Book Title: Bhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Author(s): Tilakdhar Shastri
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के राजा भारत का प्रारुत शान नाम - - Yसस्य ASIA . AZA INDIA KAR 14 : PRINC 47 AF-ING ENTRY htra Poor RAN CHANA COM 24 ABER A . Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोsत्युष समणस्स भगवो महावीरस्स पच्चीसवी महावीर निर्माण शताब्दी के उपलक्ष्य मे भगवान महावीर के परागत महावीर : जीवन-रेखाएं सम्पादक : श्री तिलकधर शास्त्री (सम्पादक भारम रश्मि ) B आचार्य श्री आत्मा राम जैन प्रकाशन समिति जैन स्थानक, लुधियाना Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय विवरणिका घाचार्य श्री प्रात्मा राम जैन प्रकाश-समिति ही पजाब मे एक | पुस्तक पञ्च कल्याणक मान ऐसी सस्था है जो निरन्तर प्रेरक श्री मुनि फूलचन्द जी श्रमण श्री सघ की साहित्यिक मेवा कर रही है । मब तक ममिति द्वारा प्रास्ताविक व्या वा श्री क्रान्ति मुनि जी म. लगभग २७ अन्ध प्रकाशित हो सम्पादक श्री तिलकधर शास्त्री प्रस्तुत 'पञ्चकल्याणक' पुस्तक च्यवन | प्रो० मुलखराज जैन एम, ए पच्चीसवी महावीर निर्वाण शताब्दी के पावन वर्ष में किया गया जन्म | श्री तिलकधर शास्त्री एक महान माहित्यिक प्रयास है जो जन-धर्म-दिवाकर पजाब-दीक्षा श्री ज्ञान मुनि जी महागज प्रवर्तक मुनि श्री फूल चन्द जी केवल-जान श्री मनोहर मुनि जी महाराज श्रमण महाराज एव दिद्वद्रत्न श्री रल मुनि जी महाराज की प्रेरणा निर्वाण | श्री मुनि नेमिचन्द्र जी महाराज का फल है । इसमें विद्वान् मुनीप्रवरी एवं लेखको ने अत्यन्त परि- | वचनामृत ) श्री श्रमण जी महाराज अम एव गवेषणा पूर्वक भगवान । मृद्रक आत्म जैन प्रिंटिंग प्रेस महावीर का जीवन प्रस्तुत किया है हम ममिति की ओर से इम ३५०, इण्डस्ट्रियल एरिया-ए, कृति का अभिनन्दन करते हैं। समिनि ने प्रस्तुत पुस्तक के लुधियाना-३ प में 'लाई महावीर फाउण्डेशन' के साहित्य प्रकाशन के लक्ष्य को प्रकाशक । प्राचार्य श्री प्रान्माराम जैन मी पूर्ण करने की दिशा में यह ।। प्रकाशन ममिति, नहान प्रयास किया है। इस पुस्तक के प्रकाशनार्य द्रव्य जैन स्थानक, लुधियाना महायता प्री स्वरूपचन्द जी जैन अर्थव्यवस्था सेठ सीताराम गप्ता गोविन्दगढ गोविन्दगढ़, में० सीताराम गुप्ता गोविन्दगद, सागरमल जैन एण्ड सागर मल जैन एण्ड कम्पनी , कम्पनी गोविन्दगढ. मै० कन्या लाल एण्ड मम गोविन्दगढने की ला० कन्हया लाल एण्ड सन्स , , है । इस महान् पुण्य कार्य के लिये मैं समिति की ओर से इव श्री स्वरूपचन्द्र जैन गोविन्दगढ़ मर को शत-शत धन्यवाद देता है सन्तरण । प्रथम पौर आया करता हूँ कि ये हम इसी प्रकार समोर देते रहेगे । वीर मम्वत २५०१ नस्वन्तराय जैन विक्रम सम्वत २०३२ प्रज्ञान - -- - - -- memasomaadhaarope wor Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जो हमारे लिये वरेण्य है, शरेण्य है जिनकी प्रेरणा ने प्रस्तुत पुस्तक पञ्च कल्याणक को पूर्ण किया है उन्हीं जैन-धर्म- दिवाकर पंजाब - प्रवर्तक मुनि श्री फूलचन्द 'श्रमण' जी के कर-कमलो मे सादर समर्पित - स्वरूप चन्द जैन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Un १६.४० १ व्या. वा श्री क्रान्तिमुनि जी म प्रास्ताविक पृ० नों २ प्रो० मुलखराज जैन एम ए च्यवन-कल्याण १-१८ नयसार के रूप मे । परीचि के रूप मे . कौशिक के रूप मे। त्रिपृष्ठ वासुदेव के ' रूप मे। प्रियमिन्न के रूप में । नन्दन के रूप मे। ३. श्री तिलकघर शास्त्री जन्म-कल्याणक पथ की प्राचीनता । महावीर की आवश्यकता । वैशाली का सौभान्य जागा । जन्म कल्याणक का समय। माता की धन्यत्ता पिता की सिद्धार्थता। वीर की वीरता प्रत्यक्ष हो उठी। देवत्व ने मानवता के चरण पकडे । अनेकान्त का जन्म । पूर्व जन्माजित विद्या । तानी उलझी सुलझने के लिये। ज्वालामुखी उफनने लगा। मुक्ति मार्ग खुलने की प्रतीक्षा मे । चिता शांत, चित्त प्रशान्त । ममत्व लुटने लगा। भौतिक्ता आध्यात्मिकता के चरणो मे झुक गई। विराट की ओर प्रस्थान । दुख और हर्ष का मिलन । ४. श्री ज्ञान मुनि जी महाराज दीक्षा-पल्याणक ४१.