिरगणेणं बड्वित्था)हिरण्य-रूप्यं अधरितं सुवर्ण वा (सुवपणेणं) सुवर्णेन-प्रतीतेन | अवर्धत, एवं (धणेणं) घनेन, गणिम धरिम २ मेय ३ पारिच्छेद्य ४ भेदाचतुर्विधेन, तदुक्तं-गणिमं जाइफ-| लपुष्फलाई १धरिमं तु कुंकुमगुडाइं शमिज्जं चोप्पडलोणाई ३रयणवत्थाइ परिच्छिज्जं ४ ॥१॥ (धन्नेणं) धान्येन चतुर्विशतिभेदेन, तयथा-धनाइंचवीसं,जव १ गोहुमरसालि ३ बीहि ४ सट्ठी अ५। कुदव ६ अणुआ(जुवार]18 ४७कंगू८ रालय९ (चीना तिल १० मुग्ग ११ मासा य १२॥१॥अयसि १३ हरिमंथ (चणा] १४ तिउडा (लांग] १५ निष्फाव (बाल ] १६ सिलिंद (मठ] १७ रायमासा (चोळा ] य १८ । उच्छू (बरटी] १९ मसूर २० ॥७॥ तुवरी २१ कुलत्थ २२ तह धन्नय (धाणा] २३ कलाया (वटाणा] २४ ॥२॥(रजेणं) राज्येन सप्ताङ्गेन हरिद्वेणं ) राष्ट्रेण-देशेन (बलेणं) बलं-चतुरङ्गसैन्यं तेन (वाहणेणं) वाहनेन-औष्ट्रप्रमुखेण (कोसेणं) २८ दीप अनुक्रम १८६) ...अत्र भगवत: 'वर्धमान" इति नामकरणे माता-पितरो: संकल्प: ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [८९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८९] गाथा ||१..|| कोशेन-भाण्डागारेण (कोहागारेणं) कोष्ठागारेण-धान्यगृहेण (पुरेणं) नगरेण (अंतेउरेणं) अन्तःपुरेण- नामसंकप्रतीतेन (जणवएणं) जानपदेन-देशवासिलोकेन (जसवाएणं वड्डित्था) यशोवादेन-साधुवादेन च अव |ल्पोनवः र्धत (विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइएणं) विपुलं-विस्तीर्ण धनं-गवादिक कनकं घटितांघटितप्रकाराभ्यां द्विविध रत्नानि-कर्केतनादीनि मणयः-चन्द्रकान्तायाः,मौक्तिकानि-प्रतीतानि | शङ्खा-दक्षिणावर्ताः शिला-राजपट्टादिकाः, प्रवालानि-विद्रुमाणि रक्तरत्नानि-पद्मरागादीनि,आदिशब्दादस्त्रकम्बलादिपरिग्रहस्तेन, तथा ( संतसारसावइज्जेणं) सत्-विद्यमानं न विन्द्रजालादिवत्खरूपतोऽविद्यमान, एवंविधं यत् सारस्वापतेयं-प्रधानद्रव्यं तेन, तथा (पीहसकारसमुद्रएक) प्रीतिः-मानसी तुष्टिः सत्कारो-18 वखादिभिः स्वजनकृता भक्तिस्तत्समुदयेन च तद् ज्ञातकुलं (अईव अईव अभिवढिस्था) अतीव अतीव 8 8 अभ्यवद्धत, (तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स)ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (अम्मापिऊणं) मातापित्रोः (अयमेयारूवे अम्भत्थिए जाव संकप्पे समुप्पजित्था) अयं एतद्रूप: आत्मविषयः यावत्। संकल्पः समुदपद्यत ॥(८१)॥ कोऽसौ ? इत्याह-(जप्पभिई च णं) यतः प्रभृति (अम्हं एस दारए कुच्छिसि। गम्भत्ताए धर्फते) अस्माकं एष दारकः कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः (तप्पभिई च णं) ततः प्रभृति ( अम्हे हिर- पणेणं बड्डामो) वयं हिरण्येन वर्धामहे (सुवण्णेणं वड्डामो) सुवर्णेन वर्धामहे (धणेणं धन्नेणं जाव संतसार-18॥ सावइजेणं ) धनेन धान्येन यावत् विद्यमानसारस्वापतेयेन (पीइसक्कारेणं अईव अईब अभिवडामो) प्रीतिः | १४ दीप अनुक्रम ८७] JABEnicatoni o ns ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [30] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [८] कल्प. सुषो व्या० ४ ॥ ७१ ॥ Jan Education Inte दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [ ९०] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: सत्कारेण च अतीव अतीव अभिवर्धामहे ( जया णं अम्हं एस दारए भविस्सर ) तस्मात् यदा अस्माकं एष दारकः जातो भविष्यति ( तया णं अम्हे एस्स) तदा वयं एतस्य दारकस्य ( एयाणुरूवं ) एतदनुरूपंधनादिवृद्धेरनुरूपं अत एव (गुण्णं गुणनिष्पन्नं नामधिजं करिस्सामो ) गुणेभ्य आगतं तत एव गुणनिष्पन्नं नामधेयं करिष्यामः, किं तदित्याह - ( वद्धमाणति ) वर्धमान इति ॥ ( ९० ) ॥ (तए णं समणे भगवं महावीरे ) ततः श्रमणो भगवान् महावीरः ( माउअणुकंपणट्टाए) मधि परिस्प न्दमाने मातुः कष्टं मा भूदिति मातुः अनुकम्पनार्थं मातुर्भवत्यर्थं अन्येनापि मातुर्भक्तिरेवं कर्त्तव्या इति दर्शनार्थं च ( निचले ) निश्चलः (निप्फंदे ) निष्पन्द्रः किंचिदपि चलनाभावात् अत एव (निरेयणे ) निरेजनो - निष्कम्पः (अल्लीणत्ति ) आ ईषल्लीन: अङ्गगोपनात् (पल्लीणत्ति) प्रकर्षेण लीनः उपाङ्गगोपनात् अत एव ( गुत्ते बावि होत्था ) गुप्तः, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'वावित्ति' विशेषणसमुचये अभवत् अत्र कविः - एकान्ते किमु मोहराजविजये मन्त्रं प्रकुर्वन्निव, ध्यानं किञ्चिदंगोचरं विरचयत्येकः परब्रह्मणे । किं कल्याणरसं प्रसाधयति वा देवो विलुप्यात्मकं रूपं कामविनिग्रहाय जननीकुक्षावसौ वः श्रिये ॥ १ ॥ (९१) ॥ (तए णं से तिसलाए खत्तियाणीए ) ततो भगवतो निश्वलावस्थानानन्तरं तस्यास्त्रिशलाक्षत्रियाण्याः ( अयमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था ) अयं एतद्रूपः यावत् अध्यवसायः समुत्पन्नः कोऽसौ ? इत्याह(हडे मे से गभे) हृतः मे मदीयः स गर्भः किं केनचिद्देवादिना हृतः ? ( मदे मे से गन्भे ) अथवा स मे For Pride & Personal Use O ~160~ गर्भनिश्चलता सु. ९१ २० २५ || 199 11 २८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [९२] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९२] गाथा ||१..|| गर्भः किं मृतः? (चुए मे से गन्भे) अथवा स मे गर्भः किं च्युतो? गर्भखभावात् परिभ्रष्टः (गलिए मे से त्रिशलाशोगम्भे) अथवा स मे गर्भः किं गलितः ?-द्रवीभूय क्षरितः यस्मात्कारणात् ( एस मे गम्भे पुब्धि एयइ) एषका सू.९२ मे गर्भः पूर्व एजते-पूर्व कम्पमानोऽभूत् (इयाणि नोएयइत्ति कट्ट) इदानी नैजते-न कम्पते इतिकृस्वा-इतिहेतोः18 (ओहयमणसंकप्पा) उपहत:-कलुषीभूतो मनःसंकल्पो यस्याः सा तथा (चिंतासोगसागरं पविहा)। |चिन्ता-गहरणादिविकल्पसम्भवा अतिस्तया यः शोकः स एव सागर:-समुद्रस्तत्र प्रविष्टा-बेड़िता अत||| एव (करयलपलहत्यमुही) करतले पर्यस्तं-स्थापितं मुखं यया सा तथा (अज्झाणोवगया) आतध्यानोप-1 गता (भूमीगयदिहिया झियाअइ) भूमिगतदृष्टिका ध्यायति, अथ सा त्रिशला तदानीं यदू ध्याय-18 ति स्म तल्लिख्यते-सत्यमिदं यदि भविता.मदीयगर्भस्य कथमपीह तदा । निष्पुण्यकजीवानामवधिरिति | ख्यातिमत्यंभवम् ॥१॥ यद्वा चिन्तारत्नं न हि नन्दति भाग्यहीनजनसदने । नापि च रत्ननिधानं दरिद्रगृहसङ्गतीभवति ॥२॥ कल्पतरुर्मरुभूमी.न प्रादुर्भवति भूम्यभाग्यवशात् । न हि निष्पुण्यपिपासित-IRI नृणां पीयूषसामग्री ॥३॥ हा धिग घिग देवं. प्रति किं चक्रे तेन सततवक्रेण? | यन्मम मनोरथतरुमलापादुन्मूलितोऽनेन ॥ ४॥ आत्तं दत्वापि च मे लोचनयुगलं कलङ्कविकलमलम् । दत्त्वा पुनरुहालितमधमेनानेन । निधिरत्नम् ॥५॥ आरोप्य मेरुशिखरं,प्रपातिता पापिनाऽमुनाऽहमियम् । परिवेष्याप्याकृष्टं भोजनभाजनमलज्जेन ॥६॥ यद्वा मयाऽपराद्धं भवान्तरेऽस्मिन् भवेऽपि किं धातः!। यस्मादेवं कुर्वन्नुचितानुचितं न चिन्तयसि १४ दीप अनुक्रम [९०] IBEmicator Sujanubaryagi ~161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र Zzza प्रत सूत्रांक [२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [30] कल्प. सुबो व्या० ४ ।। ७२ ।। ४। Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) व्याख्यान [४] .......... मूलं [९२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: अथ किं कुर्वे च वा गच्छामि वदामि कस्य वा पुरतः । दुर्दैवेन च दग्धा, मुग्धा जग्धाऽघमेन पुनः ॥ ८ ॥ किं राज्येनाप्यमुना, किं वा कृत्रिमसुखैर्विषयजन्यैः । किं वा दुकूलशय्याशयनोद्भवशर्म हम्र्येण ? ॥ ९ ॥ गजवृभादिस्यमैः सूचितमुचितं शुचिं त्रिजगदम् । त्रिभुवनजनासपनं बिना जनानन्दि सुतरत्नम् ॥ १० ॥ | युग्मम् ॥ धिक संसारसारं, विग् दुःखव्याप्त विषयसुखलेशान् । मधुलिखङ्गधारालेहनतुलितानहो लुलितान् | ॥ ११ ॥ यद्वा मयका किञ्चित्तथाविधं दुष्कृतं कृतं कर्म । पूर्वभवे यद् ऋषिभिः प्रोक्तमिदं धर्मशास्त्रेषु ॥ १२ ॥ सुपक्खिमाणु साणं वाले जोऽवि हु विओअए पावो । सो अणवचो जायह, अह जाय तो विवज्जिज्जा ॥ १३ ॥ तत् पटुका मया किं त्यक्ता वा त्याजिता अघमबुद्ध्या ? । लघुवत्सानां मात्रा. समं वियोगः कृतः किं वा १ || १४ || तेषां दुग्धपायोऽकारि, मया कारितोऽथवा लोके । किं वा सबालकोन्दुरबिलानि परिपूरितानि जलैः १ ॥ १५ ॥ किं वा सांण्डशिशून्यपि खगनीडानि प्रपातितानि भुवि । पिकशुककुर्कुटकादेर्मालवियोगोऽथवा विहितः ।। १६ ।। किंवा बालकहत्याऽकारि सपत्नीसुतायुपरि दुष्टम् । चिन्तितमचिन्त्यमपि वा कृतानि किं कार्मणा| दीनि ? ॥ १७ ॥ किं वा गर्भस्तम्भन शातनपातनमुखं मया चक्रे । तन्मन्त्रभेषजान्यपि किं वा मयका प्रयुक्तानि ? ॥ १८ ॥ अथवा भवान्तरे किं मया कृतं शीलखण्डनं बहुशः । यदिदं दुःखं तस्माद्विना न सम्भवति १ पशुपक्षिमानुषाणां बालान् योऽपि च वियोजयति पापः । सोऽनपत्यो जायते अथ जायते ततो विषद्येत ॥ १३॥ For Pride & Personal Use Only ~162~ त्रिशला विलापः २० २५ 11 1992 11 janbrary.org Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [४] .......... मूलं [९२] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९२] गाथा ||१..|| जीवानाम् ॥ १९॥ यतः-कुरंडरंडत्तणदुन्भगाई, वंझत्तनिंदूविसकन्नगाई। लहंति जम्मंतरभग्गसीला, नाऊण || त्रिशलाकुज्जा दहसीलभावं ॥ २० ॥ एवं चिन्ताऽऽकान्ता,ध्यायन्ती म्लानकमलसमवदना । दृष्टा शिष्टेन सखीज़नेन । विलापः तत्कारणं पृष्टा ॥ २१ ॥ मोवाच साश्रुलोचनरचना निःश्वासकलितवचनेन । किं मन्दभागधेया वदामि ? यजीवितं मेऽगात्॥२२॥ सख्यो जगुरथ रे सखि ! शान्तममङ्गलमशेषमन्यदिह । गर्भस्य तेऽस्ति कुशलं नवेति वद कोविदे! सत्यम् ॥२३॥ सा प्रोचे गर्भस्य च कुशले किमकुशलमस्ति मे? सख्यः । इत्याधुक्त्वा मूच्र्छामापन्ना पतति भूपीटे ॥ २४ ॥ शीतलवातप्रभृतिभिरुपचारैर्वहुतरैः सखीभिः सा । संपापितचैतन्योत्तिष्ठति विलपति च पुनरेवम् ॥ २५ ॥ गरुए अणोरपारे. रयणनिहाणे असायरे पत्तो । छिद्दघडो न भरिजई, ता किं दोसो जलनिहिस्स॥ २६ ॥ पत्ते वसन्तमासे,रिद्धिं पावन्ति सयलवणराई । जंन करीरे पत्तं,ता किं दोसो वसंतस्स ? ॥ २७ ॥ उत्तुंगो सरलतरू, बहुफलभारेण नमिअसचंगो । कुज्जो फलं न पावइ.ता किं दोसो तरुव दीप अनुक्रम [९०] १ कुरण्डत्वरण्डत्वदुर्भगत्वानि बन्ध्यात्वनिन्दु( मृतापत्यप्रसूः )विषकन्यकत्वादि । लभन्ते जन्मान्तरभप्रशीला ज्ञात्वा कुर्यात् । ढं शीलभावं ॥ २०॥ २ गुरुकेऽनर्वाधारे रत्ननिधाने च सागरे प्राप्तः । छिद्रघटो न भियते तर्हि किं दोषो जलनिधेः ॥ २६ ॥ प्राप्ते वसन्तमासे कविं प्राप्नोति सकलपनराजी । यन्न करीरे पत्रं तर्हि किं दोषो वसन्तस्य ? ॥ २७ ॥ उत्तुगः सरलतरुर्बटुफलभारणनतसर्वाङ्गः । कुब्जः फलं न प्राप्नोति तर्हि किं दोपस्तरुवरस्य ? ॥ २८ ॥ काप-पु. १३ ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [९२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [30] कल्प. सुबोव्या० ४ ॥ ७३ ॥ Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [९२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: रस्स १ ॥ २८ ॥ समीहितं यन लभामहे वयं प्रभो ! न दोषस्तव कर्मणो मम । दिवाऽप्युलूको यदि नाचलोकते, तदा स दोषः कथमैशुमालिनः १ ॥ २९ ॥ अथ मे मरणं शरणं किं करणं विफलजीवितव्येन १ । तत् श्रुत्वेति व्यलपत्, सख्यादिः सकलपरिवारः ॥ ३० ॥ हा किनुपस्थितमेतत् निष्कारणवैरिविधिनियोगेन । हा कुलदेव्यः क गत्ताः ? यदासीनाः स्थिता यूयम् ॥ ३१ ॥ अथ तत्र प्रत्यूहे विचक्षणाः कारयन्ति कुलवृद्धाः । शान्तिकपौष्टिक मन्त्रोपयाचितादीनि कृत्यानि ॥ ३२ ॥ पृच्छन्ति च दैवज्ञान् निषेधयन्त्यपि च नाटकादीनि । अतिगाढशब्द विरचितवचनानि निवारयन्त्यपि च ॥ ३३ ॥ राजाऽपि लोककलितः शोकाकुलितोऽजनिष्ट शिष्ट| मतिः । किंकर्त्तव्यविमूढाः संजाता मन्त्रिणः सर्वे ॥ ३४ ॥ अस्मिन्नवसरे च तत्सिद्धार्थराजभवनं यादृशं जातं तत् सूत्रकृत् खयं आह - ( तंपि य सिद्धत्थरायवरभवणं) तदपि सिद्धार्थराजवरभवनं ( उवरयमुइंग| तंतीतलतालनाडइज्जजणमथुनं ) मृदङ्गो - मईलस्तन्त्री - वीणा तलताला - हस्ततालाः यद्वा तला - हस्ताः ताला :कंसिकाः, नाटकीया-नाटकहिता जनाः पात्राणीति भावः एतेषां यत् मनोज्ञत्वं तत् उपरतं- निवृत्तं यस्मिन् एवंविधं अत एव ( दीणविमणं विहरह ) दीनं सत् विमनस्कं-व्यग्रचेतस्कं विहरति आस्ते ॥ (९२) । (तए णं | से समणे भगवं महावीरे ) तं तथाविधं पूर्वोदितं व्यतिकरं अवधिना अवधार्य भगवान् चिन्तयति किं कुर्मः कस्य वा ब्रूमो ?, मोहस्य गतिरीदृशी । दुषेर्धातोरिवास्माकं, दोषनिष्पत्तये गुणः ॥ १ ॥ मया मातुः प्रमोदाय, | कृतं जातं तु खेदकृत् । भाविनः कलिकालस्य, सूचकं लक्षणं यंदः ॥ २ ॥ पञ्चमारे गुणो यस्माद् भावी For Plate & Fersonal Use On ~ 164~ | त्रिशलाविलापः बीरविचार: १५ २० ॥ ७३ ॥ २३ www.janbary.org Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र Barsa प्रत सूत्रांक [83] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१] Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [ ९३] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: दोषकरो नृणाम् । नालिकेराम्भसि न्यस्तः कर्पूरो मृतये यथा ॥ ३ ॥ इत्येवंप्रकारेण स श्रमणो भगवान् महावीरो ( माऊअ अयमेयारूवं ) मातुरिमं एतद्रूपं ( अम्मत्थियं पत्थियं मणोगयं ) आत्मविषयं प्रार्थितं मनोगतं ( संकष्पं समुत्पन्नं विजाणिता ) संकल्पं समुत्पन्न अवधिना विज्ञाय ( एगदेसेणं एयइ ) एकदेशेन अङ्गुल्यादिना एजते- कम्पते ( तए णं सा तिसला वत्तिआणी ) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी ( हट्ट तुङ जाव हिअया ) हृष्टतुष्टादिविशेषणविशिष्टायावत् हर्षपूर्णहृदया ( एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ ( ९३ ) ॥ अथ कि अवादीत् ? इत्याह-( नो खलु मे गन्भे हडे ) नैव निश्चयेन मे गर्भो हतोऽस्ति ( जाव नो गलि(ए) यावत् नैव गलितः (एस मे गन्भे पुल्विं नो एयह ) एष मे गर्भः पूर्वं न कम्पमानोऽभूत् ( इयाणिं एयइतिकट्टु ) इदानीं कम्पते इतिकृत्वा ( हट्ट जाव हियया एवं विहरइ ) हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहृदया, ईदृशी सती विहरति, अथ हर्षिता त्रिशलादेवी यथाऽचेष्टत तथा लिख्यते - प्रोल्लसितनयनयुगला, स्मेरकपोला प्रफुल्लमुखकमला | विज्ञातगर्भकुशला रोमाञ्चितकञ्चुका त्रिशला ॥ १ ॥ प्रोवाच मधुरवाचा गर्भे मे विद्य तेऽथ कल्याणम्। हा धिग मयकांनुचितं चिन्तितमतिमोहमतिकतया || २ || सन्त्यंध मम भाग्यानि त्रिभुबनमान्या तथा च धन्याऽहं । श्लाघ्यं च जीवितं मे कृतार्थतामाप मे जन्म ॥ ३ ॥ श्रीजिनपदाः प्रसेदुः कृताः प्रसादाच गोत्रदेवीभिः | जिनधर्मकल्पवृक्षस्त्वा जन्माराधितः फलितः ॥ ४ ॥ एवं सहर्षचित्तां देवीमालोक्य For Pride & Personal Use O ~ 165~ हर्षचेष्टा ५ १० १४ Qatar.org Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [९३] कल्प. सुबो व्या०४ || 08 || दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [ ९४] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: वृद्धनारीणाम् । जयजयनन्दत्यायाशिषः प्रवृत्ता मुखकजेभ्यः ॥ ५ ॥ हर्षात् प्रवर्तितान्पथ कुलनारीभिश्च ललितधवलानि । उत्तम्भिताः पताका, मुक्तानां खस्तिका न्यस्ताः ॥ ६ ॥ आनन्दाद्वैतमयं राजकुलं तद्बभूव सकलमपि । आतोयगीतनृत्यैः, सुरलोकसमं महाशोभम् ॥ ७ ॥ वर्धापनागता धनकोटीगृह्णन् ददच धनकोटीः । सुरतरुरिव सिद्धार्थः, संजातः परमहर्षभरः ॥ ८ ॥ (तए णं समणे भगवं महावीरे ) ततः श्रमणो भगवान् महावीरः (गन्भत्थे चेव ) गर्भस्थ एव, पक्षाधिके मासष्ट्रके व्यतिक्रान्ते (इमेयारूवं अभिग्ग अभिगिन्ह ) इमं एतद्रूपं अभिग्रहं अभिगृह्णाति, कं ? इत्याह-- ( नो खलु मे कप्पइ ) खलु निश्चयेन नो मम कल्पते ( अम्मापिउहिं जीवंतेर्हि) मातापितृषु जीवत्सु (मुंडे भवित्ता, अगाराओ अणगारिअं पवइतर ) मुण्डो भूत्वा अगारात् गृहान्निष्क्रम्य, अनगारितां साधुतां प्रव्रजितुं दीक्षां ग्रहीतुं इत्यर्थः । इदं अभिग्रहग्रहणं च उदरस्थेऽपि मयि मातुः ईदृशः स्नेहो वर्तते तर्हि जाते तु मयि कीदृशो भविष्यतीति धिया अन्येषां मातरि बहुमानप्रदर्शनार्थं च यदुक्तं- आस्तन्यपानाज्जननी पशूनामादारलाभाच नराधमानाम् । आगेहकृत्याच्च विमध्यमानामाजीवितात्तीर्थमिवोत्तमानाम् ॥ १ ॥ (९४) ॥ (तए णं सा तिसला खत्तियाणी ) ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी ( पहाया कयवलिकम्मा ) स्नाता कृतं बलिकर्म-पूजा यया सा तथा ( कयकोउय मंगलपायच्छित्ता ) कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि यया सा तथा ( सवालंकारविभूसिया ) सर्वालङ्कारैः विभूषिता सती ( तं गर्भ नाइसीएहिं ) तं गर्भ नातिशीतैः *** भगवन्त महावीरेण गर्भवास-स्थिते कृत अभिग्रह्ः For File & Fersonal Use Only ~166~ श्रीवीरस्याभिग्रहः सू. ९४ २० २५ ॥ ७४ ॥ २८ jalyog Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [५] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [९४] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [४] .......... मूलं [ ९५] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: (नाइउण्हेहिं ) नात्युष्णैः (नाइतित्तेहिं ) नातितिक्तैः ( नाइक एहिं ) नातिकटुकै: ( नाइकसाएहिं ) नातिकषायैः (नाइअंबिलेहिं ) नात्यम्लैः ( नाइमहुरेहिं ) नातिमधुरैः (नाइनि द्वेहिं ) नातिस्निग्धैः (नाइलक्खेहिं ) नातिरुक्षैः (नाइउल्लेहिं ) नात्याः (नाइसकेहिं ) नातिशुष्कैः (सबत्नुभयमाणमुहेहिं ) सर्वर्तुषु - ऋतौ ऋतौ भज्यमानाः सेव्यमाना ये सुखहेतवो- गुणकारिणस्तैः, तदुक्तं वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चाऽऽमलकरसो, घृतं वसन्ते गुडश्चान्ते ॥ १ ॥ एवंविधैः ( भोयणाच्छायणगंधमलेहिं ) भोजनाच्छादनगन्धमाल्यैः, तत्र भोजनं प्रतीतं. आच्छादनं वस्त्रं गन्धाः - पुढवासादयः माल्यानिपुष्पमालास्तैर्गर्भ पोषयतीति शेषः, तत्र नातिशीतलादय एवं आहारादयो गर्भस्य हिताः, न तु अतिशीतलादयः, ते हि केचिद्वात्तिकाः केचित् पैत्तिकाः केचित् श्लेष्मकराच, तेच अहिताः, यदुक्तं वाग्भट्टे-वातलेख भवेद् गर्भः, कुब्जान्धजडवामनः । पित्तलैः स्खलतिः पिङ्गः, श्वित्री पाण्डुः कफात्मभिः ॥ १ ॥ तथा-अतिलवणं नेत्रहरं अतिशीतं मारुतं प्रकोपयति । अत्युष्णं हरति बलं अतिकामं जीवितं हरति ॥ २ ॥ अन्यच - 'मैथुन १ यान २ वाहन ३ मार्गगमन ४ प्रस्खलन ५ प्रपातन ६ प्रपीडन ७ प्रधावना ८ऽभिघात ९ विषमशयन १० विषमसनो - ११ पवास १२ वेगविधाता १३ तिरुक्षा १४ तितिक्ता १५ तिकटुका १६ तिभोजना '१७ तिरोगा १८ तिशोका १९ तिक्षारसेवा २० तिसार २१ वमन २२ विरचेन २३ प्रेङ्खोलना २४जीर्ण २५ प्रभृतिभिर्गभों बन्धनान्मुच्यते, ततो नातिशीतला चैराहाराद्यैस्तं गर्भं सा पोषयतीति युक्तम् ॥ For Filde & Fersonal Use Only ~ 167~ गर्भपोष णम् सू. ९५ १० १४ www.janelbary.org Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [९५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५] गाथा ||१..|| कल्प.सपो-18अथ सा त्रिशला कथंभूता -( ववगयरोगसोगमोहभयपरिस्समा) रोगा-ज्वरायाः, शोक-इष्टवियोगादिज-गर्भपोषणम् ज्या०४ नितः मोहो-मूर्छा भयं-भीतिः परिश्रमो-व्यायामः एते व्यपगता यस्याः सा तथा, रोगादिरहिता इति भावः ॥ यत एते गर्भस्य अहितकारिणः, तदुक्तं सुश्रुते-'दिवा खपत्याः स्त्रियाः खापशीलो गर्भः अञ्जना-18 ॥ ७५॥ वन्धः रोदनाद्विकृतदृष्टिः स्वानानुलेपनाद् दुःशीलः,तैलाभ्यङ्गात् कुष्ठी, नखापकर्तनात् कुनखी, प्रधावनाचञ्चल: हसनात् श्यामदन्तोष्ठतालुजिह्वः अतिकथनाच प्रलापी अतिशब्दभ्रवणाधिरः अवलेखनात् स्खलतिः व्यञ्जनक्षेपणादिमारुतायाससेवनादुन्मत्तः स्यात् , तथा च कुलवृद्धांत्रिशला शिक्षयन्ति-मन्दं सञ्चर मन्दमेव || निगद व्यामुश्च कोपक्रम, पथ्यं मुश्व बधान नीविमनघां,मा माअट्टहासं कृथाः। आकाशे भव मा सुशेष्व शयने नीचैर्षहिर्गच्छ मा, देवी गर्भभरालसा निजसखीवर्गेण सा शिक्ष्यते ॥१॥ अथ सा त्रिशला पुन: किं कुर्वती ? (जं तस्स गम्भस्स हिअं मिअं पत्थं गन्भपोसणं) यत्तस्य गर्भस्य हितं तदपि मितं न तु न्यूनं अधिकं था, पथ्य-आरोग्यकारणं अत एव गर्भपोषक (तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी) तदपि देशे-1 उचितस्थाने न तु आकाशादौ तदपि काले-भोजनसमये न तु अकाले, आहारं आहारयन्ती (विवित्तमउ-10 एहिं सपणासणेहिं ) विविक्तानि-दोषरहितानि मृतकानि-कोमलानि यानि शयनासनानि त, तथा (पह-101 रिकसुहाए) प्रतिरिक्ता-अन्यजनापेक्षया निर्जना अत एव सुखा-सुखकारिणी तया (मणाणुकूलाए विहार दीप अनुक्रम [१४] २५ ce ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [९५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९५] गाथा ||१..|| Reseseree भूमीए) मनोऽनुकूलया-मनाप्रमोददायिन्या एवंविधया विहारभूम्या-चक्रमणासनादिभूम्या कृत्वा, अथ गर्भपोषणम् सा त्रिशला किंविशिष्टा सती तं गर्भ परिवहति ? (पसत्थदोहला) प्रशस्ता दोहदा-गर्भप्रभावोद्भूता मनो-|| रथा यस्याः सा तथा, ते चैवं-जानात्यमारिपटहं पटु घोषयामि, दानं ददामि सुगुरून परिपूजयामि ।। तीर्थेश्वरार्चनमहं रचयामि सङ्घ, वात्सल्यमुत्सवभृतं बहुधा करोमि ॥१॥ सिंहासने समुपविश्य वरात18 पत्रा, संवीज्यमानकरणा सितचामराभ्यां । आज्ञेश्वरस्वमुदिताऽनुभवामि सम्यग, भूपालमौलिमणिलालित पादपीठा॥२॥ आरुह्य कुञ्जरशिरः प्रचलत्पताका, वादिननादपरिपूरितदिग्विभागा। लोकैः स्तुता जयजयेतिरवैः प्रमोदादुन्यानकेलिमनघां कलयामि जाने ॥ ३ ॥ इत्यादि, पुनः सा किंचि०१ (संपुनदोहला) सम्पू दोहदा, सिद्धार्थराजेन सर्वमनोरथपूरणात् , अत एव (सम्माणियदोहला) सन्मानितदोहदा, पूर्णीकृत्य |8| | तेषां निवर्तितत्वात् , तत एव (अविमाणिअदोहला) अविमानितदोहदा, कस्यापि दोहदस्य अवगणना-181 |भावात्, पुनः किंवि० ? (बुच्छिन्नदोहला) ब्युच्छिन्नदोहदा पूर्णवाञ्छितत्वात् , अत एव ( ववणीयदोहला) व्यपनीतदोहदा, सर्वथा असहोहदा (सुहंसुहेणं ) सुखसुखेन-गर्भानावाधया ( आसइ) आश्रयति-आश्रयणीयं स्तम्भादिकं अवलम्बते (सयह) शेते-निद्रां करोति (चिट्ठह) तिष्ठति-ऊर्ध्व तिष्ठति (निसीयह) निषीदति-आसने उपविशति (तुअइ ) त्वगवर्त्तयति-निद्रां विना शय्यायां शेते इत्यर्थः (विहरइ ) विह दीप अनुक्रम [९४] o medianethravan ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [९६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: श्रीवीरस्थ प्रत सूत्रांक [९६] गाथा ॥१..|| व्या." जन्म स. कल्प.सुबो-1 | रति-कुद्धिमतले विचरति, अनेन प्रकारेण (सुहंसुहेणं तं गन्भं परिवहइ ) सुखसुखेन तं गर्भ परिवहतीति भावः ॥॥ (९५)॥ SH (तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भग-15 ॥७॥ वान् महावीर (जे से गिम्हाणं पढमे मासे) योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः (दुचे पक्खे) द्वितीयः पक्षः (चित्तसुद्धे ) चैत्रमासस्य शुक्लपक्षः (तस्स णं चित्तसुद्धस्स) तस्य चैत्रशुद्धस्य (तेरसीदिवसेणं) त्रयोदशीदिबसे (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं) नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु (अट्ठमाणं राइंदिआणं विहकंतार्ण) अर्धाष्टमरात्रिंदिवाधिकेषु, सार्धसप्तदिनाधिकेषु नवसु मासेषु व्यतिक्रान्तेषु इति भावः, तदुक्तं-"दुण्हं वरमहिलाणं गम्भे वसिऊण गन्भसुकुमालो । नवमासे पडिपुषणे सत्त य दिवसे समइरेगे ॥१॥" 18 इदं च गर्भस्थितिमानं न सर्वेषां तुल्यं, तथा चोक्तं-"दु१ चउत्थ २ नवम ३ बारस ४ तेरस ५ पन्नरस ६,सेस १८ गभठिई। मासा अड, नव तदुवरि उसहाउ कमेणिमे दिवसा ॥१॥चउ १ पणवीसं २ छद्दिण ३ अडवीसं ४ छच्च ५ छचि ६ गुणवीसं ७। सग ८ वीसं ९छ १० च्छय ११ वीसि १२ गवीसं १३ छ १४ छबीसं १५ ॥ २॥छ १६ प्पण १७ अड १८ सत्त १९ ट्ठय २० अड २१ द्वय २२ छ २३ सत्त २४ होन्ति गम्भदिण-" त्ति ॥ सप्ततिशतस्थानके श्रीसोमतिलकसूरिकृते ॥ १ द्वयोरमहिलयोर्ग उधित्वा गर्भसुकुमालः । नव मासान प्रतिपूर्णान् सप्त च दिवसान समतिरेकाम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [९६) ॥७६ ।। nem ... भगवन्त महावीरस्य जन्म एवं २४ तीर्थकराणां गर्भ-स्थिते: निर्देश: ~170~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [९६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सुखावबोधाय चास्य यंत्रम् प्रत सूत्रांक [९६] गाथा श्रीवीरस जन्म सू.. १ ९ |||| | ||१९|२२|१||९|९मा. (उच्चट्ठाणगएसु गहेसु) तदानीं ग्रहेषु उच्चस्थानस्थितेषु, ग्रहाणां उच्चत्वं चैवम्-अर्कााच्चान्यज १ वृष २-1|| मृग ३ कन्या ४ कर्क ५ मीन ६ वणिजो शैः। दिग् १० दहना ३ ष्टाविंशति २८ तिथी १५षु५ नक्षत्र २७-18 विशतिभिः २०॥१॥ अयं भाष:-मेपादिराशिस्थाः सूर्यादय उचास्तत्रापि दशावीनंशान पावत् परमोचा। 16 p uc एषां फलं तु-सुखी १ भोगी २ धनी ३ नेता ४, जायते मण्डलाधिपः ५। नृपति ६-19 चक्रवर्ती च ७, अमादुच्चग्रहे फलम् ॥१॥ तिहिं उच्चेहिं नरिंदो पञ्चहिं तह होइ अद्ध-181 चकी अ । छहिं होइ चकवही सत्तहिं तित्थङ्करो होह ॥२॥ (पदमे चंद्जोए) प्रथमे-प्रधाने, BHERE चन्द्रयोगे सति (सोमासु दिसासु) सौम्यासु-रजोवृष्ट्यादिरहितासु दिक्षु वत्तेमानासु, पुनः किविशिष्टासु दिक्षु ? (वितिमिरासु) अन्धकाररहितासु, भगवजन्मसमये सर्वत्र उद्योतसद्भावात्, पुनः १ त्रिभिरुथैर्नरेन्द्रः पञ्चभिस्तथा भवत्यर्धचक्री । पद्धिर्भवति चक्रवर्ती सप्तभिस्तीर्थकरो भवति ॥ १ ॥ ceiptioeceistreeceasesesesese दीप अनुक्रम [९६) A ~ 171~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [४] .......... मूलं [९६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९६] गाथा ॥१..|| कल्प सुयो-किंवि०१ (विसुद्धासु) विशुद्धासु, दिग्दाहायभावात् , (जइएसु सबसउणेसु) सर्वेषु शकुनेषु-काकोलूक-18 श्रीवीरख व्या०४ दुर्गादिपु जयिकेषु-जयकारकेषु सत्सु (पयाहिणाणुकूलंसि) प्रदक्षिणे प्रदक्षिणावर्त्तत्वात् अनुकूले सुरभि-R जन्म मू. 18शीतत्वात् सुखप्रदे (भूमिसप्पंसि) मृदुत्वात् भूमिसर्पिणि, प्रचण्डो हि वायुः उचैः सर्पति, एवं विधे (मारु॥७७॥ 18 अंसि) मारुते-वायौ (पवायंसि ) प्रबातुं आरब्धे सति ( निष्फण्णमेइणीयसि कालंसि) निष्पन्ना, कोय?-11 निष्पन्नसर्वशस्या मेदिनी यत्र एवंविधे काले सति (पमुइअपक्की लिएसु जणवएसु) प्रमुदितेषु सुभिक्षादिना प्रक्रीडितेषु-प्रक्रीडितुं आरब्धेषु वसन्तोत्सवादिना, एवंविधेषु जनपदेषु-जनपदवासिषु लोकेषु सत्सु (पुबर-18| त्तावरत्तकालसमयंसि) पूर्वरात्रापररात्रकालसमये (हत्युत्तराहिं नकखत्तेणं चंदेणं जोगमुवागएण) उत्तरफा-18 |ल्गुनीभिः समं योगं उपागते चन्द्रे सति (आरोग्गाऽऽरोग्गं) आरोग्या-आवाधारहितासा त्रिशला आरोग्यआवाधारहितं (दारयं पयाया) दारकं-पुत्रं प्रजाता-सुषुवे इति भावः ॥ (९६) ॥ quesaseSRARASRANAaratasRastrasantasasaseaseasRatolerana इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्यभुजिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचितायाँ कल्पसुबोधिकायां चतुर्थः क्षणः समाप्तः । ।। ७७॥ ग्रन्थानम् ४६९ । चतुर्णामपि व्याख्यानानां ग्रन्थानम् ॥ २५७५ ॥ श्रीरस्तु SerserSASEASERSERSTRESSE SERSUSERSERPASSOS दीप अनुक्रम (९६) JABEducationa चतुर्थं व्याख्यानं समाप्तं ~ 172~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [५] .......... मूलं [९७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक श्रीवीरज [९७] गाथा ॥ अथ पञ्चमं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ न्मोत्सव RI (जं रयणि च ) यस्यां च रात्री (समणे भगवं महावीरे जाए) श्रमणो भगवान महावीरः जातः|| सू. ९७ (साणं रयणी बरहिं देवेहिं देवीहि य ) सा रजनी बहुभिर्देवैः-शक्रादिभिर्वहीभिर्देवीभिः-दिक्कुमा || योदिभिश्च (ओवयंतेहिं) अवपतङ्गिा-जन्मोत्सवार्थ खर्गाडवागच्छद्भिः (उप्पयंतेहिं ) उत्पतद्भिः-फवं गच्छद्भिर्मेरुशिखरगमनाय, तैः कृत्वा (उप्पिंजलमाणभूआ) भृशं आकुला इव (कहकहगभूया यावि हुत्था) 181 हर्षाहासादिना कहकहकभूतेव-अव्यक्तवर्णकोलाहलमयीव, एवंविधा सा रात्रिः अभवत् (९७) अनेन 8 Mच सूत्रेण सुरकृतः सविस्तरो जन्मोत्सवः सूचितः। सचार्य-अचेतना अपि दिशा, प्रसेदुर्मुदिता इव । वाय-12 वोऽपि सुखस्पर्शा, मन्दं मन्दं वचुस्तदा ॥१॥ उद्योतस्त्रिजगत्यासीद्दध्यान दिवि दुन्दुभिः । नारका अय॑मोदन्त, भूरप्युच्छासमासदत् ॥२॥ तत्र तीर्थकृतां जन्मनः सूतिकर्मणि प्रथमतः षट्पञ्चाशदिक्कुमायेःश समागस्य शाश्वतिकं वाचारं कुर्वन्ति, तद्यथा-दिक्कुमार्योऽष्टाधोलोकवासिन्यः कम्पितासनाः । अहज्जन्मावर्तीत्वाऽभ्येयुस्तत्सूतिवेश्मनि ॥ ३ ॥ भोगङ्करा १ भोगवती २, सुभोगा ३ भोगमालिनी ४ । सुबत्सा ५ वत्समित्रा च ६, पुष्पमाला ७ स्वनिन्दिता ८॥४॥ नत्वा प्रभुं तदभ्यां घेशाने सूतिगृहं व्यधुः। संवःनाशोधयन् क्ष्मामायोजनमितो गृहात् ॥५॥ मेघङ्करा १ मेघवती २, सुमेघा ३ मेघमालिनी ४। तोयधारा दीप अनुक्रम (९८) MOIR पंचम व्याख्यानं आरभ्यते ... भगवन्त महावीरस्य जन्म-कल्याणक-वर्णनं ~ 173~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [९] सुवो व्या० ५ 11.06.11 दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ५ ] ........... मूलं [९८] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ५ विचित्रा च ६, वारिषेणा ७ बलाहका ८ ॥ ६ ॥ अष्टोध्लोकादेत्यैता, नत्वाऽर्हन्तं समातृकम् । तत्र गन्धापुष्पौघवर्ष हर्षाद्वितेनिरे ॥ ७॥ अथ नन्दो १ तरानन्दे २, आनन्दा ३ नन्दिवर्धने ४ । विजया ५ वैजयन्ती व ६, जयन्ती ७ चौपराजिता ८ ॥ ८ ॥ एताः पूर्वरुचकादेत्य विलोकनार्थं दर्पणं अग्रे घरन्ति । समाहारा १ सुप्रदत्ता २, सुप्रबुद्धा ३ यशोधरा ४ । लक्ष्मीवती ५ शेषवती ६, चित्रगुप्ता ७ वसुन्धरा ८ ॥ ९ ॥ एता दक्षिणरुचकदित्य स्नानार्थं करे पूर्णकलशान् धृत्वा गीतगानं विदधति । इलादेवी १ सुरादेवी २, पृथिवी ३ पद्मवत्यपि ४ । एकनासा ५ नवमिका ६, भद्रा ७ शीतेति ८ नामतः ॥ १० ॥ एताः पश्चिमरुचकादेत्य वातार्थ व्यजनपाणयोऽग्रे तिष्ठन्ति । अलम्बुसा १ मितकेशी २, पुण्डरीका च ३ वारुणी ४ । हासा ५ सर्वप्रभा ६ श्री७हीं, ८ रष्टोदगरुचकाद्रितः ॥ ११ ॥ एता उत्तररुचकादेत्य चामराणि वीजयन्ति । चित्रा च १ चित्रकनका २, शतोरा ३ वसुदामिनी ४ । दीपहस्ता विदित्यास्थुर्विदिगरुचकाद्रितः ॥ १२ ॥ रुचकद्वीपतोऽभ्येयुश्चतस्रो दिक्कुमारिकाः । रूपा १ रूपासिका २ चापि सुरूपा ३ रूपकावती ॥ १३ ॥ चतुरङ्गुलतो नालं, छित्त्वा खातोदरेऽक्षिपत् । समापूर्य च वैयैस्तस्योध्वं पीठमोदधुः ॥ १४ ॥ बद्धा तद्दृर्वया जन्मगेहाद्रम्भागृह त्रयम् । ताः पूर्वस्यां दक्षिणस्यामुत्तरस्यां व्यधुस्ततः ॥ १५ ॥ याम्यरम्भागृहे नीखाऽभ्यङ्कं तेनस्तु तास्तयोः । स्नानचशुकालङ्कारादि पूर्वगृहे ततः ॥ १६ ॥ उत्तरेऽरणिकाष्ठाभ्यामुत्पाद्यानिं सुचन्दनैः । होमं कृत्वा वबन्धुस्ता, रक्षापोहलिकां द्वयोः ॥ १७ ॥ पर्वतायुर्भवेत्युक्त्वाऽस्फालयन्त्योऽश्मगोलको । जन्मस्थाने च तौ नीत्वा, स्वख Jan Education Irémation For Private & Personal Use Ov ~ 174~ श्रीवीरजन्मोत्सवः सू. ९७ २० २५ ॥ ७८ ॥ २७ www.janbary.org Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [५] .......... मूलं [९८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [९८] गाथा ||१..|| | दिक्षु स्थिता जगुः ॥१८॥ एताच-सामानिकानां प्रत्येकं, चत्वारिंशच्छतैर्युताः । महत्तराभिः प्रत्येकं, तथा दिकुमारीचतमृभिर्युताः ॥ १९ ॥ अङ्गरः षोडशभिः, सहस्रः सप्तभिस्तथा । कटकैस्तदधीशैश्च, सुरैश्चान्पैमहर्द्धिभिः कृतीजन्मो॥२०॥आभियोगिकदेवकतैयाँजनप्रमाणैर्विमानैः अनायान्तीति विक्रमारिकामहोत्सवः॥ ततः सिंहासनं॥ त्सव शाकं, चचालाचलनिश्चलम् । प्रयुज्याथावधि ज्ञात्वा, जन्मान्तिमजिनेशितुः ॥१॥ बऊकयोजनां घण्टा, सुघोषां नैगमेषिणा । अवावयत्ततो घण्टोरेणुः सर्वविमानगाः॥२॥शक्रादेशं ततः सोंथे।, सुरेभ्योऽज्ञापय-131 त्खयम् । तेन प्रमुदिता देवाश्चलनोपक्रम व्यधुः ॥३॥ पालकायोमरकृतं, लक्षयोजनसंमितम् । विमान पालकं नामाऽध्यारोहत्रिवशेश्वरः॥४॥पालकविमामे इन्द्रसिंहासनस्य अग्रे अग्रमहिषीणां अष्टी भद्रासनानि, वामतश्चतुरशीतिसहस्रसामानिकसुराणां तावन्ति भद्रासनानि , दक्षिणतो द्वादशसहस्राभ्यन्तरपाषेदानां तावन्ति भवासनानि, चतुर्वेशसहस्रमध्यमपार्षदानां तावन्त्येव भद्रासमानि, एवं षोडशसहस्रवाद्यपाषेवामामपि षोडशसहस्रभद्रासनानि.पृष्ठतः ससानीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानि चतसृषु दिक्षु प्रत्येकं चतुरशीति-TRA सहस्रात्मरक्षकदेवानां चतुरशीतिसहस्र भद्रासनानि, तथा अन्यैरपि धनैर्देवतः सिंहासनस्थितः।गीयमामगुणोऽचालीदपरेऽपि सुरास्ततः ॥५॥ देवेन्द्रशासनात् केचित् , केचिन्मित्रानुवर्सनात्। पत्नीभिः प्रेरिताः केचित्, केचिदात्मीयभावतःका केपि कौतुकता कपि, विमयात केपि भक्तितः। चेलुरेवं सुराः सर्वे, विविधैाहनियुतामा७॥विविधैस्तूर्यनिर्घोषैर्घण्टानांकणितैरपि।कोलाहलेन देवाना, शन्द्राद्वैतं सदाऽजनि। सिंहस्थो वक्ति। १४ टकटकटयाse दीप अनुक्रम [९९] कल्प.म.१४ ~175~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [९] कल्प, सुबो व्या० ५ ॥ ७९ ॥ Education i दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ५ ] ........... मूलं [९८] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: हस्तिस्थं, दूरे खीयं गजं कुरु । हनिष्यत्यन्यथा नूनं, दुर्द्धरो मम केसरी ||९|| वाजिस्थं कासरारूढो, गरुडस्थो हि सर्पगम् । छागस्थं चित्रकस्थोऽथ, वदत्येवं तदादरात् ॥ १० ॥ सुराणां कोटिकोटीभिर्विमानैर्वानैर्धनैः । विस्तीऽपि नभोमार्गोऽतिसंकीर्णोऽभवत्तदा ॥ ११ ॥ मित्रं केऽपि परित्यज्य, दक्षत्वेनाग्रतो ययुः । प्रतीक्षख क्षणं भ्रातर्मामत्रेत्यपरोऽवदत् ॥ १२ ॥ केचिद्वदन्ति भो देवाः, संकीर्णाः पर्ववासराः । भवन्त्येवंविधा नूनं, तस्मान्मौनं विधत्त भोः ॥ १३ ॥ नभस्यागच्छतां तेषां शीर्षे चन्द्रकरैः स्थितैः । शोभन्ते निर्जरास्तंत्र, सजरा इच केवलम् ॥ १४ ॥ मस्तके घटिकाकाराः, कंठे यैवेयकोपमाः । स्वेदविन्दुसमा देहे, सुराणां तारका बभुः | ॥ १५ ॥ नन्दीश्वरे विमानानि संक्षिप्याऽऽगात् सुराधिपः । जिनेन्द्रं च जिनाम्यां च त्रिः प्रादक्षिणयत्ततः | ॥ १६ ॥ वन्दित्वा च नमन्यित्वेत्येवं देवेश्वरोऽवदत् । नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षिधारिके ! विश्वदीपिके ! ॥ १७ ॥ अहं शक्रोऽस्मि देवेन्द्रः, कल्पादाद्यादिहागमम् । प्रभोरन्तिमदेवस्य करिष्ये जननोत्सवम् ॥ १८ ॥ ॥ भेतव्यं देवि ! सन्नैवेत्युक्तत्वाऽवस्वापिनीं ददौ । कृत्वा जिनप्रतिबिम्बं जिनाम्बासन्निधौ न्यधात् ॥ १९ ॥ भगवन्तं तीर्थकरं, गृहीत्वा करसम्पुटे । विचक्रे पञ्चधा रूपं, सर्वश्रेयोऽर्थिकः स्वयम् ॥ २० ॥ एको गृहीततीर्थेश, पार्श्वे द्वौ चात्तचामरौ । एको गृहीतातपत्रः, एको वज्रधरः पुनः ॥ २१ ॥ अग्रगः पृष्ठगं स्तौति, पृष्ठस्थोऽप्यभ्रमं पुनः । नेत्रे पश्चात् समीहन्ते, केचनातनाः सुराः ॥ २२ ॥ शक्रः सुमेरुशृङ्गस्थं गत्वाऽथो पाण्डुकं वनम् । मेरुचूलादक्षिणेनातिपाण्डुकम्पलासने ॥ २३ ॥ कृत्वोत्सङ्गे जिनं पूर्वाभिमुखोऽसौ निषीदति । समस्ता अपि देवेन्द्राः, For File & Fersonal Use Only ~ 176~ देवकृतो जन्मोत्सवः १५ २० २५ ॥ ७९ ॥ २८ www.janelbary.org Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [५] .......... मूलं [९८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [९८] गाथा ||१..|| Seaseeeeeeeaereacere खामिपादान्तमैयरुः ॥ २४॥ दश वैमानिका: विंशतिर्भवनपतय: द्वात्रिंशद्वयंन्तराः द्वौ ज्योतिको इति चतु:- देवकृतो पष्टिरिन्द्राणां ।। सौवर्णा राजता राना, स्वर्णरूप्यमया अपि । वर्णरत्नमयाश्चापि, रूप्यरत्रमया अपि ॥ २५॥ जन्मोत्सवः खर्णरूप्यरनमया, अपि मृत्स्नामयाअपि । कुम्भाः प्रत्येकमष्टाढयं, सहस्रं योजनाऽऽननाः॥२६॥ यतः-पणविसजोअणतुङ्गो,वारस य जोअणाई वित्थारो । जोअणमेगं नालुअ.इगकोडिअ सडिलक्खाई ॥२७॥ एवं भृङ्गारद|पेणरत्नकरण्डकसुप्रतिष्ठकस्थालपात्रिकापुष्पचक्रेरिकादिपूजोपकरणानि कुम्भवदष्टप्रकाराणि प्रत्येकमष्टोत्तरसह- ५ समानानि,तथा मागधादितीयानां मृदं जलं च गङ्गादीनां पद्मानि च जलंच पद्महदादीनां क्षुहिमवर्षधरवैताव्यविजयवक्षस्कारादिपर्वतेभ्यः सिद्धार्थपुष्पगन्धान सर्वोषधीश्च आभियोगिकसुरैरच्युतेन्द्र आनाययत् , क्षीरनीरघटैक्षास्थलस्थैखिदशा वभुः । संसारोघं तरीतुं दाग, घृतकुम्भा इच रफुटम् ।। २८ ॥ सिञ्चन्त इव भावहूँ, |क्षिपन्तो वा निज मलम् । कलश स्थापयन्तो था, धर्मचैये सुरा बभुः ॥२९॥ संशयं त्रिदशेशस्य, मत्वा |वीरोऽमराचलम् । वामाङ्गुष्ठाङ्गसम्पकोंत्, समन्तादप्यचीचलत् ॥३०॥ कम्पमाने गिरी तत्र, चकम्पेऽथ वसुन्धरा । शृङ्गाणि सर्वतः पेतुश्चक्षुभुः सागरा अपि ॥ ३१ ॥ ब्रह्माण्डस्फोटसदृशे, शब्दाद्वैते प्रसपति । रुष्टः १ नवमदशमयोरेकादश द्वादशयोकैकेन्द्रखामिकत्वात् २ किन्नराद्या अष्ट अणपण्णीप्रभृतयोऽष्टेतिषोडशमेवाना सेपां द्विद्वीन्द्रखामिकत्वात् ३ पञ्चविंशति योजनान्युश्चत्वं द्वादश योजनानि विस्तारः योजनमेकं नालं कोट्वेका पष्टिलक्षाः ।। कलशाः सौवर्णाचाः प्रत्येक सहवं तथा च ८००० अष्टवारा ६४००० अभिषेकाः २५० तथा च १६००००००। सार्ध शतद्वयमभिषेकाणामेवं ६२ इन्द्राः १३२ चन्द्रसूर्याः १ सामानिकः ३३ त्रायविंशाः ३ पार्षद्याः १ आत्मरक्षकः ४ लोकपालाः ७ अनीकाधिपाः १ प्रकीर्णकः ५ इन्द्राण्यः १ आभियोगिकः दीप अनुक्रम [९९] ES A ndianelbanaras ~177 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [५] .......... मूलं [९८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [९८] गाथा ||१..|| कल्प.सुबोव्या०५ ॥८ ॥ शक्रोऽवधेात्वा, क्षमयामास तीर्थपम् ॥ ३२ ॥ संस्थाऽतीताहतां मध्ये, स्पृष्ठः केनापि नौहिणा | मेह:18 देवकतो |कम्पमिषादियानन्दादिव मनः सः ॥ ३३ ॥ शैलेषु राजता मेऽभूत्, लामीराभिषेकतः । तेनामी जन्मोत्सवः निर्जरा हारा, खपीडो जिनस्तथा ॥ ३४॥ तत्र पूर्वमच्युतेन्द्रो, विधात्यभिषेचनम् । ततोऽनु परिपाटीतो, यावचन्द्रार्यमादयः॥ ३५ ।। जलमात्रे कविघटना-श्वेतच्छायमाणं शिरसि मुखशशिन्यधुपू-II रायमान, कण्ठे हारायमाणं वपुषि च निखिले, चीनचोलायमानम् । श्रीमजम्माभिषेकप्रारिणहगणोवस्ताम्भौधगर्भादू, अश्यग्धाग्धिपाथश्चरमजिनपतेरङ्गसनिश्रिये यः॥३६॥ चतुर्वृषभरूपाणि, शक्रः कृत्वा ततः खयम् । शृङ्गाष्टकक्षरलीरैरकरोदभिषेचनम् ॥ ३७॥ सत्यं ते विबुधा देवाः, पैरन्तिमजिनेशितुः । मजद्भिः सलिलैः स्नानं, स्वयं नैर्मल्यमाददे ॥ ३८ ॥ समङ्गलप्रदीपं ते, विधायाऽऽरात्रिकं पुनः । सनत्यगीतवाद्यार्वि, व्यधुर्विविधमुत्सवम् ॥ ३९॥ उन्मृज्य गन्धकाषाय्या, दिव्ययाऽहरिविभोः। विलिप्य चन्दनायैश्च, पुष्पा[स्तमैपूजयत् ॥ ४०॥ दर्पणो १ वर्षमानश्च २, कलशो ३ मीनयोर्युगम् ४ । श्रीवत्सः५ खस्तिको ६ नन्यावर्त्त७ भद्रासने ८ इति ॥४१॥ शक्रः स्वामिपुरो रवपटके रूप्यतण्डलैः । आलिख्य मङ्गलान्यष्टाविति स्तोतुं| प्रचक्रमे ॥ ४२ ॥ (अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहिं महावित्तेहिं अपुणरुत्तेहिं अस्थजुत्तेहिं संथुणइ २त्ता वार्म जाणु जाव एवं चयासी-णमोऽत्थुते सिद्धवुद्धणीरय समण सामाहिअ समस समजोगि सलगत्सण णिन्भय णीरागदोस णिम्मम णीसंग निस्सल माणमूरण गुणरयण सीलसागरमणन्तमपमेय भविअधम्मवरचाजरन्तयक दीप अनुक्रम [९९] JABEnicatonirth ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [५] .......... मूलं [९८] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [९८] गाथा ||१..|| वही! णमोऽत्यु ते अरहओ) शक्रोऽथ जिनमानीय, विमुच्याम्बान्तिके ततः। संजहार प्रतीषिम्यावस्था- हिरण्यादिपिन्धौ स्वशक्तितः ॥४३॥ कुण्डले क्षौमयुग्मं चोछीर्षे मुत्तवा हरिय॑धात् । श्रीदामरनदामाख्यमुल्लोचे पृष्टिःसू.९८ स्वर्णकन्दुकम् ॥ ४४ ॥ द्वात्रिंशद्रत्नरैरूप्यकोटिवृष्टिं विरच्य सः । बाढमाघोषयामासे, सुरैरित्याभियोगिकैः ॥ ४५ ॥ स्वामिनः स्वामिमातुश्च, करिष्यत्यशुभं मनः । सप्तधाऽर्यमञ्जरीव, शिरस्तस्य स्फुटिष्यति ॥ ४६॥18 खाम्यङ्गुष्ठेऽमृतं न्यस्येत्यहेजन्मोत्सवं सुराः । नन्दीश्वरेऽष्टाहिकां च, कृत्वा जग्मुर्यथाऽऽगतम् ॥४७॥ इति देवकृतः श्रीमहावीरजन्मोत्सवः । अस्मिन्नवसरे राज्ञे, दासी नाना प्रियंवदा । तं पुत्रजननोदन्तं, गया| शीघ्रं न्यवेदयत् ॥१॥ सिद्धार्थोऽपि सदाकर्ण्य, प्रमोदभरमेदुरः । हर्षगद्गदगी रोमोद्गमदन्तुरभूघनः॥२॥ विना किरीटं तस्यै खां, सर्वाङ्गाल कृतिं ददौ । तां धौतमस्तकां चके, दासत्वापगमाप सः॥३॥ 8 (जं रयर्णि च णं समणे भगवं महाबीरे जाए) यस्यां च रजन्यां श्रमणो भगवान महावीरः जातः (तं1% रयाणि च णं)तस्यां रजन्यां (पहले वेसमणकुंडधारी) बहवः वैश्रमणस्य आज्ञाधारिणः (तिरियजभगा; | देवा ) एवंविधाः तिर्यगजृम्भकाः देवाः (सिद्धत्थरायभवणंसि) सिद्धार्थराजमन्दिरे (हिरणवास थ) सध्यवृष्टिं च (सुवण्णवासंच)सुवर्णवृष्टिं च (वयरवासंच) बज्राणि-हीरकाः तेषां वृष्टिं च (बत्थवासं च) वस्त्राणां वृष्टिं च (आभरणवासंच) आभरणवृष्टिं च (पत्तवासं च) पत्राणि नागवल्लीप्रमुखाणां तेषां। वृष्टिं च (पुष्फवासंघ) पुष्पाणां वृष्टिं च (फलवासं च) फलानि-नालिकेरादीनि तेषां वृष्टिं च (बीयवासं दीप अनुक्रम [९९] ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........ व्याख्यान [५] .......... मूलं [९९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९९] गाथा ||१..|| १५ कल्प.सबो- च)बीजानि-शाल्यादीनि तेषां वृष्टिं च (मल्लवासं च) मालयानां वृष्टिं च (गंधवासं च) गन्धा:-कोष्ठ-उत्सवादेश: व्या०५पुटादयस्तेषां वृष्टिं च (चुण्णवासं च) चूर्णानि-वासयोगास्तेषां वृष्टिं च (वपणवासं च) वर्णाः-हिङ्गलाद- मानादि. यस्तेषां वृष्टिं च (वसुहारवासं च) वसुधारा-निरन्तरा द्रव्यश्रेणिस्तस्याः वृष्टिं च (वासिंसु) अवर्षयन (९८) ॥८१॥ (तए णं से सिद्धत्धे खत्तिए)ततोऽनन्तरं स सिद्धार्थः क्षत्रियः (भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं |९९-१०० देवेहिं ) भवनपतयः व्यन्तराः ज्योतिष्काः वैमानिकाः ततः समासस्तैः एवंविधैः देवैः (तित्थयरजम्मणाकासेयमहिमाए कयाए समाणीप) तीर्थङ्करस्य यो जन्माभिषेकस्तस्य महिनि-उत्सवे कृते सति (पच्चूसका लसमयंसि) प्रभातकालसमये (नगरगुत्तिए सद्दावेद ) नगरगोप्तकान्-आरक्षकान् शब्दयति, आकारयतीत्यर्थः (सहावित्ता) शब्दयित्वा च (एवं वयासी) एवं अवादीत् ॥ (९९)॥ (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया) क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! (खत्तियकुंडग्गामे नयरे ) क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (चारगसोहणं करेह) चारकशब्देन कारागारं उच्यते तस्य शोधनं-शुद्धिं कुरुत, बन्दिमोचनं कुरुत इत्यर्थः, यत उक्तं-"युवराजाभिषेके च, परराष्ट्रापमईने । पुत्रजन्मनि वा मोक्षो, बद्धानां प्रविधीयते ॥१॥ २५ किश्च-(माणुम्माणबद्धणं करेह ) तत्र मान-रसधान्य विषयं उन्मानं-तलारूपं तयोर्वर्द्धनं कुरुत (करित्ता) ॥८१॥ कृत्वा च ( कुंडपुरं नयरं सम्भितरबाहिरिअं) अभ्यन्तरे बहिश्च यथोक्तविशेषणविशिष्टं कुण्डपुरनगरं कुरुत कारयत, अथ किंविशिष्टं ? (आसित्ति) आसिक्तं सुगन्धजलच्छटादानेन ( संमजिओवलितं) संमाजित aeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeereet दीप अनुक्रम [१००] JABEducation ~180~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१००] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा ||१..|| Jeaone9000000000000 कचवरापनयनेन, उपलिसं छगणादिना ततः कर्मधारयः, पुन: किंवि०? (सिंघाडगतिअचउक्कचच्चरचउम्मुह-18 | मानवृछामहापहपहेसु) शृङ्गाटक-त्रिकोणं स्थानं, त्रिक-मार्गत्रयसंगमः चतुष्कं-मार्गचतुष्टयसनमः, चत्वरं-अनेकमा-दिसू.१०० गसङ्गमः चतुर्मुख-देवकुलादि, महापन्धा-राजमार्गः पन्थान:-सामान्यमार्गाः एतेषु स्थानेषु (सित्तत्ति) सिक्तानि जलेन अत एव (सुइत्ति) शुचीनि-पवित्राणि (संमत्ति) संमृष्टानि-कचवरापनयनेन समीकृतानि (रत्वंतरावणवीहियं) रथ्यान्तराणि-मार्गमध्यानि तथा आपणवीथयश्च-हट्टमार्गा यस्मिन् तत्तथा पुनः किंवि०? (मंचाइमंचकलिअं) मञ्चा-महोत्सवविलोककजनानां उपवेशननिमित्तं मालकाः,अतिमञ्चका:-तेषां 8 अपि उपरि कृता मालकास्तैः कलितं, पुनः किंवि०१ (नाणाविहरागभूसिअझयपहागमंडिअं) नानाविधै|| रागैर्विभूषिता ये ध्वजा:-सिंहादिरूपोपलक्षिता बृहत्पटाः, पताकाश्च-लव्यस्ताभिमेण्डित-विभूषितं, पुनः | किंवि० ? (लाउल्लोइअमहियं) छगणादिना भूमौ लेपन सेटिकादिना भित्यादौ धवलीकरणं,ताभ्यां महितं |इव-पूजितं इव, पुन: किंवि०? (गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितलं) गोशीर्ष-चंदनविशेषः तथा सरसं यत् रक्तचन्दनं तथा दर्दरनामपर्वतजातं चन्दनं तैः दत्ताः पश्चाङ्गुलितला-हस्तकाः कुड्यादिषु यत्र तत्तथा, पुनः किंवि०१ (उबचियचंदणकलसं) उपनिहिता गृहान्तचतुष्केपु चन्दनकलशाः यत्र तत्तथा ॥ (चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभाग) चन्दनघदैः सुकृतानि-रमणीयानि तोरणानि च प्रतिद्वारदेशभाग-द्वारस्य द्वारस्य देशभागे यस्मिन् तत्तथा, पुनः किंवि० ? (आसत्तोसत्तविपुलवश्वग्धारियमल्लदामक दीप अनुक्रम [१०१] e REnicate OMedianetbraryan ~181~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१००] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा ||१..|| कल्प सबोलावं ) आसक्तो-भूमिलमा, उत्सत्तश्च-उपरिलनो, विपुलो-विस्तीणों वर्तुलः प्रलम्बितो माल्यदामकरलाप: " मानवृधाव्या०५ पुष्पमालासमूहो यस्मिन् तत्तथा, पुनः किंवि०१ (पंचवण्णसरससुरहिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिय) पञ्चवर्णाः दिस.१०० सरसाः सुरभयो ये मुक्ताः पुष्पपुआस्तैर्य उपचारो-भूमेः पूजा तया कलितं, पुनः किंवि० १ (कालागुरुपवर॥८२॥ कुंदुरुकतुरुकडझतधूवमघमतगंधुद्धआभिरामं ) दह्यमानाः ये कृष्णागप्रवरकुन्दुरुकतुरुष्कधूपाः तेषां मघ-IST मघायमानो यो गन्धः तेन 'उद्ययाभिरामन्ति-अत्यन्तमनोहरं, पुनः किंवि० १ (सुगंधवरगंधियं) सुगन्ध-13 वरा:-चूर्णानि तेषां गन्धो यत्र तत्तथा तं, पुनः किंवि०? (गंधवहिभूयं ) गन्धवृत्तिभूतं-गन्धद्रव्यगुटिकास-11 मानं, पुनः किवि०? (नडनगजल्लमल्लमुट्टियसि) नटा-नाटयितारः,नर्सका:-स्वयं नृत्यकार:जल्ला-वरत्राखेलकाः मल्ला:-प्रतीताः मौष्टिका-ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति ते मल्लजातीयाः (वेलंवगत्ति) बिडम्बका-विदूषका जनानां हास्यकारिणः,ये समुखविकारमुत्प्लुत्यरनृत्यन्ति ते वा (पवगत्ति) प्लबका-ये उत्प्लवनेन गादिकमलवयन्ति नयादिकं वा सरन्ति (कहगसि) सरसकथावकारः (पाढगत्ति) सूक्तादीनां पाठकाः (लासगति) २५ लासका ये रासकान ददति (आरक्खगसि) आरक्षका:-तलबराः (लंखसि) लडा-वंशानखेलकाः (मंखसि मङ्खा:-चित्रफलकहस्ता भिक्षुका 'गौरीपुत्रा' इति प्रसिद्धाः (तूणइल्लत्ति) तूणाभिधानवादिश्रवादकाः भिक्षुषि- ८२॥ शेषाः (तुंवधीणियत्ति)तुम्बवीणिका-वीणावादकाः तथा (अणेगतालायराणुचरियं) अनेके ये तालाचरा:तालादानेन प्रेक्षाकारिणस्तालान कुट्टयन्तो था ये कयां कथयन्ति तैः अनुचरितं-संयुक्तं, एवंविघं क्षत्रियकुण्ड-18 २८ दीप अनुक्रम [१०१] ~182~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०१] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१०२] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ५ ] ............ मूलं [१०१] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ग्राम नगरं ( करेह कारवेह ) कुरुत खयं कारयत अन्कैः ( करिता कारवित्ता य) कृत्वा कारयित्वा च (जूअसहस्सं मुसलसहस्वं च उस्सवेह ) यूपाः - युगानि तेषां सहस्रं तथा मुशलानि प्रतीतानि तेषां सहस्रं ऊध्र्वीकुरुत युगमुसलोवीकरणेन च तत्रोत्सवे प्रवर्त्तमाने शकटखेटनकण्डनादिनिषेधः प्रतीयते इति वृद्धाः (उस्सवित्ता) तथा कृत्वा च ( मम एयमाणत्तियं पचविणह ) मम एतां आज्ञां प्रत्यर्पयत, कार्यं कृत्वा कृतं इति मम कथयतेत्यर्थः ॥ ( १०० ) ॥ (तणं ते कोटुंबियपुरिसा) ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः (सिद्धत्थेणं रक्षा ) सिद्धार्थेन राज्ञा ( एवं बुत्ता समाणा ) एवं उक्ताः सन्तः ( हहह जाव हिअया) हृष्टाः तुष्टाः यावत् हर्षपूर्णहृदपाः (करयल जाव पडिणिता) करताभ्यां यावत् अञ्जलिं कृत्वा प्रतिश्रुत्य भङ्गीकृत्य ( खियामेव कुंडपुरे नगरे) शीमेव क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे (चारगसोहणं जाव उस्सवित्ता) बन्दिगृहशोधनं वन्दिमोचनं यावत् मुशल सहसं बोर्डीकृत्य ( जेणेव सिद्धत्थे वत्तिए) यत्रैव सिद्धार्थः क्षत्रियः (तेणेव उवागच्छति ) तत्रैव उपागच्छन्ति (उवामा) उपागत्य व ( सिद्धस्थस्स खसिअस्स) सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य ( समाणत्तियं पचप्पियंति ) तां आज्ञां प्रत्यर्पयन्ति-कृत्वा निवेदयन्ति ।। ( १०१ ) (तर णं सिद्धस्थे राया ) ततोऽनन्तरं सिद्धार्थो राजा ( जेणेव अहणसाला ) यत्रैव अट्टनशाला-परिश्रमस्थानं ( तेणेव उवागच्छ ) तत्रैव उपागच्छति ( उवागच्छिता) उपागत्य ( जाव सवोरोहेणं ) अत्र यावत् For Plate & Fersonal Use On ~ 183~ बन्दिमोच नं सू. १०१ ५ १० १४ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१०४] कल्प, सुबोव्या० ५ 11 23 11 Jan Education XI दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [५] मूलं [१०२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: शब्दात 'सविडीए सबजुइए सबवलेणं सङ्घवाहणेणं सबसमुद्रणं' इत्येतानि पदानि वाक्यानि तेषां चायमर्थ:'सविडीए'ति सर्वया ऋद्धया युक्त इति गम्यं, एवं सर्वेष्वपि विशेषणेषु वाच्यं, सर्वया युक्तया - उचितवस्तुसंयोगेन आभरणादिद्युत्या वा, सर्वेण बलेन सैन्येन सर्वेण वाहनेन - शिविकातुरगादिना सर्वेण समुदयेन - परिवारादिसमूहेन एवं यावत्शब्दसूचितं अभिधाय ततः 'सबोरोहेणं' इत्यादि वाच्यं तत्र 'सधोरोहेणंति' सर्वावरोधेन, सर्वेण अन्तः पुरेणेत्यर्थः (सङ्घपुष्पगंधवत्थमल्लालंकारविभूसाए ) सर्वया पुष्पगन्धवस्त्रमाल्यालङ्काराणां विभूपया युक्तः ( सचतुडियसद्दनिनाएणं ) सर्ववादित्राणि तेषां शब्दो निनादः - प्रति॒रव॑श्च तेन युक्तः (महया इडीए) महत्या ऋद्ध्या छत्रादिरूपया युक्तः (महया जुईए) महत्या युक्तया - उचिताडुम्बरेण युक्त: ( महया अलेणं) महता बलेन चतुरङ्गसैन्येन युक्तः (महया वाहणेणं) महता चाहनेन - शिविकादिना युक्तः (महया समुदणं) महता समुदयेन खकीयपरिवारादिसमूहेन युक्तः ( महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं ) है महत्- विस्तीर्णं यत् वराणां प्रधानानां त्रुटितानां वादित्राणां जमगसमगं- युगपत् प्रवादितं शब्दस्तेन, तथा ( संखपणव भेरिझल्लरिखर मुहिहु दुधमुरजमुइंग दुहिनिग्घोसनाइयरवेणं ) शङ्खः प्रतीतः पणवो मृत्पटहः भेरीढक्का झल्लरी - प्रतीता खरमुखी - काहला हुक्का - तिचलितुल्यो वाद्यविशेषः मुरुजो मद्दल: मृदंग:-मृन्मयः स एव दुन्दुभिः- देववार्थ, एतेषां यो निर्घोषो महाशब्दो नादितं च-प्रतिशब्दस्तद्रूपो यो रवस्तेन, एर्वरूपया सकलसामम्या युक्तः सिद्धार्थों राजा दश दिवसान् यावत् स्थितिपतितां - कुलमर्यादां महोत्सवरूपां करो For F&Fersonal Use Only ~184~ करशुल्कादिवर्जनम् सू. १०२ १५ २० ६५ ॥ ८३ ॥ २८ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१०४] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [५] मूलं [१०२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: तीति योजना ॥ अथ किंविशिष्टां स्थितिपतितामित्याह -- (उस्मुकं ) उच्छुकां शुल्कं विक्रेतव्यक्रयाणकं | प्रति मण्डपिकायां राजग्राह्यं द्रव्यं ' दाण ' इति लोके तेन रहितां, पुनः किंवि० १ (उक्करं ) उत्करां, करोगवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजग्राचं द्रव्यं तेन रहितां, अत एव ( उक्किहं ) उत्कृष्टां सर्वेषां हर्षहेतुत्वात् पुनः किंवि० ? (अदिजं ) अदेयां, यत् यस्य युज्यते तत्सर्वं तेन हतः ग्राह्यं न तु मूल्यं देयं मूल्यं तु तस्य राजा ददातीति भावः, अत एव (अमिनं) अमेयां अमितानेकवस्तुयोगात्, अथवा अदेयां विक्रयनिषेधात्, अमेयां क्रयविक्रयनिषेधात् पुनः किंवि० १ ( अभडपवेसं ) नास्ति कस्यापि गृहे राजाज्ञादायिनां भटानां| राजपुरुषाणां प्रवेशो यच सा तथा तां पुनः किंबि० १ ( अकोदंडिमं ) दण्डो- यथाऽपराधं राजग्राह्यं धनं कुदण्डो-महत्यपराधे अल्पं राजग्राह्यं धनं ताभ्यां रहितां, पुनः किंवि० ? ( अधरिमं) घरिमं ऋणं तेन रहितां, ऋणस्य राज्ञा दत्तत्वात् पुनः किंवि० १ ( गणियावरनाइज्जकलियं ) गणिकावरैः नाटकीयै:-नाटकप्रतिबद्धः पात्रैः कलितां पुनः किंवि० १ ( अणेगतालायराणुचरियं ) अनेकैस्तालाचरैः - प्रेक्षाकारिभिः अनुचरितां - सेवितां पुनः किंवि० ? ( अणुयमुइंगं ) अनुद्धृता-वादकैः अपरित्यक्ता_मृदङ्गा यस्यां सा तथा तां, पुनः किंवि० ? ( अमिलायमल्लदामं ) अम्लानानि माल्यदामानि यस्यां सा तथा तां पुनः किंवि० १ ( पमुड़यपक्कीलिअस पुरजणजाणवयं ) प्रमुदिता:- प्रमोदवन्तः अत एव प्रकीडिता:- क्रीडितुं आरब्धाः पुरजनस For File & Person Use O ~ 185~ करशुल्कादिवर्जनम् स. १०२ ५ १० १३ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०३] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१०५] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [ ५ ] ............ मूलं [१०३] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कल्प, सुबो-हिता, जनपदा - देशलोका यत्र सा तथा तां ( दस दिवस ठिवडियं करेइ ) दश दिवसान् यावत् एवंविधां स्थितिपतितां - उत्स्वरूपां कुलमर्यादां करोति ॥ ( १०२ ) ॥ व्या० ५ (तए णं सिद्धत्थे राया ) ततः स सिद्धार्थो राजा (दसाहियाए ठिइवडियाए बट्टमाणीए ) दशाहिकायां॥ ८४ ॥ दशदिवसप्रमाणायां स्थितिपतितायां वर्तमानायां (सहए अ) शतपरिमाणान् ( साहस्सिए अ ) सहस्रपरिमाणान् (सयसाहस्सिए अ ) लक्षप्रमाणान् ( जाए अ ) यागान् अर्हत्प्रतिमापूजा:, कुर्वन् कारयंश्चेति| शेषः, भगवन्मातापित्रोः श्रीपार्श्वनाथसन्तानीयश्रावकत्वात् यजधातोश्च देवपूजार्थत्वात् यागशब्देन प्रतिमापूजा एवं माया, अन्यस्य यज्ञस्य असम्भवात्, श्रीपार्श्वनाथ संतानीयभावकत्वं नानयोराचाराने प्रतिपादितं (( दाए अ ) दायान् पर्वदिवसादौ दानानि (भाए य ) लब्धद्रव्यविभागान् मानितद्रव्यांशान् वा ( दलमाणे (अ) ददत् स्वयं ( दवावेमाणे अ ) दापयन् सेवकैः (सहए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य ) शतप्रमाणान् सहस्रप्रमाणान् लक्षप्रमाणान्, एवंविधान् (लंभे पडिच्छमाणे अ पढिच्छावेमाणे य) लाभान् ' वधामणा ' इति लोके, प्रतीच्छन्- स्वयं गृह्णन् प्रतिग्राहयन् सेवकादिभिः (एवं विहरह) अनेन प्रकारेण च विहरति आस्ते ॥ (१०३) (तपूर्ण समणस्स भगवओ महावीरस्स ) ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ( अम्मापिपरो पढमे दिवसे) मातापितरौ प्रथमे दिवसे ( ठिइबडियं करेंति ) स्थितिपतितां कुरुतः (तह दिवसे चंदसूरदंसणियं करेंति तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनिकां- उत्सवविशेषं कुरुतः, तद्विधियायं जन्मदिनादिनद्वयातिक्रमे गृहस्थगुरुरें Jan Education Inte For Pride & Personal Use Only ~186~ स्थितिपतितायां देव पूजादि सू. १०३ २० २५ ॥ ८४ ॥ २७ janisbary.org Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०४] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०४] गाथा ||१..|| उमा १०४. हत्प्रतिमाने रूप्यमयीं चन्द्रमूर्ति प्रतिष्ठाप्य अर्चित्वा विधिना स्थापयेत्, ततः स्नातां सुघनाभरणां सपुत्रां दशाहिकी मांतरं चन्द्रोदये प्रत्यक्ष चन्द्रसन्मुखं नीवाओं अहं चन्द्रोऽसि निशाकरोऽसि नक्षत्रपतिरसि सुधाकरो- मर्यादा मू, सि औषधीगर्भोऽसि अस्य कुलस्य वृद्धिं कुरु कुरु खाहा' इत्यादिचन्द्रमन्त्रमुचारयंश्चन्द्र दर्शयेत्, सपुत्रा माता च गुरुं प्रणमति, गुरुश्चाशीर्वादं ददाति, सायं-सर्वोषधीमिश्रमरीचिराजि!, सर्वापदां संहरणप्रवीणः। करोतु वृद्धिं सकलेऽपि वंशे, युष्माकमिन्दुः सततं प्रसन्नः॥१॥ एवं सूर्यस्यापि दर्शनं, नवरं मूर्तिः खर्णमयी ताम्रमयी वा, मन्त्रश्च ओं अहं सूर्योऽसि दिनकरोऽसि तमोऽपहोऽसि सहस्रकिरणोऽसि जगचक्षुरसि प्रसीद' आशीर्वादश्चायं-सर्वसुरासरवन्धः कारयिताऽपूर्वसर्वकार्याणाम् । भूयात्रिजगचक्षुमङ्गलदस्ते सपुपात्रायाः॥१॥ इति चन्द्रसूर्यदर्शनविधिः, साम्प्रतं च तत्स्थाने शिशोदेर्पणो दश्यते ॥ (छठे दिवसे धम्मजा गरियं जागरेन्ति)ततः षष्ठे दिवसे 'धम्मजागरियं ति धर्मेण-कुलधर्मेण षष्ट्या रात्री जागरणं धर्मजागरिका तां जागृतः, पष्ठे दिने जागरणमहोत्सवं कुरुत इति भावः, एवं च (एकारसमे दिवसे वहफते) एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते सति (निव्वत्तिए असुइजम्मकम्मकरणे) अशुचीनां-जन्मकर्मणां-मालच्छेदादीनां करणे निर्वर्तिते-समापिते सति (संपत्ते बारसाहे दिवसे) द्वादशे च दिवसे सम्प्राप्ते सति भगवन्मातापितरौ (विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविति) विपुलं-बहु अशनं पानं खादिम खादिमं च उपस्कारयता-प्रगुणीकारयता (उवक्खडावित्ता) उपस्कारयित्वा च (मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणं) मित्राणि- १४ दीप अनुक्रम [१०६] कस.स.१५ ~187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०४] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०४] गाथा ||१..|| कल्प.सपो- सहदादया,ज्ञातयः-सजातीयाः,निजका:-स्वकीयाः पुत्रादयः,खजना:-पितव्यादयः, सम्बन्धिन:-पत्रपत्री-दशाहिकी व्या०५ णां श्वशुरादयः परिजनो-दासीदासादिः (नायए खत्तिए य) ज्ञातक्षत्रिया:-श्रीऋषभदेवसजातीयास्तान्ोदी स. (आमतेइ २त्ता) आमन्त्रयति आमन्थ्य च (तओ पच्छा पहाया कयबलिकम्मा) ततः पश्चात् सातौ कृता १०४ पूजा याभ्यां तथा तो ( कयकोउअमंगलपायच्छित्ता) कृतानि कौतुकमङ्गलानि तान्येव प्रायश्चित्तानि याभ्यां तथा तौ (सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई पवराई वस्थाई परिहिया) शुद्धानि-श्वेतानि सभाप्रवेशयोग्यानि,माङ्ग-1 ल्यानि-उत्सवसूचकानि, प्रवराणि-श्रेष्ठानि वस्त्राणि परिहितौ (अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा) अल्पानिस्तोकानि बहुमूल्यानि यानि आभरणानि तैः अलङ्कृत-शोभितं शरीरं याभ्यां तथा तो, एवंविधौ भगवमातापितरौ (भोअणवेलाए भोअणमंडवंसि) भोजनवेलायां भोजनमण्डपे (सुहासणवरगया) सुखासनवराणि गती सुखासीनी इत्यर्थः (तेणं मित्सनाइनियगसंबंधिपरियणेणं) तेन मित्रज्ञातिनिजकखजनसम्प-12 |न्धिपरिजनेन (नाएहिं खत्तिएहिं सद्धिं ) ज्ञातजातीयैः क्षत्रियैः सार्द्ध (तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइ-1 म) तं विपुलं अशनं पानं खादिम खादिमंच (आसाएमाणा) आ-ईषत् खादयन्ती बहु त्यजन्ती इक्ष्वा- २५ |देरिव (विसाएमाणा ) विशेषेण स्वादयन्ती अल्पं त्यजन्तौ खजूरादेरिव (परिभुजेमाणा) सर्वमपि भुञ्जानौ | अल्पं अपि अत्यजन्ती भोज्यादेरिव (परिभाएमाणा) परिभाजयन्ती-परस्परं यच्छन्ती ( एवं वा विहरति) २८ अनेन प्रकारेण भुनानौ तिष्ठत इति भावः ॥ (१०४)॥ दीप अनुक्रम [१०६] JABEnicatonis ~188~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०५ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१०७] Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [५] मूलं [ १०५] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: (जिमियत्तरागयावि य णं समाणा ) ततः जिमितौ भुक्त्युत्तरं - भोजनानन्तरं आगतौ - उपवेशनस्थाने समागतौ अपि च निश्चयेन एवंविधौ सन्तौ (आयंता चोक्खा परमसुइभूया ) आचान्तौ शुद्धोदकेन कृताचमनौ ततश्च लेपसिक्थापनयनेन चोक्षौ अत एव परमपवित्रीभूतौ सन्ती ( तं मित्तनाइनियगसपण संबंधिपरियणं) तं मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनं (नायए खतिए अ) ज्ञातजातीयांश्च क्षत्रियान् ( विड| लेणं पुष्कवत्थगंधमलालंकारेणं) विपुलेन पुष्पवस्त्रगन्धमालालङ्कारादिना ( सकारेंति सम्मार्णेति ) सत्कारयतः सन्मानयतः ( सकारिता सम्माणिता) सत्कार्य सन्मान्य च (तस्सेव मित्तनाइ नियगसपणसंबंधिपरियणस्स) तस्यैव मित्रज्ञातिनिजकखजनसम्बन्धिपरिजनस्य (नायाणं खत्तिआण य पुरओ) ज्ञातजातीयानां क्षत्रियाणां च पुरतः ( एवं वयासी ) एवं अवादिष्टाम् ॥ (१०५) । (पुव्विपि देवाणुपिया) पूर्वमपि भो देवानुप्रियाः ! - भोः खजनाः ! ( अम्हं एयंसि दारगंसि गर्भ वक्तंसि समाणंसि ) अस्माकं एतस्मिन् दारके गर्भे उत्पन्ने सति (इमे एयारूवे अम्भस्थिए जाव समुप्पजिस्था ) अर्थ एतद्रूपः आत्मविषयः यावत् संकल्पः समुत्पन्नोऽभूत्, कोऽसौ ? इत्याहू - ( जप्पभिई च णं अम्हं एस दारए कुच्छिसिं गन्भत्ताए वकते ) यतः प्रभृति अस्माकं एष दारकः कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः (तप्पभिड़ं चणं अम्हे ) तत्प्रभृति वयं ( हिरण्णेणं बहामो ) हिरण्येन रूपयेन वर्धामहे ( सुवण्णेणं वड्डामो) सुवर्णेन वर्धामहे ( घणेणं धनेणं रज्जेणं जाव सावइजेणं) धनेन धान्येन राज्येन यावत् खापतेयेन द्रव्येण ( पीइस For Pile & Ferson Use O ~ 189~ अभिप्रायकथनं गुणनामकरणम् सू. १०५-७ ५ १४ janelbary.org Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११२] कल्प. सुबो व्या० ५ ॥ ८६ ॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [५] मूलं [ १०७] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कारेण अई अईव अभिवद्दामो ) प्रीतिसत्कारेण अतीव अतीव अभिवर्षामहे ( सामंतरायाणो वसमागवा य) स्वदेशसमीपवर्त्तिनः राजानः वयं आयत्तत्वं आगताः ॥ ( १०३ ) ॥ ( तं जया णं अहं एस दारए जाए भविस्सह ) तस्मात् यदा अस्माकं एष दारको जातो भविष्यति ( तया णं अम्हे एयस्स दारगस्स ) तदा वयं एतस्य दारकस्य ( इमं एयाणुरूवं गुपणं गुणनिष्कण्णं ) इमं एतद्नुरूपं गुणेभ्यः आगतं गुणैर्निष्पन्नं (नामधिज्जं करिस्सामो बद्धमाणुन्ति) एवंविधं अभिधानं करिष्यामः 'वर्द्धमान' इति ( ता अम्हं अज मणोरहसंपत्ती जाया ) 'ता' इति सा पूर्वोत्पन्ना अस्माकं अद्य मनोरथस्य संपत्तिः जाता (तं होड णं अम्हं कुमारे वद्धमाणे नामेणं) तस्मात् भवतु अस्माकं कुमारः वर्द्धमानः नाम्ना ॥ ( १०७ ) ॥ (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीर : ( कासवगुत्तेणं) काश्यप इति नामकं गोत्रं यस्य स तथा ( तस्स णं तओ नामधिज्जा एवमाहिनंति ) तस्य भगवतः त्रीणि अभिधानानि एवं आख्यायन्ते, ((तंजा ) तद्यथा - ( अम्मापि संतिए वद्धमाणे ) मातापितृसत्कं मातापितृदत्तं ' बर्द्धमान' इति प्रथमं नाम १ ( सहसमुइयाए समणे ) सहसमुदिता - सहभाविनी तपःकरणादिशक्तिः तया श्रमण इति द्वितीयं नाम २ ( अयले भयभेरवाणं ) भयभैरवयोर्विषये अचलो - निष्प्रकम्पः, तत्र भयं - अकस्माद्भयं विद्युदादिजातं, भैरवं तु सिंहादिकं, तथा ( परिसहोवसग्गाणं ) परिपहा:-क्षुत्पिपासादयो द्वाविंशतिः २२ Jan Education in ••• भगवंत महावीरस्य त्रयाणां नामानां वर्णनं For Plate & Fersonal Use On ~ 190 ~ श्रीवीरस्य नामत्रयं सू. १०८ २० २५ ॥ ८६ ॥ २८ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०८] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११२] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [५] मूलं [१०८] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: उपसर्गाश्च दिव्यादयश्चत्वारः समभेदास्तु षोडश १६ तेषां ( खंतीखमे ) क्षान्त्या - क्षमया क्षमते न त्वसमर्थतया यः स क्षान्तिक्षमः (पडिमाणं पालए) प्रतिमानां भद्रादीनां एकरात्रिक्यादीनां वा अभिग्रहविशेपाणां पालकः (धीमं) घीमान् ज्ञानत्रयाभिरामत्वात् ( अरहरइसहे) अरतिरती सहते, न तु तत्र हर्षविपादौ कुरुते इति भावः ( दविए) द्रव्यं तत्तगुणानां भाजनं रागद्वेषरहित इति वृद्धाः ( वीरिअसंपन्ने ) वीर्य - पराक्रमस्तेन संपन्नः, यतो भगवान् एवंविधस्ततो ( देवेहिं से णामं कयं समणे भगवं महावीरे ) देवैः से इति तस्य भगवतो नाम कृतं श्रमणो भगवान् महावीर इति तृतीयम् ॥ ( १०८ ) ॥ तदिदं नाम देवैः कृतं कथं कृतं ? इत्यत्र वृद्धसंप्रदाय :- अथैवं पूर्वोक्तयुक्तया सुरासुरनरेश्वरैः कृतजन्मोत्सवो भगवान् द्वितीयाशशीव मन्दाराङ्कुर इव वृद्धिं प्राप्नुवन् क्रमेण एवंविधो जातः-द्विजराजमुखो गजराजगतिः, अरुणोष्ठपुटः सितद्न्तततिः । शितिकेश भरोऽम्बुजमञ्जुकर, सुरभिश्वसितः प्रभयोल्लसितः ॥ १ ॥ मतिमान् श्रुतवान् प्रथितविधियुक, पृथुपूर्व भवस्मरणो गतरुक । मतिकान्तिधृतिप्रभृति स्वगुणैर्जगतोऽप्यधिको जगतीतिलकः ॥ २ ॥ स चैकदा कौतुकरहितोऽपि तेषां उपरोधात् समानवयोभिः कुमारैः सह क्रीडां कुर्वाण आमलकीक्रीडानिमित्तं पुराद् बहिर्जगाम, तत्र च कुमारा वृक्षारोहणादिप्रकारेण क्रीडन्ति स्म, अत्रान्तरे सौधर्मेन्द्रः सभायां श्रीवीरस्य धैर्यगुणं वर्णपत्रास्ते, बहुत पश्यत भो देवाः! साम्प्रतं मनुष्यलोके श्रीवर्द्धमानकु| मारो बालोऽप्यंबालपराक्रमः शक्रादिभिर्देवैरपि भापयितुं अशक्यः कटरे वालस्यापि धैर्यं तदाकर्ण्य च कश्चित् For Filde&Fron ~ 191 ~ आमलकीक्रीडा ५ १४ www.janbary.org Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०९ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११३] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [५] मूलं [१०९] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: 112011 कल्प. सुबो- ६ मिध्यादृग देवञ्चिन्तयामास - अहो शक्रस्य प्रभुत्वाभिमानेन निरङ्कुशा निर्विचारा पुम्भिकापातेन नगराक्रम०५ मिश्रया च वचनचातुरी, यदिमं मनुष्य कीटपरमाणु अपि इयन्तं प्रकर्ष प्रापयति, तदद्यैव तत्र गत्वा तं भीषयित्वा शक्रवचनं वृथा करोमि इति विचिन्त्य मर्त्यलोकमागत्य शिंशपामुशलस्थूलेन लोलजिह्वायुगलेन भयङ्कर फूत्कारेण क्रूरतराकारेण प्रसरस्कोपेन पृथुकटाटोपेन दीप्रमणिना महाकणिना ते क्रीडातरुं आवेष्टितवान्, तद्दर्शनाच पलायितेषु सर्वेषु बालेषु मनागप्यभीतमनाः श्रीवर्द्धमानकुमारः स्वयं तत्र गत्वा तं फणिनं करेण गृहीत्वा दूरं निक्षिप्तवान्, ततः पुनः संगतैः कुमारैः कन्दुकक्रीडारसे प्रस्तुते सति स देवोऽपि कुमाररूपं विकुर्व्य तां क्रीडां कर्त्तुं प्रववृते तत्र चायं पण:- पराजितेन जितः स्वस्कन्धे आरोपणीय इति, क्षणाच पराजितं मया जितं वर्धमानेनेति वदन् श्रीवीरं स्कन्धे समारोप्य भगवद्भापनाय सप्ततालप्रमाणशरीरः संजातो, भगवानपि तत्स्वरूपं विज्ञाय वज्रकठिनया मुष्ट्या तत्पृष्ठं जघान, सोऽपि तत्प्रहारवेदनापीडितो मशक इव संकोचं प्राप, ततश्च शक्रवचनं सत्यं मन्यमानः प्रकटितखरूपः सर्व पूर्वव्यतिकरं निवेद्य भूयो भूयो निजं अपराधं क्षमयित्वा स्वस्थानं जगाम स देवः, तदा च सन्तुष्टचित्तेन शक्रेण 'श्रीवीर ' इति भगवतो नाम कृतं यदुक्तं - बालत्तणेऽवि सूरो पयईए गुरुपरक्कमो भयवं । वीरुसि कथं नामं सकेणं तुचित्तेणं ॥ १ ॥ इत्यामलकीक्रीडा ॥ अथ तं मातापितरौ विज्ञी ज्ञात्वाऽष्टवर्षमतिमोहात् । वरममितालङ्कारैरुपनयतो लेखशा१ बालत्वेऽपि शूरः प्रकृत्या गुरुपराक्रमो भगवान् । वीर इति कृतं नाम शक्रेण तुष्टचित्तेन ॥१॥ Jan Education i For Pile & Fersonal Use On ~ 192~ आमलकी क्रीडा २० २५ ॥ ८७ ॥ २७ 17 yog Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०९] गाथा ||१..|| लायाम् ॥ १॥ लग्नदिवसव्यवस्थितिपुरस्सरं परमहर्षसंपन्नौ । प्रौढोत्सवान्महार्हान चितेनतुर्घनधनव्ययतः लेखशाला॥ २॥ तथाहि-पाजतुरगसमूहै। स्फारकेयूरहारः, कनकघटितमुद्राकुण्डलैः करणाद्यैः । रुचिरतरदुकूलैः पञ्च || मोचनं वर्णैस्तदानीं, खजनमुखनरेन्द्राः सक्रियन्ते म भक्त्या ॥ ३ ॥ तथा-पण्डितयोग्यं नानावस्त्रालङ्कारनालिकेरा|दि । अथ लेखशालिकानां दानार्थमनेकवस्तूनि ॥४॥ तथाहि-पूगीफलशृङ्गाटकवर्जूरसितोपलास्तथा खण्डा। चारुकुलीचारुबीजाद्राक्षादिसुखाशिकावृन्दम् ॥ ५॥ सौवर्णरानराजतमिश्राणि च पुस्तकोपकरणानि । कमनी-18 यमषीभाजनलेखनिकापट्टिकादीनि ॥६॥ वाग्देवीप्रतिमार्चाकृतये सौवर्णभूषणं भव्यम् । नव्यवहुरत्नखचितं. छात्राणां विविधवस्त्राणि ||॥ इत्यादिसमग्रपठनसामग्रीसहितः कुलवृद्धाभिस्तीर्थादकैः स्लपितः परिहितप्रचुरालङ्कारभासुरः शिरोधृतमेघाडम्बरच्छवश्चतुश्चामरवीजिताश्चतुरदसैन्यपरिवृतो वाचमानानेकवादित्रः पण्डितगेहं उपाजगाम, पण्डितोऽपि भूपालपुत्रपाठनोचितां पर्वपरिधेयक्षीरोदकधौतिकहेमयज्ञोपवीतकेसरतिलकादिसामग्रीं यावत् करोति तावत् पिप्पलपर्णवत् गजकर्णवत् कपटिध्यानवत् नृपतिमानवत् चलाचलसिं-18 हासनः शक्रोऽवधिना ज्ञाततत्खरूपो देवान् इत्थं अवादीत्-अहो! महच्चित्रं ! यद्भगवतोऽपि लेखशालायां | मोचनं, यता-साऽऽने वन्दनमालिका स मधुरीकारः सुधायाः स च, ब्रायाः पाठविधिःस शुभ्रिमगुणारोपः सुधादीधिती । कल्याणे कनकच्छटाप्रकटनं पावित्र्यसंपत्तये, शास्त्राध्यापनमहतोऽपि यदिदं सल्लेखशालाकृते ॥१॥ मातुः पुरो मातुलवर्णनं तत्, लङ्कानगयाँ लहरीयकं तत् । तत्माभृतं लावणमम्बुराशेः, प्रभोः १४ दीप अनुक्रम [११३] JABEnication ~1930 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०९] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-पुरो यदचसा विलासः ॥२॥ यतः-अनध्ययनविदांसो, निद्रव्यपरमेश्वराः । अनलङ्कारसुभगाः, पान्तुलेखशालाव्या०५युष्मान् जिनेश्वराः॥१॥ इत्यादि बदन कृतब्राह्मणरूपस्त्वरितं यत्र भगवान तिष्ठति तत्र पण्डितगेहे समा- मोचन जगाम, आगत्य च पण्डितयोग्ये आसने भगवन्तं उपवेश्य पण्डितमनोगतान संदेहान् पप्रच्छ, श्रीवीरोऽपि ॥८८॥ पालोऽयं किं वक्ष्यतीत्युत्कर्णेषु सकललोकेषु सर्वाणि उत्तराणि ददी, ततो जैनेन्द्रं व्याकरणं जज्ञे, यतः-सको अ तस्समक्खं भगवन्त आसणे निवेसित्ता । सहस्स लक्षणं पुच्छि वागरणं अवयवा इंदं ॥१॥सर्वे जना विस्मयं प्रापुर-अहो बालेनापि वर्द्धमानकुमारेण एतावती विद्या कुत्राधीता ?, पण्डितोऽपि चिन्तयामास-आवालकालादपि मामकीनान , यात संशयान कोऽपि निरासयन्न । विभेद तांस्तानिखिलान स एष, बालोऽपि भोः ! पश्यत चित्रमेतत् ॥१॥ किश्च-अहो ईदृशस्य विद्याविशारदस्यापि ईदृशं गाम्भीर्य, अथवा युक्तमेवेदं | ईदृशस्य महात्मनः, यतः-गर्जति शरदिन वर्षति वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः । नीचो वदति न कुरुते |न वदति साधुः करोत्येव ॥१॥ तथा-असारस्य पदार्थस्य, प्रायेणाडम्बरो महान् । न हि स्वर्णे ध्वनिस्तादृग, यादृक कांस्य प्रजायते ॥२॥ इत्यादि चिन्तयन्तं पण्डितं शक्रः प्रोवाच--मनुष्यमात्रं शिशुरेष विप्र!, नाश-| कनीयो भवता खचित्ते । विश्वत्रयीनायक एष धीरो, जिनेश्वरो वाड्मयपारदृश्वा ।। ३ ॥ इत्यादि श्रीवर्धमा-INI८८॥ नस्तुर्ति निर्माय शकः स्वस्थानं जगाम, भगवानपि सकलज्ञातक्षत्रियपरिकलितः खगृहमागात्, इति श्रीले-II १ शक्रश्च तत्समक्षं भगवन्तं भासने निवेश्य । शब्दस्य लक्षणमपृच्छत व्याकरणं अवयवा ऐन्द्रं ॥ १॥ दीप अनुक्रम [११३] २७ ~194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१०९] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०९] गाथा ||१..|| खशालाकरणं । एवं बाल्यावस्थानिवृत्तौ संप्राप्तयौवनो भोगसमर्थों भगवान् मातापितृभ्यां शुभ मुहूत्तै सम-18 श्रीवीरस्य रवीरनृपपुत्रीं यशोदां परिणायिता, तया च सह सुखमनुभवतो भगवतः पुत्री जाता, साऽपि प्रवरनरपति-पित्रादीनां सुतस्य जमाले परिणायिता, तस्या अपि च शेषवती नाम्नी पुत्री, सा च भगवतो 'नई' दौहित्रीत्यर्थः नामानि (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पिया कासवगोत्तेणं) पिता, कीदृशःकाश्यप गोत्रेण कृत्वा (तस्स णं तओ नामधिज्जा) तस्य त्रीणि नामधेयानि (एवमाहि जंति ) एवं आख्यायन्ते (तंजहा-सिद्धत्धे इ वा सिजसे हवा जसंसे इ वा) तद्यथा-सिद्धार्थ इति वा श्रेयांस इति वा यशखी। इति वा (समणस्स णं भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (माया वा सिट्टस्सगुत्तेणं) माता वाशिष्ठगोत्रेण (तीसे तओ नामधिजा)तस्याः त्रीणि नामधेयानि (एवमाहिजंति) एवं आख्यायन्ते (तंजहा-तिसला इ वा विदेहदिन्ना इ वा पीइकारिणी इ वा) तद्यथा-त्रिशला इति वा विदेहदिन्ना इति वा पीतिकारिणीति वा (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पित्तिजे सुपासे) १० पितृव्यः 'काको' इति सुपार्थः (जिट्टे भाया नंदिवद्धणे) ज्येष्ठो भ्राता नन्दिवर्धन: (भगिणी सुदंसणा) भगिनी सुदर्शना (भारिया जसोया कोडिण्णागुत्तेणं) भार्या यशोदा, साकीदृशी-कौण्डिन्या गोत्रेण (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (धूआ कासवगोत्तेणं) पुत्री काश्यपगोत्रेण (तीसे दो नामधिज्जा, एवमाहिति) तस्या द्वे नामधेये, एवं आख्यायेते (तंजहा-अणोजा इ वा पियदसणा इ वा) दीप अनुक्रम [११३] १४ ~195~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१०९ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११३] कल्प. सुबो व्या० ५ ॥ ८९ ॥ Jan Education Ire दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [५] मूलं [१०९] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: तद्यथा-अणोजा इति वा प्रियदर्शना इति वा ( समणस्स भगवओ महावीरस्स) भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ( नत्तुई कासवगुत्तेणं ) पुत्र्याः पुत्री दौहित्री काश्यपगोत्रेण (तीसे णं दो नामधिजा एवमा हिज्जंति ) तस्याः द्वे नामधेये एवं आख्यायेते (तंजहा-सेसवई वा जसवई वा) तद्यथा शेषवती इति वा यशस्वती इति वा । ( १०९ ) (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः ( दक्खे) दक्षः सकलकुलाकुशलः ( दक्खपइने ) दक्षा-निपुणा प्रतिज्ञा यस्य स तथा समीचीनां एवं प्रतिज्ञां करोति तां च सम्यग निर्वहतीति भाव: ( पडिरुवे ) प्रतिरूप :- सुन्दररूपवान् ( आलीणे) आलीनः सर्वगुणैरालिङ्गितः (भहए ) भद्रकः सरलः ( विणीए) विनीतो विनयवान् (नाए ) ज्ञातः - प्रख्यातः ( नायपुत्ते ) ज्ञातः - सिद्धार्थस्तस्य पुत्रः, न केवलं पुत्रमात्रः किन्तु (नाथकुलचंदे ) ज्ञातकुले चन्द्र इव (विदेहे ) बज्रऋषभनाराचसंहननसमचतुरस्र संस्थानमनोहर त्वात् विशिष्टो देहो यस्य स विदेहः (विदेह दिने ) विदेहदिन्ना - त्रिशला तस्या अपत्यं वैदेहदिन्नः (विदेहजचे ) विदेहा-त्रिशला तस्यां जाता अर्चा- शरीरं यस्य स तथा (विदेहसूमाले ) विदेहशब्देन अत्र गृहवास उच्यते तत्र सुकुमालः, दीक्षायां तु परिषहादिसहने अतिकठोरत्वात् (तीसं वासाई विदेहंसि कट्टु ) त्रिंशदुवर्षाणि गृहवासे कृत्वा, त्रिंशद्वर्षाणि गृहस्थभावे स्थित्वेत्यर्थः ( अम्मा पिउहिं देवत्तगएहिं ) मातापित्रोदेवत्वं गतयोः ( गुरुमहत्तरएहिं अष्भणुष्णाए ) गुरुमहत्तरैः - नन्दिवर्धनादिभिरभ्यनुज्ञातः ( समन्तपइने : ••• भगवंत महावीरस्य दीक्षा कल्याणकस्य वर्णनं For Pride & Personal Use O ~ 196 ~ वर्षद्वयाव स्थानं लोकान्तिका गमश्व स. ११० २० २५ በ ረዳ ዘ २८ janelbary.org Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११०] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११०] गाथा समाप्तमतिज्ञश्च, मातापित्रोर्जीवतोः नाहं प्रबजिष्यामीति गर्भगृहीतायाः प्रतिज्ञायाः पूरणात्, स व्यतिकर-1 वर्षद्वयावस्त्वेवं-अष्टाविंशतिवर्षातिक्रमे भगवतो मातापितरौ आवश्यकाभिप्रायेण तुर्य स्वर्ग आचाराङ्गाभिप्रायेण तु । स्थानं लोअनशनेन अच्युतं गतो, ततो भगवता ज्येष्ठनाता पृष्टः-राजन् ! ममाभिग्रहः सम्पूर्णोऽस्ति ततोऽहं प्रव्रजि-18 कान्तिकाप्यामि, ततो नन्दिवर्धनः प्रोवाच-भ्रातः! मम मातापितविरहदाखितस्य अनया वातया किं क्षते क्षारं गमश्च सू. क्षिपसि, ततो भगवता. मोक्तं-पिअमाइभाइभइणीभज्जापुत्तत्तणेण सब्वेवि । जीवा जाया बहुसो जीवस्स उ एगमेगस्स ॥१॥ ततः कुत्र कुन प्रतिबन्धः क्रियते ? इति निशम्य नन्दिवर्धनोऽवोचत्-भ्रातरहं अपि इदं | जानामि, किंतु प्राणतोऽपि प्रियस्य तव विरहो मां अतितमां पीडयति, ततो मदुपरोधाद्वर्षद्वयं गृहे तिष्ट, भगवानपि एवं भवतु, किंतु राजन् ! मदर्थ न कोऽपि आरम्भः कार्यः, प्रासुकांशनपानेनाहं स्थास्यामि इत्यलावोचत्, राज्ञापि तथा प्रतिपन्ने समधिकं वर्षद्वयं वस्त्रालङ्कारविभूषितोऽपि प्रासुकैषणीयाहारः सचितं जलंग। अपिवम् भगवान् गृहे स्थितः, ततः प्रभृति भगवता अचित्तजलेनापि सर्वस्त्रानं न कृतं ब्रह्मचर्य च यावज्जीव १० पालित, दीक्षोत्सवे तु सचित्तोदकेनापि स्वानं कृतं, तथाकल्पत्वात्, एवं भगवन्तं वैरङ्गिक विलोक्य चतुई-18 शखमसूचितत्वाचक्रवर्तिधिया सेवमानाः श्रेणिकचण्डप्रद्योतादयो राजकुमाराः खं स्वं स्थानं जग्मुः। (पुणरवि लोअंतिएहिं ) पुनरपि इति विशेषद्योतने, एक तावत् समाप्तप्रतिज्ञः स्वयमेव भगवान वर्तते, १ पितृमातृभ्रातृभगिनीभार्यापुत्रत्वेन सर्वेऽपि । जीवा जाता बहुशः जीवस्य एफैकस्य ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [११३] ~197~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११०] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११३] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [५] मूलं [११०] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: व्या० ५ ॥ ९० ॥ कल्प. सुवो- पुनरपि लोकान्तिकैर्देवैबंधित इति विशेषो द्योत्यते, लोकान्ते संसारान्ते भवाः लोकान्तिका, एकावतारत्वात्, अन्यथा ब्रह्मलोकवासिनां तेषां लोकान्तभवत्वं विरुद्ध्यते, ते च नवविधाः, यदुक्तं सारस्य १माइचा २ वण्ही ३ वरुणा य ४ गद्दतोया य ५ । तुडिआ ६ अवावाहा ७ अग्गिचा ८ चेत्र रिट्ठा य ९ ॥ १ ॥ एए देवनिकाया भयवं बोहिन्ति जिणवरिंदं तु । सवजगज्जीवहियं भयवं । तित्थं पवतेहि ॥ २ ॥ यद्यपि स्वयम्बुद्धो भगवांस्तदुपदेशं नापेक्षते तथापि तेषां अयं आचारो वर्त्तते, तदेवाह - ( जीयकप्पिएहिं देवेहिं ) जीतेन- अवश्यंभावेन कल्पः- आचारो जीतकल्पः सोऽस्ति येषां ते जीतकल्पिकाः एवंविधा ते देवाः विभ क्तिपरावर्त्तनात् ( ताहिं इट्ठाहिं ) ताभिः इष्टाभिः ( जाव वग्गूहिं) यावत्शब्दात् ' कंताहिं मणुन्नाहिं' इत्यादि पूर्वोक्तः पाठो वाच्यः, एवंविधाभिर्वाग्भिः (अणवरयं) निरन्तरं भगवन्तं ( अभिनंदमाणा य ) अभिनन्दयन्तः - समृद्धिमन्तं आचक्षाणाः ( अभिधुवमाणा य ) अभिष्टुवन्तः - स्तुतिं कुर्वन्तः सन्तः ( एवं वयासी) एवं अवादिपुः ॥ (११० ) ॥ १ सप्ताष्ट्रभवा इति प्रवचनसारोद्धारे, लोकस्य -ब्रह्मलोकस्य अन्ते- समीपे भवा लोकान्तिका इतिव्युत्पत्तेरीपपातिकादौ दर्शनाश्च नाथमेकान्तः, लोकप्रकाशे स्वयमपि तथोक्तं २ सारस्वता आदित्या वह्नयो वरुणाच गर्ददोयाश्च । त्रुटिता अव्यावाधा आग्नेयाश्चैव रिष्ठाश्च ॥ १ ॥ एते देवनिकाया भगवन्तं बोधयन्ति जिनवरेन्द्रं तु । सर्व जगज्जीवहितं भगवन् ! तीर्थं प्रवर्तय ॥ २ ॥ Jan Educaton Intemations For File & Fersonal Use Only ~ 198~ वर्षद्वयावस्थानं लोकान्तिका गमश्च सु. ११० १५ २० २३ ॥ ९० ॥ www.janbary.org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [१११] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक लोकान्ति [१११] गाथा ||१..|| (जय जय नंदा) जयं लभख २, सम्भ्रमे द्विचनं, नन्दति-समृद्धो भवतीति नन्दस्तस्य सम्बोधन हे नन्द , दीर्घस्वं प्राकृतत्वात् , एवं (जय जय भद्दा) जय जय भद्र!-कल्याणवन् ! (भई ते) ते-तव भद्रं भवतु (जय कोक्ति जय खत्तियवरवसहा) जय जय क्षत्रियवरवृषभ! (बुज्झाहि भगवं लोगनाह) बुद्ध्यख भगवन् ! लोकनाथ ! १११ (सयलजगज्जीवाहिय) सकलजगज्जीवहितं (पवत्तेहि धम्मतित्थं) प्रवर्तय धर्मतीर्थ, यत इदं (हियसुहनिस्से यसकरं ) हितं-हितकारकं सुख-शर्म निःश्रेयसं-मोक्षस्तत्करं (सवलोए सब्यजीवाणं) सर्वलोके सर्वजीवानां ISI(भविस्सहत्तिकट्ठ जयजयसई पउंति) भविष्यतीतिकृत्वा-इत्युक्त्वा जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति ॥ (१११)। - (पुस्विपि णं) इदं पदं 'गिहस्थधम्माओ' इत्यस्मादंग्रे योज्यं, (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य । भगवतो महावीरस्य (माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ) मनुष्ययोग्यात् एवंविधात् गृहस्थधर्मात्-गृहव्यवहारात विवाहादेः पूर्वमपि (अणुत्तरे आभोइए) अनुपम आभोगः-प्रयोजनं यस्य तत् आभोगिकं (अप्पडिवाहें नाण-IIRI हादसणे हुस्था) अप्रतिपाति-आकेवलोत्पत्तेः स्थिरं एवंविधं ज्ञानदर्शनं-अवधिज्ञान अवधिदर्शनं च अभूत् (तएणं समणे भगवं महावीरे) ततः श्रमणो भगवान महावीरः (तेणं अणुत्तरेणं आभोइएणं)तेन अनुत्तरेण आभोगिकेन (नाणदंसणेणं) ज्ञानदर्शनेन (अप्पणो निक्खमणकालं) आत्मनो दीक्षाकालं (आभोएइ) आभो गयति-विलोकयति (आभोइसा) आभोग्य च (चिचा हिरपणं) त्यक्त्वा हिरण्यं-रूप्यं (चिचा सुवणं) कल्प.सु. १६ त्यत्तवा सुवर्ण (चिचा धणं) त्यक्त्वा धनें (चिचा रज्ज) त्यत्तवा राज्यं (चिचा रडं) त्यक्त्वा राष्ट्र-देशं ( एवं दीप अनुक्रम [११४] १४ ...दीक्षा-कल्याणक अवसरे सांवत्सरिक-दान एवं अभिषेकस्य वर्णन ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११२] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११५] कल्प. सुबो व्या० ५ बलं वाहणं कोर्स कोट्ठागारं ) एवं सैन्यं वाहनं कोशं कोष्ठागारं (चिचा पुरं ) त्यक्त्वा नगरं ( चिचा अंतेरं) त्यक्त्वा अन्तःपुरं (चिचा जणवयं ) त्यक्त्वा जानपदं - देशवासिलोकं (चिया विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंग्खसिलप्पवालरत्तरयणमाइअं ) त्यक्त्वा विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्ख शिलाप्रवाल रक्तरत्नप्रमुख (संत॥ ९१ ॥ सारसावइजं ) सत्सारखापतेयं, एतत् सर्वं त्यक्त्वा, पुनः किं कृत्वा ? ( विच्छता) विच्छ - विशेषेण त्यक्त्वा, पुनः किं कृत्वा ? ( विगोवइत्ता) विगोप्य तदेव गुप्तं सद्दानातिशयात् प्रकटीकृत्येति भावः, अथवा विगोप्य कुत्सनीय॑मे॒तद॑स्थिरत्वादित्युक्त्वा, पुनः किं कृत्वा ? (दाणं दायारेहिं परिभाइत्ता) दीयते इति दानं - घनं तत् दायाय-दानार्थं आच्छन्ति-आगच्छन्तीति दायारा - याचकास्तेभ्यः परिभाज्य विभागदेवा, यद्वा परिभाव्य-आलोच्य इदं अमुकस्य देयं इदं अमुकस्यैवं विचार्येत्यर्थः पुनः किं कृत्वा ? (दाणं दाइयाणं परिभा इत्ता ) दानं धनं दायिका - गोत्रिकास्तेभ्यः परिभाज्य विभागशो दत्त्वेत्यर्थः ॥ ( ११२ ) ॥ अनेन सूत्रेण च वार्षिकदानं सूचितं तचैवं भगवान् दीक्षादिवसात् प्राग्वर्षेऽवशिष्यमाणे प्रातःकाले वार्षिकं दानं दातुं प्रवर्त्तते, सूर्योदयादारभ्य कल्पवर्त्तवेलापर्यन्तं अgarai एकi कोटिं सौवर्णिकानां प्रतिदिनं ददाति, वृणुत वरं वृणुत वरं इत्युद्घोषणापूर्वकं यो यन्मार्गयति तस्मै तदीयते तच सर्वं देवाः शक्रादेशेन पूरयन्ति, एवं च वर्षेण यद्धनं दत्तं तदुच्यते--तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीई य हुंति कोडीओ । असीई च सयसहस् १ त्रीण्येव च कोटिशतानि अष्टाशीतिच भवन्ति कोटयः । अशीतिश्च शतसहस्राणि एतत् संवत्सरे दत्तं ॥ १ ॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [५] मूलं [११२] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: Jan Education in and For Pile & Fersonal Use Only ~200~ संवत्सरदा नं सु. ११२ १५ २० २५ ॥ ९१ ॥ २७ anelbrary.org Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११३] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११३] गाथा एवं संवकछरे दिन्नं ॥१॥ तथा च कवयः-तत्तद्वार्षिकदानवर्षविरमहारिधदावानला, सवयः सजितवाजिरा- दीक्षाभिषेII जिवसनालङ्कारदुर्लक्ष्यभाः । सम्प्राप्ताः खगृहेऽर्थिनःसशपथं प्रत्याययन्तोऽगनाः, खामिन् ! षिगजनैर्निरुद्धह-19: सू. .११३ सितैः के यूयमित्यूचिरे ॥ १॥ एवं च दानं दत्त्वा पुनर्भगवता नन्दिवर्धनः पृष्टः-राजंस्तव सत्कोऽपि अवधिः। पूर्णस्तदहं दीक्षां गृह्णामि, ततो नन्दिनाऽपि ध्वजहहालङ्कारतोरणादिभिः कुण्डपुरं सुरलोकसमं कृतं, ततो नन्दिराजः शक्रादयश कनकमयान् १ रूप्यमयान् २ मणिमयान् ३ कनकरूप्यमयान् ४ कनकमणिमयानी ५ रूप्यमणिमयान् ६ कनकरूप्यमणिमयान् ७ मृन्मयांश्च ८ प्रत्येकं अष्टोत्तरसहस्रं कलशान यावत् अन्यामपि च सकलां सामग्री कारयन्ति, ततोऽच्युतेन्द्राद्यैश्चतुःषष्टया सुरेन्द्ररैभिषेके कृते सुरकृताः कलशा दिव्यानुभा-3 वेन नृपकारितकलशेपु प्रविष्टास्ततस्तेऽत्यन्तं शोभितवन्तः, ततः श्रीनन्दिराजः स्वामिनं पूर्वाभिमुखं निवेश्य | सुरानीतक्षीरोदनीरैः सर्वतीर्थमृत्तिकादिभिः सर्वकषायैश्चाभिषेकं करोति, इन्द्राश्च सर्वेऽपि भृङ्गारदर्शादिहस्ता जयजयशब्दं प्रयुञानाः पुरतस्तिष्ठन्ति, ततश्च भगवान् स्नातो गन्धकाषाय्या रूक्षिताङ्गः सुरचन्दनानुलिप्सगात्रः कल्लतरुपुष्पमालामनोहरकण्ठपीठः कनकखचितांश्चलखच्छोज्वललक्षमूल्यसदशश्वतवखावृतशरीरो हारविराजद्वक्षःस्थलः केयूरकटकमण्डितभुजः कुण्डलललितगल्लतलः श्रीनन्दिराजकारितां पश्चाशद्धनुरायतां पञ्चविंश|तिधनुर्विस्तीर्णा पत्रिंशद्धनुरुषां बहुस्तम्भशतसंनिविष्टां मणिकनकविचित्रां दिव्यानुभावतः सुरकृतताहकशिपिकामनुप्रविष्टां चन्द्रप्रभाभिधा शिबिकां आरूढो दीक्षाग्रहणार्थ प्रतस्थे, शेष सूत्रकृत् वयं वक्ष्यति ।। दीप अनुक्रम [११६] JABEnicationl ine ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११३] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११३] गाथा ||१..|| कल्प सुबो- (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान दीक्षाभिषेव्या०५ महावीरः (जे से हेमंताणं) योऽसौ शीतकालस्य (पढमे मासे पढमे पक्खे) प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः .११३ ॥९२॥ (मग्गसिरबहुले) मार्गशीर्षमासस्य कृष्णपक्षः (तस्सणं मग्गसिरबहुलस्स) तस्य मार्गशीर्षवहुलस्य (दसमीपक्षणं) दशमीदिवसे (पाईणगामिणीए छायाए)पूर्व दिग्गामिन्यां छायायां (पोरिसीए अभिनिविद्याए) पौरु-II व्या-पाश्चात्यपौरुष्यां अभिनिवृत्तायां-जातायां,कथम्भूताय?- (पमाणपत्ताए)प्रमाणप्राप्तायां नतु न्यूनाधिकायां (सुपएणं दिवसेणं) सुव्रतारूपे दिवसे (विजएणं मुहुत्तेणं) विजयाख्ये मुहूर्त (चंदप्पभाए सिपिआए) चन्द्रप्र भायां पूर्वोक्तायां शिविकायां कृतषष्ठतपाः विशुद्ध्यमानलेश्याकः पूर्वाभिमुखः सिंहासने निषीदति, शिविSकारूढस्य च प्रभोदक्षिणतः कुलमहत्तरिका हंसलक्षणं पटशाटकमादाय, वामपार्थे च प्रभोरम्बधात्री दीक्षोप करणमादाय,पृष्ठे चैंका चरतरुणी स्फारशृङ्गारा धवलच्छन्त्रहस्ता. ईशानकोणे चैका पूर्णकलशहस्ता, अग्निकोणे चैका मणिमयतालवृन्तहस्ता भद्रासने निषीदंति, ततः श्रीनन्दिनृपादिष्टाः पुरुषाः यावत् शिविकामुत्पाटयन्ति तावत् शक्रो दाक्षिणात्यां उपरितनी चाहां ईशानेन्द्र औत्तराहां उपरितनी वाहां चमरेन्द्रो दाक्षिणात्यां अधस्तनी बाहां बलीन्द्र औत्तराहां अधस्तनी बाहां शेषाश्च भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेन्द्रांश्चञ्चलकुण्डला-1 याभरणकिरणरमणीयाः पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं कुर्वन्तो दुन्दुभीस्ताडयन्तो यथार्ह शिविका उत्पाटयन्ति, ततः शक्रेशानी तां वाहां त्यक्त्वा भगवतश्चामराणि वीजयतः, तदा च भगवति शिविकारूडे प्रस्थिते सति शरदि। दीप अनुक्रम [११६] cerseseesese २८ janelbannerg ~ 202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११३] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११३] गाथा पद्मसर इव पुष्पितं अतसीवन मिव कर्णिकारवन मिव चम्पकवनमिव तिलकवनमिव रमणीयं गगनतलं सुरवर-दीक्षामिषे भूत, किञ्च-निरन्तरं वाद्यमानभम्भाभेरीमृदङ्गबुन्दुभिशनाद्यनेकवाद्यध्वनिगगनतले भूतले च प्रससार, तन्ना-I का सू.११३ | देम च नगरवासिन्यस्त्यक्तखखकार्या नार्यः समागच्छन्यो विविधचेष्टामिर्जमान विस्मापयन्ति स्म, यतः-13 तिनिवि थीआं वल्लहां कलि कज्जल सिंदूर । ए पुण अतीहि वल्लहां दूध जमाइ तूर ॥१॥ चेष्ठाश्वेमाः-खगल्लयोः काचन कज्जलाडू-कं, कस्तूरिकाभिनयनाञ्जनं च । गले चलन्नूपुरमहिपीठे, अचेयकं चारु चकार वाला ॥१॥ कटीतटे कापि ववन्ध हार, काचित् कणत्किकिणिकां च कण्ठे । गोशीर्षपङ्कन ररज पादावलक्तपकेन वपुलि-16 लेप ॥२॥ अर्धनाता काचन पाला, विगलत्सलिला विश्लथवाला । तत्र प्रथममुपेता त्रासं, व्यधित न केषां ज्ञाता हासम्॥३॥ कापि परिच्युतविलयवसना, मूढा करघृतकेवलरसना । चित्रं तन्त्र गता न ललज्जे, 18सर्वजने जिनवीक्षणसजे ॥ ४॥ संत्यज्य काचित्तरूणी रुदन्तं, खपोतमोतुं च करे विभृत्य । निवेश्य कट्यां । त्वरया ब्रजन्ती, हासावकाशं न चकार केषाम् ? ॥५॥ अहो महो रूपमहो महौजा, सौभाग्यमेतत् कटरे शरीरे। गृहामि दुःखानि करस्य धातुयेच्छिल्पमीहग वदति समकाचित् ।। काचिन्महेला विकसत्कपोला, श्रीवीरव-1 क्विक्षणगाढलोला । वित्रस्य दूरं पतितानि तानि,नाज्ञासिषुःकाशनभूषणानि हस्ताम्बुजाभ्यां शुचिमीक्तिकौघैरवाकिरन् काश्चन चञ्चलाक्ष्यः । काश्चिजगुर्मञ्जुलमङ्गलानि, प्रमोदपूर्णा ननूतुश्च काश्चित् ॥ ८॥ इत्थं नाग १ त्रीण्यपि स्त्रीणां वल्लभानि कलिः कजलं सिन्दूरम् । एतानि पुनः अतीव वहभानि दुग्धं जामाता तूर्यम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [११६] I ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११३] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्पसुबो व्या०५ ॥ 3 ॥ [११३] गाथा ||१..|| रनागरीनिरीक्ष्यमाणविभवप्रकर्षस्य भगवतः पुरतः प्रथमतो रत्नमयान्यष्टौ मङ्गलानि क्रमेण प्रस्थितानि, दीक्षाभिषेतद्यथा-स्वस्तिकः १ श्रीवत्सो २ नन्द्यावतों ३ बर्द्धमानकं ४ भद्रासनं ५ कलशो ६ मत्स्ययुग्म ७ दर्पणश्च ८,कास.११३ ततः क्रमेण पूर्णकलशभृङ्गारचामराणि ततो महती वैजयन्ती ततछत्रं ततो मणिस्वर्णमयं सपादपीठं १५ सिंहासनं ततोऽष्ठशतं आरोहरहितानां बरकारतरगाणां ततस्तावन्तो घण्टापताकांभिरामाः शस्त्रपूणों रथाः ततस्तावन्तो वरपुरुषाः ततः क्रमेण हय १ गज २ रथ ३ पदात्यनीकानि ४ ततो लघुपताकासहस्रपरिमण्डितः सहस्रयोजनोचो महेन्द्रध्वजः ततः खड्गग्राहाः कुन्तग्राहाः पीठफलकग्राहाः ततो हासकारकाः नसेनकारकाः कान्दर्पिका जयजयशन्दं प्रयुञ्जानास्तदनन्तरं बहव उग्रा भोगा राजन्याः क्षत्रियास्त लवरा माडम्बिका: कौटुम्बिकाः श्रेष्टिनः सार्थवाहाः देवा देव्यश्च स्वामिनः पुरतः प्रस्थिताः, तदनन्तरं ( सदेवमणुआसुराए) देवमनुजासुरसहितया खर्गमलैपातालवासिन्या (परिसाए) पर्षदा (समणुगम्ममाणत्ति) सम्यग अनुगम्यमानं (मग्गे)अग्रतः (संखियत्ति) शखिका:-शङ्खवादकाः (चक्कियत्ति) चाक्रिका:-चक्रप्रहरणधारिणः (लंगलियत्ति) लाइलिका-गलावलम्बितसुवर्णादिमयलाङ्गलाकारधारिणोभविशेषाः (मुहमंगलियत्ति) मुखे प्रियवक्तारश्चाटु-1 कारिण इत्यर्थः (बद्धमाणत्ति ) वर्द्धमाना:-स्कन्धारोपितपुरुषाः पुरुषाः (पूसमाणत्ति) पुष्पमाणवा-मागधाः। (घंटियगणे) घण्टया चरन्तीति घाण्टिका राउलिआ' इति लोके प्रसिद्धाः एतेषां गणैः परिवृतं च भगवन्तं ॥९३ प्रक्रमात् कुलमहत्सरादयः खजनाः (ताहिं इटाहिं जाव वग्गूहिं ) तामिरिष्टादिविशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिः दीप अनुक्रम [११६] Jan Enicatoolsmation S anelbanaras ~ 204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११४] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: साक्तिः सू. प्रत सूत्रांक [११४] गाथा ||१..|| (अभिनंदमाणा य अभिथुवमाणा य) अभिनन्दन्तः अभिलुवन्तश्च (एवं बयासी) एवं अवादिषुः॥ (११३) महत्त रो| (जय जयनंदा) जय-जयवान् भव हे समृद्धिमन् ! (जय जय भद्दा ! भई ते ) जय-जयवान् भव है || भहा!-भद्रकारक! ते-तुभ्यं भद्रं अस्तु, किञ्च-(अभग्गेहिं नाणदसणचरित्तेहिं) अभग्नैः-निरतिचारैज्ञान-11 दर्शनचारित्रैः (अजियाई जिणाहि इंदियाई) अजितानि इन्द्रियाणि जय-वशीकुरु (जियं च पालेहि समणधर्म) जितं च-ववशीकृतं पालय भ्रमणधर्म (जियविग्धोऽवि अ वसाहि तं देव ! सिद्धिमज्झे) जितविनोऽपि च हे देव ! प्रभो!-त्वं वस, कुत्र:-सिद्धिमध्ये, अत्र सिद्धिशब्देन श्रमणधर्मस्य वशीकारस्तस्य मध्यं-लक्षणया|8| |प्रकर्षस्तत्र त्वं निरन्तरायं तिष्ठेत्यर्थः (निहणाहि रागदोसमल्ले) रागद्वेषमल्ली निजहि-निगृहाण, तयोनिग्रह। कुरु इत्यथे।, केन?-तिवेणं) तपसा बाह्याभ्यन्तरेण, तथा (धिइधणियबद्धकच्छे) धृती-संतोषे धैर्य वा Sअत्यन्तं बद्धकक्षा सन् ( महाहि अट्टकम्मसत्त) अष्टकर्मशत्रन मर्दय, परं केनेत्याह-(झाणेणं उत्तमेणं सुकेणं) ध्यानेन उत्तमेन शुक्लेनेत्यर्थः, तथा (अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागं च वीर ! तेलुकरंगमझे) हे वीर १० अप्रमत्तः सन् त्रैलोक्यं एव यो रङ्गो-मल्लयुद्धमण्डपस्तस्य मध्ये आराधनपताका आहर-गृहाण, यथा कश्चि-18 न्मल्ल प्रतिमहं विजित्य जयपताकां गृह्णाति तथा त्वं कर्मशत्रून विजित्य आराधनपताकां गृहाण इति भावः (पावय वितिमिरमणुसरं केवलवरनाणं) प्राप्नुहि च वितिमिरं-तिमिररहितं अनुत्तरं-अनुपमं केवलचरज्ञानं 8(गच्छय मुक्खं परं पर्य) गच्छ च मोक्षं परमं पदं, केन? (जिणवरोचढण मग्गेण अकुडिलेण) जिनवरो दीप अनुक्रम [११६] ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११६] कल्प. सुबो व्या० ५ ॥ ९४ ॥ Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [५] मूलं [११४] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: पदिष्टेन अकुटिलेन मार्गेण, अथ किं कृत्वेत्याह-- ( हंता परीसहचमुं ) हत्या, कां ? - परीषहसेनां ( जय जय खत्तियवरवसहा ) जय जय क्षत्रियवरवृषभ (बहूई दिवसाई) बहून् दिवसान् (बहूई पक्खाई) बहून् पक्षान् ( बहूई मासाई) बहून् मासान् (बहूई उऊई ) बहून ऋतून मासद्वयममितान् हेमन्तादीन् (बहूई अयणाई ) बहूनि अयनानि पाण्मासिकानि दक्षिणोत्तरायणलक्षणानि ( बहूई संवच्छराई ) बहून् संवत्सरान् यावत् (अभीए परीसहोवसग्गाणं ) परीषहोपसर्गेभ्योऽभीतः सन् ( खंतिखमे भयभेरवाणं ) भयभैरवाणां विद्य सिंहादिकानां क्षान्त्या क्षमो न त्वंसामर्थ्यादिना, एवंविधः सन् त्वं जय, अपरं च - ( घम्मे ते अविग्धं भवउतिकडु ) ते तव धर्मे अविनं- विनाभावोऽस्तु इतिकृत्वा - इत्युक्तत्वा ( जयजयस पउंजंति ) जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति । ( ११४ ) ॥ (तए णं समणे भगवं महावीरे ) ततः श्रमणो भगवान् महावीरः क्षत्रियकुण्डग्रामनगरमध्येन भूत्वा यत्र ज्ञातखण्डवनं पुत्राशोकपादपस्तंत्र उपागच्छतीति योजना, अथ किंविशिष्टः सन् १ ( नयणमालासहस्सेहिं ) नयनमालासहस्रैः (पिच्छिलमाणे २ ) प्रेक्ष्यमाणः २ - पुनः पुनः विलोक्यमानसौन्दर्यः, पुनः किंवि० १ ( वयणमालासहस्सेहिं ) बदनमालासहस्रैः - श्रेणिस्थितलोकानां मुखपतिसहस्त्र: ( अभिधुवमाणे अभियुवमाणे ) पुनः पुनः अभिष्ट्यमानः पुनः किंवि० १ ( हिअयमालासहस्सेहिं ) हृदयमालासहस्रैः (उन्नंदिजमाणे उदि जमाणे ) उन्नन्द्यमानो-जयतु जीवतु इत्यादिध्यानेन समृद्धिं प्राप्यमाणः पुनः किंवि० ? ( मणोरहमालास For Private & Personal Use On ~206~ सहचरोक्ति: सू. ११४ १५ २० २५ ॥ ९४ ॥ २८ Qpntary.so Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत el दीक्षायै गमन स,११५ सूत्रांक [११५] गाथा ||१..|| हस्सेहिं ) मनोरथमालासहस्रः (विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे) विशेषेण स्पृश्यमान:-वयं एतस्य सेवका अपि भवामस्तदापि वरं इति चिन्त्यमानः पुनः किंवि०१ (कंतिरूवगुणेहिं) कान्तिरूपगुणैः (पत्थिनमाणे पत्थिजमाणे) प्रार्यमानः-स्वामित्वेन भर्तृत्वेन वाञ्छधमान इत्यर्थः, पुनः किंवि०? (अंगुलिमालासहस्सेहिं ) | अङ्गुलिमालासहस्रः (दाइजमाणे २) दश्यमानः २, पुनः किंवि०-(दाहिणहत्थेणं बहूर्ण नरनारीसहस्साणं) दक्षिणहस्तेन बहूनां नरनारीसहस्राणां (अंजलिमालासहस्साई) अञ्जलिमालासहस्राणि-नमस्कारान् (पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे) प्रतीच्छन् प्रतीच्छन्-गृहन्२, पुनः किंवि०?(भवणपंतिसहस्साई)भवनपक्तिसहस्राणि (समइकमाणे समइछमाणे) समतिक्रामन्२, पुनः किंवि० ? (तंतीतलतालतुडियगीयवाइयरवेणं) तश्री-वीणा तलताला:- हस्ततालाः त्रुटितानि-बादिवाणि गीत-गानं वादितं-वादनं तेषां रवेण-शब्देन, पुनः कीदशेन? (महुरेण य मणहरेणं ) मधुरेण च मनोहरेण, पुनः कीदृशेन ? (जयजयसहघोसमीसिएणं) जयजयशब्दस्य यो घोष-उघोषणं तेन मिश्रितेन, पुनः कीदृशेन? (मंजुमंजुणा घोसेण) मञ्जमाना घोषेण च-अतिकोमलेन जनस्वरेण (पडिवुझमाणे पडिवज्झमाणे) सावधानीभवन (सचिड्डीए) सर्वा -समस्तच्छन्नादिराजचिन्हस-18 पिया (सब्बजुईए) सर्वद्युत्या-आभरणादिसम्बन्धिन्या कान्त्या(सधबलेणं)सर्ववलेन-हस्तितुरगादिरूपकटकेन(सब-18 वाहणेणं) सर्ववाहनेन-करभवेसरशिविकादिरूपेण (सबसमुदएणं) सर्वसमुदयेन-महाजनमेलापकेन (सहायरेणं ) सर्वादरेण-सौचित्यकरणेन (सबविभूईए) सर्वविभूत्या सर्वसंपदा (सबविभूसाए ) सर्वविभूषया दीप अनुक्रम [११७] १० ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११५] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: Sesee प्रत सूत्रांक [११५] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो- व्या० ५ ॥१५॥ समस्तशोभया (सव्वसंभमेणं) सर्वसम्ममेण-प्रमोदजनितौत्सुक्येन (सवसंगमेणं) सर्वसङ्गमेन-सर्वखजनमेलाप- दीक्षायै केन (सवपगइएहिं) सर्वप्रकृतिभि:-अष्टादशभिर्नेगमादिभिः नगरवास्तव्यप्रजाभिः (सबनाडएहि) सर्वनाटकैः गमनं (सबतालायरेहिं ) सर्वतालाचरैः (सबावरोहेणं) सर्वावरोधेन-सर्वान्तःपुरेण (सवपुष्पगंधमल्लालंकारविभू- स. ११५ साए) सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूषया प्रतीतया (सवतुडियसद्दसपिणनाएण) सर्वत्रुटितशब्दानां यः शब्दः। १५ संनिनादश-प्रतिरवस्तेन, सर्वत्वं च स्तोकानां समुदाये स्तोकैरपि स्यात्तत आह-(महया इड्डीए) महत्या 31 ऋद्धया (महया जुईए) महत्या झुल्या (महया वलेणं) महता बलेन (महया समुदएणं) महता समुदयेन (महया वरतुडियजमगसमगप्पबाइएणं) महता-उच्चस्तरेण वरत्रुटितानि-प्रधानवादिवाणि तेषां जमगसमग-समकालं प्रवादनं यत्र एवंविधेन (संखपणवपडहभेरीझल्लरीखरमुहिहुडुकदुंदुहि निग्घोसनाइयरवेणं) शङ्क:-प्रतीतः पणव:-मृत्पटहः पटह:-काष्ठपटहः भेरी-ढक्का झल्लरी:-प्रतीता खरमुखी-काहला हुडुक:-त्रिवलितुल्यवाद्यविशेषः दुन्दुभिः-देववायं तेषां निर्घोषः तथा नादित:-प्रतिशब्दः तद्रूपेण रवेण-शब्देन युक्तं, एवंरूपया ऋद्ध्या व्रताय व्रजन्तं भगवन्तं पृष्ठतश्चतुरङ्गसैन्यपरिकलितो ललितच्छत्रचामरविराजितो नन्दिवर्धननृपोऽनुगच्छति । पूर्वोक्ता-18| २५ डम्बरेण युक्तो भगवान (कुंडपुरं नगरं मझमज्झेणं) क्षत्रियकुण्डनगरस्य मध्यभागेन (निग्गच्छइ) निर्गच्छति ॥१५॥ (निग्गच्छिता) निर्गत्य (जेणेव नायसंडवणे उजाणे) यत्रैव ज्ञातखण्डवनं इति नामकं उद्यानं अस्ति (जेणेव असोगवरपायवे) यत्रैव अशोकनामा वरपादप:-श्रेष्ठवृक्षः (तेणेव उवागच्छद) तत्रैव उपागच्छति ॥ (११५) ॥ दीप अनुक्रम [११७] २८ ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११६] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११८] Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [५] मूलं [११६] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: | ( उवागच्छित्ता) उपागत्य ( असोगवरपायवस्स ) अशोकवरपादपस्य ( अहे सीयं ठावेह ) अधस्तात् शिविकां स्थापयति (ठावित्ता) स्थापयित्वा च (सीयाओ पञ्चोरुहइ ) शिविकातः प्रत्यवतरति ( पचोरुहित्ता ) प्रत्यवतीर्य (सयमेव आभरणमल्लालङ्कारं ओमुयइ ) स्वयमेव आभरणमाल्यालङ्कारान् उत्तारयति (ओमुइत्ता) उत्तार्य, तचैवं - अङ्गुलीभ्यश्च मुद्रावलिं पाणितो, वीरवलयं भुजाभ्यां झटित्यङ्गदे । हारमंथ कण्ठतः कर्णतः कुण्डले मस्तकान्मुकटमुन्मुञ्चति श्रीजिनः ॥ १ ॥ तानि चाभरणानि कुलमहत्तरिका हंसलक्षणपट्टशाटकेन गृह्णाति, गृहीत्वा च भगवन्तं एवं अवादीत्-' इक्खागकुलसमुत्पन्नेऽसि णं तुमं जाया !, कासवगुत्तेऽसि णं तुमं जाया !, उदितोदितनायकुल नहयलमिअङ्क ! सिद्धत्थजचखत्तिअसुएऽसि णं तुमं जाया !, जनखन्त्तिआणीए तिसलाए सुएऽसि णं तुमं जाया ।, देविन्दन रिन्द पहिअ कित्तीऽसि णं तुमं जाया !, एत्थ सिग्धं चंकमिअवं गरुअं आलम्बेअवं असिधारामहवयं चरिअवं जाया! परिक्कमिवं जाया !, अस्सिं च णं अट्ठे नो पमाइअवं,' इत्यादि उक्तत्वा वन्दित्वा नमस्कृत्य एकतोऽपक्रामति । ततश्च भगवान् एकया मुष्ट्या कूचं चतसृभिश्च ताभिः शिरोजान, एवं (सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करे ) स्वयमेव पञ्चमौष्टिक लोचं करोति ( करिता ) तथा कृत्वा च (छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन अपानकेन (हत्थुत्तराहिं नक्खतेणं चंदेणं जोगमुबागएणं ) उत्तरा फाल्गुन्यां चन्द्रयोगे सति ( एगं देवदूतसमादाय ) शक्रेण वामस्कन्धे स्थापितं एकं देवदृष्यं आदाय ( एगे ) एको रागद्वेषसहायविरहात् ( अबीए) अद्वितीयः, यथा हि ऋषभश्चतुःसहरुया राज्ञां मल्लिपाश्व For Five & Fersonal Use Only ~209~ दीक्षाङ्गी कारः सू. ११६ ५ १० १४ www.janbary.org Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [५] .......... मूलं [११६] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११६] गाथा ||१..|| कल्प.सुबो-शविभिस्त्रिभिः शतैर्वासुपूज्यः षट्शत्या,शेषाश्च सहस्रेण सह प्रव्रजितास्तथा भगवान् न केनापि सहेत्यतोऽद्वितीयः दीक्षाङ्गीव्या०५(मुंडे भवित्ता) द्रव्यतः शिरस्कूर्चलोचनेन भावतः क्रोधाद्यपनयनेन मुण्डो भूत्वा (अगाराओ अणगारिया कारः मू. ॥९॥ ११६ पञ्चइए) अगारात्-गृहात् निष्क्रम्य, अनगारितां-साधुतां प्रबजितः-प्रतिपन्नः ॥ (११६)॥ तद्विधिश्चाय-एवं मा पूर्वोक्तप्रकारेण कृतपञ्चमौष्टिकलोचो भगवान् यदा सामायिकं उच्चरितुं वाञ्छति तदा शक्रः सकलमपि वादिबादिकोलाहलं निवारयति, ततः प्रभुः णमो सिद्धाणं' इति कथनपूर्वकं 'करेमि सामाइअं सव्वं सावजं जोगं पचक्खामी' त्यादि उपरति, न तु "भंते' त्ति भणति, तथाकल्पत्वात्, एवं च चारित्रग्रहणानन्तरमेव भगवतश्चतुर्थं ज्ञानं उत्पद्यते, ततः शक्रादयो देवा भगवन्तं वन्दित्वा नन्दीश्वरयात्रां कृत्वा खं खं स्थानं जग्मुः॥ दीप अनुक्रम [११८] FRasanteraswatasatanARAastas i astanARY इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्री विनय विजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां पञ्चमः क्षणः समाप्तः। ग्रन्थानम् ६५० । पश्चानामपि व्याख्यानानां ग्रन्थानम् ॥ ३२२५ ॥ श्रीरस्तु ilesURCERSEPRESEREEPRERSERECUREPSESSURGERSE-RESEASEIKepesepsar Srotatoe JABEnicatomire पंचमं व्याख्यानं समाप्तं ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११७] गाथा ||१..|| e sterserversesec | पसगे: ॥ अथ षष्ठं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ ततश्चतुर्ज्ञानो भगवान् बन्धुवर्ग आपृच्छय विहारार्थ प्रस्थितो, बन्धुवर्गोऽपि दृष्टिविषयं यावत् तत्र वजननिवस्थित्वा-त्वया विना वीर ! कथं ब्रजामो, गृहेऽधुना शून्यवनोपमाने ? । गोष्टीसुखं केन सहाचरामो, तिः गोपोभोक्ष्यामहे केन सहाथ वन्धो !॥१॥ सर्वेषु कार्येषु च वीर वीरेत्यामन्त्रणाद्दर्शनतस्तवार्य ! । प्रेमप्रकर्षादभजाम हर्ष, निराश्रयायाथ कमाश्रयामः? ॥२॥ अतिप्रियं वान्धव! दर्शनं ते, सुधाऽजनं भावि कदाऽस्म- ५ दक्षणोः । नीरागचित्तोऽपि कदाचिर्दस्मान् , मरिष्यसि प्रौढगुणाभिराम! ॥३॥ इत्यादि वदन् कष्टेन निर्वत्य सानुलोचनः खगृहं जगाम। किश्व-प्रभुवीक्षामहोत्सवे यदेवैर्गोशीपचन्दनादिना पुष्पैश्च पूजितोऽभूत् साधिकमासचतुष्कं यावत् तद्रवस्थेन च तद्गन्धेन आकृष्टा भ्रमरा आगत्य गादं त्वचं दशन्ति युवानश्च गन्धपुटी याचन्ते, मौनवति च भगवति रुष्टास्ते दुष्टान् उपसर्गान् कुर्वन्ति, स्त्रियोऽपि भगवन्तं अद्भुतरूपं तथा सुगन्धशरीरं च निरीक्ष्य कामपरवशा अनुकूलान् उपसर्गान् कुर्वन्ति, भगवांस्तु मेरुरिव निष्पकम्पः सर्व सहमानो विहरति । तस्मिन् दिने च मुहूर्तावशेषे कुमारग्रामं प्राप्तस्तत्र रात्री कायोत्सर्गेण स्थितः, इतश्च तत्र कश्चिद् गोपः सर्व दिनं हले वृषान् वाहयित्वा सन्ध्यायां तान् प्रभुपाचे मुत्तवा गोदोहाय गृहं गतः, वृषभास्तु बने| चरितुं गताः, स चागत्य प्रभुं पृष्टवान्-देवार्य! क मे वृषा:?, अजल्पति च प्रभो अयं न वेत्तीति वने विलो दीप अनुक्रम [११९] Becat क.मु. १७॥ षष्ठ व्याख्यानं आरभ्यते ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११९] कल्प: सुबो व्या० ६ ॥ ९७ ॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [११७] / गाथा [...] ........... व्याख्यान [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कितुं लग्नः, वृषास्तु रात्रिशेषे स्वयमेव प्रभुपार्श्व आगताः, गोपोऽपि तत्रागतस्तान् दृष्ट्वा अहो ! जानताऽपि अनेन समग्रां रात्रिं अहं भ्रामित इति कोपात् सेल्हकमुत्पाव्य प्रहतुं धावितः इतश्च शक्रस्तं वृत्तान्तं अबधिना ज्ञात्वा गोपं शिक्षितवान् । अथ तत्र शक्रः प्रभुं विज्ञपयामास प्रभो ! तवोपसर्गा भूयांसः सन्ति ततो द्वादशवर्षी यावत् वैयावृत्यनिमित्तं तवान्तिके तिष्ठामि ततः प्रभुरवादीद्-देवेन्द्र ! कदाप्येतन्न भूतं न भवति न भविष्यति च यत् कस्यचिद्देवेन्द्रस्य असुरेन्द्रस्य वा साहाय्येन तीर्थङ्कराः केवलज्ञानं उत्पादयन्ति, किन्तु स्वपराक्रमेणैव केवलज्ञानं उत्पादयन्ति; ततः शक्रोऽपि मरणान्तोपसर्गवारणाय प्रभोर्मातृष्वस्त्रेयं व्यन्तरं | वैयावृत्यकरं स्थापयित्वा त्रिदिवं जग्मिवान् । ततः प्रभुः प्रातः कोल्लाकसन्निवेशे बहुलब्राह्मणग्रहे मया सपात्रो धर्मः प्रज्ञापनीय इति प्रथमपारणां गृहस्थपात्रे परमानेन चकार, तदा च चेलोत्क्षेपः १ गन्धोदकवृष्टिः दुन्दुभिनादः ३ अहो दानमहो दानमित्युद्घोषणा ४ वसुधारावृष्टि १ श्वेति पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, एषु वसुधाराखरूपं चेदं "अद्धत्तेरस कोडी उकोसा तत्थ होइ वसुहारा । अद्धतेरस लक्खा जहनिआ होइ वसुहारा ॥ १ ॥ ततः प्रभुर्विहरन् मोराकसन्निवेशे दुइज्जन्ततापसाश्रमे गतः, तत्र सिद्धार्थभूपमित्रं कुलपतिः प्रभुं उपस्थितः, प्रभुणाऽपि पूर्वाभ्यासांन्मिलनाय बाहू प्रसारितौ, तस्य प्रार्थनया च एकां रात्रिं तत्र स्थित्वा नीरागचित्तोऽपि तस्याग्रहेण तत्र चतुर्मासावस्थानं अङ्गीकृत्य अन्यतो विजहार, अष्टौ मासान् विहृत्य पुनर्व१ अर्धत्रयोदश को उत्कर्षा तत्र भवति वसुधारा अर्धत्रयोदश लक्षा जधन्यिका भवति वसुधारा ||१|| ••• दिक्षायाः अनन्तरं प्रथम भिक्षा एवं पंच- दिव्यानां प्रागत्य वर्णनं For Pile & Fersonal Use O ~ 212~ सिद्धार्थ - स्थापनं पा रणके पश्चदिव्यानि १५ २० २५ ॥ ९७ ॥ ebay.org Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११७] गाथा ||१..|| र्थ तत्रागतः, आगत्य च कुलपतिसमर्पिते तृणकुटीरके तस्थौ, तत्र च बहिस्तृणाप्राप्त्या क्षुधिता गावोऽन्यै- अभिग्रहाः स्तापसैः स्वस्खकुटीरकान्निवारिताः सत्यः प्रभुभूषितं कुटीरं निःशङ्क खादन्ति, ततः कुटीरखामिना कुलपतेः पश्चअचेलIS पुरतो राधाः कृताः, कुलपतिरप्यांगत्य भगवन्तं उवाच-हे बर्द्धमान ! पक्षिणोऽपि खनीडरक्षणे दक्षा भवन्ति, त्वं तावत् राजपुत्रोऽपि खं आश्रयं रक्षितुं अशक्तोऽसि ?, ततः प्रभुमयि सति एषां अप्रीतिरिति विचिन्त्या-14 ११७ पाढशुक्लपूर्णिमाया आरभ्य पक्षे अतिक्रान्ते वर्षायां एव इमान् पञ्च अभिग्रहान् अभिगृल्य अस्थिकग्राम प्रति ५ प्रस्थितः, अभिग्रहाश्चेमे-नाप्रीतिमद्गृहे वास. १, स्थेयं प्रतिमया सह २ । न गेहिविनयः कार्यों ३, मौन पाणी च भोजनम् ५॥१॥ (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (संवच्छरं साहियं मास) साधिकमासाधिकसंवत्सरं यावत् (चीवरधारी हुस्था) चीवरधारी अभूत् (तेणं परं अचेलए) तेन परंततः ऊध्र्व-साधिकमासाधिकवर्षीय च अचेलकः (पाणिपडिग्गहिए) पाणिपतग्रहा-करपात्रश्चाभवत्।। तत्र अचेलकभवनं चैवं-साधिकमासाधिकसंवत्सरादूर्ध्वं विहरन् दक्षिणवाचालपुरासन्नसुवर्णवालुकानदी-|| तटे कण्टके विलग्य देवदूष्याः पतिते सति भगवान सिंहावलोकनेन तदद्राक्षीत्, ममत्वेनेति केचित् १ स्थण्डि-। लेऽस्थण्डिले वा पतितमिति विलोकनायेत्यन्ये २ अमत्सन्ततेर्वस्त्रपात्रं सुलभं दुर्लभं वा भावीति विलोकनार्थ इर्त्यपरे ३, वृद्धास्तु कण्टके वस्त्रविलगनात् खशासनं कण्टकबहुलं भविष्यतीति विज्ञाय निर्लोभत्वात् तदखाई। ISन जग्राहेति, ततः पितुमित्रेण ब्राह्मणेन गृहीतं, अर्द्ध तु तस्यैव पूर्व प्रभुणा दतं अभूत, तचैवं-स हि पूर्व | दीप अनुक्रम [११९] ISO HOBanushranvaro ~213~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११९] कल्प. सुबो व्या० ६ ।। ९८ ।। Jan Education Inter दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [६] मूलं [११७] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: दरिद्रो भगवतो वार्षिकदानावसरे परदेशं गतोऽभूत्, तत्रापि निर्भाग्यत्वात् किञ्चिदप्राप्य गृहमागतो भार्यया तर्जितो-रे अभाग्यशेखर! यदा भगवता श्रीवर्धमानेन सुवर्णमेघायितं तदा त्वं परदेशे गतः, अधुना पुनर्निर्धनः समागतो, याहि दूरं मुखं मा दर्शय, अथवा सांप्रतं अपि तमेव जङ्गमं कल्पतरुं याचख यथा तव दारिद्र्यं हरति यतः - यैः प्राग्दत्तानि दानानि पुनर्दातुं हि ते क्षमाः । शुष्कोऽपि हि नदीमार्गः, खन्यते सलिलार्थिभिः ॥ १ ॥ इत्यादिवाक्यैर्भार्याप्रेरितो भगवत्पार्श्वमागत्य विज्ञपयामास प्रभो ! त्वं जगदुपकारी विश्वस्यापि त्वया दारिद्र्यं निर्मूलितं अहं तु निर्भाग्यस्तस्मिन्नवसरेऽत्र नाभूवं, तत्रापि किं किं न कयं ? को को न पत्थिओ ? कह कह न नामिअं सीसं ? | भरउअरस्स कए किं न कथं न कायव्वं ? ॥ १ ॥ तथापि भ्रमता मया न किञ्चित् प्राप्तं, ततोऽहं निष्पुण्यो निराश्रयो निर्द्धनस्त्वामेव जगद्वाञ्छितदायकं शरणायोपेतोऽस्मि तव च विश्वदारिद्र्य हरस्य मदारिग्रहरणं कियत्मानं ?, यतः - संपूरिताशेषमहीतलस्य, पयोधरस्याद्रुतशक्तिभाजः । किं तुम्बपात्रप्रतिपूरणाय, भवेत्प्रयासस्य कणोऽपि नूनम् ? ॥ १ ॥ एवं च याचमानाय विप्राय करुणापरेण भगवता देवदृष्यवस्त्रस्य अर्द्ध दत्तं इदं च तादृगदानदायिनोऽपि भगवतो निष्प्रयोजनस्यापि वस्त्रस्य यदर्द्धदानं तत् भगवत्सन्ततेर्वखपात्रेषु मृच्छ सूचयति इति केचित् १ प्रथमं विप्रकुलोत्पन्नत्वं सूचयतीत्यपरे २ ब्राह्मणस्तु तदर्द्ध गृहीत्वा दशाञ्चलकृते तुन्नत्रायस्यादर्शयत् विप्रेण तस्याग्रे सकले व्यतिकरे १ किं किं न कृतं कः को न प्रार्थितः क क न नामितं शीर्ष । दुर्भरोदरस्य कृते किं न कृतं किं न कर्तव्यम् ॥ १ ॥ For Pile & Fersonal Use On ~ 214~ विप्राय वस्त्रदानम् २० २५ ॥ ९८ ॥ imetaly.ag Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११७] / गाथा [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११७] गाथा ||१..|| निवेदिते सोऽप्युवाच-याहि भो ब्राह्मण ! तमेव प्रभु अनुगच्छ, स हि निर्ममः करुणाम्भोधिर्दितीयं अपि अर्द्ध दास्यति, ततस्तदर्द्धद्वयं अहं तथा संयोजयिष्यामि यथा अक्षतस्येव तस्य दीनारलक्ष मूल्यं भविष्यति, मृद्धिदान तेन च अर्धमधै विभक्तेन द्वयोरप्यावयोरियं यास्यति, इति तत्प्रेरितो विप्रोऽपि पुनः प्रभुपार्श्वमांगतो लज्जया प्रार्थयितुं अशक्को वर्ष यावत् पृष्ठे बभ्राम, ततश्च खयं पतितं तदध गृहीत्वा जगाम, तदेवं भगवता। सवस्त्रधर्मप्ररूपणाय साधिकमासाधिकं वर्ष यावद्वस्त्रं स्वीकृतं, सपात्रधर्मस्थापनाय च प्रथमां पारणां पात्रेण| कृतवान , ततः परं तु यावज्जीवं अचेलकः पाणिपात्रश्चाभूत् । एवं च विहरतो भगवतः कदाचिदू गङ्गातटे सक्ष्ममृत्तिकाकर्दमप्रतिबिम्बितासु पदपनिषु चक्रध्वजाङ्कुशादीनि लक्षणानि निरीक्ष्य पुष्पनामा सामुद्रिक-1 |श्चिन्तयामास-यदयं एकाकी कोऽपि चक्रवती गच्छति तद् गत्वाऽस्य सेवां करोमि यथा मम महानुदयो भवतीति त्वरितं पदानुसारेण भगवत्पार्धमागतो, भगवन्तं निरीक्ष्य दध्यो-अहो मया वृथैव महता कष्टेन सामुद्रिकं अधीतं, यदि ईगलक्षणलक्षितोऽपि श्रमणो भूत्वा व्रतकष्टं समाचरति तदा सामुद्रिकपुस्तकं जले || क्षेप्यमेव, इतश्च दत्तोपयोगः शक्रः शीघ्र तत्रागत्य भगवन्तं अभिवन्द्य पुष्पं उवाच-भो भो सामुद्रिक ! मा |विषीद सत्यमेवैतत्तव शास्त्रं यदयं अनेन लक्षणेन जगत्रयस्यापि पूज्यः सुरासुराणामपि स्वामी सर्वोत्तम|संपदाश्रयस्तीर्थेश्वरो भविष्यति, किश्च-कायः खेदमलामयविवर्जितः श्वासवायुरपि सुरभिः। रुधिरामिषमपि दीप अनुक्रम [११९] ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] शशूलपाण्यु गाथा ||१२|| कल्प-सुबो-धवलं गोदुग्धसहोदरं नेतुः ॥१॥ इत्यादीन्यपरिमितान्यस्य बाह्याभ्यन्तराणि लक्षणानि केन गणयितुं उपसर्मसह शक्यानि ? इत्यादि वदन् पुष्पं मणिकनकादिभिः समृद्धिपात्रं विधाय शक्रः खस्थानं ययौ, सामुद्रिकोपित स. ११८ प्रमुदितः खदेशं गतः, प्रभुरप्यन्यत्र विजहार ॥ (११७)। ४ (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान महावीरः (साइरेगाई दुवालस वासाई) सातिरेकाणि द्वादशपसर्गः द्वादशः १५ वर्षाणि यावत् (निचं बोसहकाए) नित्यं-दीक्षाग्रहणादनु यावजीवं व्युत्सृष्टकायः परिकर्मणावर्जनात् (चियत्तदेहे) त्यक्तदेहः परीषहसहनात्, एवंविधः सन् प्रभुः (जे केइ उवसग्गा उप्पजंति) ये केचित् उप-18 सर्गा उत्पद्यन्ते, (तंजहा)तगथा-(दिवा वा) दिव्या:-देवकृताः (माणुस्सा वा) मानुष्या:-मनुष्यकृताः (तिरिक्खजोणिआ वा) तैर्यगयोनिका:-तिर्यक्रताः (अणुलोमा वा) अनुकूला:-भोगार्थ प्रार्थेनादिकाः, ASI(पडिलोमा धा) प्रतिकूला:-प्रतिलोमा ताडनादिकाः (ते उप्पन्ने 'सम्म सहर) तान् उत्पशान सम्यक सहते, भयाभावेन (खमइ)क्षमते, क्रोधाभावेन (तितिक्खह) तितिक्षते, दैन्याकरणेन (अहियासेइ) अध्यासयति, निश्चलतया (११) तत्र देवादिकृतोपसर्गसहनं यथा-खामी प्रथमचतुर्मासकं मोराकसन्निवे-18 शादागत्य शूलपाणियक्षचैत्ये स्थितः, सच यक्षः पूर्वभवे धनदेववणिजो वृषभ आसीत्, तस्य च नवीं उत्तरता सपना ॥१९॥ शकटपञ्चशती पक्के निमग्ना, तदा च उल्लसितवीर्येण एकेन वृषभेण वामधुरीणेन भूखा यदि ममैव खण्डद्वयं विधायोभयोः पार्श्वयोर्योजयति तदाऽहं एक एव सर्वाणि उत्तारयामीति चिन्तयता सर्वाणि शकटानि निव्यू-15 दीप R अनुक्रम [१२०१२२] anusbanvaro ... अथ भगवंत महावीरेण सह्य उपसर्गानां वर्णनं आरभ्यते ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| बानि, तथोक्त-धवलु विसूरइ सामि! अहं गम भर पिक्खेवि । हर्ड किं न जुत्तो दुहिं धुरिहि खंडय दुन्नि | शूलपाण्यु करेविस तथाविधेन पराक्रमेण चुटितसन्धिरशक्तशरीरो जातः, तदा च तं अशक्तं निरीक्ष्य धनदेवेन | पसः वर्षमानग्रामे मत्वा ग्राममुख्यानां तृणजलनिमित्तं द्रव्यं कृत्वा स तत्र मुक्ता, ग्राममुख्यैश्च न काचिचिन्ता कुता, स च क्षुत्तड्वाधितः शुभाध्यवसायान्मृत्वा व्यन्तरो जाता, तेन प्राग्भवव्यतिकरस्मरणाजातकोपेन तब मारीकरणेन अनेक जना मारिताः, कियतां च संस्कारो भवतीति तथैव मुक्तानां मृतकानां अस्थिनिकरैः सा ब्रामः 'अस्थिकग्राम' इति प्रसिद्धों बभूव, ततश्च अवशिष्टलोकाराधितेन तेन प्रत्यक्षीभूय स्वप्रासादः स्वम- तिमा च कारिता, तत्र जनाः प्रत्यहं पूजां कुर्वति, भगवांस्तु तत्प्रतिबोधनाय तत्र चैत्ये समागतः, दुष्टोऽयं रात्री स्वचैले स्थितं व्यापादयतीति जनैार्यमाणोऽपि तत्रैव रात्री स्थितः, तेन च भमवतः क्षोभाय भूमे दकरो । इहास कृता,ततोहस्तिरूपं ततः सर्परूपं ततः पिशाचरूपं च विकृत्य दुस्सहा उपसाः कृताः, भगवास्तु मना-5 गपिन क्षुभिता, तत एकैकाऽपि या अन्यजीवितापहा तथाविधाः शिरःकर्णश्नासिकाश्चक्षुर्दन्त५पृष्ठनिख|| लक्षणेष्वनेषु विविधा वेदना प्रारब्धाः, तथापि अकम्पितचित्तं भगवन्तं निरीक्ष्यस प्रतिबुद्ध, अस्मिन्नवसरेच 8स सिद्धार्थः समागयोवाच-भो निर्भाग्य! दुर्लक्षण! शूलपाणे! किमेतदांचरितं ? यत्सुरेन्द्रपूज्यस्य भगवत आशातना कृता, यदि शक्रो ज्ञास्यति सदा तव स्थानं स्फेटयिष्यति, ततः पुनीतः सन्नधिकं भगवन्तं पूज१ धवलो विषीदति स्वामिन् ! अहं गुरुं भारं प्रक्षिप्य । अहं किं न योजितो योधुरो खण्डे वे कृत्वा ।।१।। दीप अनुक्रम [१२०१२२] SNEnicaton ~217 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक | मौसी [११८] गाथा ||१२|| सप.सबो-यामास, भगवतोऽग्रे गायति नृत्यति च, तदाकर्ण्य च लोकांश्चिन्तितवन्तो-यदनेन स देवार्यों हतस्ततोखप्नदशक व्या०६ गायति नृत्यति च, तत्र च खामी देशोनान् रात्रेश्चतुरोऽपि यामान अत्यन्तं वेदनां सोढवान् इति प्रभाते क्षणं प्रथमा चतुः निद्रां लेभे, तत्र च प्रभुरूवस्थ एव दश खमान् दृष्ट्वा जागरितः, प्रभाते लोको मिलित, उत्पलेन्द्रशाणी ॥१०॥ अपि अधीतोष्टाङ्गनिमित्तौ तत्रागतो, ते भगवन्तं दिव्यगन्धचूर्णपुष्पपूजितं निरीक्ष्य प्रमुदिताः प्रणमन्ति, तत उत्पलोऽवोचत्-हे भगवन् ! ये त्वया निशाशेषे दश स्वप्ना दृष्टास्तेषां फलं त्वया तु ज्ञायत एव तदपि मया । कथ्यते यत्त्वया तालपिशाचो हतस्तेन त्वं अचिरेण मोहनीयं कर्म हनिष्यसि १ यच सेव्यमानः सितः पक्षी दृष्टस्तेन त्वं शुक्तध्यानं ध्यास्यसि २ यश्च चित्रकोकिल: सेवमानो दृष्टस्ततस्त्वं द्वादशाङ्गीं प्रथयिष्यसि ३ यच्च गोवर्ग: सेवमानो दृष्टस्तेन साधुसाध्वीश्रावकश्राविकारूपश्चतुर्विधः संघस्त्वां सेविष्यतेश्यश्च त्वया स्वप्ने समुद्र|स्तीर्णस्ततस्त्वं संसारं तरिष्यसि ५ यश्चोंद्गच्छन् सूर्यों दृष्टस्तेन तव अचिरात् केवलज्ञानं उत्पत्स्यते ६ यच त्वया अन्त्रैर्मानुषोत्तरो वेष्टितस्तेन त्रिभुवने तव कीर्तिर्भविष्यति ७ यच त्वं मन्दरचूलां आरूढस्तेन त्वं सिंहासने उपविश्य देवमनुजपर्षदि धर्म प्ररूपयिष्यसि ८ यच्च त्वया बिबुर्धालङ्कृतं पद्मसरो दृष्टं तेन अतुर्नि-18 कायजा देवास्त्वां सेविष्यन्ति ९ यत्वया मालायुग्मं दृष्टं तदर्थ तु नाहं जानामि, तदा भगवता प्रोत-हे उत्पल ! यन्मया दामयुग्मं दृष्टं तेन अहं द्विविधं धर्म कथयिष्यामि-साधुधर्म श्रावकधर्म च, तत उत्पलो ॥१०॥ वन्दित्वा गतः, तत्र स्वामी अष्टभिः अर्द्धमासक्षपणैस्तां प्रथमां चतुर्मासी (१)मतिक्रम्य ततः स्वामी मोरा दीप अनुक्रम [१२०१२२] anelbanaras ... भगवंत महावीरेण दृष्ट १० स्वप्नानि एवं तेषां फलानि ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| कसन्निवेशं गता, तत्र प्रतिमास्थितस्य वीरस्य सत्कारार्थ सिद्धार्थों भगवहेहं अधिष्ठाय निमित्तानि कथयति.अच्छन्दकभगवतो महिमा जायते स्म, भगवन्महिमानं दृष्ट्वा प्रद्विष्टेन अच्छन्दकेन तृणच्छेदविषये प्रश्ने कृते सिद्धार्थेन शतं चण्ड: न छेत्स्यते इत्युक्ते छेदनोद्यतस्य तस्यागलीदत्तोपयोगः शक्रः समागत्य वज्रेण चिच्छेद, ताले रुष्टः सिद्धार्थो कोशिकवत्त जनानां चौरोऽयमित्यवदत्, ततः कथमिति जनेषु पृच्छत्सु सिद्धार्थों जगौ-अनेन कर्मकरवीरघोषस्य दशप-III Kलपमितं बहलकं गृहीत्वा खजूरीवृक्षाधः स्थापितं, द्वितीयं इन्द्र शर्मण ऊरणको भक्षितस्तदस्थीनि खगृहयदर्या अधः स्थापितानि सन्ति, तृतीयं तु अवाच्यं अस्य भायैव कथयिष्यति, ततो जनैर्गत्वा भार्या पृष्टा, साऽपि तद्दिने तेन सह कृतकलहा कोपानुवाच-भो भो जना! अद्रष्टव्यमुखोऽयं पापात्मा यदयं स्वभगिनीमपि भुङ्गा ते, ततः स भृर्श लज्जितो विजने समागत्य स्वामिनं विज्ञपयामास-स्वामिन् ! त्वं विश्वपूज्यः सर्वत्र पूज्यसे,8 अहं तु अत्रैव जीवामीति, ततः प्रभुस्तस्याप्रीतिं विज्ञाय ततो विहरन् श्वेताम्ब्यां गच्छन् जनार्यमाणोऽपि किनकखलतापसाश्रमे चण्डकौशिकप्रतिबोधाय गतः, स च प्राग्भवे महातपस्वी साधुः, पारणके विहरणार्थ । गमने जातां मण्डूकीविराधना ई-पथिकीप्रतिक्रमणे गोचरचर्याप्रतिक्रमणे, सायंप्रतिक्रमणे च त्रिशः क्षुल्लकेन स्मारितः सन् क्रुद्धस्तं शैक्षं हन्तुं धावितः स्तम्भेनास्फाल्य मृत्वा ज्योतिषके देवो जाता, ततश्युतस्तत्राश्रमे पञ्चशततापसाधिपतिश्चण्डकौशिकाख्यो बभूव, तत्रापि राजकुमारान् स्वाश्रमफलानि गृह्णतो विलोक्य क्रुद्धस्तान्निहन्तुमुद्यतः परशुहस्तो धावन् स कृपे पतितः, सक्रोधो मृत्वा तत्रैवाश्रमे पूर्वभवनाम्ना दृष्टिविषोऽहिब- १४ दीप अनुक्रम [१२०१२२] JABEnications H ellanelbanaras ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [१२० १२२] कल्प. सुबो व्या० ६ भूव स च प्रभुं प्रतिमास्वं विलोक्य कुवा ज्वलन् सूर्य दृष्ट्वा दृष्ट्वा दृष्टिज्वालां मुमोच मुक्त्वा च मा पतनयं माँ आक्रमतु इत्यंपसरति, तथापि भगवांस्तथैव तस्थौ, ततो भृशं क्रुद्धो भगवन्तं ददंश, तथापि भगवन्तं अव्याकुलमेव दृड्वा भगवद्रुधिरं च क्षीरसहोदरं दृष्ट्वा " बुज्झ बुज्झ चंडकोसिआ !” इति भगवद्वचनं च ॥१०१॥ ६ समाकर्ण्य जातजातिस्मृतिः प्रभुं तिः प्रदक्षिणीकृत्य अहो अहं करुणासमुद्रेण भगवता दुर्गतिकूपादुद्धृत इत्यादि मनसा विचिन्तयन् प्रपन्नानशनः पक्षं यावद्विले तुण्डं प्रक्षिप्य स्थितो, घृतादिविक्रायिकाभिः घृतादिच्छटाभिः पूजितो घृतगन्धागतपीपिलिकाभिः भृशं पीयमानः प्रभुदृष्टिषावृष्ट्या सिक्तो मृत्वा सहस्रारे सुरो बभूव, प्रभुरपि अन्यत्र विजहार । उत्तरवाचालायां नागसेनः स्वामिनं क्षीरेण प्रतिलम्भितवान्, पञ्च दिव्यानि जातानि ततः श्वेताभ्यां प्रदेशी राजा स्वामिनो महिमानं कृतवान् ततः सुरभिपुरं गच्छन्तं स्वामिनं पञ्चभी रथैर्नैयका गोत्रिणो राजानो वन्दितवन्तः, ततः सुरभिपुरं गतः, तत्र गङ्गानद्युत्तारे सिद्धयाश्रो नाविको लोकान नावमारोहयति, भगवानपि तां नावमारूढः तस्मिन्नवसरे च कौशिकारटितं श्रुत्वा नैमित्तिकः क्षेमिलो जगी - अर्थास्माकं मरणान्तं कष्टं आपतिष्यति, पर अस्य महात्मनः प्रभावात् सङ्कटं विलयं यास्यति, एवं च गङ्गां उत्तरतः प्रभोत्रिपृष्ठभवविदारितसिंहजी व सुदंष्ट्रदेवकृतं नौमज्जनादिकं विनं कैम्बलशम्बलनामानौं नागकुमारी आगत्य निवारितवन्तौ । तयोश्चोत्पत्तिरेव मथुरायां साधुदासीजिनदासौ दम्पती परमश्रावक पञ्चमव्रते सर्वथा चतुष्पदप्रत्याख्यानं चक्रतुः, तत्र चैका आभीरी स्वकीयं गोरखं आनीय साधुदास्यै दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] मूलं [ ११८] / गाथा [१, २] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: Jan Educatonle For Five & Personal Use Only ~220~ नौरथाक म्वलशम्बलोत्पत्तिश्च २० २५ ॥१०१॥ २८ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [१२० १२२] Jan Education le दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] मूलं [ ११८] / गाथा [१, २] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ददाति सा च यथोचितं मूल्यं ददाति, एवं च कालेन तयोः अत्यन्तं प्रीतिर्जाता, एकदा तथा आभीर्या विवाहे निमन्त्रितौ तौ दम्पती ऊचतुः यदुत भो ! आवाय आगन्तुं न शक्यते परं यद् भवतां विवाहे युज्यते तदस्मद्देहाद् ग्राह्यं ततो व्यवहारिदत्तैश्चन्द्रोदयाप करणैर्वखाभरणधूपादिभिश्च स आभीरविवाहोऽत्यन्तं उत्कृष्टो जातः, तेन प्रमुदिताभ्यां आभीराभीरीभ्यां अतिमनोहरौ समानवयसौ बालवृषभौ आनीय तयोदेतो, तो नेच्छतः, बलाद् गृहे बध्ध्वा तौ स्वगृहं गतौ, व्यवहारिणा चिन्तितं यदि इमौ पश्चात् प्रेषयिष्येते तदा | षण्ढीकरण भारोद्वहनादिभिर्दुःखिनौ भविष्यतः इत्यादि विचिन्त्य प्रासुकतृणजलादिभिस्ती पोष्यमाणी वाहनादिश्रमविवर्जितौ सुखं तिष्ठतः, अन्यदा च अष्टम्यादिषु कृतपौषधेन तेन श्रवण पुस्तकादि वाच्यमानं निशम्य तौ भद्रकौ जातौ, यस्मिन् दिने स श्रावक उपवास करोति तस्मिन् दिने तो अपि तृणादि न भक्षयतः, एवं च तस्य श्रावकस्यापि साधर्मिकत्वेन अत्यन्तं प्रियौ जातौ, एकदा तस्य जिनदासस्य मित्रेण तौ अतिबलिष्ठौ सुन्दरौ वृषौ विज्ञाय श्रेष्ठिनं अनापृच्छचैव भण्डीरवनयक्षयात्रायें अदृष्टधुरौ अपि तथा वाहितौ यथा त्रुटितो, आनीय तस्य गृहे बद्धौ श्रेष्ठी च तौ तदवस्थौ विज्ञाय साश्रुलोचनो भक्तप्रत्याख्यापननमस्कारदानादिभिर्नियमितवान्, ततस्ती मृत्वा नागकुमारौ देवी जातो, तयोश्च नवीनोत्पन्नयोर्दत्तोपयोगयोरेकतरेण नौ रक्षिता अन्येन च प्रभुं उपसर्गयन् सुदंष्ट्रसुरः प्रतिहतः, ततस्तं निर्जित्य भगवतः सत्त्वं रूपं च गायन्तौ नृत्यन्तौ च समहोत्सवं सुरभिजलपुष्पवृष्टिं कृत्वा तौ स्वस्थानं गतौ । भगवानपि राजगृहे नालन्दायां तन्तु For Five & Fersonal Use Only ~ 221 ~ कम्बलश म्वलो त्पत्ति ५ १० १४ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| कल्प-सुबो वायशालैकदेशे अनुज्ञाप्य आचं मासक्षपणं उपसंपद्य तस्थौ, तत्र च मङ्खलिनाममङ्क्षपुत्रः सुभद्राङ्गजो बहु- गोशालसध्या०६लद्विजगोशालायां जातत्वात् गोशालनामा मलकिशोर उपाययो, स च खामिनं मासक्षपणपारणके विजयश्रे-मागमः द्वि॥१०॥ |ष्ठिना कूरादिविपुलभोजनविधिना प्रतिलम्भितं तत्र पञ्चदिव्यादिमहिमानं च निरीक्ष्य अहं त्वच्छिष्योऽस्मीति तीया तृतीस्वामिनं उवाच, ततो द्वितीयपारणायां नन्देन पक्कान्नादिना ततस्तृतीयायां सुनन्देन परमान्नादिना स्वामी या च चतुप्रतिलम्भितः, (२)चतुर्थमासक्षपणे कोल्लागसन्निवेशे भगवानांगता, तत्र बहुलनामा द्विजः पायसेन प्रतिल मासी म्भितवान् , पञ्च दिव्यानि च, गोशालश्च तस्यां तन्तुबायशालायां स्वामिनं अनिरीक्ष्य समग्रे राजगृहनगरे गवेषयन स्वोपकरणं द्विजेभ्यो दत्त्वा मुखं शिरश्च मुण्डयित्वा कोल्लाके भगवन्तं दृष्टा स्वत्प्रव्रज्या मम भवतु इत्युक्तवान्, ततस्तेन शिष्येण सह स्वामी सुवर्णखलग्राम प्रति प्रस्थितो, मार्गे च गोपैमहास्थाल्यां पायसं| पच्यमानं निरीक्ष्य गोशाला स्वामिनं जगौ-अत्र भुक्त्वा गम्यते, सिद्धार्थेन च तद्भङ्गकथने गोशालेन च गोपेभ्यस्तगंगे ज्ञापिते गोपर्यत्नेन रक्षिताऽपि सा स्थाली भग्ना, ततो गोशालेन 'यद्भाव्यं तद्भवत्येचेति नियतिः |स्वीकृता, ततः स्वामी ब्राह्मणग्राममंगात्, तत्र नन्दोपनन्दभ्रातृदयसम्बन्धिनौ द्वौ पाटको, स्वामी नन्दपाटके AI प्रविष्टः प्रतिलम्भितश्च नन्देन, गोशालस्तु उपनन्दगृहे पर्युषितान्नदानेन रुष्टो यद्यस्ति मे धर्माचार्यस्य तपस्ते ॥१०२॥ जस्तदाऽस्य गृहं दातां इति शशाप, तदनु तद्गृहं आसन्नदेवता ददाह, पश्चात्प्रभुश्चम्पायां उपागतः, तत्र द्विमासक्षपणेन चतुर्मासी (३) अवसत्, चरमद्विमासपारणां च चम्पाया बहिः कृत्वा, कोल्लागसंनिवेशं गतः २८ दीप अनुक्रम [१२०१२२]] ... भगवंत महावीर समीपे गोशालकस्य आगमनं ~222~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| स्थितश्च शून्यगृहे कायोत्सर्गेण, गोशालेन तु तत्रैव शून्यगृहे सिंहो ग्रामणीपुत्रो विद्युन्मत्या दास्या सह। क्रीडन् हसितः कुहितश्च तेन, खामिनं प्राह-अहं एकाक्येव कुहितो यूयं किं न वारयत?, सिद्धार्थः पाह-मैवं नामनिचपुनः कुर्याः, ततः पात्रालके गतस्तस्थिवांश्च शुन्यागारे, तत्र स्कन्दः स्वदास्या स्कन्दिलया सह क्रीडन् हसि-न्द्रवतं तर्या तस्तथैव तेन कुहितम, ततः स्वामी कुमाराकं सन्निवेशं गत्वा चम्परमणीयोद्याने कायोत्सर्गेण तस्थी । इतश्च चतुमोसी श्रीपार्श्वनाथशिष्यो भूरिशिष्यपरिवृतो मुनिचन्द्रमुनिस्तत्र कुम्भकारशालायां तस्थौ, तत्साधून निरीक्ष्य गोशाला प्राह-के यूयं ?, तैरुक्तं-वयं निर्ग्रन्थाः, पुनः प्राहक यूयं क च मम धर्माचार्यः ?, तैरूचे-यादशस्त्वं तादृशस्तव धर्माचार्योऽपि भविष्यति, ततो रुष्टेन गोशालेनोचे-मम धर्माचार्यतपसा दातां युष्मदाश्रयः, तरूंचे-नेयं भीतिरस्माकं, पश्चात् स आगत्य सर्व उवाच, सिद्धार्थों जगौ-नैते साधवो दाते, रात्री जिनका स्पतुलनां कुवोणो मुनिचन्द्रः कायोत्सर्गस्थो मत्तेन कुम्भकारेण चौरभ्रान्त्या च्यापादिता, उत्पन्नावधिश्च स्वर्ग जगाम, सुरैर्महिमा उद्योते ते गोशालो जगी-अहो तेषां उपाश्रयो दह्यते, तदा सिद्धार्थेन यथास्थिते कथिते | स तत्र गत्वा तच्छिष्यान निर्भयांगतः। ततः स्वामी चौरायां गतः, तत्र'चारिको हेरिको इति कृत्वा रक्षका अगडे प्रक्षिपन्ति, प्रथमं गोशालः क्षिप्तः प्रभुस्तु नांद्यापि, तावता तत्र सोमाजयन्तीनाम्न्यौ उत्पलभगिन्यौ संयमाक्षमे परिवाजिकीभूते प्रभुंवीक्ष्योपलक्ष्य च ततः कष्टान्मोचयामासतः ततः प्रभुः पृष्ठचम्पांप्राप्तः, तत्र वषों-1॥ INI(४) श्वतुमोसक्षपणेनातिवाद्य बहिः पारयित्वा,कायकलसन्निवेशं गत्वा श्रावस्त्यां गता,तत्र यहि प्रतिमया स्थितःला १४ दीप अनुक्रम [१२० १२२] ~223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| प.सचो- तत्र सिद्धार्थेन गोशालाय मोक्तं-यत् अथ त्वं मनुष्यमांसं भोक्ष्यसे,ततः सोऽपि तन्निवारणाय वणिग्गेहेषु भिक्षायै गोशालख व्या०६वभ्राम, तन्त्र च पितृदत्तो वणिक तस्य भार्या च मृतापत्यप्रसूरस्ति, तस्याश्च नैमित्तिकशिवदत्तेनोक्तोऽपत्यजी-मांसभक्षणं वनोपायो-यत् तस्य मृतवालकस्य मांसं पायसेन विमिनं कस्यचिंभिक्षोय, तया च तेनैव विधिना गोशालाय बलदेवमू दत्तं गृहज्वालनभयाच गृहद्वारं परावर्तितं, गोशालोऽपि अज्ञातस्वरूपस्तद्भक्षयित्वा भगवत्समीपमोगतः, हार्तिसाहाय्यं M सिद्धार्थेन यथास्थिते उसे वमनेन कृतनिर्णयश्च तद्गृहज्बालनाय आगतः, तद्गृहं अलब्ध्वा तं पाटकं एव भगवन्नाम्ना ज्वालितवान् । ततः खामी बहिर्दरिद्रसन्निवेशात् हरिद्रवृक्षस्य अधः प्रतिमया तस्थौ, पथिकमज्वालिताग्निना अनपसरणात् प्रभोः पादौ दग्धौ गोशालो नष्टः, ततः स्वामी मंगलाग्रामे वासुदेवगृहे प्रतिमया स्थितस्तत्र गोशालो डिम्भभापनाय अक्षिविक्रियां कुर्वन् तस्पित्रादिभिः कुहितो मुनिपिशाच इत्युपेक्षित, ततः स्वामी आवर्सग्रामे बलदेवगृहे प्रतिमया स्थितः, तत्र गोशालेन बालभापनाय मुखत्रासो विहितः, ततस्तत्पित्रादयो अथिलोऽयं किमनेन हतेन ? अस्य गुरुरेव हन्यते इति भगवन्तं हन्तुं उद्यतास्तांश्च बलदेवमूत्तिरेच बाहुना लाङ्गुलं उत्पाव्य न्यवारयत्, ततः सर्वेऽपि स्वामिनं नतवन्तः, ततः प्रभुः चोराकसन्निवेशं जगाम, तत्र मण्डपे भोज्यं पच्यमानं दृष्ट्वा गोशाल: पुन:पुन:न्यग्भूय वेलां विलोकयति स्म, ततस्तैश्चौरशङ्कया ताडितः, अने- २५ नापि रुष्टेन स्वामिनाना स मण्डपो ज्वालितः, ततः प्रभुः कलम्बुकासन्निवेशं गतस्तत्र मेघकालहस्तिनामानी द्वी ॥१०३।। भ्रातरौ, तत्र कालहस्तिना उपसर्गितो,मेघेनोपलक्ष्य क्षमिता,ततःस्वामी क्लिष्टकर्म निर्जरानिमित्तं लाढाविषयं प्राप, दीप अनुक्रम [१२०१२२] ~224~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा || 8,3|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] मूलं [११८] / गाथा [१, २] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी - रचिता वृत्तिः: तत्र हीलनादयो बहवो घोरा उपसर्ग अभ्यासिताः, ततः पूर्णकलशाख्येनार्यग्रामे गच्छतः खामिनो मार्गे द्वौ चौरी अपशकुनधिया असिं उत्पाव्य हन्तुं धावितौ, दत्तोपयोगेन शक्रेण च वज्रेण हतौ, ततः स्वामी भद्रिकापुर्यां वर्षा (५) चतुर्मासीक्षपणपारणां च वहिः कृत्वा, क्रमात्तम्बालग्रामं गतः, तत्र पार्श्वसन्तानीयो बहुशिष्यपरि वृत्तो नन्दिषेणन्तमाचार्यः प्रतिमास्थितश्चौरभ्रान्त्या आरक्षकपुत्रेण भल्लया हतो जातावधिः स्वर्जगाम, शेषं च गोशालवचनादि मुनिचन्द्रवत्, ततः स्वामी कृषिकसन्निवेशं गतस्तत्र चारिकशङ्कया गृहीतः पार्श्वान्तेवा सिनीभ्यां परिवाजिकीभूताभ्यां विजयाप्रगल्भाभ्यां मोचितः, ततो गोशालः स्वामितः पृथग्भूतोऽन्यस्मिन् मार्गे गच्छन् पञ्चशतचोरैर्मातुल मातुल इति कृत्वा स्कन्धोपरि आरुह्य वाहितः खिन्नोऽचिन्तयत्-स्वामिनैव सार्द्ध वरं इति, स्वामिनं मार्गचितुं लग्नः, स्वाम्यपि वैशाल्यां गत्वाऽयस्कारशालायां प्रतिमया स्थितः, तत्र एकोऽयस्कारः षण्मासीं यावद्रोगी भूत्वा नीरोगः सनुपकरणान्यादाय शालायां आगतः, स्वामिनं निरीक्ष्य अमङ्गलमिति बुद्ध्या घनेन हन्तुमुद्यतोऽवधिना ज्ञात्वा आगत्य शक्रेण तेनैव घनेन हतः । ततः स्वामी ग्रामाकसन्नि| वेशं गतः, तत्रोद्याने विभेलकयक्षो महिमानं चक्रे ततः शालिशीर्ष ग्रामे उद्याने प्रतिमास्थस्य स्वामिनो माघमासे त्रिष्टष्ठभवापमानिता अन्तःपुरी मृत्वा व्यन्तरीभूता तापसीरूपं कृत्वा जलभृतजटाभिरन्यदुस्सहं शीतोपसर्ग चक्रे, प्रभुं च निश्चलं विलोक्य उपशान्ता स्तुतिं चकार, प्रभोश्च तं सहमानस्य षष्ठेन तपसा विशुड्यमानस्य लोकावधिरुत्पन्नः । ततः स्वामी भद्रिकायां पष्ठवर्षासु (६) चतुर्मासतपो विविधानेभिग्रहांश्च अकरोत्, For Pride & Personal Use On ~ 225 ~ चौरयोः अयस्कार स्य व्यन्त योवोपसगोः पञ्चमी पटी च चतुर्मासी १० १४ janelbary.org Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| ॥१०॥ कल्प सबो-तत्र पुनः षण्मासान्ते गोशालो मिलितः, ततः स्वामी बहिः पारयित्वा ऋतुबद्धे मगधावनौ निरुपसर्गो विह-सप्तम्यष्टमीव्या०६ तवान् , तत आलम्भिकायां सप्तमवर्षासु (७) चतुर्मासक्षपणेन स्थित्वा बहिः पारयित्वा च कुण्डगसन्निवेशे नवम्यश्चतु वासुदेवचैत्ये स्वामी प्रतिमया स्थितः, गोशालोऽपि वासुदेवप्रतिमायाः परामुखोऽधिष्ठानं मुखे कृत्वा तस्थौ,मास्यः तिकुहितश्च लोक, ततो मईनग्रामे बलदेवचैये स्वामी प्रतिमया स्थितः, गोशालो बलदेवमुखे मेहनं कृत्वालजीवोत्पतस्थौ, ततो लोकैः कुट्टितश्च, द्वयोरपि स्थानयोमुनिरिति कृत्वा मुक्तः, ततःक्रमात्प्रभु: उन्नागसंनिवेशे गतः, तत्र मार्गे संमुखागच्छद्दन्तुरवधूवरौ मङ्गुलिना हसितौ, यथा-तत्तिल्लो विहिराया जणे विदूरेऽवि जो जहिं | वसइ । जं जस्स होइ जुग्गं तं तस्स बिइज्जयं देइ ॥१॥ ततस्तैः कुद्दयित्वा वंशजाल्यां प्रक्षिप्तः स्वामिच्छ धरत्वात् मुक्तश्च, ततः स्वामी गोभूमिं ययौ, ततो राजगृहेऽष्टमं वर्षोरात्रं (८) अकरोत् चातुर्मासिकतपश्च, बहिः पारणांच कृत्वा ततो वज्रभूम्यां बहव उपसा इति कृत्वा नवमं वर्षारानं (९)तत्र कृतवान् चतुर्मासिक-18 तपश्च, अपरमपि मासद्वयं तत्रैव विहृतवान् , वसत्यभावाच नवमं वर्षारानं अनियतं अकार्षीत्, ततः कूर्मग्राम गच्छन् मार्गे तिलस्तम्ब दृष्टा अयं निष्पत्स्यते न बेति गोशालः प्रपृच्छ, ततः प्रभुणा सप्तापि तिलपुष्पजीवा मृत्वा एकस्यां शम्यायां तिला भविष्यन्तीति प्रोक्ते तदूचनं अन्यथा का तं स्तम्वं उल्पाच्य एकान्ते मुमोच,INI ॥१०॥ ततः सन्निहितव्यन्तरैमा प्रभुवचोऽन्यथा भवत्विति वृष्टिश्चक्रे, गोखुरेण च आर्द्रभूमी स तिलस्तम्ब: स्थिरीब-| १ विधिराजो वक्षो यत् विदूरेऽपि जने यस्मिन् यत्र बसति सति । यद् यस्य भवति योग्य तत्तस्य द्वितीयकं ददाति ॥१॥ दीप अनुक्रम [१२०१२२] कन्य ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| भूव, ततः प्रभुः कूर्मग्रामे गतः, तत्र च वैश्यायनतापसस्य आतापनाग्रहणाय मुत्कलमुक्तजटामध्ये यूकावाहु-गोशालरथा ल्यदर्शनात् गोशालो यूकाशय्यातर २इति तं वारं वारं हसितवान् , ततस्तेन क्रुद्धेन तेजोलेश्या मुक्ता, तां च तेजोलेश्योकृपारसाम्भोधिभगवान् शीतलेश्यया निवार्य गोशालं रक्षितवान, ततो मङ्खलिसूनुस्तस्य तापसस्य तेजो- | स्पादः लेइयां विलोक्य कमियमुत्पद्यते? इति भगवन्तं पृष्टवान्, भगवानपि अवश्यंभावितया भुजङ्गस्य पयःपा- दशमी नमिव तादृगनर्थकारणं अपि तेजोलेश्याविधि शिक्षितवान्, यथा आतापनापरस्य सदाषष्ठतपसः सनस्त्रकु-12 चतुर्मासी ल्माषपिण्डिकपा एकेन च उष्णोदकचुलुकेन पारणां कुर्वतः षण्मास्यन्ते तेजोलेझ्योत्पद्यते इति । ततः सिद्धार्थपुरे व्रजन् गोशालेन स तिलस्तम्बो न निष्पन्न इत्युक्ते स एष तिलस्तम्बो निष्पन्न इति प्रभुः प्रत्याह, गोशालोऽअहधत् तां तिलशम्बा विदार्य सप्त तिलान् दृष्टा त एव प्राणिनस्तस्मिन्नेव शरीरे पुनः परावृत्त्य समु. त्पद्यन्ते इति मतिं नियति च गाढीकृतवान् । ततः प्रभोः पृथग्भूय श्रावस्त्यां कुम्भकारशालायां स्थितो भगवदुक्तोपायेन तेजोलेइयां साधयित्वा त्यक्तवतश्रीपार्श्वनाथशिष्यात् अष्टाङ्गनिमित्तं चाधीत्याहङ्कारेण सर्वज्ञोऽहं १० इति रुपापयति स्म, यत्रोक्तं किरणावलीकारेण 'गोशालाय तेजोलेश्योपायः सिद्धार्थेनोक्त' हति तश्चिन्त्य, भगवतीसूत्रावश्यकचूर्णिहारिभद्रीवृत्तिहमवीरचरित्राद्यनेकग्रंथेषु भगवतोक्त इत्यभिधानात्, ततः स्वामी श्रावस्त्यां दशम वर्षारात्रं (१०)विचित्रंतपश्चाकरोदित्यायनुक्रमेण खामी बहुम्लेच्छां दृढभूमि गतः, तस्यां पहिः पेढालग्रामात् पोलासचेत्यैऽष्टमभक्तेन एकरात्रिकी प्रतिमा तस्थिवान्, । इतच सभागतः शक्रस्टैलोक्यजना दीप अनुक्रम [१२०१२२] SHAREicate ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||2,3|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] कल्प. सुबो व्या० ६ ॥१०५॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: अपि वीरचेतश्चालयितुं असमर्था इति प्रभोः प्रशंसां कृतवान् तत् श्रुत्वा च अमर्षेण सामानिकः सङ्गमाख्यः सुरः क्षणात्तं चालयामीति शक्रसमक्षं कृतप्रतिज्ञः शीघ्रं प्रभुसमीपं आगत्य प्रथमं धूलिवृष्टिं चकार यया पूर्णाक्षिकर्णादिविवरः खामी निरुच्छासोऽभूत् १ ततो वज्रतुण्ड पिपीलिकाभिञ्चालनीतुल्यश्चक्रे, ताचैकतः प्रविशन्ति अन्यतो निर्यान्ति २ तथा वज्रतुण्डा उद्देशाः ३ तीक्ष्णतुण्डा घृतेलिकाः ४ वृश्चिकाः ५ नकुलाः ६ सर्पाः ७ सूषकाञ्च ८ भक्षणादिना, तथा हस्तिनः ९ हस्तिन्यश्च १० शुण्डाघात चरणमर्द्दनादिना पिशाचोऽहाहहासादिना ११ व्याघ्रो दंष्ट्रानखविदारणादिना १२ ततः सिद्धार्थत्रिशले करुणाविलापादिना १३ उपसर्गयन्ति, ततः स्कन्धावारविकुर्वणा, तत्र च जनाः प्रभुचरणयोर्मध्येऽग्नि प्रज्वाल्य स्थालीमुपस्थाप्य पचन्ति १४ ततचण्डालास्तीक्ष्णतुण्डशकुनिपञ्जराणि प्रभोः कर्णबाहुमूलादिषु लम्बयन्ति ते च मुखैर्भक्षयन्ति १५ ततः खरवातः पर्वतानपि कम्पयन् प्रभुं उत्क्षिप्य उत्क्षिप्य पातयति १६ ततः कलिकावातचक्रवद् भ्रमयति १७ ततो येन मुक्तेन मेरुचूलापि चूर्णीस्यास्तादृशं सहस्रभारप्रमाणं चक्रं मुक्तं, तेन प्रभुराजानु भूमौ निमग्नः १८ ततः प्रभातं विकृत्य वक्ति-देवार्य! अद्यापि किं तिष्ठसि !, स्वामी ज्ञानेन रात्रिं वेत्ति (१९) ततो देवद्धि विकुर्व्य वृणीष्व महर्षे ! येन तव स्वर्गेण मोक्षेण वा प्रयोजनं, तथापि अक्षुब्धं देवाङ्गनाहावभावादिभिः उपसगन्ति २०, एवं एकस्यां रात्री विंशत्या उपसर्गैस्तेन कृतैः मनागपि न चलितः स्वामी, अत्र कविः-बलं जगध्ध्वंसनरक्षणक्षमं, कृपा च सा सङ्गमके कृताऽऽगसि । इतीव सञ्चिन्त्य विमुच्य मानसं : रुषेव रोषस्तव नाथ ! निर्ययौ Ja Education in ••• अथ संगमदेव कृत् उपसर्गाणां वर्णनं For Pride & Personal Use Only ~228~ संगमोपसर्गाः २० २५ ॥१०५॥ २८ Olleryog Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा || 8,3|| दीप अनुक्रम [१२० १२२] Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ॥ १ ॥ ततः षण्मासीं यावत् अनेपणीयाहारसम्पादनादीन् तत्कृतान् नानाप्रकारान् उपसर्गान् संहमानो भगवान्निराहार एव षण्मास्या स गतो भविष्यतीति विचिन्त्य यावद् व्रजग्रामगोकुले गोचर्यायां प्रविष्टस्तावतत्रापि तत्कृतां अनेषणां विज्ञाय तथैवागत्य बहिः प्रतिमया तंस्थो, ततः स सुराधमः कथमपि अस्खलितं विशुद्धपरिणामं जगदीश्वरं अवधिना विज्ञाय विषण्णमानसोऽपि शक्रभियाऽभिवन्द्य सौधर्मं प्रति चचाल । स्वामी च तत्रैव गोकुले हिण्डन् वत्सपाल्पा स्थविरया परमान्नेन प्रतिलाभितो, वसुधारा च निपतिता, इत तावन्तं कालं यावत् सर्वे सौधर्मवासिनो देवा देव्यश्च निरानन्दा निरुत्साहास्तस्थुः शक्रोऽपि वर्जितगीतनाट्य एतावतां उपसर्गाणां हेतुर्मत्कृता प्रशंसैवेति महादुःखाक्रान्तचित्तः करकमलविन्यस्तमुखो दीनदृष्टिर्विमनस्कस्तस्थौ, ततश्च भ्रष्टप्रतिज्ञं श्याममुखं आगच्छन्तं तं सुराधमं निरीक्ष्य शक्रः पराङ्मुखीभूय सुरानित्यूचेहंहो सुरा ! असौ कर्मचण्डालः पापात्मा समागच्छति, अस्य दर्शनं अपि महापापाय भवति, अनेनास्माकं बहु अपराद्धं, यदनेनास्मदीयः खामी कदर्थितः, अयं पापात्मा यथा अस्पत्तो न भीतस्तथा पातकादपि न भीतः, तदपवित्रोऽसौ दुरात्मा शीघ्रं स्वर्गान्निर्वास्यतां, इत्यादिष्टैः शक्रं सुभदैर्निर्दयं यष्टिमुष्ट्यादिभिस्ताड्यमानः साङ्गुलिमोटनं कृतान् सुरीणां आक्रोशान् सहमानचौर इव साशङ्क इतस्ततो विलोकयन् निर्वाणाङ्गार इव निस्तेजा निषिद्धांखिलपरिवार एकाकी अलर्कश्वेव देवलोकांन्निष्कासितो मन्दरचूलायां एकसागरावशेषं For Pride & Personal Use On ~ 229~ संगमक निवासिनं ५ १३ janelbary.org Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| कल्प.सबो- आयुः समापयिष्यति, तस्याग्रमहिष्यश्च दीनामनाः शक्राज्ञया खभर्तारं अनुजग्मुः । ततः खामिन-2 एकादशी व्या०६मालम्भिकायां हरिकान्तः, श्वेताम्बिकायां हरिस्सहश्च विद्युत्कुमारेन्द्रौ प्रियं प्रष्टुं एतौ, ततः श्राव-12 चतुर्मासी स्त्यां शक्रः स्कन्दप्रतिमायामवतीर्य स्वामिनं वन्दितवान् , ततो महती महिमप्रवृत्तिः, ततः कौशाम्ब्यां सातप्रश्नो॥१०॥ चन्द्रसूर्यावतरणं, वाणारस्यां शक्रो - राजगृहे ईशानो मिथिलायां जनको राजा धरणेन्द्रश्च प्रिय ऽभिग्रह पृच्छन्ति स्म, ततो वैशाल्यां एकादशो वर्षारात्रो (११) ऽभूत्, तत्र भूतः प्रियं पृच्छति, ततः सुसुमारपुरं गतस्तत्र चमरोल्पातः । ततः क्रमेण कौशाम्यां गतस्तत्र शतानीको राजा मृगावती देवी विजया प्रतिहारी| वादीनामा धर्मपाठक सुगुप्तोऽमात्यस्तद्भायो नन्दा सा च श्राविका मृगावस्याः वयस्या, तत्र प्रभुणा पोषबहुलप्रतिपदि अभिग्रहो जगृहे, यथा-व्यतः कुल्माषान् सूर्पकोणस्थान् क्षेत्रतः एक पादे देहण्या अन्तः एक पादं बहिश्च कृत्वा स्थिता कालतो निवृत्तेषु भिक्षाचरेषु,भावतो राजसुता दासत्वं प्राप्ता मुण्डितमस्तका निगडितचरणा रुदती अष्टमभक्तिका चेद्दास्यति तदा गृहीष्यामि, इलैभिगृह्य प्रत्यहं भिक्षायै भ्राम्यति, अमात्यादयोऽनेकानुपायान् कुर्वन्ति न त्वभिग्रहः पूर्यते, तदा च शतानीकेन चम्पा भन्ना, तत्र च दधिवाहनभूपभार्या धारिणी तत्पुत्री च वसुमती द्वे अपि केनचित् पदातिना बन्दितया गृहीते, तत्र च धारिणी त्वां भायां | करिष्यामीति पत्तिवार्तया जिहाचर्वणेन मृता, ततो वसुमती पुत्रीति समाश्वास्य कौशाम्यां आनीय चतु-IN॥१०६॥ पथे विक्रेतुं स्थापिता, तत्र धनावहश्रेष्ठिना गृहीत्वा चन्दनेति कृताभिधाना पुत्रीत्वेन स्थापिताऽतीव प्रिया ।। दीप अनुक्रम [१२०१२२]] INUnusbanvaro SANEducation ... भगवंत महावीरेण कृत विशिष्ट अभिग्रहः एवं चन्दनबालाया: कथानक ~230~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| च, एकदा च खपादौ प्रक्षालयन्त्यास्तस्याः श्रेष्ठिना खयं गृहीतां भूलुठवेणी निरीक्ष्य मूलानाम्नी श्रेष्ठिपत्नीचन्दनादागृहखामिनी तु इयमेव युवतिर्भाविनी अहं निर्माल्यमाया इति विषण्णचित्ता तां शिरोमुण्डननिगडक्षेपणपूर्वन कटशलायन्त्रमध्ये निरुद्धय कापि गता, श्रेष्ठयपि कथमपि चतुर्थे दिने तच्छुद्धि प्राप्य यन्त्रं उद्घाव्य तां तदवस्था कोपसगे: देहल्या संस्थाप्य सूर्पकोणे फुल्माषान् अपयित्वा निगडभङ्गार्थ लोहकाराकारणाय यावद्गतस्तावयदि कोऽपि |भिक्षुरागच्छेत्तर्हि दत्त्वा कुल्माषान भुझे इति चिन्तयन्त्यां तस्यां भगवान् समागतः, साऽपि प्रमुदिता गृहाणेदा प्रभो इति जगी, ततः स्वामी अभिग्रहे रोदनं न्यून निरीक्ष्य निवृत्तः, ततो वसुमती अहो अस्मिन्नवसरे भग-1 वानीगत्य किश्चिदपि अगृहीत्वा निवृत्त इति दुःखतो रुरोद, ततः पूर्णाभिग्रहः स्वामी कुल्माषान् अग्रहीत्, अत्र कविः-चंदना सा कथं नाम, बालेति प्रोच्यते बुधैः ? । मोक्षमादत्त कुल्माषैर्महावीरं प्रतार्य या ॥१॥ ततः पञ्च दिव्यानि जातानि शक्रः समागतः देवा नन्तुः केशाः शिरसि साताः निगडानि च नुपूराणि, ततो मातृखसुंदंगावत्या मिलनं, तत्र च सम्बन्धितया वसुधाराधनं आददानं शतानीकं निवार्य चन्दनाज्ञया | राधनावहाय धनं दवा बीरस्य प्रथमा साध्वी इयं भविष्यतीत्यभिधाय शक्रस्तिरोदधे । ततः क्रमेण जृम्भिका-IN IS ग्रामे शको नाट्यविधि दर्शयित्वा इयद्भिर्दिनानोत्पत्ति इत्यकथयत, ततो मेण्डिकग्रामे चमरेन्द्रः प्रियं पप्रच्छ, ततः षण्मानिग्रामे खामिनो पहिः प्रतिमास्थस्य पाचे गोपो वृषान् मुक्त्वा ग्राम प्रविष्टा, आगतश्च पृच्छति-1 हादेवायें ! व गता वृषभाः, भगवता च मौने कृते रुष्टेन तेन स्वामिकर्णयोः कटशलाके तथा क्षिप्ते यथा| दीप अनुक्रम [१२०१२२] ~231~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [१२० १२२] कल्प. सुबो व्या० ६ ॥१०७॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] मूलं [ ११८] / गाथा [१, २] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: परस्परं लग्नाग्रे, अग्रच्छेदनाच अदृश्याग्रे जाते, एतच कर्म शय्या पालकस्य कर्णयोस्त्रपुप्रक्षेपेण त्रिपृष्ठभवे उपार्जितं अभूत् उदितं च वीरभवे, शय्यापालको भवं भ्रान्त्वा अयमेव गोपः सञ्जातः, ततः प्रभुर्मध्यमापापायां गतः, तत्र प्रभुं सिद्धार्थवणिग्गेहे भिक्षार्थं आगतं निरीक्ष्य खरकवैद्यः स्वामिनं सशल्यं ज्ञातवान् पश्चात् स वणिक् तेन वैधेन सहोद्यानं गत्वा सण्डासकाभ्यां ते शलाके निर्गमयति स्म तदाकर्षणे च वीरेण आराटिस्तथा मुक्ता यथा सकलमपि उद्यानं महाभैरवं बभूव तत्र देवकुलमपि कारितं लोकें, प्रभुश्च संरोहिण्या औषध्या नीरोगो बभूव, वैद्यवणिजी स्वर्गं जग्मतुः गोपः सप्तमं नरकं, एवं चोपसर्गाः गोपेन आरब्धास्तेनैव निष्ठिता । एतेषां च जघन्य मध्यमोत्कृष्टविभाग एवं जघन्येषूत्कृष्टः कटपूतनाशीतं, मध्यमेषूत्कुष्टः कालचक्रं उत्कृष्टेषूत्कृष्टः कर्णफीलककर्षणं, इति उपसर्गाः । एतान् सर्वान् सम्यक् सहते इत्याद्युक्तमेव ॥ (तए णं समणे भगवं महावीरे ) यत एवं परीषहान् सहते ततः णं' वाक्यालङ्कारे श्रमणो भगवान् महावीरः ( अणगारे जाए ) अनगारो जातः, किंविशिष्टः ? ( इरिआसमिए ) ईर्ष्या - गमनागमनं तत्र समितः| सम्यक प्रवृत्तिमान् (भासासमिए) भाषा-भाषणं तत्र सम्पक प्रवृत्तिमान् (एसणासमिए) एषणायांद्विचत्वारिंशदोपवर्जित भिक्षाग्रहणे सम्यकप्रवृत्तिमान् ( आयाणभंडमत्तनिवेषणासमिए ) आदाने-ग्रहणे उपकरणादेरिति ज्ञेयं भाण्डमात्रायाः - वस्त्राद्युपकरणजातस्य यद्वा भाण्डस्य वखादेर्मृन्मयभाजनस्य वा मांत्रस्य च पात्रविशेषस्य यनिक्षेपणं-मोचनं च तत्र समितः प्रत्युपेक्ष्य प्रमाये मोचनात् ( उच्चारपासवणखेल ... केवलज्ञान प्राप्ति पूर्वे आत्मनः स्थिते: वर्णनं For Pride & Personal Use On ~232~ कीलकर्षण वीरसाधुस्वरूपं २० २५ ॥१०७॥ २८ janelbrary.org Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| सिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिए) उच्चार:-पुरी, प्रश्रवणं-मूत्रं खेलो-निष्ठीवनं सिङ्घानो-नासिकानिर्गतशवीरस्य साश्लेष्म, जल्लो-देहमलः एतेषां यत् परिष्ठापनं-स्यागस्तत्र समितः-सावधान:, शुद्धस्थण्डिले परिष्ठापनात्, धुत्वे वर्णनं एतच अन्स्यसमितिद्वयं भगवतो भाण्डसिचानायसम्भवेऽपि नामाखण्डनार्थमित्थं उक्तं, एवं (मणसमिए) मनसः सम्यक प्रवर्तकः (वयसमिए) वचसः सम्यक प्रवर्तकः (कायसमिए) कायस्य सम्यक प्रवर्तकः (मणगुप्से) अशुभपरिणामान्निवसेंकत्वात् मनसि गुप्तः (वयगुत्ते) एवं वचसि गुप्तः (कायगुत्ते) काये गुप्तः (गुत्ते गुत्तिदिए) अत एव गुप्तः, गुप्तानि इन्द्रियाणि यस्य स गुप्तेन्द्रियः (गुत्तर्वभयारी) गुप्त-वसत्यादिनववृत्तिविराजितं एवंविधं ब्रह्मचर्य चरतीति गुप्तब्रह्मचारी (अकोहे अमाणे अमाए अलोभे) क्रोधरहितः मानरहितः मायारहितः लोभरहितः (संते) शान्तोऽन्तवृत्त्या (पसंते) प्रशान्तो बहिवृत्त्या (उवसंते) उपशान्त:-अ-18 वन्तहिश्चोभयतः शान्तः, अत एच (परिनिब्बुडे) परिनिर्वृतः-सर्वसन्तापवर्जितः (अणासवे) अनाश्रवः-10 पापकर्मवन्धरहितः हिंसाचाश्रवद्वारविरतेः (अममे) ममत्वरहितः (अकिंचणे) अकिश्चन:, किचन-द्रव्यादि। तेन रहितः (छिन्नगंथे) छिन्न:-त्यक्तो हिरण्यादिग्रन्धो येन स तथा (निरुवलेवे) निरुपलेपो द्रव्यभावमला| पगमेन, तत्र द्रव्यमला शरीरसम्भवो,भावमला कर्मजनितः, अथ निरुपलेपत्वं दृष्टान्तैदृढयति-(कंसपाइव Kel मुक्कतोए) कांस्यपात्रीच मुक्तं तोयमिव तो-लेहो येन स तथा,यथा कांस्यपात्रं तोयेन न लिप्यते तथा भगवान् १ साधिकमासाधिका वर्षांदूर्व बखाद्यभावेऽपि करचरणादिपरावर्ते चतुर्थ्याः स्खण्डिलादिभावे धात्यायाः समितेः सद्भावः दीप अनुक्रम [१२०१२२] M MEDicatonirmire BIRelianobavala ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८] गाथा ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [१२० १२२] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: घ्या० ६ ॥ १०८ ॥ कल्प,सुवो- स्नेहेन न लीप्यते इत्यर्थः, तथा (संखो इव निरंजणे) शङ्ख इव निरञ्जनो, रञ्जनं - रागाद्युपरञ्जनं तेन शून्यत्वात् (जीवे इव अप्प टिपगई ) जीव इव अप्रतिहतगतिः, सर्वधा स्खलितविहारित्वात् (गगणमिव निरालंबणे) गगनमिव निरालम्बनः कस्याप्यांधारस्य अनपेक्षणात् (वाउन अपडिबढे) वायुरिव अप्रतिबद्धः, एकस्मिन् स्थाने कायेवस्थानाभावात् (सारयसलिलं व सुद्धहियए) शारदसलिलमिव शुद्धहृदयः कालुष्याकलङ्कितत्वात् (पुक्खरपतं व निरुवलेवे ) पुष्करपत्रं - कमलपत्रं तद्वन्निरुपलेपः, यथा कमलपत्रे जललेपो न लगति तथा भगवतोऽपि कर्मलेपो न लगतीत्यर्थः (कुम्मो इव गुतिदिए ) कर्म इव गुप्तेन्द्रियः ( खग्गिविसाणं व एगजाए ) खङ्गिविघाणमिव एकजातः, यथा खङ्गिनः श्वापदविशेषस्य विषाणं शृङ्गं एकं भवति तथा भगवानपि रागादिना सहायेन व रहितत्वात् (विहग इव विप्यमुक्के) विहग इव विप्रमुक्तः, मुक्तपरिकरत्वात् अनियत निवासाच्च (भारंडपक्खीव अप्पमन्ते ) भारण्डपक्षीव अप्रमत्तः, भारण्डपक्षिणोः किलैकं शरीरं, यतः- एकोदराः पृथगग्रीवास्त्रिपदा मर्त्यभाषिणः । भारण्डपक्षिणस्तेषां मृतिर्भिन्नफलेच्छया ॥ १ ॥ ते चात्यन्तं अप्रमत्ता एव जीवन्तीति तदुपमा (कुंजरो इव सोंडीरे ) कुञ्जर इव शौण्डीर, कर्मशत्रून् प्रति शूरः ( वस्त्रभो इव जायथामे ) वृषभ इव जातस्थामा - जातपराक्रमः, स्वीकृत महाव्रतभारोद्वहनं प्रति समर्थत्वात् ( सिंहो इब दुद्धरिसे) सिंह इव दुर्द्धर्षः, परीषदादिश्वापदैरजय्यत्वात् (मंदरो इव अप्पर्कपे) मन्दर इव - मेरुरिव अप्रकम्पः, उपसर्गवातैः अचलितत्वात् (सागरो इव गंभीरे ) सागर इव गम्भीरः, हर्षविषादादिकारण सद्भावेऽपि अवि Jan Education III For Pride & Personal Use O ~234~ वीरस्य सा धुत्वे वर्णनं. १५ २५ ॥१०८॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ॥१,२॥ दीप अनुक्रम [१२० १२२] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [६] मूलं [ ११८] / गाथा [१, २] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कृतस्वभावत्वात् (चंदो हव सोमलेसे) चन्द्र इव सौम्यलेश्यः, शान्तत्वात् (सूरो इव दिसते ) सूर्य इव दीप्ततेजाः, द्रव्यतो देहकान्त्या भावतो ज्ञानेन ( जचकणगं व जायरूवे ) जात्यकनकमिव जातं रूपं खरूपं यस्य स तथा यथा किल कनकं मलज्वलनेन दीसं भवति तथा भगवतोऽपि स्वरूपं कर्ममलविगमेन अतिदीसं अस्तीति भावः (वसुंधरा इव सबफासविसहे ) वसुन्धरा इव पृथ्वीव सर्वस्पर्शसहः, यथा हि पृथ्वी शीतोदादि सर्व समतया सहते तथा भगवानपि (सुहुअहुआसणे इव तेयसा जलते ) सुष्ठु हुतो - घृतादिभिः सिक्त एवंविधो यो हुताशन:-अग्निस्तद्वत्तेजसा ज्वलन् (नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थई पडिबंधे भवइ ) नास्त्यय पक्षो यत्तस्य भगवतः कुत्रापि प्रतिबन्धो भवति, तस्य भगवतः कुत्रापि प्रतिबन्धो नास्तीति भावः ( से य पडिवंधे चउविहे पण्णत्ते ) स च प्रतिबन्धः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः (तंजहा ) तद्यथा - ( दवओ खित्तओ कालओ भावओ) द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतश्च (दइओ सचित्ताचित्समीसिएस दवेसु) द्रव्यतस्तु प्रतिबन्धः सचित्तचित्तमिश्रितेषु द्रव्येषु, सचित्तं वनितादि अचित्तं आभरणादि मिश्रं संलिङ्कारवनितादि तेषु तथा | (खित्तओ गामे वा ) क्षेत्रतः कापि ग्रामे वा (नयरे वा) नगरे वा ( अरण्णे वा ) अरण्ये वा (खिसे वा) क्षेत्रं - धान्यनिष्पत्तिस्थानं तत्र वा (खले वा ) खलं - धान्यतुपपृथक्करणस्थानं तत्र वा ( घरे वा ) गृहे वा ( अंगणे ) अङ्गणं-गृहाग्रभागस्तंत्र वा (नहे वा ) नभः- आकाशं तत्र वा, तथा (कालओ समए घा) कालतः क.सु. १९ । समयः - सर्वसूक्ष्मकालः उत्पलपत्रशतवेधजीर्णपदृशाटिका पाटनाद्दिष्टान्तसाध्यतंत्र वा ( आवलियाए वा ) Jan Education Initions For Pide & Personal Use O ~235~ १० १४ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११८] / गाथा [१,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११८] गाथा ||१२|| कल्प सुपो- आवलिका-असङ्ख्यातसमयरूपा (आणपाणुए वा) आनमाणी-उच्चासनिःश्वासकाला (थोवे वा) स्तोक:व्या०६ सप्तोच्यासमानः (खणे वा)क्षणे-घटिकाषष्ठभागे वा (लवे वा) लवा-ससस्तोकमानः (मुहुत्ते वा) मुहर्त:-RI प्रतिबन्धा. ॥१०९॥ सप्तसमतिलवमानः (अहोरसे या पक्खे वा मासे वा उऊ वा अयणे वा संवच्छरे वा) अहोरात्रे वा पक्षे वा भाव: मासे वा कतौ वा अयने वा संवत्सरे वा (अण्णयरे वा दीहकालसंजोए) अन्यतरस्मिन् वा दीर्घकालसंयोगे-युगपूर्वाङ्गपूर्वादौ (भावओ) भावतः ( कोहे वा, माणे वा, मायाए वा, लोभे वा, भए वा, हासे पा) क्रोधे वा माने वा मायायां वा लोभे वा भये वा हास्ये वा (पिजे वा, दोसे वा, कलहे वा, अम्भक्खाणे वाार प्रेम्णि वा-रागे बा, द्वेषे-अप्रीती कलहे-वाग्युद्धे अभ्याख्याने-मिथ्याकलङ्कदाने (पेसुन्ने वा, परपरिवाए वा) पैशुन्ये-प्रच्छन्नं परदोषप्रकटने परपरिवादे-विप्रकीर्णपरकीयगुणदोषप्रकटने (अरहरई वा, मायामोसे वा) मोहनीयोदयाचित्तोद्वेगोऽरतिः, रतिः-मोहनीयोदयाचित्तप्रीतिस्तत्र, मायया युक्ता मृषा मायामृपा तत्र (मिच्छादसणसल्ले वा) मिध्यादर्शनं-मिथ्यात्वं तदेव अनेकदुःखहेतुत्वाच्छल्यं मिथ्यादर्शनशल्यं तत्र ISI(तस्स णं भगवंतस्स नो एवं भवइ) तस्य भगवतः एवं पूर्वोक्तस्वरूपेषु द्रव्य १क्षेत्र २ काल ३ भावेषु कुत्रापि प्रतिवन्धो नैवोस्तीति ॥ (१९८)॥ RI (से णं भगवं) स भगवान् ( वासावासं वज) वर्षावासः-चतुर्मासी तां वर्जयित्वा (अह गिम्हहे मंतिए मासे) अष्टौ ग्रीष्महेमन्तसम्बन्धिनो मासान् (गामे एगराइए) प्रामे एकरात्रिका-एकरात्रिवसनस्वभावः दीप अनुक्रम [१२०१२२] २८ ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [११९] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११९] गाथा ||२..|| (नगरे पंचराइए ) नगरे पश्चरात्रिका, पुनः किंवि०? (वासीचंदणसमाणकप्पे) वासी-सूत्रधारस्य काष्ठच्छेदनोपकरणं,चन्दन-प्रसिद्धं तयोर्द्वयोर्विषये समानसङ्कल्प:-तुल्याध्यवसाया, पुनः किंवि०? (समतिणमणिलेट्सकंचणे ) तृणादीनि-प्रतीतानि नवरं लेष्टुः-पाषाणः, समानि-तुल्यानि तृणमणिलेष्ठकाश्चनानि यस्य स तथा (सममुहदुक्खे ) समे सुखदुःखे यस्य स तथा (इहपरलोगअपडिबद्धे) इहलोके परलोके च अप्रतिवद्धा, अत एव (जीवियमरणे निरवकंखे) जीवितमरणयोर्विषये निरवकालो-वाञ्छारहितः (संसारपारगामी) संसारस्य पारगामी (कम्मसन्तुनिग्घायणट्ठाए) कर्मशत्रुनिघोंतनाथें (अन्भुडिए) अभ्युत्थितः-सोयमः। ( एवं च णं विहरह) एवं-अनेन क्रमेण स भगवान् विहरति-आस्ते ॥ (११९)॥ __ (तस्स णं भगवंतस्स) तस्य भगवतः (अणुत्तरेणं नाणेणं) अनुत्तरेण-अनुपमेन. ज्ञानेन (अणुत्तरेणं दंसणेणं) अनुपमेन दर्शनेन (अणुत्तरेणं चारित्तेणं) अनुपमेन चारित्रेणं (अणुत्तरेणं आलएणं) अनुपमेन आलयेनस्त्रीषण्ढादिरहितवसतिसेवनेन (अणुत्तरेण विहारणं) अनुपमेन विहारेण-देशादिषु भ्रमणेन (अणुत्तरेणं वीरिएणं) अनुपमेन वीर्येण-पराक्रमेण (अणुत्तरेणं अजवेणं) अनुपमेन आर्जवं-मायाया अभावस्तेन (अणुत्तरेणं मद्दवेणं) अनुपमेन माईवं-मानाभावस्तेन (अणुत्तरेणं लाघवेणं) अनुपमेन लाघवं-द्रव्यतः18 अल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्रयत्यागस्तेन (अणुत्तराए खंतीए) अनुपमया क्षान्त्या-क्रोधाभावेन (अणुत्तराए मुत्तीए) अनुपमया मुक्त्या-लोभाभावेन (अणुत्तराए गुत्तीए) अनुपमया गुप्त्या-मनोगुप्त्यादिकया दीप अनुक्रम [१२४] ~237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [ १२० ] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१२५] कल्प. सुवोव्या० ६ ६ ॥११०॥ Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [६] मूलं [१२०] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: (अणुत्तराए तुडीए) अनुपमया तुष्ट्या - मनःप्रसस्या ( अणुत्तरेणं सबसंजमतवसुचरियन्ति ) अनुपमेन सत्यं संयमः - प्राणिदया, तपो- द्वादशप्रकारं एतेषां यत्सुचरितं सदाचरणं तेन कृत्वा ( सोवचियफलनिवाणमग्गेणं) सोपचयं-पुष्ट, फलं - मुक्तिलक्षणं यस्य एवंविधो यः परिनिर्वाणमार्गो-रत्नत्रयरूपस्तेन, तदेवं उक्तेन सर्वगुणसमूहेन ( अप्पाणं भावेमाणस्स ) आत्मानं भावयतो (दुवालस संवछराई विइयंताई ) द्वादश संवत्सरा व्यतिक्रान्ताः, ते चैवं- एकं पण्मासक्षपणं ६, द्वितीयं षण्मासक्षपणं पञ्चदिनन्यूनं ११-२५, नव चतुर्मासक्ष पणानि ४७-२५, द्वे त्रिमासक्षपणे ५३-२५, वे साईद्विमासक्षपणे २८-२५ षट् द्विमासक्षपणानि ७०-२५ वे साकमा सक्षपणे ७३.२५, द्वादश १२ मासक्षपणानि ८५-२५, बासमति: ७२ पक्षक्षपणानि १२१-२५, भद्रपु तिमा दिनद्वयमाना महाभद्रप्रतिमा दिनचतुष्क माना सर्वतोभद्रप्रतिमा दशदिनमाना १२२-११ एकोनत्रिंशदधिकं शतद्वयं षष्ठाः १३७-१९ द्वादश अष्टमाः १३८-२५, एकोनपञ्चाशदधिकं शतत्रयं पारणानां १५०-१४ दीक्षादिनं १५०-१५ ततखेदं जातं वारस चैव य वासा मासा छ चैव अद्धमासं च। वीरवरस्स भगवओ एसो छउमत्थपरिआओ ॥ १ ॥ इदं च सर्वं तपो भगवता निर्जलमेव कृतं, न कदापि च नित्यभक्तं चतुर्थभक्तं च कृतं, एवं च (तेरसमस्स संवच्छरस्स) त्रयोदशस्य संवत्सरस्य ( अंतरा वट्टमाणस्स ) अन्तरा-मध्ये वर्त्तमानस्य ( जे से गिम्हाणं ) योऽसौ ग्रीष्मकालस्य (दुचे मासे चउत्थे पक्खे) द्वितीयो मासः चतुर्थः पक्षः ( वइसाहसुद्धे १ द्वादशैव च वर्षाणि मासाः षडेव अर्धमासश्च । वीरवरस्य भगवतः एप छद्मस्थपर्यायः ॥ १ ॥ •••• भगवंत महावीर कृत तपसः वर्णनं For Pile & Personal Use Only ~238~ श्रीवीरबिहाररीति, द्वादशवर्षी तपः केवलं चसू. ११९१२० २० २५ ॥११०॥ २७ janelbary.org Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२०] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२०] गाथा ||२..|| वैशाखशुक्लपक्षः (तस्स णं वेसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं) तस्य वैशाखशुद्धस्य दशमी दिवसे (पाईणगामि-11 पीए छायाए) पूर्वगामिन्यां छायायां सत्यां (पोरिसीए अभिनिविदाए) पाश्चात्यपौरुष्यां अभिनिवृत्तायांजातायां सत्यां, कीदृशायां ? (पमाणपत्ताए) प्रमाणप्राप्तायां, न तु न्यूनाधिकायां (सुवएणं दिवसेणं)। सुव्रतनामके दिवसे (विजएणं मुहुत्तेणं) विजयनाम्नि मुहूर्त (जंभियगामस्स नगरस्स बहिया) जृम्भिकग्रामनामकस्य नगरस्य बहिस्तात् (उज्जुवालुयाए नईए तीरे) ऋजुवालुकाया नद्याः तीरे (वेयावत्तस्य चेइयस्स) व्यावृत्तं नाम जीर्ण एवंविधं यच्चैत्यं-व्यन्तरायतनं तस्य (अदूरसामंते) नातिदूरे नातिसमीपे इत्यर्थः (सामागस्स गाहावहस्स) श्यामाकस्य गृहपतेः-कौटुम्बिकस्य (कट्ठकरणंसि) क्षेत्रे (सालपायवस्स अहे) सालपादपस्य अधोश (गोदोहियाए ) गोदोहिकया ( उक्कुडियनिसिजाए) उत्कटिकया निषद्यया (आयावणाए आयावेमा-II णस्स) आतापनया आतापयतः प्रभोः (ण्डेणं भत्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन जलरहितेन (हत्थुत्तराहिं नक्खसेणं जोगमुवागएणं ) उत्सराफल्गुनीनक्षत्रे चन्द्रेण योगं उपागते सति (शाणतरियाए वद्दमाणस्स) ध्यानस्य अन्तरे-मध्यभागे वर्तमानस्य, कोऽर्थः-शुक्लध्यानं चतुर्धा-पृथक्त्ववितर्क सविचारं १ एकत्ववितक अविचार २ सूक्ष्मक्रियं अप्रतिपाति ३ उच्छिन्नक्रियं अनिवर्ति ४, एतेषां मध्ये आयभेदद्वये ध्याते इत्यर्थः (अर्णते) अनन्तवस्तुविषये (अणुत्तरे) अनुपमे (निवाघाए) निर्व्याघाते-भित्त्यादिभिरस्खलिते (निराव- १३ दीप अनुक्रम [१२५] .. भगवंत महावीरस्य केवलज्ञान-कल्याणक-वर्णनं ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प-सुनो- केवलज्ञान म्या फिलम [१२१] गाथा ||२..|| ॥११॥ रणे) समस्तावरणरहिते (कसिणे ) समस्ते (पडिपुषणे ) सर्वावयवोपेते (केबलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने ) एवंविधे केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने । (१२०) । । (तए णं समणे भगवं महावीरे ) ततो-ज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं श्रमणो भगवान महावीरः (अरहा जाए) अर्हन् जात:-अशोकादिमातिहार्यपूजायोग्यो जातः, पुनः कीदृशः? (जिणे केवली सबन्नू सबदरिसी) जिनो-रागद्वेषजेता केवली सर्वज्ञ सर्वदशी ( सदेवमणुआसुरस्स लोगस्स) देवमनुजासुरसहितस्य लोकस्य (परियायं जाणइ पासइ) पर्यायं इत्यत्र जातावेकवचनं, ततः पर्यायान् जानाति पश्यति च-साक्षात् करोति, तर्हि किं देवमनुजासुराणां एव पर्यायमानं एव जानातीत्याह-(सबलोए सबजीवाणं) सर्वलोके सर्वजीवानां (आगई गई ठिई चवणं उववार्य ) आगतिं भवान्तरात्, गतिं च भवान्तरे, स्थिति-तद्भवसत्कं आयुः,कायस्थिति वा, च्यवन-देवलोकात्तिर्यग्नरेषु अवतरणं, उपपातो-देवलोके नरकेषु वोत्पत्तिः (तकं मणो) तेषां सर्वजीवानां सम्बन्धि तत्कं ईदृशं यन्मनः (माणसियं) मानसिकं-मनसि चिन्तितं ( भुत्तं) भुक्तं, अशनफलादि (कडं) कृतं, चौर्यादि (पडिसेवियं) प्रतिसेवितं, मैथुनादि (आविकम्म) आविश्कर्म-प्रकटकृतं ( रहोकम्मं ) रहाकर्म-प्रच्छन्नं कृतं, एतत् सर्व सर्वजीवानां भगवान जानातीति योजना, पुनः किंवि० प्रभुः (अरहा) न विद्यते रह:-प्रच्छन्नं यस्य, त्रिभुवनस्य करामलकवदू दृष्टत्वात् , अरहा। (अरहस्सभागी) दीप अनुक्रम [१२६] seeeperseiseservercedeoes ॥११॥ JAMEducatonirmation ~240~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| रहस्य-एकान्तं तन्न भजते इति अरहस्यभागी, जघन्यतोऽपि कोटीसुरसेव्यत्वात् (तं तं कालं मणवयकायजोगे)तस्मिन् तस्मिन् काले मनोवचनकाययोगेषु यथाहै ( वट्टमाणाणं) वर्तमानानां (सबलोए सबजीवाणं) सर्वलोके सर्वजीवानां (सवभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ ) सर्वभावान-पर्यायान जानन् पश्यंश्च विह-18 रति, 'सबजीवाणं' इत्यत्र अकारप्रश्लेषात् सर्वाजीवानां-धर्मास्तिकायादीनामपि सर्वपर्यायान जानन8) पश्यंश्च विहरतीति व्याख्येयम् ॥ (१२१)॥ इतश्च तस्मिन्नवसरे मिलितेषु सुरासुरेषु स्थले वृष्टिमिव निष्फलां देशनांक्षणं दत्त्वा प्रभुः अपापापुर्या महासेनवने जगाम, तन्त्र च यज्ञ कारयतः सोमिलविप्रस्य गृहे बहवो ब्राह्मणाः मिलिताः सन्ति, तेषु च इन्द्रभूति१-18 अग्निभूति २ वायुभूति ३ नामानस्त्रयः सहोदराश्चतुर्दश विद्याविशारदाः क्रमेण जीव १ कर्म २ तज्जीवतच्छ-18 शरीर ३ सन्देहवन्तः पञ्चशतपरिवाराः सन्ति, एवं व्यक्तः ४ सुधर्मा ५ चेति द्वौ द्विजौ तावत्परिवारौ तथैव विद्वांसी,क्रमात् पञ्च भूतानि सन्ति न वेति ४ यो यादृशः स तादृशः ५ इति च सन्देहवन्ती, तादृशौ एव च मण्डित ६ मौर्यपुत्र ७ नामानी बान्धवो सार्वत्रिशतपरिवारौ क्रमात् बन्ध ६ देव-18 विषयकसन्देहवन्ती, तथा अकम्पितो ८ऽचलभाता ९मेतार्यः १० प्रभास ११ श्चेति चत्वारो द्विजाः प्रत्येकं त्रिशतपरिवारः क्रमेण नैरयिक ८ पुण्य ९ परलोक १० मोक्ष ११ सन्देहभाजस्तोगताः सन्ति, दीप अनुक्रम [१२६] secesesesea JABEnicatonir-by ... अथ गणधर-नाम-कर्म-बद्ध ११ महात्मानं शङ्का एवं समाधानं वर्णयते ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक कल्प.सबो व्या०६ [१२१] गाथा ||२..|| ॥११॥ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ । १० । गणधरा | नाम इन्द्रभूतिः अग्निभूतिः वायुभूतिः व्यक्तः सुधर्मा मण्डितः मौर्यपुत्रः अकम्पितः अचलभ्राता मेतार्यः प्रभासः तत्संशयापरिवार ५०० ५०० । ५०० ५०० ५०० । ३५० ३५० ३०० ३०० ३००-३०० शङ्का जीवः । कर्म तजीव भूतानि योयोदशः बन्धः देवः । नारकः । पुर्य, परलोकः मोक्षः दि यज्ञे द्वि जमेलापका ते चैकादशापि बिजा एकैकसन्देहसद्भावेऽपि सर्वज्ञत्वाभिमानक्षतिभयात् परस्परं न पृच्छन्ति, एवं एते तत्परिवारभूताश्च चतुश्चत्वारिंशच्छतानि द्विजाः अन्येऽपि उपाध्याय-शङ्कर ईश्वर शिवजी |जानी-गङ्गाधर महीधर भूधर लक्ष्मीधर पिण्ड्या-विष्णु मुकुन्द गोविन्द पुरुषोत्तम नारायण दुवे-17 श्रीपति उमापति विद्यापति गणपति जयदेव, व्यास-महादेव शिवदेव मूलदेव सुखदेव गङ्गापति गौरीपति त्रिवाडी-श्रीकण्ठ नीलकण्ठ हरिहर रामजी-बालकृष्ण यदुराम राम रामाचार्य राउल-मधुसूदन नरसिंह|| कमलाकर सोमेश्वर हरिशङ्कर त्रिकम जोसी-पूनो रामजी शिवराम देवराम गोविन्दराम रघुराम उदिराम इत्यादयो मिलिताः सन्ति । अत्रान्तरे च भगवन्नमस्याथै आगच्छतःसुरासुरान् विलोक्य ते चिन्तयन्ति-अहो! यज्ञस्य महिमा ! यदेते सुराः साक्षात्समागताः, अथ तान् यज्ञमण्डपं विहाय प्रभुपार्श्व च गच्छतो विज्ञाय २५ द्विजा विषेदुः, ततोऽमी सर्वशं वन्दितुं यान्तीति जनश्रुत्या श्रुत्वा इन्द्रभूतिः सामर्षश्चिन्तयामासिवान-अहो! ॥११॥ मयि सर्वज्ञे सत्यपि अपरोऽपि सर्वज्ञं खं ख्यापपति, दुःश्रवं एतस्कर्णकटु कथं नाम श्रूयते !, किञ्च-कदाचित् | २७ दीप अनुक्रम [१२६] JABEducatonirail ~242~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१२६] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [६] मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कोऽपि मूर्खः केनचिद्धर्तेन वञ्च्यते, अनेन तु सुरा अपि वञ्चिताः, यदेवं यज्ञमण्डपं मां सर्वज्ञं च विहाय तत्समीपं गच्छन्ति । अहो ! सुराः कथं भ्रान्तास्तीर्थाम्भ इव वायसाः । कमलाकर वका, मक्षिकाञ्चन्दनं यथा ॥ १ ॥ करभा इव सद्वृक्षान, क्षीरानं शूकरा इव । अर्कस्थालोकवद घूकास्त्यक्त्वा यागं प्रयान्ति यत् ॥ २ ॥ अथवा यादृशोऽयं सर्वज्ञस्तादृशा एवैते अनुरूप एवं संयोगः, यतः - पश्यानुरूपमिन्दिदिरेण माकन्दशेखरो मुखरः । अपिच पिचुमन्दमुकुले, मौकुलिकुलमाकुलं मिलति ॥ १ ॥ तथापि नाहं एतस्य सर्वज्ञाटोपं सहे, यतः योनि सूर्यद्वयं किं स्याद, गुहायां केसरिद्वयम् । प्रत्याकारे च खङ्गौ द्वौ किं सर्वज्ञावहं स च १ ॥ १ ॥ ततो भगवन्तं वन्दित्वा प्रतिनिवर्त्तमानान् सोपहासं जनान् पप्रच्छ-भो ! भो ! दृष्टः स सर्वज्ञः ? कीदृग्ररूपः १ किंखरूपः । इति, जनैस्तु-यदि त्रिलोकीगणनापरा स्यात्, तस्याः समाप्तिर्यदि नायुषः स्यात् । पारेपरार्ध्य गणितं यदि स्थात्, गणेय निःशेषगुणोऽपि स स्यात् ॥ १ ॥ इत्यायुक्ते सति स दुध्यो- नूनमेष महाघूत्तों, मायायाः कुलमंदिरम् । कथं लोकः समस्तोऽपि विभ्रमे पातितोऽमुना १ ॥ २ ॥ न क्षमे क्षणमात्रं तु तं सर्वज्ञ कदाचन । तमः स्तोममपाकर्तु सूर्यो नैव प्रतीक्षते ॥ ३ ॥ वैश्वानरः करस्पर्श, केसरोल्लंघनं हरिः । क्षत्रियश्च रिपुक्षेपं न सहते कदाचन ॥ ४ ॥ मया हि येन वादींद्रास्तूष्णीं संस्थापिताः समे । गेहेशूरतरः कोऽसौ, | सर्वज्ञो मत्पुरो भवेत् ? ॥ ५ ॥ शैला येनाग्निना दग्धाः पुरः के तस्य पादपाः । उत्पाटिता गजा येन, का वायोस्तस्य पुंभिकाः ? ॥ ६ ॥ किंच-गना गौडदेशोद्भवा दूरदेशं भयाजर्जरा गौर्जरात्रासमीयुः । मृता For Pride & Personal Use O ~243~ १० १४ janelbary.org Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक व्या०६ [१२१] गाथा ||२..|| ॥११३॥ ecccecenecksececes मालवीयास्तिलांगास्तिलंगोद्भवा जज्ञिरे पंडिता मद्भयेन ॥ ७॥ अरे लाटजाताः क याताः प्रणष्टाः, पटिष्टा अपि द्राविडा वीडयोः । अहो वादिलिप्साऽऽतुरे मय्यमुष्मिन् , जगत्युत्कटं वादिदुर्भिक्षमेतत् ॥ ८॥ तस्य मर्माग्रे कोऽसौ,वादी सर्वज्ञमानमुदहति ? । इति तत्र गंतुमुत्कं, तमग्निभूतिर्जगादेवं ॥९॥ किं तत्र वादिकीटे,तव प्रयासेन ? यामि बंधोऽहम् । कमलोन्मूलनहेतोंर्नेतव्यः किं सुरेंद्रगजः? ॥१०॥ अकथयदथेंद्रभू-13 तियद्यपि मच्छात्रजय्य एवासी । तदपि प्रवादिनाम श्रुत्वा स्थातुं न शक्नोमि ॥ ११॥ पीलयतस्तिलः कश्चित.. दलतश्च यथा कणः । सूड़यतस्तृणं किंचिदंगस्तेः पिबतः सरः॥१२॥ मर्दयतस्तुपः कोऽपि, तद्वदेष ममा-1 भवत् । तथापि सासहिने दि, सुधा सर्वज्ञवादिनम् ॥१३॥ एकस्मिनजिते हास्मिन, सर्वमप्यजितं भवेत् । एकदा हि सती लुप्सशीला स्थादसती सदा ॥ १४ ॥ चित्रं चैव ब्रिजगति, सहस्रशो निर्जिते मया वादैः।। क्षिप्रचटस्थाल्यामिव कंकटुकोऽसौ स्थितो वादी ॥ १५॥ अस्मिन्नजिते सर्व जगज्जयोद्भूतमपि यशो नश्येत् ।। अल्पमपि शरीरस्थं शल्यं प्राणान् वियोजयति ॥ १३ ॥ यतः-छिद्रे खल्पेऽपि पोतः किं, पाथोधी न निमजति ? । एकस्मिन्निष्टके कृष्टे, दुर्गः सर्वोऽपि पात्यते ॥ १७ ॥ इत्यादि विचिंत्य विरचितद्वादशतिलका खर्णय-13 ना २५ ज्ञोपवीतविभूषितः स्फारपीतांबराडंबर: कैश्चित्पुस्तकपाणिभिः कैश्चित्कमंडलुपाणिभिः कश्चिद्दर्भपाणिभिः सरखतीकंठाभरण वादिविजयलक्ष्मीशरण वादिमदगंजन वादिमुखभंजन वादिगजसिंह चादीश्वरलीह वादि-11 ॥११३॥ सिंहअष्टापद वादिविजयविशद वादिद्वंदभूमिपाल वादिशिर:काल वादिकदलीकृपाण वादितमोभान वादि दीप अनुक्रम [१२६] २८ ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| secenecesesesed गोधूमघरट्ट मर्दितवादिमर वादिघटमुद्गर वादिघूकभास्कर वादिसमुद्रागस्ते वादितरून्मूलनहस्तिन वावि-1] सुर सुरेंद्र वादिगरुडगोविंद वादिजनराजान वादिकंसकाहान वादिहरिणहरे,वादिज्वरधन्वंतरे वादियूधमल्ल वादिहदयशल्य वादिगणजीपक वादिशलभदीपक वादिचक्रचूडामणे पंडितशिरोमणे विजितानेकवाद सर-13 स्वतीलब्धप्रसाद इत्यादिविरुदबुंदमुखरितदिकच पंचभिः छात्रशतैः परिवृत इंद्रभूतिः वीरसमीपं गच्छश्चितयामास-अहो धृष्टेन अनेन किमेतत् कृतं ? यदेहं सर्वज्ञाटोपेन प्रकोपिता,यतः कृष्णसर्पस्य मंडूकश्चपेटां दातुमुखतः । आखू रदैश्च मार्जरदंष्ट्रापाताय सादरः॥१॥ वृषभः स्वर्गजं शृंगैः, प्रहां कांक्षति दुतम् । द्विपः पर्व-18 तपाताय, दंताभ्यां यतते रयात् ॥ २॥ शशक: केसरिस्कंधकेसरां ऋष्टमीहते । मददृष्टी यदेसी सर्ववित्वं ख्यापयते जने ॥३॥ शेषशीर्षमणि लातुं, हस्तः स्खीयः प्रसारितः । सर्वज्ञाटोपतोऽनेन, यदहं परिकोपितः। ॥४॥ समीराभिमुखस्थेन, दवाग्निज्वलितोऽमुना । कपिकच्छूलता देहे, सौख्यायालिंगिता ननु ॥५॥ भवतु, किमेतेन ?, अधुना निरुत्तरीकरोमि, यतः तावगर्जति खद्योतस्तावद्गर्जति चंद्रमाः। उदिते तु सहस्रांशी, न खद्योतो न चंद्रमाः॥६॥ सारंगमातंगतुरंगपूगः, पलाय्यतामाशु बनादमुष्मात् । साटोपकोपस्फुटकेसरश्रीसंगाधिराजोऽयमुपेयिवान् यत् ।। ७ ।। मम भाग्यभराद्यद्बा, वाद्ययं समुपस्थितः । अद्य तां रसना| कंडूमपनेष्ये विनिश्चितम् ॥ ८॥ लक्षणे मम दक्षत्वं, साहित्ये संहता मतिः। तर्के कर्कशताऽत्यर्थ, क शास्त्रे नास्ति मे श्रमः ? ॥९॥ यमस्य मालवो दूरे, किं स्यात्? को वा वचस्विनः। अपोषितो रसो? नूनं, किमजेयं च दीप अनुक्रम [१२६] बराट JABEnicationN nx ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| कल्प.सबो- चक्रिणः ॥१०॥ अभेद्यं किमु वज्रस्य, किमसाध्यं महात्मनाम् । क्षुधितस्य न किं खाणं, किं न वाच्यं श्रीवीरपार्थे व्या०६ खलस्य च? ॥११॥ कल्पणामदेयं किं, निर्विण्णानां किमत्यजम् । गच्छामि तर्हि तस्यांते, पश्याम्येतत्परा- गमनम् क्रमम् ॥ १२ ॥ तथा ममापि त्रैलोक्यजित्वरस्य महौजसः । अजेयं किमिवास्तीह, तद्गच्छामि जयाम्येमुम् | ॥११४॥ ॥१३॥ इत्यादि चिंतयन् प्रभुमवेक्ष्य सोपानसंस्थितो दध्यौ । किं ब्रह्मा किं विष्णुः, सदाशिव शंकरः किं वा? ॥ १४ ॥ चद्रः किं स न यत्कलंककलिता , सूर्योऽपि नो तीव्ररुक, मेरुः किं? न स यनितांतकठिनो, विष्णुः न यत् सोऽसितः । ब्रह्मा किं? न जरातुरः स च.जरांभीरुः ? न यत्सोऽतनु:, ज्ञातं दोषविवर्जिताखिलगुणाकीर्णोऽन्तिमस्तीर्थकृत् ॥१५॥ हेमसिंहासनासीनं, सुरराजनिषेवितम् । दृष्ट्वा वीरं जगत्पूज्यं, चिंतयामास चेतसि ।। १६॥ कथं मया महत्त्वं हा, रक्षणीयं पुरार्जितम् ? | प्रासादं कीलिकाहेतोभक्तुं को नाम वांछति ॥१७॥ एकेनाविजितेनापि, मानहानिस्तु का मम? | जगजैत्रस्य किं नाम, करिष्यामि च सांप्रतम् | M॥ १८ ॥ अविचारितकारित्वमहो मे मन्ददुर्द्धियः । जगदीशावतारं यत्, जेतुमेनं समागतः ॥ १९॥ अस्या ग्रेऽहं कथं वक्ष्ये ?, पार्वे यास्यामि या कथम् । संकटे पतितोऽस्मीति, शिवो रक्षतु मे यशः॥२०॥ कथंचि-IRI २५ दपि भाग्येन, चेगवेदन मे जयः। तदा पंडितमूर्द्धन्यो, भवामि भुवनत्रये ॥ २१॥ इत्यादि चिंतयन्नेव, सुधा- ॥११॥ मधुरया गिरा। आभाषितो जिनेंद्रेण, नामगोत्रोक्तिपूर्वकम् ॥ २२ ॥ हे गौतमेंद्रभूते! त्वं, सुखेनागतवानसि। इत्युक्तेऽचितयद्वेत्ति, नामापि किमसौ मम ? ॥ २३ ॥ जगत्रितयविख्यातं, को वा नाम न वेत्ति माम् ? । जन- २८ दीप अनुक्रम [१२६] ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| 18 स्याबालगोपालं, प्रच्छन्नः किं दिवाकरः ॥२४॥ प्रकाशयति गुप्तं चेत्, संदेहं मे मनःस्थितम् । तदा जानामि प्रथम सर्वज्ञमन्यथा तु न किंचन ॥ २५ ॥ चिंतयंतमिति प्रोचे, प्रभुः को जीवसंशयः । विभावयसि नो वेदपदार्थ || गणधरः शृणु तान्यध ॥ २६ ॥ समुद्रो मध्यमानः किं , गंगापूरोऽधवा किमु ? । आदिब्रह्मध्वनिः किंवा ?, वीरवेदध्व निर्वभौ ॥ २७ ॥ वेदपदानि च-विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञाs-|| मस्ती 'ति, स्वं तावत् एतेषां पदानां अर्थं एवं करोषि-यत् विज्ञानघनो-गमनागमनादिचेष्ठावान् आत्मा एते भ्यो भूतेभ्य:-पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशेभ्यः,समुत्थाय-प्रकटीभूय . मांगेपु मदशक्तिरिव, ततस्तानि-भूतान्येव अनु विनश्यति-तत्रैव विलयं पाति जले वुवुद इव, ततो भूतांतिरिक्तस्य आत्मनोऽभावात् न प्रेत्यसंज्ञास्ति-मृत्वा पुनर्जन्म नास्तीति, पर अयुक्तोऽयमथैः, शृणु तावदेतेषां अर्थ-विज्ञानघन इति कोऽर्थ:-विज्ञा-18 नघनो-ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकं विज्ञानं तन्मयत्वादात्माऽपि विज्ञानघनः, प्रतिप्रदेश अनंतज्ञानपर्यायात्मक वात्, स च विज्ञानघन:-उपयोगात्मक आत्मा, कथंचिद्भूतेभ्यस्तद्विकारेभ्यो वा घटादिभ्यः समुत्तिष्ठते-उत्पजायते इत्यथे।, घटादिज्ञानपरिणतो हि जीवो घटादिभ्य एव हेतुभूतेभ्यो भवति, घटादिज्ञानपरिणामस्य घटादि-13 वस्तुसापेक्षत्वात् , एवं च एतेभ्यो भूतेभ्यो-घटादिवस्तुभ्यस्तत्तदुपयोगतया जीवः समुत्थाय-समुत्पद्य तान्येव । अनु विनश्यति, कोऽर्थः ?-तस्मिन् घटादौ वस्तुनि नष्टे व्यवहिते वा जीवोऽपि तदुपयोगरूपतया नश्यति अन्योINपयोगरूपतया उत्पद्यते.सामान्यरूपतया वा अवतिष्ठते, ततश्च न प्रेत्यसंज्ञास्ति, कोऽर्थः ?-न प्राक्तनी घटायु-I दीप अनुक्रम [१२६] क.१.२० ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१२६] कल्प. सुबो व्या० ६ ॥११५॥ Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१२१] / गाथा [२...] ........... व्याख्यान [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: पयोगरूपा संज्ञा अवतिष्ठते, वर्त्तमानोपयोगेन तस्या नाशितत्वादिति, अपरं च स वै अयं आत्मा ज्ञानमय इत्यादि, तथा ददद, कोऽर्थः ? -दमो दानं दया इति दकारत्रयं यो वेत्ति स जीवः, किं च विद्यमान भोक्तृकं इदं शरीरं, भोग्यत्वात्, ओदनादिवत् इत्याद्यनुमानेनापि, तथा क्षीरे घृतं तिले तैलं, काष्ठेऽग्निः सौरभं सुमे । चंद्रकांते सुधा यद्वत्, तथाऽऽत्माऽगगतः पृथक् ॥ १ ॥ एवं च प्रभुवचनैः छिन्नसंदेह: श्रीइंद्रभूतिः पंचशतपरिवारः प्रव्रजितः, तत्क्षणाच 'उपन्ने वा (१) विगमेइ वा ( २ ) धुवे वा (३) इति प्रभुवदनात्रिपदीं प्राप्य द्वादशांगीं रचितवान् । इति प्रथमगणधरः १ ॥ तं च प्रत्रजितं श्रुत्वा दध्यौ तबान्धवोऽपरः । अपि जातु द्रवेदद्रिर्हिमानी प्रज्वलेदपि ॥ १ ॥ वह्निः शीतः स्थिरो वायुः, संभवेन्न तु बांधवः । हारयेदिति पप्रच्छ, लोकानंश्रद्दधद् भृशम् ॥ २ ॥ ततश्च निश्चये जाते, चिंतयामास चेतसि । गत्वा जित्वा च तं धूर्त्त, वालयामि सहोदरम् ॥ ३ ॥ सोऽप्येवमागतः शीघ्रं, प्रभुणाऽऽभाषितस्तथा । संदेहं तस्य चित्तस्थं, व्यक्तीकृत्यावदद्विभुः ॥ ४ ॥ हे गौतमग्निभूते ! कः, संदेहस्तव कर्मण: ? । कथं वा वेदतत्त्वार्थं, विभावयसि न स्फुटम् ॥ ५ ॥ स चायं - पुरुष एवेदं ग्निं सर्व युद्धतं यच भाव्यं इत्यादि, तत्र 'ग्निं ' इति वाक्यालङ्कारे यद् भूतं अतीतकाले यच्च भाव्यं भाविकाले तत् सर्व इदं पुरुष एव - आत्मैव, एवकारः कर्मेश्वरादिनिषेधार्थः, अनेन वचनेन यन्नरामरतिर्यक्र पर्वतपृध्यादिकं वस्तु दृश्यते तत्सर्वं आत्मैव, ततः कर्मनिषेधः स्फुट एव, किंच-अमूर्त्तस्य आत्मनो मूर्त्तेन कर्मणा अनुग्रह उपघातश्च कथं भवति ?, यथा For File & Personal Use Only ~248~ द्वितीय गणधर : २० २५ ॥११५॥ २८ Tirajnetbalyog Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१२६] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [६] मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: आकाशस्य चन्दनादिना मण्डनं खङ्गादिना खण्डनं च न सम्भवति, तस्मात् कर्म नास्ति इति तव चेतसि वर्त्तते, परं हे अग्निभूते ! नायमर्थः समर्थः, यत इमानि पदानि पुरुषस्तुतिपराणि, यथा त्रिविधानि वेदपदा निः कानिचिद्विधिप्रतिपादकानि यथा 'स्वर्गकामोऽग्निहोत्रं जुहुयादित्यादीनि कानिचित् अनुवादपराणि यथा 'द्वादश मासाः संवत्सर' इत्यादीनि कानिचित् स्तुतिपराणि यथा 'इदं पुरुष एवं व्यादीनि ततोऽनेन पुरुषस्य महिमा प्रतीयते, न तु कर्माद्यभावः, यथा जले विष्णुः स्थले विष्णुः, विष्णुः पर्वतमस्तके । सर्वभूतमयो विष्णुस्तस्माद्विष्णुमयं जगत् ॥ १ ॥ अनेन वाक्येन विष्णोर्महिमा प्रतीयते, न तु अन्यवस्तूनां अभाव:, | किञ्च-अमूर्त्तस्यात्मनो मूर्त्तेन कर्मणा कथं अनुग्रहोपघात ?, तदपि अयुक्तं, यत् अमूर्त्तस्यापि ज्ञानस्य मद्यादिना उपघातो, ब्राह्म्याद्यौषधेन च अनुग्रहो दृष्ट एव, किञ्च कर्म विना एकः सुखी अन्यो दुःखी, एकः प्रभुरन्यः किङ्कर, इत्यादि प्रत्यक्षं जगद्वैचित्र्यं कथं नाम सम्भवतीति श्रुत्वा गतसंशयः प्रब्रजितः । इति द्वितीयो गणधरः २ ॥ Jan Education O अथ वायुभूतिरपि तो प्रत्रजितौ श्रुत्वा यस्य इन्द्रभूत्यग्निभूती शिष्यौ जातौ स ममापि पूज्य एव, तगुच्छाम्यहमपि संशयं पृच्छामि इति सोऽप्योगतः, एवं सर्वेऽप्यागताः, भगवताऽपि सर्वेऽपि प्रतिबोधिताः, तत्क्रमंञ्चायं तज्जीवतच्छरीरे सन्दिग्धं वायुभूतिनामानम् । ऊच्चे विभुर्यथास्थं, वेदार्थं किं न भावयसि ? ॥ १ ॥ यतः- विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य' इत्यादिवेदपदैः भूतेभ्यो जीवः पृथग् नास्ति इति प्रतीयते, तथा 'सत्येन For Pride & Personal Use On ~ 249~ 1 तृतीय गणधर : ५ १० १४ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| २० कल्प सोशलभ्यस्तपसा घेष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो, यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मान इत्यादि चतुर्थपञ्चम व्या०६ 18 अस्यार्थ:-एष ज्योतिर्मयः शुद्ध आत्मा सत्येन तपसा ब्रह्मचर्येण लभ्यः-ज्ञेय इत्यर्थः, एभिस्तु वेदपदैर्भूतेभ्या गणधरी 18 पृथक आत्मा प्रतीयते, ततस्तव सन्देहः यदुत यच्छरीरं स एवात्मा अन्यो वेति, परं अयुक्तं एतत्, यस्मात् | ॥११॥ | विज्ञानघने'त्यादिभिरपि पदैः अस्मदुक्तार्थप्रकारेण आत्मसत्ता प्रकटैय, इति तृतीयः गणधरः ३॥ पश्चसु भूतेषु तथा,सन्दिग्धं व्यक्तसंज्ञकं विबुधम् । ऊचे विभूयथास्थं वेदार्थं किं न भावयसि? ॥१॥ IST'येन वमोपमं वै सकलं इत्येष ब्रह्मविधिरशसा विज्ञेय' इति, अस्पार्थ:-वै-निश्चितं सकलं-एतत् पृथिव्या-18| |दिकं स्वमोपमं असत, अनेन वेदवचसा तावद्भूतानां अभावः प्रतीयते, 'पृथ्वी देवता आपो देवता' इत्यादि-18 भिस्तु भूतसत्ता प्रतीयते इति सन्देहा, परं अविचारितं एतत्, यस्मात् 'खमोपमं वे सकलं' इत्यादीनि पदानि अध्यात्मचिन्तायां कनककामिन्यादिसंयोगस्य अनित्यत्वसूचकानि, न तु भूतनिषेधपराणीति चतुर्थः गणधरः ४॥ | यो यादृशः स लाश,इति सन्दिग्धं सुधर्मनामानम् । ऊचे विभुर्यथास्थं. वेदार्थ किं न भावयसि ?. यता- पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते, पशवः पशुत्वं' इत्यादीनि भवान्तरसादृश्यप्रतिपादकानि, तथा 'शृगालो वै ॥११६॥ एष जायते यः सपुरीषो दह्यते' इत्यादीनि भवान्तरवैसदृश्यप्रतिपादकानि वेदपदानि दृश्यन्ते, इति तव सन्देह, परं नार्य सुन्दरो विचारो, यस्मात् 'पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते' इत्यादीनि यानि पदानि तानि मनुष्योऽपि २८ दीप अनुक्रम [१२६] २५ ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक गणधरौ [१२१] गाथा ||२..|| कश्चिन्मार्दवादिगुणोपेतो मनुष्यायुःकर्म वध्वा पुनरपि मनुष्यो भवति इत्यर्थनिरूपकाणि न तु मनुष्यो पष्ठसप्तमी मनुष्य एव भवतीति निश्चायकानि, तथा कथं मनुष्यः पशुर्भवति, न हि शालीबीजागोधूमाकुरः सम्भ-18 वतीति या तव चित्ते युक्तिः प्रतिभाति साऽपि न समीचीना, यतो गोमयादिभ्यो वृश्चिकाद्युत्पत्तेर्दर्शनात कार्यवैसदृश्यं अपि सम्भवत्येवेति पञ्चमः गणधर:५॥ | अथ बन्धमोक्षविषये,सन्दिग्धं मण्डिताभिधं विबुधम् । ऊचे विभुर्यधास्थं, वेदार्थ किं न भावयसि ॥१॥ यतःस एष विगुणो विभुने बद्धधते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा त्वं तावत् एतेषां पदानां अर्थ एवं करोषि-यत् स एषः-अधिकृतो जीवः, कथम्भूतो?-विगुणः-सत्त्वादिगुणरहितो, विभुः-सर्वव्यापको न बयते-पुण्यपापाभ्यां न युज्यते, नकारस्य सर्वत्र योजनात् न संसरति-न संसारे परिभ्रमति, न मुच्यते कर्मणा वन्धाभावात् , नापन्यं मोचयति अकर्तृकत्वात् , परं नायं अर्थः समर्थः, किन्तु स एप आत्मा, किंविशिष्टो?-181 विगुणो-विगतच्छानस्थिकगुणः, पुनः कीदृशो?-विभु:-केवलज्ञानवान् केवलज्ञानखरूपेण विश्वव्यापकत्वात्, एवंविध आत्मा पुण्यपापाभ्यां न युज्यते इति सुस्थं, इति षष्ठः गणधर:६॥ अथ देवविषयसन्देहसंयुतं मौर्यपुत्रनामानम् । ऊचे विभुर्यथास्थं , वेदार्थ किं न भावयसि ?॥१॥ यतः1' को जानाति मायोपमान गीर्वाणान् इन्द्रयमवरुणकुबेरादीन् ' इति पदैर्देवनिषेधः प्रतीयते, 'स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा वर्लोकं गच्छति' इति पदैस्तु देवसत्ता प्रतीयते इति तव सन्देहः, परं अविचारितं एतत् , दीप अनुक्रम [१२६] १४ ~251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| कल्प.सबो- यत एते त्वया मया च प्रत्यक्षं एव दृश्यन्ते देवाः, यत्तु वेदे 'मायोपमान्' इत्युक्तं तद्देवानां अपि अनित्य- अष्टमनवम व्यावसूचकं इति सप्तमः गणधरः ७॥ दशमा I अथ नारकसन्देहात्,सन्दिग्धर्मकम्पितं विबुधमुख्यम् । ऊचे विभुर्यथास्थं वेदार्थ किं न भावयसि ॥१॥ गणधरा ॥११७॥ यस्मात् 'न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति' इत्यादिपदैर्नारकाभावः प्रतीयते, 'नारको चै एष जायते यः। शबान्नमश्नाति' इत्यादिपदैस्तु नारकसत्ता प्रतीयते इति तब सन्देहः, परं'नह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति इति कोऽर्थः -प्रेत्य-परलोके केचिन्नारका मेादिवत् शाश्वता न सन्ति, किन्तु यः कश्चित् पापमाचरति स नारको भवति, अथवा नारका मृत्वाऽनन्तरं नारकतया नोत्पन्चन्ते इति प्रेय नारका म सन्तीत्युच्यते, इति । अष्टमो गणधरः ८॥ 1 अथ पुण्ये संदिग्धं, द्विजर्मचलभ्रातरं विबुधमुख्यम् । ऊचे विभुर्यथास्थं , वेदार्थ किं न भावयसि ? ॥१॥ तव सन्देहकारणं तावत् अग्निभूत्युक्तं 'पुरुष एवेदं ग्निं सर्व' इत्यादि पर्द, तत्र उत्तरं अपि तथैव ज्ञेयं, तथा 'पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा' इत्यादिवेदपदैः पुण्यपापयोः सिद्धिश्च, इति नवमः गणधरः ९॥ २५ ___ अथ परभवसन्दिग्धं,मेतार्य नाम पण्डितप्रवरम् । ऊचे विभुयथार्थ, वेदार्थ किं न भावयसि ? ॥१॥ यत्त-11॥११७॥ च इन्द्रभूत्युक्तः 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः' इत्यादिपदैः परलोकसन्देहो भवति, परं तेषां पदानां अर्थ असादुक्तमकारेण विभावय यथा सन्देहो निवर्त्तते, इति दशमः गणधरः १०॥ दीप अनुक्रम [१२६] 02janelbanaa ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| IN निर्वाणविषयसन्देहसंयुतं च प्रभासनामानम् । ऊचे विभुर्यथास्थं वेदार्थ किं न भावयसि ?॥१॥ यता- एकादशो 'जरामर्य वा यदग्निहोत्रं' अनेन पदेन निर्वाणाभावः प्रतीयते, कथं ?, यत् अग्निहोत्रं तत् जरामर्य, कोऽर्थः?-11 गणधर सर्वदा कर्त्तव्यं, अत्र अग्निहोत्रस्य सर्वदा कर्त्तव्यता उक्का, अग्निहोत्रक्रिया च निर्वाणकारणं न भवति, शबलत्वात् , केषाश्चिद्वधकारणं केषाश्चिदुपकारकारणं इति, ततो मोक्षसाधकानुष्ठानक्रियाकालस्य अनुक्तत्वामोक्षो नास्ति इति मोक्षाभावः प्रतीयते, तथा 'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, परमपरं च, तत्र परं-सत्यज्ञानं, अनन्तरं ब्रह्मेति' इत्यादिपदैमोक्षसत्ता प्रतीयते, इति तव सन्देहः, परं अविचारितं एतत्, यस्मात् 'जरामय वा यदग्निहोत्रं' इत्यत्र वाशब्दोऽप्यर्थे स च भिन्नक्रमः, तथा च जरामर्यं यावत् अग्निहोत्रं अपि कुर्यात्, कोऽर्थः?कश्चित्वर्गाद्यर्थी यावज्जीवं अग्निहोत्रं कुर्यात्, कश्चिन्निर्वाणार्थी अग्निहोत्रं विहाय निर्वाणसाधकानुष्ठानमपि कुर्यात्, न तु नियमतोऽग्निहोत्रमेवेत्यपिशब्दार्थः, ततो निर्वाणसाधकानुष्ठानकालोऽप्युक्त एव, तस्मादस्ति 18निर्वाणं, इत्येकादशः गणधरः ११॥ 18 एवं चतुश्चत्वारिंशच्छतानि द्विजाः प्रव्रजिताः, तत्र मुख्यानां एकादशानां त्रिपदीग्रहणपूर्वकं एकादशाङ्ग: चतुर्दशपूर्वरचना गणधरपदप्रतिष्ठा च, तत्र द्वादशाङ्गीरचनानन्तरं भगवांस्तेषां तदनुज्ञां करोति, शक्रश्च दिव्यं वज्रमयस्थालं दिव्यचूर्णानां भृत्वा त्रिभुवनखामिनः सन्निहितो भवति, ततः खामी रत्नमयसिंहासना-1 दुस्थाय सम्पूर्णा चूर्णमुष्टिं गृह्णाति, ततो गौतमप्रमुखा एकादशापि गणधरा ईषदबनता अनुक्रमेण तिष्ठन्ति, १४ दीप अनुक्रम [१२६] MEducation ~253~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२१] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो- देवास्तूर्यध्वनिगीतादिनिरोधं विधाय तूष्णीकाः शृण्वन्ति, ततो भगवान् पूर्व तावत् भणति-गौतमस्य द्रव्य-तीनज्ञा च्या०६ गुणपर्यायैस्तीर्थ अनुजानामि' इति, चूर्णीश्च तन्मस्तके क्षिपति, ततो देवा अपि चूर्णपुष्पगन्धवृष्टिं तदुपरि श्रीवीरचतु॥११८॥ कुर्वन्ति, गणं च भगवान् सुधर्मस्वामिनं धुरि व्यवस्थाप्यानुजानाति, इति गणधरवादः (१२१)। मासकानि ST (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् स.१२२ महावीरः (अहिअग्गामं निस्साए) अस्थिकग्रामस्य निश्रया (पढम अंतरावासं) प्रथम वर्षारानं चतुर्मासी-| पातियावत् (वासावासं पवागए) वषोंसु वसनं उपागतः (चंपं. च पिट्ठचपंच निस्साए ) ततः चंपायाः पृष्ठ चम्पायाश्च निश्रया (तओ अंतरावासे) त्रीणि चतुर्मासकानि (वासावासं उवागए ) वर्षावासार्थ उपागतः (वेसालि नगरि वाणिअगामं च निस्साए) वैशाल्याः नगर्याः वाणिज्यग्रामस्य च निश्रया (दुवालस अंतरावासे) द्वादश चतुर्मासकानि (वासावासं उवागए) वर्षावासार्थ उपागतः (रायगिहं नगरं नालंदं च बाहिरिअं नीसाए) राजगृहस्य नगरस्य नालन्दायाश्च पाहिरिकायाः निश्रया (च उद्दस अंतरावासे) चतुर्दश8 चतुमासकानि (वासावासं उवागए) वर्षावासार्थ उपागतः, तत्र नालन्दा राजगृहनगरादुत्तरस्यां दिशि बाहिरिका-शाखापुरविशेषस्तत्र चतुर्दश वर्षारात्रान् उपागतः (छ मिहिलाए) षट् मिथिलायां नगीं (दो ॥११८॥ |भहिआए ) द्वे भद्रिकायां (एगं आलंभिआए) एकं आलम्भिकांयां (एमं सावस्थीए) एक श्रावस्त्यां (एगं|| पणिअभूमीए) एकं प्रणीतभूमी, वज्रभूम्याख्यानार्यदेशे इत्यर्थः (एगं पावाए मज्झिमाए) एकं पापायां मध्य-1| २८ दीप अनुक्रम [१२६] ~254~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२२] गाथा ||२..|| |मायां (हत्थिपालस्स रण्णो) हस्तिपालस्य राज्ञः ( रज्जुगसभाए) रज्जुका-लेखकाः ‘कारकुन' इति लोके । अन्त्यं चतु|प्रसिद्धास्तेषां शाला-सभा जीर्णा-अपरिभुज्यमाना तत्र भगवान (अपच्छिमं अंतरावासं) अपश्चिमम्-अन्त्यं ॥ | मासक |चतुर्मासकं (वासावासं उवागए) वर्षावासार्थ उपागतः, पूर्व किल तस्या नगर्या 'अपापा' इति नामासीत् | सिद्धिाबू. | देवस्तु 'पापा' इत्युक्तं, तत्र भगवान् कालगत इति ।(१२२)। . १२३-४ (तत्व णं जे से पावाए मज्झिमाए)तत्र यस्मिन् वर्षे पापायां मध्यमायां (हत्थिपालस्स रणो)हस्तिपालस्य राज्ञः ( रज्जुगसभाए) लेखकशालायां (अपच्छिमं अंतरावास) अन्त्यं चतुर्मासकं (वासावासं उवा-16 गए) वर्षावासार्थ उपागतः।(१२३ )। (तस्स णं अंतरावास्स)तस्य चतुर्मासकस्य मध्ये (जे से वासाणं) योऽसौ वर्षाकालस्य (चउत्थे मासे | सत्तमे पक्खे)चतुर्थः मासः सप्तमः पक्षः (कत्तिअबहुले) कार्तिकस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं कत्तिअवहुलस्स) तस्य कार्तिककृष्णपक्षस्य (पपणरसीपकवेणं) पञ्चदशे दिवसे (जा सा चरमा रयणी) या सा चरमा रजनी (तं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे) तस्यां रजन्यां च श्रमणो भगवान महावीर: (काल-1 गए) कालगतः, कायस्थितिभवस्थितिकालागतः (विडकते) संसाराद्वय तिक्रान्तः (समुज्जाए) समुद्यातःसम्यग-अपुनरावृत्त्या ऊध्वं यातः (छिन्नजाइजरामरणबंधणे) छिन्नानि जातिजरामरणबन्धनानि-जन्मज-18 रामरणकारणानि कर्माणि येन स तथा (सिद्धे) सिद्धा-साधितार्थः (बुद्ध) बुद्धः-तत्त्वार्थज्ञानवान् (मुसे) दीप अनुक्रम [१२७] ... अथ भगवंत महावीरस्य निर्वाण-कल्याणक-वर्णनं आरभ्यते ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२४] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२४] गाथा ||२..|| कल्प.सुयो-मुक्तो भवोपनाहिकर्मभ्यः (अंतगडे) अन्तकृत् सर्वदुःखाना (परिनिब्युडे) परिनिर्वृतः सर्वसन्तापाभावात्, च्या०६1 तथा च कीदृशो जात:-(सचदुक्खप्पहीणे) सर्वाणि दुःखानि शारीरमानसानि तानि प्रहीणानि यस्य ससदिनरात्रि तथा, अथ भगवतो निर्वाणवर्षादीनां सैहान्तिक्रनामान्याह-(चंदे नामे से दोचे संवच्छरे) अथ यत्र भग- नामानि ॥११९॥ वानिवृतः स चन्द्रनामा द्वितीयः संवत्सरः (पीइवद्धणे मासे) प्रीतिवर्द्धन इति तस्य मासस्य कार्तिकस्य नाम (नंदिवद्धणे पक्खे ) नंदिवर्द्धन इति तस्य पक्षस्य नाम ( अग्गिवेसे नाम दिवसे) अग्निवेश्य इति तस्य। 8 दिवसस्य नाम (उचसमेत्ति पवुच्चइ ) उपशम इति प्रोच्यते, उपशम इति तस्य द्वितीयं नामेत्यर्थः (देवा गंदा नाम सा रयणी) देवानन्दा नानी सा अमावास्या रजनी (निरतित्ति पचह) निरतिः इत्यप्युच्यते नामान्तरेण (अच्चे लवे) अर्चनामा लवः (मुहुत्ते पाणू) मुहर्तनामा प्राणः (थोचे सिद्धे) सिद्धनामा स्तोका (नागे करणे)नागनामकं करणं, इदं च शकुन्यादिस्थिरकरणचतुष्टये तृतीयं करणं, अमावास्योत्तराद्धे हि एतदेव भवतीति (सबसिद्धे मुहुत्ते) सर्वार्थसिद्धनामा भुहूर्तः (साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) स्वातिनामनक्षत्रेण चन्द्रयोगे उपागते सति भगवान् ( कालगए जाव सबदुक्खप्पहीणे) कालगतः यावत् सवेंदु-ना खप्रक्षीणः ॥ ॥ अथ संवत्सरमासदिनरात्रिमुहर्तनामानि चैवं सूर्यप्रज्ञप्ती R ॥११॥ एकस्मिन् युगे पश्च संवत्सरास्तेषां नामानि-चन्द्रः १ चन्द्रः २ अभिवर्द्धितः ३ चन्द्रः ४ अभिवर्द्धित ५-1 साश्चेति संवत्सरनामानि । अभिनन्दनः१ सुप्रतिष्ठः २ विजयः३प्रीतिवर्द्धनः ४ श्रेयान ५शिशिरः ६ शोभन: हैम-18| २८ दीप अनुक्रम [१२९] ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२४] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१२९] Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [६] मूलं [१२४] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: वान् ८ वसन्तः ९ कुसुमसम्भवः १० निदाघो ११ वनविरोधी १२ इति श्रायणादिद्वादशमासनामानि ॥ पूर्वाङ्ग सिद्ध १ मनोरम २ मनोहर ३ यशोभद्र ४ यशोधर ५ सर्वकामसमृद्ध ६ इन्द्र ७ मूर्द्धाभिषिक्त ८ सौमनस ९ धनअय १० अर्थसिद्ध ११ अभिजित १२ रत्याशन १३ शतञ्जय १४ अग्निवेश्य इति १५ पञ्चदशे दिननामानि ॥ उत्तमा १ सुनक्षत्रा २ इलापत्या ३ यशोधरा ४ सौमनसी ५ श्रीसम्भूता ६ विजया ७ बैजयन्ती ८ जयन्ती ९ अपराजिता १० इच्छा ११ समाहारा १२ तेजा १३ अतितेजा १४ देवानन्दा १५ चेति पञ्चदश रात्रिनामानि ॥ रुद्रः १ श्रेयान् २ मित्रं ३ वायुः ४ सुप्रतीतो ५ ऽभिचन्द्रो ६ माहेन्द्रो ७ बलवान् ८ ब्रह्मा ९ बहुसत्य १० ऐशान १९ स्त्वष्टा १२ भावितात्मा १३ वैश्रवणो १४ वारुण १५ आनन्दो १६ विजयो १७ विजयसेनः १८ प्राजापत्य १९ उपशमो २० गन्धर्वो २१ ऽग्निवेश्यः २२ शतवृषभ २३ आतपवान् २४ अर्धवान् २५ ऋणवान् २६ भौमो २७ वृषभः २८ सर्वार्थसिद्धो २९ राक्षस ३० ति त्रिंशन्मुहूर्त्तनामानि ॥ १२४ ॥ (जं स्यणि चणं समणे भगवं महावीरे ) यस्यां रजन्यां श्रमणो भगवान् महावीरः ( कालगए जान सङ्घदुक्ख प्पहीणे ) कालगतः यावत् सर्वदुःस्वप्रक्षीणः ( सा णं रथणी बहहिं देवेहिं देवीहि य ) सा रजनी बहुभिः देवैः देवीभिश्च ( ओवयमाणेहिं ) खर्गात् अवपतद्भिः ( उप्पयमाणेहि य) उत्पतद्भिश्च कृत्वा (उज्जोविद्या आविद्दुत्था) उद्योतवती अभवत् ॥ १२५ ॥ (जं स्यणि च णं समणे भगवं महावीरे ) यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीरः ( कालगए जाब सब For File & Fersonal Use Only ~ 257 ~ देवागमनस् सू. १२५ ५ १० १४ janelbrary.org Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२६] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२६] गाथा ||२..|| कल्प.सुवो-दुक्खप्पहीणे ) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः ( सा णं रयणी बहूहिं देवेहि देवीहि य) सा रात्रिः बहु-देवकोलाइव्या०६शभिः देवैः देवीभिश्च (ओवयमाणेहिं) अवपतद्भिः (उप्पयमाणेहिं) उत्पतद्भिश्च कृत्वा (उपिंजलगमाण-ल: गौतमभूआ) भृशं आकुला इव (कहकहगभूआ आविहुत्था) अध्यक्तवर्णकोलाहलमयी अभवत् ॥(१२६)॥ | केवलम् . ॥१२॥ १२६-१२७ PRIL (जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे) यस्यां रात्री श्रमणो भगवान् महावीरः (कालगए जाव सब-18 दुक्खप्पहीणे) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (तं रयर्णि च णं जिस्स ) तस्यां च रजन्यां ज्येष्ठस्य, किं-18 भूतस्य ?-(गोअमस्स) गोत्रेण गौतमस्य (इंदभूइस्स) इन्द्रभूतिनामकस्य ( अणगारस्स अंतेवासिस्स) अनगारस्य शिष्यस्य (नायए पिजवंधणे बुच्छिन्ने) ज्ञातजे-श्रीमहावीरविषये प्रेमबन्धने-स्नेहबन्धने व्युच्छिने-त्रुटिते सति (अणंते) अनन्तवस्तुविषये (अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने) अनुत्तरे यावत् ।। केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने, तच्चैव-खनिर्वाणसमये देवशर्मणः प्रतिबोधनाय कापि ग्रामे स्वामिना प्रेषितः श्रीगौतमः तं प्रतिवोध्य पश्चादागच्छन् श्रीवीरनिर्वाणं श्रुत्वा वज्राहत इव क्षणं तस्थौ, बभाण च 'प्रसरति । मिथ्यात्वतमो, गर्जन्ति कुतीधिकौशिका अच । दुर्भिक्षडमरवैरादिराक्षसाः प्रसरमेष्यन्ति ॥१॥ राहुग्रस्तनिशाकरमिव गगनं दीपहीनमिव भवनम् । भरतमिदं गतशोभं, त्वया विनाऽद्य प्रभो! जज्ञे ॥२॥ कस्या- ॥१२०॥ हिपीठे प्रणतः पदार्थान , पुनः पुनः प्रश्नपदीकरोमि। कं वा भदन्तेति वदामि ? को वा, मां गीतमेल्याप्तगि-IN राऽथ वक्ता ? ॥ ३ ॥ हा! हा! हा! वीर! किं कृतं? यदीडशेऽवसरेऽहं दूरीकृतः, किं मांडकं मण्डयित्वा | दीप अनुक्रम [१३१] JABEnicatonx nx ... अत्र गौतमस्वामिन: केवलज्ञानस्य वर्णनं क्रियते ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२७] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१३२] क.सु. ११ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [६] मूलं [१२७] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: बालचन्तवश्वले लगिष्यं किं केवल भागर्ममार्गविष्यं ? किं मुक्तौ सङ्कीर्ण अभविष्यत् ? किं वा तव भारोऽभविष्यद् यदेवं मां विमुच्य गतः एवं च 'वीर वीर' इति कुर्वतो 'वी' इति मुखे लग्नं गौतमस्य, तथा च हुं ज्ञातं बीतरागा निःस्नेहा भवन्ति, ममैवायं अपराधो यन्मया तदा श्रुतोपयोगो न दत्तः, धिमिमं एकपाक्षिकं स्नेहूं, अलं स्नेहेन, एकोऽस्मि, नास्ति कञ्चन मम, एवं सम्यक् साम्यं भावयत्रस्तस्य केवलमुत्पेदे-मुक्खमग्गपवअण्णाणं सिणेहो वज्जसिंखला । वीरे जीवंतए जाओ, गोअमोजं न केवली ॥१॥ प्रातःकाले इन्द्राधैर्महिमा कृतः, | अत्र कवि :- अहङ्कारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तये । विषादः केवलायाभूत्, चित्रं श्रीगौतमप्रभोः ॥ १ ॥ स च द्वादश वर्षाणि केवलिपर्यायं परिपाल्य, दीर्घायुरितिकृत्वा सुधर्मस्वामिने गणं समर्प्य मोक्षं ययौ, सुधर्मखामिनोऽपि पश्चात् केवलोत्पत्तिः, सोऽप्यष्टौ वर्षाणि विहृत्यार्यजम्बूस्वामिनो गणं समर्प्य सिद्धिं गतः । (१२७)॥ ( जं स्यणि चणं समणे भगवं महावीरे ) यस्यां रजन्यां श्रमणो भगवान् महावीरः ( कालगए जाव सबदुक्खष्पहीणे) कालगतः यावत् सर्वदुः खमक्षीणः (तं स्यणिं च णं) तस्यामेव रजन्यां (नवमलई नवले - च्छई कासीको सलगा ) नवमलकीजातीया:- काशीदेशस्य राजानः नवले कछकी जातीयाः - कोशलदेशस्य राजानः (अट्ठारसवि गणरायाणो ) ते च कार्यवशात् गणमेलापकं कुर्वन्ति इति गणराजा अष्टादश, ये चेटकमहाराजस्य सामन्ताः श्रूयन्ते, ( अमावासाए ) ते तस्यां अमावास्यायां (पाराभोअं ) पारं संसारपारं १ मोक्षमार्गप्रपन्नानां नेहो पचशृंखला। वीरे जीवति जातो गौतमो यन्न केवली ॥ १ ॥ Education in *** अथ दिपालिका एवं भ्रातृ-द्वितीयायाः उत्पत्ति वर्णयते For Pile & Fersonal Use O ~ 259~ श्रीगौतमकेवल स. १२७ ५ १० १३ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१२८] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१३३] कल्प. सुबो व्या० ६ ॥१२१॥ Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२८] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ........... व्याख्यान [६] आभोगयति-प्रापयति यस्तं एवंविधं ( पोस होव वासं पट्टर्विसु ) पौषधोपवासं कृतवन्तः, आहारत्यागपौषधरूपं उपवासं चकुरित्यर्थः, अन्यथा दीपकरणं न सम्भवति, ततश्च (गए से भावुजोए दब्बुजोअं करिस्सामो) गतः स भावोद्योतः ततो द्रव्योद्योतं करिष्याम इति तैः दीपाः प्रवर्तिताः, ततः प्रभृति दीपोत्सवः संवृत्तः कार्त्तिक शुक्लप्रतिपदि च श्रीगौतमस्य केवलमहिमा देवैश्व के अतस्तत्रापि जनप्रमोदः, नन्दिवर्धननरेन्द्रश्च भगवतोऽस्तं श्रुत्वा शोकार्त्तः सुदर्शनया भगिन्या सम्बोध्य सादरं खवेश्मनि द्वितीयायां भोजितस्ततो भ्रातृद्वितीया पर्व रूढिः ॥ १२८ ॥ ( जं स्यणिं च णं समणे भगवं महावीरे ) यस्यां रात्री श्रमणो भगवान् महावीरः (कालगए जाव सहदुक्खष्पहीणे) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः ( तं यणिं च णं ) तस्यां च रात्रौ (खुद्दार भासरामी नाम महग्गहे) क्षुद्रात्मा- क्रूरखभाव एवंविधो भश्मराशिनामा त्रिंशत्तमो महाग्रहः, किम्भूतोऽसी ? - ( दोवाससहस्सा ) द्विसहस्रवर्षस्थितिकः, एकस्मिन् ऋक्षे एतावन्तं कालं अवस्थानात् (समणस्स भगवक्षो महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ( जम्मनक्खत्तं संकते ) जन्मनक्षत्रं- उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं सकान्तः, तत्रांष्टाशीतिर्ब्रहाः, ते चेमे-अङ्गारको १ विकालको २ लोहिताक्षः ३ शनैश्वरः ४ आधुनिकः ५ प्राधुनिकः ६ कणः ७ कणकः ८ कणकणकः ९ कणवितानकः १० कणसन्तानकः ११ सोमः १२ सहितः १३ आश्वासनः | १४ कार्योगः १५ कर्बुरकः १६ अजकरकः १७ दुन्दुभकः १८ शङ्खः १९ शङ्खनाभः २० शङ्खवर्णाभः २१ कंसः २२ कंसनाभः २३ कंसवर्णाभः २४ नीलः २५ नीलावभासः २६ रूपी २७ रूपावभासः २८ भस्मः २९ भस्म For Pride & Personal Use On ~260~ दीपालिका आवृद्वितीया सू. १२८ १५ २० २५ ॥१२१॥ २७ janelbrary.org Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१२९] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२९] गाथा ||२..|| 18 राशि३० तिलः ३१ तिलपुष्पवर्णः ३२ दकः ३३ दकवर्णः ३४ कार्यः ३५ वन्ध्यः ३६ इन्द्राग्निः ३७ धूमकेतुः |३८ हरिः ३९ पिङ्गला ४० बुधः ४१ शुक्रः ४२ बृहस्पति४३ राहु। ४४ अगस्तिः४५ माणवक:४६ कामस्पर्श४० | मणं पूजाधुरः ४८ प्रमुखः ४९ विकटः ५० विसन्धिकल्प: ५१ प्रकल्पः ५२ जटाल: ५३ अरुणः ५४ अग्नि: ५५ कालः ५६ हानिः सू. महाकाल:५७ खस्तिक:५८सौवस्तिका ५९ वर्धमानः ६०प्रलम्बः ६१ नित्यालोकः ६२ नित्योयोतः६३ स्वयम्प्रभः है|६४ अवभासः ६५ श्रेयस्करः ६६ क्षेमकरः ६७ आभङ्करः ६८ प्रभङ्करः ६९ अरजाः ७० विरजाः ७१ अशोकः ७२ वीतशोकः ७३ बिततः ७४ विवस्त्रः ७५ विशाल: ७६ शालः ७७ सुव्रतः ७८ अनिवृत्तिः ७९ एकजटी ८० द्विजटी ८१ करः ८२ करक: ८३ राजा ८४ अर्गलः ८५ पुष्पः ८६ भावः ८७ केतु:८८ इत्यष्टाशीतिहाः ॥१२॥ | (जप्पभिहं च णं से खुद्दाए भासरासी महग्गहे) यतःप्रभृति सक्षुद्वात्मा भइमराशिनामा महाग्रहः (दोवा-IIS ससहस्सठिई) द्विवर्षसहस्रस्थितिः (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (जम्म-19 नक्खत्तं संकते) जन्मनक्षत्रं सक्रान्तः (तप्पभिई च णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंधीण य) ततः प्रभृति श्रमणानां-तपस्विनां निर्ग्रन्थानां-साधूनां निग्रन्थीनां-साध्वीनां च (नो उदिए उदिए पूआसकारे पवत्तह) उदितोदित:-उत्तरोत्तर वृद्धिमान ईदृशः पूजा-वन्दनादिका. सत्कारो-वनदानादिबहुमान: स न प्रवर्तते, अत एव शक्रेण स्वामी विज्ञप्तो-यत् क्षणं आयुर्वर्द्धयत येन भवत्सु जीवत्सु भवजन्मनक्षत्रं सङ्क्रान्तो भस्मराशिग्रहो भवच्छासनं पीडयितुं न शक्ष्यति, ततः प्रभुणोक्तं-न खलु शक ! कदाचिदपि इदं भूतपूर्व यत् || दीप अनुक्रम [१३४] ~261~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१३०] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३०] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-1 प्रक्षीणं आयुर्जिनेन्द्ररपि वर्द्धयितुं शक्यते, ततोऽवश्यंभाविनी तीर्थयाधा भविष्यत्येव, किन्तु षडशीतिवर्षा-भसग्रहो युषि कल्किनि कुनृपती त्वया निगृहीते सति वर्षसहस्रद्वये पूणे मजन्मनक्षत्रादु भस्मग्रहे व्यतिक्रान्ते च तारः कुन्थू त्वत्स्थापितकल्किपुत्रधर्मदत्तराज्यादारभ्य साधुसाध्वीनां उदितोदितः पूजासत्कारो भविष्यतीति ॥(१३०)॥8 सचिः सू. ॥१२॥ सूत्रकारा अपि तदेवाहु:-जया णं से खुदाए भासरासी महग्गहे) यदा च स क्षुद्रात्मा भस्मराशिमहाग्रहः (दोवाससहस्सटिई) द्विवर्षसहस्रस्थितिकः (जाव जम्मनक्खत्ताओ विइते भविस्सइ) यावत् भगवजन्मनक्षत्रात् व्यतिक्रान्तो भविष्यति- उत्तरिष्यतीत्यर्थः (तया गं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंधीण य)IN तदा श्रमणानां निग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च (उदिए उदिए पूआसक्कारे भविस्सइ) उदितोदितः पूजासत्कारो। भविष्यति ॥(१३१)। (जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे) यस्यां रात्री श्रमणो भगवान महावीर ( कालगए जाव सबदुक्खप्पहीणे) कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः (तं स्याणि च णं कुंथुअणुद्धरी नाम समुप्पन्ना) तस्यां रात्री कुन्थुः-पाणिजातिः या उत्तुं न शक्यते एवंविधा समुत्पन्ना (जा ठिया अचलमाणा) या स्थिता अत एवं अचलन्ती सती (छ उमस्थाणं निग्गंधाणं निग्गंधीण य) छमस्थानां निग्रन्थानां निग्रे-| न्धीनां च (नो चक्खुफासं हवमागच्छह) नैव चक्षुःस्पर्श-दृष्टिपथं शीघ्र आगच्छत्ति (जा अहिआ चलमाणा)8॥१२२॥ या च अस्थिता अत एव चलन्ती (छषमस्थाणं निग्गंयाणं निग्गंधीण य) छप्रस्थानां निग्रंन्धानां निग्रन्थीनां च || (चक्खुफासं हवमागच्छद) चक्षुर्विषयं शीघ्रं आगच्छति ॥ (१३२)॥(जं पासित्ता बहहि निग्गंथेहि दीप अनुक्रम [१३५] ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१३३] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३३] गाथा ||२..|| Dectseeeeeeeeeeeeeeeee निग्गंधीहि य) या कुन्थु अणुद्धरी दृष्ट्वा बहुभिः निन्धैः-साधुभिर्बहीभिः निर्ग्रन्थीभिश्च-साध्वीभिः (भत्ताईसंयताधनपञ्चक्खायाई) भक्तानि प्रत्याख्यातानि, अनशनं कृतमित्यर्थः (से किमाहुभंते)शिष्यः पृच्छति-किमाहुर्भदन्ताः- शन स. तत् किं कारणं यद् भक्तानि प्रत्याख्यातानि?, गुरुराह-(अजप्पमिह संजमे दुराराहए भविस्सइ) अद्य प्रभृति १३३ वीर संयमो दुराराध्यो भविष्यति, पृथिव्या जीवाकुलत्वात् संयमयोग्यक्षेत्राभावात्, पाखण्डिसंकराच ॥(१३३) श्रमणादि| (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रम-15 णस्य भगवतो महावीरस्य (इंदभूइपामुक्खाओ) इन्द्रभूतिप्रमुखाणि (चउद्दससमणसाहस्सीओ) चतुर्दश श्रमणानां सहस्राणि (उकोसिआ समणसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणसम्पदा अभवत् ।। (१३४), (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (अज्जचंदणापामुक्खाओ) आर्यचन्द-1 नाममुखाणि (छत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ) पत्रिंशत् आर्यिकाणां, सहस्राणि ( उक्कोसिया अज्जियासंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती आर्यिकासम्पदा अभवत् ॥(१३५ )॥ (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (संखसयगपामुक्खाणं) शशतकप्रमुखाणां (समणोवासगाणं) श्रमणोपासकानांश्रावकाणां (एगा सयसाहस्सीओ) एका शतसाहस्त्री-एक लक्षं (अउणादि च सहस्सा) एकोनषष्टिश्च सहरूयः (उकोसिया समणोवासगाणं संपया हत्था) उत्कृष्टा श्रमणोपासकामां सम्पदा अभवत् ।।(१३६) (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (सुलसारेवहपामुक्खाणं) सुलसारेवती-INI १४ दीप अनुक्रम [१३८] JABEnicatona ne ... भगवंत महावीरस्य शिष्य-शिष्यादि परिवाराणां वर्णनं क्रियते ~263~ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१३७] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३७] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-18 प्रमुखाणां (समणोवासियाणं) श्रमणोपासिकानां (तिन्नि सयसाहस्सीओ) श्रीणि लक्षाणि ( अट्ठारस व्या०६ सहस्सा) अष्टादश सहस्राव (उकोसिआ समणोवासिआणं संपया हुस्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणोपा-TRIटित RIसिकानां सम्पदा अभवत्, अत्र या सुलसा श्राविका सा द्वात्रिंशत्पुत्रजननी नागभार्या रेवती च प्रभोरी-11032॥१२॥ षधदात्री ज्ञेया (१३७ )॥ (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (तिन्नि सया १४५ चउदसपुवीणं) त्रीणि शतानि चतुर्दशपूर्विणां, कीदृशाना ? (अजिणाणं जिणसंकासाणं) असर्वज्ञानां परं 8 सर्वज्ञसदृशानां (सक्खरसन्निवाईणं) सर्वे अक्षरसन्निपाता:-अक्षरसंयोगाः ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते तथा तेषां, पुनः कीदृशानां ? (जिणो विच अवितहं वागरमाणाणं) जिन इवाचितथं सत्यं व्याकुर्वाणानां, 18 केवलिश्रुतकेवलिनोः प्रज्ञापनायां तुल्यत्वात् (उकोसिआ चउद्दसपुवीणं संपया हुत्था) उस्कृष्टा एतावती चतुर्दशपूर्विणां सम्पदा अभवत् ।।(१३८)। (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्थ भगवतो महावीरस्य । (तेरस सया ओहिनाणीणं) त्रयोदश शतानि अवधिज्ञानिनां, कीदृशान? (अइसेसपत्ताणं) अतिशेषा अतिशया: आमर्पोषध्यादिलब्धयस्तान प्राप्तानां (उक्कोसिया ओहिनाणिसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती 18| अवधिज्ञानिनां सम्पदा अभवत् ॥(१३९)। (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य । ॥१२३॥ (सत्त सया केवलनाणीणं) सप्त शतानि केवलज्ञानिनां (संभिन्नवरनाणदंसणधराणं) सम्मिन्न-सम्पूर्ण वरं-श्रेष्ठं यत् ज्ञानं दर्शनं च तयोः धारकाणां (उकोसिया केवलवरनाणिणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती केवलज्ञानि Sear209999990000000000 दीप अनुक्रम [१४२] esese JABEnicatonian ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक श्रीवीरश्रमणादिपर्षत स. १३४ [१४१] गाथा ||२..|| सम्पदा अभवत्॥(१४०)।(समणस्स भगवओ महावीरस्स)श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (सत्त सया येउवीण) सप्त शतानि वैक्रिपलब्धिमतां मुनीनां, कीदृशानां (अदेवाणं देविहिपत्ताणं) अदेवानामपि देवर्द्धिविकुर्वणास- मर्थानां इति भावः (उकोसिया वेउविसंपया हुस्था) उत्कृष्टा एतावती वैक्रियलब्धिमत्सम्पदा अभवत् ।(१४१) (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (पंच सया विउलमईणं) पश्च शतानि विपुलमतीनां, कीदृशानां (अड्डाइजेसु दीवेसु दोसु अ समुद्देसु) अर्धतृतीयेषु द्वीपेषु.द्वयोः समुद्रयोश्च विषये (सन्नीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं) सञ्जिनां पश्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानां च (मणोगए भावे जाणमाणाणं) मनसि गतान् भावान् जानता(उक्कोसिआ विउलमईणं संपया हत्था)उत्कृष्टा एतावती विपुलमतीनां सम्पदा अभवत्, तत्र विपुलमतयो हि घटोग्नेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रका शारदो नीलवर्ण इत्यादिसर्वविशेषोपेतं सर्वतः सार्द्धयङ्गुलाधिके मनुष्यक्षेत्रे स्थितानां सज्ञिपश्चेन्द्रियाणां मनोगतं पदार्थ जानन्ति, ऋजुमतयस्तु सर्वतः सम्पूर्णमनुष्यक्षेत्रस्थितानां सज्ञिपश्चेन्द्रियाणां मनोगतं सामान्यतो घटादिपदार्थमात्रं जानन्तीति विशेषः॥ (१४२)। (समणस्स भगवओ महावीरस्स) अमणस्य भगवतो महावीरस्य (चत्तारि सया वाईणं ) चत्वारि |शतानि वादिमुनीनां, कीदृशानां ? (सदेवमणुआसुराए परिसाए बाए) देवमनुष्यासुरसहितायां पर्षेदि वादे IRI १ सार्थद्वयाङ्गुलहीने इत्यौपपातिकादौ, नन्द्यादिषु त्वेत्रोक्तवत् , विपुलमतेमैनुष्यक्षेत्रमित्यपि तन्त्र । दीप अनुक्रम [१४६] JABEnicatoothane ~265~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४४] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [१४४] गाथा ||२..|| १५ कल्प.सुबो-(अपराजियाण) अपराजितानां ( उक्कोसिया वाइसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती वादिसम्पदा अभवत् 18 श्रीवीरस्थाव्या०६ (१४३ )। (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सत्त अंतेवासिसयाई सिद्धाई) न्तकभूमि सप्त शिष्यशतानि सिद्धिं गतानि (जाव सषक्खप्पहीणाई) यावत् सर्वतुःखप्रक्षीणानि (चउपस अजि- सू. १४६ ॥१२४॥ यासयाई सिद्धाई) चतुर्दश आर्यिकाशतानि सिधौ गतानि ॥(१४४ )। (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (अट्ठसया अणुत्सरोववाइयाणं) अष्ट शतानि अनुत्तरोपपातिकानां-अनुत्सरविमानोत्पन्नमुनीनां, कीदृशानां ? (गइकल्लाणाणं) गतौ-आगामिन्यां मनुष्यगतो. कल्याण-मोक्षप्राप्तिलक्षणं येषां ते तथा तेषां, पुनः कीरशान? (ठिहकल्लाणाणं) स्थितौ-देवभवेऽपि कल्याणं येषां ते तथा तेषां,18 वीतरागवायत्त्वात्, अत एव (आगमेसिभदाणं) आगमिष्यद्भद्राणां, आगामिभवे सेत्स्यमानत्वात् ( उक्कोसिआ अणुत्तरोववाइयाणं संपया हुस्था) उत्कृष्टा एतावती अनुत्तरोपपातिना सम्पदा अभवत् ॥(१४५) (समणस्स भगवओ महावीरस्स) अमणस्य भगवतो महावीरस्य (दुविहा अंतगडभूमी हत्था) द्विविधा अन्तकृतो-मोक्षगामिनस्तेषां भूमि:-कालोऽन्तकृद्भूमिः अभवत्, तदेव द्विविधत्वं दर्शयति-(संजहा) तद्यथा-(जुगंतगडभूमी य परियायंतगडभूमी य) युगान्तकृभूमिः पर्यायान्तकृभूमिश्च, तत्र युगानि-कालमान-RI |विशेषास्तानि च क्रमवर्तीनि तत्साधाये क्रमवर्सिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि ॥१२४।। प्रमिता अन्तकृभूमियों सा युगान्तकृद्भूमिः, पर्यायः-प्रभोः केवलित्वकालस्तं आश्रित्य अन्तकृद्भूमिः पर्याया दीप अनुक्रम [१४९] JAMEnicatonire M anusbanara ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१४६ ] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१५१] Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [६] मूलं [१४६] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: न्तकृद्भूमिः, तत्रायां निर्दिशति - ( जाव तचाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी ) इह पञ्चमी द्वितीयार्थे ततो यावत् तृतीयं पुरुष एव युगं पुरुषयुगं - जम्बूखामिनं यावद् युगान्तकृद्भूमिः (चउवासपरियाए अंतमकासी ) ज्ञानोत्पत्यपेक्षया चतुर्वर्षपर्याये च भगवति अन्तमकार्षीत् कश्चित् केवली मोक्षं अगमत् प्रभोर्ज्ञानानन्तरं चतुर्षु वर्षेषु मुक्तिमार्गों वहमानो जातो, जम्बूस्वामिनं यावच्च मुक्तिमार्गों वहमानः स्थित इति भावः ॥ (१४६)। ( तेणं कालेणं) तस्मिन् काले ( तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भगवान् महावीरः (तीसं वासाई ) त्रिंशद्वर्षाणि ( अगारवासमज्झे वसिता ) गृहस्थावस्थामध्ये उषित्वा (साइरेगा इं दुबालस वासाई ) समधिकानि द्वादश वर्षाणि ( छउमत्थपरियागं पाणिता) छद्मस्थपर्यायं पालयित्वा (देसूणाई तीसं वासाई ) किश्चिनानि त्रिंशद्वर्षाणि (केवलिपरियागं पाउणित्ता ) केवलिपर्यायं पालयित्वा (वायालीसं वासाई) द्विचत्वारिंशद्वर्षाणि ( सामन्नपरियागं पाउणिसा ) चारित्रपर्यायं पालयित्वा (बावतरि वासाई सघाउयं पालता ) द्विसप्ततिवर्षाणि सर्वायुः पालयित्वा ( खीणे वेयणिज्जाउनामगुप्ते ) क्षीणेषु सत्सु वेदनीय १ आयु २ नम ३ गोत्रेषु ४ चतुर्षु भवोपग्राहिकर्मसु ( हमीसे ओसप्पिणीए ) अस्यां अवसपिण्या ( दूसमसुसमाए समाए ) दुष्षमसुषमा इति नामके चतुर्थे अरके (बहुविइकंताए ) बहु व्यतिक्रान्ते सति (तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं) त्रिषु वर्षेषु सार्द्धाष्टसु च मासेषु शेषेषु सत्सु (पावाए मज्झिमाए ) पापायां मध्यमायां (हत्थिवालस्स रनो ) हस्तिपालस्य राज्ञः ( रज्जुगसभाए ) लेखकसभायां For Pride & Personal Use On ~267~ श्रीवीरगृहवासादि सू. १४७ ५ १० १४ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४७] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक १४७ [९४७] गाथा ||२..|| कल्प.सुवो-(एगे अबीए) एका सहायविरहात् अद्वितीयः-एकाकी एव, नतु ऋषभादिवशसहस्रादिपरिवार इति, अत्र श्रीवीरगृहव्या०६ कवि:-पन्न कश्चन मुनिस्त्वया समं, मुक्तिमापदितरैर्जिनैरिव । दुषमासमयभाविलिजिना, व्यानि तेन गुरु- वासादिम. नियंपेक्षता ॥ १ ॥ (छ?णं भत्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन जलरहितेन (साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवा॥१२॥ गएणं) खातिनक्षत्रेण सह चन्द्रयोग उपागते सति (पच्चूसकालसमयंसि) प्रत्यूषकाले समये-चतुर्घटिकावशेषायां रात्री (संपलिअंकनिसने) संपल्यङ्कासनेन निषण्ण:-पद्मासननिविष्टः (पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई) पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि कल्याण-पुण्यं तस्य फलविपाको येषु,तानि कल्याणफलविपाकानि (पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई) पञ्चपञ्चाशत् अध्ययनानि पापफल विपाकानि (छत्तीस अपुट्ठवागरणाई) षट्त्रिंशत् अपृष्टव्याकरणानि-अपृष्टान्युत्तराणि (वागरिता)व्याकृत्य-कथयित्वा (पहाणं नाम अज्झयणं) प्रधानं नाम एकं मरुदेव्यध्ययनं (विभावेमाणे) विभावयन् ( कालगए) भगवान् कालगतः (बिडकते) संसाराद्व्यतिक्रान्तः (समुज्जाए) सम्यग् ऊर्ध्व यातः (छिन्नजाइजरामरणबंधणे) छिन्नानि | जातिजरामरणवन्धनानि यस्य स तथा (सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिम्बुडे) सिद्धः बुद्धः मुक्तः कर्मणाम- २५ न्तकृत् सवेसन्तापरहितः (सबदुक्खप्पहीणे) सर्वदुःखानि प्रक्षीणानि यस्य स तथा ।।(१४७)।। अथ भगवतो ॥१२५॥ निर्वाणकालस्य पुस्तकलिखनादिकालस्य च अन्तरमाह (समणस्स भगवओ महावीरस्स) अमणस्य भगवतो महावीरस्य (जाव सबदुक्खपहीणस्स) यावत् | दीप अनुक्रम [१५२] EUX ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४८] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४८] गाथा ||२..|| IS सर्वदुःखप्रक्षीणस्य (नव वाससयाई विइकताई) नव वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स) वीरमोक्ष दशमस्य च वर्षशतस्य (अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छद) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति,वाचनान्तरं कायद्यपि एतस्य सूत्रस्य व्यक्त्या भावार्थो न ज्ञायते तथापि यथा पूर्वटीकाकाराख्यातं तथा व्याख्यायते,Sh म.१४८ तथाहि-अत्र केचिद्दन्ति-पत्कल्पसूत्रस्य पुस्तकलिखनकालज्ञापनाय इदं सूत्रं श्रीदेवर्धिगणिक्षमाक्षमणैलि-18|| खितं, तथा चायमर्थो-यथा श्रीवीरनिर्वाणादशीयधिकनववर्षशतांतिक्रमे पुस्तकारूढः सिद्धान्तो जातस्तदा कल्पोऽपि पुस्तकारूनो जात इति, तथोक्तं-वल्लहिपुरंमि नयरे,देवडिपमुहसपलसङ्ग्रहिं । पुत्थे आगमलिहिओ नवसयअसीआओं वीराओ ॥१॥ अन्ये वन्दति-नवशतअशीतिवर्षे, वीरात सेनाङ्गजार्थमानन्दे । सङ्घसमक्षा समहं, प्रारब्धं वाचितुं विजः॥१॥ इत्यायन्तर्वाच्यवचनात श्रीवीरनिर्वाणादशीत्यधिकनववर्षशतातिक्रमे शाकल्पस्य सभासमक्षं वाचना जाता तां ज्ञापयितुं इदं सूत्रं न्यस्तमिति, तत्त्वं पुन: केवलिनो विदन्तीति I ( वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छ। इति दीसइ) वाचनान्तरे पुनरयं त्रिनवतितमः संव-1|| त्सरः कालो गच्छतीति दृश्यते, अन केचिद्वदन्ति-वाचनान्तरे कोऽर्थः-प्रत्यन्तरे 'तेणउए' इति दृश्यते, यत् ISI कल्पस्य पुस्तके लिखनं पर्षदि वाचनं वा अशीत्यधिकनववर्षशतातिक्रमे इति कचित् पुस्तके लिखितं तत्पु . १ वलभीपुरे नगरे देवर्धिप्रमुखसकलसङ्घः । पुस्तके आगमो लिखितो नवशताशीतौ वीरात् ॥ २ भुवसेनस्य नामान्तरमिय सेनाङ्गजनामा पुत्र इति तु निरक्षरवचः । दीप अनुक्रम [१५३] ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [६] .......... मूलं [१४८] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४८] गाथा ||२..|| बोकास्तकान्तरे त्रिनवतिवर्षाधिकनवशतवर्षातिक्रमे दृश्यते इति भावः, अन्ये पुनर्वदन्ति-अयं अशीतितमे संवत्सरे वीरमोक्षव्या०६ इति कोऽर्थः ?-पुस्तके कल्पलिखनस्य हेतुभूतः अयं श्रीवीरात् दशमशतस्य अशीतितमसंवत्सरलक्षणः कालो वाचनान्तरं गच्छति, 'चायणतरे' इति कोऽर्थः-एकस्याः पुस्तकलिखनरूपाया वाचनाया अन्यत् पर्षदि वाचनरूपं यद्वा- स. १४८ ॥१२६॥ चनान्तरं तस्य पुनर्हेतुभूतो दशमशतस्य अयं त्रिनवतितमः संवत्सरः, तथा चायमर्थ:-जवशताशीतितमवर्षे कल्पस्य पुस्तके लिखनं, नवशतत्रिनवतितमवर्षे च कल्पस्य पर्षद्बाचनेति, तथोक्तं श्रीमुनिसुन्दरसूरिभिः स्वकृतस्तोत्ररत्रकोशे-धीरात्रिनन्दाङ्क (९९३) शरद्यचीकरत् , त्वचैत्यपूते ध्रुवसेनभूपतिः। यस्मिन् महै: संसदि कल्पवाचनामायां सदानन्दपुरं न का स्तुते॥१॥ पुस्तकलिखनकालस्तु यथोक्तः प्रतीत एवI'वल्लहीपुरंमि नयरे' इत्यादिवचनात् , तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्तीति ॥१४८॥ RANARARAMSARANASANARARA ARARASLARARA इति महोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां षष्ठः क्षणः समाप्तः। ॥१२६॥ ग्रन्थानम् १००७। षण्णामपि व्याख्यानानां अन्धानम् ॥ ४२३२ ॥ श्रीरस्तु MESAS SESERSENSERSASSERRSERSONEERGERSURSLARREA दीप अनुक्रम [१५३] Sense DERERASTRE inli षष्ठं व्याख्यानं समाप्तं ~270~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१४९ ] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१५४] क. म. २२ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१४९] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ॥ अथ सप्तमं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ अथ जघन्यमध्यमोत्कृष्टवाचनाभिः श्रीपार्श्वचरित्रमाह - ( तेणं कालेणं) तस्मिन् काले ( तेणं समपर्ण) तस्मिन् समये ( पासे अरहा पुरिसादाणीए ) पार्श्वनामा अर्हन् पुरुषश्वासौ आदानीयश्च आदेयवाक्यतया आदेयनामतया च पुरुषादानीयः पुरुषप्रधान इत्यर्थः ( पंचविसाहे होत्था ) पश्चसु विशाखा यस्य स पञ्चवि शाखः अभवत् (तंजा) तद्यथा ( विसाहाहिं चुए, चहत्ता गर्भ वकते) विशाखायां च्युतः च्युत्वा गर्भे उत्पन्नः १ ( विसाहाहिं जाए ) विशाखायां जातः २ (विसाहाहिं मुंडे भविता ) विशाखायां मुण्डो भूत्वा (अगाराओ अणगारियं पवइए) अगारान्निष्क्रम्य साधुतां प्रतिपन्नः ३ (विसाहाहिं अनंते अणुत्तरे निवाघाए ) विशाखायां अनन्ते अनुपमे निर्व्याघाते (निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने) समस्तावरणरहिते समस्ते प्रतिपूर्ण ( केवलवर नाणदंसणे समुत्पन्ने) एवंविधे केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने ४ ( विसाहाहिं परिनिब्बुडे ) विशाखायां निर्वाणं प्राप्तः ५ ।। (१४९) ॥ (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले ( तेणं समएणं) तस्मिन् समये (पासे अरहा पुरिसादाणीए ) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः (जे से गिम्हाणं पढमे मासे) योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः ( पढमे पक्खे) प्रथमः Jan Education Intimations ... अथ श्री पार्श्वनाथ चरित्रं संक्षेपेण कथयते For Private & Personal Use On सप्तमं व्याख्यानं आरभ्यते ~ 271 ~ श्रीपार्थकल्याणकानि यू. १४९ ५ १० www.janelbary.org Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१५०] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प-सुबो- [१५०] गाथा ||२..|| ॥१२७॥ दीप अनुक्रम [१५५] पक्ष(चित्तबहुले) चैत्रस्य बहुलपक्षः (तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्धीपक्खेणं)तस्य चैत्रबहुलस्य चतु- श्रीपाचेच्य दिवसे ( पाणयाओ कप्पाओ) प्राणतनामकात् दशमकल्पात्, कीदृशात् ? (वीसंसागरोवमठि-वन मू.१५० इयाओ)विंशतिः सागरोपमाणि स्थितिः-आयु प्रमाण पत्र ईशात् (अणंतरं चयं चइत्ता) अनन्तरंगभेपोषणम् दिव्यशरीरं त्यक्त्वा (इहेव जंबुद्दीवे दीवे) अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे ( भारहे वासे ) भरतक्षेत्रे (वाणा-IST १५ रसीए नयरीए) वाणारस्यां नगर्या (आससेणस्स रनो) अश्वसेनस्य राज्ञः (वामाए देवीए) वामाया देव्याः (पुधरत्तावरत्तकालसमयंसि) पूर्वापररात्रिसमये-मध्यरात्री इत्यर्थः (विसाहाहिं नकवत्तेणं जोगमुवागएणं) विशाखायां नक्षत्रे पन्द्रयोग उपागते सति (आहारवकंतीए) दिव्याहारत्यागेन (भववकंतीए) दिव्यभवत्यागेन (सरीरवकंतीए) दिव्यशरीरत्यागेन (कुञ्छिसि गम्भत्ताए वकंते) कुक्षी गभेतया व्युत्क्रान्त-18 उत्पन्नः ॥ (१५०)॥ (पासे णं अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अहंन् पुरुषादानीयः (तिन्नाणोवगए आविस्था) विज्ञानोपगतः आसीत् (तंजहा) तथा (चइस्सामित्ति जाणइ) च्योष्ये इति जानाति (तेणं चेवं अभिलावेणं) तेनैव । पूर्वोक्तपाठेन (सुविणदंसणविहाणेणं) खप्रदर्शनवप्रफलप्रश्नप्रमुखविधानेन (सर्व जाव निअगं गिहं अणुपविट्ठा) सर्व वाच्यं यावत् निजं गृहं वामादेवी प्राविशत् (जाव सुहंसुहेणं तं गम्भं परिवहइ) पावत् सुखंमुखेन । तं गर्भ परिपालयति ॥ (१५१) । २४ ClicatoniloP ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१५२ ] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१५७] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [७] मूलं [ १५२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ( तेणं कालेणं) तस्मिन् काले ( तेणं समएणं) तस्मिन् समये ( पासे अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः (जे से हेमंताणं) योऽसौ शीतकालस्य (दुच्चे मासे तचे पक्खे) द्वितीयो मासः तृतीयः पक्षः ( पोसमहुले) पौषबहुल ( तस्स णं पोसबहुलस्स दसमीपक्खेणं) तस्य पौषबहुलस्य दशमीदिवसे ( नवग्रहं मासाणं) नवसु मासेषु (बहुपडिपुन्नाणं) बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु (अट्टमाणं राइदिआणं) अर्धाष्टसु च अहोरात्रेषु ( विज्ञकंताणं) व्यतिक्रान्तेषु सत्सु (पुवरत्तावरत्तकालसमयसि ) पूर्वापररात्रिसमये मध्यरात्री इत्यर्थः (विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगे उपागते सति ( आरोग्गाऽऽरोग्गं दारघं पयाया) आरोग्या वामा आरोग्यं दारकं प्रजाता । (१५२) ॥ (जं पचिणं ) यस्यां रजन्यां (पासे अरहा पुरिसादाणीए जाए) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः जातः (सा णं रयणी बहुहिं देवेहि य देवीहि य) सा रजनी बहुभिः देवैः देवीभिश्च कृत्वा (जाव उपिजलमाणभूआ ) यावत् भृशं आकुला इव (कहकहगभूआ आविहुत्था) अव्यक्तवर्णकोलाहलमयी अभवत् ॥ (१५३ ॥ ( सेसं तहेव, नवरं पासाभिलावेणं भाणिअवं ) शेषं-जन्मोत्सवादि तथैव- पूर्ववत् परं पार्श्वाभिलापेन भणितव्यं (जाव तं होउ णं कुमारे पासे नामेणं) यावत् तस्मात् भवतु कुमारः पार्श्वः नाम्ना, तत्र प्रभौ गर्भस्थे सति शयनीयस्था माता पार्श्वे सर्पन्तं कृष्णसर्प ददर्श ततः पार्श्वेति नाम कृतं क्रमेण यौवनं प्राप्तः, | तचैवं धात्रीभिरिन्द्रादिष्टाभिर्लात्यमानो जगत्पतिः । नवहस्तप्रमाणाङ्गः क्रमादाप च यौवनम् ॥ १ ॥ ततः Education For Pile & Ferson Use O ~273~ श्रीपार्श्वस्य जन्मतदुत्सवः नामकरणं च मू. १५२-४ ५ १० १४ janelbary.org Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१५४ ] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१५८] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥ १२८ ॥ Jan Education XI दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [ १५४] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: कुशस्थलेश प्रसेनजिन्नृपपुत्रीं प्रभावतीनाम्नीं कनीं आगृह्य पित्रा परिणायितः अन्येयुर्गवाक्षस्यः स्वामी एकस्यां दिशि गच्छतः पुष्पादिपूजोपकरणसहितान्नागरान्नागरींश्च निरीक्ष्य एते क गच्छन्तीति कञ्चित्पप्रच्छ, स आह- प्रभो ! कुत्रचित्सन्निवेशे वास्तव्यो दरिद्रो मृतमातापितृको ब्राह्मणपुत्रः कृपया लोकैर्जीवितः कमठनामाऽऽसीत्, स च एकदा रत्नाभरणभूषितान् नागरान् वीक्ष्य अहो एतत्प्रागजन्मतपसः फलमिति विचिन्त्य पश्चाग्न्यादिमहाकष्ठानुष्ठायी तपखी जातः सोऽयं पुर्या बहिरागतोऽस्ति, तं पूजितुं लोका गच्छन्तीति निशम्प प्रभुरपि सपरिवारस्तं द्रष्टुं ययौ, तत्र काष्ठान्तर्दह्यमानं महासर्प ज्ञानेन विज्ञाय करुणासमुद्रो भगवानाह - 'अहो मूढ ! तपस्विन्! किं दयां बिना वृथा कष्टं करोषि यतः - कृपानदीमहातीरे, सर्वे धर्मास्तृणाङ्कुराः । तस्यां शोषमुपेतायां कियनन्दन्ति ते चिरम् ॥ १ ॥" इत्याकर्ण्य क्रुद्धः कमठोऽवोचत्-राजपुत्रा हि गजाश्वादिक्रीडां कर्त्तुं जानन्ति, धर्म तु वयं तपोधना एवं जानीमः, ततः खामिनाऽग्निकुण्डात् ज्वलत्काष्ठं आकृष्य कुठारेण द्विधा कारयित्वा च तापव्याकुलः सर्पो निष्कासितः, स च भगवन्नियुक्त पुरुषमुखान्नमस्कारान प्रत्याख्यानं च निशम्य तत्क्षणं विपथ धरणेन्द्रो जातः, अहो ज्ञानीति जनैः स्तूयमानः स्वामी स्वगृहं ययौ, कमठोऽपि तपस्तप्त्वा मेघकुमारेषु मेघमाली जातः ॥ (१५४) ॥ ( पासे णं अरहा पुरिसादाणीए ) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः ( दक्खे दक्खम्पन्ने ) दक्षः दक्षप्रतिज्ञः ( पडिवे अल्लीणे भद्दए विणीए ) रूपवान् गुणैरालिङ्गितः भद्रकः विनयवान् (तीसं वासाई अगारवासम For Pile & Fersonal Use O ~274~ दीक्षायै लौकान्तिका गमः सू. १५५ २० २५ ॥१२८॥ २८ janatalyag) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१५५] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१५९] an Educato दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [ १५५] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: वसित्ता) त्रिंशद्वर्षाणि गृहस्थावस्थायां स्थित्वा (पुणरबि लोयंतिएहिं ) पुनरपि लोकान्तिका (जिअकप्पि- देवोक्ताशी एहिं देवेर्हि) जीतकल्पिकाः देवाः (ताहिं इट्ठाहिं जाव एवं वयासी) ताभिः इष्टाभिर्वाग्भिः यावत् एवं ४ दीक्षा चमूअवादिषुः । (१५५) ॥ १५६-७ (जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! जाव जयजयसदं पउंजंति) जय जयवान् भव, हे समृद्धिमन् ! जय जय वान् भव हे कल्याणवन् ! यावत् जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति ॥ ( ९५६) । (पुपि पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पूर्व अपि पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य ( माणुस्सगाओ ) मनुष्ययोग्यात् (गिहत्थधम्माओ ) गृहस्थधर्मात् (अणुत्तरे आहोइए ) अनुपमं उपयोगात्मकं अवविज्ञानमभूत् (तं वेव सवं जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता ) तदेव सर्व पूर्वोक्तं वाच्यं यावत् घनं गोत्रिणो विभज्य दत्वा (जे से हेमंताणं ) योऽसौ शीतकालस्य (दुचे मासे तचे पक्खे) द्वितीयो मासः तृतीयः पक्षः ( पोसबहुले) पौषस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं पोसबहुलस्स इकारसीदिवसेणं) तस्य पीपबहुलस्य एकादशीदिवसे (पुण्हकालसमयंसि ) पूर्वाह्नकालसमये - प्रथमप्रहरे ( बिसाला सिबिआए) विशालया नाम शिविकया (सदेवमणुआसुराए ) देवमनुष्यासुरसहितया (परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे) पर्षदा समनुगम्यमानमार्गः ( तं चैव सवं नवरं ) सर्व तदेव पूर्वोक्तं वाच्यं, अयं विशेष: ( वाणारसिं नगरिं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छ) बाणारस्या नगर्या मध्यभागेन निर्गच्छति ( निग्गच्छिता) निर्गत्य ( जेणेव आसमपए उज्जाणे ) For Pride & Personal Use O ~275~ ५ १४ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१५७] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [१५७] गाथा ||२..|| कल्प सुबो- यत्रैव आश्रमपदनामकं उद्यानं (जेणेव असोगवरपायवे) यत्रैव अशोकनामा वृक्षा (तेणेव उवागच्छहा उपसगेस: व्या०७ 18 तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य (असोगवरपायवस्स अहे) अशोकवृक्षस्य अधस्तात् (सीय शहन ॥१२९॥ ठावेह) शिविकां स्थापयति (ठवित्ता) संस्थाप्य (सीयाओ पचोरुहा) शिबिकातः प्रत्यवतरति (पच्चो-18 रुहिता) प्रत्यवतीय (सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुअह) खयमेव आभरणमालालारान् अवमुञ्चति18 (ओमुइत्ता) अवमुच्य (सयमेव पंचमुट्ठियं लोअं करेइ) खयमेव पञ्चमौष्टिकं लोचं करोति (करित्ता) लोचं कृत्वा (अट्ठमणं भत्तेणं अपाणएणं) अष्टमेन भक्तेन अपानकेन-जलरहितेन (विसाहाहिं नक्खतेणं जोगमुवागएणं) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति ( एगं देवसमादाय) एकं देवदृष्यं गृहीत्वा SI(तिहि पुरिससरहिं सद्धिं मुंडे भविसा) त्रिभिः पुरुषशतैः साई मुण्डो भूत्वा (अगाराओ अणगारियं पञ्चइए) गृहानिष्क्रम्य साधुता प्रतिपन्नः ।। (१५७)॥ (पासे गं अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हन पुरुषादानीयः (तेसीई राईदियाई) त्र्यशीति रात्रिदिव-181 |सान यावत् (निचं बोसट्टकाए चियत्तदेहे) नित्यं व्युत्सृष्टकायः त्यक्तदेहः (जे केइ उवसग्गा |उप्पजति) ये केचन उपसर्गाः उत्पद्यन्ते (तंजहा)तद्यथा (दिवा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिआ वा) 181 देवकृताः मनुष्यकृताः तिर्यक्कृता वा (अणुलोमा वा पडिलोमा वा ते उच्पन्ने सम्मं सहइ) अनुलोमा वा प्रतिलोमा वा तान् उत्पन्नान सम्यक सहते (तितिक्खइ खमइ अहियासेइ) तितिक्षते क्षमते अध्यासयति, दीप अनुक्रम [१५९] ॥१२९॥ SAMEducation ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१५८] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५८] गाथा ||२..|| तत्र देवोपसर्गः कमठसम्बन्धी, स चैवं-खामी प्रव्रज्यैकदा विहरन् तापसाश्रमे कूपसमीपे न्यग्रोधाधो निशि केवलोत्यप्रतिमया स्थितः, इतः स मेघमाली सुराधमः श्रीपार्श्वमुपद्रोतुं आगत्य क्रोधान्धः स्वविकुर्वितशार्दूलवृश्चि-1, | चिःम. कादिभिरभीतं प्रभुं निरीक्ष्य गगनेऽन्धकारसन्निभान् मेघान् विकुळ कल्पान्तमेघवदर्षितुं आरेभे, विद्युतश्च अतिरौद्राकारा दिशि दिशि प्रसृताः, गर्जारवं च ब्रह्माण्डस्फोटसदृशं अकरोत्, क्षणादेव च प्रभुनासाग्रं यावजले प्राप्ते आसनकम्पेन धरणेन्द्रो महिषीभिः समं आगत्य फणैः प्रभु आच्छादितवान् , अवधिना च विज्ञातोऽमर्षेण वर्षन मेघमाली धरणेन्द्रेण हक्कितः प्रभु शरणीकृत्य खस्थानं ययौ, धरणेन्द्रोऽपि नाट्यादिभिः प्रभुपूजां विधाय खस्थानं ययौ, एवं देवादिकृतानुपसर्गान् सम्यक सहते ॥ (१५८)। | (तए णं से पासे भगवं अणगारे जाए) ततः स पावों भगवान् अनगारो जाता (इरियासमिए जाव अप्पाणं भावेमाणस्स ) ईर्यायां समितः यावत् आत्मानं भावयतः (तेसीई राइंदियाई विइकताई) त्र्यशीतिः अहोरात्रा व्यतिक्रान्ताः (चउरासीइमस्स राइदियरस अंतरा वहमाणस्स) चतुरशीतितमस्य | अहोरात्रस्य अन्तरा वर्तमानस्य (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे) योऽसौ ग्रीष्मकालस्य प्रथमो || मासः प्रथमः पक्षः (चित्तबहुले) चैत्रस्य बहुलपक्षा-कृष्णपक्षः (तस्स णं चित्तबहुलस्स) तस्य चैत्रबहुलस्य चतुर्थीदिवसे (पुषणहकालसमयंसि) पूर्वाहकालसमये-प्रथमपहरे(धायइपायवस्स अहे) धातकीनामवृक्षस्य अध:18 (छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन अपानकेन-जलरहितेन (बिसाहार्हि नक्षत्तेणं जोगमुवागएणं) दीप अनुक्रम [१६०] ~277~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१५९] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५९] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-विशाखापां नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (शाणंतरिआए बदमाणस्स) ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य 8॥ श्रीपार्श्वस्य व्या० (अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदसणे समुप्पन्ने ) अनन्ते अनुपमे यावत् केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने गणादिमा (जाव जाणमाणे पासमाणे विहरह) यावत् सर्वभावान् जानन पश्यंश्च विहरति । (१५९)॥ १३०|| १६०-१ (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (अट्ठ गणा अट्ठ गणहरा हुत्था) अष्टी गणा अष्टी गणधराश्च अभवन् , तत्र एकवाचनिका यतिसमूहा-गणाः, तन्नायकाः सूरयो गण-18 धराः, ते श्रीपार्श्वस्य अष्टौ, आवश्यकेतु दश गणा.दश गणधराश्चोक्ताः, इह स्थानाङ्गे च द्वौ अल्पायुष्क त्वा-1 दिकारणान्नोक्तौ इति टिप्पनके व्याख्यातं (तंजहा) तद्यथा (सुभे य १ अघोसे य:२ बसिढे ३ बंभयारि य सोमे ५ सिरिहरे ६ चेव, वीरभद्दे ७ जसेविय ८)॥१॥ शुभश्च १ आर्यघोषश्च २ वशिष्टः ३ब्रह्मचारी ४ च सोमः५ श्रीधरश्चैव ६ वीरभद्रः७ यशस्वी ८च ॥ (१६०)॥ (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (अजदिन्नपामुक्खाओ) आर्यदत्तप्रमुखाणि (सोलस समणसाहस्सीओ) षोडश श्रमणसहस्राणि (१६:००) (उकोसिआ समण-1 २५ संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणसम्पदा अभवत् ॥ (१६१)॥ . ॥१३॥ (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (पुष्कचूलापामुक्खाओ) पुष्प-1 दीप अनुक्रम [१६१] lianushayara ~278 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१६२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१६२] गाथा ||२..|| चूलाप्रमुखाणि (अट्ठत्तीसं अज्जियासाहस्सी) अष्टत्रिंशत् आर्यिकासहस्राणि (३८०००)(उक्कोसिआ अजि- श्रीपार्थस यासंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती आर्यिकासम्पदा अभवत॥ (१६२)॥ परिवारम्स. SIL (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (सुबयपामुक्खाणं) सुव्रतप्रमुखाणां (समणोवासगाणं) श्रमणोपासकानां-श्रावकाणां (एगा सयसाहस्सी) एकः लक्षः (चउसहीं च सहस्सा) चतुःषष्टिश्च सहस्राः (१६४०००)(उकोसिआ समणोवासगाणं संपया हुत्था) उस्कृष्टा एतावती श्रावकाणां सम्पदा अभवत् ॥ (१६३)॥ | (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्स (सुनंदापामुक्खाणं) सुनन्दाप्रमुखाणां (समणोवासियाणं) श्रमणोपासिकानां-श्राविकाणां (तिनि सयसाहस्सीओ) त्रयः लक्षाः (सत्तावीसं च सहस्सा) सप्तविंशतिश्च सहस्राः (३२७०००)(उकोसिआ समणोवासियाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणोपासिकानां सम्पदा अभवत् ॥ (१६४)॥ (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (अवहसया चउद्दसपुखीणं) अध्युष्टशतानि (३५०) चतुर्दशपूर्विणां (अजिणाणं जिणसंकासाणं) अकेवलिनामपि केवलितुल्यानां (जाव चउद्दसपुवीणं संपया हुत्था) यावत् चतुर्दशपूर्विणां सम्पदा अभवत् ॥ (१६५)॥ (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (चउद्दस सया ओहिना-11 दीप अनुक्रम [१६४] एemenerdersersesesercene LABEnicationa l ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१६६] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [१६६] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-राणीणं) चतुर्दश शतानि (१४००) अवधिज्ञानिनां, (दस सया केवलनाणीणं) दश शतानि (१०००) श्रीपार्थपव्या०७ केवलज्ञानिनां.(इकारससया वेउबियाणं) एकादश शतानि (११००) वैक्रियलब्धिमतां (छस्सया रिउम- रिवारः सू. ईणं) पट शतानि (६००) ऋजुमतीनां, (दस समणसया सिद्धा) दश भ्रमणशतानि (१०००) सिद्धानि.(बीसं। ॥१३॥ १६६-७ अजियासया सिहाई)विंशतिः आर्याशतानि (२०००) सिद्धानि, (अद्भहसया विउलमईणं) अोष्टी शतानि (७५०) विपुलमतीनां,(छसया वाईणं) षट् शतानि (६००) वादिनां, (बारस सया अणुत्तरोषवाइयाणं) द्वादश शतानि (१२००) अनुत्तरोपपातिना,सम्पदा अभवत् ।। (१६६)॥ 8 (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (दुविहा अंतगडभूमी हुत्था) द्विविधा मुक्तिगामिनां मर्यादा अभूत् (तंजहा) तद्यथा-(जुगतगडभूमी) युगान्तकृद्भूमिः (परियायंतगडभूमी य) पर्यायान्तकृभूमिश्च (जाव चउत्थाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी) यावत् चतुर्थ पट्टधरपुरुषं युगान्तकृभूमिः, श्रीपार्श्वनाथादारभ्य चतुर्थ पुरुषं यावत् सिद्धिमार्गों वहमानः स्थितः (तिवासपरिआए8 अंतमकासी) त्रिवर्षपर्याये कश्चिन्मुक्तिं गता, पर्यायान्तकृद्भूमौ तु केवलोत्पत्तेस्त्रिषु वर्षेषु गतेषु सिद्धिगम-RI नारम्भः ॥ (१६७)॥ ॥१३॥ (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (पासे अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हनश पुरुषादानीयः (तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता) त्रिंशत् वर्षाणि गृहस्थावस्थायां उषित्वा-स्थित्वा ।। २८ दीप अनुक्रम [१६४] ~280 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१६८] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [१६८] गाथा ||२..|| (तेसीई राइंदिआई) व्यशीति अहोरात्रान् (छउमस्थपरिआय पाउणित्ता) छद्मस्थपर्यायं पालयित्वा (देसू- गारवासयाणाई सत्तरि वासाई) किश्चिदूनानि सप्ततिं वर्षाणि (केवलिपरिआय पाउणित्ता) केवलिपर्यायं पालयित्वामानादि RI(पडिपुन्नाई सत्तरि वासाई) प्रतिपूर्णानि ससतिं वर्षाणि (सामनपरियायं पाउणित्ता) चारित्रपर्यायं पाल- मू. १६८ पायित्वा (एकं वाससयं सघाउयं पालहत्सा) एकं वर्षेशतं सर्वायुः पालयित्वा (खीणे बेयणिजाउयनामगुत्ते) क्षीणेषु सत्सु वेदनीयायुर्नामगोत्रेषु कर्मसु (इमीसे ओसप्पिणीए) अस्यामेव अवसर्पिण्यां (दूसमसुसमाए बहुविइकंताए) दुष्षमसुषमनामके चतुर्थेऽरके बहुव्यतिक्रान्ते सति (जे से वासाणं पढमे मासे दुचे पक्खे) | योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षः (सावणसुद्ध) श्रावणशुद्धः (तस्सणं सावणसुद्धस्स अट्टमीप-16 क्खणं) तस्य श्रावणशुद्धस्य अष्टमीदिवसे (उप्पिसंमेअसेलसिहरंसि) उपरि सम्मेतनामशैलशिखरस्प (अप्प| चउत्तीसइमे) आत्मना चतुस्त्रिंशत्तमः (मासिएणं भत्तेणं अपाणएण) मासिकेन भक्तेन अपानकेन (विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) विशाखानक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (पुषण्हकालसमयंसि) पूर्वाहकालसमये, तत्र प्रभोमोक्षगमने पूर्वाह एव काल, 'पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसित्ति कचित्पाठस्तु लेखकदोषान्मतान्त-12 रभेदाद्वा (वग्घारियपाणी) प्रलम्बितौ पाणी-हस्तौ येन स तथा, कायोत्सर्गे स्थितत्वात् प्रलम्बितभुजद्वयः, (कालगए बिहकते जाच सबदुक्खप्पहीणे) भगवान कालगतः व्यतिक्रान्तः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीण ॥ (१६८) (पासरसणं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (जाव सबदुक्खप्पहीणस्स) यावत् । दीप अनुक्रम [१६७] ~281~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१६९ ] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१६८] कल्प. सुबो घ्या० ७ ॥१३२॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१६९] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्ति: : सर्वदुःखप्रक्षीणस्य (दुवालस वाससपाई विश्कताई) द्वादश वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि (तेरसमस्स य वाससयस्स) त्रयोदशमस्य वर्षशतस्य (अयं तीसइमे संबच्छरे काले गच्छ ) अयं त्रिंशत्तमः संवत्सरः कालो गच्छति, तत्र श्रीपार्श्वनिर्वाणात् पञ्चाशदधिकवर्षशतद्वयेन श्रीवीरनिर्वाणं, ततश्वांशीत्यधिक नववर्षशतानि अतिक्रान्तानि तदा वाचना, ततो युक्तमुक्तं त्रयोदशमशतसंवत्सरस्यायं त्रिंशत्तमः संवत्सरः कालो गच्छतीति, इति श्रीपार्श्वनाथ चरित्रं समाप्तम् ॥ (१६९) ॥ अथ श्री aferrets जघन्यादिवाचनाभिश्चरित्रमाह - ( तेणं कालेणं) तस्मिन् काले ( तेणं समएणं) तस्मिन् समये (अरहा अरिनेमी पंचचित्ते हुत्था ) अर्हन् अरिष्टनेमिः पञ्चसु चित्रा यस्य स पञ्चचित्रः अभवत् (संजहा) तद्यथा (चित्ताहिं चुए चहत्ता गन्भं वकते) चित्रायां च्युतः च्युत्वा गर्भे उत्पन्नः (तहेव उक्खेचो) | तथैव चित्राभिलापेन पूर्वोक्तः पाठो वक्तव्यः (जाव चित्ताहि परिनिब्बुए) यावत् चित्रायां निर्वाणं प्राप्तः ॥ (१७०) || (ते काले ) तस्मिन् काले ( तेणं समएणं) तस्मिन् समये ( अरहा अरिनेमी) अर्हन् अरिष्टनेमिः (जे से वासाणं चरथे मासे सत्तमे पक्खे) योऽसौ वर्षाकालस्य चतुर्थी मासः सप्तमः पक्षः (कतिअबहुले) कार्त्तिकस्य बहुलपक्षः (तस्स णं कत्तियवहुलस्स बारसीपक्खेणं) तस्य कार्त्तिकबहुलस्य द्वादशीदिवसे ( अपराजिआओ महाविमाणाओ) अपराजितनामकात् महाविमानात् ( बत्तीसं सागरोवमहिहआओ ) द्वात्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिर्यत्र ईदृशात् (अनंतरं चयं चत्ता) अनन्तरं च्यवनं कृत्वा (इहेव जंबुद्दीवे दीवे) ... अथ श्री नेमिनाथ चरित्रं संक्षेपेण कथयते For Pile&Ferson Use O ~282~ श्रीनेमेः क स्याणकानि मू. १७० २० २५ ॥१३२॥ २८ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७१] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक श्रीनेमिना [१७१] गाथा ||२..|| अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे (भारहे बासे) भरतक्षेत्रे (सोरियपुरे नयरे) सौर्यपुरे नगरे (समुद्दविजयस्स रन्नो) समुद्रविजयस्य राज्ञः (भारियाए सिवाए देवीए) भार्यायाः शिवाया देव्याः कुक्षी (पुत्ररत्तावरत्तकालस थस्य गमेंदमयंसि) पूर्वापररात्रकालसमये-मध्यरात्री (जाव चित्ताहिं गन्भत्ताए वकंते) यावत् चित्रायां गर्भतया उत्पन्नःशाजन्म (सर्व तहेव सुमिणदंसणदविणसंहरणाह इत्थ भाणिय) सर्व तथैव स्वमदर्शनं पितृवेश्मनि द्रव्यसंहरणा-IIIनामम |दिवर्णनं अब भणितव्यम् ॥ (१७१)॥ १७१| (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं ) तस्मिन् समये (अरहा अरिट्ठनेमी) अर्हन अरिष्ठनेमिः IN १७२ (जे से वासाणं पढमे मासे दुचे पक्खे) योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षः (सावणसुद्ध) श्रावणशुद्धः (तस्स णं सावणसुद्धस्स पंचमीपक्खेणं)तस्य श्रावणशुहस्य पश्चमीदिवसे (नवण्हं मासाणं||| बहुपडिपुन्नाणं ) नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु (जाव चित्ताहि नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) यावत् चित्रानक्षत्रे चन्द्रयोग उपागते सति (आरोग्गाऽऽरोग्गं दारयं पयाया) अरोगा शिवा अरोगं दारकं प्रजाता (जम्मणं समुद्दविजयाभिलावेणं नेय) जन्मोत्सवः समुद्रविजयाभिधानेन ज्ञातव्यः (जाव तं होउ णं कुमारे अरिहनेमी नामेणं) यावत् तस्मात् भवतु कुमारः अरिष्टनेमि ना कृत्वा, यस्मात् भगवति गर्भस्थे माता |रिष्ठरत्नमयं नेमि-चक्रधारां खमेद्राक्षीत् ततोऽरिष्टनेमिः, अकारस्य अमालपरिहारार्थत्वाच अरिष्टनेमिरिति, रिष्ठशब्दो हि अमङ्गलवाचीति, कुमारस्तु अपरिणीतत्वात् , अपरिणयनं तु एवं-एकदा यौवनाभिमुखं १४ दीप अनुक्रम 200000 [१७१] क.मु. २३ O dianusbanoos ... अथ शेष तीर्थकराणां अन्त्राणि वर्णयन्ते ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१७३] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१३३॥ Jan Educaton in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१७२] / गाथा [२...] ........... व्याख्यान [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: नेमिं निरीक्ष्य शिवादेवी समवदत् - वत्सानुमन्यस्व पाणिग्रहणं पूरय चास्मन्मनोरथं, स्वामी तु योग्यां कन्यां प्राप्य परिणेष्यामीति प्रत्युत्तरं ददौ ततः पुनरेकदा कौतुकरहितोऽपि भगवान् मित्रप्रेरितः क्रीडमानः कृष्णायुधशालायामुपागमत्, तत्र कौतुकोत्सुकैर्मित्रैविज्ञप्तोऽस्य कुलालचक्रवचकं भ्रामितवान् शार्ङ्ग धनुर्मृणालवन्नामितवान्, कौमोदकीगदां यष्टिवदुत्पाटितवान् पाञ्चजन्यं शङ्खं च स्वमुखे धृत्वा आपूरितवान् तदा चनिर्मूल्यालान मूलं व्रजति गजगणः, खण्डयन् वेश्ममालां, धावन्त्युत्रोटय बन्धान् सपदि हरिहया मन्दुरायाः प्रणष्टाः । शब्दाद्वैतेन सर्वं बधिरितमभवत्तत्पुरं व्यग्रमुग्रं श्रीनेमेक्लपद्मप्रकटितपवनैः पूरिते पाञ्चजन्ये ॥ १ ॥ तं तादृशं च शब्दं निशम्योत्पन्नः कोऽपि वैरीति व्याकुलचित्तः केशवस्त्वरितं आयुधशालायां आगतः, दृष्ट्वा च नेमिं चकितो निजभुजबलुतुलनाय आवाभ्यां बलपरीक्षा क्रियते इति नेमिं वदंस्तेन सह मल्लाक्षाटके जगाम, श्रीनेमिरोह-अनुचितं ननु भूलुठनादिकं, सपदि बान्धव । युद्धमिहावयोः । बलपरीक्षणकृद्ध जवालनं भवतु नान्यरणः खलु युज्यते ॥ १ ॥ द्वाभ्यां तथैव स्वीकृतं - कृष्णप्रसारितं बाहुं नेमिवेंत्रलतामिव । मृणालदण्डवच्छीघ्रं, वालयामास लीलया ॥ १ ॥ शाखानिभे नेमिजिनस्य बाहौ ततः स शाखामृगवद्वि- ६ २५ लग्नः । चक्रे निजं नाम हरियधार्थमुद्विषादद्विगुणासितास्यः ॥ २ ॥ ततो महतापि पराक्रमेण नेमिभुजेऽव| लिते सति विषण्णचिन्तः कृष्णो मम राज्यमेव सुखेन ग्रहीष्यतीति चिन्तातुरः स्वचित्ते चिन्तयामासक्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते । ममन्थ शङ्करः सिन्धु, रत्नान्यापुर्दिवौकसः ॥ १ ॥ अथवा ॥१३३॥ २८ For Pride & Personal Use On बलपरिक्षा. ~ 284~ २० Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| aeos900000000000000093erease क्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते । दन्ता दलन्ति कष्टेन, जिह्वा गिलति लीलया ॥२॥ ततो बलभ- जलक्रीडा द्रेण सहालोचयति-किं विधास्ये? नेमिस्तु राज्य लिप्मुबलवांश्च, तत आकाशवाणी प्रादुरभूदु-अहो हरे! पुरा नमिनाथेन कथितमासीद् यदुत द्वाविंशस्तीर्थकरो नेमिनामा कुमार एवं प्रव्रजिष्यतीति श्रुत्वा निश्चिन्तोऽपि निश्चयार्थ नेमिना सह जलक्रीडां का अन्तःपुरीपरिवृतः सरोऽन्तरे प्रविष्टा, तत्र च-प्रणयतः परिगृह्य । करे जिनं, हरिरवेशयदाशु सरोऽन्तरे । तदनु शीघ्रमसिञ्चत नेमिनं, कनकशृङ्गाजलैघुमृणाविलैः॥१॥तथाM रुक्मिणीप्रमुखगोपिका अपि ज्ञापितवान्-यदयं नेमिनिःशङ्क क्रीड़या पाणिग्रहाभिमुखीकार्यः, ततश्च ता अपि-काश्चित् केसरसारनीरनिकरैराच्छोटयन्ति प्रभु, काश्चिद् बन्धुरपुष्पकन्नुकभरैर्निनन्ति वक्षःस्थले। काश्चितीक्ष्णाकटाक्षलक्षविशिर्षियन्ति नर्मोक्तिभिः, काश्चित्कामकलाविलासकुशला , विस्मापपाश्चकिरे | ॥१॥ ततश्च तावत्यः प्रमदाः सुगन्धिपयसा, स्वर्णादिशृङ्गी शं, भृत्वा तज्जलनिझरैः पृथुतरैः, कत्तु प्रभु व्याकुलम् । प्रावर्तन्त मिथो हसन्ति सततं , क्रीडोल्लसन्मानसास्तावद्वयोमनि देवगीरिति समुद्भूता श्रुता चौखिलैः ॥१॥ मुग्धाः स्थ प्रमदा यतोऽमरगिरी,गीर्वाणनाथैश्चतुःषष्ट्या योजनमानवक्त्रकुहरैः कुम्भैः सह साधिकः । बाल्येऽपि स्लपितो य एष भगवान्नाभून्मनागाकुलः, कर्तुं तस्य सुयत्नतोऽपि किमहो, युष्माभिरीशिष्यते ? ॥२॥ ततो नेमिरपि हरि ताश्च सर्वा जलेराच्छोटयति स्म कमलपुष्पकन्दुकैश्च ताडयति स इत्यादि। सविस्तरं जलक्रीडां कृत्वा तटमागत्य नेमि वर्णासने निवेश्य सर्वा अपि गोप्यः परिवेष्ट्य स्थिताः, तत्र दीप अनुक्रम [१७३] ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक क्यानि [१७२] गाथा ||२..|| दीप अनुक्रम रुक्मिणी जगौ-निर्वाहकातरतयोद्वहसे न यत्त्वं, कन्यां तदेतदविचारितमेव नेमे ! । भ्राता तवास्ति विदितः। कल्प.सुबोसुतरां समर्थो, द्वात्रिंशदुन्मितसहस्रवधूर्विवोढा ॥१॥ तथा सत्यभामाप्युवाच-ऋषभमुख्यजिनाः करपीडन,SI गोपीवाव्या०७ विदधिरे दधिरे च महीशताम् । वुभुजिरे विषयांश्च पहुन् सुतान् , सुषुविरे शिवमप्यथ लेभिरे॥२॥ त्वमसि ॥१३४॥ किन्नु नवोऽद्य शिवङ्गमी, भृशमरिष्टकुमार ! विचारय । कलय देवर ! चारु गृहस्थतां, रचय बन्धुमनस्सु च सुस्थताम् ॥ ३ ॥ अथ जगाद च जाम्बुवती जवात्, शृणु पुरा हरिवंशविभूषणम् । स मुनिसुव्रततीर्थपतिगृही, शिवमंगादिह जातसुतोऽपि हि ॥४॥ पद्मावतीति समुवाच विना वधूटी, शोभा न काचन नरस्य भवत्यवश्यम् । नो केवलस्य पुरुषस्य करोति कोऽपि, विश्वासमेष विट एव भवेदभार्यः ॥५॥ गान्धारी IS|जगी-सजन्ययात्राशुभसासार्थपर्योत्सवा वेश्मविवाहकृत्यम् । उद्यानिकापुक्षणपर्षदश्व, शोभन्त एतानि IS विनाऽङ्गनां नो ॥६॥ गौरी उवाच-अज्ञानभाजः किल पक्षिणोऽपि, क्षितौ परिभ्रम्य वसन्ति सायम् । नीडे खकान्तासहिताः सुखेन, ततोऽपि किं देवर ! मूढहक त्वम् ॥ ७॥ लक्ष्मणाऽप्यवोचत्-स्नानादिसर्वाङ्गपरिस्क्रियायां, विचक्षणः प्रीतिरसाभिरामः । विस्रम्भपात्रं विधुरे सहायः, कोऽन्यो भवेन्नूनमृते प्रियायाः? ॥८॥ सुसीमाऽप्यवादीत्-विना मियां को गृहमीगतानां, प्राघूर्णकानां मुनिसत्तमानाम् । करोति पूजापतिपत्तिमन्यः, कथं च शोभा लभते मनुष्यः१,॥९॥ एवमन्यासा अपि गोपाइनानां वाचोयुक्त्या यदूनामाग्रहाच | IN॥१३४॥ मौनावलम्बिनमपि स्मिताननं जिनं निरीक्ष्य 'अनिषिद्धं अनुमत' इति न्यायात् नेमिना पाणिग्रहणं स्वीकृतमिति २८ [१७३] ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१७३] Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१७२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ताभिर्वा उद्घोषितं तथैव जनोक्तिरिति, ततः कृष्णेनोग्रसेनपुत्री राजीमती मार्गिता, लग्नं पृष्टश्च क्रोष्टुकनामा ज्योतिर्वित् प्राह-वर्षासु शुभकार्याणि नान्यान्यपि समाचरेत् । गृहिणां मुख्यकार्यस्य, विवाहस्य तु का कथा ? ॥