८० चमुप्टि लोच क्या है ? अद्वितीय महाबोर। मन पर्यवज्ञान की उपलब्धि । । चार । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजकुमार से भिक्षु । भीष्म-प्रतिज्ञा। जन्म-भूमि से प्रस्थान। सहृदयता के अमर प्रतिनिधि । उपसर्गो की छाया तले । इन्द्र की अभ्यर्थना। पाच दिव्यो की वर्षा । पांच प्रतिज्ञापो की आराधना । पावो मे चक्रवर्ती के चिन्ह । शूलपाणि यक्ष का उद्धार । अच्छन्दक पर उपकार । आधा वस्त्र भी गिर गया। चण्डकोशिक सर्प का जागरण । चण्डकोशिक एक परिचय नैया के खिवैया । गोशालक का नियतिवाद । सगम देव के उपद्रव । करुणा के के परम पावन स्रोत। जीर्ण सेठ की विलक्षण दान-भावना । राजकुमारी चन्दन वाला । कानो मे कीलियां । उपसर्ग सहिष्णुता । साधना-काल की तपस्या । इक्कीस उपमाए। ५ श्री मनोहर मुनि जी 'कुमुद' । फेवल-ज्ञान कल्याणक ८१-१३६ तीर्थडर और अवतार मे अन्तर । तीर्थसर का कार्य । समवसरण। भगवान महावीर की प्रथम देशना । गणधरो का प्रागमन । साध्वी-सघ । देवताओ की गुलामी से छुटकारा। निम्न वर्ग का उत्थान । जातिवाद से मुक्ति । नारी जाति की जागृति । दर्शन के क्षेत्र में एक नया प्रयोग। प्रचार-यात्रा। राजगृह की ओराविदेहवास, पन्द्रहवे चातुर्मास से वियालीसवे चातुम स तक पद-याना। ६. श्री मुनि नेमिचन्द्र जी महाराज निर्वाण-कल्याणक १३७-१५४ निर्वाण भूमि की अोर बढते चरण । निर्वाण से पूर्व भगवान की मनोभूमिका। [ पाच ] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का परिनिर्वाण । निर्वाण क्या है ? गौतम म्मामी की मनस्थिति और केवलज्ञान । निर्वाण के बाद देवो का आगमन । देवो और मानवो के द्वारा निर्वाण कल्याणक उत्सव । निर्वाण की स्मृति मे दीपावली पर्व । निर्वाण के साय भैयादूज का सम्बन्ध । भस्मक ग्रह का सघ पर प्रभाव । निर्वाण-रात्रि मे उत्पन्न सूक्ष्म जीव-राशि । निर्वाणोत्तर संघ के मचालन-सूत्र। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद। ७ मनि श्री फूलचन्द जो 'श्रमण' महावीर-वचनामृत १५५-१६६ प्राकाराङ्गमूत्र, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्गसूत्र, भगवती सूत्र, प्रश्न व्याकरण सूत्र, दशवकालिक, ज्ञाता-धर्मकथा, नन्दी सूत्र एव उत्तराध्ययन । गणधर-परिचय १६८-१७० ela R PASI Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक व्याख्यान-वाचस्पति श्री क्रान्ति मुनि जी महाराज विश्ववन्द्य मगल मूति "भगवान महावीर" की स्मृतिया ग्राज चारो ओर सूर्य की किरणो के प्रकाश के ममान सर्वत्र ही फैल गई हैं और फैल रही हैं। मैं विश्वास-पूर्वक कह सकता हैं कि इस वर्ष में जैन-धर्म की जैसी प्रभावना हुई है और हो रही है वैसी सम्भवन सदियो पहले भी कभी न हुई होगी। प्राज मारा विश्व उस पुण्य-पुरुष का स्मरण कर रहा है, उस के गुणो का गान कर रहा है और उसके वताए पथ को जीवन का श्रेष्ठतम मार्ग कह कर अपनाने को प्रस्तुत हो श्रमण-भगवान महावीर और उनके पावन-पथ की ओर आकर्षण का कोई विशेष कारण अवश्य है,क्योकि मानवी वृत्ति सोद्देश्य प्रवृत्ति के लिये प्रसिद्ध है। मैं समझता ह कि वह कारण और कुछ नही है, भगवान महावीर का जीवन प्राज के मानव की समस्याओ का समाधान है, उसकी जिज्ञासाओ की पूर्ति है, उसके भटकते जीवन के लिये प्रकाश है और उसके जीवन का महान् सम्बल है, क्योकि मानवीय महत्ता की जो सार्वभौम व्याख्या भगवान महावीर और उनके पूर्ववर्ती तीर्थकरो ने उपस्थित की है वह व्याख्या आज तक कोई भी उपस्थित नहीं कर सका । यद्यपि अनेक सस्कृतियो ने किसी ऐसी अज्ञात शक्ति को भगवान माना है जो सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है, सर्वशक्ति-सम्पन्न है, मष्टि का कर्ता-धर्ता है, वह परमात्मा भी भगवान महावीर की दृष्टि मे मानव ही है और कोई नहीं, अत वह परमात्मा भी महावीर के लिये कोई चमत्कार का [ नौ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपय नही है। उन्होने प्रमु-सत्ता के बाद प्रकाश के पोछे भागने की अपेक्षा उसके अन्त.स्रोत को पहचाना है और सभी के लिये उस स्रोत तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त किया है। उन्होंने मानव को मनुष्य तो क्या देवतायो की गुलामी तफ से मुक्त किया है। ऐमें प्रकाग-पुरुष के लिये हार्दिक श्रद्धा का उमड़ पड़ना कोई विशेष प्राश्चर्य नहीं भगवान महावीर का 'जीवन' राजा का जीवन होते हुए भी एक अकिंचन तपस्वी का जीवन है, ससीम मत्ता से बंध कर विचरण करते हुए भी एक विराट सत्ता का जीवन है, बिन्दु में समाए सिन्धु का जीवन है। यद्यपि अनेक जैन मुनीश्वरों ने भगवान महावीर के पाप-ताप-हारी जीवन का परिचय दिया है, उसे काब्य के Fप में भी उपस्थित किया है, प्रागमो की वीथियो में विचरण करने पर उनके जीवन के विभिन्न भागो का परिचय भी प्राप्त हो जाता है, फिर भी उनके क्रमबद्ध जीवन-चरित की आवश्यकता बनी हुई थी। सन्मति भगवान महावीर का जीवन अन्तर्मुखी जीवन है, वाह्यप्रक्रियाओ से उदासीन जीवन है, अत: उसमे वे घात-प्रतिघात नहीं है जो सामान्य जीवन-चरितो को लोकरुचि के निकट ले पाते है, यही कारण है कि उनका जीवन सामान्य जनता की अध्ययन-वृत्ति का विशेष विपय नहीं बन पाया। प्रायः आज तक यही समझा जाता रहा है कि उनका जीवन पलायनता का पोषक है, विरक्ति की प्रवृत्ति को जागृत करनेवाला है, वह जीना नही मृत्यु सिखाता है, अतः जन-मन उसकी ओर जाते हुए डरता रहा है, परन्तु विगत दशको मे विद्वानो ने उनके जीवन का विश्लेषण किया, उनके सिद्धान्तो को मानवता की कसौटी पर परखा तो यह सिद्ध हुआ कि उनका जीवन तो वह सजीवनी है जो मृतको में भी स्फूति जागृत कर देता है, उनमें नवचेतना का सचार कर देता है, अतः उनके जीवन-चरितो के प्रकाशन की रुचि का जागृत होना स्वाभाविक था। भगवान महावीर का जीवन-परिचय मैं नहीं देना चाहता, मैं तो उनके जीवन की उस महत्ता की अोर सकेत करना चाहता ह जिससे हम आज तक अनभिज्ञ रहे है। [ दस ] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक साहित्य मे उल्लेख का अंभाव यह नियम है कि जो हमे प्राप्त नहीं है न तो हम उस का त्याग कर सकते है और न ही उसको प्राप्त करने को कामना को छोड़ सकते हैं। यह प्राप्ति की इच्छा ही वासना है जो जीवात्मा के संसार-भ्रमण का कारण है। महावीर राजसी वैभव मे उत्पन्न हुए, उन्होने उस वैभव का अन्तिम बार पुनः प्रयोग करके देखा, किन्तु उसे निस्सार पाया, अत निस्सार से असीम विस्तार की ओर वढने को उन्मुक्त इच्छा उनके हृदय मे उभर आई। हृदय जिस वस्तु को निस्सार समझ लेता है वह उसकी वासना से मुक्त हो जाता है और वासना-मुक्त शुद्धात्मा ही विश्वमगल की विराट भावना को लेकर कुछ कर पाने में समर्थ हो सकता है। यही कारण है कि गृह-परित्याग के अनन्तर उन्होने कभी कही पर "राजकुमार हू" यह कह कर अपना परिचय नही दिया। - वैदिक संस्कृति के पुराण ऐतिहासिक सामग्री के विशाल भण्डार हैं, उन पुराणो मे बुद्ध का उल्लेख विष्णु के दश अवतारो के रूप मे हुआ है, परन्तु पुराणो ने भगवान महावीर का कही उल्लेख नही किया। इतना बडा ऐतिहासिक महापुरुष भारत मे विचरण कर रहा हो और उसका पुराणकार उल्लेख न करें इसका कोई न कोई विशेष कारण होना ही चाहिए। मैं समझता हू पुराण-सस्कृति के निर्माता राज्यतन्त्र के प्रवल समर्थक थे, क्योकि राजा ही तो राजसूय अश्वमेव आदि यज्ञो द्वारा उनकी सेवा-पूजा कर रहे थे। भगवान महावीर राजसूय अश्व-मेध आदि हिंसक यज्ञो से जन-मन को मोड रहे थे, अतः विरोध भाव ने उन्हे उपेक्षित कर दिया होगा। • भगवान महावीर का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है और वैदिक संस्कृति प्रवृत्ति मार्ग की प्रवल समर्थक है, अतः प्रवृत्ति-प्रधान पुराण उनके निवृत्ति-मार्ग का उल्लेख न कर सके । ____ मैं मानता हूँ कि "उपनिषद्” साहित्य निवृत्ति का पोषक है, परन्तु यह भी तो सत्य है कि वैदिक संस्कृति के मत-मतान्तरो मे कोई भी ऐसा मत नहीं है जो विशुद्ध औपनिषदिक आधार पर प्रवृत्त [ ग्यारह Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ हो। तो जिस प्रकार उपनिषद्-मार्ग की निवृत्ति-परायणता की उपेक्षा की गई है, इसी प्रकार महावीर के निवृत्ति-मार्ग की भी उपेक्षा करदी गई है। ___ यह सब कुछ होते हुए भी वेदो में और श्रीमद्भागवत पुराण मे जन-सस्कृति के आदि पुरुप