१॥ समुद्रस्तं बभाषेऽथ, कालक्षेपोऽत्र नार्हति । नेमिः कथञ्चित् कृष्णेन, विवाहाय प्रवर्तितः ॥ २॥ मा भूद्विवाहप्रत्यूहो, नेदीयस्तद्दिनं वद । श्रावणे मासि तेनोंक्ता, ततः षष्ठी समुजवला ॥ ३॥ ततो द्वयोः स्थानयोर्विहिता विवाहोचिता सामग्री, आसन्ने च क्रोष्टुक्यादिष्ठे लग्ने चलितः श्रीनेमिक्कुमारः स्फारशृङ्गारः प्रजाप्रमोद करो रथारूढो घृतातपत्रसारः श्रीसमुद्रविजयादिदशा केशवबलभद्रादिविशिष्टपरिवार: शिवादेवीप्रमुखप्रमदाजे|| गीयमानधवलमङ्गलविस्तार: पाणिग्रहणाय अग्रतो गच्छंश्च वीक्ष्य सारथिं प्रति कस्येंदं कृतमङ्गलभरं धवलमन्दिरं इति पृष्टवान् ततः सोऽङ्गुल्यग्रेण दर्शयन् इति जगाद - उग्रसेन नृपस्य तव श्वशुरस्यायं प्रासाद इति, इमे च तव भार्याया राजीमत्याः सख्यौ चन्द्राननामृगलोचनाभिधाने मिथो वार्त्तयतः, तत्र मृगलोचना विलोक्य चन्द्राननां प्राह-हे चन्द्रानने ! स्त्रीवर्गे एका राजीमत्येव वर्णनीया यस्याः अयमेतादृशो वरः पाणि ग्रहीष्यति, चन्द्राननाऽपि मृगलोचनामाह - राजीमतीद्भुतरूपरम्यां निर्माय धाताऽपि यदीदृशेन । वरेण नो योजयति प्रतिष्ठां लभेत विज्ञानविचक्षणः काम् ॥ १ ॥ इतश्च तूर्यशब्दमाकर्ण्य मातृगृहात् राजीमती सखीमध्ये प्राप्ता, हे सख्यौ । भवतीभ्यामेकाकिनीभ्यामेव साडम्बरमागच्छन् वरो विलोक्यते अहं तु विलोकयितुं न लभेयं इति बलात्तदन्तरे स्थित्वा नेमिं आलोक्य साधर्यं चिन्तयति किं पातालकुमारः किं वा मकर For File & Fersonal Use Only ~ 287 ~ विवाहायगर्मन १० १४ wijanlay.g Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [१७३] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१३५॥ Jan Education i दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१७२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ध्वजः सुरेन्द्रः किम् । किं वा मम पुण्यानां प्राग्भारो मूर्त्तिमानेषः १ ॥ १ ॥ तस्य विधातुः करयोरात्मानं न्युञ्छनं करोमि मुदा । येनैष बरो विहितः, सौभाग्यप्रभृतिगुणराशिः ॥ २ ॥ मृगलोचना राजीमत्यभिप्रायं परिज्ञाय समीतिहासं हे सखि ! चन्द्रानने । समग्रगुणसम्पूर्णेऽपि अस्मिन् वरे एकं दूषणं अस्त्येव परं वरार्थिन्यां राजीमत्यां शृण्वत्यां वक्तुं न शक्यते चन्द्राननाऽपि हे सखि ! मृगलोचने ! मयाऽपि तद् ज्ञातं, परं साम्प्रतं मौनमेवाचरणीयं, राजीमत्यपि त्रपया मध्यस्थतां दर्शयन्ती हे सख्यौ ! यस्याः कस्या अपि भुवनातभाग्यधन्यायाः कन्याया अयं वरो भवतु, परं सर्वगुणसुन्दरेऽस्मिन् वरे दूषणं तु दुग्धमध्यात् पूतरकर्षणप्रायं असम्भाष्यमेव, तदनु ताभ्यां सविनोदं कथितं भो राजीमति ! वरः प्रथमं गौरो विलोक्यते, अपरे गुणास्तु परिचये सति ज्ञायन्ते, तगौरत्वं तु कज्जलानुकारमेव दृश्यते, राजीमती से सख्यौ प्रत्याह-अय यावत् युवां चतुरे इति मम भ्रमोऽभवत्, साम्प्रतं तु स भग्नः यत् सकलगुणकारणं श्यामत्वं भूषणमपि दूषणतया प्ररूपितं शृणुतं तावत् सावधानीभूय भवत्यौ श्यामस्वे श्यामवस्त्वाश्रपणे च गुणान् 'केवलगौरवे दोषांच, तथाहि-मूं १ चित्तवलि २ अगुरु, ३ कत्थूरी ४ घण ५ कणीणिगा ६ केसा ७ । कसबद्द ८ मसी ९ रयणी, १० कसिणा एए अणग्धफला ॥ १ ॥ इति कृष्णत्वे गुणाः, कैप्पूरे अंगारो १ चंदे, चिंधं २ कणीणिगा १ भूः चित्रे ही अगुरु कस्तूरी घनः कनीनिका केशाः । कथपट्टो मषी रजनी कृष्णा एते अनर्धफलाः ॥ १ ॥ अंगारः चन्द्रे चिन्हं कनीनिका नयने । भोज्ये मरीचं चित्रे रेखा कृष्णा अपि गुणहेतवः ॥ २ ॥ २ कर्पूरे For Pide & Personal Use Only ~ 288~ 52020 मृगलोचनादिहास्य २० २५ ॥१३५॥ bryg Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| नयणे ३ । भुजे मरीअं ४ चित्ते रेहा ५ कसिणावि गुणहेऊ ॥२॥ इति कृष्णवस्त्वाश्रयणे गुणाः । खारं वादः प. लवणं १ दहणं हिमं च २ अइगोरविग्गहो रोगी । परवसगुणो अ चुण्णो,४ केबलगोरत्तणेऽवगुणा १३॥ एवं परस्परं तासां जल्पे जायमाने श्रीनेमिः पशूनामार्त्तखरं श्रुत्वा साक्षेप-हे सारथे! कोऽयं दारुणः स्वरः सारथिः प्राह-युष्माकं विवाहे भोजनकृते समुदायीकृतपशूनामयं खर इत्युक्ते खामी चिन्तयति स्म-धिर विवाहोत्सवं यत्रानुत्सवोऽमीषां जीवानां, इतश्च 'हेल्ली सहिओ! कि मे दाहिणं चक्खू परिप्फुरईत्ति वदन्ती राजीमती प्रति सख्यौ-प्रतिहतममङ्गलं ते इत्युक्त्वा थुथुत्कारं कुरुतः, नेमिस्तु-हे सारथे ! रमितो निवर्त्तय अत्रान्तरे नेमिं पश्यन्नेको हरिणः खग्रीवया हरिणीग्रीवां पिधाय स्थितः, अत्र कविघटना-खामिनं वीक्ष्य हरिणो ब्रूते-मो पहरसु मा पहरसु एवं मह हिअयहारिणि हरिणि । सामी! अम्हं मरणावि, दुस्सहो पिअत| माविरहो ॥१॥ हरिणी नेमिमुखं निभाल्प हरिणं प्रति ब्रूते-ऐसो पसन्नवयणो तिहुअणसामी अकारणं बंधू 18 |ता विपणवेसु बल्लह ! रक्खत्थं सवजीवाणं ॥ हरिणोऽपि पत्नीप्रेरितो नेमि ब्रूते-निजेझरणनीरपाणं, अरण्ण-R १क्षारं लवण दहनं हिमं च अतिगौरविग्रहो रोगी । परवशगुणश्च चूर्णः केवलगौरत्वेऽवगुणाः ॥३॥ २हले सख्यः किं मम दक्षिणं चक्षुः परिस्फुरति ? ३ मा प्रहर मा प्रहर एतां मम हृदयहारिणी हरिणीं । स्वामिन् ! अस्माकं मरणादपि दुःसहः प्रियतमाविरहः ॥ १॥ ४ एष प्रसन्नवदनः त्रिभुवनखामी अकारणबन्धुः । तस्माद् विज्ञपय वल्लभ ! रक्षाथै सर्वजीवानां ॥ २॥ ५ निर्झरणनीसानं अरण्यतृणभक्षणं च वनवासः । अस्माकं निरपराधानां जीवितं रक्ष रक्ष प्रभो! ॥३॥ दीप अनुक्रम [१७३] LABEnicatondol ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| कल्प.सपो-तणभक्खणं च वणवासो । अम्हाण निरवराहाण, जीविअं रक्ख रक्ख पहो! ॥ ३॥ एवं सर्वेऽपि पशवः। मुमुक्षुता व्या०७ खामिनं प्रति विज्ञपयन्ति, तावत्वामी बभाषे-भो पशुरक्षकाः ! मुश्चत मुश्चत इमान् पशून नाहं विवाह प्राथेनाच करिष्ये, पशुरक्षकाः श्रीनेमिवचसा पशून मुश्चन्ति स्म, सारथिरपि रथं निवर्त्तयते स्म, अत्र कवि:-हेतुरिन्दोः ॥१३६॥ कलङ्के यो, विरहे रामसीतयोः। नेमे राजीमतीत्यागे, कुरङ्गः सत्यमेव सः॥१॥ समुद्रविजयशिवादेवीप्रमुखजनास्तु शीघ्रमेव रथं स्खलयन्ति स्म, शिवा च सवाष्पं ब्रूते-पत्थेमि जणणिवल्लह ! वच्छ तुमं पढमपत्थणं किंपि । काऊण पाणिगहणं महदंसे निअवह वयणं ॥१॥ नेमिराह-मुश्चाग्रहमिमं मातर्मानुषीषु न मे मनः। 8मुफिस्नीसङ्गमोत्कण्ठमकुण्ठमवतिष्ठते ॥२॥ यता-या रागिणि पिरागिण्परताः त्रिपाको निषेचते? । अतोऽहं कामये मुक्तिं, या विरागिणि रागिणी ॥३॥ इत्यादि, राजीमती-हा दैव ! किमुपस्थितमित्युक्त्वा मूछों प्राप्ता सखीभ्यां चन्दनद्रवैराश्वासिता कथमपि लब्धसञ्ज्ञा सवाष्पं गावखरेण प्राह-हाँ जापवकुलदिणयर ! हा निरुवमनाण हा जगस्सरण !हा करुणायर सामी! म मुत्तूणं कहं चलिओ॥४॥हाँ हिअय धिट्ट निद्र दीप अनुक्रम [१७३] ॥१३६॥ १प्रार्थयामि जननीवल्लभ ! वत्स ! स्वां प्रथमप्रार्थना कामपि । कृत्वा पाणिग्रहणं मम दर्शय निजवधूववनम् ॥१॥२ हा यादवकुल- दिनकर! हा निरुपमज्ञान ! हा जगच्छरण || हा करुणाकर ! खामिन् ! मां मुक्त्वा कथं चलित: ॥४॥ ३ हा हृदय ! धृष्ट पनिठुर अद्यापि निर्लज्ज ! जीवितं वहसि । अन्यत्र बन्धरागो यदि नाथ आत्मनो जातः ॥ ५॥ BUX ~290~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१७३] Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१७२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: अजवि निल्लज्ज जीविअं वहसि । अन्नत्थ वद्धराओ, जइ नाही अत्तणो जाओ ॥ ५ ॥ पुनर्निःश्वस्य सोपालम्भं जगाद-जेई सयलसिद्धमुत्ताइ मुत्तिगणिआइ धुत्त । रक्तोऽसि । ता एवं परिणयणारंभेण विडंबिआ किमहं ? ॥ ६ ॥ सख्यौ सरोषं-लोअपसिद्धी बतडी, सहिए इक सुणिज्य | सरलं विरलं सामलं, चुकिअ विही करिन ॥ ७ ॥ पिम्मैरहिअंमि पिअसहि !, एअंमिवि किं करेसि पिअभावं ? । पिम्मपरं किंपि वरं, अन्नयरं ते करिसामो ॥ ८ ॥ राजीमती कर्णौ पिधाय हा अश्राव्यं किं श्रावयथः ? जइ कहवि पच्छिमाए, उदयं पावेह दिणयरो तहवि । मुत्तूण नेमिनाहं, करेमि नाहं वरं अन्नं ॥ ९ ॥ पुनरपि नेमिनं प्रतित्रतेच्छुरिच्छाधिकमेव दत्से, त्वं याचकेभ्यो गृहमागतेभ्यः । मयाऽर्थयन्त्या जगतामधीश !, हस्तोऽपि हस्तोपरि नैव लब्धः ॥ १० ॥ अथ विरक्ता राजीमती प्राह-जैइविहु एअस्स करो. मज्झ करे नो अ आसि परिणयणे । तहवि सिरे मह सुचिअ १ यदि सकलसिद्धभुतायां मुक्तिगणिकायां धूर्त ! रक्तोऽसि । तत एवं परिणयनारम्भेण विडम्बिता किमहम् ? ।। ६ ।। २ लोकप्रसिद्धा वार्ता सखि एका श्रूयते । सरलं विरलं श्यामलं विस्मृत्य विधिः कुर्यात् ॥ ७ ॥ ३ प्रेमरहिते प्रियसखि । एतस्मिन्नपि किं करोषि प्रियभावं ? प्रेमपरं कमपि वरं अन्यतरं ते करिष्यामः ॥ ८ ॥ ४ यदि कथमपि पश्चिमायामुदयं प्राप्नोति दिनकरस्तथापि । मुक्त्वा नेमिनाथं करोमि नाहं वरमन्यम् ॥ ९ ॥ ५ यद्यपि एतस्य करो मम करे न चासीत्परिणयने । तथापि शिरसि मम स एव दीक्षासमये करो भविष्यति ।। १३ ।। For File & Fersonal Use Only ~ 291~ राजीमत्याः शोकः ५ ८ janbrary.org Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-दिक्खासमए करो होही ॥११॥ अथ नेमिनं सपरिकरः समुद्रविजयो जगौनाभेयायाः कृतोद्वाहाः, मुक्तिदानं दीक्षा व्या०७ जग्मुर्जिनेश्वराः । ततोऽप्युच्चैःपद ते स्थात्, कुमार ! ब्रह्मचारिणः १ ॥१२॥ नेमिराह-हे तात! क्षीणभोगक-चम, १७ ॥१३७॥ कामोऽहमस्मि,किञ्च-एकत्रीसंग्रहेऽनन्तजन्तुसङ्घातघातके। भवतां भवतान्तेऽस्मिन् , विवाहे कोऽयमाग्रहः ॥१३॥RI १० अत्र कविः-मन्येऽङ्गनाविरक्तः, परिणयनमिषेण नेमिरांगत्य । राजीमती पूर्वभवप्रेम्णा समकेतयन्मुक्त्यै ॥१४॥ | (अरहा अरिहनेमी) अर्हन अरिष्टनेमिः (दक्खे जाव तिनि वाससयाई) दक्षः यावत् त्रीणि वर्षश-श तानि (कुमारे अगारवासमझे वसित्ता) कुमारः सन् गृहस्थावस्थामध्ये उषित्वा (पुणरवि लोयंतिएहिं सर्व तं नेष भाणियचं) पुनरपि लोकान्तिका इत्यादि सर्व तदेव पूर्वोक्तं भणितव्यं, लोकान्तिका देवाः यथा-जाय |निर्जितकन्दर्प!, जन्तुजाताऽभयप्रद ! । नित्योत्सवावतारार्थ, नाथ! तीर्थ प्रवर्त्तय ॥१॥ इति खामिनं प्रोच्य खामी वार्षिकदानानन्तरं त्रिभुवनमानन्दयिष्यतीति समुद्रविजयादीन् प्रोत्सायन्ति स्म, ततः सर्वेऽपि 18 सन्तुष्टाः (जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता) यावत् घनं गोत्रिकाणां विभज्य-दत्वा, दानविधिस्तु । श्रीबीरचद् ज्ञेयः॥ (१७२)॥ ॥१३७॥ (जे से वासाणं पढमे मासे दुच्चे परवे ) योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षः (सावणसुद्धे) . |श्रावणस्य शुक्ल पक्षः (तस्स णं सावणसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं)तस्य श्रावणशुद्धस्य षष्ठीदिवसे (पुषण्हकालसमयंसि) पूर्वाह्नकालसमये (उत्तरकुराए सीयाए ) उत्तरकुरायां शिविकायां स्थितः (सदेवमणुआसुराए । २२ दीप beneceseseserceaeseserseceptices अनुक्रम [१७३] jianelbanaras ~292~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१७३] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१७४] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१७३] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: परिसाए) देवमनुष्यासुरसहितया पर्षदा ( समणुगम्ममाणमग्गे) समनुगम्यमानमार्गः ( जाव बारवईए नयरीए मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ ) यावत् द्वारवत्याः नगर्याः मध्यभागेन निर्गच्छति (निग्गच्छित्ता) निर्गत्य (जेणेव रेवयए उज्जाणे ) यत्रैव रैवतकं उद्यानं ( तेणेव उवागच्छइ ) तत्रैव उपागच्छति ( उवागच्छित्ता ) उपागत्य ( असोगवरपायवस्स अहे ) अशोकनामवृक्षस्य अधस्तात् ( सीयं ठावेइ) शिविकां स्थापयति ( ठाबित्ता ) संस्थाप्य (सीयाओ पचोरुहइ ) शिविकातः प्रत्यवतरति ( पञ्चोरुहित्ता ) प्रत्यवतीर्य ( सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयह ) स्वयमेव आभरणमालालङ्कारान् अवमुञ्चति (सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ ) स्वयमेव पञ्चमौष्टिकं लोचं करोति ( करिता ) कृत्वा च (छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं ) षष्ठेन भक्तेन अपानकेन- जलरहितेन ( चित्तार्हि नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) चित्रायां नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति ( एगं देवदूसमादाय) एकं देवदृष्यं गृहीत्वा ( एगेणं पुरिससहस्सेणं सद्धिं ) एकेन पुरुषाणां सहस्रेण सार्द्धं ( मुंडे भविता ) मुण्डो भूखा प्रभुः (आगाराओ अणगारियं पचइए) अगारान्निष्क्रम्य साधुतां प्रतिपन्नः ॥ (१७३) ।। (अरहा अरिनेमी ) अर्हन् अरिष्टनेमिः ( चउपन्नं राइंदिया) चतुष्पश्चाशतं अहोरात्रान् यावत् (निचं वोसटुकाए ) नित्यं व्युत्सृष्टकायः (तं चैव सवं जाब पणपन्नगस्स राइदियरस ) तदेव पूर्वोक्तं सर्व वाच्यं यावत् पञ्चपञ्चाशत्तमस्य अहोरात्रस्य ( अंतरा वहमाणस्स ) अन्तरा वर्तमानस्य (जे से वासाणं तचे मासे पंचमे पक्स्खे ) योऽसौ वर्षाकालस्य तृतीयो मासः पञ्चमः पक्षः ( आसोयबहुले ) आम्बिनस्य कृष्णपक्षः For Pride & Personal Use On ~293~ दीक्षा सू. १७२ केवलं सू. १७३ ५ १० १४ www.janbary.org Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७४] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७४] गाथा ||२..|| Seseseksee कल्प.सबो-(तस्स णं आसोयबहुलस्स पन्नरसीपक्खेणं ) तस्य आश्विनबहुलस्य पञ्चदशे दिवसे (दिवसस्स पकिछमेश्रीनेमिराध्या०७भाए ) दिवसस्य पश्चिमे भागे ( उर्जितसेलसिहरे वेडसस्स पायवस्स अहे) उज्जयन्तनामशैलस्य शिखरे जीपूर्वभवाः वेतसनामवृक्षस्य अधस्तात् (अहमेणं भत्तेणं अपाणएणं) अष्टमेन भक्तेन अपानकेन-जलरहितेन (चित्ताहिं ॥१३८॥ नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) चित्रा नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (झाणंतरियाए वहमाणस्स) शुक्लध्यानस्य मध्यभागे वर्तमानस्य प्रभोः (अणंते जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ ) अनन्तं केवल ज्ञानं समुत्पन्नं | यावत् सर्वभावान् जानन पश्यंश्च विहरति,तत्र केवलज्ञानं रैवतकस्थे सहस्राम्रवणे समुत्पेदे, तत उद्यानपालको | विष्णोद्मजिज्ञपत्, विष्णुरपि मर्या भगवन्तं वन्दितुमाययौ, राजीमत्यपि तत्रागता, अभ प्रभोर्देशन निशम्य वरदत्तनृपः सहस्रद्वयनृपयुतो व्रतमाददे, हरिणा च राजीमत्याः स्नेहकारणे पृष्टे प्रभुर्धनवतीभवादारभ्य तया सह खस्य नवभवसम्बन्धमांचष्टे, तथाहि-प्रथमे भवेऽहं धननामा राजपुत्रस्तदेयं धनवतीनाम्नी मत्पत्नी अभूत् १सतो द्वितीये भवे प्रथमे देवलोके आवां देवदेव्यो २ ततस्तृतीये भवेऽहं चित्रगतिनामा विद्याधरस्तदेयं रत्नवती मत्पत्नी ३ ततश्चतुर्थे भवे चतुर्थे कल्पे द्वावपि देवी ४ पञ्चमे भवेऽहं अपराजितराजा एषा प्रियतमा राज्ञी ५ षष्ठे एकादशे कल्पे द्वावपि देवी ६ सप्तमेऽहं शङ्खो नाम राजा, एषा तु यशोमती ॥१३८॥ राज्ञी ७ अष्टमे अपराजिते द्वावपि देवी ८ नवमेऽहं एषा राजीमती ९ततः प्रभुरन्यत्र विहत्य क्रमा पुनरपि KI रैवतके समवासरत्, तदा च अनेकराजकन्यापरिवृता राजीमती रथनेमिश्च प्रभुपार्श्वे दीक्षां जगृहतुः, अन्यदा दीप अनुक्रम [१७५] Sucatomix ~294 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७४] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७४] गाथा ||२..|| च राजीमती प्रभुनन्तुं रैवतके ब्रजंती मार्गे घृष्ट्या घाधिता एका गुहां प्राविशत्, तस्यां च गुहायां पूर्व प्रविष्टं रथ-रथनेमिस्थिनेमि अजानती सा क्लिनानि वस्त्राणि शोषयितुं परितश्चिक्षेप, ततश्च तां अपहसितत्रिदशतरुणीरामणीयकाति : राजीसाक्षात् कामरमणीमिव रमणीयां तथा विवसनां निरीक्ष्य भ्रातुबैरादिव मदनेन मर्मणि हतः कुललजामु-18 मोक्षः त्सृज्य धीरतामैवधीय रथनेमिस्तां जगाद-अयि सुन्दरि! किं देहः, शोष्यते तपसा त्वया । सर्वाङ्गभोगसंयोगयोग्यः सौभाग्यसेवधिः॥१॥ आगच्छ स्वेच्छया भद्रे,! कुर्वहे सफलं जनः । आवामुंभावपि प्रान्ते, चरि- ५ प्यावस्तपोविधिम् ॥ २॥ ततश्च महासती तदाकर्ण्य तं दृष्ट्वा च धृताद्भुतधैर्या तं प्रत्युवाच-'महानुभाव । कोऽयं तेऽभिलाषो नरकाध्वनः। सर्व सावद्यमुत्सृज्य, पुनर्वाञ्छन्न लजसे ॥१॥ अगन्धन कुले जातास्तिर्यश्चो ये भुजङ्गमा । तेऽपि नो वान्तमिच्छन्ति, स्वं नीचः किं ततोऽप्यसि ॥२॥ इत्यादिवाक्यैः प्रतियोधित: श्रीने-115 मिपावें तद्दुचीर्णमालोच्य तपस्तप्त्वा च मुक्तिं जगाम । राजीमत्यपि दीक्षामाराध्य शिवशय्यामारूढा चिर-18 प्रार्थितं शाश्वतिकं श्रीनेमिसंयोगमवाप, यदाहु:-"छद्मस्था वत्सरं स्थित्वा, गेहे वर्षयतु शतीम् । पश्चवर्षशती राजी, ययी केवलिनी शिवम्॥१॥(१७४)। (अरहओणं अरिहनेमिस्स) अर्हतः अरिष्ठनेमे (अट्ठारस गणा अट्ठारस गणहरा हुत्था) अष्टादश(१८)गणाः अष्टादश गणधराश्च अभवन् ।(१७२)।(अरह ओणं अरिहने मिस्स) अर्हतः। Nअरिष्ठनेमेः (वरदत्तपामुक्खाओ) वरदत्तप्रमुखाणि (अट्ठारस समणसाहस्सीओ) अष्टादश श्रमणानां सह.क.सु. २४स्राणि (१८०००)(उकोसिया समणसंपया हत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणसम्पदा अभवत् ॥(१७६)। (अर दीप अनुक्रम [१७५] ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१७७] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [१७७] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो- हिओ णं अरिहनेमिस्स) अर्हतः अरिष्टनेमेः ( अजजक्खिणीपामुक्खाओ) आर्ययक्षिणीप्रमुखाणि (चत्ता-1 श्रीनेमिनः लीसं अज्जियासाहस्सीओ) चत्वारिंशत् आर्यासहस्राणि (४००००)(उक्कोसिया अज्जियासंपया हुत्था ) परिवारः उत्कृष्टा एतावती आर्यासम्पदा अभवत् ।।(१७७)। (अरहओ णं अरिहनेमिस्स) अहंतः अरिष्ठनेमे (नंदपा- स. १७५॥१३९॥ मुक्खाणं समणोवासगाणं) नंदप्रमुखाणां श्रावकाणां (एगा सयसाहस्सी) एक: लक्षः (अषणतरिं च सहस्सा) १८२ एकोनससतिश्च सहस्राः (१६९०००) ( उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रावकाणां सम्पदा अभवत् ॥(१७८)। (अरहओ णं अरिडनेमिस्स) अर्हतः अरिष्ठनेमेः (महासुब्बयापामुक्खाणं समराणोवासिआणं) महासुप्रप्रमुखाणां श्राविकाणां (तिन्नि सयसायस्सीओ) त्रयः लक्षाः (छत्तीसं च सहस्सा)। |षत्रिंशच (३६०००) सहस्राः (उक्कोसिआ समणोवासिआणं संपया हुस्था ) उस्कृष्टा एतावती श्राविकाणां सम्पदा अभवत् ॥(१७९)। (अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स) अर्हतः अरिष्ठनेमे (चत्तारि सया चउद्दसपुब्बीणं) चत्वारि शतानि (४००) चतर्दशपूर्विणां.(अजिणाणं जिणसंकासाणं) अकेवलिनामपि केवलि-1 तुल्यानां (जाव संपया हुस्था) यावत् सम्पदा अभवत् (पण्णरस सया ओहिनाणीण) पश्चदश शतानि(१५००) अवधिज्ञानिनां,(पन्नरस सया केवलनाणीणं) पञ्चदश शतानि (१५००) केवलज्ञानिना. ( पन्नरस सयाश ॥१३९॥ कावेउन्विआणं) पञ्चदश शतानि (१५००) क्रिपलब्धिमता.(दस सया विउलमईणं)दश शतानि (१०००) विपुलमतीनां,( अट्ट सया वाईणं) अष्टौ शतानि (८००) वादिनां (सोलस सया अणुत्तरोववाइआर्ण) २८ दीप अनुक्रम [१७७] JABEducaton a ne ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८० ] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१७७] Jan Educatoo दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१८० ] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: षोडश शतानि ( १६००) अनुत्तरोपपातिनां (पन्नरस समणसया सिद्धा ) पञ्चदश श्रमणानां शतानि (१५०० ) सिद्धानि, (तीसं अज्जियासयाई सिद्धाई ) त्रिंशत् आर्याशतानि ( ३०००) सिद्धानि ॥ (१८०) । (अरहओ णं अरिद्वनेमिस्स ) अर्हतः अरिष्टनेमे ( दुविहा अंतगडभूमी होत्था ) द्विविधा अन्तकृन्मर्यादा अभवत् (तंजहा) तद्यथा (जुगंतगडभूमी य परियायंतगडभूमी य) युगान्तकृद्भूमिः पर्यायान्तकृद्भूमिश्च (जाव अट्ठमाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी) अष्टमं पुरुषयुगं - पट्टधरं यावत् युगान्तकृद्भूमिरासीत् (दुवासपरियाए अंतमकासी ) द्विवर्षपर्याये जाते कोऽपि अन्तर्मकार्षीत् ॥ (१८१) || (तेणं कालेर्ण) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (अरहा अरिट्ठनेमी) अर्हन् अरिष्टनेमिः (तिन्नि बाससयाई कुमारवासमज्झेव सिसा) त्रीणि वर्षशतानि कुमारावस्थायां स्थित्वा (चउपन्नं राइंदियाई ) चतुष्पञ्चाशत् अहोरात्रान् (छउमत्थपरिया पाउणित्ता) छद्मस्थपर्यायं पालयित्वा (देसूणाई सत्त वाससाई ) किञ्चिदूनानि सप्त वर्षशतानि ( केवलिपरिआर्य पाउ णित्ता) केवलिपर्यायं पालयित्वा (पडिपुन्नाई सत्त वाससयाई) प्रतिपूर्णानि सप्त वर्षशतानि ( सामन्नपरिआयं पाउणित्ता) चारित्रपर्यायं पालयित्वा ( एगं वाससहस्सं ) एक वर्षसहस्रं (सव्वाउअं पालइत्ता ) सर्वायुः पालयित्वा ( खीणे वेयणिज्जाउयनामगुत्ते ) क्षीणेषु सत्सु वेदनीयायुर्नामगोत्रेषु कर्मसु ( हमीसे ओसविणीए ) अस्यामेव अवसर्पिण्यां ( दूसमसुसमाए बहुविताए ) दुष्षमसुषमानामके चतुर्थेऽरके बहुव्यतिक्रान्ते सति (जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्टमे पक्ले ) योऽसौ उष्णकालस्य चतुर्थी मासः अष्टमः For Pride & Personal Use On ~ 297~ श्रीनेमिनः परिवारः सू. १७५ १८२ ५ १० १४ Planetary.org Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१८२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८२] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो | पक्षः (आसाढसुद्धे) आषाढशुद्धः (तस्स णं आसाढसुद्धस्स अट्ठमीपक्वेणं)तस्य आषाढशुद्धस्प अष्टमीदिवसेश्रीनेमिपुव्या०७४ (उपि उजिंतसेलसिहरंसि ) उज्जयन्तनामशैलशिखरस्य उपरि (पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं ) स्तकान्तरम् पञ्चभिः षट्त्रिंशद्युतैः अनगारशतैः (५३६)साई (मासिएणं भत्तेणं आपाणएणं) मासिकेन अनशनेन । ॥१४०॥ अपानकेन-जलरहितेन (चित्तानकखत्तेणं जोगमुवागएणं)चित्रानक्षत्रे चन्द्रयोग उपागते सति (पुब्वरत्तावर-16 त्तकालसमयंसि) मध्यरात्री (निसजिए कालगए, जाव सव्वदुक्खप्पहीणे) निषण्णः सन् कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः॥(१८२)॥ अथ नेमिनिर्वाणात् कियता कालेन पुस्तकलिखनादि जालमित्याह-(अरहओर २ णं अरिहनेमिस्स) अहंतः अरिष्ठनेमेः (कालगयरस जाव सव्वदुक्स्वप्पहीणस्स) कालगतस्य यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य (चउरासीई वाससहस्साई ) चतुरशीतिवर्षसहस्राणि (विइक्वंताई) व्यतिक्रान्तानि (पंचासीइमस्स वाससहसस्स) पञ्चाशीतितमस्य वर्षसहस्रस्यापि (नव वाससयाई विइकताई) नव वर्षशतानि ।। व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स ) दशमस्य वर्षशतस्य (अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छद) अयं अशीतितमःसंवत्सरः कालो गच्छति ॥(१८३०॥ श्रीनेमिनिर्वाणाचतुरशीत्या वर्षसहस्रैः श्रीवीरनिर्वाणमभूत्, श्रीपाश्चेनिवाणं तु वर्षाणां त्र्यशीत्या सहस्रः.साः सप्तभिश्च शतैरभूदिति खधिया ज्ञेयम् ॥ इति श्रीनेमिचरित्रम् ॥ अतः परं अन्धगौरवभयात् पश्चानुपूर्त्यां नम्यादीनां अजितान्तानां जिनानां अन्तरकालमानमेवाह-(नमिस्स णं अरहओ कालगयस्स) नमिनाथस्य अर्हतः कालगतस्य (जाव सबदुक्खापहीणस्स दीप अनुक्रम [१७७] ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१८४] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१८४] गाथा ||२..|| ecenecessaesesencestee यावत् सर्वदुःस्वप्रक्षीणस्य (पंच वाससयसहस्साई) पञ्च वर्षाणां लक्षाः (चउरासीइं वाससहस्साई) चतुरशी-181 श्रीजिनाना तिर्षसहस्राणि (नव य वाससयाई विहकलाई) नव वर्षशतानि च व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य बासस- पुस्तकाल | खनस्य चायस्स) दशमस्य वर्षशतस्य (अयं असीइमे संबच्छरे काले गच्छद) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो न्तराणि गच्छति । श्रीनमिनिर्वाणात् पञ्चभिर्वर्षाणां लक्षः श्रीनेमिनिर्वाणं, ततश्चतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे च पुस्तकवाचनादि ॥ (१८४) ॥ २१ ॥ (मुणिसुब्वयस्स णं अरहओ जाच सब्बदुक्खप्पहीणस्स ) मनि- ५ सुव्रतस्य अर्हतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य ( इकारस वाससयसहस्साई) एकादश वर्षाणां लक्षा: (चउरा-15 सीइंच वाससहस्साई) चतुरशीतिवर्षसहस्राणि (नव वाससयाई विडताई) नव वर्षशतानि च व्यति-13 क्रान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स) दशमस्य वर्षशतस्य ( अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छद) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति, श्रीमुनिसुव्रतनिर्वाणात् षष्ट्या वर्षाणां लक्षैः श्रीनमिनिर्वाणं ततश्च पञ्चलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि, अत्र च मुनिसुव्रतनमिनिर्वाणान्तरस्य नमिनिर्वाणपुस्तकवाचनान्तरस्य च मिलने सूत्रोक्तं मानं भवति, एवं सर्वत्र ज्ञेयम् ॥ (१८५) ॥ २०॥ | (मल्लिस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स) मल्लिनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (पण्ण िवाससयसहस्साई) पञ्चपष्टिवर्षाणां लक्षाः (चउरासीइं च वाससहस्साई) चतुरशीतिवर्षसहस्राणि (नव वाससयाई विहकताई) नव वर्षशतानि च व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स) दशमस्य वर्षशतस्य (अयं असीइमे १४ दीप अनुक्रम [१८०] ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१८६] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१८३] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥ १४१ ॥ Jan Education I दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१८६] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: संच्छरे काले गच्छ ) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति । श्रीमल्लि निर्वाणाञ्चतुष्पञ्चाशद्वर्षाणां लक्षैः श्रीमुनिसुव्रतनिर्वाणं ततश्चैकादशलक्ष चतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि, उभयमिलितं च सूत्रोक्तं मानं भवति ॥ (१८३ ) ॥ १९ ॥ ( अरस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स ) अरनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य ( एगे वासकोटिसहस्से विकते ) एक वर्षकोटीनां सहस्रं व्यतिक्रान्तं ( सेसं जहा मल्लिएस) शेषः कालः मल्लिनाथवद् ज्ञेयः (तं च एवं ) स चायं (पंचसट्ठि लक्खा ) पश्ञ्चषष्टिर्लक्षाः (चडरासी च वाससहस्साहं विइकंताई) चतुरशीतिर्वर्षसहस्राणि च व्यतिक्रान्तानि ( तंमि समए महावीरो निब्बुओ ) तस्मिन् समये महावीरो निर्वाणं गतः (तओ परं नव बाससयाई विक्कताई) ततः परं नव वर्ष शतानि व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स ) दशमस्य वर्षशतस्य ( अयं असीहमे संच्छरे काले गच्छइ ) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति ( एवं अग्गओ जाव सेयंसो ताव दट्ठव्वं ) अयमेव पाठः अग्रतः यावत् श्रेयांसस्तावत् द्रष्टव्यः श्रीअरनिर्वाणाद्वर्षाणां कोटिसहस्रेण श्रीमल्लिनिर्वाणं ततञ्च पञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१८७ ) ॥ १८ ॥ (कुंथुस्स अरहुओ जाव प्पहीणस्स ) कुन्थुनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य ( एगे च भागपलि ओवमे बिहकते ) एकः चतुर्थी भागः पत्योपमस्य व्यतिक्रान्तः (पंचसद्धिं च सयसहस्सा) पञ्चषष्टिर्लक्षाः ( सेसं जहा मल्लिस ) शेषं मल्लिनाथवद् ज्ञेयं, श्रीकृन्धुनिर्वाणाद्वर्ष कोटिसहस्रन्यूनपल्थोपम चतुर्थभागेन श्रीअरनि For Pride & Personal Use Ony ~300~ श्रीजिनानां पुस्तकलि खनस्य चान्तराणि २० २५ ॥ १४१ ॥ २८ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१८८] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सूत्रांक [१८८] गाथा ||२..|| निर्वाणं ततश्च वर्षसहस्रकोटिपञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशतवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१८८) ॥१७॥श्रीजिनानां (संतिस्स णं अरहओ जाच प्पहीणस्स) शान्तिनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगे चउभागूणे पलिओ. | पुस्तकलिवमे विइकते) एक चतुर्थभागेनोनं पल्योपमं व्यतिक्रान्तं (पण्णढ़ि सयसहस्सा) पञ्चषष्टिलक्षाः (सेसं जहा खनस चा न्तराणि मल्लिस्स) शेष मल्लिनाथवद् ज्ञेयं । श्रीशान्तिनिर्वाणात् पल्योपमार्टून श्रीकुन्थुनिर्वाणं ततश्च पल्यचतुर्थभाग-1 पञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि, उभयमिलने च सूत्रोक्तं पादोनं ५ पल्योपमं स्यात् , शेषं मल्लिनाथवत्, तच्च पञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षरूपं ज्ञेयं, एवं सर्वत्र (१८९)॥ १६॥ (धम्मस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स)धर्मनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (तिन्नि सागरो-18 वमाई विइकंताई) त्रीणि सागरोपमाणि व्यतिक्रान्तानि (पन्नहि च सेसं जहा मल्लिस्स) पञ्चषष्टिलक्षाः शेषं मल्लिनाथवद् ज्ञेयम्, श्रीधर्मनिर्वाणात् पूर्वोक्तपादोनपल्यन्यूनैत्रिभिः सागरोपमैः श्रीशान्तिनिर्वाणं ततश्च पादोनपल्योपमपश्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥(१९०)॥ १५॥ (अणंतस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) अनन्तनाथस्य अर्हता यावत् प्रक्षीणस्य (सत्त सागरोवमाई विकताई) सस सागरोपमाणि व्यतिक्रान्तानि (पन्नहि च सेसं जहा मल्लिस्स) पञ्चषष्टिलक्षाः शेषं मल्लिवद् ज्ञेयं, श्रीअनन्तनिर्वाणात् चतुर्भिः सागरैः श्रीधर्मनिर्वाणं, ततश्च सागरत्रयपश्चषष्टिलक्षादिवर्षातिक्रमे पुस्तक-131 वाचनादि, उभयमिलनात् सूत्रोक्तं मानं स्यात् ॥ (१९१) ॥१४॥(विमलस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स) दीप अनुक्रम [१८५] ~301~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१९२] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१८८] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१४२॥ Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१९२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: विमलनाथस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य ( सोलस सागरोवमाई विज्ञताई ) षोडश सागरोपमाणि व्यतिक्रान्तानि (पण्णट्ठि च, सेसं जहा मल्लिस्स) पञ्चषष्टिक्षाः शेषं मल्लिवद् ज्ञेयं, श्रीविमलनिर्वाणान्नवभिः सागरैः श्री अनन्तनाथनिर्वाणं, ततश्च सप्तसागरपञ्चषष्टिलक्षादिना पुस्तकवाचनादि, उभयमिलनेन सूत्रोक्तं मानं स्यात् ॥ (१९२ ॥ १३॥ ( वासुपुजस्स णं अरहओ जाब प्पहीणस्स) वासुपूज्यस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (छापालीसं सागरोवमाई विकताई ) षट्चत्वारिंशत् सागरोपमाणि व्यतिक्रान्तानि ( पन्नहिं च सेसं जहा मल्लिस्स) पञ्चषष्टिर्लक्षाः शेषं मल्लिवद् ज्ञेयं, श्रीवासुपूज्यनिर्वाणात् त्रिंशता सागरैः श्रीविमलनिर्वाणं, ततश्च षोडशसागरपश्ञ्चषष्टिलक्षादिना पुस्तकवाचनादि || (१९३) ||१२|| (सिद्धंसस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स ) श्रेयांसस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य ( एगे सागरोवमसए विकते ) एक सागरोपमशतं व्यतिक्रान्तं (पण्णचि सेसं जहा महिलस्स) पञ्चषष्टिर्लक्षाः शेषं मल्लीनाथवद् ज्ञेयं । श्रीश्रेयांसनिर्वाणाच्चतुष्पञ्चाशता सागरैः श्रीवासुपूज्यनिर्वाणं ततश्च षट्चत्वारिंशत्सागरपञ्चषष्टिलक्षादिना पुस्तकवाचनादि ॥ (१९४) ॥ ११ ॥ (सीयलस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स ) शीतलस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगा सागरोवमकोडी ) एका सागरोपमकोटी, कीदृशी ? (तिवासअद्धनवममासाहिअ ) त्रिवर्षसार्धाष्टमासैरधिकैः एवंविधैः (बापालीसवाससहस्सेहिं ऊणिआ विहकता ) द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रैः ऊना व्यतिक्रान्ता (एयंमि समए महावीरो निम्बुओ) एतस्मिन् समये महावीरो निर्वृतः (अओवि परं नव वाससयाई विश्कताएं ) ततोऽपि परं नववर्ष For Pride & Personal Use On ~302~ श्रीजिनानां पुस्तकलि खनस्य चा न्तराणि २० २५ ॥१४२॥ २८ bryg Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [१९५] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१९५] गाथा ||२..|| शतानि व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स) दशमस्य च वर्षशतस्य (अयं असीइमे संवच्छरे कालेश्रीजिनानां | गच्छद) अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति । श्रीशीतलनिर्वाणात् षट्षष्टिलक्षषविंशतिसहस्रवर्षा पुस्तकलि|धिकसागरशतोनया एकया सागरकोठ्या श्रीश्रेयांसनिर्वाणं, ततोऽपि वर्षयसार्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंश खनस्य चाद्वर्षसहस्रन्यूनैः षट्षष्टिलक्षषडविंशतिसहस्रवरधिके सागरशते व्यतिक्रान्ते श्रीवीरो निर्वृतः, ततः परं नव-11 न्तराणि शताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥(१९५)॥१०॥ (सुविहिस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) सुविधिना- ५ धस्य अर्हता यावत् प्रक्षीणस्य (दस सागरोषमकोडीओ विकताओ) दश सागरोपमाणां कोव्यः व्यति-131 क्रान्ताः (सेसं सीअलस्स) शेषः पाठः शीतलनाथवत् (तं च इम-तिवासअद्धनवमासाहिअ) तच्चेत्थं-11 दश कोव्यः कीदृश्यः -त्रिवर्षसार्धाष्टमासाधिकाः ( बायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिआ बिहकता इचाइ) द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रः ऊना इत्यादिकः, श्रीसुविधिनिर्वाणान्नवभिः सागरकोटिभिः श्रीशीतलनाथनिर्वाणं, ततश्च त्रिवर्षीधनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनसागरकोव्यतिक्रमे श्रीवीरनिर्वृतिः, ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादिः ॥ (१९६) ॥१॥(चंदप्पहस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) चन्द्रप्रभस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगं सागरोवमकोडिसयं विइयंत) एकं सागरोपमकोटिशतं व्यतिक्रान्तं (सेस। जहा सीअलस्स) शेषं शीतलव ज्ञेयं (तं च इम-तिवासअद्धनवममासाहिय) तच इत्थं-कीदृशं सागरको टिशतं?-त्रिवर्षसार्धाष्टमासाधिक (बायालीसवाससहस्सेहि ऊणगमिचाइ) द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रः ऊनं। १४ दीप अनुक्रम [१९२] ~303~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [१९७] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [१९४] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१४३॥ Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [१९७] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: इत्यादि । श्रीचन्द्रप्रभनिर्वाणान्नवतिसागरकोटिभिः श्रीसुविधिनाथनिर्वाणं, ततोऽपि त्रिवर्षार्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैर्न्यूनासु दशसु सागरकोटिषु व्यतिक्रान्तासु श्रीवीरनिर्वृतिः ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१९७) ||८|| (सुपासस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स ) सुपार्श्वस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (एगे सागरोवमकोडिसहस्से विइकते) एकं सागरोपमकोटीनां सहस्रं व्यतिक्रान्तं ( सेसं जहा सीयलस्स) शेषं शीतलवत् (तं च इमं तिवास अद्धनवममा साहिअबायाली सवास सहस्सेहिं ऊणिआ इचाइ) तच्चेदं कीदृशं ? - त्रिवर्षसार्द्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैः ऊनं इत्यादि । श्रीसुपार्श्वनिर्वाणात्सागराणां नवशतकोटिभिः श्रीचन्द्रप्रभनिर्वाणं, ततश्च वर्षत्रयसाद्वष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनैकशतकोटिसागरैः श्रीवीरनिर्वृतिः, ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१९८ ) ॥७॥ ( पमप्यहस्स अरहओ जाव प्पहीणस्स) पद्मप्रभस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य ( दस सागरोत्रमकोडिसहस्सा विकता) दश सागरोपमकोटीनां सहस्राणि व्यतिक्रान्तानि (सेसं जहा सीयलस्स) शेषं शीतलवत् (तं च इमं तिवा | सअद्धनवममासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं ऊणगमिचाइ) तचेदं कीदृशं ? - त्रिवर्षसार्घाष्टमासाधिक- २०२५ | द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैः ऊनं इत्यादि । श्रीपद्मप्रभनिर्वाणात् सागरकोटीनां नवभिः सहस्रैः श्रीसुपार्श्वनिर्वाणं ॥१४३॥ ततश्च त्रिवर्षार्द्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनैककोटिसहस्रसागरैः श्रीवीरनिर्वृतिस्ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ (१९९) ॥६॥ (सुमइस्स णं अरहओ जाय प्पहीणस्स ) सुमतिनाथस्य अर्हतः For Pide & Personal Use On ~304~ श्रीजिनानां पुस्तकलि खनस्य चान्तराणि २० ૨૮ www.janelbary.org Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२००] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२००] गाथा ||२..|| यावत् प्रक्षीणस्य (एगे सागरोवमकोडिसयसहस्से विडकते) एकः सागरोपमकोटीनां लक्षः व्यतिक्रान्तः श्रीजिनानां (सेसं जहा सीअलस्स)शेषं शीतलवत् (तंच इमं तिवासअद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं ऊणगमिच्चाइ) तत् कीदृशं?-त्रिवर्षसाोष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैः ऊन इत्यादि । श्रीसुमतिनिर्वाणान्नव-खनस्य चा|तिसहस्रसागरकोटिभिः श्रीपद्मप्रभनिर्वाणं, ततश्च त्रिवर्षा नवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनदशको-18 न्तराणि टिसहस्रसागरैः श्रीवीरनिर्वाणं, ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि । (२००)॥५॥(अभिनंदणस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स ) अभिनन्दनस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य ( दस सागरोवमकोडिसय | सहस्सा विइकाता) दश सागरोपमकोदिलक्षाः व्यतिक्रान्ताः (सेसं जहा सीअलस्स) शेषं शीतलवत् (तं च इमं तिवासअद्धनवमासाहियवायालीसधाससहस्सेहिं ऊणगमिचाइ) तत् कीदर्श ?-त्रिवर्षसा ष्ट-18 |मासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैः ऊनं इत्यादि । श्रीअभिनन्दननिर्वाणात् सागरकोटीनां नवभिलक्षः श्रीसु-18 मतिनिर्वाणं, ततश्च विवर्षार्द्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रेन्यूनकलक्षकोटिसागरैः श्रीवीरनिवृतिस्ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ।। (२०१) ॥४॥ (संभवस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स) सम्भवस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (वीसं सागरोवमकोडिसयसहस्सा विइकता)विंशतिः सागरोपमकोटीनां लक्षाव्यतिक्रान्ताः (सेसं जहा सीअलस्स) शेषं शीतलनाथवत् (तं च इम, तिवासअनवमासाहिय बायाली सवाससहस्सेहिं ऊणगमिच्चाइ) तत् कीदृशं?-त्रिवर्षसाीष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रः ऊनं इत्यादि । दीप अनुक्रम [१९६] १४ ~305~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२०२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक २०२] गाथा ||२..|| .सबो-श्रीसंभवनिर्वाणात् सागरकोटीनां दशमिलक्षैः श्रीअभिनन्दननिर्वाणं, ततश्च त्रिवर्षा नवमासाधिकद्विचत्वा-18 |श्रीजिनानां व्या७रिंशद्वसहस्रन्यूनदशलक्षकोटिसागरैः श्रीवीरनिवृतिस्ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि।।(२०२)118 पुस्तकलि|| (अजियस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स) अजितस्य अर्हतः यावत् प्रक्षीणस्य (पन्नासं सागरोवमकोडिस-12 खनख चा॥१४॥ न्तराणि यसहस्सा विइकता) पञ्चाशत् सागरोपमकोटीनां लक्षाः व्यतिक्रान्ताः (सेसं जहा सीअलस्स) शेषं शीतलनाथवत् (तं च इम, तिवासअनवममासाहिय बायालीसवाससहस्सेहिं ऊणगमिवाइ) तत् कीदृशं?- त्रिवर्षसार्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैः ऊनं इत्यादि । श्रीअजितनाथनिर्वाणात् सागराणां त्रिंशता कोटीलक्षः श्रीसम्भवनिर्वाणं, ततश्च त्रिवर्षार्द्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनविंशतिसागरकोटिलः श्रीवीरनितिस्ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥(२०३)।।२।। श्रीऋषभनिर्वाणात् सागरकोटीन 8| पञ्चाशता लक्षैः श्रीअजितनिर्वाण, ततश्च विवर्षार्द्धनवमासाधिकद्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनपञ्चाशत्कोटिलक्ष-18 सागरैः श्रीवीरनिर्वृतिस्ततो नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि ॥ २०३ ॥१॥ 1- श्रीनमिनाथनिर्वाणथी पञ्च लक्ष वर्षे श्रीनेमिनिर्वाण,तेवारपछी चोरासी सहस्र , नव शत एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि २१ । श्रीमुनिसुव्रतना निर्वाणधी छलाख वर्षे श्रीनमिनिर्वाण, तेवारपछी पांच लाख ||१४४॥ चोर्यासी सहस्र नवशत एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि २० । श्रीमल्लिनाथना निर्वाणथी चोपन लाख वर्षे श्रीमुनिसुव्रतनिर्वाण, तेवारपछी इग्यार लाख चोर्यासी हजार नवसें एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १९ । श्रीअरनिर्वा दीप अनुक्रम Permanoraendan203029 [१९८] ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२०४] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [२००] क. हु. १५ Jan Education le दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२०४] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: गधी कोटिसहस्रवर्षे श्रीमल्लिनिर्वाण, तिवारपछी पांसठ लाख चोर्यासी हजार नवसो ऐसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १८ । श्री कुंथुनाथना निर्वाण पछी कोटीसहस्र वर्षे न्यून पल्योपमने चोथे भागे श्रीअरनाथनिर्वाण, तिवारपछी सहस्र कोटि, पांसठ लाख चोरासी हजार नवसो एंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १७ । श्रीशांतिनाधना निर्वाणथी अर्धपत्योपमें श्रीकुंथुनाथ निर्वाण, तिवारपछी पल्योपमानो चोथो भाग तथा पांसठलाख चोरासी हजार नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १६ । श्रीधर्मनाथना निर्वाणथी पोणा पत्योपमे न्यून, त्रण सागरोपमें श्रीशांतिनाथ निर्वाण, तिवार पछी पोणुं पल्योपम पांसठ लाख चोरासी हजार नवसो ऐसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १५ । श्रीअनंतनाथना निर्वाणधी चारसागरोपमें श्रीधर्मनाथ निर्वाण, तिवारपछी त्रण सागरोपम पांसठ लाख चोर्यासी हजार नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १४ | श्रीविमलनाथना निर्वाणथी नवसागरोपमें श्री अनंतनाथ निर्वाण, तिवारपछी सात सागरोपम उपर पांसठ लाख चोरासी हजार नवसो एंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १३ । श्रीवासुपूज्यना निर्वाणथी श्रीस सागरोपमें श्रीविमलनाथ निर्वाण, तिवारपछी सोल सागरोपम, पांसठ लाख चोर्यासी हजार नवसो एंशी वर्षे पुस्तकवाचनादि १२ । श्रीश्रेयांसना निर्वाणथी चोपन सागरोपमें श्रीवासुपूज्य निर्वाण, तिवारपछी छैतालीस सागरोपम पांसठ लाख चोर्यासी हजार नवसो ऐसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ११ । श्रीशीतलनाथना निर्वाणथी एकसो सागरोपम छासठ लाख छवीस हजार वर्ष ओछा एवा एककोडी सागरोपमें श्रीश्रेयांस निर्वाण, तिवारपछी व्रण वर्ष साडा आठ मास अने For Pride & Personal Use Only ~307~ श्रीजिनानां पुस्तकलि खनस्य चान्तराणि ५ १० १४ janelbrary.org Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२०४] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [२००] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१४५॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) मूलं [२०४] / गाथा [२...] ........... व्याख्यान [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: बेंतालीस हजार वर्ष न्यून एवा छासठ लाख छबीस हजार वर्षे अधिक एकसो सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तेवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १० | श्रीसुविधिनाथना निर्वाणथी नव कोडी सागरोपमें श्रीशीतल निर्वाण, तिवारपछी बेतालीस हजार वर्ष त्रण वर्ष साडाआठमास एटला न्यून, एक कोडी सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तिवारपछी नवसो ऐसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ९ । श्रीचंद्रप्रभुना निर्वाणथी नेवु कोडी । सागरोपमे श्रीसुविधि निर्वाण, तिबारपछी बेंतालीस हजार वर्ष त्रण वर्ष साडा आठ मास एटला न्यून दश कोडी सागरोपमें, श्रीवीर निर्वाण, तिवारपछी नवसो ऐसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ८ । श्रीसुपार्श्वना निर्वा यी नवलें कोडी सागरोपमें श्रीचंद्रप्रभ निर्वाण, तिवारपछी पैंतालीस हजार वर्ष त्रण वर्ष साडाआठ मास एटले न्यून एकसो क्रोड सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तिवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ७ । श्रीपद्मप्रभना निर्वाणथी नव हजार कोडि सागरोपमें श्रीसुपार्श्व निर्माण, तिवारपछी त्रण वर्षे साडाआठ मास तथा बेंतालीस हजार वर्ष ओछा एक हजार क्रोड सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, नेवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ६ । श्रीसुमतिनाथना निर्वाणथी नेवु हजार क्रोड सागरोपमें श्रीपद्मप्रभ निर्वाण, तिवार पछी त्रण वर्ष साडा आठ मास बेंतालीस हजार वर्ष ओछा दश हजार क्रोड सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, पछी नवसो ऐसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ५ । श्रीअभिनंदनना निर्वाणथी नव लाख क्रोड सागरोपमें श्रीसुमति Jan Education Iremations For File & Fersonal Use Only ~308~ श्रीजिनानां पुस्तकलि सनस्य चा न्तराणि २० २५ ॥१४५॥ २७ www.janbary.org Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२०४] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२०४] गाथा ||२..|| निर्वाण, तिवारपछी त्रण वर्ष साडा आठ मास बेतालीस हजार वर्ष ओछां एक लाख कोड सागरोपमें श्रीजिनानां श्रीवीर निर्वाण, तिवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि ॥४॥ पुस्तकलि| श्रीसंभवनाथना निर्वाण पछी दश लाख कोडी सागरोपमें श्रीअभिनंदन निर्वाण, तिवारपछी त्रण वर्ष खनस्य चा न्तराणि साडाआठ मास बैंतालीस हजार वर्ष ओछां एवा दश लाख कोडी सागरोपमें श्रीवीर निर्वाण, तेवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादिश्रीअजितनाथना निर्वाणधी त्रीस लाख कोडि सागरोपमें श्रीसंभवनाथ निर्वाण, तेवारपछी त्रण वर्ष साहाआठ मास तथा तालीस हजार वर्ष ओछां एवा वीश लाख कोडी| सागरोपमें श्रीवीर निर्याण, तेवारपछी नवसो एसी वर्षे पुस्तकवाचनादि । श्रीकृषभना निर्वाणथी पचास लाख कोडि सागरोपमें श्रीअजित निर्वाण, तेवारपछी त्रण वर्ष साडा आठ मास तालीस हजार वर्ष ओछ एवा पचास लाख क्रोड सागरोपमें श्रीमहावीर निर्वाण, तेवारपछी नवसो एंसी वर्षे पुस्तकवाचनादि १॥ I अथास्याभवसर्पिपयां प्रथमधर्मप्रवर्तकत्वेन परमोपकारित्वात् किञ्चिद्विस्तरता श्रीऋषभदेवचरित्रं प्रस्तीति-18 (तेणं कालेणं ) तस्मिन् काले (तेणं समएणं ) तस्मिन् समये (उसभे गं अरहा) ऋषभः अर्हन् , कीदृशःII (कोसलिए ) कोशलायां-अयोध्यायां जातः कौशलिकः (चउउत्तरासाढे अभीइपंचमे हुत्था) चतुर्षु उत्तरा-1|| राषाढा यस्य स चतुरुत्तराषाढः अभिजिन्नक्षत्रे पञ्चमं कल्याणकं अभवत् ॥ (२०४)॥ दीप अनुक्रम [२००] ... अथ श्री ऋषभदेव-चरित्रं विस्तरेण वर्णयते ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२०५] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२०५] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो- (तंजहा) तद्यथा ( उत्तरासाढाहिं चुए, चइत्ता गम्भं वकंते) उत्तराषाढायां च्युतः, च्युत्वा गर्भ उत्पन्नः श्रीषमजब्या०७ II(जाय अभीइणा परिनिव्वुए) यावत् अभिजिन्नक्षत्रे निर्वाणं प्राप्तः ॥ (२०५)॥ न्मादि सू. I (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (उसभे णं अरहा कोसलिए) ऋषभः। २०४-२०९ अर्हन कौशलिकः (जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे) योऽसौ उष्णकालस्य चतुर्थो मासः सप्तमः पक्षा १५ (आसाढबहुले) आषाढस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं आसाढयहुलस्स चउत्थीपक्खेणं) तस्य आषाढयहुलस्य चतुर्थीदिवसे (सब्वट्ठसिद्धाओ महाविमाणाओ) सर्वार्थसिद्धनामकात् महाविमानात् (तित्तीसंसागरोचमट्टिइआओ)त्रयस्त्रिंशत् सागराणि स्थितियंत्र एवंविधात् (अणंतरं चयं चइत्ता) अन्तररहितं च्यवनं कृत्वा (इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे) अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतक्षेत्रे (इक्खागभूमीए) तदा प्रामादी-18 नामभावात् इक्ष्वाकुभूमिकायां (नाभिकुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए) नाभिनामकुलकरस्य मरुदेवाया भार्यायाः कुक्षी (पुब्वरत्तावरत्तकालसमयंसि) पूर्वापररात्रकालसमये-मध्यरात्री (आहारवकंतीए जावर गम्भत्ताए वक्ते) दिव्याहारत्यागेन यावत् गर्भतया उत्पन्नः ॥ (२०६)॥ (उसभेणं अरहा कोसलिए) ऋषभः अहेन् कौशलिका (तिन्नाणोवगए आविहुत्था) त्रिज्ञानोपगतः अभवत् (तंजहा) तद्यथा (चहस्सामित्ति २५ जाणइ, जाव सुमिणे पासह) च्योध्ये इति जानाति, यावत् खमान् पश्यति (तंजहा) तद्यथा (गयवसहगाहा) ॥१४६॥ 'गयवसह इत्यादिगाथाऽत्र वाच्या (सव्वं तहेव नवरं) सर्व तथैव-पूर्वोक्तवत्, अयं विशेषः (पढमं उसभं २७ दीप अनुक्रम [२०१] ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२०७] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [२०३] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२०७] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: मुहेणं अतं पासेह) मरुदेवा प्रथमं वृषभं मुखे प्रविशन्तं पश्यति ( सेसाओ गयं ) शेषास्तु जिनजनन्यः प्रथमं गजं पश्यन्ति, वीरमाता तु सिंहमंद्राक्षीत् (नाभिकुलगरस्स साहेइ ) नाभिकुलकराय च कथयति ( सुविणपाढगा नस्थि ) तदा स्वमपाठका न सन्ति (नाभिकुलगरो सयमेव वागरेह ) अतो नाभिकुलकरः स्वयमेव स्वमफलं कथयति ॥ (२०७ ) ॥ (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समर्पणं) तस्मिन् समये (उसमे णं अरहा कोसलिए ) ऋषभः अर्हन् कौशलिकः (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे ) योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः (चित्तबहुले) चैत्रस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं चित्तबहुलस्स अहमीपक्खेणं) तस्य चैत्रबहुलस्य अष्टमीदिवसे (नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं ) नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु ( जाव आसाढाहिं नक्खतेणं जोगमुवागएणं ) यावत् उत्तराषाढायां नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (आरोग्गाऽऽरोग्गं दारयं पयाया) अरोगा माता अरोगं दारकं प्रजाता ॥ (२०८) ॥ ( तं चैव सव्वं जाव देवा देवीओ य वसुहारवासं वासिंसु) तदेव सर्वं यावत् देवाः देव्यश्च वसुधारावर्षणं चक्रुः (सेसं तहेब चारगसोहणमाणुम्माणवणउस्सुमाइयठिवडियजयवज्रं सर्व्वं भाणिअ) शेषं तथैव - पूर्वोक्तप्रकारेण बन्दिमोचनमानोन्मान वर्द्धनशुल्कमोचनप्रमुस्वस्थितिपतितायुपवर्ज सर्व भणितव्यम् ॥ ( २०९ ) ॥ अथ देवलोकच्युतोऽद्भुतरूपोऽनेक देवदेवीपरिवृतः सकलगुणैस्तेभ्यो युगलमनुष्येभ्यः परमोत्कृष्टः क्रमेण प्रवर्द्धमानः सन्नाहाराभिलाषे सुरसञ्चारितामृतरससरसां अङ्गुलिं मुखे प्रक्षिपति, एवं अन्येऽपि तीर्थङ्करा बाल्ये For File & Fersonal Use Only ~ 311~ श्रीऋषभजमादि सू २०४-२०१ ५ १० १४ www.janbary.org Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२१०] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२१०] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-अवगन्तव्याः, पाल्यातिक्रमे पुनरग्निपक्काहारभोजिन:, ऋषभस्तु प्रव्रज्यां यावत् सुरानीतोत्तरकुरुकल्पद्रुमफ-IN म्या०७लान्याखादितवान् , अथ सजाते किश्चिदूनवर्षे च भगवति प्रथमजिनवंशस्थापनं शक्रजीतमिति विचिन्त्य कथं ॥ सुनन्दारिक्तपाणिः स्वामिसमीपं यामीति महती इक्षुयष्टिं आदाय नाभिकुलकरकस्थस्य प्रभोरंग्रे तस्थौ, दृष्ट्वा चेक्षु-II ॥१४॥ 18| यष्टिं दृष्टवदनेन खामिना करे प्रसारिते इक्षु भक्षयसीति भणित्वा तां दत्त्वा इक्ष्वभिलाषात् खामिनो वंश इक्ष्वाकुनामा भवतु, गोत्रं अपि अस्य एतत्पूर्वजानां इक्ष्वभिलाषात्काश्यपनामेति शको वंशस्थापनां कृतवान् । | अथ किश्चिद्युगलं मातृपितृभ्यां तालवृक्षाधो मुक्तं, तस्मात्पतता तालफलेन पुरुषो व्यापादितः, प्रथमोऽयं अकालमृत्युः, अथ सा कन्या मातापित्रोः खर्गतयोः एकाकिन्येव वने चचार, दृष्ट्वा च तां सुन्दरी युगलिकनरा नाभिकुलकराय न्यवेदयन् , नाभिरपि शिष्टेयं सुनन्दानाम्नी ऋषभपनी भविष्यतीति लोकज्ञापनपुरस्सरं । तां जग्राह, ततः सुनन्दासुमङ्गलाभ्यां सह प्रवर्द्धमानो भगवान् यौवनं अनुप्राप्तः, इन्द्रोऽपि प्रथमजिनविवाहकृत्यं अस्माकं जीतमिति अनेकदेवदेवीकोटिपरिवृतः समागत्य खामिनो वरकृत्यं खयमेव कृतवान्, |वधूकृत्यं च द्वयोरपि कन्ययोदेव्य इति, ततस्ताभ्यां विषयोपभोगिनो भगवतः पदलक्षपूर्वेषु गतेषु भरतनानीरूपं युगलं सुमङ्गला, बाहुबलिसुन्दरीरूपं युगलं च सुनन्दा प्रसुषुवे, तदनु चैकोनपंचाशत् पुत्रयुगलानि ॥१४७।। क्रमात् सुमंगला प्रसूतवती। (उसभेणं अरहाकोसलिए कासवगुत्तेणं)ऋषभः अर्हन कौशलिकः काश्यपगोत्रीयः(तस्स णं पंच नामधिज्जा २८ दीप अनुक्रम २०५] ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१०] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [२०५] Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२१०] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: एवमाहिज्जति) तस्य प्रभोः पञ्च नामधेयानि एवं आख्यायन्ते (तंजहा) तद्यथा (उसभे इ वा १ पढमराया इ वा २) ऋषभ इति वा १ प्रथमराजा इति वा २ (पढमभिक्खायरे इ वा ३) प्रथमभिक्षाचर इति वा ३ ( पढमजिणे इ वा ४ ) प्रथमजिन इति वा ४ ( पढमतित्थंकरे इ वा ५) प्रथमतीर्थङ्कर इति वा ५, तत्र इकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारे, प्रथमराजा, स चैवं - कालानुभावात् क्रमेण प्रचुरकषायोदयात् परस्परं विवदमानानां युगलिकानां | दण्डनीतिस्तावत् विमलवाहनचक्षुष्मत्कु लकरकालेऽल्पापराधित्वेन हक्काररूपैवाभूत्, यशस्विनोऽभिचन्द्रस्य च काले अल्पेऽपराधे हक्काररूपा महति च अपराधे मकाररूपा, प्रसेनजिन्मरुदेवनाभिकुलकरकाले च जघन्यमध्यमोत्कृष्टापराधेषु क्रमेण हक्कारमकारधिक्काररूपा दण्डनीतयोऽभूवन्, एवमपि नीत्यतिक्रमेण ज्ञानादिगुणाधिकं भगवन्तं विज्ञाय युगलिभिर्भगवन्निवेदने कृते स्वाम्याह- 'नीतिमतिक्रमतां दण्डं सर्व राजा करोति स चाभिषिक्तोऽमात्यादिपरिवृतो भवति' एवं उक्ते तैरूचे - अस्माकं अपि ईदृशो राजा भवतु, खाम्याह- पाचध्वं नाभिकु लकरं राजानं, तैर्याचितो नाभिः -'भो भवतां ऋषभ एव राजा' इत्युक्तवान्, ततस्ते राज्याभिषेकनिमित्तमुदका नयनाय सरः प्रति गतवन्तः, तदा च प्रकम्पितासनः शक्रो जीतमिति समागत्य मुकुटकुण्डलाभरणादिपरिष्क्रि यापुरस्सरं भगवन्तं राज्येऽभिषिञ्चति स्म, युगलिकनरास्तु नलिनपत्रस्थित जलहस्ता अलङ्कृतं भगवन्तं निरीक्ष्य विस्मिताः क्षणं विचार्य भगवतः पादयोजलं प्रक्षिप्तवन्तः तच दृष्ट्वा तुष्टः शक्रोऽचिन्तयत् अहो विनीता एते पुरुषा इति वैश्रमणं आज्ञापितवान् यदिह द्वादशयोजनविस्तीर्णां नवयोजनविष्कम्भां विनीतां नानीं नगरीं For Pride & Personal Use On ~ 313~ प्रथमैनूपत्वं नगरी निवे शनम् ५ १० १४ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१०] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [२०५] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२१०] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ren कल्प.सुबो- १) निष्पादयेत्यज्ञासमनन्तरमेव रत्नसुवर्णमय भवन पक्किप्राकारोपशोभितां नगरीमवासयत्, ततो भगवान् राज्ये व्या० ७ हस्त्यश्वगवादिसङ्ग्रहपुरस्सरं उग्र भोगराजन्यक्षत्रियलक्षणानि चत्वारि कुलानि व्यवस्थापितवान्, तत्रोग्रदण्डकारित्वादुग्रा आरक्षकस्थानीयाः १ भोगार्हत्वाद् भोगा गुरुस्थानीयाः २ समानवयस इतिकृत्वा राजन्या वयस्यस्थानीयाः ३ शेषाः प्रधानप्रकृतितया क्षत्रियाश्च ४ । तदा च कालपरिहाण्या ऋषभकुलकरकाले कल्पदुमफलुला भाभावेन ये इक्ष्वाकास्ते इक्षुभोजिनः शेषास्तु प्रायः पत्रपुष्पफल भोजिनोऽग्रेर भावा चापकशाल्याचीषधी भोजिनञ्चाभूवन्, कालानुभावासदजीर्णे व स्वल्पं खल्पतरं च भुक्तवन्तः, तस्याप्यजीर्णे भगवद्वचसा हस्ताभ्यां घृष्ट्वा त्वचं अपनीय भुक्तवन्तः तथाप्यजीर्णे प्रभूपदेशात् पत्रपुटे जलेन केदयित्वा तण्डुलादीन मुक्तवन्तः, एवमप्यजीर्ण कियतीमपि वेलां हस्ततलपुढे क्लेदयित्वा हस्ततलपुढे संस्थाप्य, पुनरप्यजीर्णे कक्षासु वेदयित्वा, तथाप्यजीर्णे हस्ताभ्यां दृष्ट्वा पत्रपुटे क्लेदयित्वा हस्ततलपुढे संस्थाप्येत्यादिबहुप्रकारैरन्नभोजिनो बभूवांसः । एवं सत्येकदा द्रुमघर्षणान्न वोत्थितं प्रवृद्धज्वलज्ज्वालं तृणकलापं कवलयन्तं अग्निमुपलभ्याभिनवरत्नबुद्ध्या प्रसारितकरा दह्यमाना भयभीताः सन्तो युगलिनो भगवन्तं विज्ञपयामासुः, भगवता चग्निरुत्पति विज्ञाय भो युगलिका ! उत्पन्नोऽग्निः अत्र च शाल्यायौषधीर्निधाय भुङ्गध्वं यतस्ताः सुखेन जीर्यन्तीत्युपाये कथितेऽप्यनभ्यासात् सम्यगुपायं अजानाना औषधीरंनौ प्रक्षिप्य कल्पद्रोः फलानींव याचन्ते, अग्निना च ताः सर्वतो दह्यमाना दृष्ट्वा अयं पापात्मा वेताल इवातृप्तः खयमेव सर्वं भक्षयति नास्माकं किञ्चित् प्रयच्छतीत्यतोऽस्या Jan Education Irmiston For Pride & Personal Use On ~314~ अग्नेरुत्पतिः शिल्पदर्शनम् २० २५ ॥१४८॥ २८ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२१०] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक राज्य कायम् [२१०] गाथा ||२..|| पराधं भगवते विज्ञप्य शिक्षा दापयिष्याम इति बुद्ध्या गच्छन्तः पथि भगवन्तं हस्तिस्कन्धारूढं अभिमुख| मागच्छन्तं दृष्ट्वा यथास्थितं व्यतिकरं भगवते न्यवेदयन्, भगवांश्चाह-अत्र पीठरादिव्यवधानेन भवद्भिर्धान्यादिप्रक्षेपः कार्य इत्युक्त्वा तैरेव मृत्पिण्डं आनाय्य निधाय च हस्तिकुम्भे मिण्ठेन कुम्भकारशिल्पं प्रथमं न्यदर्शयत्, उक्तवांश्च-एवंविधानि भाण्डानि विधाय तेषु पाकं कुरुध्वमिति, भगवदुक्तं सम्यगुपायमुपलभ्य ते तथैव कृतवन्तः, अतः प्रथम कुम्भकारशिल्पं प्रवर्तितं, ततो लोहकार १ चित्रकार २ तन्तवाय ३ नापित-IRI शिल्प ४ लक्षणानि चत्वारि शिल्पानि, एतेषां च पत्रानां मूलशिल्पानां प्रत्येकं विंशत्या भेदैः शिल्पशतं तंचाचार्योपदेशजमिति ॥ (२१०)॥ (उसभे णं अरहा कोसलिए ) ऋषभः अर्हन् कोशलिका (दक्खे दक्वपइन्ने पडिरूवे आलीणे भहए विणीए) दक्षः दक्षा प्रतिज्ञा यस्य स तथा सुन्दररूपवान् सर्वगुणरालिङ्गितः सरलपरिणाम: बिनयवान् | NI(वीसं पुब्बसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता) विंशतिलक्षपूर्वाणि यावत् कुमारावस्थायां उषित्वा (तेवहि पुचसयसहस्साई रजवासमझे वसइ) त्रिषष्टिलक्षपूर्वाणि यावत् राज्यावस्थायां वसति (तेवहि च पुब्बसयसहस्साई रजवासमजले बसमाणे) त्रिषष्टिलक्षपूर्वाणि पावत् राज्यावस्थायां च बसन् सन् (लेहाइओ गणियपहाणाओ) लिखनं आदी यासां तास्तथा गणनं प्रधान-श्रेष्ठं यासा तास्तथा, तथा (सउणरुयपजवसाणाओ) पक्षिणां शब्दः स पर्यवसाने-प्रान्ते यास तास्तथा (बावत्तरि कलाओ) एवंविधाः दास-१४ दीप अनुक्रम २०५] AREnicatonian ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२११] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: कलाः प्रत सूत्रांक [२११] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो-सतिः पुरुषकलाः, लेखादिका द्वासप्ततिः कला, ताश्चेमा:-लिखितं १ गणितं २ गीतं ३ नृत्यं ४ वायं च ५ पठन- द्वासप्ततिः व्या०७६ शिक्षे च ७ । ज्योति ८ श्छन्दो ९ऽलङ्कृति १० व्याकरण ११ निरुक्ति १२ काव्यानि १३ ॥१॥ कात्यायन ॥१४॥ १४ निघण्टु १५ र्गजतुरगारोहणं १६-१७ तयोः शिक्षा १८ । शस्त्राभ्यासो १९ रस २० मन्त्र २१यत्र २२ विष २३ खन्य २४ गन्धवादाश्च २५ ॥ २ ॥ प्राकृत २६ संस्कृत २७ पैशाचिका २८-15 उपभ्रंशाः २९ स्मृतिः ३० पुराण ३१ विधी ३२ । सिद्धान्त ३३ तर्क ३४ वैदक ३५ वेदा ३६ ऽगम ३७-ISH संहिते, ३८ तिहासाश्च ३९ ॥ ३॥ सामुद्रिक ४० विज्ञाना ४१ 55 चार्यकविद्या ४२ रसायनं ४३ कपटम् ४४।। विद्यानुवाददर्शन ४५ संस्कारौ ४६ धूर्तसम्बलकम् ४७॥४॥ मणिकर्म ४८ तरुचिकित्सा ४९ खेचर्य-५०|मरीकले ५१न्द्रजालं च ५२ । पाताल सिद्धि ५३ यन्त्रक ५४ रसवत्यः ५५ सर्वकरणी च ५६ ॥५॥ प्रासादलक्षणं ५७ पण ५८ चित्रोपल ५९ लेप ६०चर्मकर्माणि ६१। पत्रच्छेद ६२ नखच्छेद ६३ पत्रपरीक्षा ६४ वशीकरणम् ६२॥६॥ काष्ठघटन ६६ देशभाषा ६७ गारुड ६८ योगाङ्ग ६९ धातुकर्माणि ७० । केवलिविधि ७१शकुनरुते ७२ इति पुरुषकला द्विसप्ततिज्ञेयाः॥ ७ ॥ अत्र लिखितं हंसलिप्यायष्टादशलिपिविधानं, तच्च २५ भगवता दक्षिणकरेण ब्राहया उपदिष्टं, गणितं तु एक दश शतं सहस्रं अयुतं लक्षं प्रयुतं कोटिः अर्बुद अज ॥१४९।। खर्व निखर्व महापद्मं शङ्कः जलधिः अन्त्यं मध्यं पराधं चेति यथाक्रमं दशगुणं इत्यादि सयानं सुन्दयोः वामकरेण, काष्ठकर्मादिरूपं कर्म भरतस्य पुरुषादिलक्षणं च बाहुबलिन उपदिष्टमिति ।। KI२८ दीप अनुक्रम २०६] |... अथ द्वासप्तति: (७२) कलानां निर्देश: क्रियते ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२११] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक चप्पष्टि गुणाः [२११] गाथा ||२..|| estseeeeeee (चउसहि महिलागुणे) चतुःषष्टिः स्त्रीकला, ताश्चमा:-ज्ञेया नृत्यौ १ चित्त्ये २ चित्रं ३ वादिन ४ मन्त्र५तत्राश्च ६ । घनवृष्टि ७ फलाकृष्टी ८संस्कृतजल्पः ९क्रियाकल्प:१०॥१॥ ज्ञान ११ विज्ञान १२ दम्भी १३- महिलादुस्तम्भा १४ गीत १५ तालयो १६ निम्। आकारगोपना १७ 55 रामरोपणे १८ काव्यशक्ति १९ वक्रोक्ती ३०॥ ॥२॥ नरलक्षणं २१ गज २२ हयवरपरीक्षणे २३ वास्तुशुद्धिलघुबुद्धी २४ । शकुनविचारो २५ धर्माचारो २६-18 उञ्जन २७ चूर्णयोर्योगाः २८॥ ३॥ गृहिधर्म २९ सुप्रसादनकर्म ३० कनकसिद्धि ३१ वर्णिकावृद्धी ३२ । वाक-18 पाटव ३३ करलाघव ३४ ललितचरण ३५ तैलसुरमिताकरणे ३६ ॥ ४ ॥ भृत्योपचार ३७ गेहाचारो ३८ व्याकरण ३९ परनिराकरणे ४०। वीणानाद ४१ वितण्डावादो ४२ स्थिति '४३ जैनाचार:४४ ॥५॥ कुम्भभ्रम ४५ सारिश्रम ४६ रत्नमणिभेद ४७ लिपिपरिच्छेदाः ४८। वैद्यक्रिया च ४९ कामाविष्करणं ५० रन्धनं.५१ चिकुरबन्धः ५२ ॥ ६॥ शालीखण्डन ५३ मुखमण्डने ५४ कथाकथन ५५ कुसुम-R सुग्रथने ५६ । वरवेष ५७ सर्वभाषाविशेष ५८ वाणिज्य ५९ भोज्ये च ६०॥ ७॥ अभिधानपरि-18 ज्ञाना ६१७ भरणयथास्थानविविधपरिधाने ६२ । अन्त्याक्षरिका ६३ प्रश्नप्रहेलिका ६४ स्त्रीकलाः चतुःषष्टिः॥८॥ । (सिप्पसयं च कम्माणं ) कर्मणां-कृषिवाणिज्यादीनां मध्ये कुम्भकारशिल्पादिकं प्रागुक्तं शिल्पशतमेव भगवतोपदिष्टं, अत एवानाचार्योपदेशजं कर्म आचार्योपदेशजं च शिल्पमिति कर्मशिल्पयोर्विशेषमामनन्ति, कर्माणि च क्रमेण खयमेव समुत्पन्नानि (तिनिवि पयाहिआए उवदिसह ) त्रीण्यप्येतानि दीप अनुक्रम २०६] S wjanelbanyarg. ~317 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२११] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२११] गाथा ||२..|| कल्प.सबो-द्विासप्ततिपुरुषकला,चतुःषष्टिमहिलागुणशिल्पशताख्यानि वस्तूनि प्रजाहिताय भगवानुपदिशति म ( उव- शतना व्या०७ दिसित्ता) उपदिश्य च (पुत्तसयं रजसए अभिसिंचा) पुत्राणां शतं राज्यशते स्थापयति, तत्र भरतस्य नामानि विनीतायां मुख्यराज्यं बाहुबलेश्च बहलीदेशे तक्षशिलायां राज्यं दत्त्वा शेषाणां अष्टनवतिनन्दनानां पृथक ॥१५०॥ पृथक देशान विभज्य दत्तवान्, नन्दननामानि मानि| भरतः१.बाहुबलिः २ शङ्खः ३ विश्वकर्मा ४ विमल: ५ सुलक्षणः ६ अमलः ७ चित्राङ्गः ८ ख्यातकीतिः ९ वरदत्तः १० सागरः ११ यशोधर: १२ अमरः १३ रथवरः १४ कामदेवः १५ ध्रुवः १६ वत्सो १७ मन्दः १८ सूरः १९ सुनन्दः २० कुरु: २१ अङ्गः २२ वङ्ग: २३ कोशल: २४ वीरः २५ कलिङ्गः २६४ मागधः २७ विदेहः २८ सनमः २९ दशाणे: ३० गम्भीरः ३१ वसुवर्मा ३२ सुवर्मा ३३ राष्ट्र: ३४ सुराष्ट्रः ३५ वुद्धिकरः ३६ विविधकरः ३७ मुयशाः ३८ यशाकीतिः ३९ यशस्करः ४० कीर्तिकर: ४१ सूरणः ४२ ब्रह्मसेनः ४३ विक्रान्तः ४४ नरोत्तमः ४५ पुरुषोत्तमः ४६ चन्द्रसेनः ४७ महासेनः ४८ नभासेनः ४९| भानु: ५० सुकान्तः ५१ पुष्पयुतः ५२ श्रीधरः ५३ दुद्धषः ५४ सुसुमारः ५५ दुर्जयः ५६ अजयमानः ५७ सुधर्मा ५८ धर्मसेनः ५९ आनन्दनः ६० आनन्दः ६१ नन्दः ६२ अपराजितः ६३ विश्वसेनः ६४ हरिषेण: १५०॥ ६५ जयः ६६ विजयः ६७ विजयन्तः ६८ प्रभाकरः ६९अरिदमनः ७० मानः ७१ महाबाहुः ७२ दीर्घबाहुः ७३|| मेघः ७४ सुघोषः ७५ विश्वः ७६ वराहः ७७ सुसेनः ७८ सेनापतिः ७९ कपिल: ८०शैलविचारी ८१ अरि- २८ दीप अनुक्रम २०६] ... अत्रश्री रुशभदेवस्य पूत्रानां नामानि दर्शयते ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२११] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२११] गाथा ||२..|| जयः ८२ कुञ्जरवल ८३ जयदेवः ८४ नागदसः ८५ काश्यपः ८६ वल: ८७ बीर:८८ शुभमतिः ८९ श्रीऋषमसुमतिः ९० पद्मनाभः ९१ सिंहः ९२ सुजाति: ९३ सञ्जयः ९४ सुनाभः ९५ नरदेवः ९६ चित्तहरः ९७दीक्षा स. सुरवरः १८ दृढरथः ९९ प्रभञ्जनः १०० इति ॥ राज्यदेशनामानि तु अङ्गः१ बङ्गः २ कलिङ्गः गौडः ४ चौडा २११ ५ कणोंट ६ लाट ७ सौराष्ट्र ८ काश्मीर ९ सौवीर १० आभीर ११ चीण १२ महाचीण १३ गूर्जर १४ बङ्गाल १५ श्रीमाल १६ नेपाल १७ जहाल १८ कौशल १९ मालव २० सिंहल २१ मरुस्थला २२ दीनि ॥ RI (अभिसिंचित्ता) स्थापयित्वा (पुणरवि लोअंतिएहिं जिअकप्पिएहिं देवेहिं) पुनरपि लोकान्तिकैः जीतकल्पिकैः देवैः (ताहिं इटाहिं जाव वग्गूहिं) ताभिः इष्टाभिः यावद् वाग्भिः उक्तः सन् (सेसं तं चेव | सर्व भाणिअचं जाव दाणं दाइआणं परिभाइत्ता) शेषं तदेव-पूर्वोक्तं सर्व भणितव्यं यावत् धनं गोत्रिणां|| विभज्य-दत्वा (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढ़मे पक्खे चित्तबहुले) योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः चैत्रबहुल: (तस्स णं चित्तबहुलस्स अट्ठमीपक्खेणं) तस्य चैत्रबहुलस्य अष्टमीदिवसे (दिवसस्स पच्छिमे भागे) दिवसस्य पश्चिमे भागे (सुदंसणाए सिबिआए) सुदर्शनायां नाम शिविकायां (सदेवमणुआसुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे) देवमनुजासुरसहितया पर्षदा-जनश्रेण्या समनुगम्यमानमार्गः (जाय विणीयं रायहाणि मज्झमज्झेणं निग्गच्छद) यावत् विनीतायाः नगर्याः मध्यभागेन निर्गच्छति (निग्गच्छित्सा) निर्गत्य (जेणेव सिद्धत्थवणे उजाणे) यत्रैव सिद्धार्थवनं उद्यान (जेणेव असोगवरपायवे)का १४ Perper202020RGARG020009 दीप अनुक्रम २०६] क.मु.२६ JABEducation.in V ianetbraryana ... अथ श्री रुषभदेवस्य दीक्षा-कल्याणकस्य वर्णन ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२११] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [२०६] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥ १५१ ॥ Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [७] ........... मूलं [२११] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: यत्रैव अशोकनामा प्रधानवृक्षः (तेणेव उवागच्छइ) तत्रैव उपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य (असोगवरपायवस्स अहे) अशोकवरवृक्षस्य अधः (जाव सयमेव च मुट्ठिअं लोअं करेह) यावत् आत्मनैव चतुमष्टिकं लोचं करोति, चतसृभिर्मुष्टिभिर्लोचे कृते सति अवशिष्टां एकां मुष्टिं सुवर्णवर्णयोः स्कन्धयोरुपरि लुटंतीं कनककलशोपरि विराजमानां नीलकमलमालामिव विलोक्य हृष्टचित्तस्य शक्रस्य आग्रहेण रक्षितवान्, (करिता) लोचं कृत्वा (छणं भन्तेणं अपाणएणं) षष्ठेन भक्तेन जलरहितेन (आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगसुवागरणं) उत्तराषाढायां नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति (उग्गाणं भोगाणं राइन्नाणं खत्तिआणं च ) उग्राणां भोगानां राजन्यानां क्षत्रियाणां च ( चाहिं राहस्सेहिं रात्रिं ) कच्छमहाच्छादिभिश्चतुर्भिः सह। सह, 'यथा स्वामी करिष्यति तथा वयमपि करिष्याम' इति कृतनिर्णयैः सार्द्धं, ( एगं देवद्समादाय ) एकं देवदृष्य मौदाय (मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चइए) मुण्डो भूत्वा गृहान्निष्क्रम्य अनगारितां प्रतिपन्न:दीक्षां गृहीतवान् ॥ ( २११ ) ॥ (उसमे णं अरहा कोसलिए ) ऋषभः अर्हन् कौशलिकः ( एवं वाससहस्लं) एकं वर्षसहस्रं यावत् (निच्चं वोसट्टकाए चियत्तदेहे ) नित्यं व्युत्सृष्टकायः त्यक्तदेहः सन् विचरति ॥ अथ प्रव्रज्यां प्रतिपद्य गृहीतघोराभिग्रहो भगवान् ग्रामानुग्रामं विहरति स्म, तदानीं लोकस्यातिसमृद्धत्वात् का भिक्षा कीदृशा या भिक्षाचरा इति कोऽपि वार्त्ता न जानाति, ततस्ते सहप्रब्रजिताः क्षुधादिपीडिता भगवन्तं आहारोपायं पृच्छन्ति, For Pride & Fersonal Use On ~320~ कच्छादीनां तापस त्वम् २० २५ ॥ १५१ ॥ २८ www.janelbary.org Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१२] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [२०७] Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२१२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: भगवांस्तु मौनी न किमपि प्रतिवक्ति, ततस्ते कच्छमहाकच्छौ प्रति विज्ञप्तिं चक्रुः, तौ अपि ऊचतुः यत् वयमपि आहारविधिं न जानीमः, पूर्व तु भगवान् न पृष्टः, इदानीं आहारं विना तु स्थातुं न शक्यते, भरतल ज्जया गृहेऽपि गन्तुं अयुक्तं, ततो विचार्यमाणो वनवास एव श्रेयान् इति विचार्य भगवन्तं एवं ध्यायन्तो गङ्गातटे परिशटितपत्राद्युप भोगिनोऽसंस्कृतकेश कूर्चा जटिलास्तापसा जज्ञिरे ॥ इतश्च कच्छमहाकच्छसुतौ भगवता पुत्रत्वेन प्रतिपन्नौ नमिविन मिनामानी देशान्तरादागती, भरतेन दीयमानं राज्यभागं अवगणय्य पितृवचसा भगवत्समीपमागत्य प्रतिमास्थिते भगवति नलिनीपत्रैर्जलमानीय सर्वतो भूमिसिञ्चनं जानुप्रमाणं कुसुमोचयं च कृत्वा पञ्चाङ्गप्रणामपूर्वकं राज्यभागप्रदो भवेति प्रत्यहं विज्ञपयन्ती जिनं सिषेवतुः, तौ चान्यदा तथा वीक्ष्य वन्दनार्थमागतो घरणेन्द्रो भगवद्भत्त्या सन्तुष्टोऽवादीत्-भो ! भगवान् निःसङ्गो मा भगवन्तं याचेथां, भगवद्भक्त्याऽहमेव युवाभ्यां दास्यामीति भणित्वा अष्टचत्वारिंशत्सहस्रसङ्ख्याका (४८०००) विद्याः तत्र गौरी - गान्धारी-रोहिणी- प्रज्ञप्तिलक्षणाश्चतस्रो महाविद्याश्च पाठसिद्धा एव दत्तवान्, यञ्चोक्तं किरणावलीकारेण 'अष्टचत्वारिंशत्सङ्ख्याका (४८) इति' तद्युक्तं, आवश्यकवृत्तौ अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणां (४८००० ) उक्तत्वात्, अथ विद्या दवा उक्तवांश्च 'इमाभिर्विद्याधरर्द्धिप्राप्तौ सन्तौ खजनं जनपदं च गृहीत्वा यातं युवां वैताये | नगे दक्षिणविद्याधरश्रेण्यां गौरेयगान्धारप्रमुखानंष्टौ निकायान् रथनूपुरचक्रवालप्रमुखाणि पञ्चाशन्नगराणि, उत्त रश्रेण्यां च पण्डकवंशालयप्रमुखांनष्टौ निकायान् गगनवल्लभप्रमुखाणि च षष्टिनगराणि निवास्य विहरतमिति, ~321~ नमिविनम्योर्वियाधरत्वम् ५ १० १४ (jatiary.org) Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१२] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [२०७] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१५२॥ । Jan Education A दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२१२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ततस्तौ कृतकृत्यो स्वपित्रोर्भरतस्य च तं व्यतिकरं निवेद्य दक्षिणश्रेण्यां नमिः, उत्तरश्रेण्यां विनभिश्च तस्यतुः ॥ भगवान्नपानादिदानाकुशलैः समृद्धिमद्भिर्जनैर्वस्त्राभरणकन्या दिभिर्नि मन्त्रयमाणोऽपि योग्यां भिक्षां अलभमानोऽदीनमनाः कुरुदेशे हस्तिनागपुरे प्रविष्टः, तत्र च आवश्यकवृत्यनुसारेण बाहुबलिसुतसोमप्रभसुतः श्रेयांसो युवराजः, स च मया श्यामवर्णो मेरुरैमृतकलशेनाभिषिक्तोऽतीव शोभितवानिति स्वमं दृष्टवान्, सुबुद्धिनामा नगरश्रेष्ठी, सूर्यमण्डलात् स्रस्तं किरणसहस्रं पुनः श्रेयांसेन तत्र योजितं ततस्तदंतीवांशोभत इति स्वममैक्षत, राजाऽपि खझे महापुरुष एको रिपुबलेन युध्यमानः श्रेयांससहायाज्जयी जात इति ददर्श, योऽपि प्राप्ताः सभायां सम्भूय स्वप्नान् परस्परं न्यवेदयन्, ततो राज्ञा कोऽपि श्रेयांसस्य महान् लाभो भावीति निर्णीय विसर्जितायां पर्षदि श्रेयांसोऽपि खभवने गत्वा गवाक्षस्यः खामी न किञ्चिल्लातीति जनकोलाहलं श्रुत्वा स्वामिनं वीक्ष्य च मया कापीदृशं नेपथ्यं दृष्टपूर्व इतीहापोहं कुर्वन् जातिस्मरणं प्राप, अहो अहं पूर्वभवे भगवतः सारथिर्भगवता सह दीक्षां गृहीतवान्, तदा च वज्रसेनजिनेन कथितमासीद् यदयं वज्रनाभो भरतक्षेत्रे प्रथमो जिनो भावीति स एष भगवान्, तदानीमेव तस्यैको मनुष्यः प्रधानेक्षुरसकुम्भसमूहप्राभृतमादाय आगतः, ततोऽसौ तत्कुम्भमादाय भगवन् ! गृहाणेमां योग्यां भिक्षामिति जगाद, भगवताऽपि पाणी प्रसारितौ निसृष्टश्च तेन सर्वोऽपि रसः, न चात्र विन्दुरयेधः पतति, किन्तूंपरि शिखा वर्द्धते यतः For Pride & Personal Use Only ~322~ दानस्य श्रे यांसोपज्ञता २० २५ ॥१५२॥ २७ janelbrary.org Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२१२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२१२] गाथा ||२..|| माइज घडसहस्सा, अहवा माइज्ज सागरा सव्वे । जस्सेयारिस लद्धी, सो पाणिपडिग्गही होई ॥१॥RI पारणं अत्र कविः-खाम्याह दक्षिणं हस्तं, कथं भिक्षां न लासि भोः । स प्राह दातृहस्तस्याधो भवामि कथं प्रभो! दिव्यानि |॥२॥ यतः- पूजाभोजनदानशान्तिककलापाणिग्रहस्थापनाचोक्षप्रेक्षणहस्तकार्पणमुखव्यापारबद्धस्त्वहम् । अष्टमकः इत्यभिधाय दक्षिणहस्ते स्थिते-चामोऽहं रणसम्मुखाङ्कगणनावामानशय्यादिकृत्, धूतादिव्यसनी त्वंसौ सतु जगी, चोक्षोऽस्मि न त्वं शुचिः ॥२॥ ततः-राज्यश्रीभवतार्जितार्थिनिवहस्त्यागैः कृतार्थीकृत, सन्तुष्टोऽपि गृहाण दानमधुना,तन्वन् दया दानिषु । इत्येन्दं प्रतियोध्य हस्तयुगलं,श्रेयांसतः कारयन, प्रत्यग्रेश्वरसेन पूर्णमृषभः, पायात् स वः श्रीजिनः॥३॥श्रेयांसस्य दानावसरे-नेत्राम्बुधारा वाग्दुग्धधारा धाराध-N रस्य च । स्पर्धया वर्द्धयामासुः, श्रीधर्मद्वं तदाशये ॥४॥ ततस्तेन रसेन भगवता सांवत्सरिकतपःपारणा कृता, पञ्च दिव्यानि जातानि-वसुधारावृष्टिः१ चेलोत्क्षेपः२ व्योनि देवदुन्नुभिः३ गन्धोदकपुष्पवृष्टिः ४ आकाशे अहो दानमहो दानमिति घोषणं च ५, ततः सर्वोऽपि लोकाते तापसाश्च तत्र मिलिताः, अथ श्रेयांसस्तान् मज्ञापयति-भोजनाः! सद्गतिलिप्सया एवं साधुभ्य एषणीयाहारभिक्षा दीयते, इत्यस्यां अवसर्पिण्यां श्रेयांसोपझं दानं, त्वया एतत् कथं ज्ञात' इति लोकैः पृष्टश्च स्वामिना सह स्वकीयं अष्टभवसंपन्धं आचष्ट, यदा खामीशाने ललितास्तदाऽहं पूर्वभवे निर्नामिकानानी खयंप्रभा देवी १ ततः पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविज़ये लोहार्गले नगरे १मायुर्घटाः सहना अथवा मागुः सागराः सर्वे । यस्यैतादृशी सन्धिः स पाणिपतग्राही भवति ॥१॥ दीप अनुक्रम [२०७] oredeossass30 ... अथ भगवंत ऋषभस्य प्रथम पारणकं एवं अष्ट भवानां वर्णनं ~323~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२१२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२१२] गाथा ||२..|| कल्प.सुबो- भगवान् वज्रजङ्घस्तदानीमहं श्रीमती भार्या २ तत उत्तरकुरौ भगवान् युगलिकोऽहं युगलिनी ३ ततः सौ-18 श्रीऋषभस्स व्या०७धर्म द्वावपि मित्रदेवी ४ ततो भगवानपरविदेहे वैद्यपुत्रस्तदाहं जीर्णश्रेष्ठिपुत्रः केशवनामा मित्रं ५ ततोऽच्यु- केवलम् तकल्पे देवी ६ ततः पुण्डरीकियां भगवान् वज्रनाभचक्री तदाहं सारथिः ७ ततः सर्वार्थसिद्धविमाने देवीस. २१२ ॥१५॥ 18|इह भगवतः प्रपौत्र' इति, एवं श्रुत्वा सर्वोऽपि जन:-रिसंहेससमं पत्तं,निरवजं इकखुरससमं दाणं । सेअंस-1 समो भावो हविज जइ मग्गिअं हुज्जा'॥१॥ इत्यादि स्तुवन् स्वस्थानं गतः, एवं दीक्षादिनादारभ्य प्रभोव-18 शर्षसहसं छास्थस्वकालस्तत्र सर्वसङ्कलितोऽपि प्रमादकाल: अहोरात्रं, एवं च (जाव अप्पाणं भावेमाणस्स)ISI यावत् आत्मानं भावयतः (इकं वाससहस्सं विइकतं) एकं वर्षसहस्रं व्यतिक्रान्तं (तओ ण जे से हेमंताणं|२ चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे) ततश्च योऽसौ शीतकालस्य चतुर्थी मास: ससमः पक्षः (फग्गुणवहुले)फाल्गु-18 नस्य कृष्णपक्षः (तस्स णं फग्गुणबहुलस्स इकारसीपक्खेणं)तस्य फाल्गुनबहुलस्य एकादशीदिवसे (पुथ्वपहकालसमयंसि) पूर्वाह्नकालसमये (पुरिमतालस्स नगरस्स बहिआ) पुरिमतालनामकस्य विनीताशाखापुरस्य बहिस्तात् (सगडमुहंसि उजाणंसि) शकटमुखनामके उद्याने (नग्गोहवरपायवस्स अहे)न्यग्रोधनामकवृक्षस्य ॥१५३॥ अघः (अट्ठमेणं भत्तेणं अपाणएणं) अष्टमेन भक्तेन अपानकेन-जलरहितेन (आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगमु-18 वागएणं) उत्तराषाढायां नक्षत्रे चन्द्रयोगे उपागते सति (झाणंतरियाए वहमाणस्स) ध्यानस्य मध्यभागे वत्ते ऋषभेशसमं पात्रं निरवयं वरससमं दानं । श्रेयांससमो भावो भूयाद् यदि मागितं भवेत् ॥॥ दीप अनुक्रम [२०७] २५ Read JABEducationinila ... अथ भगवंत ऋषभस्य केवलज्ञान एवं माता मरुदेवाया: मोक्ष-गमनं ~324~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२१३] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत | मरुदेवी सूत्रांक [२१३] गाथा ||२..|| मानस्य (अणते जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ) अनन्तं केवलमुत्पन्नं यावत् जानन् पश्यंश्च विहरति ।।(२१२)। किवलपूजा | एवं च वर्षसहस्रेऽतिक्रान्ते पुरिमतालनानि विनीताशाखापुरे प्रभोः केवल ज्ञानं उत्पन्नं, तदैव भरतस्य । मोक्षः चक्रमपि, तदा च विषयतृष्णाया विषमखेन, प्रथमं तातं पूजयामि उत चक्रमिति.क्षणं विमृश्य इहलोकपरलोकसुखदायिनि ताते पूजिते केवलमिहलोकफलदायि चक्रं पूजितमेवेति सम्यग विचार्य भरतः प्रत्यहं उपाल-18 म्भान् ददती च मरुदेवां हस्तिस्कन्धे पुरतः कृत्वा सर्वा वन्दितुं ययौ, प्रत्यासन्ने च समवसरणे मातः पश्य स्वपुत्रादि इति भरतेन भणिता मरुदेवा हर्षपुलकिताङ्गी प्रमोदाश्रुपूरैर्निर्मलनेत्रा प्रमोश्छत्रचामरादिकां प्रातिहार्यलक्ष्मी निरीक्ष्य चिन्तयामास-धिग मोहविह्वलान् , सर्वेऽपि प्राणिनः खार्थे। लिह्यन्ति, यन्मम ऋषभदुःखेन|8 रुदत्या नेत्रे अपि हीनतेजसी जाते, ऋषभस्तु एवं सुरासुरसेव्यमान ईदृशीं समृद्धिं भुनानोऽपि मम सुखवा-18 |तोसन्देशमपि न प्रेषयति, ततो घिगिम स्नेह, इत्यादि भावयन्त्यास्तस्याः केवलमुत्पन्न, तत्क्षणाच आयुषःक्षयान्मुक्तिं जगाम । अत्र कविः-पुत्रो युगादीशसमो न विश्वे, भ्रान्खा क्षिती येन शरस्सहस्रम् । यदर्जितं केवलरा-18 मंग्य, स्नेहात्तदेवार्यत मातुरांशु॥१॥मरुदेवा समा नाम्या, योऽगात् पूर्व किलेक्षितुम् । मुक्तिकन्यां तनूजार्थ, शिवमार्गमपि स्फुटम् ॥ २॥ भगवानपि समवसरणे धर्म अकथयत्, तत्र ऋषभसेनायाः पञ्च शतानि भर-1 तस्य पुत्राः,सप्त शतानि पौत्राश्च प्रत्रजितास्तेषां मध्ये ऋषभसेनादयश्चतुरशीतिगेणधरा स्थापिताः, वायपि प्रववाज, भरतः पुनः श्रावकः सञ्जातः, स्त्रीरनं भविष्यतीति तदा भरतेन निरुद्धा सुन्दर्यपि श्राविका सना दीप अनुक्रम [२०८] ... अथ भरत-गृहे चक्र-रत्नस्य उत्पत्ति:, सुंदरी-दीक्षा, बाहुबलिना सह युद्ध एवं केवलज्ञान-वर्णनं ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२१३] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२१३] गाथा ||२..|| कल्प सबो- तेति चतुर्विधसङ्घस्थापना ।। ते च कच्छमहाकच्छवर्जाः सर्वेऽपि तापसाः भगवतः पाश्व दीक्षां जगृह, भरतस्तुबाहुबलियुव्या७शक्रनिवारितमरुदेवीशोका खस्थानं जगाम ।। अथ भरतश्चक्रपूजां कृत्वा शुभे दिने प्रयाणं कृत्वा षष्टिसहस्र-RI द्वम् .. वर्षेः भरतस्य षट् खण्डानि साधयित्वा खगृहमागतः, चक्रं तु बहिरेव तस्थौ, तदा भरतेन तत्कारणानि पृष्टा नियोगिनो जगुः-नवनवतिस्तव भ्रातरो वशे नागता इति, तदा भरतेनाष्टनवतिनावृणां मदाज्ञा मान्येति दूत-15 मुखेनावाचि, ते सम्भूय किमाज्ञां मन्यामहे उत युद्धं कुर्म इति प्रष्टुं प्रभुपाचे गताः, प्रभुणाऽपि वैतालीयाध्ययनप्ररूपणया प्रतियोध्य दीक्षिता इति, तदनु बाहुबलिन उपरि दूतः प्रैपि, सोऽपि क्रोधान्धदोडुर: सन् सैन्ययुतः सम्मुखमागत्य भरतेन सह द्वादशवर्षी यावादमकरोत्, परं न च हारितः, तदा शक्रेणागत्य भूयस्तरजनसंहारं भवन्तं ज्ञात्वा दृष्टिवागमुष्टिदण्डलक्षणाश्चत्वारो युद्धाः प्रतिष्ठिताः, तेष्वपि भरतस्य पराजयो जज्ञे, तदा भरतेन क्रोधान्धेन वाहुबलिम: उपरि चक्रं मुक्तं, परमेकगोत्रीयत्वात्तत्तं न पराभवत्, तदाऽमप्रवशागरतं हन्तुमना मुष्टिमुत्पाव्य धावन् बाहुबलिरहो पितृतुल्यज्येष्ठनातृहननं ममानुचितमेव, उत्पातिता मुष्टिरपि कथं मोघा भवेदिति विचार्य खशिरसि तां मुक्त्वालोचं कृत्वा सर्वच त्यक्त्वा कायोत्सर्ग चके, तदा २५ भरतस्तं नत्वा खापराध क्षमयित्वा स्वस्थानं गतः, बाहुबलिस्तु पर्यायज्येष्ठान लघुभ्रातून कथं नमामीति ततो ॥१५॥ यदा केवलमुत्पत्स्यते तदैव भगवत्पाबें यास्यामीति विचार्य वर्ष यावत् कायोत्सर्गेणैवोस्थात्, वर्षान्ते च भगवत्प्रेषिताभ्यां स्वभगिनीभ्यां हे भ्रातर्गजादुत्तरेत्युक्त्वा प्रतियोधितः स यावत् चरणौ उदक्षिपत् तावत्तस्य । ૨૮ दीप अनुक्रम [२०८] ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२१३] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [२०८] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र”- (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२१३] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: केवलमुत्पेदे, ततो भगवत्पार्श्वे गत्वा चिरं विहृत्य भगवता सहैव स मोक्षं ययाविति, भरतोऽपि चिरं चक्र वर्त्तिश्रियमनुभूय एकदाऽऽदर्शभवने मुद्रिकाशन्यां खालीं दृष्ट्वाऽनित्यत्वं भावयन् केवलज्ञानमुत्पाद्य दशसहस्रसृपैः सार्द्ध देवतादत्तं लिङ्गमुपादाय चिरं विहृत्य शिवं ययाविति ॥ ( उसमस्स णं अरहओ कोसलियम्स ) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (चउरासीइ गणा चउरासी गणहरा हुस्था) चतुरशीतिः ८४ गणाः, चतुरशीतिः ८४ गणधराच अभवन् ॥ (२१३) । (उसभस्स णं अरहओ कोसलियरस ) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य ( उसभसेणपामुक्खाणं ) ऋषभसेनप्रमुखाणां ( चउरासीह समणसाहस्सीओ) चतुरशीतिः श्रमणसहस्राणि (८४०००) (उक्कोसिया समणसंपया हुत्था) उत्कृष्ट एतावती श्रमणसम्पदा अभवत् ॥ ( २१४ ) | ( उस भस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कोशलिकस्य (भिसुंदरिपामोक्खाणं) ब्राह्मीसुन्दरीप्रमुखाणां (अज्जियाणं) आर्यिकाणां (तिनि सयसाहस्सीओ) त्रयो लक्षाः (३०००००) (उकोसिया अजियासंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती आर्यिका सम्पत् अभवत् ॥ (२१५) | ( उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स ) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (सिसपामुक्खाणं समणोवासगाणं) श्रेयांसप्रमुखाणां श्रमणोपासकानां (तिन्नि सयसाहस्सीओ पश्च सहस्सा) त्रयः लक्षाः पञ्च सहस्राणि (३०५०००) (उक्कोसिया समणोबासगाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रावकाणां सम्पत् अभवत् ॥ (२१६) । (उसभस्स णं अरहओ कोसलियरस ) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (सुभद्दापामुक्खाणं समणोवासियाणं ) सुभद्राप्रमुखाणां श्रावि Jan Educators For Pride & Personal Use On ~327~ श्री ऋषभस्य परीवारःस्. २१३-२१६ ५ १० १४ janelbrary.org Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२१७] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२१७] गाथा ||२..|| काणां (पंच सयसाहस्सीओ चउपण्णं च सहस्सा) पञ्च लक्षाः, चतुःपञ्चाशत् सहस्राः (५५४००० ) ( उक्को- श्रीऋषभस्व व्या०सिया समणोवासियाणं संपया हत्था) उत्कृष्टा श्राविकाणां सम्पत् अभवत् ।।(२१७)। (उसभस्स णं अरहओ परीवारम्स. कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कौशालिकस्य (चत्तारि सहस्सा सत्त सया पण्णासा) चत्वारि सहस्राणि २१७-२२२ ॥१५॥ सप्त शतानि पश्चाशदधिकानि (४,७५०)(चउद्दसपुच्चीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं) चतुर्दशपूर्षिणां अके-श वलिनामपि केवलितुल्यानां (जाव उक्कोसिया चउद्दसपुवीणं संपया हुत्था) यावत् उत्कृष्टा एतावती चतुर्दशपूर्विणां सम्पत् अभवत् ।। (२१८)॥ (उसभरस गं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (नव सहस्सा ओहिनाणीणं) नच सहस्राणि (९०००) अवधिज्ञानिनां( उक्कोसिया ओहिनाणीसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती अवधिज्ञानिनां सम्पत् अभवत् ॥(२१९)। (उसभस्स णं अरहओ कोसलियरस) ऋषभस्य अर्हतः कोशलिकस्य (वीस सहस्सा केवलनाणीणं)विंशतिसहस्राः (२९०००) केवलज्ञानिनां (उक्कोसिया केवलनाणीसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती केवलज्ञानिसम्पत् अभवत् ।।(२२०)। ( उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (वीस सहस्सा छच्च सया वेउब्वियाणं)विंशतिः सहस्राणि, ष, २५ | शतानि च (२०६००) वैक्रियल ब्धिमतां (उकोसिया वेउबियसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती वैक्रियलब्धिमत्स- | ॥१५५|| म्पत् अभवत् ॥ (२२१)। (उसभरस णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (बारस सहस्सा । छच्च सया पण्णासा विउलमईणं) द्वादश सहस्राणि षट् शतानि पञ्चाशच (१२३५०) विपुलमतीनां ( अड्डाइजेसु २८ दीप अनुक्रम [२०८] ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२२२] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२२२] गाथा ||२..|| दीवेसु दोसु अ समुद्देसु) सार्धद्वयद्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयोः ( सण्णीणं पंचिंदियाणं पजत्तगाणं ) सञ्जिना श्रीऋषभस्य | पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानां (मणोगए भावे जाणमाणाणं) मनोगतान् भावान् जानतां (उकोसिया विउलमइसं-परीवारःसू. पया हुत्था) उत्कृष्ठा एतावती विपुलमतिसम्पत् अभवत् ॥(२२२)। (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) अष- २२३-२२६ भस्य अर्हतः कोशलिकस्य (बारस सहस्सा छच्च सया पण्णासा वाईणं)द्वादश सहस्राणि, पटू शतानि, पञ्चा|शच (१२६५०) बादिना (उकोसिया वाइसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती वादिसम्पत् अभवत् ।। (२२३)॥ (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कोशलिकस्य (वीसं अंतेवासिसहस्सा सिद्धा) विंशतिः शिष्यसहस्राणि (२००००) सिद्धानि, (चत्तालीसं अजियासाहस्सीओ सिद्धाओ) चत्वारिंशत् ॥ आर्यिकासहस्राणि (४००००) सिद्धानि ॥ (२२४)॥ (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः18 | कौशलिकस्य (बावीससहस्सा नव सया अणुत्तरोववाइयाणं)द्वाविंशतिः सहस्राणि नव शतानि च (२२९००) अनुत्तरोपपातिनां (गइकल्लाणाणं) गतौ कल्याणं येषां ते तथा तेषां (जाव उको सिया संपया हुत्था) यावत् उत्कृष्टा एतावती अनुत्तरोपपातिनां सम्पत् अभवत् ॥ (२२५)॥ (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (दुविहा अंतगडभूमी हुत्था) द्विविधा अन्तकृमिः अभवत् (तंजहा) तद्यथा (जुगंतगडभूमी य परियायंतगडभूमी य) युगान्तकृभूमिः पर्यायान्तकृद्भूमिश्च (जाव असंखिजाओ पुरिसजुगाओ जुगतगभूमी) यावत् युगान्तकृभूमिरसङ्ख्येयानि पुरुषयुगानि भगवतोऽन्वयक्रमेण सिद्धानि (अंतो-19 १४ दीप अनुक्रम २०९] ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२२६] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [२११] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१५६॥ Jan Education in दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२२६] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: मुहसपरिआए अंतमकासी) पर्यायान्तकृद्भू मिस्तु भगवतः केवले समुत्पन्नेऽन्तर्मुहूर्तेन मरुदेवाखामिनी अन्तकृत्केवलितां प्राप्ता ॥ ( २२६ ) ॥ ( तेणं कालेणं) तस्मिन् काले ( तेणं समएणं) तस्मिन् समये ( उसमे अरहा कोसलिए ) ऋषभः अर्हन् कौशलिकः (वीसं पुव्वसय सहस्साइं ) विंशतिपूर्वलक्षान् (२०००००० पूर्व ) ( कुमारवासमज्झे वसिशा ) कुमारावस्थायां उषित्वा स्थित्वा ( तेवट्टि पुव्वसयसहस्साई ) त्रिषष्टिपूर्वलक्षान ( ६३००००० पूर्व ) (रज्जवा| समज्झे वसित्ता) राज्यावस्थायां उषित्वा (तेसीइं पुवसयसहस्साई) व्यशीतिपूर्वलक्षान् (८३००००० पूर्व ) ( अगारवासमझे वसित्ता) गृहस्थावस्थायां उषित्वा ( एगं वाससहस्सं ) एक वर्षसहस्रं ( १००० वर्ष ) (छउमत्थपरिआयं पाउभित्ता) उद्मस्थपर्यायं पालयित्वा ( एवं पुव्वसयसहस्सं वाससहस्वर्ण ) एकं पूर्वलक्षं वर्षसह स्रेणनं ( केवलिपरिजयं पाउणित्ता ) केवलिपर्यायं पालयित्वा ( पडिपुन्नं पुच्वसयसहस्सं ) प्रतिपूर्ण पूर्वलक्षं ( १००००० पूर्व ) ( सामण्णपरिआर्य पाउणित्ता ) चारित्रपर्यायं पालयित्वा (चउरासीइ पुञ्चसपसहस्साई ) चतुरशीतिपूर्वलक्षान ( ८४००००० पूर्व ) ( सव्वाउयं पालहस्सा ) सर्वायुः पालयित्वा ( वीणे वेपणिजाउथनामगुले) क्षीणेषु वेदनीययुर्नामगोत्रेषु सत्सु (इमीसे ओसपिणीए ) अस्यां अवसर्पिण्यां ( सुसमद्समाए समाए बहु विताए ) सुषमदुष्षमानामके तृतीयारके बहुव्यतिक्रान्ते सति ( तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं) त्रिषु वर्षेषु सार्द्धेषु अष्टसु मासेषु शेषेषु सत्सु (तृतीयारके एकोननवतिपक्षविशेषे ) ( जे से हेमं For Filde&Fersonal Use On ~330~ श्री ऋषभगृ हवासादि स. २२७ २० २५ ।। १५६ ।। २८ www.janbary.org Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२२७] गाथा ||R..|| दीप अनुक्रम [२१२] क. सु. २७ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२२७] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ताणं तथे मासे पंचमे पकले माहबहुले ) योऽसौ शीतकालस्य तृतीयो मासः पञ्चमः पक्षः माघस्य कृष्णपक्षः ( तस्स णं माहयहुलस्स तेरसीपक्खेणं) तस्य माधबहुलस्य त्रयोदशीदिवसे ( उपिं अट्ठावयसेलसिहरंसि अष्टापदशैलशिखरस्योपरि (दसहिं अणगारसहस्सेहिं सद्धिं ) दशभिः अनगारसहस्रैः सार्द्धं ( चउदसमे णं भसेणं अपाणएणं ) चतुर्दशभक्तपरित्यागाद् उपवासपट्केन अपानकेन - जलरहितेन (अभीरणा नक्खत्तेणं जोगमुवागणं) अभिजिन्नामके नक्षत्रे चन्द्रयोगं उपागते सति ( पुण्हकालसमयंसि ) पूर्वाहकालसमये ( संपलिक निसणे ) पल्यङ्कासनेन निषण्णः ( कालगए ) कालगत: ( जाव सवदुक्खप्पहीणे) यावत् सर्वदुःखानि प्रक्षीणानि ॥ (२२७) । यस्मिन् समये भगवान् सिद्धः तस्मिन् समये चलितासनः शक्रोऽवधिना भगवन्निर्वाणं विज्ञायाग्रमहिपीलोकपालादिसर्वपरिवारपरिवृतो यत्र भगवच्छरीरं तत्रागत्य त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य निरानन्दोऽश्रुपूर्ण नयनो नात्यासन्ने नातिदूरे कृताञ्जलिः पर्युपास्ते, एवं ईशानेन्द्रादयः सर्वेऽपि सुरेन्द्राः कम्पितासना ज्ञात भगवन्निर्वाणाः स्वस्थ परिवारपरिवृता अष्टापदपर्वते यत्र भगवच्छरीरं तत्रागत्य विधिवत् पर्युपासमानांस्तिष्ठन्ति ततः शक्रो भवनपतिष्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकदेवैर्नन्दनवनाद गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि आनाय्य तिस्रञ्चिताः कारयति, एकां तीर्थङ्करशरीरस्य, एकां गणधर शरीराणां, एकां शेषमुनिशरीराणां तत आभियोगिकदेवैः क्षीरोदसमुद्राजलं आनाययति, ततः शक्रः क्षीरोदजलैस्तीर्थकुच्छरीरं स्वपयति सरसगोशीर्ष चन्दनेनानु लिम्पति हंसलक्षणं Jan Education Intemation For Pride & Personal Use On ~331~ श्रीऋषभदेवनिर्वाणम् सू. २२७ ५ १० १४ jal.ag Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२२८] गाथा ॥२..॥ दीप अनुक्रम [२१३] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१५७॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [७] मूलं [२२८] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: निर्वाणम् सू. २२७ पटशाटकं परिधापयति सर्वालङ्कारविभूषितं करोति, एवं अन्ये देवा गणधरमुनिशरीराणि स्लपितानि चन्दनानुलि- ४ श्री ऋषभदेसानि सर्वालङ्कारविभूषितानि कुर्वन्ति, ततः शक्रो विचित्रचित्रविराजितास्तिस्रः शिविकाः कारयति, निरानन्दो दीनमना अश्रुमिश्रनेत्रस्तीर्थकुच्छरीरं शिविकायां आरोपयति, अन्ये देवा गणधरमुनिशरीराणि शिविकायां आरोपयन्ति, ततः शको जिनशरीरं शिविकाया उतार्य चितायां स्थापयति, अन्ये देवा गणधरमुनिशरीराणि स्थापयन्ति ततः शक्राज्ञया अग्निकुमारा देवा निरानन्दा निरुत्साहा अग्निं ज्वालयन्ति, वायुकुमारा वायुं विकुर्वन्ति, शेषाश्च देवास्तासु चितासु कालागुरुचन्दनादीनि सारदारुणि निक्षिपन्ति, कुम्भशो मधुघृतेस्ताः सिचन्ति, अस्थिशेषेषु च तेषु शरीरेषु शक्रादेशेन मेघकुमारा देवास्तिस्रचिता निर्वापयन्ति, ततः शक्रः प्रभोरुपरितन दक्षिणां दाढां गृह्णाति ईशानेन्द्र उपरितनीं वामां चमरेन्द्रोऽधस्तन दक्षिणां बलीन्द्रोऽधस्तनीं वामां, अन्येऽपि देवाः केऽपि जिनभक्त्या केsपि जीतमिति केऽपि धर्म इतिकृत्वा अवशिष्टानि अङ्गोपाङ्गास्थीनि गृह्णन्ति, ततः शको रत्नमयानि त्रीणि स्तूपानि कारयति - एकं भगवतो जिनस्य एकं गणधराणां एकं शेषमुनीनां तथा कृत्वा च शक्रादयो देवा नन्दीश्वरादिषु द्वीपेषु कृताष्टाहिकमहोत्सवाः स्वस्त्रविमानेषु गत्वा खासु खासु सभासु वज्रमयसमुद्गकेषु जिनदादाः प्रक्षिप्य गन्धमात्यादिभिः पूजयन्ति ॥ (उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स) ऋषभस्य अर्हतः कौशलिकस्य (जाव सबक्खप्पहीणस्स) यावत् सर्वदुः खप्रक्षीणस्य ( तिन्निवासा अद्धनवमा य मासा विइकता) त्रीणि वर्षाणि सार्द्धाश्चाष्टौ मासा व्यतिक्रान्ताः For Prote&Prion Use Only ~ 332~ २० २५ ॥१५७॥ २८ jamesbrary and Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ....... व्याख्यान [७] .......... मूलं [२२८] / गाथा [२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक श्रीऋषभदे. वीरपुस्तक कालान्तर [૨૮] गाथा ||२..|| (तओऽवि परं एगा सागरोवमकोडाकोडी) ततः परं एका सागरोपमकोटाकोटी, कीहशी?-(तिवासअद्धनवममासाहियत्ति)त्रिवर्षसाीष्टमासाधिकैः (वायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिया विइकता) द्विचत्वारिंशद्वर्षाणां सहस्रः ऊना व्यतिक्रान्ता (एयंमि समए समणे भगवं महावीरे परिनिम्बुडे ) एतस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीरो निर्वृतः (तोऽवि परं नव वाससया विइकता) ततोऽपि परं नव वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि (दसमस्स य वाससयस्स) दशमस्य च वर्षशतस्य (अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छद) अयं अशीतितमः संवत्सर: कालो गच्छति ॥ (२२८)॥ ॥ इति श्रीऋषभदेवचरित्रं समाप्तम् ॥ मसू.२२८ दीप अनुक्रम [२१३] Raftapanimanandurashapaanasranamastaramaranas इति जगद्गुरुश्रीहीरविजयसूरीश्वरशिष्यरत्नमहोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचिताय कल्पमुबोधिकायां सप्तमः क्षण समाप्तः । समाप्तं च जिनचरितरूपप्रथमवाच्यव्याख्यानं इति । ग्रन्थानम् (१०२५)। सप्तानामपि व्याख्यानानां ग्रन्थानम् (५२५७)। Bersta SRSRSRSRSRSRSRSRSRSRSRSRSRSRS SeRSH सप्तमं व्याख्यानं समाप्तं ~333~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [१] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक ne कल्प.सुवो-| ब्या०७ ॥१५८॥ श्रीवीरस गणादि म.१-२ [१] गाथा ॥ अथ अष्टमं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ ॥ अथ गणधरादिस्थविरावलीलक्षणे द्वितीये वाच्ये स्थविरायलीमाह-(तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये ( समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (नव गणा इकारस गणहरा हुत्था) नव गणाः एकादश गणधराश्च अभूवन् । (१)॥ अथ शिष्यः पृच्छति-(से केणटेणं भंते ! एवं चुचह) तत् केन अर्थेन-हेतुना हे भदन्त ! एवं उच्यते (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (नव गणा इकारस गणहरा हुत्था) नव गणाः एकादश गणधराश्च अभूवन, अन्येषां गणानां गणधराणां च तुल्यत्वात् , 'जावइआ जस्स गणा तावडा गणहरा तस्स' इति प्रसिद्धत्वात् ।। (२)। इति शिष्येण प्रश्ने कृते. आचार्य आह-(समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (जिडे इंदभूई अणगारे) ज्येष्ठः इन्द्रभूतिनामा अनगारः (गोयमसगुत्तेणं ) गौतमगोत्रः (पंच समणसयाई॥ वाएइ) पश्च श्रमणशतानि वाचयति (५००).(मज्झिमे अग्गिभूई अणगारे) मध्यमोऽग्निभूतिः अनगार: (पंच समणसयाई वाएइ) पश्च श्रमणशतानि वाचयति (५००),(कणीअसे बाउभूई अणगारे) लघुः वायुभूतिनामा अनगार: (गोयमसगुत्तेणं ) गौतमगोत्रः (पंच समणसयाई वाएइ) पञ्च श्रमणशतानि (५००) वाचयति.(थेरे अजवियत्ते) स्थविरः आर्यव्यक्तनामा (भारद्दाए गुत्तेणं) भारद्वाजगोत्रः (पंच escesewwweseccenel दीप अनुक्रम [२१३] २० ॥१५॥ D अष्टमं व्याख्यानं आरभ्यते ... मूल संपादकेन इत: पुन: क्रमांकन कृत: । अत्र स्थवीरावली-वाचना आरभ्यते ~334~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [३] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३] गाथा II-II 18 समणसपाई वाएइ) पञ्च श्रमणशतानि (५००) वाचयति (धेरे अजसुहम्मे ) स्थविर आर्यसुधर्मा18 गणधरवा( अग्गिवेसायणगुत्तेणं) अग्निवैश्यायनगोत्रः (पंच समणसयाई वाएइ) पञ्च श्रमणशतानि (५००)18 चनाः स.३ वाचयति । (धेरे मंडिअपुत्ते ) स्थविरः मण्डितपुत्रः ( वासि? गुत्तेणं ) वासिष्ठगोत्रः (अछुहाई। समणसयाई वाएइ) सार्धानि त्रीणि श्रमणशतानि ३५० वाचयति (थेरे मोरिअपुत्ते) स्थविरः मौर्यपुत्रः। (कासवगुत्तेणं) काश्यपगोत्रः ( अ हाई समणसयाई वाएइ) सार्दानि त्रीणि श्रमणशतानि ( ३५०)बाच-1 यति, (धेरे अकंपिए) स्थविरः अकम्पितः (गोयमसगुत्तेणं) गौतमगोत्रः (धेरे अपलभाया) स्थविरः अचलभ्राता च (हारिआयणे गुत्तेणं) हारितायनगोत्रः (ते दुन्निवि थेरा तिपिण तिण्णि समणसयाई वाएंति) ती द्वावपि स्थविरौ त्रीणि त्रीणि श्रमणशतानि (३००) वाचयतः, (धेरे मेअजे धेरे पभासे एए दुन्निवि थेरा) स्थविर मेतार्यः स्थविरः प्रभासः एतौ द्वाबपि स्थविरी (कोडिन्नागुत्तेणं) कोडिन्यौ गोत्रेण (तिण्णि तिषिण, 18 समणसयाई वाएंति ) त्रीणि त्रीणि श्रमणशतानि ( ३०० ) वाचयतः, (से तेणद्वेणं अजो एवं वुच्चइ ) तत्-11 तेन हेतुना हे आर्य ! एवं उच्यते (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (नव गणा इकारस गणहरा हुत्था) नव गणाः एकादश गणधराश्च अभूवन, तन्त्र अकम्पिताचलनात्रोरेकैव वाचना, एवं मेतार्यप्रभासयोरपीति युक्तमुक्तं-नव गणा एकादश गणधराः, यस्मात् एकवाचनिको यतिसमुदायो गण? इति । अत्र मण्डितमौर्यपुत्रयोरेकमातृकत्वेन भ्रात्रोरपि भिन्नगोत्राभिधानं पृथक् जनकापेक्षया, तत्र मण्डितस्य दीप अनुक्रम [२१५] JABEnicatondane Milanetbraryana ~335~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२१७] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१५९ ।। दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [८] मूलं [४] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: पिता धनदेवो, मौर्यपुत्रस्य तु मौर्य इति, अनिषिद्धं च तत्र देशे एकस्मिन् पत्यौ मृते द्वितीयपतिवरणमिति वृद्धाः ॥ ( ३ ) | ( सध्ये एए समणस्स भगवओ महावीरस्स) सर्वे एते इन्द्रभूत्यादयः श्रमणस्य भगवतो महाषीरस्य ( इकारसवि गणहरा) एकादशापि गणधराः कीदृशा: : - ( दुबालसंगिणो) द्वादशाङ्गिनः - आचाराङ्गादिरष्टिवादान्तश्रुतवन्तः खयं तत्प्रणयनात्, ( चउद्दस पुब्विणो ) चतुर्दशपूर्वबेसारः, द्वादशाङ्गित्वं इत्येतेनैव चतुर्दशपूर्वित्वे लब्धे यत्पुनरेतदुपादानं तदङ्गेषु चतुर्दशपूर्वाणां प्राधान्यख्यापनार्थ, प्राधान्यं च पूर्वाणां पूर्व प्रणयनात अनेक विद्यामन्त्रार्थमय स्वात् महाप्रमाणत्वाच्च द्वादशाङ्गित्वं चतुर्दशपूर्वित्वं च सूत्रमात्रग्रहणेऽपि स्यादिति तदपोहार्थमाह - ( समत्तगणिपिडगधारणा ) समस्तगणिपिटकधारकाः, गणोऽस्यास्तीति गणी - भावाचार्यस्तस्य पिकमिव-रत्नकरण्डकमिव, गणिपिटक - द्वादशाङ्गी, तदपि न देशतः स्थूलभद्रस्यैव, किं तु ?, समस्तं सर्वाक्षरसन्निपातित्वात् तद्धारयन्ति सूत्रतोऽर्थतश्च ये ते तथा (रायगिहे नगरे) राजगृहे नगरे (मासिएणं भन्तेणं अपाणएणं) अपानकेन मासिकेन भक्तेन भक्तप्रत्याख्यानेन, पादपोपगमनानशनेन (कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा) मोक्षं गताः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणाः (घेरे इंदभूई घेरे अजसुहम्मे) स्थविर इन्द्रभूतिः स्थविर आर्यसुधर्मा च (सिद्धिं गए महावीरे) सिद्धिं गते महावीरे सति (पच्छा दुन्निधि धेरा परिनिष्युपा ) पश्चाद् द्वावपि स्थविरौ निर्वाणं प्राप्तौ तत्र नव गणधरा भगवति जीवत्येव सिद्धाः इन्द्रभूतिसुधर्माणौ तु भगवति निर्वृते निर्वृतौ ॥ ( जे इमे अजन्ताए समणा निग्गंधा विहरंति ) ये इमे अद्यतनकाले श्रमणा निर्ग्रन्था विहरन्ति (एए णं सव्वे For Pride & Personal Use O ~336~ श्रीगौतमादिगणधर स्वरूपम् सू. ४ २० २५ ।। १५९।। २८ janataly.org Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र ལྕཡྻོཝཱ =ལླཛཏྠུཾཡྻ II-II अनुक्रम [२१७] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) मूलं [४] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ........... व्याख्यान [८] अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स आवविजा ) एते सर्वेऽपि आर्यसुधर्मणः अनगारस्य अपत्यानि शिष्यसन्तानजा | इत्यर्थः ( अवसेसा गणहरा निरवचा युच्छिण्णा) अवशेषाः गणधराः निरपत्याः- शिष्यसन्तानरहिताः, स्वस्वमरणकाले खखगणान सुधर्मस्वामिनि निस्सृज्य शिवं गताः, यदाहु:-'मासं पाओवगया, सव्वेऽवि अ सव्व लद्विसंपन्ना । वज्जरिसहसंघपणा, समचउरंसा य संठाणा ॥ १ ॥ ( ४ ) ॥ (समणे भगवं महावीरे कासवगुणं ) श्रमणो भगवान् महावीरः काश्यपगोत्रः ( समणरस णं भग वओ महावीरस्स कासवगुप्तस्स ) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य काश्यपगोत्रस्य ( अजसुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गियेसायणगुप्ते) आर्यसुधर्मा स्थविरः शिष्यः अग्निवेश्यायनगोत्रः । श्रीवीरपट्टे श्रीसुधर्मखामी पञ्चमो गणधरः, तत्स्वरूपं चेदं कुल्लागसन्निवेशे धम्मिलविप्रस्य भार्या भद्दिला, तयोः सुतञ्चतुर्दशविद्यापात्रं पञ्चाचाटूर्षान्ते प्रत्रजितस्त्रिंशद्वर्षाणि वीरसेवा, वीरनिर्वाणाद् द्वादशवर्षान्ते जन्मतो द्विनवति वर्षान्ते च केवलं ततोऽष्टौ वर्षाणि केवलित्वं परिपाल्य शतवर्षायुर्जम्बूस्वामिनं खपदे संस्थाप्य शिवं गतः १ । (थेरस्स णं अजसुहम्मस्स अग्गिवेसायणगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यसुधर्मणः अग्निवेश्यायनगोत्रस्य ( अजजंबुनामे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते) आर्यजम्बूनामा स्थविरः शिष्यः काश्यपगोत्रः । श्रीजम्बूखामिखरूपं चेदं राजगृहे श्रीऋषभचारिण्योः पुत्रः पञ्चमवर्गाच्युतो जम्बूनामा श्रीसुधर्मखामिसमीपे धर्मश्रवणपुरस्सरं प्रतिपन्नशील सम्यक्त्योऽपि पित्रोंई१ मासं पादपोपगताः सर्वेऽपि च सर्वलब्धिसंपन्नाः । वज्रऋषभ संहननाः समचतुरस्र संस्थानाश्च ॥ १ ॥ For Plate & Fersonal Use On ~337~ श्रीसुधर्मस्वामिव रूपम् सू. ५ ५ १० १३ janelbrary.org Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [५] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५] गाथा II-II कल्प.सुबो-ढाग्रहवशादृष्टौ कन्याः परिणीतः, परं तासां सस्नेहाभिवाग्भिनं व्यामोहितः, यतः-सम्यक्त्वशीलतुम्बाभ्यां श्रीजम्बूव्या० भवाब्धिस्तीर्यते सुखम् । ते धानो मुनिर्जम्बूः, स्त्रीनदीपु कथं त्रुडेत् ? ॥१॥ ततो रात्रौ ताः प्रतिबोधयंश्चौ- खामिखरू धिमागतं चतुःशतनवनवति (४९९) चौरपरिकरितं प्रभवमपि प्रायोधयत, ततः प्रातः पञ्चशतचौरप्रियाष्टकत॥१६॥ जनकजननीखजनकजननीभिः सह खयं पञ्चशतसप्तविंशतितमो नवनवतिकनककोटी परित्यज्य प्रबजितः, क्रमात् केवलीभूत्वा षोडश वर्षाणि गृहस्थत्वे विंशतिः छाद्मस्थ्ये, चतुश्चत्वारिंशत् केवलित्वे अशीतिवर्षाणि सर्वायुः परिपाल्य श्रीप्रभवं स्वपदे संस्थाप्य सिद्धिं गतः, अत्र कविः-जम्बूसमस्तलारक्षो, न भूतो न भवि-15) प्यति । शिवाध्ववाहकान साधून, चौरानपि चकार यः॥१॥ प्रभवोऽपि प्रभु याचौर्येण हरता धनम् । लेभेड- २० नध्यांचौर्यहरं, रनत्रितपमतम् ॥२॥ तत्र-बारस बरसेहिं गोअमु सिद्धो चीराओं वीसहि सुहम्मो। चउ-18 सट्ठीए जंबू बुच्छिन्ना तत्थ दस ठाणा ॥ ३ ॥ मण १ परमोहि २ पुलाए ३ आहार ४ खवग ५ उवसमे ६ कप्पे ७। संजमतिअ ८ केवल ९सिज्झणा य १० जमि वुच्छिन्ना ॥४॥'मण'त्ति मनःपर्यायज्ञानं, 'परमोहित्ति परमावधिः यस्मिन्नुत्पन्नेऽन्तर्मुहर्त्तान्तः केवलोत्पत्तिा, 'पुलाएत्ति पुलाकलब्धिः यथा चक्रवर्तिसैन्यमपि चूर्णीका प्रभुः स्यात्, 'आहारगत्ति आहारकशरीरलन्धिः 'खवग'त्ति क्षपकश्रेणिः 'उवसम'त्ति उपशमश्रेणि१ द्वादशसु वर्षेषु गौतमः सिद्धो वीराद् विंशत्यां सुधर्मा । चतुष्षष्ट्या जम्यु च्छिन्नानि तत्र दश स्थानानि ॥३॥ ॥१६॥ '२ मनः परमावधिः पुलाक आहारकं क्षपक उपशमः कस्सः । संयमत्रिक केवलं सेधना च जम्बी म्युछिनानि ॥४॥ दीप अनुक्रम [२१८] esciselseatselecRc ... आर्य-जंबू-कथानकं वर्णयते ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [4] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२१८] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [८] मूलं [५] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: 'कम्प'न्ति जिनकल्पः 'संजमतिअ'त्ति संयमत्रिकं, परिहारविशुद्धिक १ सूक्ष्मसम्पराय २ यथाख्यातचारित्रलक्षणं ३, अत्रापि कविः - लोकोत्तरं हि सौभाग्यं, जम्बूखामिमहामुनेः । अद्यापि यं पतिं प्राप्य, शिवश्रीर्नान्य| मिच्छति ॥ १ ॥ २ । (थेरस्स णं अब्रजंबूणामस्स कासवगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यजम्बूनामकस्य काश्यपगोत्रस्य (अजप्पभये थेरे अंतेवासी कच्चायणसगुत्ते) आर्यप्रभवः स्थविरः शिष्योऽभूत् कात्यायनगोत्रः (थेरस्स णं अज्जप्पभवस्स कच्चायणगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यप्रभवस्य कात्यायनगोत्रस्य ( अज्ञसिजंभवे घेरे अंतेवासी मणगपिया वच्छसगुते ) आर्यशय्यंभवः स्थविरः शिष्यः कीदृश: ? - मनकस्य पिता वत्सगोत्रः, अन्यदा च प्रभवप्रभुणा खपदे स्थापनार्थ गणे स च उपयोगे दत्ते तथाविधयोग्यादर्शने च परतीर्थेषु तदुपयोगे दत्ते राजगृहे यज्ञं यजन् शय्यं भवभट्टो दहशे, ततस्तत्र गत्या साधुभ्यां 'अहो कष्टमहो कष्टं तवं न ज्ञायते परम्' इति वचः श्रावितः खड्गभाषितखगुरुब्राह्मणदर्शिताया यज्ञस्तम्भाघः स्थश्री शान्तिनाथप्रतिमाया दर्शनेन प्रतिबुद्धः प्रव्रजितः, तदनु श्रीमभवः श्रीशय्यं भवं खपदे न्यस्य स्वर्गमंगादिति प्रभवप्रभुखरूपं ३ । तदनु श्रीशय्यंभ वोऽपि साधानमुक्तनिजभार्याप्रसूतमन काख्यपुत्र हिताय श्रीदशवैकालिकं कृतवान्, क्रमेण च श्रीयशोभद्रं खपदे | संस्थाप्य श्रीवीरादष्टनवत्या (९८) वर्षेः स्वर्जगाम इति (४) । श्रीयशोभद्रसूरिरपि श्रीभद्रबाहु सम्भूतिविजयाख्यो शिष्यो स्वपदे न्यस्य खर्लोकल (थेरस्स णं अज सिज्यं भवस्स मणगपिउणो वच्छसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यशय्यंभवस्य मनकस्य पितुः वत्सगोत्रस्य (अज्जजस भद्दे थेरे अंतेवासी तुंगियायणसगुत्ते) आर्ययशोभद्रः स्थविरः For Pride & Personal Use On ~339~ श्रीजम्बूखामिखरू पम् १० १४ www.janbary.org Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [६] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२१९ २२२] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१६१॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [८] मूलं [६] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: शिष्यः तुङ्गिकायनगोत्रोऽभूत् (५) । अतः परं प्रथमं सङ्क्षिप्तवाचनया स्थविरावलीमाह - (संखित्तवायणाए अज्जजसभद्दाओ अग्गओ एवं थेरावली भणिया सहितवाचनया आर्ययशोभद्रात् अग्रतः एवं स्थविरावली कथिता | ( तंजहा ) तद्यथा - (थेरस्स णं अज्जजसमदरस तुंगियायणसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्ययशोभद्रस्य तुङ्गिकायनगोत्रस्य (अंतेवासी दुवे थेरा-थेरे संभूइविजए माढरसगुत्ते ) शिष्यौ द्वौ स्थविरौ, स्थविरः सम्भूतिविजयः माढरगोत्रः १ ( थेरे अजभद्दबाहू पाईणसगुत्ते ) स्थविरः आर्यभद्रबाहुश्च प्राचीनगोत्र : २, श्रीयशोभद्र पट्टे श्रीसम्भूतिविजयश्री भद्रबाहुनामको दो पट्टधरी जाती, तत्र भद्रबाहुसम्बन्धश्चैवं प्रतिष्ठानपुरे वराहमिहिरभद्रवाह द्विजी प्रग्रजितो, भद्रबाहोराचार्यपदाने रुष्टः सन् वराहो द्विजवेपमात्य वाराहीं संहितां कृत्वा निमित्तैर्जीवति, वक्ति च लोके - काप्यरण्ये शिलायां अहं सिंहलग्नममण्डयं, शयनावसरे तद्भञ्जनं स्मृत्वा लग्नभक्त्या तत्र गतः सिंहं दृष्ट्वापि तस्याधो हस्तक्षेपेण लग्नभङ्गे कृते सन्तुष्टः सिंहलमधिपः सूर्यः प्रत्यक्षीभूय खमण्डले नीत्वा सर्व ग्रहचारं ममादर्शयदिति, अन्यदा वराहेण राज्ञः पुरो लिखितकुण्डालकमध्ये द्विपञ्चाशत्पलमानमत्स्यपाते कथिते श्रीभद्रबाहुभिस्तस्य मत्स्यस्य मार्गेऽर्धपलशोषात् सार्वैकपञ्चाशत्पल मानता कुण्डालकप्रान्ते पातश्च उक्तो मिलितश्च । तथाऽन्यदा तेन नृपनन्दनस्य शतवर्षायुर्वर्त्तने एते व्यवहारज्ञा नृपपुत्रस्य विलोकनार्थमपि नागता इति जैननिन्दायां च क्रियमाणायां गुरुभिः सप्तभिर्दिनैर्विडालिकातो मृतिरूचे, अत्र किरणावलीकारेण सप्तदिनैरिति समस्तः प्रयोगो लिखितः, स तु वैयाकरणैश्चिन्त्यः सङ्ख्यया Jan Educaton le ••• आर्य-भद्रबाहु-कथानकं वर्णयते For File & Fersonal Use Only ~340~ श्रीभद्रवाहुखरूपम् सू. ६ २० २५ ॥१६१॥ ૨૮ Snelbary.org Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [६] / गाथा ! मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक गाथा रtteseee II-II समाहारद्विगुभवनात्, तदनु राज्ञा पुरात्सर्वबिडालिकाकर्षणेऽपि सप्तमदिने स्तन्यं पियतो बालस्योपरि बिडा-धीस्थूलभलिकाकारवक्त्रार्गलापातेन मरणे गुरूणां प्रशंसा,तस्य निन्दा च सर्वत्र प्रससार, ततः कोपान्मृत्वा व्यन्तरी-1 द्रवृत्तम् भूयाशिवोत्पादादिना सच उपसर्गयन् उपसर्गहरं स्तोत्रं कृत्वा श्रीगुरुभिर्निवारितः, उक्त च-उवसम्गहरं धुत्तं काऊणं जेण सङ्घकल्लाणं । करुणापरेण विहिअं.स भद्दबाह गुरू जयउ ॥१॥ | (थेरस्स णं अजसंभूइविजयस्स माढरसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यसम्भूतिविजयस्य माढरगोत्रस्य (अंतेवासी थेरे अज्जथूलभद्दे गोयमसगुत्ते) शिष्यः स्थविरः आर्यस्थूलभद्रः गौतमगोत्रोऽभूत्, स्थूलभद्रसम्बन्ध-18 वं-पाटलिपुरे शकटालमन्त्रिपुत्रः श्रीस्थूलभद्रो द्वादश वर्षाणि कोशागृहे स्थितो, वररुचिद्विजप्रयोगात पितरि मृते नन्दराजेनाकार्य मन्त्रिमुद्रादानार्याभ्यर्थितः सन् पितृमृत्यु खचित्ते विचिन्त्य दीक्षामादत्त, |पश्चाच सम्भूतिविजयान्तिके व्रतानि प्रतिपद्य तदादेशपूर्वक कोशागृहे चतुर्मासीमस्थात्, तदन्ते च बहुहाव-IN भावविधायिनीमपि तां प्रतियोध्य गुरुसमीपभागतः सन् तैः दुष्करदुष्करकारक इति सङ्घसमक्ष प्रोचे, तद्वच-| सा च पूर्वायाताः सिंहगुहासर्पविलकूपकाष्ठस्थायिनस्त्रयो मुनयो दूनाः, तेषु सिंहगुहास्थायी मुनिर्गुरुणा निवार्यमाणोऽपि बितीयचतुर्मास्या कोशागृहे गतो, दृष्ट्वा च तां दिव्यरूपां चलचित्तोऽजनि, तदनु तयार नेपालदेशानापितरनकम्बलं खाले क्षिप्त्वा प्रतियोधितः सन्नागत्योवाच-स्थूलभद्र: स्थूलभद्रः, स एकोऽखि-18 १ उपसर्गहरं स्तोत्रं कृत्वा येन संपकल्याणम् । करुणापरेण विहितं स भद्रबाहुर्गुरुर्जयतु ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२१९२२२] ... आर्य-स्थूलभद्र-कथानकं वर्णयते ~341~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] ........... मूलं [६] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक गाथा II-II कल्प.सुबो- लसाधुषु । युक्तं दुष्करदुष्करकारको गुरुणा जगे॥१॥ पुंष्फफलाणं च रसं.सुराण मंसाण महिलिआणं च । श्रीस्थूलमव्या०७ जाणंता जे विरया,ते दुकरकारए बंदे ॥२॥ कोशाऽपि तत्प्रतिबोधिता सती खकामिनं पुङ्खार्पितवाणैर्दूर-8 वृत्तम् ॥१६२॥ स्थाम्रलुम्याँनयनगर्वितं रथकारं सर्षपराशिस्थसूच्यग्रस्थपुष्पोपरि नृत्यन्ती पाह-ने दुकरं अंबयलुम्बितोडणं,8 18न दुकरं सरिसवनचिआइ । तं दुकरं तं च महाणुभावं, जं सो मुणी पमययणमि बुछो ॥३॥ कवयोऽपि गिरी गुहायां विजने बनान्तरे, वासं श्रयन्तो वशिनः सहस्रशः। हर्येऽतिरम्ये युवतीजनांन्तिके, वशी सा एकः शकटालनन्दनः॥४॥ योऽग्नौ प्रविष्टोऽपि हि नैव दग्धश्छिन्नो न खगाग्रकृतप्रचारः । कृष्णाहिरन्धेप्युषितो न दष्ठो, नौक्तोऽशनागारनिवास्थहो यः॥५॥ वेश्या रागवती सदा तदनुगा, पहभी रसीजनं,IS |शुभ्रं धाम मनोहरं वपुरहो, नव्यो वयःसङ्गमः । कालोऽयं जलदाविलस्तदपि यः कामं जिगायादरात्, तं बन्दे | युवतीप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलभद्रं मुनिम् ॥६॥रे काम! वामनयना तव मुख्यमंत्रं, वीरा वसन्तपिकपश-131 मचन्द्रमुख्याः । त्वत्सेवका हरिविरश्चिमहेश्वराया, हा हा हताश ! मुनिनाऽपि कथं हतस्त्वम् ? ॥७॥ श्रीनन्दिषेजरथनेमिमुनीश्वरार्द्रबुद्ध्या त्वया मदन ! रे मुनिरेष दृष्टः । ज्ञातं न नेमिमुनिजम्बुसुदर्शनानां, तुर्यों भविष्यति निहत्य रणाङ्गणे माम् ॥ ८॥ श्रीनेमितोऽपि शकटालसुतं विचार्य, मन्यामहे वयममुं भटमेकमेव । देवोऽद्रिदुः ॥१ पुरुषफलानां च रसं सुराणां मांसानां महिलानां च । जानन्तो ये विरताः तान् दुष्करकारका वन्दे ॥३॥ शा॥१६॥ ॥२न दुष्करं आनलुम्वित्रोटनं न दुष्करं सर्पपनर्तितायाम् । तद् दुष्करं तच महानुभावं यत् स मुनिः प्रमदाबने अपितः ॥३॥ दीप अनुक्रम [२१९२२२] २५ SH ~342 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [६] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक गाथा II-II गमंधिरुत्व जिगाय मोहं, यन्मोहनालयमयं तु वशी प्रविश्य ॥ ९॥ अन्यदा द्वादशवर्षदुर्भिक्षपान्ते सङ्घाग्रहेण श्रीस्थूलभश्रीभद्रयाहुभिः साधुपञ्चशत्या प्रत्यहं वाचनाससकेन दृष्टिवादे पाठ्यमाने.सप्तभिर्वाचनाभिरन्येषु साधुषु उद्विग्रेषु महारिश्रीस्थूलभद्रो वस्तुद्वयोनां दशपूर्वी पपाठ, अथैकदा यक्षासाध्वीप्रभृतीनां वन्दनार्धमागतानां खभगिनीनां योवृत्तान्त: सिंहरूपदर्शनेन दूनाः श्रीभद्रबाहवो वाचनायां अयोग्यस्त्वं इति स्थूलभद्रं ऊचिवांसा, पुनः सङ्घाग्रहात् अथान्यस्मै वाचना न देयेत्युत्क्वा सूत्रतो वाचनां ददुः, तथा चाहुः केवली चरमो जम्बूस्वायंथ प्रभवप्रभुः। शय्यंभवो यशोभद्रः, सम्भूतिविजयस्तथा ॥१॥ भद्रबाहुः स्थूलभद्रः, श्रुतकेवलिनो हि षट् ॥ RI (परस्सणं अज्जथूलभदस्स गोयमसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यस्थूलभद्रस्य गोतमगोत्रस्य (अंतेवासी दुवे घेरा) I शिष्यो द्वौ स्थविरौ अभूतां (धेरे अजमहागिरि एलावचसगुत्ते) स्थविर आर्यमहागिरिः एलापत्यगोत्रः (धेरे IN अजमहत्थी वासिट्ठसगुत्ते) स्थविरः आर्यमुहस्तिश्च वासिष्टगोत्रः,तयोः सम्बन्धश्चैवं-आर्यमहागिरिरार्जिनकल्पवि च्छेदपि जिनकल्पतुलनामकार्षीत्-'धुंच्छिन्ने जिणकप्पे, काही जिणकप्पतुलणमिह धीरो। तं वंदे मुणिवसह. १० Sमहागिरि परमचरणधरं ॥१॥जिंणकप्पपरीकम्म जो कासी जस्स संथवर्मकासी । सिडिघरंमि सुहस्थी तं| दीप अनुक्रम [२१९ २२२] १ व्युक्छिन्ने जिनकल्पेऽका जिनकल्पतुलनामिह धीरः । तं वन्दे मुनिवृषभं महागिरि परमचरणधरम् ॥ १ ॥ २ जिनकल्पपरिकर्म, योऽकार्षीत् यस्य संस्तवमकार्षीत् । श्रेष्टिगृहे सुहस्ती तं आर्यमहागिरि बन्दे ॥२॥ 5E.SEde. ~343~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] .......... मूलं [६] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक कल्प.सुबो- ब्या०७ गाथा ॥१६॥ अजमहागिरि वंदे ॥२॥' 'वंदे अजसुहत्यि मुणिपवरं जेण संपई राया। रिद्धिं सब्बपसिद्धं चारित्ता श्रीसंपतिपाविओ परमं ॥१॥' यैरायसुहस्तिभिर्दुर्भिक्षे साधुभ्यो भिक्षा याचमानो द्रमको दीक्षितः, स मृत्वा श्रेणि- वृत्तान्तः कसुतकोणिकसुतोदायिपहोदितनवनन्दपट्टोद्भूतचन्द्रगुप्तसुतबिन्दुसारसुतअशोकश्रीसुतकुणालपुत्रः सम्प्रति- सू.६ नामाभूत,सच जातमात्र एव पितामहदत्तराज्यो रथयात्राप्रवृत्तश्रीआर्यसुहस्तिदर्शनाजातजातिस्मृतिः सपा-18 दलक्ष (१२५०००) जिनालयसपादकोटि (१,२५०००००) नवीनबिम्बपत्रिंशत्सहस्र (३६०००) जीर्णोद्धारप-30 चनवतिसहस्र (९५०००) पित्तलमयप्रतिमाअनेकशतसहस्रसत्रशालादिभिर्विभूषितां त्रिखण्डामपि महीमेकरोत्, यत्तु किरणावलीकृता सपादकोटिनबीनजिनभवनेत्युक्तं तचिन्त्य, अन्तर्वाच्यादौ सपादलक्षेति दर्श: मात्, अनायेंदेशानपि कर मुक्त्वा पूर्व साधुवेषभृद्वण्ठप्रेषणादिना साधुविहारयोग्यान् खसेवकनुपान् जैनधर्मरतांच चकार, तथा-वस्त्रपाान्नध्यादिनासुकद्रव्यविक्रयम् । ये कुर्वन्यथ तानुर्वीपतिः सम्पतिरूचिवान् ॥१॥18 साधुभ्यः सञ्चरङ्गयोऽग्ने, दौकनीयं खवस्तु भो! ते यदाददते पूज्यास्तेभ्यो दातव्यमेव तत् ॥२॥ अस्मत्कोशाधिकारी च, छन्नं दास्यति याचितम् । मूल्यमभ्युल्लसल्लाभ, समस्तं तस्य बस्तुनः॥३॥ अथ ते पृथिवीभत्त:। '७ ॥१६॥ राज्ञया तद् व्यधुर्मुदा । अशुद्धमपि तच्छुद्धबुद्ध्या त्वादायि साधुभिः॥४॥ (थेरस्स णं अजमुहत्धिस्स वासिहसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यसुहस्तिनः बाशिष्ठगोत्रस्य (अंतेवासी दुवे वन्दे आर्यसहस्तिनं मुनिप्रवरं येन संप्रतिः राजा । ऋद्धिं सर्वप्रसिद्धां चारित्रात् प्रापितः परमाम् ॥ ३ ॥ दीप अनुक्रम [२१९ २२२] ANN ... राजन् संप्रति-वृतान्तं दर्शयते ~344~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [६] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२१९ २२२] Jan Educato दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [८] मूलं [६] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: बेरा ) शिष्यों द्वौ स्थविरौ अभूतां (सुट्टियसुप्पडिबुद्धा कोडियका कंगा वग्धावञ्चसगुत्ता) सुस्थितः सुप्रतिबुद्धश्च कौटिककाकन्दिको व्याघ्रापत्यगोत्री, सुस्थितौ सुविहितक्रिया निष्ठौ सुप्रतिबुद्धौ सुज्ञाततस्वी, इदं विशेषणं, कौटिक काकन्दिकाविति तु नामनी, अन्ये तु सुस्थितप्रतिबुद्धौ इति नामनी कोटिशः सूरिमन्त्रजापात् काकन्यां नगर्यो जातत्वाच्च कोटिक काकन्दिकाविति विशेषणं, धराणं सुद्वियसुपडिवुद्धाणं कोडियकाकंदगाणं वग्धावचसगुप्ताणं) स्थविरयोः सुस्थितसुप्रतिबुद्धयोः कोटिककाकन्दिकयोः व्याघ्रापत्यगोत्रयोः (अंतेवासी | थेरे अज्जइंददिने कोसियगुत्ते ) शिष्यः स्थविरः आर्य इन्द्र दिन्नोऽभूत् कौशिकगोत्रः ( थेरस्स णं अज्जइंददिअस्स को सियगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यइन्द्रदिन्नस्य कौशिक गोत्रस्य ( अंतेवासी घेरे अयदिने गोयमसगु शिष्यः स्थविरः आर्यदिनोऽभूत् गौतम गोत्रः ( धेरस्स णं अज्बदिन्नस्स गोयमसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यदिनस्य गोतमगोत्रस्य ( अंतेवासी थेरे अज्जसीहगिरी जाइसरे कोसियगुत्ते ) शिष्यः स्थविरः आर्यसिंहगिरिरंभूत, जातिस्मरणवान् कौशिकगोत्रः ( धेरस्स णं अजसीहगिरिस्स जाइस्सरस्स फोसियसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यसिंहगिरेः जातिस्मरणवतः कौशिकगोत्रस्य (अंतेवासी थेरे अज्जवहरे गोयमसगुत्ते ) शिष्यः स्थविर: आर्यवज्रोऽभूत् गौतमगोत्रः (थेरस्स णं अजवइरस्स गोयमसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यवज्रस्य गौतमगोत्रस्य (अंतेवासी घेरे अज्जवहरसेणे उक्कोसियगुत्ते ) शिष्यः स्थविरः आर्यवज्रसेनोऽभूत् उत्कौशिकगोत्र : ( धेरस्स णं अजबइरसेणस्स उक्कोसिअगुप्तस्स ) स्थविरस्य आर्यवज्रसेनस्य उत्कौशिक गोत्रस्य For File & Fersonal Use Only ~345~ सुस्थितादिस्पविरावली सू. ६ १० १४ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [६] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२१९ २२२] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१६४॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) मूलं [६] / गाथा [-] ........... व्याख्यान [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्ति: : (अंतेवासी चत्तारि थेरा) शिष्याः चत्वारः स्थविरा: अभूवन् ( धेरे अजनाइले, धेरै अज्जपोमिले, थेरे अजजयंते, थेरे अज्जतावसे) स्थविर : आर्यना गिलः, स्थविरः आर्यपौमिलः स्थविरः आर्यजयन्तः, स्थविरः आर्यतापसः, (थेराओ अज्जनाइलाओ अजनाइला साहा निग्गया) स्थचिरात् आर्यनागिलात् आर्यनागिला शाखा निर्गता ४ ( थेराओ अज्जपोमिलाओ अजपोमिला साहा निग्गया) स्थविराद् आर्यपो मिलादू आर्यपोमिला शाखा ॐ निर्गता (थेराओ अज्जजयंताओ अञ्जजयंती साहा निग्गया ) स्थविरात् आर्यजयन्तात् आर्यजयन्ती शाखा निर्गता (घेराओ अज्जतावसाओ अजतायसी साहा निग्गया ) स्थविरात् आर्यतापसात् आर्यतापसी शाखा निर्गता इति ॥ ( ६ ) ॥ अथ विस्तरवाचनया स्थविरावलीमाह - (विस्थरवायणाएं पुरा अज्जजस महाओ पुरओ थेरावली एवं पलोइज्जइ ) विस्तरवाचनया पुनः आर्ययशोभनात् अग्रतः स्थविरावली एवं प्रलोक्यते, तस्यां किल वाचनायां भूरिशो भेदा लेखकदोषहेतुका ज्ञेयाः, तत्तत्स्थविराणां शाखाः कुलानि च प्रायः सम्प्रति न ज्ञायन्ते, नामान्तरेण तिरोहितानि भविष्यन्तीति तत्र तद्विदः प्रमाणं तत्र कुलं- एकाचार्यसन्ततिर्गणस्तु - ए कवाचनाचारमुनिसमुदायः, यदुक्तं - "तत्थ कुलं विक्रेयं एगायरिअस्स संतई जा उ । दुण्ह कुलाण मिहो पुण साविक्खाणं गणो होइ ॥ १ ॥ " शाखास्तु एकाचार्यसन्ततात्रेय पुरुषविशेषाणां पृथक् पृथगन्वयाः, अथवा १ तत्र कुठं विशेयं एकाचार्यस्य संततिय तु । द्वयोः कुलयोर्मिथः पुनः सापेक्षयोर्गणो भवति ॥ १ ॥ Jan Education V For Pride & Personal Use O ~ 346~ १ आर्यनागिलादिस्यविरावली सू. ६ २० २५ ॥१६४॥ janataly.org Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ནྡིལླསྒྲོཝཱ བྷོལླཋལླཱསྶ་ལྦ ཝཱ 8+8+ ......१॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [८] मूलं [७] / गाथा [१+१+१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: विवक्षिताच पुरुषसन्ततिः शाखा, यथाऽस्मदीया वैरखामिनाम्ना वैरीशाखा, कुलानि तु तत्तच्छिष्याणां पृथक पृथगन्वयाः, यथा चान्द्रकुलं, नागेन्द्रकुलमित्यादि (तंजहा) तथथा - (थेरस्स णं अज्जजसभद्दस्स तुंगियायणसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्ययशोभद्रस्य तुङ्गिकायनगोत्रस्य (इमे दो थेरा अंतेवासी अहावचा अभिनया हुस्था ) इमौ द्वौ स्थविरौ अन्तेवासिनो 'आहावचा' न पतन्ति यस्मिन्नुत्पन्ने दुर्गती अयशःपङ्के वा, पूर्वजास्तदपत्यं पुत्रादिस्तत्सदृशौ यथापत्यो, अत एव 'अभिन्नाया' अभिज्ञाती-प्रसिद्ध अभूतां (तंजहा ) तद्यथा ( धेरै अज भद्रवाह पाहणसगुत्ते ) स्थविर आर्यभद्रबाहुः प्राचीनगोत्रः ( थेरे अज्ज संभूइविजए माढरसगुत्ते ) स्थविरः आर्यसम्भूतिविजयः माढरगोत्रः (थेरस्स णं अजभद्दवाहस्स पाईणसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यभद्रवाहो : प्राचीमगोत्रस्य (हमे चत्तारि थेरा अंतेवासी आहावथा अभिन्नाया हुत्था) एते चत्वारः स्थविरा: अन्तेवासिनो यथावत्याः प्रसिद्धा अभवन् (तंजहा) तद्यथा (धेरे गोदासे, धेरे अग्गिदत्ते, घेरे जन्नदत्ते, धेरे सोमदत्ते, कासवगुणं) स्थविर: गोदासः १ स्थविरः अग्निदन्तः २ स्थविरः यज्ञदत्तः ३ स्थविरः सोमदत्तः ४ काश्यपगोत्र : (थेरेहिंतो गोदासेहिंतो कासवगुरोहितो) स्थविरात् गोदासात् काव्यपगोत्रात् (इत्थ णं गोदासगणे नामं गणे निग्गए) अत्र गोदासनामको गणो निर्गतः (तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिजंति) तस्य एता| श्रुतस्त्रः शाखा एवं आख्यायन्ते (तंजा ) तद्यथा ( तामलिसिया कोडिवरिसिया पुंडबद्धणीया दासीखव्यडिया) तामलिसिका १ कोटिवर्षका २ पुण्ड्रवर्द्धनिका ३ दासीखर्यटिका ४ ( थेरस्स णं अजसंभूइविजयस्स For Pride & Personal Use O ~347~ विस्तृत वाचना ५ १० १४ nary.org Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ཙྩནྡྲིཡཱ རྞྞལླཋལླཱསྶ་ལྦ ཡྻཱ 8+8+ ......१॥ कल्प. सुबो ब्या० ७ ॥