भगवान् ऋषभदेव जी का और अरिष्ट नेमि जो का उल्लेख तो हुया ही है, क्योंकि सत्य की पूर्ण उपेक्षा नहीं हो सकती। काव्य-ग्रन्यो मे भी भगवान् महावीर का कुछ जैन मुनीश्वरो को छोडकर अन्य कवियो ने वर्णन नहीं किया, इसका कारण भी यही है कि महा-काव्य के लिये उस धीरोदात्त नायक की आवश्यकता होती है जो बड़े-बड़े युद्ध करता हो, प्रेम की सीमानो के पार पहुंच जाता हो, जिसका जीवन धृ गार, वीर, रौद्र, आदि रसो से परि-पूर्ण घटनायो से भरा हो, भगवान् महावीर ने न तो कोई युद्ध लड़ा, न कही किसी से प्रेम किया, न कही अपना रौद्र रूप प्रकट किया, अत: उनका प्रशान्त महासागर सा गम्भीर नीवन महाकाव्य के लिये उपयोगी सिद्ध न हो सका। संसार फिर लोट रहा है : विश्व-चक्र घूम रहा है अपनी अवाध गति से, अत. एक युग का वातावरण दूसरे युग मे पुनः लोट आता है। महावीर कालीन समस्याए नए-नए रूपो मे पुनः लौट आई हैं। तब यज्ञ के नाम पर होनेवाली हिंसा आज मास-भक्षण को प्रवृत्ति के रूप में सामने आई है, तब नारो घर की चार दीवारी में कैद हो कर साधना से विमुख हो गई थी, अब वह फैगन एत्र वासना के जाल में घिर कर साधनाको भूल रही है, तब तयाकथित उच्च वर्ग गरीवो से घृणा करता था, अब पूजोवादो गरीब से वृणा करते हैं, बाह्य आडम्बरों को ही तब धर्म माना जाता था, वाह्याडम्बर ही आज भी धर्म कहे जाने लगे - हैं, अत: अव अपने सिद्धान्त के रूप मे अमर भगवान् महावीर की पुनः 'श्रावश्यकता है। । दारह] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म भगवान महावीर की दृष्टि मे "वस्तु-स्वभाव ही धर्म है"-- "वत्थु-सहावो धम्मो" का उद्घोप कह रहा है कि आत्म-अवस्थिति ही धर्म है । प्रात्मा जिसे चेतना भी कह सकते हैं उसका स्वभाव है ऊपर उठना, वैसे ही जैसे ज्योति का स्वभाव है ऊपर उठना । ज्योति मिट्टी के दीपक के साथ चाहे वधी रहे, परन्तु वह वध कर भी ऊपर की ओर ही उठती है । चेतना भी भौतिक वन्धनो से वधी हुई है, अत: वह अपने ऊपर उठने के स्वभाव को भूल वैठी है। तुम्वे का स्वभाव है पानी की सतह पर तैरना, परन्तु पत्थर बांध कर पानी में फैका हुआ तूम्बा डूब जाता है, इसी प्रकार कर्म-भार से बधी चेतना भी ससार-समुद्र मे एव वासनाओ के महानदो मे डूब जाती है। वासनानो के पाषाणो से मुक्त चेतना भी पुन: ऊपर उठने लगती हैऊपर उठ जाती है। चेतना को यह उत्थान ही धर्म है। वस्तु-स्वभाव के अन्तर्गत हम मानवीय कर्तव्यों को भी रख सकते हैं, कर्तव्य-पालन मनुष्य का स्वभाव है, अत: कर्तव्य-पालन भी धर्म है । कर्तव्य-सीमा प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न है। अहिंसा अहिंसा एक केन्द्र-विन्दु है जिसके चारो ओर करुणा, दया, सहानुभूति, प्रेम और मैत्री के बारे है । अहिंसा सूर्य है, करुणा-दया आदि उसकी किरणे हैं। सूर्य-किरणो के विना नही रह सकता, अहिसा भी करुणा आदि के बिना नही रह सकती । ऐतिहासिको का कथन है कि विगत २५०० वर्षों में इस पृथ्वी पर लगभग चौदह हजार लडाइयां लडी जा चुकी है। जो प्रति-दिन पड़ोसियो मे, परिवारो मे लड़ाइयां होती हैं उनकी गणना तो असम्भव ही है। लड़ाई चाहे कैसी भी हो उसका मूलं हिंसा की प्रवृत्ति है और उसके आस-पास अनायास ही क्रूरता, भयकरता, घृणा, ईर्ष्या, विद्वेप आदि इकट्ठे हो जाते हैं। आज राजनैतिक सामाजिक, पारिवारिक एवं वैयक्तिक सभी क्षेत्रों में फैली हिंसा के कारण ही सर्वत्र शान्ति है। जव अशान्त जगत को कही शान्ति की किरण दृप्टि गोचर होती है तो वह अनायास ही [ तेरह ] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसको पोर प्राकृष्ट होने लगता है। आज का हिमात्मक वातावरण भगवान् महावीर के सिद्धान्तो की ओर आकृष्ट हो रहा है मैं समझता हू उसका यही कारण है। अहिंसा 'करुणा' सिखाती है और करुणा ही गान्त जीवन को आवार-भूमि है। करुणा देना सिखाती है, प्यार सिग्वाती है, सहानुभूति के गीत गाती है। ___ महापुरुप का लक्षण करते हुए उपनिषद् मे कहा गया है 'करुणाकेलि.' महापुरुप वह है जिसके लिये करुणा जोवन का खेल है। वेल मे स्वार्य नहीं होता, केवल विनोद होता है, उसमे लगाव नहीं होता, केवल सामान्य प्रवृत्ति होती है, महापुरुप करुगा भी करते है तो वह भी किसी लगाव स्वार्थ या प्रयोजन के लिये नही, कणा तो उनका खेल होता है। भगवान महावीर जीवन भर करुणा केलि में ही लीन रहे। वे सगमक जैसे दुष्ट की यातनाओं को भी सहते रहे करुणा का खेल समझ कर । कोई यातनाए दे तभी तो उस पर करुणा की जाय । छे मास के बाद यातनाएं देते हुए थक कर संगमक जव करुणावतार प्रभु मे क्षमा माग कर चलने लगा तो करुणा-पुरुप को आखो मे आसू पा गए । सगमक चकित हो गया, बोला 'प्राज यांमू ?' प्रभु की करुणा ने कहा-'तुम्हारी भावी यातनायो का स्मरण कर मेरी करुणा रो उठो है ।" यदि ऐसी करुणा की किरण मानवता को प्राप्त हो जाय तो विश्व-शान्ति के मानवीय स्वप्न शीघ्र ही साकार हो उठे इसमे सन्देह नही। उनका जोवन किसी पर भार नहीं था : एक बार सुना किसी से कि 'महावीर ने भिक्षुओ की फौज तैयार कर दी थी।" मैं मुस्कराया पर कुछ बोला नहीं, क्योकि मुझे वए और बन्दर को एक पुरानी कहानी याद आ गई थी। बन्दर को शिक्षा देकर वए ने अपना घोसला ही उजड़वा लिया था। पर सोचता हूं कि क्या 'महावीर भिक्षुमो एव भिक्षुणियो की फौज तैयार करते थे, बात विचारणीय है। - [,चौदह } Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुक और भिखारी दोनों में अन्तर हैं । भिखारी पराश्रित रहता है, भिक्षा अवश्य मिले यह उसका उद्देश्य होता है, उसके मन में अधिक से अधिक और अच्छे से अच्छे पाने की वासना होती है, वह चिल्ला-चिल्ला कर लोगो को अपने भिखारीपन की सूचना देता है, वह भिखारी बन कर सोता है और भिखारी बन कर जागता है, उसकी भीख योजनावद्ध भीख होती है, परन्तु भिक्षुक पराश्रित नही, भिक्षा अवश्य मिले यह उसका ध्येय नही मिल जाने पर वह ले लेता है न मिलने पर वह दुखी नही होता। दो-चार दिन तो क्या दो चार मास भी यदि भिक्षा न मिले तो भी उसे भिक्षा की चाह नही होती । यही कारण है कि भगवान महावीर साढ़े बारह वर्षों मे केवल ३५६ दिन आहार लेते थे । भिक्षुक चाहता है उसे वह मिले जिस की गृहस्थ को स्वयं के लिये आवश्यकता न हो, वह सामान्य से भी सामान्य चाहता है, रूखासुखा चाहता है। भिक्षुक कभी किसी को अपने आने की सूचना नही देता, वह अनायास ही पहुच जाता है जिससे कि उसके लिये कुछ न बनाया जा सके, वह भिक्षुक वन कर सोता है, क्योंकि वह कल के लिये कुछ नही रखता, उसकी भिक्षा अनियोजित होती है, वह भिक्षुक हो कर जागता है, क्योकि उसकी जागृत चेतना किसी खाद्यपेय की इच्छा लेकर नही जागती, अत सास्कृतिक भाषामे ऐसे भिक्षुक को 'अकल्पित भिक्षाशी' कहा गया है । 1 ऐसे भिक्षुक खाने के लिये नही जीते, जीने के लिये कुछ खा लेते हैं । खाना उनका उद्देश्य नही होता। उनकी भावना होती है कि वे इतना कम खाए कि उनके हिस्से का भोजन भी अन्य को प्राप्त हो सके । इसलिये भगवान ने उपवास को अधिक महत्त्व दिया है । भोजन की सीमाए वाधकर होनेवाली अनेक विध तपस्याओ के विवरण इसके साक्षी हैं कि भिक्षुक का उद्देश्य अधिक से अधिक त्याग है, ग्रहण नही । प्रत भगवान महावीर ने भिक्षुओ का अर्थात् त्यागियो का एक बहुत बढा वर्ग तैयार कर दिया था भिखारियो का नही । एकाकी विचरण महावीर जब तक पूर्ण ज्ञान, अर्थात् केवल ज्ञान की उपलब्धि नही [ पन्द्रह ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर पाए तब तक वे एकाकी रहै। एकाकी का अर्थ है वे अपने साथ केवल अपने को ही रखना चाहते थे। जब तक दूसरा साथ रहता है तभी तक सव उपद्रव हुया करते हैं, निस्सग जीवन में ही आत्मरमणके आनन्द की उपलब्धि हो सकती है। सगी-सायियो से हम प्रेम करते है, उन्हे अपना बनाने के लिये, परन्तु जब तक आत्मा मे प्यार न किया जाएगा तब तक प्रात्मा को अपना कैसे बनाया जा सकता है ? प्रात्म-ज्ञान के लिये प्रात्म-प्रेम आवश्यक है और वह एकाकी जीवन मे ही किया जा सकता है 1 एकाकी जीवन की निस्पृहता ही अन्य के लिये सुख-सुविधाए जुटा सकती है। भगवान शून्य स्थानो मे-मशानो मे जाकर ध्यान लगाते थे। हम न जाने कितने लोगो को अपने कंधो पर टोकर श्मगान मे पहुंचा देते हैं और मन ही मन अपनी इस कामना को पूर्ण करते हैं कि 'चलो हम तो जीवित हैं।' यह स्वार्थ है, महावीर अपने को आप