१६५॥। दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) व्याख्यान [८] मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: माढरसगुत्तस्स) स्थविरस्य आर्यसम्भूतिविजयस्य माढरगोत्रस्य (इमे दुबालस थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्था ) एते द्वादश स्थविरा: शिष्या यथापत्याः प्रसिद्धा अभवन् (तंजा )-तद्यथा (नंदणभदु१ वनंदण भद्दे २ तह तीसभद्द ३ जसभद्दे ४ । थेरे य सुमणभद्दे ५ मणिभद्दे ६ पुण्णभद्दे ७ च ॥ १ ॥ ) नन्दनभद्रः १ उपनन्दः २ तिष्यभद्रः ३ यशोभद्रः ४ सुमनोभद्रः ५ मणिभद्रः ६ पूर्णभद्रः ७ ( थेरे अ धूलभद्दे ८ | उज्जुमई ९ जंबुनामधिजे १० य । धेरे अ दीहभद्दे ११ धेरे तह पंडुभद्दे १२ य ॥ २ ॥ ) स्थविरः स्थूलभद्रः ८ ऋजुमतिः ९ जम्बूनामधेयः १० स्थविरः दीर्घभद्रः ११ स्थविरः पाण्डुभद्रः १२ ॥ ( धेरस्स णं अज्जसंभूइविजयस्त्र मादरसगुत्तस्स ) स्थविरस्य आर्यसम्भूतिविजयस्य मादरगोत्रस्य ( इमा ओ सत्त अंतेवासिणीओ अहावचाओ अभिन्नायाओ हुत्था ) एताः सप्त अन्तेवासिन्यः यथापत्याः प्रसिद्धा अभवन् (तंजा) तथा (जक्खा य १ जक्खदिना २ भूआ ३ तह चैव भूअदिन्ना य ४ । सेणा ५ वेणा ६ रेणा ७ भहणीओ थूलभद्दस्स ॥ १ ॥ ) सुगमा, थेरस्स णं अज्जथूलभदस्स गोयमसगुत्तस्स हमे दो घेरा अंतेदेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्था, तंजहा-थेरे अज्जमहागिरी एलावचसगुत्ते, थेरे अज्जसुहत्थी वासिह सगुत्ते, ४२५ थेरस्स णं अजमहागिरिस्स एलावचसगुत्तस्स इमे अट्ट थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्था, तंजहा- ॥१६५॥ | थेरे उत्तरे धेरे बलिस्सहे थेरे घणढे थेरे सिरिहे थेरे कोडिने धेरे नागे धेरे नागमित्ते धेरे छडलए रोहगुत्ते कोसिपगुप्ते णं, 'छलुए रोहगुते 'ति द्रव्य १ गुण २ कर्म ३ सामान्य ४ विशेष ५ समवायाख्य ६ षट्पदार्थ २८ Jan Education in OL For Pride & Personal Use Only ~348~ विस्तृत वाचना २० nebary.org Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: .......... प्रत सूत्राक राशिकवृत्तान्त: गाथा ||१+१+ ५ रूपकत्वात् पट्, उलूकगोत्रोत्पन्नत्वेनोलूका, ततः कर्मधारये पडुलूका, प्राकृतत्वात् 'छडुलूए'त्ति, अत एव सूत्रे 'कोसिअगुत्ते' इत्युक्तं, उलूककौशिकयोरेकार्थत्वात् , थेरिहिंतो गं छडलूएहितो रोहगुत्तेहितो कोसि-1 यगुत्तेहितो, तत्थ णं तेरासिया निग्गया, 'तेरासिय'त्ति त्रैराशिका:-जीवाजीवनोजीवाख्यराशित्रयप्ररूपिणस्तच्छिध्यपशिष्याः, तदुत्पत्तिस्त्वेवं-श्रीवीरात् पञ्चशतचतुश्चत्वारिंशत्तमे ५४४ वर्षे अन्तरञ्जिकायां पुर्या भूतगृहव्यन्तरचैत्यस्थश्रीगुप्ताचार्यवन्दनार्थं ग्रामान्तरादागच्छन् रोहगुप्तस्तच्छिष्यः प्रवादिप्रदापितपटहध्व- निमाकर्ण्य तं पटहं स्पृष्ट्वाऽऽचार्यस्य तन्निवेध वृश्चिक १ सर्प २ मूषक ३ मृगी ४ वराही ५ काकी ६ शकुनिका ७ भिधपरिव्राजकविद्योपघातिका मयुरी १ नकुली २ बिडाली ३ व्याघी ४ सिंही ५ उल्लुकी ६ श्येनी ७संज्ञाः सस विद्याः अशेषोपद्रशमकं रजोहरणं च गुरुभ्यः प्राप्य बलश्रीनानो राज्ञः सभायामागत्य पोहशालाभिधेन परिव्राजकेन सह वादे प्रारब्धे तेन जीवाजीवसुखदुःखादिरूपे राशिदये स्थापिते देवानां त्रितयं त्रयी हतभुजां शक्तित्रयं बिखरास्त्रैलोक्यं त्रिपदी त्रिपुष्करमध, निब्रह्म वर्णास्त्रयः। प्रैगुण्यं पुरुषत्रयी त्रय-| मथो,सन्ध्यादिकालत्रयं, सन्ध्यानां त्रितयं वचनयमाप्यास्त्रयः संस्मृताः ॥१॥ इत्यादि वदन जीवाजी-1 वनोजीवेत्यादिराशिवयं व्यवस्थापितवान् , ततश्च तद्विद्यासु स्वविद्याभिर्विजितासु तत्प्रयुक्तां रासभीविद्या रजोहरणेन विजित्य महोत्सवपूर्वकं आगत्य सर्व वृत्तान्तं गुरुभ्यो व्यज्ञपयत्, ततो गुरुभिरूचे-वत्स! बरं चक्रे, परं जीवाजीवनोजीवेति राशित्रयस्थापनमुत्सूत्रमिति तत्र गत्वा ददख मिथ्यादुष्कृतं, ततः कथं तथा दीप अनुक्रम [२२३२५८] ianetboyoy ... अथ त्रैराशिक-मतस्य उत्पत्ति: कथयते ~349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: .......... प्रत सत्राक [७] गाथा ||१+१+ कल्प सोपविघपर्षदि स्वयं प्रज्ञाप्य अप्रमाणयामीति जाताहङ्कारेण तेन तथा न चक्रे, ततो गुरुभिः षण्मासी यावद्राज-1: त्रैराशिक न्या०७ सभायां वादमासूश्य प्रान्ते कुत्रिकापणानोजीवयाचने तस्यामाप्तौ चतुश्चत्वारिंशेन पृच्छाशतेन (१४४) निलों- वृत्तान्तः ठितः, कथमपि खाग्रहमत्यजन् गुरुभिः क्रुधा खेलमात्रभस्मप्रक्षेपेण शिरोगुण्डनपूर्वकं स सङ्घबाधक्षके, ततःषष्ठो ॥१६६॥ निहवस्त्रैराशिकः क्रमेण वैशेषिकदर्शनं प्रकटितवानिति । यत्तु सूत्रे रोहगुप्त आर्यमहागिरिशिष्यः प्रोक्तः, उत्त राध्ययनवृत्तिस्थानाङ्गवृत्त्यादौ तु श्रीगुप्ताचार्यशिष्यः प्रोक्तस्ततोऽस्माभिरपि तथैव लिखितं,तत्वं पुनर्वहुश्रुता विदन्ति । थेरेहितोणं उत्तरबलिसहहितोतस्थ णं उत्सरबलिस्सहे नामंगणे निग्गए,तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओRI एवमाहिजति,तंजहा-कोसंविया सुत्सिवत्तिया कोडंबाणी चंदनागरी, घेरस्स णं अजमुहथिस्स बासिद्धसगुप्सस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावचा अभिनाया हुत्या-तनहा-(धेरे अ अजरोहण.१ भदजसे २ मेह गणिय ३ कामिही ४ । सुविय ५ सुप्पडिबुद्धे ६, रक्खिय ७ तह रोहगुत्ते ८ अ ॥१॥ इसिगुत्ते ९ सिरिगुत्ते १० गणी अ मे ११ गणी य तह सोमे १२। दस दोअगणहरा खल्लु एए सीसा सुहत्थिस्स ॥२॥) आर्यरोहणः१ भद्रयशाः २ मेघ: ३ कामर्द्धि ४ सुस्थितः ५ सुप्रतिबुद्धः ६ रक्षितः ७ रोहगुप्तः ८ ऋषिगुप्तः ९श्रीगुप्त:१० ब्रह्मा ११ सोमः २५ १२ इति द्वादश गणधारिणः सुहस्तिशिष्याः । थेरेहितोणं अजरोहणेहितो कासवगुत्तहितो तत्थ णं उद्देहगणे ॥१६६॥ 18नाम गणे निग्गए, तस्सिमाओ चत्तारि साहाओ निगयाओ.छच्च कुलाई एवमाहिर्जति, से कि तं साहाओ, साहाओ एवमाहिज्जेति, तंजहा उद्घरिजिया मासपूरिआ मइपत्तिया पुन्नपत्तिया, से तं साहाओ ॥ से किं तं, दीप अनुक्रम [२२३ २५८] JABEnicatonired ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: .......... गाथा ||१+१+ कुलाई ? कुलाई एवमाहि जंति, तंजहा-पढमं च नागभूयं विइयं पुण सोमभूइयं होइ । अह उल्लगच्छ तइनागभूताचउत्थयं हस्थलिजं तु ॥१॥ पंचमग नंदिनं,छ8 पुण पारिहासयं होइ । उदहगणस्सेए छच कुला हुंतिदान दीनि कुला नायथा ॥२॥ धेरोहितो णं सिरिगुत्तेहिंतो हारियायसगुत्तेहिंतो इत्थ णं चारणंगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं द्या गणाः इमाओ चत्तारि साहाओ.सत्त य कुलाई एवमाहिति, से कितं साहाओ, साहाओ एवमाहिजंति, तंजहा-18 पाहारियमालागारी संकासीआ गवेधुपा वजनागरी, से तं साहाओ, से किं तं कुलाई, कुलाई एवमाहिज्जति, तंजहा-पढमित्थ बस्थलिज,पीयं पुण पीइधम्मि होइ । तइ पुण हालिज, चउस्थयं पूसमित्तिजं ॥१॥ |पंचमग मालिज छ8 पुण अज्जवेडयं होइ । सत्तमयं कण्हसह.सत्त कुला चारणगणस्स ॥२॥ धेरेहितो पं| भद्दजसेहितो भारदायगुत्तेहिंतो इत्थ णं उडवाडियगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्सारि |साहाओ तिन्नि कुलाई एवमाहिजति, से किं तं साहाओ, साहाओ एवमाहिजंति, तंजहा-चंपिजिया भद्दि- जिया काकंदिया मेहलिजिया, से तं साहाओ, से किं तं कुलाई, २ एवमाहिजंति, तंजहा-भद्दजसियं 81 तह भद्दगुत्तियं, तइयं च होइ जसमई। एयाई उडवाडियगणस्स तिन्नेव य कुलाई॥१॥थेरोहितो णं कामि-13 हीहितो कोडालसगुत्तेहिंतो इत्थणं वेसवाडियगणे नामं गणे निग्गए,तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, चत्तारि। कुलाई एवमाहिजंति, से किं तं साहाओ?, सा तंजहा-सावत्थिया रजपालिआ अंतरिजिया खेमलिज्जिया, से तं साहाओ, से किं तं कुलाई, कुलाई एवमाहिजंति, तंजहा-गणियं मेहियकामिहिअंच, तह होइ। दीप अनुक्रम [२२३ २५८] ~351~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: eae न्थमूरि ||१+१ कल्प.सुबो- इंदपुरगं च । एयाइं बेसवाडियगणस्स चत्तारि उ कुलाई ॥१॥ थेरोहितो णं इसिगुत्तेहिंतो वासिहसगुत्ते- श्रीप्रियनव्या०७ हितो इत्थ णं माणवगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ तिन्नि कुलाई एवमाहिजंति, से किं तं साहाओ?, साहाओ एवमाहि जंति, तंजहा-कासविजिया गोयमिज्जिया.वासिडिया सोरडिया, वृत्तम् ॥१५॥ से तं साहाओ. से कितं कुलाई, कुलाई एवमाहिजंति, तंजहा-इसिगुत्तियत्थ पढम,बीयं इसिदत्ति मुणेय । तइयं च अभिजयंतं तिनि कुला माणवगणस्स ॥ १ ॥ धेरोहितो सुट्टियमुप्पडिबुद्धेहिंतो कोडियकाकंदएहितो बग्घायच्चसगुत्तेहिंतो इत्थ णं कोडियगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, चत्तारि कुलाई च एवमाहिजंति, से किं तं साहाओ ?, साहाओ एवमाहिलंति, तंजहा-Tel 2 उच्चानागरि विज्बाहरी य, बहरी य मज्झिमिल्ला य । कोडियगणस्स एया.हवंति चत्तारि साहाओ॥१॥सेत्ता साहाओ, से किं तं कुलाई, कुलाई एवमाहिज्जति, तंजहा-पढमित्य बंभलिजं, बिइयं नामेण बस्थलिलं तु तइयं पुण वाणिज्जं, चउत्थयं पण्हवाहणयं ॥१॥थेराणं सुट्टियसुप्पडिवुद्धाणं कोडियकाकंदयाणं वग्घावचस-18 गुत्ताणं इमे पंच घेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्था, तंजहा-धेरे अजइंददिन्ने पियगंथे। ST 'पिअगंथेत्ति एकदा त्रिशतजिनभवनचतुःशतलौकिकमासादाष्टादशशतविप्रगृहषत्रिंशच्छतवणिग्गेह P॥१६७॥ नवशतारामसप्तशतवापीद्विशतकूपसप्तशतसत्रागारविराजमाने अजमेरुनिकटवर्तिनि सुभटपालराजसम्ब|न्धिनि हर्षपुरे श्रीप्रियग्रन्थसूरयोऽभ्येयुः, तत्र चान्यदा द्विजैर्यागेछागो हन्तुमारेभे, तैः श्राद्धकरार्पितवासक्षेपे दीप अनुक्रम [२२३२५८] ... आर्य-प्रियग्रन्थ-वृतांतं वर्णयते ~352~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [८] ........ मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्राक गाथा ||१+१+ अम्बिकाधिष्ठितः स छागो नभसि भूत्वा वभाण-हनिष्यथ नु मा हुत्यै, बनीताऽऽयात मा हत ।युष्मद्वन्निर्दयः श्रीप्रियनस्यां चेत्, तदा हन्मि क्षणेन वः ॥१॥ यत्कृतं रक्षसां द्रके, कुपितेन हनूमता । तस्करोम्येव यः खस्था, कृपाश न्थमूरिचेन्नान्तरा भवेत् ॥ २॥ यावन्ति रोमकूपानि, पशुगात्रेषु भारत ! तावद्वर्षसहस्राणि, पच्यन्ते पशुधातकाः वृत्तम् ॥३॥ यो दद्यात् काञ्चनं मेलं, कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् । एकस्य जीवितं दद्यान्न च तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥४॥3॥ महतामपि दानानां, कालेन क्षीयते फलम् । भीताभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ॥५॥ इत्यादि, कस्त्वं प्रकाशयात्मानं, तेनोक्तं पावकोऽस्म्यहम् । ममैनं बाहनं कस्माजिघांसथ पशु वृथा?॥६॥ इहास्ति श्रीप्रियग्रन्थः, सूरीन्द्रः समुपागतः । तं पृच्छत्त शुचिं धर्म, समाचरत शुद्धितः॥७॥ यथा चक्री नरेन्द्राणां, धानु-1 काणां धनञ्जयः। तथा धुरि स्थितः साधुः, स एकः सत्यवादिनाम् ॥ ८॥ ततस्ते तथा कृतवन्त इति ॥ थेरे विजाहरगोवाले कासवगुत्ते णं थेरे इसिदत्ते थेरे अरिहदत्ते । थेरेहिंतो णं पियगंथेहिंतो एत्थ णं मज्झिमा साहा निग्गया, थेरेहितो णं विज्जाहरगोवालहितो कासवगुत्तेहितो एत्थ णं विजाहरी साहा निग्गया,धेरस्सणं . अजइंददिन्नस्स कासवगुत्तस्स अजदिन्ने थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते, धेरस णं अजदिन्नस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया हुत्था, तंजहा-धेरे अजसंतिसेणिए माढरसगुत्ते, थेरे अज्जसीहगिरी जाइस्सरे कोसियगुत्ते, थेरेहिंतो णं अजसंतिसेणिएहिंतो माढरसगुत्तेहितो एत्थ णं उचनागरी साहा निग्गया, थेरस्स णं अजसंतिसेणियस्स माडरसगुत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्था, दीप अनुक्रम [२२३२५८ IEnicate ~353~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [८] ........ मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: ||१+१ कल्प.सुबो- तंजहा-(अं. १००० ) थेरे अजसेणिए थेरे अज्जतावसे थेरे अजकुबेरे धेरे अजइसिपालिए । धेरोहितो णं अल-18| श्रीवजवा. व्या० सेणिएहितो एत्थ णं अजासेणिया साहा निग्गया, धेरोहितो णं अन्जतावसेहिंतो एस्थ णं अजतावसी साहा | मिवृत्तम् निग्गया, थेरोहितो गं अजकुबरोहिंतो एत्थ णं अन्नकुवेरी साहा निग्गया, थेरेहितो णं अज्जइसिपालि-11 एहितो एस्थ णं अजइसिपालिया साहा निग्गया, धेरस्स णं अज्जसीहगिरिस्स जाइस्सरस्स कोसियगुत्तस्स। इमे चत्तारि धेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नापा हुत्था, तंजहा-धेरे धणगिरी धेरे अजवहरे 'धेरे अजय इरे'त्ति तुम्बवनग्रामे सुनन्दाभिधानां भायाँ साधाना मुक्त्वा धनगिरिणा दीक्षा गृहीता, सुनन्दासुतस्तु २ खजन्मसमये एव पितुर्दीक्षां श्रुत्वा जातजातिस्मृतिर्मातुरुद्वेगाय सततं रुदनेवास्ते, ततो मात्रा पण्मासवया| हाएव धनगिरेरर्पितः, तेन च गुरोः करे दत्तो महाभारत्वाद् दत्तवजनामा पालनस्थ एबँकादशाहानि अध्यष्ट, ततत्रिवार्षिक: सन् मात्रा राजसमक्षं विवादेऽनेकसुखभक्षिकादिभिलोभ्यमानोऽपि धनगिरिणाऽर्पितं रजोहशारणमंग्रहीत्, ततो माताऽपि प्रवत्राज, ततोऽष्टवर्षान्ते एकदा तस्य पूर्वभववयस्यैम्भिकरुज्जयिनीमार्गे वृष्टिनि-18 वृत्ती कूष्माण्डभिक्षायां दीयमानायां अनिमिषत्वाद्देवपिण्डोऽयमकल्प्य इत्यग्रहणे तुष्टवैक्रियलब्धिर्दसा, तथैव द्वितीयवेलायां घृतपूरग्रहणे नभोगमनविद्या दत्ता, यश्च पाटलीपुरे धनश्रेष्ठिना दीयमानां बहुधन Prahli HTR॥१६॥ कोटिसनाथां साध्वीभ्यो गुणानाकर्ण्य वज्रमेव वृणोमीतिकृताभिग्रहां रुक्मिणीनामकन्यां प्रतियोध्य दीक्षयामास, अन्न कविः-मोहाधिश्शुलुकीचक्रे, येन बालेन लीलया । स्त्रीनदीनेहपरस्तं, बार्षि प्लावयेत्कथम् ? ॥१॥ दीप अनुक्रम [२२३२५८] EGI JABETication.in ... आर्य-वज़स्वामिनं-वृतांतं वर्णयते ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्राक गाथा ||१+१+ यश्चैकदा दुर्भिक्षे सङ्घ पटे संस्थाप्य समुभिक्षां पुरिकापुरी नीतवान, तत्र बौद्धेन राज्ञा जिनचै- श्रीवज्रस्वात्येषु पुष्पनिषेधः कृतः, अत्रापि किरणावलीदीपिकयोबौद्धराज्ञेति प्रयोगो लिखितःचिन्त्यः, तदनु पर्युषणायां मिवृत्त श्राद्धैर्विज्ञप्तो व्योमविद्यया माहेश्वरीपुर्या पितृमित्रमारामिकं पुष्पप्रगुणीकरणार्थमादिश्य खयं हिमवद्रौ | श्रीदेवीगृहे गतः, ततश्च श्रिया दत्तं महापद्म हुताशनवनाविंशतिलक्षपुष्पाणि च लात्वा जृम्भकामरविकुRIतिविमानस्थ: समहोत्सवमागत्य जिनशासनं प्रभावयन् राजानमपि श्रावकं चक्रे, अन्यदा स श्रीवनखामी कफोद्रेके भोजनादनु भक्षणाय कर्णे स्थापितायाः शुण्ठ्याः प्रतिक्रमणवेलायां पाते प्रमादेन खमृत्यु आसन्न विचिन्त्य द्वादशवर्षीयदुर्भिक्षप्रवेशे खशिष्यं श्रीवजसेनाभिध-लक्षमूल्यौदनादू भिक्षा, यत्राहि त्वमवाप्नुयाः। सुभिक्षर्मवबुद्धयेथास्तदुत्तरे दिनोषसि ॥१॥ इत्युक्त्वा अन्यत्र व्यहारयत्, खयं च वसमीपस्थसाधुभिस्सह रथावर्तगिरी गृहीतीनशनो दिवं प्राप, तत्र च संहननचतुष्कं दशमं पूर्व च व्युच्छिन्नं, यतु किरणावलीकारेण तुर्य संहननं व्युच्छिन्नमिति लिखितं, तचिन्त्य, तन्दुलवैचारिकवृत्तिदीपालिकाकल्पादो| चतुष्कव्युच्छेदस्यैवोक्तत्त्वात् । तदनु च श्रीवज़सेनः सोपारके जिनदत्तश्राद्धगृहे तत्पन्या ईश्वरीनाम्या लक्षमूल्यमन्नं पक्त्या प्रक्षिप्यमाणं विषं गुरुवचः प्रोच्य न्यवारयत्, प्रभाते पोतेः प्रचुरधान्यागमनात् सञ्जाते। १ दुष्कर्मावनिमिद्ववे, श्रीवले स्वर्गमीयुपि । व्युच्छिन्नं दशमं पूर्व, तुर्य संहननं तथा ।। १ ॥ इति परिशिष्टपर्वणि श्रीहेमचन्द्राचार्याः, तमि य निव्वुए अद्धनारायसंघयणं वुच्छिन्नं' इत्यावश्यकचूर्णिवृत्त्योः, तन्दुलवैचारिकादौ तु तत्तयधिकालतया वचनं । LSEERece दीप अनुक्रम [२२३ २५८] क.मु.२९ ~355~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: .......... प्रत सुत्राक [७] गाथा ||१+१+ कल्प-सुमो- सुभिक्षे जिनदत्तः सभार्यों नागेन्द्र १ चन्द्र २ निर्वृति ३ विद्याधरा ४ ख्यसुतपरिवृतो दीक्षां जग्राह, तत- श्रीआयेसव्या०७ स्तेभ्यः खखनाना चतस्रः शाखा: प्रवृत्ताः॥ अज्जसमिए थेरे अरिहदिने । धेरेहितो णं अज्जसमिएहितो गोप-मितमरित - मसगुत्तेहिंतो इत्थ णं बंभदीविया साहा निग्गया। 'भद्दीविया साहा निग्गया' इति आभीरदेशेऽचलपु तम् ॥१६॥ रासन्ने कन्नावेन्नानयोर्मध्ये ब्रह्मद्वीपे पञ्चशती तापसानां अभूत, तेष्वेकः पादलेपेन भूमाविव जलोपरि गच्छन् जलॉलिप्तपादो बेनामुत्तीयें पारणार्थ याति, ततोऽहो एतस्य तपाशक्ति, जैनेषु न कोऽपि प्रभावीति श्रुत्वा श्राद्धैः श्रीवज्रवामिमातुला आर्यसमितसूरय आहूताः, तैरूचे-स्तोकमिदं, पादलेपशक्तिरिति, श्राद्धस्ते खगृहे पादपादुकापावनपुस्सरं भोजिताः, ततस्तैः सहैव प्राद्धा नदीमगुः, स च तापसो घा मालम्ब्य नद्यां हामविशन्नेव बुडितुं लग्न, ततस्तेषां अपनाजना। इतश्च तत्रार्यसमितसूरयोऽभ्येत्य लोकयोधनाय योगचूर्ण क्षिप्वा २० ऊचुभ्येने ! परं पारं यास्याम इत्युक्ते कूले मिलिते, बभूव बहाश्चर्य, ततः सूरयस्तापसाश्रमे गत्वा तान् प्रति-18 बोध्य प्रावाजयन्, ततस्तेभ्यो ब्रह्मदीपिका शाखा निर्गता तत्र च-महागिरिः१ सहस्ती च २,सूरिः श्रीगुण-11 सुन्दर। ३ । श्यामाः ४ स्कन्दिलाचार्यों ५, रेवतीमित्रसूरिराह ॥१॥ श्रीधर्मों ७ भद्रगुप्तश्च, ८ श्रीगुसो वज्रसूरिराट् १० । युगप्रधानप्रवरा, दशैते दशपूर्विणः॥२॥धेरेहितोणं अजवइरेहिंतो गोयमसगुत्तेहितो इत्या णं अजयहरी साहा निग्गया।थेरस्सणं अजवइरस्स गोयमसगुत्तस्स इमे तिनि घेरा अंतेवासी अहावचा अभि-II माया हुत्था, तंजहा-धेरे अजवइरसेणे घेरे अजपउमे थेरे अजरहे । थेरेहिंतो गं अज्जवहरसेणेहिंतो इत्थ गं दीप अनुक्रम [२२३२५८] Seceneseemelesed Jantaicatonir anelbanaras ... आर्य-समितसूरि-वृतांतं वर्णयते ~356~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: .......... प्रत सूत्राक गाथा ||१+१+ अज्जनाइली साहा निग्गया, थेरेहितो णं अजपउमेहिंतो इत्थ णं अज्जपउमा साहा निग्गया, थेरेहितो | श्रीआर्यपगणं अजरहेहिंतो इत्य णं अजजयंती साहा निग्गया । थेरस्स णं अजरहस्स पच्छसगुत्तस्स अजपूस- आदिस्थतिगिरी धेरे अंतेवासी कोसियगुत्ते, रस्स णं अजपूसगिरिस्स कोसियगुत्तस्स अजफग्गुमित्ते धेरे अंतेवासी रावला गोयमसगुत्ते, घेरस्स णं अजफग्गुमित्तस्स गोयमसगुत्तस्स अजधणगिरी धेरे अंतेवासी वासिट्टसगुत्ते, थेरस्स णं अजधणगिरिस्स वासिहसगुत्तस्स अज्जसिवभूई थेरे अंतेवासी कुच्छसगुत्ते, थेरस्स णं अज्ज सिवभूइस्स कुच्छसगुत्तस्स अज्जभद्दे धेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, धेरस्स णं अजभहस्स कासवगुत्तस्सा |अजनक्खत्ते धेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, थेरस्स णं अजनक्खत्तस्स कासवगुत्तस्स अजरक्खे और अंतवासी कासवगुत्ते।'धेरे अज्जरक्खे'त्ति अहो बत किरणाचलीकारस्य बहुश्रुतप्रसिद्धिभाजोऽपि अनाभोगविलसितं, यतो ये श्रीतोसलिपुत्राचार्यशिष्याः श्रीवज्रस्वामिपार्थेऽधीतसाधिकनवपूर्वा नाना च श्रीआयरक्षितास्ते | भिन्ना, एते च श्रीवजस्वामिभ्यः शिष्यपशिष्यादिगणनया नवमस्थानभाविनो नाना चार्यरक्षाः, इत्येवमनयोनार आर्यरक्षितार्यरक्षयोः स्फुटं भेदं विस्मृत्य आर्यरक्षस्थाने आर्यरक्षितव्यतिकरं लिखितवान् । | थेरस्स णं अज्जरक्खस्स कासवगुत्तस्स अजनागे थेरे अंतेवासी गोजमसगुत्ते, थेरस्स णं अजनागस्स गोअमसगुत्तस्स अजजेहिल्ले थेरे अंतेवासी वासिहसगुत्ते, थेरस्सणं अनजेहिल्लस्स वासिङसगुत्तस्स अज-1 विण्ह थेरे अंतेवासी मादरसगुत्ते, थेरस्स णं अज्जविण्डस्स माढरसगुत्तस्स अज्जकालए थेरे अंतेवासी दीप अनुक्रम [२२३ २५८] ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) व्याख्यान [८] .......... मूलं [७] / गाथा [१+१+.....१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: ||१+१+ कल्प,सुयो- गोयमसगुत्ते, धेरस्स णं अज्जकालयस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी गोयमसगुत्ता-थेरे अजसंप- आर्यकालव्या०७ लिए धेरे अज्जभदे, एएसिणं दुहंपि राणं गोयमसगुत्ताणं अज्जबुड़े धेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते, धेरस्स कादिस्थवि. ॥१७॥ अजवुद्धस्स गोयमसगुत्तस्स अजसंघपालिए धेरे अंतेवासी गोषमसगुत्ते, धेरस्स णं अजसंघपालिअस्स गोपम- राणामासगुत्तस्स अज्जहत्थी धेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, थेरस्स णं अजहत्थिस्स कासवगुसस्स अजधम्मे धेरे अंतेवासी.सुब्चयगुत्ते, थेरस्सणं अज्जधम्मस्स सुब्बयगुत्तस्स अज्जसीहे धेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, थेरस्स णं अजसीहस्स कासवगुत्तस्स अजधम्मे धेरे अंतेवासी कासवगुत्ते, थेरस्स णं अजधम्मस्त कासवगुत्तस्स अजसंडिल्ले थेरे . अंतेवासी-वंदामि फग्गुमित्त' मित्यादिगाथाचतुर्दशकं, तत्र गद्योक्तोऽर्थः पुनः पद्यैः सङ्कन्हीत इति न पुनरु-II श्रीक्तशङ्का ।। बंदामि फग्गुमित्तं.गोयम धणगिरिं च वासिहूँ । कुच्छ सिवभूईपि य कोसिय दुर्जत कण्हे अ ॥१॥ ते बंदिऊण सिरसा,भदं वंदामि कासवसगुत्तं । नक्खं कासवगुत्तं रक्खंपि य कासवं वंदे ॥२॥ चंदामि अजनार्ग, गोयम जेहिलं च वासिढं। विपहुं माढरगुत्तं कालगमवि गोयम, वंदे ॥३॥ गोयमगुत्त-IN | कुमारं.संपलियं, तय भद्दयं वंदे । धेरं च अज्जवुडं.गोयमगुत्तं नमसामि ॥ ४ ॥ तं वंदिऊण सिरसा. थिरस- २५ तचरित्तनाणसंपन्नं । थेरं च संघवालिय,गोयमगुत्तं पणिवयामि ॥५॥ वंदामि अजहत्यिकासवं खंतिसागरं ॥१७॥ धीरं । गिम्हाण पढममासे, कालगयं चेव सुद्धस्स ॥ ६ ॥ 'गिम्हाणं'ति-ग्रीष्मस्य प्रथममासे-चैत्रे, 'कालगर्य'तिदिवं गतं, 'सुद्धस्स'त्ति-शुक्लपक्षे । वंदामि अजधम्मं च.सुषयं, सीललद्धिसंपणं । जस्सनिक्खमणे देवो, छ । २८ दीप अनुक्रम [२२३२५८] Sannicatonido ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] ........... मूलं [७...] / गाथा [१-१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७...] गाथा ||१-१४|| वरमुत्तमं वहद ॥७॥'वरमुत्तमं ति वरा-श्रेष्ठा मा-लक्ष्मीस्तया उत्तम छत्रं वहति-यस्य शिरसि धारयतिफल्गुमिदेवः पूर्वसङ्गतिकः कश्चित् । हत्थं कासवगुत्तं,धम्म सिवसाहगं पणिवयामि । सीहं कासवगुत्तं,धम्मपि य कासवं त्रादीनां वंदे ॥ ८॥ तं वंदिऊण सिरसा थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्नं । धेरं च अजवू, गोयमगुत्तं नमसामि ॥९॥ नमस्कारा: मिउमदवसंपन्नं उवउत्तं नाणदसणचरित्ते । थेरं च नंदियंपि, य, कासवगुत्तं पणिवयामि ॥१०॥ 'मिउमद्दवसंपति मृदुना-मधुरेण.माइवेन-मायात्यागेन सम्पन्नम् । तत्तो य थिरचरितं, उत्तमसम्मत्तसत्तसंजुत्तं ।।। देसिगणिखमासमणं, माढरगुत्तं नमसामि ॥११॥ ततो अणुओगधर,धीरं मइसागरं महासत्तं । चिरगुत्तख.18 मासमणं, वच्छसगुत्तं पणिवयामि ।। १२ ।। तत्तो य नाणदसणचरित्ततवमुट्टियं गुणमहंतं । थेरं कुमारधम्म, वंदामि गणिं गुणोवेयं ॥ १३ ॥ सुत्तत्थरयणभरिए, खमदममवगुणेहिं संपन्ने । देविहिखमासमणे, कासवगुत्ते पणिवयामि ॥ १४ ॥ इति स्थविरावलीसूत्रं सम्पूर्णम् । दीप अनुक्रम [२५९ २६२ ~359~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [८] ........... मूलं [७...] / गाथा [१-१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७...] गाथा ||१-१४|| HrastamanranatranamastananaPanapaRanataRaRaig इति जमगुरुभवारकरीहीरविजयसूरिशिष्यरत्नमहोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचितश्रीकल्पसूत्रसुबोधिनीवृत्तौ अष्टमः क्षणः समाप्तः । समाप्तश्चायं स्थविरावलीनामा द्वितीयोऽधिकारः ॥ HerASUR Uninstagram RSURPRESASSASPASPASTA Wesepsewa दीप अनुक्रम [२५९ २६२ अष्टमं व्याख्यानं समाप्तं ~360~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] .......... मूलं [१] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: पता रा सत्राक [१] गाथा II-II ॥ अथ नवमं व्याख्यानं प्रारभ्यते ॥ श्रीवीरस्य ॥ अथ सामाचारीलक्षणं तृतीयं वाच्यं वक्तुं प्रथमं पर्युषणा कदा विधेयेत्याह-(तेणं कालेणं) तस्मिन्यु षणाका काले (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे ) श्रमणो भगवान महावीरः (वासाणं सवी-N लस्तद्वेष सिहराए मासे विकते) आषाढचातुर्मासिकदिनादारभ्य वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुक्ते मासे व्यतिकान्ते ।। 8(वासावासं पजोसवेइ) पर्युषणामकरोत् ॥(१)। (से केणद्वेणं भंते ! एवं बुबह) तत् केन अर्थेन-कारणेन हे11५ पूज्य ! एवं उच्यते--समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (वासाणं सवीसहराए मासे विइ-18 ते ) वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुक्ते मासे म्पतिकान्ते सति (वासावासं पोसवेद ) पर्युषणामकरोत्, इति || | शिष्येण प्रभे कृते गुरुः उत्तरं दातुं सूत्रमाह-(जओ गं पाएणं अगारीणं अगाराई) यतः कारणात् प्रायेण अगारिणां-गृहस्थानां अगाराणि-गृहाणि (कडिआई) कटयुक्तानि (उतवियाई) धवलितानि (छन्नाई) तृणादिभिराच्छादितानि (लित्ताई) गोमयादिना लिसानि (गुत्ताई) वृत्तिकरणादिना गुप्तानि (घट्टाई) विष-1ST मभूमिभङ्गाद् घृष्टानि (मट्ठाई) पाषाणखण्डेन घृष्ट्वा सुकुमालीकृतानि (संपधूमियाई) सौगन्ध्यार्थे धूपैवों 1 सितानि (खाओदगाई) कृतप्रणालीरूपजलमार्गाणि (खायनिद्धमणाई) सजितखालानि, एवंविधानि (अप्प-R १ अवस्थानपर्युषणापेक्षयैवैतत् सूत्रं, ततो जिनस्य सांवत्सरिकप्रतिक्रमणस्याभावेऽपि न अतिः, अत एवामे 'अगारीणं अगाराई' इत्या| दिनाऽवस्थानोपयोग्येवोत्तरं। Poeaateeeeeeee दीप अनुक्रम [२६४] नवमं व्याख्यानं आरभ्यते ... अथ सामाचारी-वर्णनं क्रियते ~361~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] .......... मूलं [२] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: [२] गाथा II-II कल्प.सुबो-गाणो अट्टाए) आत्मार्थ-आत्मनिमित्तं ( फडाई) गृहस्थैः कृतानि-परिकर्मितानि (परिभुत्ताई) परिभुक्तानि-श्रीवीरवत व्या०७जनैः व्यापृतानि (परिणामियाई भवंति) परिणामितानि-अचित्तीकृतानि, ईशानि यतो गृहाणि भवन्ति गणधर॥१२॥ (से तेणतुणं एवं वुचा) तेनार्थेन-तेन कारणेन हे शिष्य ! एवं उच्यते-( समणे भगवं महावीरे) श्रमणो तच्छिष्यभगवान महावीरः (वासाणं सवीसइराए मासे विइकते ) वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुक्ते मासे व्यतिक्रान्तस्थिवराणों पर्यु. सू. (वासावासं पजोसवेइ) पर्युषणामकरोत् , यतोऽमी प्रागुक्ता अधिकरणदोषा मुनिमाश्रित्य न स्युः।(२)|जहाणं |३-४-५ समणे भगवं महावीरे) यथा श्रमणो भगवान महावीरः (वासाणं सबीसहराए मासे विकते) वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुते मासे व्यतिक्रान्ते (यासावासं पज्जोसह) पर्युषणामकरोत (तहा गं गणहरावि वासाणं सवीसइराए मासे विइकते) तथा गणधरा अपि वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुक्ते मासे व्यतिक्रान्ते (वासावासं पजोसति) पर्युषणां चक्रुः॥ (३)॥ (जहा णं गणहरा वासाणं जाव पजोसर्विति) यथा गणधराः वर्षाकालस्य यावत् पर्युपणां पकु(सहा णं गणहरसीसावि वासाणं जाव पजोसर्विति ) तथा गणधरशिष्याः अपि वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां चक्रुः | ॥(४)।। (जहा गं गणहरसीसा वासाणं जाव पज्जोसविति) यथा गणधरशिष्याः वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां ॥१७२|| चकुः (तहा णं घेरावि वासाणं जाब पजोसर्विति) तथा स्थविरा अपि वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां चक्रुः (५)। (जहा णं घेरा वासाणं जाव पजोसर्विति) यथा स्थविराः वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां चक्रुः (तहा। दीप अनुक्रम [२६५] २५ ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] .......... मूलं [६] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राका गाथा II-II पण जे इमे अज्जताए समणा निग्गथा विहरंति ) तथा ये इमे अद्यकालीना आर्यतया वा व्रतस्थविरत्वेन वर्त अद्यतनसामानाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः विहरन्ति (एएऽविअ णं वासाणं जाव पज्जोसर्विति) ते अपि च वर्षाकालस्य यावत् । धुखाचार्यपर्युषणां कुर्वन्ति ॥(६)॥ (जहा णं.जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा) यथा ये इमे अद्यतनकाले श्रमणा। खपयुषणा निर्ग्रन्थाः (वासाणं सवीसइराए मासे विक्कते ) वर्षाकालस्य विंशतिदिनयुते मासे व्यतिक्रान्ते (वासावास सू.६-७-८ पजोसवेंति) पर्युषणां कुर्वन्ति (तहा णं अम्हंपि आयरिआ उवज्झाया घासाणं जाव पजोसचिंति) तथा हा अस्माकमपि आचायों उपाध्यायाच वर्षाकालस्य यावत् पर्युषणां कुर्वन्ति ॥(७)।। (जहा णं अम्हंपि आयरिया उवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसर्विति) यथा अस्माकं आचार्यो उपाध्यायाश्च यावत् पर्युषणां कुर्वन्ति (तहा णं अम्हेवि वासाणं सवीमहराए मासे विहाकते) तथा वयमपि वर्षाकालस्य विंशस्या दिनेयुते मासे व्यति: काक्रान्ते (वासावासं पज्जोसवेमो)पर्युषणां कुर्मः, (अंतरावि य से कप्पइ) अर्वागपि तत् पर्युषणाकरणं कल्पते (नो से कप्पइ तं रयणि उबाइणावित्तए)परंन कल्पतेतारात्रिं-भाद्रशुक्लपञ्चमीरात्रिं अतिक्रमपितुम् ।।(८)॥ KI तत्र परि-सामस्त्येन उपणं-बसनं पर्युषणा, सा बेधा-गृहस्थैः ज्ञाता अज्ञाता च, तत्र गृहस्थैः अज्ञाता यस्यां | वर्षायोग्यपीठफलकादी प्राप्त कल्पोक्तद्रव्यक्षेत्रकालभावस्थापना क्रियते, सा चाषाढपूर्णिमायां, योग्यक्षेत्रा-18 MT १ उत्कृष्टत भाषाढपूर्णिमायामेव पर्युषणाकरणात् , तथा च वसनपर्युषणाया वार्षिकपर्युषणा न भिन्नदिने इति वदनिरस्तो वादी, एव ममिवर्धिते वर्षे विंशत्या दिनैर्वसनलक्षणैव पर्युषणा ज्ञेया, परेपामनमिवर्धितेऽभिवर्धितत्यापचिर्दुबारा, यतो मासस्य यत्र वृद्धिस्तत्र विंशत्याऽयत्र वर्षे त्रयोदशमास्या तेषां सांवत्सरिकमिति । दीप अनुक्रम [२६९] ~363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [C] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२७१] कल्प, सुबोव्या० ७ ॥१७३॥ Educaton दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] मूलं [८] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: भावे तु पश्चपञ्चदिनवृद्ध्या दशपर्व तिथिक्रमेण यावत् श्रावणकृष्णपञ्चदश्यां एव, गृहिज्ञाता तु द्वेधा-सांवत्सरिककृत्यविशिष्टा गृहिज्ञातमात्रा च तत्र सांवत्सरिककृत्यानि - संवत्सरप्रतिक्रान्ति १ लुम्बनं २चाष्टमं तपः ३ । सर्वाङ्गक्तिपूजा ४ च सङ्घस्य क्षामणं मिथः ५ ॥१॥ एतत्कृत्यविशिष्टा भाद्रसितपञ्चम्यां एव, कालिकाचार्यादेशाच्चतुर्थ्यामपि केवलं गृहिज्ञाता तु सा यत् अभिवर्द्धिते वर्षे चतुर्मासदिनादारभ्य विंशत्या दिनैर्वयमत्र स्थिताः स्मेति पृच्छतां गृहस्थानां पुरो वन्दन्ति, तदपि जैनटिप्पनकानुसारेण, यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते चापाटो बर्द्धते, नान्ये मासाः, तहिपनकं तु अधुना सम्यग् न ज्ञायते, ततः पञ्चाशतैव दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृद्धाः । अत्र कञ्चिदाह - ननु श्रावणवृद्धी द्वितीयश्रावणसितचतुर्थ्यामेव पर्युषणा युक्ता, न भाद्रसितचा तुथ्यां, दिनानां अशीत्यापत्तेः 'वासाणं सवीसइराए मासे विकते' इति वचनबाधा स्यादिति चेत्, मैवं, अहो देवानुप्रिय ! एवं आश्विनवृद्धी चतुर्मासककृत्यं द्वितीयाश्विनसितचतुर्दश्यां कर्त्तव्यं स्यात्, कार्त्तिकसितचतुर्दश्यां करणे तु दिनानां शतापस्या 'समणे भगवं महाबीरे वासाणं सवीसहराए मासे विकते सत्तरिराईदिएहिं सेसेहि' इति समवायाङ्गवचनबाधा स्यात्, न च वाच्यं चतुर्मासिकानि हि आषाढादिमासप्रतिबद्धानि, तस्मात् कार्त्तिकचतुर्मासकं कार्त्तिकसितचतुर्दश्यामेव युक्तं, दिनगणनायां त्वधिको मासः कालचूलेत्यविवक्षणादिनानां सप्ततिरेवेति कुतः समवायाङ्गवचनबाधा इति ?, यतो यथा चतुर्मासकानि आषाढादिमासप्रतिय१ आषणादिवृद्धावेतत् पौषादिवृद्धिप्रसंगागतं वासापेक्षं वाक्यं प्रदर्शयन् प्रकरणगन्धस्याप्यक्ष इत्यपकर्णनीयः, अधिकानामविवक्षयाऽप्येतत् । ••• अथ भाद्रपद प्रतिबद्धा संवत्सरे वर्णनं For Pride & Personal Use On ~364~ पर्युषणा भाद्रपदप्र तिबद्धा १५ २० ॥१७३॥ २५ bryog Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] .......... मूलं [८] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: पर्युषणा गाथा II-II casee8080920828893 द्वानि तथा पर्युषणाऽपि भाद्रपदभासप्रतिबद्धा तत्रैव कर्तव्या, दिनगणनायां तु अधिकमासः कालचूलेत्यविवक्षणाद् दिनानां पञ्चाशदेव कुतोऽशीतिवार्ताऽपि, न च भाद्रपदप्रतिबद्धवं पर्युषणाया अयुक्तं, बहुष्बागमेषु भाद्रपदप्रतथा प्रतिपादनात्, तथाहि-'अन्नया पज्जोसवणादिवसे आगए अजकालगेण सालिवाहणो भणिओ-भद्दवयजु- तिबद्धा हपंचमीए पजोसवणा' इत्यादि पर्युषणाकल्पचूणी, तथा-'तत्थ य सालिवाहणो राया, सो अ सावगो, सो अ, कालगज्जं तं इंतं सोऊण निग्गओ अभिमुहो समणसंघो अ, महाविभूइए पविट्ठो कालगज्जो, पविद्वेहि अ भणिअं-भद्दवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविजइ, समणसंघेण पडिवणं, ताहे रपणा भणि-तदिवसं मम लोगा-1 णुवत्तीए इंदो अणुजाणेअव्वो होहित्ति साहुइए ण पज्जुवासिस्सं, तो छडीए पज्जोसवणा किजउ, आय-18 रिएहिं भणिअं-न वहति अइकमिउं, ताहेरपणा भणिअं-ता अणागयचउत्थीए पज्जोसर्षिति, आयरिएहिं भणिएवं भवउ, ताहे चउत्थीए पजोसवितं, एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्थी पवत्तिआ, सा चेवाणुमया सब-II १ अन्यदा पयुषणादिवसे आगते आर्यकालकेन शालिवाहनो भणितो-भाद्रपदशुक्लपंचम्यां पर्युषणा । २ सत्र च शालिवाहनो राजा, स च श्रावकः, स च कालकार्य. तमायान्तं श्रुत्वा निर्गतोऽभिमुखं श्रमणसंघश्च, महाविभूत्या प्रविष्टः कालकार्यः, प्रविष्टैश्च, भणित-भाद्रपद-10 शुद्धपञ्चम्यां पर्युष्यते, श्रमणसंघेन प्रतिपन्नं, तदा राज्ञा भणितं-तदिवसे मम लोकानुवृत्त्वा इन्द्रः अनुज्ञापयितव्यो भविष्यतीति साधुचै यानि न पर्युपासिष्ये, तस्मात् षष्ठयां पर्युषणा क्रियता, आचार्य णितं-न वर्तते अतिक्रान्तुं, तदा राज्ञा भणित-तस्माद् अनागतचतुथ्यो । RIL पर्युष्यतां, आचार्य णित-एवं भवतु, तदा चतुर्या पर्युषितं, एवं युगप्रधानः कारणे चतुर्थी प्रवर्तिता, सैव च अनुमता सर्वसाधूनाम् ।। दीप अनुक्रम [२७१] ~365~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [<] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२७१] कल्प. सुबो व्या० ७ ॥१७४॥ Jan Education! दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] मूलं [८] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: साहूण' मित्यादि श्रीनिशीथ चूर्णिदशमोदेशके, एवं यत्र कुत्रापि पर्युषणानिरूपणं तत्र भाद्रपदविशेषितमेव, न तु काप्यागमे 'भद्दवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविज्जह'ति पाठवत् 'अभिवहिअवरिसे सावणसुद्धपंचमीए पज्जोसविजइति पाठ उपलभ्यते, ततः कार्त्तिकमासप्रतिबद्धचतुर्मासककृत्यकरणे यथा नाधिकमासः प्रमाणं तथा भाद्रमासप्रतिबद्धपर्युषणाकरणेऽपि नाधिकमासः प्रमाणमिति व्यज कदाग्रहं किंच अधिकमासः किं काकेन भक्षितः १ किं वा तस्मिन् मासे पापं न लगति ? उत बुभुक्षा न लगति ? इत्याद्युपहसन मा स्वकीयं ग्रहिलवं प्रकटय, यतस्त्वमपि अधिकमासे सति त्रयोदशसु मासेषु जातेष्वपि सांवत्सरिकक्षामणे 'बारसहं मासाणं' इत्यादिकं वदन्नधिकमासं नाङ्गीकरोषि एवं चतुर्मासिकक्षामणेऽधिकमाससद्भावेऽपि 'चैउन्हं मासाण'मित्यादि, पाक्षिकक्षामणेऽधिकतिथिसम्भवेऽपि 'पन्नरसहं दिवसाण' मिति च भूषे, तथा नवकल्पविहारादिलोकोत्तरकार्येषु 'आसाढे मासे दुपधा' इत्यादि सूर्यचारे लोकेऽपि दीपालिकाक्षततृतीयादिपर्वसु धनकलान्तरादिषु च अधिकमासो न गण्यते तदपि त्वं जानासि, अन्यच सर्वाणि शुभकार्याणि अभिवर्द्धिते मासे नपुंसक इतिकृत्वा ज्योतिःशास्त्रे निषिद्धानि, अपरं च आस्तामन्योऽभिवर्द्धितो भाद्रपदवृद्धी प्रथमो भाद्रपदोऽपि अप्रमाणमेव, यथा चतुर्दशीवृद्धी प्रथमां चतुर्दशीमवगणय्य द्वितीयायां चतुर्दश्यां पाक्षिककृत्यं क्रियते १ तेरसहं मासाणं इत्यादि पंचमहं मासाणं इत्यादि च वदन् कश्चित् शास्त्राणां स्वाचारस्यापि च विराधकः, पश्वमासिक साधिकमास| सांवत्सरिकप्रतिक्रमणकथनापत्तेः, पक्षे च दिनानां सदैवानियमः, यवनवदर्वागेव प्रत्यभिर्धितमागमनं कार्य मासे मासे । For File & Fersonal Use Only ~366~ द्वितीयभाद्रपदे पर्यु पणा १० १५ २० ॥१७४॥ janataly.ag Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [<] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२७१] क. सु. ३० दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] मूलं [८] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: तथाऽत्रापि, एवं तर्हि अप्रमाणे मासे देवपूजा मुनिदानावश्यकादि कार्यमपि न कार्यं इत्यपि वक्तुं माऽधरोष्ठं चपलंय, यसो यानि हि दिनप्रतिबद्धानि देवपूजामुनिदानादिकृत्यानि तानि तु प्रतिदिनं कर्तव्यान्येव, यानि च सन्ध्यादिसमयप्रतिवद्धानि आवश्यकादीनि तान्यपि यं कश्चन सन्ध्यादिसमयं प्राप्य कर्त्तध्यान्येव, यानि तु भाद्रपदादिमासप्रतिबद्धानि तानि तु तद्द्वयसम्भवे कस्मिन् क्रियते इति विचारे प्रथमं अवगणय्य द्वितीये क्रियते इति सम्यग विचारय ॥ तथा च पश्य अचेतना वनस्पतयोऽपि अधिकमासं नाङ्गीकुर्वते, येनाधिकमासे प्रथमं परित्यज्य द्वितीय एव मासे पुष्प्यन्ति यदुक्तं आवश्यक निर्युक्तो - "जह फुल्ला कणिआरडा चूअग ! अहिमासयंमि घुमि । तुह न खमं फुल्लेडं जड़ पचंता करिंति डमराई ॥ १ ॥" तथा च कश्चित् ' अभिषनिमि वीसा हअरेस सवीस मासे' इति वचनबलेन मासाभिवृद्धौ विंशत्या दिनैरेव लोचादिकृत्यविशिष्टां पर्युषणां करोति, तदप्ययुक्तं, येन 'अभिवडिअमि बीसा' इति वचनं गृहिज्ञातमात्रापेक्षपा, अन्यथा 'आसाढपुण्णिमासीए पजोसविंति एस उस्सग्गो, सेसकालं पज्जोसर्विताणं अववाउ'ति श्रीनिशीथचूर्णिदशमोदेशकवचनादा पाढपूर्णिमायामेव लोचादिकृत्यविशिष्टा पर्युषणा कर्त्तव्या स्यात् इत्यलं प्रसङ्गेन । तत्र कल्पोक्ता द्रव्य १ क्षेत्र २काल ३ भाव ४ स्थापना चैवं द्रव्यस्थापना तृणडगलछारमल्लकादीनां परिभोगः सचित्तादीनां च परिहारः, तत्र सचित्तद्रव्यं शैक्षो न प्रत्राज्यते अतिश्रद्धं राजानं राजामात्यं च विना, अचिराद्रव्यं च वस्त्रादि न गृह्यते, १ किं तिथिवृद्धो नोत्तरतिथौ पापं ?, विचारय । २ यदि पुष्पिताः कणवीराः चूत ! अधिकमासे धुष्टे । तव न क्षमं पुष्पितुं यदि प्रत्यंताः कुर्वन्ति डमरादि ॥ Jan Education Intemation For Pride & Personal Use O ~367~ मासवृद्धि चर्चा कल्पव्यवस्था सू. ८ ५ १० १३ www.janbary.org Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] .......... मूलं [८] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: गाथा ||-II कल्प.सुबो-II मिश्रद्रव्यं सोपधिक: शिष्या, क्षेत्रस्थापना सक्रोशं योजनं, ग्लानवैद्यौपधादिकारणे च चत्वारि पक्ष वा योज-IM व्या०९नानि, कालस्थापना चत्वारो मासाः, भावस्थापना क्रोधादीनां विवेकाइयोंदिसमितिषु चोपयोग इति४(८) भाग KI (वासावासं पजोसवियाणं) वर्षावासं चतुर्मास पर्युषितानां-स्थितानां (कप्पइ) कल्पते (निग्गंधाण वागमनवि॥१७५॥ निग्गंधीण चा) निर्ग्रन्थानां-साधूनां वा निर्ग्रन्धीनां साध्वीनां वा (सव्यओ समंता सकोसं जोयणं उग्गह चारश्च मू. ओगिणिहत्ताणं) सर्वतः-चतसृषु दिक्षु समन्तात्-विदिक्षु च सक्रोशं योजनं अवग्रहं अवगृह्य (चिहिउँ अहालंदमवि उग्गहे ) अथेत्यव्ययं, लन्दशब्देन काल उच्यते, तत्र यावता कालेनाः करः शुष्यति तावान् कालो जघन्यं लन्द, पश्च अहोरात्रा उत्कृष्ट लन्द, तन्मध्ये मध्यमं लन्द, लन्दमपि कालं यावत्-स्तोककालमपि अवग्रहे स्थातुं कल्पते, न तु अवग्रहादू बहिः, अपिशब्दात् अलन्दमपि बहुकालमपि यावत् षण्मासानेकत्रावग्रहे स्थातुं कल्पते, न तु अवग्रहादू बहिः, गजेन्द्रपदादिगिरेमेखलाग्रामस्थितानां षट्सु दिक्षु उपाश्रयात् सार्द्धक्रोशद्वयगमनागमने पञ्चकोशावग्रहः, यत्तु विदिक्षु इत्युक्तं तव्यावहारिकविदिगपेक्षया, नैश्चयिकविदिशां| एकपदेशात्मकत्वेन तत्र गमनासम्भवात्, अटवीजलादिना व्याघातेषु त्रिदिको द्विदिको एकदिको वाऽवग्रहो भाव्यः ॥९॥ (वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड निग्गंथाणं वा निग्गंधीण वा) वर्षावासं-चतुर्मासकं पर्युषि- २५ तानां स्थितानां कल्पते निर्ग्रन्धानां निर्ग्रन्थीनां वा (सवओ समंता सकोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतु ॥१५॥ शपडिनियसए) सर्वत: चतसृषु दिक्षु समन्तात्-विविक्षु च सक्रोशं योजनं भिक्षाचर्यायां गन्तुं प्रतिनिव । दीप अनुक्रम [२७१] ... अथ भिक्षादि अर्थे गमन-विचार: दर्शयते ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [११] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२७३] Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [११] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: र्तितुम् ॥ ( १० ) | ( जत्थ नई निचोयगा निचसंदणा ) यत्र नदी नित्योदका - नित्यं प्रचुरजला नित्यस्यन्दनानित्यस्रवणशीला सततवाहिनीत्यर्थः ( नो से कम्पइ सबओ समता सकोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतु पडिनियत्तए) नैव तत्र कल्पते सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च सक्रोशं योजनं भिक्षाचर्यायां गन्तुं प्रतिनिवर्त्तितुं ॥ (११) ॥ (एरावई कुणालाए) यथा ऐरावती नाम्नी नदी कुणालायां पुर्यां सदा द्विक्रोशवाहिनी तादृशीं नदीं लङ्घयितुं कल्प्या, स्तोकजलत्वात्, यतः (जत्थ चक्किया सिया एवं पायं जले किचा एवं पायं धले किच्चा ) यन्त्र एवं कर्तुं शक्नुयात्, किं तदित्याह - सिया-यदि एकं चरणं जले कृत्वा जलान्तः प्रक्षिप्य एकं चरणं स्थले कृत्वा जलादुपरि आकाशे कृत्वा ( एवं चक्किया एवन्नं कप्पद सङ्घओ समंता सकोसं जोयणं गंतुं पडिनियतए) अनया रीत्या गन्तुं शक्नुयात् एवं सति कल्पते सर्वतः समन्तात् सक्रोशं योजनं गन्तुं प्रतिनिवर्त्तितुम् ।। (१२) । ( एवं चे नो चक्किया एवं से नो कप्पड़ सङ्घओ समंता गंतुं पडिनियत्तए) पूर्वोक्तरीत्या नैव यत्र गन्तुं शक्नु स्यात् एवं तस्य साधोः नो कल्पते सर्वतः समन्तात् गन्तुं प्रतिनिवर्त्तितुं, यत्र च एवं कर्तुं न शक्नुयात् जलं | विलोड्य गमनं स्यात् तत्र गन्तुं न कल्पते इतिभावः, जङ्घा यावदुदकं दकसङ्घहो नाभि यावल्लेपो नाभेरुपरि लेपोपरि तत्र शेषकाले मासे मासे त्रिभिर्दकसङ्घट्टे सति क्षेत्रं नोपहन्यते, तत्र गन्तुं कल्पते इति भावः, वर्षाकाले च सप्तभिः क्षेत्रं नोपहन्यते, चतुर्थेऽष्टमे च दकसङ्घट्टे सति क्षेत्रं उपहन्यते एव, लेपस्तु एकोऽपि क्षेत्रं उपहन्ति, नाभिं यावज्जलसद्भावे तु गन्तुं न कल्पते एव, किं पुनर्लेपोपरि ? - नाभेरुपरि जलसद्भावे ॥ ( १३ ) ॥ For Plate & Fersonal Use On ~369~ अवग्रहः भिक्षाद्यर्थ गमनवि चारथ सू. १-१३ 1 १० १४ www.janebary.org Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१४] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४] गाथा II-11 कल्प.सुयो- व्या०९ ॥१७६॥ (वासावासं पज्जोसबियाणं अत्धेगइयाणं) चतुर्मासकं स्थितानां केषाञ्चित् साधूनां (एवं बुत्तपुई भवइ, गुजिया दावे भंते ! एवं से कप्पड दावित्तए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए) गुरुभिः एवं प्रागुक्तं भवति-ग्लानायामुकंदानग्रहणवस्तु दापयेः भदन्त :-हे शिष्य, तदा तस्य साधोः कल्पते दापयितुं, परं नो तस्य कल्पते खयं प्रतिग्रहीतुम् । व्यवस्था, (१४)। (वासावासं पजोसबियाणं अत्धेगइयाणं एवं बुतपुर्व भवइ) चतुर्मासकं स्थितानां केषाञ्चित् साधूनां सू.१४-६ गुरुभिः एवं प्रागुक्तं भवति (पडिगाहे भंते !, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ दावित्तए) खयं| प्रतिगृह्णीयाः हे शिष्य !, तदा तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुं, परं नो तस्य कल्पते दापयितुं, यद्येवमुक्तं भवति यत् त्वं खयं प्रतिगृह्णीयाः ग्लानाय अन्यो दास्यति तदा खयं प्रतिग्रहीतुंकल्पते न तु दातुं इत्यर्थः।(१५)।(वासावास पजोसवियाणं अत्थगइयाणं एवं वृत्तपुवं भवइ) चतुर्मासकं स्थिताना केवाञ्चित् साधूनां गुरुभिः एवं प्रागुक्तं भवति ( दावे भंते ! पडिगाहेहि भंते !, एवं से कप्पइ दावित्तएवि पडिगाहित्तएवि) दापये हे शिष्य ! स्वयं प्रतिगृह्णीयाः हे शिष्य !, तदा तस्य कल्पते दापयितुमपि प्रतिग्रहीतुमपि, यदि च दद्याः प्रतिगृह्णीयाश्चेत्युक्तं भवति तदा दातुं प्रतिग्रहीतुं चोभयमपि कल्पते ॥ (१६)। (वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंधाण २५ वा निग्गंधीण वा) चतुर्मासकं स्थितानां नो कल्पते साधूनां साध्वीनांच, कीदृशना ?-(हहाणं) हृष्टानां- १७६।। तारुण्येन समर्थानां, तरुणा अपि केचिद्रोगिणो निर्बलशरीराश्च भवन्ति, अत उक्तं-(आरुग्गाणं बलियसरीराण) आरोग्यानां बलबच्छरीराणां, ईदृशानां साधूनां (इमाओ नव रसविगईओ अभिक्खणं अभिक्खणं आहा-15 दीप अनुक्रम [२७६] ब्याकटटाchee JABEnicatonindia ~370~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१७] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७] गाथा 11-11 रित्तए ) इमाः वक्ष्यमाणाः नव रसप्रधाना विकृतयोऽभीक्ष्णं-वारंवारं आहारयितुं न कल्पते (तंजहा) तद्यथा-18 दृष्टानांवि(खीरं १ दहिं २ नवणीयं ३ सप्पि४ तिल्लं५ गुडं ६ महुँ ७ मजं ८ मंसं ९) दुग्धं १दधि २ म्रक्षणं ३ घृतं | कृतीनाम ४ तेलं ५ गुडः ६ मधु ७ मा ८ मांसं ९, अभीक्षणग्रहणात् कारणे कल्पन्तेऽपि, नवग्रहणात् कदाचित् पकानं । हगृह्यतेऽपि, तत्र विक्रतयो द्वेधा-साशयिका असाञ्चयिकाच, तत्रासाश्चयिका या बहुकाल रक्षितुमशक्या दुग्धदधिपकानाख्याः, ग्लानत्वे गुरुवालाद्युपग्रहार्थं श्राद्धाग्रहाद्वा ग्राह्याः, साशयिकास्तु घृततेलगुडाख्यास्तिस्रः, ताच प्रतिलम्भयन् गृही वाच्यो-महान् कालोऽस्ति, ततो ग्लानादिनिमित्तं ग्रहीष्यामा, स वदेत-गृहीत, चतुर्मासी यावत् प्रभूताः सन्ति, ततो ग्राह्या बालादीनां च देया न तरुणानां, यद्यपि मधु १ मध २ मांस ३-11 नवनीत ४ वर्जनं यावज्जीचं अस्त्येव तथापि अत्यन्तापवाददशायां वाद्यपरिभोगायथं कदाचिदू ग्रहणेऽपि चतुमास्यां सर्वधा निषेधः ॥ (१७)॥ (वासावासं पज्जोसवियाणं अत्धेगहआणं एवं बुत्तपुष भवइ) चतुमोसका |स्थितानां अस्ति एतद् एकेषां यावृपयकरादीनां एवमुक्तपूर्व भवति, गुरुं प्रतीति शेषा, वैयावश्यकरेगुरवे ||१० एवं उक्तं भवतीत्यर्थे। (अट्ठो भंते। गिलाणस्स)हे भदन्त-भगवन् ! अर्थों वर्तते ग्लानस्य विकृत्या इति वैयावश्यकरेण प्रश्ने कृते (से अ वएज्जा) स गुमा वदेत् (अहो) ग्लानस्य अर्थो वर्तते, (से अ पुच्छे अबो) ततः स ग्लानः प्रष्टव्यः (केवइएणं अट्ठो) कियता विकृतिजातेन क्षीरादिना तवाय:, तेन ग्लानेन खप्रमाणे उक्त (स अ वइजा) स वैयावत्यकरो गुरोरग्रे समागत्य यात्-(एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स) एतावताऽधों। १४ दीप अनुक्रम [२७७] ~371~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [PC] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२७८] कल्प. सुबो व्या० ९ ॥ १७७॥ Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [१८] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ग्लानस्य, ततो गुरुराह - ( जं से पमाणं वयइ ) यत् स ग्लानः प्रमाणं वदति ( से य पमाणओ चित्तवे ) तत्प्रमाणेन 'से' इति सद्विकृतिजातं ग्राह्यं त्वया ततः (से य विन्नविजा ) स च वैयावृत्यकरादिः विज्ञापयेत् कोऽर्थो ? -गृहस्थपार्श्वात् याचेत, विज्ञसिधातुरत्र याच्ञायां (से य विन्नवेमाणे लभिज्जा ) स वैयावृत्त्यकरो याचमानो लभेत तद्वस्तु क्षीरादि ( से य पमाणपत्ते ) अथ च तद्वस्तु प्रमाणप्राप्तं पर्याप्तं जातं ततश्च ( होउ अलाहि इय वत्तवं सिआ ) तत्र 'होउ 'त्ति भवतु इतिपदं साधुप्रसिद्ध इच्छमितिशब्दस्यार्थे, अलाहित्ति मृतं इत्यर्थे इति पदद्वयं गृहस्थं प्रति वक्तव्यं स्यात्, ततो गृही ब्रूते - ( से किमाहु भंते!) अथ किमाहुर्भदन्ताः !, कुतो भवन्तः स्मृतमिति ब्रुवते इत्यर्थः, ततः साधुराह (एवएणं अट्ठो गिलाणस्स) एतावतैव अर्थोऽस्तीति, ततः (सिया णं एवं वयंतं परो बजा) स्यात् कदाचित् णं इति वाक्यालङ्कृतौ एवं वदन्तं साधुं प्रति परो-गृहस्थो वदेत्, यत् (पडिगाहेहि अज्जो ! पच्छा तुमं भोक्खसि वा पाहिसि वा ) हे आर्य !- साधी प्रतिगृहाण पश्चात् ग्लानभोजनानन्तरं यदधिकं तत् त्वं भोक्ष्यसे- भुञ्जीथाः पक्कान्नादिकं पास्यसि-पिबेः क्षीरादिकं, कचित् 'पाहिसि'त्तिस्थाने 'दाहिसि 'न्ति दृश्यते, तदा तु स्वयं भुञ्जीथाः अन्येभ्यो वा दद्या इति व्याख्येयं ( एवं से कप्पड़ | पडिगाहित्तए) एवं तेनोक्ते तत् कल्पते अधिकं प्रतिग्रहीतुं, (नो से कप्पर गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए ) न च पुनर्लाननिश्रया गार्थ्यात् स्वयं ग्रहीतुं ग्लानार्थ याचितं मण्डल्यां नानेयमित्यर्थः ॥ १८ ॥ ( वासावासं पजोसवियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां ( अस्थि णं थेराणं तहप्पगाराई कुलाई ) अस्त्येतत् णं For Pile & Fersonal Use On ~372~ लानार्थ विकृत्यान यनं सू. १८ २० २५ ॥ १७७॥ २८ janelbary.org Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१९] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: । प्रत सूत्रांक गाथा II-II इति प्राग्वत् स्थविराणां तथाप्रकाराणि-अजुगुप्सितानि कुलानि-गृहाणि, किंविशिष्टानि ? (कडाई) तैरन्यैर्वा । दृश्यवाच. श्रावकीकृतानि (पत्तिआई) प्रीतिकराणि (थिजाई) प्रीती दाने वा स्थैर्यवन्ति (वेसासियाई) निश्चित निषेधः अम्र लप्स्येऽहमिति विश्वासो येषु तानि वैश्वासिकानि (सम्मयाई) येषां यतिप्रवेशः सम्मतो भवति तानि मू. १९ सम्मतानि (बहुमयाई) बहवोऽपि साधवः सम्मता येषां अथवा बहूनां गृहमनुष्याणां साधवः सम्मता येषु तानि बहुमतानि (अणुमयाई भवंति) अनुमतानि-दानं अनुज्ञातानि अथवा अणुरपि-क्षुल्लकोऽपि मतो येषु सर्वसाधुसाधारणस्वात् न तु मुखं दृष्ट्वा तिलकं कुर्वन्तीति अनुमतानि अणुमताणि वा भवन्ति (तस्थ से नो कप्पइ अदक्खु वइत्तए) तत्र-तेषु गृहेषु 'से' तस्य साधोः याच्यं वस्तु अदृष्ट्वा इति वक्तुंन कल्पते (अस्थि ते आउसो! इमं चा) पथा हे आयुष्मन् ! इदं इवं वा वस्तु अस्ति? इति, अदृष्टं वस्तु प्रष्टुं न कल्पते इत्यर्थः (से किमाहु भंते!) तत् कुतो भगवन् ! इति शिष्यप्रश्ने गुरुराह-यतस्तथाविधः (सड्डी गिही गिण्हइ वा तेणियंपि कुजा) श्रद्धावान् गृही मूल्येन गृह्णीत, यदि च मूल्येनापिन प्रामोति तदास श्रद्धातिशयेन चौर्यमपि कुर्यात् , कृपणगृहे तु अदृष्ट्वाऽपि याचने न दोषः॥ (१९)॥ (वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (निचभत्तियस्स भिक्खुस्स) नित्यमेकाशनकारिणः18 भिक्षोः (कप्पइ एगं गोअरकालं गाहावइकुलं) कल्पते एकस्मिन् गोचरचर्याकाले गाथापतेः-गृहस्थस्य कुलंगृहं ( भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तएवा) भक्तार्थे वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं । दीप अनुक्रम [२७९] १४ JAMEnicatonirnxm ... अथ गोचर-चर्या-काल-वर्णनं क्रियते ~373~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२०] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२०] १७८| गाथा II-II कल्प सबोवा कल्पते, न तु द्वितीयवारं, परं (णन्नत्थ) णकारो वाक्यादौ अलङ्कारार्थः, अन्यत्र आचार्यादिवयावृ-गोचरचर्याव्यायकरेभ्यः, तान् वर्जयित्वेत्यर्थः, ते तु यदि एकवारं भुक्तेन वैयावृत्त्यं कर्तुं न शक्नुवन्ति तदा द्विरपि भुञ्जते, विलानियमः तपसो हि वैयावृत्त्य गरीय इति,(आयरियवेयावचेण वा) आचार्यवैयावृत्त्यकरान था (उवझायवेयावचेण वा) .२०.२४ उपाध्यायवैयावृत्त्यकरान वा (तवस्सिवेयावचेण वा) तपत्रिवैयावृयकरान् वा (गिलाणचेयावचेण वा) ॥ ग्लानवैयावृत्त्यकरान् वा (खुडएण वा खुहिआए वा अर्बुजणजायएण वा) यावत् व्यञ्जनानि-बस्तिकूर्चकक्षादिरोमाणि न जातानि तावत् क्षुल्लकक्षुल्लिकयोरपि द्विर्भुञानयोर्न दोषः, यद्वा वैयावृत्यमस्यास्तीति वैयावृत्त्यो वैयावृत्त्यकर इत्यर्थः आचार्यश्च वैयावृत्त्यश्च आचार्यवैयावृत्त्या, एवं उपाध्यायादिष्वपि, ततश्च आचार्य उपाध्यायतपस्विग्लानक्षुल्लकानां तद्वैयावृत्यकराणां च द्विभॊजनेऽपि न दोष इत्यर्थो जातः ॥ (२०) (वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स अयं एवइए विसेसे) एकान्तरोपवासिनः साधोरयमेतावान् विशेषो (जं से पाओ निक्खम्म) यत् स प्रातर्निचक्रम्य गोचरचयोंर्थे । (पुवामेव वियडगं भुच्चा) प्रथममेव विकट-प्रासुकाहारं भुक्त्वा (पिच्चा) तक्रादिकं पीत्वा (पडिग्गग २५ संलिहिय संपमजिय) पात्रं संलिख्य-निर्लेपीकृत्य सम्प्रमृज्य-प्रक्षाल्य (से य संघरिजा कप्पड़ से तदिवसं ॥१७॥ तेणेव भत्तढेणं पजोसवित्तए)स यदि संस्तरेत-निर्वहेत्तर्हि तेनैव भोजनेन तस्मिन् दिने कल्पते पर्युषितुं-स्थातुं| MI(से य नो संधरिजा) अथ यदिन संस्तरेत् स्तोकत्वात् ( एवं से कप्पइ दुचंपि गाहावइकुल भत्ताए या पाणाए 6.२८ दीप अनुक्रम [२८०] ~374 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२१] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: X प्रत सूत्रांक [२१] गाथा ||| वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) तदा तस्य साधोः कल्पते द्वितीयवारं गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थं वा निष्क-गोचरचर्या| मितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥(२१)। (वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (छट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स) नित्यंलानियमः षष्ठकारिण: मिक्षोः (कप्पंति दो गोअरकाला गाहावाकुलं भत्ताए बा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्सएम. २०.२४ वा) कल्पेते द्वौ गोचरकालौ गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रबेष्टुं वा ।।(२२)। (वासावासं पजोस-18 वियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (अहमभत्तियस्स भिक्खुस्स) निर्य अष्टमकारिणः भिक्षोः (कप्पति तओ ॥ ५ गोअरकाला गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) कल्पन्ते त्रयो गोचरकाला गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुंचा प्रवेष्टुं वा ।।(२३)। (वासानासं पजोसवियस्स) चतुर्मासक स्थितस्य (विगिहभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति सोऽवि गोअरकाला गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए चा |निक्वमित्तए वा पविसित्तए वा) नित्यं अष्टमापरि तपाकारिणः भिक्षोः कल्पन्ते सर्वेऽपि गोचरकाला: गृहस्थगृहे भक्तार्थं वा पानार्थं वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, यदा इच्छा भवति तदा भिक्षते, न तु प्रातहीतमेव धारयेत, सञ्चयजीवसंसक्तिसाघ्राणादिदोषसम्भवात् ॥ (२४)। | एवमाहारविधिमुक्त्वा पानकविधिमाह-(वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (निचभत्तियस्सा भिक्खुस्स) नित्यं एकाशनकारिणः भिक्षोः (कप्पति सवाई पाणगाई पडिगाहित्तए) कल्पते सर्वाणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं, सर्वाणि च आचाराङ्गोक्तानि एकविंशतिः, अत्र वक्ष्यमाणानि मय वा, तत्राचाराङ्गोक्तानि इमानि दीप अनुक्रम [२८१] ~375~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२५] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२५] गाथा II-II कल्प.सुबो- उस्सेइम १ संसेइम २ तंडल इतुस ४ तिल ५ जवोदगा यामं७।सोवीर ८ सुद्धवियडं ९ अंबय १० अंबाङग ११० उत्सेदिमाव्या०९ कविट्ठ १२॥१॥मालिंग १३ दक्ख १४ दाडिम १५ खज्जुर १६ नालिकेर १७ कयर १८ बोरजलं १९। आमलगं २० दिजलवि॥१७९॥ चिंचापाणगाई २१ पढमंगभणिआई॥२॥ एषु पूर्वाणि नव तु अत्रोक्तानि (वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकंधिः सू.२५ स्थितस्य (चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स) एकान्तरोपवासकारिणः भिक्षोः (कप्पति तओ पाणगाई पडिगाI हित्तए) कल्पते त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं (संजहा) तद्यथा-(उसस्सेइमं संसेइमं चाउलोदगं) उत्खेदिम1 पिष्टादिभृतहस्तादिधावनजलं संखेदिमं यत्पर्णाद्युत्काल्य शीतोदकेन सिन्च्यते तज्जलं, तण्डुलधावनजलं ॥ (वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (छट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स) नित्यं षष्ठकारिणः भिक्षोः (कप्पंति, तओ पाणगाई पडिगाहित्तए) कल्पन्ते त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं (तंजहा) तद्यथा-(तिलोदगं तुसोदगं जवोदगं वा) तिलोदक-निस्त्वचिततिलधावनजलं तुषोदकं-बीयादितुषधावनजलं यवोदकं-यवधावनजलं । (वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (अट्ठमभत्तियरस भिक्खुस्स) नित्यं अष्टमकारिणः भिक्षोः (कप्पति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए) कल्पन्ते त्रीणि पानकानि प्रतिग्रहीतुं (तंजहा) तद्यथा-(आयाम २५ वा, सोचीरं बा, सुद्धचियडं वा) आयामक:-अवश्रावणं सौवीरं-कालिकं शुद्धविकट-उष्णोदकं ॥ (वासा- १७९॥ वासं पज्जोसवियस्स ) चतुर्मासकं स्थितस्य ( विकिट्ठभत्तियस्स भिकखुस्स) अष्टमादुपरि तपाकारिणः भिक्षोः (कप्पइ एगे उसिणवियडे पडिगाहित्तए) कल्पते एक उष्णोदकं प्रतिग्रहीतुं (सेविय णं असित्थे २८ दीप अनुक्रम [२९०] ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२५] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२५] गाथा II-II नोविय णं ससित्थे ) तदपि सिक्थरहितं नैव सिक्थसहितं, यतः प्रायेण अष्टमादूर्ध्व तपखिनः शरीरं देवो-दतिविधिः ऽधितिष्ठति ॥ (वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (भत्तपडियाइक्खियस्स भिकखुस्स) . २६ भक्तप्रत्याख्यानकरस्थ-अनशनकारिणः भिक्षोः (कप्पड एगे उसिणवियडे पडिगाहित्तए) कल्पते एक उष्णोदकं प्रतिग्रहीतुं (सेविय णं असिस्थे) तदपि सिक्थरहितं, नैव सिक्थसहितं (सेविय णं परिपूए नो चेव णं अपरिपूए) तदपि परिपूर्त-वस्त्रगलितं नैव अगलितं, तृणादेगले लगनात् (सेऽविय गं परिमिए, नो चेव णं अपरिमिए ) तदपि मानोपेतं नैव अपरिमितं, अन्यथाऽजीर्ण स्यात् (सेविय णं बहुसंपन्ने नो चेव णं॥ अबहुसंपन्ने ) तदपि बहुसंपूर्ण-किश्चिदूनं नैव बहुन्यूनं, तृष्णानुपशमात् ॥ (२५)॥ | (वासावासं पोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (संखादत्तियस्स भिकखुस्स) दत्तिसङ्ख्याकारिणो भिक्षोः (कप्पंति पंच दत्सीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए पंच पाणगस्स) कल्पन्ते पञ्च दत्तयः भोजनस्य प्रतिग्रहीतुं पञ्च पानकस्य (अहवा चत्तारि भोअणस्स पंच पाणगस्स) अथवा चतनः भोजनस्य पश्च पामकस्सा (अहवा पंच भोअणस्स चत्तारि पाणगस्स) अथवा पञ्च भोजनस्य, चतस्रः पानकस्य, तत्र दत्तिशब्देन अल्प बहु वा यदेकवारेण दीयते तदुच्यते इत्याह-(तत्थ णं एगा दत्ती लोणासायणमित्तमवि पडिगाहिया सिया)। तत्र एका दत्तिः लवणास्वादनप्रमाणेऽपि भक्तादौ प्रतिगृहीते स्यात्, यतो लवणं किल स्तोक दीयते, यदि तावन्मानं भक्तपानस्य गृह्णाति साऽपि दत्तिर्गण्यते, पश्चेत्युपलक्षणं तेन चतनस्तिस्रो द्वे एका षट् सस वा यथाभि- १४ दीप अनुक्रम [२९०] शा ~377 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२६] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२६] गाथा II-II कल्प.सबो-ग्रहं वाच्याः , समग्रस्य च सूत्रस्य अयं भावः-यावत्योऽन्नस्य पानकस्य चा दत्तयो रक्षिता भवन्ति तावत्य एव संखडीवर्जग्या०९ तस्य कल्पन्ते, न तु परस्परं समावेशं कर्तुं कल्पते, न च दत्तिभ्योऽतिरिक्तं ग्रहीतुं कल्पते, (कप्पड़ से नविधिः तद्दिवसं तेणेव भत्तट्टेणं पजोसवित्तए) कल्पते तस्य तस्मिन् दिने तेनैव भोजनेन अवस्थातुं (नो से कप्पहासू. २७ दुचंपि गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए पा) न तस्य कल्पते द्वितीयवारं] | गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थं वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ।। (२६)॥ (वासावासं पजोसवियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पड निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा) नो २० कल्पते साधूनां साध्वीनां वा (जाय उबस्सयाओ सत्तधरंतरं संखर्डि संनियहचारिस्स इत्तए) यावद उपा-131 श्रयादारभ्य सप्तगृहमध्ये संस्कृतिः-ओदनपाकः तां गन्तुं साधोर्न कल्पते, भिक्षार्थ तत्र न गच्छेदित्यर्थः, एतावता शय्यातरगृहं अन्यानि च षड् गृहाणि वर्जयेदिति, तेषां आसन्नखेन साधुगुणानुरागितया उद्गमादिदोषसम्भवात्, कीदृशानां साधूनां ?-सन्निवृत्तचारिणां-'सन्नियत्ति निषिद्धगृहेभ्यः सन्निवृत्ताः सन्तः चरन्तीति तथा तेषां, निषिद्धगृहेभ्योऽन्यत्र भ्रमतामिति भावः, अत्र बहुत्वे एकत्वं, भिक्षार्थं गन्तुं, बहवस्स्वेवं व्याचक्षते-सप्तगृहान्तरे सङ्कर्टि-जनसङ्खलजेमनवारालक्षणां गन्तुं न कल्पते, अत्रार्थे सूत्रकृत् मतान्तरा- ॥१८॥ पयाह-(एगे पुण एवमासु नो कप्पइ जाव उबस्सयाओ परेणं संखटि संनियहचारिस्स इत्तए) एके पुनः एवं कथयन्ति-नो कल्पते उपाश्रयादारभ्य परतः सप्तगृहमध्ये जेमनवारायां सन्निवृत्तचारिणां भिक्षार्थ गन्तुं २८ दीप अनुक्रम [२९२] Dece09397900000 JABEducatoniroll Trianetbornerg ... अथ संखडी-वर्जन-विधि: दर्शयते ~378 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [२७] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२९५] क. सु. ३१ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [९] मूलं [२७] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ( एगे पुण एवमाहंसु नो कप्पड़ जाव उवस्सयाओ परंपरेण संखडिं संनिग्रहवारिस्स इतए ) एके पुनः एवं कथयन्ति नो कल्पते उपाश्रयादारभ्य परम्परतः सप्तगृहमध्ये जेमनवारायां सन्निवृत्तचारिणां भिक्षार्थं गन्तुं, द्वितीयमते 'परेणं'ति शय्यातरगृहं अन्यानि च सप्त गृहाणि वर्जयेत्, तृतीयमते परम्परेणेति शय्यातरगृह तत एकं गृहं ततः परं सप्त गृहाणि वर्जयेदिति भावः ॥ (२७) ॥ ( वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (नो कप्पड़ पाणिपडिग्गद्दियस्स भिक्खुस्स ) नो कल्पते पाणिपात्रस्य - जिनकल्पिकादेर्भिक्षोः (कणगफुसियमित्तमवि बुद्धिकार्यसि निवयमाणंसि) कणगफुसिआफुसास्मानं एतावत्यपि वृष्टिकाये निपतति सति ( गाहावइकुलं भत्ताए पाणाए वा निक्खमित्त वा पचित्तिए वा ) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥ ( २८ ) || ( वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य ( पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स ) करपात्रस्य - जिनकल्पिकादेः भिक्षोः (नो कप्पड़ अगिहंसि पिंडवायं पडिगाहित्ता पजोसवित्तए) नो कल्पते अनाच्छादिते- आकाशे पिण्डपातं भिक्षां प्रतिगृह्य अवस्थातुं - आहारयितुं न कल्पते, (पज्जोसवेमाणस्स सहसा बुढिकाए निवइज्जा ) यदि अनाच्छादिते स्थाने भुञ्जानस्य साधोः अकस्मात् वृष्टिकायः निपतेत् तदा (देसं भुच्चा देसमादाय से पाणिणा पार्णि परिपिहिता) पिण्डपातस्य देशं भुक्त्वा, देशं चादाय स पाणि- आहारैकदेशसहितं हस्तं पाणिना-द्वितीयहस्तेन, परिपिधाय-आच्छाय ( उरंसि वा णं निलिजिना ) हृदयाग्रे वा गुतं कुर्यात् (कक्खंसि वा णं समा Jan Education Intemations ••• अथ वृष्टिः समये भिक्षा-गमनादि विधिः दर्शयते For Pride & Personal Use Only ~379~ वृष्टी मिक्षागमनादि विधिः सू. २८-३१ ५ १० १४ janelbary.org Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [२९] / गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [२९] गाथा II-II कल्प सुबो-हडिज्जा) कक्षायां वा समाहरेत्-आच्छादितं कुर्यात्, एवं च कृत्वा (अहाछन्नाणि लेणाणि वा उवागछिजा) पृष्टी भिक्षा यथाच्छन्नानि-गृहिभिः खनिमित्तमाच्छादितानि, लयनानि-गृहाणि उपागच्छेत् (रुक्खमूलाणि वा उवाग- Iगमनादि॥१८॥ च्छिज्जा) वृक्षमूलानि वा उपागच्छेत् (जहा से तत्थ पाणिसिदए वा दगरए वा दगफुसिया वा नो परिआवजाविधिः सू. यथा तस्य तत्र पाणी दकं-बहवो विन्दवः, दकरजो-बिन्दुमानं दगफुसिआ-फुसारं अवश्यायः न विराध्यन्ते॥ पतन्ति वा, यद्यपि जिनकल्पिकादेर्देशोनदशपूर्वधरत्वेन प्रागेव वर्षोपयोगो भवति, तथा चार्द्धभुक्ते गमनं न |सम्भवति, तथापि छमस्थत्वात् कदाचिदनुपयोगोऽपि भवति ॥ (२९)। उक्तमेवार्थ निगमयन्नाह-(वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मास स्थितस्य (पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स) पाणिपात्रस्य भिक्षोः (जंकिंचि कणगफुसियमित्तंपि निवडति) यत्किञ्चित् कणो-लेशस्तन्मात्रं कं-पानीयं कणकं तस्य फुसिआ-फुसारमानं तस्मिन्नपि निपतति (नो से कप्पड़ गाहावहकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा)न तस्य जिन-3 कल्पिकादेः कल्पते गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमित वा प्रवेष्टं वा॥ (३०)। उक्तः पाणिपात्रविधिः अथ पात्रधारिणो विधिमाह-वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (पडिग्गहधारिस्स भिक्खुस्स पात्रधारिणः-स्थविरकल्पिकादेः भिक्षोः (नो कप्पइ बग्धारियट्टिकायंसि) न कल्पते अविच्छिन्नधाराभिः ॥१८॥ वृष्टिकाये निपतति-यस्यां वर्षाकल्पो नीनं वा श्रवति कल्पं वा भित्त्वाऽन्तः कार्य आर्द्रयति तत्र (गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा दीप अनुक्रम [२९७] ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [३१] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३१] गाथा -| प्रवेष्टुं वा, अपवादमाह-(कप्पइ से अप्पवुहिकार्यसि संतरुत्तरंसि) कल्पते तस्य-स्थविरकल्पिकादेः अल्प-वृष्टौ पूर्वय|ष्टिकाये अन्तरेण वर्षति सति, अथवा आन्तरः-सौत्रः कल्प उत्तर:-और्णिकस्ताभ्यां प्रावृतस्याल्पवृष्टौवादायुक्ता(गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थं वा | दिविधिः निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, अपवादे तु तत्रापि तपखिनः क्षुदसहाश्च भिक्षार्थं पूर्वपूर्वाभावे और्णिकेन औष्ट्रिकेन ताणेन सीत्रेण वा कल्पेन तथा तालपत्रेण पलाशच्छन्त्रेण वा प्रावृता विहरन्त्यपि ।। (३१)॥ हा (वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (निग्गंधस्स निग्गंधीए वा गाहावाकलं पिंडवायपडि याए अणुप्पविट्ठस्स) निर्ग्रन्थस्य साव्याश्च गृहस्थगृहे पिण्डपातो-भिक्षालाभस्तत्प्रतिज्ञया-अत्राहं लप्स्ये इति 18 धिया अनुप्रविष्टस्य-गोचरचर्यायां गतस्य साधोः (निगिझिय निगिज्झिय बुट्टिकाए निवइज्जा) स्थित्वा स्थित्वा वृष्टिकायः निपतेत् , अथ घनो वर्षति तदा (कप्पड़ से अहे आरामंसिवा) कल्पते तस्य साधो आरामस्थाघोवा (अहे उवस्सयंसि चा) साम्भोगिकानां इतरेषां वा उपाश्रयस्याधः, तदभावे (अहे वियडगिहंसि वा) विकटगृहंमण्डपिका यत्र ग्राम्यपर्षदुपविशति तस्याधो वा (अहे रुक्खमूलंसि वा) वृक्षमूलं वा-निर्गलकरीरादिमूलं तस्य वा अधः (उबागच्छित्तए)तत्रोपागन्तुं कल्पते ॥ (३२)॥ (तत्थ से पुवागमणेणं) तत्र-विकटगृह-1 क्षमूलादौ स्थितस्य 'से' तस्य साधोः आगमनात् पूर्वकाले (पुवाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउत्ते भिलिंगसूवे) ISI पूर्वायुक्तः-पक्तुमारब्धः तण्डुलौदनः पश्चादायुक्तो भिलिंगसूपो-मसूरदालिर्माषदालिः सस्नेहसूपो वा (कप्पइ8 दीप अनुक्रम [२९८] LABEncaronic. ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [३४] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२९९] कल्प. सुबो व्या० ९ ॥१८२॥ Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [३४] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: से चाउलोदणे पडिगाहितए) तदा कल्पते तस्य साघोः तण्डुलौदनं प्रतिग्रहीतुं (नो से कप्पड़ भिलिंगसूबे | पडिगाहित्तए) न कल्पते तस्य मसूरादिदालिः प्रतिग्रहीतुं, अयमर्थः- तत्र यः पूर्वायुक्तः - साध्वागमनात् पूर्वमेव स्वार्थ गृहस्यैः पक्तुमारब्धः स कल्पते दोषाभावात्, साध्वागमनानन्तरं च यः पक्तुमारब्धः स पश्चादायुक्तः, स न कल्पते उनमादिदोषसम्भवात् ॥ (३३)॥ (तत्थ से पुवागमणेणं पुद्दा उत्ते भिलिंगसूवे पच्छाउने चाडलोदणे) तत्र गृहे तस्य पूर्वायुक्तः मसूरादिदालिः पश्चादायुक्तः तण्डुलौदनः तदा (कप्पर से मिलिणसूबे पडिगाहित्तए) कल्पते तस्य मसूरादिदालिः प्रतिग्रहीतुं (नो से कप्पड़ चाउलोदणे पढिगाहित्तए) नो तस्य कल्पते तण्डुलौदनं प्रतिग्रहीतुं ॥ (३४) । (तत्थ से पुवागमणेणं दोऽवि पच्छाउलाई एवं नो से कप्पड़ दोऽवि पडिगाहित्तए) तत्र गृहे तस्य द्वावपि पश्चादायुक्तौ तदानो तस्य कल्पते द्वावपि प्रतिग्रहीतुं (जे से तत्थ पुधागमणेणं पुवाउत्ते से कप्पड़ पडिगाहिए ) यत् तस्य तत्र पूर्वायुक्तं तत् कल्पते प्रतिग्रहीतुं (जे से तत्थ पुञ्चागमणेणं पच्छाउ नो से कप्पड़ पडिगाहित्तए) यत् तस्य तत्र पूर्वं पश्चादायुक्तं न तत् कल्पते प्रतिग्रहीतुं ॥ (३५) ॥ ( वासावा पजोस बिस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (निग्गंथस्स निग्गंधीए वा गाहाबद्दकुलं पिंडवापपडियाए अणुपविट्ठस्स) साधोः साध्याश्च गृहस्थगृहे भिक्षाग्रहणार्थं अनुप्रविष्टस्य ( निगिज्झिय निगिज्शिय बुद्धिकाए निवइज्जा) स्थित्वा स्थित्वा वृष्टिकायः निपतेत् तदा (कप्पड़ से अहे आरामंसि वा) कल्पते तस्य आराम स्याधो वा (जाव रुक्खमूलंसि वा उवागच्छित्तए) यावत् वृक्षमूले वा उपागन्तुं (नो से कप्पह पुवगहिएणं भतपाणेणं For File & Fersonal Use Only ~382~ वृष्टी पूर्वपवादायुक्ता दिविधिः मू. ३२-३५ २० २५ ॥ १८२ ॥ २८ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [३६] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक गाथा 11-11 वेलं उयायणावित्तए) नो तस्य कल्पते पूर्व गृहीतेन भक्तपानेन भोजनवेलां अतिक्रमयितुं, आरामादिस्थितस्य वर्षस्यपिवसाधोर्यदि वर्षा नोपरमति तदा किं कार्यमित्याह-(कप्पड़ से पुवामेव वियडगं भुच्चा पिचा पडिग्गहगं संलिहिय सतौ गमन संलिहिय संपमल्जिय २) कल्पते तस्य साधोः पूर्वमेव विकट-उद्गमादिशुद्धमशनादि भुक्त्वा पीत्वा च पात्रंसू. ३६ निर्लेपीकृत्य सम्प्रक्षाल्य (एगओ भंडगं कट्ठ) एकस्मिन् पार्चे पात्रायुपकरणं कृत्वा वपुषा सह प्रावृत्य वर्ष-18 स्यपि मेघे (सावसेसे सरिए) सावशेषे-अनस्तमिते सूर्ये (जेणेच उबस्सए तेणेव खवागरिछत्तए) यौव उपाश्रयः तत्रैव उपागन्तुं, परं (नो से कप्पह तं रयणि तत्थेव उवायणावित्तए) नो तस्य कल्पते तां रात्रि वसतेहि गृहस्थगृहे एव अतिक्रमयितुं, एकाकिनो हि बहिर्वसतःसाधोः खपरसमुत्था बहवो दोषाः सम्भवेयुः, हासाधवो वा वसतिस्था अधृर्ति कुर्युरिति ।(३६)॥(वासावासं पजोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (निग्ग-18 थस्स निग्गंथीए वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स ) साधोः साध्व्याश्च गृहस्थगृहे भिक्षाग्रह-8 णार्थ अनुमविष्टस्य (निगिज्झिय निगिझिय बुट्टिकाए निवइज्जा) स्थित्वा स्थित्वा वृष्टिकायः निपतेत् तदा (कप्पद से आरामंसि वा जाव उवागच्छित्तए) कल्पते तस्य आरामस्याधो वा यावत् उपागन्तुं, अग्रेतनसूत्रयुग्मसंबन्धार्थ पुनरेतत्सूत्रं ॥ (३७)॥ अथ स्थित्वा २ वर्षे पतति यदि आरामादी साधुस्तिष्ठति तदा केन विधिनेत्याह-(सत्य नो से कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स एगाए निग्गंथीए एगओ चिहित्तए) तत्र विकटगृहवृक्षमूलादी स्थितस्य साधो नो कल्पते एकस्य साधोः एकस्याः साध्व्याश्च एकत्र स्थातुं१ (तत्थ नो कप्पड़ दीप अनुक्रम [३००] JABEnicatonis Indianusbanoos ~383~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [३८] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [३८ ॥१८॥ धिसू. गाथा II-II कल्प-सुनो- एगस्स निग्गंधस्स दुहं निग्गंधीणं एगओ चिद्वित्तए) तन्त्र नो कल्पते एकस्य साधोः बयोः साध्व्योश्च । एकत्र स्थातुं २ (तत्य नो कप्पई तुण्डं निग्गंधाणं एगाए निग्गंधीए एगओ चिहित्तए) तत्र नो कल्पते दूयो। हादाववसाध्वोः एकस्याः साध्व्याश्च एकत्र स्थातुं ३ (तस्थ नो कप्पह दुहं निग्गंधाणं दुहं निग्गत्थीणं एगओ चिट्टि- स्थानवित्तए) तत्र नो कल्पते द्वयोः साध्वोः द्वयोः साध्व्योश्च एकत्र स्थातुं ४ (अस्थि य इत्य कोइ पंचमे खुड्डए वा खुड्डिया वा) यदि स्यात् अत्र कोऽपि पञ्चमः क्षुल्लको वा क्षुल्लिका वा (अन्नेसि वा संलोए सपडिदुवारे) ३७-३९ अन्येषां वा दृष्टिविषये बहुद्वारसहितस्थाने वा (एवण्हं कप्पह एगओ चिट्टित्तए)तदा कल्पते एकत्र स्थातुं भावार्थस्त्वयं-एकस्य साधोः एकया साध्व्या सह स्थातुं न कल्पते, एवं च एकस्य साधोद्वाभ्यां साध्वीभ्यां सह 8 द्वयोः साध्वोरेकया साध्व्या सह द्वयोः साध्वोः द्वाभ्यां साध्वीभ्यां सह स्थातुं न कल्पते, यदि चात्र पञ्चमः कोऽपि क्षुक्लका क्षुल्लिका वा साक्षी स्यात् तदा कल्पते, अथवा अन्येषां ध्रुवकर्मिकलोहकारादीनां वर्षयप्यमुक्त खकर्मणां संलोके तत्रापि सप्रतिद्वारे-सर्वतोद्वारे सर्वगृहाणां वा द्वारे, एवं पञ्चमं विनाऽपि स्थातुं कल्पते।।(३८) ॥ (वासावासं पजोसविपस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (निग्गंधस्स गाहावाकुलं पिंडवायपडियाए जाव उवा-II गच्छित्तए) साधो गृहस्थगृहे भिक्षाग्रहणार्थ यावत् उपागन्तुं (तत्थ नो कप्पड एगस्स निग्गंधस्स एगाए।॥१८३॥ 18|अगारीए एगओ चिद्वित्तए) तत्र नो कल्पते एकस्य साधोः एकस्याः श्राविकायाः एकत्र स्थातुं (एवं चउभंगी) एवं चत्वारो भङ्गाः (अस्थि णं इत्थ केइ पंचमे धेरे वा थेरिया वा) यदि अत्र कोऽपि पञ्चमः स्थविरः स्थविरा दीप अनुक्रम [३०१] ~384 ~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [३९] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [३९] गाथा II-II वा साक्षी भवति तदा स्थातुं कल्पते (अन्नेसि वा संलोए सपडिदुवारे एवं कप्पड एगओ चिहित्तए) अन्येषां अपरिज्ञप्तावा दृष्टिविषये बहुद्वारसहिते वा स्थाने, एवं कल्पते एकत्र स्थातुं, (एवं चेव निग्गंथीए अगारस्स य भाणियचं) शनायशनएवमेव साध्न्याः गृहस्थस्य च चतुर्भङ्गी वाच्या, तथा एकाकित्वं च साधोः साङ्घाटिके उपोषितेऽसुखिते वा निषेधः सू. ४०-४१ कारणाद्भवति, अन्यथा हि उत्सर्गतः साधुरात्मना द्वितीयः साध्व्यस्तु ज्यादयो विहरन्ति ॥ (३९)। ' । (वासावासं पजोसवियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा) नो कल्पते ४५ साधूनां साध्वीनां वा (अपरिनएणं) मदर्थं त्वं मम योग्यमशनमानयेः इति अपरिज्ञप्तेन-अज्ञापितेन साधुना (अपरिन्नयस्स अट्ठाए असणं ४ जाव पडिगाहित्तए) अहं त्वद्योग्यं अन्नमानयिष्यामीति अपरिज्ञापितस्य साघोः निमित्तं अशनादि ४ यावत् प्रतिग्रहीतुम् ॥(४०)।। अत्र शिष्यः पृच्छति-(से किमाहु भंते) तत् कुतो भदन्त इति पृष्टे गुरुराह-(इच्छा परो अपरिन्नए भुंजिज्जा इच्छा परो न भुंजिजा) इच्छा चेदस्ति तदा परोऽपरिज्ञापितः यदर्थं आनीतं स भुञ्जीत, इच्छा न चेत्तदा न भुञ्जीत, प्रत्युतैवं वदति-केनोक्तमासीत् । यत्वया आनीतं, किं च-अनिच्छया दाक्षिण्यतश्चेद भुड़े तदा अजीर्णादिना बाधा स्यात्, परिष्ठापने च|SH वर्षासु स्थण्डिलदौलभ्यादोषः स्यात्, तस्मात् पृष्ट्वा आनेयं ॥ (४१)। । (वासावासं पजोसवियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां च (उदउल्लेण वा ससिणिद्वेण वा कारणं असणं वा ४ आहारित्तए) उदकाइँण-गल दीप अनुक्रम [३०२] ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४२] गाथा II-II दीप अनुक्रम [ ३०४] कल्प. सुषो व्या० ९ ॥ १८४॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [४२] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: विन्दुयुतेन तथा सस्नेहेन - ईषदुदकयुक्तेन कायेन अशनादिकं ४ आहारयितुम् ॥ (४२)|| (से किमाहु भंते!) तत् कुतः पूज्या इति पृष्टे गुरुराह (सत्त सिणेहाययणा पण्णत्ता) सप्त स्नेहापतनानि जलावस्थानस्थानानि प्रज्ञप्तानि जिनैः येषु चिरेण जलं शुष्यति (तंजहा ) तद्यथा - ( पाणी १ पाणिलेहा २ नहा ३ नहसिहा ४ भमुहा ५ अहरोट्ठा ६ उत्तरोट्ठा ७) पाणी-हस्तौ १ पाणिरेखा-आयूरेखादयः, तासु हि चिरं जलं तिष्ठति २ नखा अखण्डाः ३ नखशिखाः- तदग्रभागाः ४ भमूहा- भ्रूत्रोर्ध्वरोमाणि ५ अहरुद्वा-दाढिका ६ उत्तरुद्वा-इमश्रूणि ७ (अह पुण एवं जाणिज्ञा विगओदर मे काए छिन्नसिणेहे, एवं से कप्पर असणं वा ४ आहारितए) अथ पुनः एवं जानीयात्-बिन्दुरहितः मम देहः सर्वथा निर्जलोऽभूत् तदा तस्य साधोः कल्पते अशनादिकं ४ आहारयितुं ॥ (४३)। ( वासावासं पल्लोसवियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां ( इह खलु निरगंधाण वा निग्गंधीण वा ) अन्न खलु साधूनां साध्वीनां च (इमाई अट्ठ सुमाई जाई छउमत्थेणं निरगंथेण वा निग्गंधीए वा ) इमानि अष्टौ सूक्ष्माणि यानि छद्मस्थेन साधुना सान्या च ( अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियवाई ) वारं वारं यत्रावस्थानादि करोति तत्र तत्र ज्ञातव्यानि सूत्रोपदेशेन ( पासिअाई) चक्षुषा द्रष्टव्यानि ( पडिलेहिअवाई भवंति ) ज्ञात्वा दृष्ट्वा च प्रतिलेखितव्यानि परिहर्त्तव्यतया विचारणीयानि सन्ति, (तंजहा ) तथथा - ( पाणसुमं १ पणगहु २ बीअसुहुमं ३ हरियमं ४ पुष्पसुमं ५ अंडसुमं ६ लेणमुहमं ७ सिणेहसुहुमं ८ ) सूक्ष्माः प्राणाः- कुन्थ्वादयः द्वीन्द्रियादयः १ सूक्ष्मः पनक:- फुल्लिः २ सूक्ष्माणि बीजानि ३ सूक्ष्माणि हरितानि ४ Jan Education! For File & Fersonal Use Only ~386~ आट्रैकरादावभोजनं सप्तस्नेहायतनानि सू. ४२-४३ २० २५ ॥ १८४ ॥ २८ anelbrary.org Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] .......... मूलं [४४] / गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४४] गाथा ||| 008090928 सूक्ष्माणि पुष्पाणि ५ सूक्ष्माणि अण्डानि ५ सूक्ष्माणि लयनानि-बिलानि ७ सूक्ष्मः लेहः-अप कायः ८(से अष्ट सूक्ष्माकिं तं पाणसुटुमे)तत् के सूक्ष्मप्राणाः?, गुरुराह-(पाणसुहमे पंचविहे पन्नते) सूक्ष्मप्राणाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ता तीर्थकरगणधरैः (तंजहा) तद्यथा-(किण्हे १ नीले २ लोहिए ३ हालिद्दे ४ सुकिल्ले ५) कृष्णा: नीला रक्ताः पीताः श्वेताः, एकस्मिन् वर्णे सहस्रशो भेदा बहुप्रकाराश्च संयोगास्ते सर्वे पञ्चसु कृष्णादिवर्णेष्वेव अवतरन्ति ( अस्थि कुंथू अणुद्धरी नामं जा ठिया अचलमाणा) अस्ति कुन्थुः अणुद्धरी नाम या स्थिता अचलन्ती सती (छउमत्थाणं निग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा नो चक्खुफासं हवमागच्छइ) छद्मस्थानां साधूनां साध्वीनां च नो दृष्टिविषयं शीघ्र आगच्छति (जाव छउमत्थेणं निग्गयेण वा निग्गंधीए वा अभिक्खणं अभि-18 क्खिणं जाणियबा पासियवा पडिलेहिया भवइ) यावत् छद्मस्थेन साधुना साध्व्या च वारंवारं ज्ञातव्या 8 द्रष्टव्याः प्रतिलेखितव्याश्च भवन्ति (से तं पाणसुहमे)ते सूक्ष्माःप्राणाः, ते हि चलन्त एव विभाव्यन्ते, न हि स्थानस्था:१॥(४४)॥ (से किं तं पणगसुहुने?)तत् का सूक्ष्मः पनकः, गुरुराह-(पणगसुहुमे पंचविहे १० पन्नत्ते) सूक्ष्मपनकः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः (तंजहा) तद्यथा (किण्हे जाव सुकिल्ले) कृष्णः यावत् शुक्लः (अस्थि पणगसुहमे तदवसमाणवन्नए नाम पन्नत्ते) अस्ति सूक्ष्मः पनकः यत्रोत्पद्यते तद्व्यसमानवर्णः प्रसिद्धः प्रज्ञसः (जे छउमत्थेणं निग्गंधेण वा निग्गंधीए वा जाव पडिलेहिअब्वे भवइ ) यश्छद्मस्थेन साधुना साध्व्या यावत् प्रतिलेखितव्यः भवति, पनक उल्ली, स च प्रायः प्रावृषि भूकाष्ठादिषु जायते, यत्रोत्पद्यते तद्रव्यस-11१४ दीप अनुक्रम [३०५] ES U jjanelbanyang. ... अथ अष्ट-सूक्ष्माणां वर्णनं क्रियते ~387~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४५] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४५] व्या०९ गाथा II-II कल्प.सुबो- मवर्णश्च, नाम पन्नत्तेत्यत्र नाम प्रसिद्धी (से तं पणगसहमे)स सूक्ष्मपनका २॥ (से किं तंबीअसुहमे?) अथ म मा कानि तत् सूक्ष्मबीजानि ?, गुरुराह-(वीयसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते) सूक्ष्मबीजानि पञ्चविधानि प्रज्ञप्तानि, (तंजहा) णि nmen|तद्यथा-(किण्हे जाव सुकिल्ले) कृष्णानि यावत् शुक्लानि (अस्थि बीअसुहुमे कणियासमाणवण्णए नाम || पण्णते) सन्ति सूक्ष्मधीजानि, वीजानां मुखमूले कणिका-नखिका 'नही' इति लोके तत्समानवर्णानि नाम: मज्ञप्तानि (जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियत्वे भवइ ) यानि छद्मस्थेन यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति ( से तं] बीअसुहमे ) तानि सूक्ष्मबीजानि ३॥ (से किं तं हरियसुहुमे?) अथ कानि तत् सूक्ष्महरितानि?, गुरुराह(हरियसुलुमे पंचविहे पत्रसे) सूक्ष्महरितानि पञ्चनिभानि प्रज्ञप्तानि, (संजहा) तद्यथा-(किण्हे जाव सुकिल्ला कृष्णानि यावत् शुक्लानि (अस्थि हरिअसुहुमे पुढवीसमाणवन्नए नाम पन्नत्ते) सन्ति सूक्ष्महरितानि पृथिवीसमानवर्णानि प्रसिद्धानि प्रज्ञप्तानि (जे निग्गंथेण वा २ जाव पडिलेहियत्वे भवइ ) यानि साधुना साध्व्या वा यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति (से तं हरियसुहुमे) तानि सूक्ष्महरितानि, हरितसूक्ष्म-नवोद्भिन्न पृथ्वीसमवर्ण हरितं, तचाल्पसंहननत्वात् स्तोकेनापि विनश्यति ३॥ (से किं तं पुष्फमुहुमे ?) अथ कानि तत् सूक्ष्मपुष्पाणि ?, गुरुराह-(पुष्फसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते) सूक्ष्मपुष्पाणि पञ्चविधानि प्रज्ञप्तानि, (तंजहा) ॥१८॥ तद्यथा-(किण्हे जाव सुकिल्ले) कृष्णानि यावत् शुक्लानि (अस्थि पुप्फमुहुमे रुक्खसमाणवन्ने नामं पन्नत्ते) सन्ति सूक्ष्मपुष्पाणि वृक्षसमानवर्णानि प्रसिद्धानि प्रज्ञप्तानि, सूक्ष्मपुष्पाणि वटोदुम्बरादीनां, तानि चोच्छासे-|| दीप अनुक्रम [३११] २८ SAMEducationa l ~388~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४५] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३११] Jan Educator दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्तिः) ........... व्याख्यान [९] मूलं [४५] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: नापि विराध्यन्ते (जे छडमत्थेणं जाव पडिलेहियत्रे भवइ ) यानि छद्मस्थेन यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति (से तं पुष्पसुद्दमे ) तानि सूक्ष्मपुष्पाणि ४ ॥ (से किं तं अंडमे ?) अथ कानि तत् सूक्ष्माण्डानि ?, गुरुराह - (अंडसुहमे पंचविहे पण्णत्ते) सूक्ष्माण्डानि पञ्चविधानि प्रज्ञप्तानि, (तंजा) तद्यथा - (उद्दसंडे १ उक्कलियंडे २ पिपीलियंडे ३ हलियंडे ४ हल्लोहलिअंडे ५) उद्देशा-मधुमक्षिका मत्कुणादयस्तेषां अण्डं उद्देशाण्ड १ उत्कलिका- लूतापूता 'कुलातरा' इति लोके तस्या अण्डं उत्कलिकाण्डं २ पिपीलिका:-कीटिकाः तासां अण्डं पिपीलिकाण्डं ३ हलिका-गृहकोलिका ब्राह्मणी वा तस्याः अण्डं हलिकांडं ४ हल्लोहलिआ-अहिलोडी सरटी 'कार्किडी' इति लोके तस्या अण्डं हल्लोहलिकाण्ड ५ ( जे निग्गंथेण वा २ जाव पडिलेहियवे भवइ ) यानि साधुना यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति ( से तं अंडसुहमे ) तानि सूक्ष्माण्डानि ६ ॥ ( से किं तं लेणसुहुमे ? ) अथ कानि तत् लयनं - आश्रयः सत्त्वानां यत्र कीटिकाद्यनेकसूक्ष्मसत्त्वा भवन्ति तल्लयनसूक्ष्मं - बिलानि ?, गुरुराह - ( लेणमुहमे पंचविहे पण्णले) सूक्ष्मविलानि पञ्चविधानि प्रज्ञप्तानि, (तंजहा ) तयथा - ( उतिंगलेणे १ भिंगलेणे २ उज्जुए ३ तालमूलए ४ संबुक्कावडे ५ नामं पंचमे) उत्तिङ्गा-भुवका गर्दभाकारा जीवास्तेषां बिलं-भूमौ उत्कीर्ण गृहं उत्तिङ्गलपनं १ भृगुः - शुष्कभूरेखा, जलशोषानन्तरं जलकेदारादिषु स्फुटिता दालिरित्यर्थः २ सरलं- बिलं ३ तालमूलाकारं - अधः पृथु उपरि च सूक्ष्मं बिलं तालमूलं ४ शम्बुकावर्त्त-भ्रमरगृहं नाम पञ्चमं ५ (जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियवे भवइ ) यानि छद्मथेन यावत् प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति ( से तं लेणसुहुमे ) तानि सूक्ष्म ~389~ अष्ट सूक्ष्मा णि ५ १० १४ janelbrary.org Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४५] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [४५] गाथा चाया II-II कल्प.सुबो-शविलानि ७॥ (से किं तं सिणेहसुहमे?) अथ कः तत् सूक्ष्मस्लेहः?, गुरुराह-(सिणेहसुहमे पंचविहे पण्णत्ते) आचार्या व्या०९ सूक्ष्मस्नेहः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, (तंजहा) तद्यथा-(उस्सा १ हिमए २ महिया ३ करए ४ हरतणुए ५) अवश्यायो-गनास्पतज्जलं १ हिमं प्रसिद्धं २ महिका-धूमरी ३ करका:-धनोपला ४ हरतनु:-भूनिःसृततृणान गमनादि ॥१८॥ विन्दुरूपो यो यवागुरादौ दृश्यते ५(जे छउमत्थेणं जाव पडिले हियत्वे भवइ) यः छमस्थेन साधुना यावत् प्रतिलेखितव्यः भवति (से तं सिणेहसुहुमे) सः सूक्ष्म लेहः ८॥ ॥(४५)॥ अथ ऋतुबद्धवर्षाकालयोः सामान्या सामाचारी वर्षासु विशेषेणोच्यते8 (वासावासं पजोसविए भिक्खू इच्छिना) चतुर्मासकं स्थितः साधु: इच्छेत् (गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ चा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं या, (नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता) तदा नो तस्य साधोः कल्पते अनापृच्छय, क? इत्याह-(आयरियं वा) आचार्य:-सूत्रार्थदाता दिगाचार्यों वा तं १ (उवज्झायं वा) सूत्राध्यापक उपाध्यायस्तं २(धेरं वा) स्थविरोIS ज्ञानादिषु सीदतां स्थिरीकर्ता उद्यतानामुपबृंहकश्च तं ३ (पवित्तिं वा) ज्ञानादिषु प्रवर्त्तयिता प्रवर्तकस्तं ४ (SI(गणि वा) यस्य पार्थे आचार्याः सूचाद्यभ्यस्यन्ति स गणीतं ५(गणहरं वा) तीर्थकरशिष्यो गणधरस्तं ६ ॥१८॥ (गणावच्छेअयं वा) गणावच्छेदको यः साधून गृहीत्वा बहिः क्षेत्रे आस्ते गच्छार्थ क्षेत्रोपधिमार्गणादौ प्रधावपदिकर्ता सूत्रार्थोभयवित् तं ७ (जं वा पुरओ काउं विहरइ) यं वाऽन्यं धयापर्यायाभ्यां लघुमपि पुरतः|| दीप अनुक्रम [३११] JABEnicaton H djanutbayog ~390~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४६] / गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४६] गाथा कृत्वा-गुरुत्वेन कृत्वा विहरन्ति (कप्पह से आपुच्छिउँ आयरियं वा जाव जं वा पुरओ कार्ड विहरह) आचार्याकल्पते तस्य आपृच्छच आचार्य यावत् यं वा पुरतः कृत्वा विहरति, अथ कथं प्रष्टव्यमित्याह-(इच्छामि गं याज्ञया गोभंते ! तुम्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) चयोंविहाइच्छाम्यहं हे पूज्य ! भवद्भिः अभ्यनुज्ञातः सन् गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वारभूम्यादि इति, (ते य से वियरिजा, एवं से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्वमित्तए पविसित्तए वा) ते आचार्यादयः 'से' तस्य साधोः वितरेयु:-अनुज्ञां दद्युः तदा कल्पते गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थं वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा (ते य से नो वियरिजा, एवं से नो कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा |निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) ते आचार्यादयः तस्य नो आज्ञां दद्युः तदा नो कल्पते गृहस्थगृहे भक्तार्थ हावा पानार्थे वा निष्क्रमितुं वा प्रबेष्टुं वा, (से किमाहु भंते!) तत् कुतो हेतोः हे पूज्य! इति पृष्टे गुरुराह (आयरिया पचवायं जाणंति) आचार्या प्रत्यपायं-अपायं तत्परिहारं च जानन्तीति ॥ (४६)॥(एवं बिहारभूमिं वा) एवमेव विहारभूमिः-जिनचैत्ये गमनं 'विहारो जिनसद्मनी' तिवचनात् (वियारभूमि वा) विचारभूमिः-शरीरचिन्ताद्यर्थ गमनं ( अन्नं वा किंचि पओअणं) अन्यद्वा यत्किञ्चित्प्रयोजनं लेपसीवन लिख-1॥ नादिकं खच्छासादिवर्ज सर्वमापृच्छयैव कर्तव्यमिति तत्त्वं ( एवं गामाणुगामं दृइजित्तए) एवं ग्रामानुग्राम || क.सु.३२ IS हिण्डितुं भिक्षाद्यर्थे ग्लानादिकारणे वा, अन्यथा वर्षासु ग्रामानुग्रामहिण्डनमनुचितमेव । (४७)॥ दीप अनुक्रम [३१४] ~391~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [४८] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३१६] कल्प. सुबोव्या० ९ ॥१८७॥ Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [४८] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ( वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिजा अन्नपरिं विगई आहारितए) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इच्छेत् अन्यतरां विकृतिं आहारयितुं तदा (नो से कप्पह अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव जं वा पुरओ काउं विहरह) नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्यं वा यावत् यं वा पुरतः कृत्वा विहरति (कप्पड़ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव आहारितए) कल्पते तस्य साधोः आपृच्छय आचार्य वा यावत् आहारयितुं कथं प्रष्टव्यमि त्याह - ( इच्छामि णं भंते! तुमेहिं अन्भणुन्नाए समाणे ) अहं इच्छामि हे पूज्य ! युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् (अन्नयरिं विगई आहारितए, तं एवइयं वा एवयखुत्तो वा अन्यतरां विकृतिं आहारथितुं तां एतावत एतावतो वारान् (ते य से वियरिया, एवं से कप्पड़ अन्नयरिं विगई आहारित) ते आचार्यादयः तस्य यदि आज्ञां दद्युः तदा तस्य कल्पते अन्यतरां विकृतिं आहारयितुं (ते य से नो बियरिला एवं से नो कपइ अन्नयरिं विगई आहारितए) ते आचार्यादयः तस्य नो यदि आज्ञां दद्युः तदा तस्य नो कल्पते अन्यतरां विकृति आहारयितुं (से किमाहु भंते!) तत् कुतो हेतोः हे पूज्य इति पृष्ठे गुरुराह - ( आयरिया पचवाय जाणंति ) आचार्याः लाभालाभं जानन्ति ॥ ( ४८ ) ॥ ( वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिला अन्नयरिं तेगिच्छं ) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इच्छेत् काञ्चित् चिकित्सां, वातिक १ पैत्तिक २ लेष्मिक ३ सान्निपातिक ४ रोगाणामातुर १ वैद्य २ प्रतिचारक ३ भैषज्य ४ रूपां चतुष्पादां चिकित्सां, तथा चोक्तम् - भिषग १ द्रव्या २ व्युपस्थाता ३, रोगी ४ पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्टं, प्रत्येकं तचतुर्गुणम् ॥ १ ॥ दक्षो ? For Pride & Personal Use On ~392~ विकृतचि - कित्सातपः संलेखना - विधिः स्. ४८-५१ २० २५ ॥ १८७॥ २८ janetbaly.org Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [४९] / गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४९] गाथा II-II विज्ञातशास्त्रार्थो २, दृष्टकर्मा ३ शुचि ४ भिषक । बहुकल्यं १ बहुगुणं २, सम्पन्नं ३ योग्यमौषधम् ४॥२॥ विकृतचिअनुरक्तः १ शुचि २ दक्षो ३, बुद्धिमान् ४ प्रतिचारकः। आढ्यो १ रोगी २ भिषगवश्यो ३, ज्ञायकः सत्त्व- कित्सातपः वानपि ४॥३॥ (आउहित्तए) कारयितुं, आउद्दिधातुः करणार्थे सैद्धान्तिकः (तं चेव सर्व भाणिअ सलेखनातदेव सर्व भणितव्यम् ॥ (४९) । (वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिजा) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इच्छेत् विधिः मू. (अन्नयरं ओरालं कल्लाणं सिवं धन्नं मंगलं सस्सिरीयं महाणुभावं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए) किञ्चित् प्रशस्तं कल्याणकारि उपद्रवहरं धन्यकरणीयं मङ्गलकारणं सश्रीकं महान् अनुभावो यस्य तत् तथा एवंविधं तपाकर्म आदृत्य विहां (तं चेव सर्व भाणियब) तदेव सर्व भणितव्यम् ॥(५०)। (वासावासं पज्जो-18 सविए भिक्खू इच्छिजा) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इच्छेत्, अथ कीडशो भिक्षुः-(अपच्छिममारणंतियसं-18 लेहणाजूसणाजूसिए) अपश्चिम-चरमं मरणं अपश्चिममरणं, न पुनः प्रतिक्षणमायुर्द लिकानुभवलक्षणं आवी-IR चिमरणं, अपश्चिममरणमेवान्तस्तन्न भवा अपश्चिममरणान्तिकी, संलिख्यते-कृशीक्रियते शरीरकषायाद्यनयेति संलेखना, सा च द्रव्पभावभेदभिन्ना 'चत्तारि विचित्ताई इत्यादिका तस्या 'जुसणं'ति जोषणं-सेवा तया 'जुसिए'त्ति क्षपितशरीरः, अत एव (भत्तपाणपडियाइक्खिए) प्रत्याख्यातभक्तपान:, अत एव (पाओवगए कालं अणवखमाणे विहरित्तए वा) पादपोपगतः-कृतपादपोगमन:, अत एव कालं-जीवितकालं मरणकालं वाऽनवकाङ्कन-अनभिलपन विहर्तुमिच्छेत् (निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा) गृहस्थगृहे निष्क्रमितुं दीप अनुक्रम [३१७]] JABETICA t ions ~393~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [५१] / गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५१] गाथा II-II कल्प.सबो-18वा प्रवेष्टुं वा (असणं वा ४ आहारित्तए वा) अशनादिकं ४ चा आहारयितुं (उच्चारं पासवणं वा परिठा- वखाद्याताच्या०९ वित्तए वा) उच्चार-पुरीषं प्रश्रवर्ण-मूत्रं परिष्टापयितुं वा ( सज्झायं वा करित्तए) खाध्यायं वा कर्नु (धम्म-IN पर्न मू.५२ जागरियंचा जागरित्तए) धर्मजागरिकां-आज्ञा १ ऽपाय २ विपाक ३ संस्थान विचय ४ भेदधर्मध्यान विधाना॥१८॥ दिना जागरणं धर्मजागरिका तां जागरितुं-अनुष्ठातुमिति (नो से कप्पई अणापुच्छित्ता तं चेष सबं) नो तस्य कल्पते अनापृच्छय तदेव सर्व वाच्यं, एतत् सर्व गुर्वाज्ञया एव कर्नु कल्पते ॥ (५१)॥ (घासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा) चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः इच्छेत् ( वत्थं वा पडिग्गहं वा २ कंबलं वा पायपुरुछणं वा) वस्त्रं वा पतदहं वा कम्बलं वा पादपोञ्छनं-रजोहरणं वा (अन्नयरिं वा उवहिं। आयावित्तए वा पयावित्तए चा) अन्यतरं वा उपधि आतापयितुं-एकवारं आतपे दातुं प्रतापयितुं-पुन: पुनरातपे दातुं इच्छति, अनातापने कुत्सापनकादिदोषोत्पत्से, तदा उपधावातपे दत्ते (नो से कप्पइ एग वा अणेगं| वा अपडिवित्ता) नो तस्य कल्पते एक या साधु अनेकान् वा साधून अप्रतिज्ञाप-अकथपिस्था (गाहावाकुलं भसाए वा पाणाए वा निक्खमित्तए चा पविसित्तए वा) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थे वा निष्क्रमितुं वा प्रबेष्ट २५ वा (असणं वा ४ आहारित्तए) अशनादिकं ४ वा आहारयितुं (बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा सज्झायं ॥१८८॥ |वा करित्तए, काउस्सगं वा ठाणं वा ठाइत्तए) बहिः विहारभूमि वा-जिनचैत्यगमनं, विचारभूमिः-शरीरचिमन्ताद्यर्थ गमनं खाध्यायंवा का,कायोत्सर्ग वास्थानं स्थातुं वृष्टिभयात्(अस्थि य इत्य केइ अहासन्निहिए एगे वा दीप अनुक्रम [३१९] 9669893 २८ ee ~394~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [५२] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३२०] Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [ ५२ ] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: अणेगे वा) यदि स्यात् अत्र कोऽपि निकटवर्ती एक: अनेको वा साधुः, तदा (कप्पर से एवं बहाए) कल्पते तस्य 'एवं वक्तुं (इमं ता अजो! तुमं मुद्दत्तगं जाणाहि ) इमं उपधिं त्वं हे आर्य ! मुहूर्तमात्रं जानीहि सत्यापयेः (जाव ताब अहं गाहाबइकुलं जाव काउसरगं वा ठाणं वा ठाइत्तए) यावत् अहं गृहस्थगृहे यावत् कायोत्सर्ग वा स्थानं वीरासनादि वा स्थातुं इति ( से य से पडिणिजा एवं से कप्पइ गाहावइकुलं तं चैव सव्वं भाणियध्वं ) स चेत् प्रतिशृणुयात् अङ्गीकुर्यात् तद्वस्त्रसत्यापनं तदा तस्य कल्पते गृहस्थगृहे गोचर्यादी गन्तुं अशनायाहारयितुं विहारभूमिं विचारभूमिं वा गन्तुं स्वाध्यायं वा कायोत्सर्ग वा कर्त्तुं स्थानं वा वीरासनादिकं स्थातुं तदेव सर्वं भणितव्यं ( से घ से नो पडिणिजा एवं से नो कप्पर गाहावरकुलं जाव ठाणं वा ठाइत्तर ) स चेत् नो अङ्गीकुर्यात्तदा तस्य नो कल्पते गृहस्थगृहे यावत् स्थानं वा स्थातुं ॥ ( ५२ ) ॥ ( वासावासं पोसवियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पड़ निरगंथाण वा निरगंथीण वा ) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां वा (अणभिग्गहिय सिजा सणिएणं हुत्तए) न अभिगृहीते शय्यासने येन सोऽनभिगृहीतशय्यासनः अनभिगृहीतशय्यासन एवं अनभिगृहीतशय्यासनिकः खार्थे इकप्रत्ययः तथाविधेन साधुना 'हुत्तएत्ति' भवितुं न कल्पते, वर्षासु मणिकुट्टिमेऽपि पीठफलकादिग्रहवतैव भाव्यं, अन्यथा शीतलायां भूमौ शयने उपवेशने च कुन्ध्यादिविराधनोत्पत्तेः ( आयाणमेयं ) कर्मणां दोषाणां वा आदानं-उपादानकारणं एतद्-अनभिगृहीतशय्यासनिकत्वं तदेव द्रढयति - ( अणभिरगद्दियसिज्जासणियस्स) अनभिगृहीतश For File & Fersonal Use Only ~ 395~ शय्याभिग्रहादि छ. ५३-५४ ५ १० १४ Metrory.org Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [५३] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३२०] कल्प. सुबो मा० ९ ॥ १८९ ॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५३ ] / गाथा [-] ........... व्याख्यान [९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: व्यासनिक इति प्राग्वत् तस्य (अणुचाकुइयस्स) उच्चा हस्तांदि यावत् येन पिपीलिकादेर्वधो न स्यात् सर्पादेव दंशो न स्यात्, अकुचा ' कुच परिस्पन्दे' इति वचनात् परिस्पन्दरहिता निश्चलेतियावत् ततः कर्मधारयः, एवंविधा शय्या-कम्बिकादिमयी सा न विद्यते यस्य सः अनुच्चाकुचिको नीचस परिस्पन्दशय्या कस्तस्य (अणट्ठावंधियस्स) अनर्थकवन्धिनः पक्षमध्ये अनर्थकं - निष्प्रयोजनं एकवारोपरि द्वौ श्रींश्चतुरो वारान् कम्बासु बन्धान् ददाति चतुरुपरि बहूनि अड्डकानि वा बध्नाति तथा च खाध्यायविघ्नपलिमन्धादयो दोषाः, यदि चैकाङ्गिकं चम्पकादिप लभ्यते तदा तदेव ग्राह्यं, बन्धनादिपलिमन्धपरिहारात् (अभियासणिग्रस्त ) अमिता|सनिकस्य - अबद्धासनस्य मुहुर्मुहुः स्थानात्स्थानान्तरं गच्छतो हि सववधः स्यात्, अनेकानि वा आसनानि सेवमानस्य ( अणाताविअस्स) संस्तारकपात्रादीनां आतपेऽदातुः (असमियरस ) ईर्यादिसमितिषु अनुपयुतस्य ( अभिक्खणं अभिक्खणं अपडिलेहणासीलस्स अपमज्ञणासीलस्स) वारंवारं अप्रतिलेखनाशीलस्य दृष्ट्या अप्रमार्जनाशीलस्य रजोहरणादिना ( तहारूवाणं संजमे दुराराहए भवइ ) तथारूपाणां ईदृशस्य साधोः संयमो दुराराधो भवति ॥ ( ५३ ) ॥ अत्र किरणावलीदीपिकाकाराभ्यां दुराराध्यो दुष्प्रतिपाल्य इति प्रयोगौ लिखितौ, तो चिंत्यो, 'दुःखीषतः कृच्छ्राकृच्छ्रार्थात् खल्' इतिसूत्रेण खलप्रत्ययागमनेन दुराराधइति दुष्प्रतिपाल इति च भवनात् न च वाच्यं आडा प्रतिना च व्यवधानात् खलु न भविष्यतीति 'उपसर्गो न व्यवधायीति न्यायात् किं च समागच्छतीत्यत्र आङा व्यवधानेन 'समो गमृच्छिपुच्छीत्यादिनाऽऽत्मनेपदा Jan Education freemations For Pride & Personal Use On ~ 396~ शय्याभिग्रहादि सू. ५३-५४ २० २५ ॥ १८९॥ २८ www.janbary.org Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [ ५४ ] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३२१] Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [ ५४ ] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: प्राप्तेः अस्य न्यायस्यानित्यत्वादत्रोपसर्गस्य व्यवधायकत्वं भविष्यतीत्यपि न वाच्यं, न हि खल्विषये उपसर्गस्य व्यवधायकत्वं, 'उपसर्गात् खलघम' खेतिसूत्रेण ईषत्प्रलंभं दुष्प्रलंभं इत्यादिप्रयोगज्ञापनादिति दिक । आदानमुतवाऽनादानमाह - ( अणायाणमेयं) कर्मणां दोषाणां वा अनादानं-अकारणं एतत्-अभिगृहीतशय्यासनि कत्वं उच्चाकुचशय्याकत्वं सप्रयोजनं पक्षमध्ये सकृच शय्याबन्धकत्वमिति, तदेव द्रढयति - (अभिग्गहियसिजासणियस्स) अभिगृहीतशय्यासनिकस्य (उच्चाकुइअस्स) उच्चाकुचिकस्य (अट्ठाबंधिस्स ) अर्थाय बन्धिनः (मियासणियस्स) मितासनिकस्य ( आयावियस्स ) आतापिनो-वस्त्रादेरातपे दातुः ( समियरस ) समितस्य- समितिषु दत्तोपयोगस्य ( अभिक्खणं अभिक्खणं पडिलेहणासीलस्स पमाणासीलस्स) अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं प्रतिलेखनाशीलस्य प्रमार्जनाशीलस्य ईदृशस्प साधोः ( तहा तहा संजमे सुआराहए भवइ ) तथा तथा-तेन तेन प्रकारेण संयमः सुखाराध्यो भवति ॥ ( ५४ ) ॥ (वासावासं पज्जोसबियाणं) चतुर्मासक स्थितानां (कप्पड़ निग्गंथाण वा णिग्गंधीण वा तओ उच्चारपासवणभूमीओ पडिलेहिसए) कल्पते साधूनां साध्वीनां तिस्रः उच्चारप्रश्रवणभूम्यः, अनधिसहिष्णो स्तिस्रोऽन्तः अधिसहिष्णोश्च बहिस्तिस्रो, दूरव्याघातेन मध्या भूमिस्तद्व्याघाते चासन्नेति आसन्नमध्यदूरभेदात्रिधा भूमिः प्रतिलेखितव्या (न तहा हेमंतगिम्हासु जहा णं वासासु ) न तथा हेमन्तग्रीष्मयोर्यथा वर्षासु ( से किमाहु भंते ! ) तत् कुतो हेतोः हे पूज्य ! इति पृष्टे गुरुराह - ( वासासु णं ओसन्नं पाणा य तणा य बीया य पणगा य For File & Fersonal Use Only ~397~ उच्चारादिभूमयः मू. ५५-५६ ५ १० १४ janelbrary.org Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [ ५६ ] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३२२] कल्प. सुबो व्या० ९ ॥ १९०॥ दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [ ५६ ] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: हरियाणि य भवति) वर्षासु 'ओसनं'ति प्रायेण प्राणाः - शङ्खनकेन्द्रगोपकृम्यादयस्तृणानि प्रतीतानि बीजानितत्तद्वनस्पतीनां नवोद्भिन्नानि किसलयानि पनका उल्लयो हरितानि - बीजेभ्यो जातानि एतानि वर्षासु बाहुल्येन भवन्ति ॥ ( ५५ ) ॥ वासावासं पज्जोसवियाणं) चतुर्मासक स्थितानां (कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तओ मत्तगाई गिन्हित्तए) कल्पते साधूनां साध्वीनां त्रीणि मात्रकाणि ग्रहीतुं (तंजहा ) तथथा (उदारमत्तए पासवणमत्तए खेलमन्तए) उच्चारमात्रकं १ प्रश्रवणमात्रकं २ खेलमात्रकं ३ मात्रका भावे वेलातिक्रमेण वेगधारणे आत्मविराधना वर्षति च वहिर्गमने संयमविराधनेति ॥ ( ५६ ) ॥ (बासावासं पजोसवियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पड़ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा ) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां च (परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्यमाणमित्तेऽवि केसे ) पर्युषणातः परं आषाढचतुमसकादनन्तरं गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थापनीयाः, आस्तां दीर्घाः, 'घुवलोओ व जिणाणं, निचं थेराण वासवासासु' इति वचनात् ( तं स्यणि उवायणावित्तए) यावत्तां रजनीं भाद्रपदसितपश्चमीरात्रिं साम्प्रतं चतुर्थीरात्रिं नातिक्रामयेत्, चतुर्थ्या अर्वागेव लोचं कारयेत्, अयं भावः- यदि समर्थस्तदा वर्षासु नित्यं लोचं कारयेद्, असमर्थोऽपि तां रात्रिं नोलङ्घयेत्, पर्युषणापर्वणि लोचं विना प्रतिक्रमणस्यावश्यमकल्प्यत्वात्, केशेषु हि अपकायविराधना, तत्संसर्गाच यूकाः संमूर्च्छन्ति, ताच कण्डूयमानो हन्ति, शिरसि नखक्षतं वा १ वो छोचस्तु जिनानां नित्यं स्थविराणां वर्षावासेषु ॥ ••• अत्र लोच विधिः दर्शयते For Pilde & Ferson Use O ~398~ लोचविधिः सू. ५७ २० २५ ॥ १९०॥ २७ anelbary.org Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [५७] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३२३] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [ ५७ ] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: स्यात्, यदि क्षुरेण मुण्डापयति कर्त्तर्या वा तदाऽऽज्ञा भङ्गायाः दोषाः संयमात्मविराधना, यूकारिछ्यन्ते नापितश्च पश्चात्कर्म करोति शासनापभ्राजना च ततो लोच एव श्रेयान् यदि चासहिष्णोलींचे कृते ज्वरादिर्घा स्यात् कस्यचिद् वालो वा स्यादू धर्म वा त्यजेत्ततो न तस्य लोच इत्याह- (अज्जेणं खुरमुंडेण वा लुकसिरएण वा होय सिया ) आर्येण साधुना उत्सर्गतो लुञ्चितशिरोजेन, अपवादतो वालग्लानादिना मुण्डितशिरोजेन भवितव्यं स्यात्, तत्र केवलं प्रासुकोदकेन शिरः प्रक्षाल्य नापितस्यापि तेन करौ क्षालयति, यस्तु क्षुरेणापि कारथितुमसमर्थो व्रणादिमच्छिरा वा तस्य केशाः कर्त्तर्या कल्पनीयाः । (पक्खिया आरोवणा ) पक्षे पक्षे संस्तारकदुबरकाणां बन्धा मोक्तव्याः प्रतिलेखितव्याचेत्यर्थः, अथवा आरोपणाप्रायश्चित्तं पक्षे पक्षे ग्राह्यं सर्वकालं, वर्षासु विशेषतः, (मासिए खुरमुंडे ) असहिष्णुना मासि मासि मुण्डनं कारणीयं (अद्धमासिए कसरिमुंडे ) यदि कर्त्तर्या कारयति तदा पक्षे पक्षे गुप्तं कारणीयं, धरकर्त्तर्योश्च लोचे प्रायश्चित्तं निशीथोक्तं यथासङ्ख्यं लघुगुरुमासलक्षणं ज्ञेयं । (छम्मासिए लोए) पाण्मासिको लोचः (संवच्छरिए वा धेरकप्पे स्थविराणां वृद्धानां जराजर्जरत्वेनासामर्थ्याद् दृष्टिरक्षार्थं च 'संवच्छरिए वा थेरकप्पे त्ति सांवत्सरिको वा | लोचः स्थविरकल्पे स्थितानामिति, अर्थात्तरुणानां चातुर्मासिक इति ॥ ( ५७ ) ॥ (घासावा पज्जोसवियाणं ) चतुर्मासकं स्थितानां (नो कप्पड़ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा ) नो कल्पते साधूनां साध्वीनां च ( परं पजोसवणाओ अहिगरणं वइत्तए) पर्युषणातः परं अधिकरणं- राटिस्तत्करं वच Jan Education Iremations For File & Fersonal Use Only ~399~ लोचविधिः सू. ५७ ५ १४ www.janelbrary.org Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र प्रत सूत्रांक [५८] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३२५] कल्प. सुबो व्या० ९ ॥१९१॥ Jan Education दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [ ९ ] ............. मूलं [ ५८ ] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: नमपि अधिकरणं तद्वक्तुं न कल्पते (जे णं निग्गंथो वा निग्गंधी वा परं पजोसवणाओ अहिगरणं वयइ) यश्च साधुः साध्वी वा पर्युषणातः परं अज्ञानात् क्लेशकारि वचनं वदति (से णं 'अकप्पेणं अजो वयसित्ति' वत्तवे सिया ) स एवं वक्तव्यः स्यात् हे आर्य ! त्वं अकल्पन-अनाचारेण वदसि, यतः पर्युषणादिनतोऽर्वाग तद्दिने एव वा यधिकरणं उत्पन्नं तत् पर्युषणायां क्षमितं यच त्वं पर्युषणातः परं अपि अधिकरणं वदसि सोऽयमकल्प इति भावः (जेणं निग्गंथो वा निग्गंथी वा परं पोसवणाओ अहिगरणं वयइ से णं निज्जूहियचे सिया ) यश्चैवं निवारितोऽपि साधुर्वा साध्वी वा पर्युषणातः परं अधिकरणं वदति स निहितव्यः - ताम्बूलिकपटष्टान्तेन सङ्घा यहिः कर्त्तव्यः, यथा ताम्बूलिकेन विनष्टं एवं अन्यपत्रविनाशनभयाद् वहिः क्रिगते तद्वदयमप्यनन्तानुबन्धिक्रोधाविष्टो विनष्ट एवेत्यतो बहिः कर्त्तव्य इति भावः, तथाऽन्योऽपि द्विजदृष्टान्तो यथा - खेटवास्तव्यो रुद्रनामा द्विजो वर्षाकाले केदारान् कष्टं हलं लावा क्षेत्रं गतो, हलं वाहयतस्तस्य गली बलीवई उपविष्टः, तोत्रेण ताड्यमानोऽपि यावन्नोत्तिष्ठति तदा कुद्धेन तेन केदारत्रयमृत्खण्डैरे वाहन्यमानो मृत्खण्डस्थगितमुख: श्वासरोधान्मृतः, पश्चात् स पश्चात्तापं विदधानो महास्थाने गत्वा ववृत्तान्तं कथयन्नुपशान्तो न वेति तैः पृष्टो नाद्यापि ममोपशान्तिरिति वदन् द्विजैरपाङ्केयश्चक्रे, एवं अनुपशान्तकोपतया वार्षिकपर्वणि अकृतक्षामणः साध्वादिरपि, उपशान्तोपस्थितस्यैव मूलं दातव्यं ॥(५८)|| ( वासावासं पञ्चोसवियाणं इह खलु निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा ) चतुर्मासकं स्थितानां इह निश्चयेन साधूनां साध्वीनां च (अज्जेव ••• पर्युषण-क्षामणा-विधिः कथयते For Private & Personal Use On ~400~ अधिकरण निषेधः मू. ५८ २० २५ ॥१९१॥ २८ brary.org Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [१९] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५९] गाथा II-II कक्खडे कडए विग्गहे समुप्पजिस्था) अयैव-पर्युषणादिने एव 'कक्खड'त्ति उच्चैःशब्दरूपः कटुको-जकार-दिनापरामकारादिरूपो विग्रह:-कलहः समुत्पद्यते तदा (सेहे राइणि खामिज्जा) शैक्षो-लघुः रालिकं-ज्येष्ठं क्षम- घक्षमणा यति, यद्यपि ज्येष्ठा सापराधस्तथापि लघुना ज्येष्टः क्षमणीयो व्यवहारात्, अर्थोपरिणतधर्मत्वाल्लघुज्येष्ठं न सू . ५९ क्षमयति तदा किं कर्तव्यमित्याह-(राइणिएवि सेहं खामिज्जा) ज्येष्ठोऽपि शैक्षं क्षमयति (खमियचं ॥ खमावियवं उपसमियई उवसामिया) ततः क्षन्तव्यं खयमेव क्षमयितव्यापर,उपशमितव्यं स्वयं उपशमयितव्यः परः (सुमइसंपुच्छणाबहुलेणं होयवंशोभना मतिःसुमतिः-रागद्वेषरहितता तत्पूर्व या सम्पृच्छना-सूत्राविषया समाधिप्रश्नो वा तहहुलेन भवितव्यं, येन सहाधिकरणमुत्पन्नमासीत्तेन सह निर्मलमनसा आलापादि। कार्यमिति भावः, अथ द्वयोमध्ये यद्यकः क्षमयति नापरस्तदा का गतिरित्याह-(जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा,जोन उवसमइ तस्स नस्थि आराहणा) य उपशाम्यति अस्ति तस्याराधना, यो नोपशाम्यति नास्ति तस्याराधना(तम्हा अप्पणा चेव उवसमिय) तस्मात् आत्मना एव उपशमितव्यं,(से किमाहु भंते !) तत् कुतो हेतोः हे पूज्य इति पृष्टे गुरुराह-(उवसमसारं खु सामन्नं) उपशमप्रधानं श्रामण्यं-श्रमणत्वं, अत्र दृष्टान्तो यथा -सिन्धुसौवीरदेशाधिपतिर्दशमुकुटबद्धभूपसेव्य उदयनराजो विद्युन्मालिसमर्पितश्रीवीरप्रतिमार्चनागतनी-1 रोगीभूतगन्धारश्राद्धार्पितगुटिकाभक्षणतो जाताद्भुतरूपायाः सुवर्णगुलिकाया देवाधिदेवप्रतिमायुताया अपका हर्तारं मालवदेशभूपं चतुर्दशभूपसेव्यं चण्डप्रद्योतराज देवाधिदेवप्रतिमाप्रत्यानयनोत्पन्नसङ्ग्रामे बध्वा पश्चा दीप अनुक्रम [३२६] Seeeaso90SOSO900000 ~401~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [५९] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक व्या०९ [५९] गाथा II-II मा २० सचोदागच्छन् दशपुरे वर्षासु तस्थौ, वार्षिकपर्वणि च खयमुपवासं चक्रे, भूपादिष्टम्पकारेण भोजनार्थ पृष्टेन तद्दिनापरा चण्डप्रद्योतेन विषभिया श्राद्धस्य ममाप्यद्योपवास इति प्रोक्ते धूर्त्तसाधर्मिकेऽप्यस्मिन्नक्षमिते मम प्रतिक्रमणं क्षमणा न शुक्ष्यतीति तत्सर्वखप्रदानतस्तद्भाले मम दासीपतिरित्यक्षराच्छादनाप खमुकुटपट्टदानतश्च श्रीउदयनराजेनसू. ५९ ॥१९२॥ चण्डप्रद्योतः क्षमितः, अत्र श्रीउदयनराजस्यैवाराधकत्वं, तस्यैवोपशान्तत्वात् । कचिच्चोभयोरप्याराधकवं, | तथाहि--अन्यदा कौशाम्ब्यां सूर्याचन्द्रमसौ खविमानेन श्रीवीरं वन्दितुं समागच्छतः स्म, चन्दना च दक्षा अस्तसमयं विज्ञाय खस्थानं गता, मृगावती च सूर्यचन्द्रगमनात्तमसि विस्तृते सति रात्रि विज्ञाय भीता 18 उपाश्रयमागत्यर्यापथिकी प्रतिक्रम्य निद्राणां चन्दनां प्रवर्तिनी क्षम्यतां मर्मापराध इत्युक्तवती, चन्दनापि भद्रे। कुलीनायास्तदृशं न युक्तमित्युवाच, साऽप्यूचे-भूयो नेदृशं करिष्ये इति पादयोः पतिता तावता प्रवर्तिन्या निद्राऽऽगात्, तया च तथैव क्षमणेन केवलं प्राप्त, सर्पसमीपात् करापसारणव्यतिकरेण प्रबोधिता प्रवर्तिन्यपि कथं सर्पोऽज्ञायीति पृच्छन्ती तस्याः केवलं ज्ञात्वा मृगावती क्षमयन्ती केवलमाससाद, तेनेदृशं मिथ्यादुष्कृतं देयं, न पुनः कुम्भकारक्षुल्लकदृष्टांतेन, तथाहि-कश्चित् क्षुल्लको भाण्डानि काणीकुर्वन् कुम्भ- २५ कारेण निवारितो मिथ्यादुष्कृतं दत्ते न पुनस्ततो निवर्तते, ततः स कुम्भकारोऽपि कर्करैः क्षुल्लककर्णमोदनं ॥१९२॥ कुर्वन् पुनः पुनः क्षुल्लेन पीडयेऽहमित्युक्तोऽपि मुधा मिध्यादुष्कृतं ददी ।। (५९)॥ (यासावासं पज्जोसबियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा तओ उवस्सया || २८ दीप अनुक्रम [३२६] ~402 ~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र *** प्रत सूत्रांक [६०] गाथा II-II दीप अनुक्रम [३२७] क.सु. ३३ Jan Education! दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) ........... व्याख्यान [९] मूलं [६०] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: गिहितए) कल्पते साधूनां साध्वीनां च त्रीन् उपाश्रयान् ग्रहीतुं (तंजहा ) तद्यथा ( बेउल्विया पडिलेहा ) जन्तु संसक्त्यादिभयात् तत्र- त्रिषु उपाश्रयेषु द्वौ पुनः पुनः प्रतिलेख्यौ, द्रष्टव्यौ इति भावः ( साइजिया पमज्जणा ) साइज्जिधातुराखादने, ततः उपभुज्यमानो य उपाश्रयस्तत्सम्बन्धिनी प्रमार्जना कार्या, यतो यस्मि पाश्रये साधवस्तिष्ठन्ति तं प्रातः प्रमार्जयन्ति पुनर्भिक्षां गतेषु साधुषु पुनस्तृतीयमहरान्ते चेति वारत्रयं, ऋतुबद्धे च वारद्वयं, असंसक्तेऽयं विधिः, संसक्ते च पुनः पुनः प्रमार्जयन्ति, शेषोपाश्रयद्वयं तु प्रतिदिनं दशा पश्यन्ति, कोऽपि तत्र ममत्वं मा कार्षीदिति, तृतीयदिने च पादप्रोञ्छनेन प्रमार्जयन्तीति, अत उक्तं 'वेउधिया पडिलेह'त्ति ॥ (६०) ॥ ( वासावासं पज्जोसवियाणं ) चर्तुमासकं स्थितानां (निगंधाण वा निग्गंधीण वा ) साधूनां साध्वीनां च ( कप्पड़ अन्नयरिं दिसिं वा अणुदिसिं वा अवगिज्झिय भतं वा पाणं वा गवेसित्तए) कल्पते अन्यतरां दिशं- पूर्वादिकां अनुदिशं-आग्नेय्यादिकां विदिशं अवगृह्य-उद्दिश्य अहममुकां दिशं अनुदिशं वा यास्यामीत्यन्यसाधुभ्यः कथयित्वा भक्तपानं गवेषयितुं, ( से किमाहु भंते! ) तत् कुतो हेतोः हे पूज्य ! इति पृष्टे गुरुराह - ( उस्सणं समणा भगवंतो वासासु तवसंपत्ता भवंति ) 'उस्सन्न'न्ति प्रायः श्रमणा भगवन्तो वर्षासु तपः सम्प्रयुक्ताः - प्रायश्चित्तवहनार्थं संयमार्थ लिग्धकाले मोहजयार्थं वा षष्ठादितपश्चारिणो भवन्ति (तवस्सी दुब्बले किलते मुच्छि वा पवडिज वा) ते च तपखिनो दुर्बलास्तपसैव कृशाङ्गाश्च अत एव क्लान्ताः For Filde & Personal Use On ~403~ वसतिविधिः पृष्टा गमनं स. ६०-६२ ५ १० १४ janelbary.org Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान [१] .......... मूलं [६१] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [६१] गाथा कल्प.सुबो-18 सन्तः कदाचिन्मूठेयुः प्रपतेयुर्वा (तमेव दिसं वा अणुदिसं वा समणा भगवंतो पडिजागरंति) ततःकल्पाराधव्या०९ तस्यामेव दिशि अनुदिशि वा उपाश्रयस्थाः श्रमणाः भगवन्तः सारां कुर्वन्ति-गवेषयन्ति, अकथयित्यानफलं उप॥१९३॥ गतांस्तु कुत्र गवेषयन्ति ? ॥ (६१)(वासावासं पज्जोसवियाणं) चतुर्मासकं स्थितानां (कप्पह निग्ग- संहारो वीथाण वा निग्गंधीण वा ) कल्पते साधूनां साध्वीनां च (जाव चत्तारि पंच जोयणाई गंतुं पडिनियत्तएरोक्तता वोंकल्पौषधवैद्यार्थ ग्लानसाराकरणार्थ वा यावच्चत्वारि पञ्च योजनानि गत्वा प्रतिनिवर्सितुं कल्पते, न तु तत्र .६३-६४ स्थातुं कल्पते, स्वस्थान प्राप्तुमक्षमश्चेत्तदा (अंतरावि से कप्पइ वत्थए, नो से कप्पड़ तं रयणि तत्थेव उवायणा-16 वित्तए ) तस्यान्तराऽपि वस्तुं कल्पते, न पुनस्तत्रैव, एवं हि वीर्याचाराराधनं स्यादिति, यत्र दिने वर्षाकल्पादि| पलब्धं तद्दिनरात्रि तत्रैव तस्य नातिक्रमयितुं कल्पते, कार्ये जाते सद्य एव बहिनिर्गत्य तिष्ठेदिति भावः ॥(६२)018 (इचेयं संवच्छरिअंधेरकप्पं ) इतिरुपप्रदर्शने सं-पूर्वोपदर्शितं सांवत्सरिक-वर्षारात्रिकं स्थविरकल्पं (अहासुत्तं) यथा सूत्रे भणितं तथा, न तु सूत्रविरुद्धं ( अहाकप्पं ) यथा अत्रोक्तं तथा करणे कल्पोऽन्यथा खकल्प इति यथाकल्पं, एतत्कुर्वतश्च (अहामग्गं ) ज्ञानादित्रयलक्षणो मार्ग इति यथामार्ग (अहातचं) अत २५ एव यथातथ्यं सत्यमित्यर्थः (सम्म) सम्यग-यथावस्थितं (कारण) उपलक्षणत्वात्कायवाझानसैः (फासित्ता) ॥१९॥ स्पृष्ट्वा-आसेव्य (पालिसा) पालयिखा-अतिचारेभ्यो रक्षयित्वा (सोभिसा) शोभिवा विधिवत्करणेन (तीरित्ता) तीरयित्वा-यावज्जीवं आराध्य (किट्टित्ता) कीर्तयित्वा-अन्येभ्य उपदिश्य (आराहिता) २८ दीप अनुक्रम [३२८] ~404 ~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [१] .......... मूलं [६३] / गाथा 1] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६३] गाथा II-11 आराध्य यथोक्तकरणेन (आणाए अणुपालित्ता) आज्ञया-जिनोपदेशेन यथा पूर्वः पालितं तथा पश्चात् कल्पाराधपरिपाल्य (अत्थेगइआ समणा निग्गंथा) सन्त्येके ये अत्युत्तमया तत्पालनया श्रमणा निर्ग्रन्थाः (तेणेवनफलं उपभवग्गहणेणं सिझंति) तस्मिन्नेव भवग्रहणे-भवे सिद्ध्यन्ति-कृतार्था भवन्ति (बुझंति) बुद्ध्यन्ते केवलज्ञा-संहारो वी|नन (मुचंति ) मुच्यन्ते कर्मपञ्जरात् (परिनिवार्यति) परिनिर्वान्ति-कर्मकृतसर्वतापोपशमनात् शीतीभवन्ति रोक्कता (सबदुक्खाणमंतं करिंति) सर्वदुःखानां शारीरमानसानां अन्तं कुर्वन्ति, (अत्धेगहआ दुवेणं भवग्गहणेणं .१३-६४ सिझंति जाव अंतं करिति) सन्त्येके ये उत्तमया तु तत्पालनया द्वितीयभवग्रहणे सियन्ति यावत अन्तं कुर्वन्ति, (अत्धेगहआ तच्चेणं भवग्गणेणं जाव अंतं करिति) सन्त्येके ये मध्यमया तत्पालनया तृतीयभवे पावत् अन्तं कुर्वन्ति, (सत्त भवग्गहणाई पुण माइकमंति) जयन्पयापि एतदाराधनया सप्ताष्ट भवास्तु पुनः नातिक्रामन्तीति भावः ॥ (६३)॥ अधैतत् न खबुद्ध्या प्रोच्यते किन्तु भगवदुपदेशपारतंत्र्येण इत्याह (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले-चतुर्थारकपर्यन्ते (तेणं समएणं) तस्मिन् समये (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (रायगिहे नगरे) राजगृहे नगरे समवसरणावसरे (गुणसिलए चेहए ) गुणशैल-1॥ नामचैत्ये (बहूर्ण समणाणं) बहूनां श्रमणानां (बहूणं समणीगं) बहूनां श्रमणीनां (यहूर्ण सावयाणं) बदनां श्रावकाणां (बहणं साबियाणं) पहनां श्राविकाणां (बहणं देवाणं) बहूनां देवानां (बहुणं देवीणं) बहूनां देवीनां (मझगए चेव) मध्यगत एव, न तु कोणके प्रविश्य प्रच्छन्नतयेति भावः (एवमाइक्खह) 2005200 दीप अनुक्रम [३३०] ~405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान [९] .......... मूलं [६४] / गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६४] गाथा II-II सामनाएषमाख्याति-कथयति (एवं भासह) एवं भाषते वाग्योगेन (एवं पण्णवेइ) एवं प्रज्ञापयति फलकथनेनश श्रीवीरोव्या०९ (एवं परवेइ) एवं प्ररूपयति, दर्पणे इव श्रोतृहदये सङ्कमयति (पजोसवणाकप्पो नामं अज्झयण) पर्युष राणाकल्पो नाम अध्ययनं (सअ९) अर्थेन-प्रयोजनेन सहितं, न तु निष्प्रयोजन (सहेउअं) सहेतुकं, हेतयो ॥१९॥ निमित्तानि, यथा गुरुन् पृष्ठा सर्व कर्तव्यं, तत् केन हेतुना ?, यतः आचार्याः प्रत्यपायं जानन्तीत्यादयो हेत-18॥ वस्तैः सहितं (सकारणं) कारणं-अपवादो यथा 'अंतराऽविय से कप्पईत्यादिस्तेन सहितं (ससुत्तं) सूत्रसहितं (सअस्थं) अर्थसहितं (सउभयं) उभयसहितं च (सवागरणं) व्याकरणं-पृष्टार्थकथनं तेन सहितं सव्याकरणं (भुजो भुजो उवदंसेइत्ति बेमि) भूयो भूय उपदर्शयति, इत्यहं ब्रवीमीति श्रीभद्रबाहुस्वामी खशिष्यान् प्रतीदमुवाचेति ।। (६४)।। (इति पजोसवणाकप्पो दसामुअक्खंधस्स अहममज्झयणं समत्तं) इति श्रीपर्युषणाकल्पो नाम दशाश्रुतस्कन्धस्याष्टममध्ययनं समर्थितम् ॥ potoashvasevaasaramsatanamavasnaseepeavesastratwanasaitana इति जगद्गुरुभट्टारकश्रीहीरविजयसूरीश्वरशिष्यरत्नमहोपाध्यायश्रीकीर्तिविजयगणिशिष्योपाध्याय ॥१९॥ ___ श्रीविनयविजयगणिविरचितायां श्रीकल्पभूत्रसुबोधिकायां सामाचारीव्याख्यानं सम्पूर्णम् ॥ समाप्तश्चायं सामाचारीव्याख्याननामा तृतीयोऽधिकारः॥ bastaSERSEASERSERSEASERSERSERKERSERSISTENSERserreserseil दीप अनुक्रम [३३१] BURGERSEAS JABEnication नवम व्याख्यानं समाप्त ~406~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सूत्र =ཡྻཱཀསྶ II-II अनुक्रम [-] दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ “कल्पसूत्र” - (मूलं + वृत्ति:) मूलं [-] / गाथा [-] .......... व्याख्यान [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. दशाश्रुतस्कंध अध्ययन-८ “कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी रचिता वृत्तिः: ॥ अथ प्रशस्तिः- आसीद्वी रजिनेन्द्रपपदवी कल्पद्रुमः कामदः, सौरभ्योपहृतप्रबुद्धमधुपः श्रीहीर सूरी श्वरः । शास्त्रोत्कर्षमनोरमस्फुरदुरुच्छायः फलप्रापकश्चश्ञ्चन्मूलगुणः सदाऽतिसुमनाः श्रीमान् मरुत्पूजितः ॥ १ ॥ यो जीवाभयदानडिण्डिममिषात् स्वीयं यशोडिण्डिमं, पण्मासान् प्रतिवर्षमुग्रमखिले भूमण्डलेऽवीवदत् । भेजे धार्मिकतामधर्मरसिको म्लेच्छाग्रिमोऽकञ्चरः, श्रुत्वा यद्वदनादनाविलमतिर्धर्मोपदेशं शुभम् ॥ २ ॥ तत्पद्दोन्नत पूर्व पर्वतशिरः स्फूर्त्तिक्रियाहर्मणिः सूरिः श्रीविजयादिसेन सुगुरुर्भच्येष्टचिन्तामणिः । शुभ्रैर्यस्य गुणैरिवानघ (गुणैर्गुणैरिव) घनैरावेष्टितः शोभते, भूगोलः किल यस्य कीर्तिसुदृशः क्रीडाकृते कन्दुकः ॥ ३ ॥ येनाकच्चरपर्षदि प्रतिभटान्निर्जित्य वाग्वैभवैः, शौर्याश्चर्यकृता वृत्ता परिवृता लक्ष्म्या जयश्रीकनी । चित्रं मित्र ! किमत्र मित्र महसस्तेनास्य वृद्धा सती, कीर्त्तिः पत्यपमानशङ्कितमना याता दिगन्तानितः ॥ ४ ॥ विजयतिलक सूरिर्भूरि सूरिप्रशस्यः, समजनि मुनिनेता तस्य पट्टेऽच्छ चेताः । हरहसित हिमानी हंसहा रोज्वलश्री त्रिजगति वरिवर्ति स्फूर्त्तियुग यस्य कीर्त्तिः ॥ ५ ॥ तत्पट्टे जयति क्षितीश्वरत तिस्तुत्याहिपङ्केरुहः, सूरिर्दुरितदुःखवृन्दविजयानन्दः क्षमाभृद्विभुः । यो गौरैर्गुरुभिर्गुणैर्गणिवरं श्रीगौतमं स्पर्द्धते, लब्धीनामुदधिर्दधीयितयशाः शास्त्राधिपारं गतः ||६|| यच्चारित्रमखिन्नकिन्नरगणैजेंगीयमानं जगज्जाग्रजन्मजराविपत्तिहरणं श्रुत्वा जयन्तीपितुः वाञ्छापूर्त्तिमियर्त्ति युग्ममथ तल्लेभे सहस्रं स्पृहावैयम्यं गुणरागिणोऽग्रिमगुणग्रामाभिरामात्मनः ॥ ७ ॥ किञ्च - श्रीहीरसूरिगुरोः प्रवरौ विनेयौ जातौ शुभौ सुरगुरोरिव पुष्पदन्तौ । श्रीसोमसोमविजयाभिध ••• अथ वृत्तिकारः कृता प्रशस्तिः दर्शयते For Filde&Fersonal Use On ~ 407~ प्रशस्तिः ५ १० १४ www.janebary.org Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) ........... व्याख्यान .......... मूलं [1] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राका गाथा II-II कल्प.सबो-वाचकेन्द्र, सत्कीर्तिकीतिविजयाभिधवाचकश्च ॥८॥ सौभाग्यं यस्य भाग्यं कलयितुममलं का क्षमा सक्षमस्य, प्रशस्तिः व्या०९ नो चित्रं यच्चरित्रं जगति जनमनः कस्य चित्रीयते स्म । चक्राणा मूर्खमुख्यानपि विबुधमणीन् हस्तसिद्धिर्य दीया, चिन्तारत्नेन भेदं शिथिलयति सदा यस्य पादप्रसादः॥९॥ आबाल्यादपि यः प्रसिद्धमहिमा वैरङ्गि॥१९५॥ कग्रामणी, प्रष्ठः शाब्दिकपत्रिषु प्रतिभटैर्जय्यो न यस्तार्किकैः । सिद्धान्तोदधिमन्दरः कविकलाकौशल्य-II कीर्त्यद्भवः, शश्वत्सर्वपरोपकाररसिकः संवेगवारांनिधिः॥१०॥ विचाररत्नाकरनामधेयप्रश्नोत्तराद्यद्भतशास्त्र-। वेधाः । अनेकशास्त्रार्णवशोधकश्च, यः सर्वदैवाभवदप्रमत्तः॥११॥ तस्य स्फुरदुरुकीतर्वाचकवरकीर्तिविज- २० यपूज्यभ्य । विनयविजयो विनेयः सुबोधिकां व्यरचयत्कल्पे ॥ १२ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ समशोधयंस्तथैना पण्डितसंविग्नसहृदयवतंसाः । श्रीविमलहर्षवाचकवंशे मुक्तामणिसमानाः ॥१३॥ धिषणानिर्जितधिषणाः सर्वत्र प्रसृत(कान्त)कीर्तिकर्पूराः । श्रीभावविजयवाचककोटीराः शास्त्रवसुनिकषाः ॥ १४॥ युग्मम् ।। रसनिधिरसशशिवर्षे (१६९६) ज्येष्ठे मासे समुज्वले पक्षे । गुरुपुष्ये यनोऽयं सफलो जज्ञे द्वितीयायाम् ॥ १५॥ श्रीरामविजयपण्डितशिष्यश्रीविजयविबुधमुख्यानाम् । अभ्यर्थनापि हेतुर्विज्ञेयोऽस्याः कृती विवृतेः ॥ १६ ॥18॥ | यावद्धात्रीमृगाक्षी धरणिधरभरश्रीफलैः पूर्णगर्भ, चश्चदृक्षौघदर्भ निषधगिरिमहाकुङ्कुमामत्रचित्रम् । जम्बू-R॥१९५॥ दीपाभिधानं हिमगिरिरजतं मङ्गलस्थालमेतद्धत्ते तावत् सुयोधा विवुधपरिचिता नन्दतात् कल्पवृत्तिः॥१७॥|| यावद्व्योमतरङ्गिणी जलमिलत्कल्लोलमालाकुला, दिग्दन्तावलकीर्णपुष्करकणासेकमणष्टश्रमम् । ज्योतिश्चक्रम दीप अनुक्रम २५ Econo parvaro ~408~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प सत्र दशाश्रुतस्कंध-अध्ययनं-८ "कल्पसूत्र"- (मूलं+वृत्ति:) .......... व्याख्यान H] .......... मूलं -1 / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: सत्राक प्रशस्तिः नुक्रमेण नभसि भ्राम्पत्यजनं क्षिती, तावन्नन्दतु कल्पसूत्रविवृतिर्विद्वजनराश्रिता ॥ १८॥ इति श्रीकल्पसुबो- धिकावृत्ति सम्पूर्णा ।। ग्रन्थानम् (८०५)। नवानामपि व्याख्यानानां ग्रन्थाग्रम् (६५८०) (प्रत्यक्षरं गणनया, ग्रन्थमानं शताः स्मृताः । चतुष्पञ्चाशदेतस्यां, वृत्ती सूत्रसमन्वितम् ॥१॥) इति श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ६१. गाथा II-II SaareGOD928292020 दीप अनुक्रम A njanutbraryana मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: “कल्पसूत्र” (विनयविजयजी रचिता सुबोधिका-वृत्तिः) परिसमाप्ता ~ 409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..दशाश्रुतस्कंध-अध्ययन-८ "कल्पसूत्र" मूलं एवं विनयविजयजी-रचिता वृत्ति:: इति श्रीसुबोधिकानाम्नी कल्पसूत्रटीका समाप्ता। इति श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ६१. ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “कल्पसूत्र” [विनयविजयजी-रचिता सुबोधिका-वृत्तिः] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) 'मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “कल्पसूत्र" मूलं एवं सुबोधिका-वृत्ति:" नाम्ना परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' | ~411~