ही श्मशान मे पहुचा कर शरीर' को नश्वरता को देखते थे और शरीर की नश्वरता को देख कर ही वे शारीरिक सुख-सुविधाओं से मुह मोड़ कर स्व-भाव मे लीन हो जाते थे, वे जीते जी शरीर को छोड़ देते थे। यही कारण है कि अनेक व्यक्तियो द्वारा दी गई शारीरिक यातनाए उनको विचलित नहीं कर पाती थी। उमशान में जाकर स्वत. ही कायोत्सर्ग कर देना साधना की एक उच्चतम अवस्था है जिसे भगवान महावीर ने ही प्रदर्शित किया है। निर्वाण की ओर : निर्वाण यह एक महत्त्वपूर्ण शब्द है । निर्वाण शताब्दी के सन्दर्भ मे इस पर भी थोड़ा विचार कर ले। मरना और निर्वाण ये दो निकटवर्ती शब्द हैं, क्योकि दोनो मे शरीर का त्याग होता है, मरने का अर्थ है पुन. ससार मे लौटना, ऊपर उठकर नीचे गिरना और निर्वाण है केवल ऊपर उठना, लौटने की प्रक्रिया का वन्द हो जाना, मृत्यु के सिर पर पैर रखकर वहा पहुच जाना, जहां पहुंचने पर न भाना होता है और न वहा से जाना होता है, आने-जाने की प्रक्रिया से मुक्त हो कर अक्षय रूप मे अवस्थिति ही निर्वाण है । निर्वाण के बाद ये सब उपद्रव, वे सब व्याधिया एव उपाधिया समाप्त हो जाती हैं [ सोलह Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो मृत्यु के समय बनी रहती हैं । भगवान महावीर जीवन भर निर्वाण की ओर बढ़ने का ही प्रयत्न करते रहे और उन्होने अपनी प्रक्रिया द्वारा न जाने कितने साधको को निर्वाण साधना के योग्य बना दिया। प्रस्तुत पुस्तक प्रस्तुत पुस्तक का नाम है 'पञ्च-कल्याणक' मैं यहा कल्याणक शब्द की विशेष व्याख्या नहीं करना चाहता, क्योकि प्रत्येक कल्याणक के लेखक ने कल्याण शब्द की थोडी या विस्तृत व्याख्या अवश्य की है। फिर भी इतना कहना अवश्य ही उपयुक्त समझता हूं कि तीर्थकरो के जीवन की पाच घटनामो को जैन भाषा कल्याणक कहती है-च्यवन अर्थात् अात्मा का अन्य लोको से इस लोक मे अवतरण, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाण । तीर्थङ्करो के जीवन की ये पाच घटनाए कल्याणकारिणी होती है। जैन सस्कृति केवल उन्ही महापुरुपो के लिये तीर्थकर शब्द का प्रयोग करती है जो इस धरती पर आते हैं, उन तीर्थो अर्थात् घाटो को खोलने के लिये जहा से चली हुई जीवन-नोकाएं ससार सागर से पार पहुंच सकती हैं। वे ऐसी समाज रचना कर देते हैं जिससे सभी को तरने का अवसर प्राप्त हो सके, वे स्वय भो तीर्थरूप होते हैं -क्योकि उनके सानिध्य मे पहुंच कर मनुष्य ऐसे ही अपने आपको पवित्र समझने लगता है, जैसे अग्नि के पास पहुंच कर व्यक्ति अपने आपको शीतप्रकोप से सुरक्षित समझने लगता है। महावीर ऐसे ही एक तीर्थकर थे। तीर्थङ्करो का धरती पर आगमन धरती के लिये कल्याणकारी होता है। भगवान महावीर की आत्मा के यहा आते ही विदेह की भूमि सुख-समृद्धि से परिपूर्ण हो गई । उनका जन्म उनके परिवार को यश-कीर्ति एव सुख-समृद्धि का कारण तो वना ही साथ ही उनका जन्म सारी मानवता के लिये कल्याणकारी बन गया । उन्होने दीक्षा ली अपने लिये ही नही सन्तप्त समाज के कल्याण के लिये वे उस ज्योति को ढूढने के लिये निकले जो युग-युग तक ससार को आलोकित कर सके । उनको केवल-ज्ञान की प्राप्ति सत्य के वास्तविक स्वरूप को [ सत्रह ] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकट कर विश्व के लिये कल्याणकारिणी बन गई। उनका निर्वाण भी मङ्गलकारी बना, क्योकि जिस भूमि भाग से कोई प्रात्मा मोक्षगामी वनती है उस स्थान से मोक्ष-पथ की पगडण्डिया प्रारम्भ हो जाती हैं। इसी दृष्टि से निर्वाण-स्थल को तीर्य कहा जाता है। इस प्रकार उनका निर्वाण भी विश्व कल्याण का साधक बना। जैन-धर्म दिवाकर पजाब प्रवर्तक श्री फूल कन्द जो श्रमण महाराज की दिव्य प्रेरणा से पाच व्यक्तियों ने भगवान महावीर के समग्र जीवन को उपस्थित किया है, सक्षिप्त सरल रोचक और सारभित भाषा मे । विशेपता यह है कि इसमे प्रवर्तक श्री जी ने कितनी मूझ-बूझ से काम लिया है भगवान महावीर के च्यवन-कल्याणक और जन्म-कल्याणक का गृहस्थ जीवन से सम्बन्ध होने के कारण इन गृहस्य लेखको से ही उपस्थित करवाया गया है और दीक्षा, केवलनान और निर्वाण का सम्बन्ध मुनि जीवन से होने के नाते उसे मुनीश्वरो की समर्थ लेखनी द्वारा ही प्रस्तुत करवाया है । अन्त मे भगवान महावीर की वाणी को उन्होने स्वय उपस्थित कर पुस्तक को पूर्णता प्रदान की है। श्री तिलकघर शास्त्री अपनी सम्पादन-कुशल लेखनी के लिये जैन-समाज मे अपना विशिष्ट स्थान बनाते जा रहे है। इस पुस्तक के सम्पादन मे भी उनका प्रतिभा-कौशल निखर कर सामने आया है। भगवान महावीर की पच्चीसवी निर्वाण शताब्दी पर इस ग्रन्थ का प्रकाशन विश्व के लिये 'कल्याणक' ही वने-विश्व मङ्गल की पावन भावना इसके द्वारा फलीभूत हो, मैं इन्ही झब्दो के साथ पुस्तक के प्रचार और प्रसार की कामना करता हूं। १०-३-७५ लुधियाना Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राषाढ-सुमिस-षष्ठ्या हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते शशिनि । प्रायात: स्वर्गसुख भुक्त्वा पुष्पोत्तराधीशः ।। सिद्धार्थ-नृपति-तनयो भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे । देव्या प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान्सप्रदर्य विभुः ॥ जब माप अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान से स्वर्ग-सुखो को भोगकर च्युत हुए और देवी प्रियकारिणी की कुक्षि मे प्रविष्ट हुए तब प्राषाढ शुक्ल पण्ठी का दिन था, चन्द्रमा उत्तराषाढा नक्षत्र में था, भारतवर्ष के विदेह देश मे कुण्डपुर नगर, का शासक सिद्धार्थ या, यह प्रियकारिणी (त्रिशला) उनकी पटरानी थी। प्रापके गर्भ मे आने से पहले उसने मोलह स्वप्न देखे थे। श्वेताम्बर-शास्त्र च्यवन-समय में इस्तोंत्तरा-उतराफाल्गुनी नक्षत्र मानते हैं। Cop ASPCL - Kerao hd 4 P.AR PS CANA VO . . ANO RSES ...... .. JNP IM RSION... AAVA . FAAR mumAYUKRI away PHOG. - -- TASTE wiN VAN JIMALS : : - K KER . - 1 arti-nunHERE ALL MA - - प्रो. मुलरव राज जैन एम.ए. Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोत्युण समणस्स भगवो महावीरस्स - च्यवन-कल्याक ० १ ० 'कल्याणक' शब्द तीर्थङ्कर के जीवन मे आनेवाले मगलमय अवसरो से सम्बद्ध है। वैसे तो महापुरुषो के जीवन का प्रत्येक क्षण ही कल्याणकारी होता है, परन्तु जैन सस्कृति मे तीर्थकरो (महापुरुषो) के जीवन में आनेवाले मगलमय पाच अवसरो को 'कल्याणक' कहा गया है। इस दृष्टि से 'कल्याणक' शब्द जैन-धर्म का पारिभाषिक शब्द बन गया है। शास्त्रकार कल्याणक की व्याख्या करते हुए कहते है :(क) यह वह मगलमय अवसर होता है जिसमे महा साधक अपना कल्याण तो करता ही है, साथ ही उसके द्वारा अनन्त जीवो के कल्याण का उपक्रम भी आरम्भ हो जाता है। (ख) इस मंगलमय पुण्योत्सव मे देव, मनुष्य और विकासोन्मुख अन्य जीव भी सम्मिलित होते है। ऐसी मान्यता है कि तीर्थकरो के जन्मादि के ममय इन्द्रादि देव मिलकर उत्सव करते है। (ग) इस मगलमय अवसर पर कुछ समय के लिये नरकवासी जीव भी सुख की सास लेते है । (घ) इस पुण्य अवसर के आने पर तीनो लोको के भव्य प्राणियो के हृदय मे अनायास ही हर्प हिलोरें लेने लगता है। (ड) कल्याणक वेला मे सर्वत्र सुख और शाति का प्रसार हो जाता है। सब के हृदयो मे अनायास ही पुण्य-प्रकृतियो का उदय हो जाता है, समस्त वातावरण मे दिव्य सौन्दर्य भर जाता है। पञ्चकल्याणक ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार के विशेष मंगलकारी पाच उत्सव हैं-तीर्थङ्कर-पद प्राप्त करनेवाली दिव्य आत्मा का धरती पर जन्म के लिये अवतरण, जिसे च्यवन-कल्याणक कहा जाता है, जन्म-कल्याणक, दीक्षा-कल्याणक, केवलज्ञान-कल्याणक, और निर्वाण-कल्याणक । भगवान महावीर का च्यवन-कल्याणक 'च्यवन' का अर्थ है -ऊर्ध्वस्थित देवलोको ने धरती पर अवतीर्ण होना, अर्थात् भावी तीर्थकुर के जीव की माता के गर्भ में प्रवेश की कल्याणकारी घटना को 'च्यवन-कल्याणक' कहा गया है। तीर्थकर के रूप मे अवतरित होने से पूर्व दिव्य आत्माए अनेक साधनाए करती हुई अपने आपको शुद्ध पवित्र एव श्रद्धामय बना देती हैं, परिणाम स्वरूप वे आत्माए तीर्थङ्कर बनने की योग्यता प्राप्त कर लेती है। जैन परिभाषा मे उसे 'तीर्थङ्कर-गोत्र का उपार्जन करना कहा जाता है। भगवान महावीर के जीवात्मा ने भी अनेक पूर्व जन्मो मे शुभ कर्मों का उपार्जन किया, तथा कर्मो के क्षयोपशम से तीर्थकर गोत्र बांधा और प्राणत देवलोक से अवतीर्ण हो कर माता त्रिशला के गर्भ मे निवास किया। आज के वैज्ञानिक युग में पुनर्जन्म और परलोक की वात उपहासास्पद सी प्रतीत होती है. परन्तु हमे यह जानना चाहिए कि यह विषय भौतिक विज्ञान का नही, अव्यात्म-विज्ञान का है। भारत के प्राय सभी दार्गनिको ने (चार्वाक दर्शन को छोड़कर) आत्मा के अस्तित्व और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। जैन दर्शन ने चार ध्रुव सिद्धात स्वीकार किए हैं--प्रात्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । जैन धर्म द्वारा आत्मा को स्वीकृति के कारण कर्म, उसके शुभाशुभ परिणामो तथा उन परिणामो से होनेवाले अनेक जन्मो की सिद्धि की स्वीकृति भी स्वत ही हो जाती है । जैन दर्शन की मान्यता है कि यह लोक नाना प्रकार की कर्मवर्गणायो के समूहो से भरा पड़ा है। जब भी कोई जीव गंग-द्वेष-जन्य क्रियायो के वशीभूत होता है, तभी कर्म-समूह आत्मा के साथ जुड़ने लगते है और कर्म तथा आत्मा का यह सम्बन्ध ही जन्म का कारण बन जाता है। जिस प्रकार चुम्वक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है उसी [ च्यवन कल्याणक Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार कर्म-युक्त जीव भी अनेक मुभ-अशुभ गतियो की ओर स्वत. खिचते चले जाते है। जैन दर्शन की भाति पुनर्जन्म को वैदिक परम्परा मे भी स्वीकार किया गया है । जैन धर्म मे पुनर्जन्म का कारण मानव द्वारा कृत कर्म हैं जो कार्मण शरीर की रचना करते हैं । वैदिक परम्परा मे पुनर्जन्म का कारण एक सूक्ष्म शरीर है । यह सूक्ष्म शरीर ही गमनागमन के समय कर्मों का समुदाय अपने साथ लेकर जाता है । जीवात्मा जब अपने पूर्व स्थूल शरीर को छोडकर नये स्थूल शरीर में प्रवेश करता है तव वह सूक्ष्म शरीर के रूप मे ही जाता है। वैदिक परम्परा की यह मान्यता कुछ सूक्ष्म अन्तर के साथ जैन-मान्यता का ही समर्थन करती है। आधुनिक काल के प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिको ने भी पुनर्जन्म की स्पष्ट घोषणा की है । वाल्ट बिटमैन ने स्पष्ट लिखा है कि 'जीवन' । तुम मेरे अनेक अवसानो के अवशेप हो । इस मे कोई सन्देह नही कि मैं इसके पूर्व दस हजार वार मर चुका है। प्राध्यापक हक्सले (Prof Huxly) का कथन है-केवल विना ठीक से सोचे समझे निर्णय लेने वाले विचारक ही पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मूर्खता की वात समझकर इसका विरोध करेगे । देहान्तरवाद का सिद्धात वास्तविकता के सुदृढ धरातल पर टिका हुआ है। १-सभुवि तभुवि कम्मायतउ कम्मविवाउ लोइ बलवतउ । लोहु व कदएण कढदिज्जए जीव सकम्मि चउगइ णिज्जइ ।। (जसहर-चरिउ) २- "उक्तलक्षण प्राणादिमाजीवो हि सूक्ष्मभूतम्परिवृत. एव देह विहाय देहान्तर गच्छति"। (व० भू० ३-१-१ की परिजात सौरभ) 3- As to you, life I reckon you are the leavings of many deaths. No doubt I have died myself ten thousand times before (Walt Whitman) पञ्चकल्याणक ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त विवेचन से पुनर्जन्म और पूर्वभव की मान्यता की पुष्टि हो जाती है । यह पुष्टि 'आत्मवाद' के सिद्धात की स्वीकृति पर ही निर्भर है । यदि अात्मा है तो पुनर्जन्म और परलोक भी है। इस प्रकार भारतीय और पाश्चात्य विद्वानो की मान्यताओं और धारणाग्रो से आत्मा के परलोक-गमन एव परलोक से पृथ्वी पर आगमन का सिद्धात स्पप्ट है। भगवान महावीर के जीव की माता त्रिशला के गर्भ मे आने की घटना से पूर्व की साधना एक विस्तृत जीवन-परम्परा से सम्बद्ध है। उन्होने अनेक जन्मो मे सतत विशुद्ध भाव से प्रात्म-सावना की। पुण्य-अनुष्ठान किए, अनेक वार श्रमणत्व की दीक्षा ग्रहण की, सम्यक्त्व का स्पर्ग किया तथा तीर्थ धर गोत्र वावकर २६ वें जन्म मे देवलोक से अवतरित होकर माता त्रिशला के गर्भ मे पहुचे । शास्त्रो मे उनके इस जन्म से पूर्व के कई जन्मो का उल्लेख मिलता है, परन्तु विस्तार-भय १- १. वलाधिक अथवा नयमार नामक राज्याधिकारी । २. मोधर्म नामक देवलोक के देवता । ३.भगवान ऋषभदेव के पोन मरीचि । ४ ब्रह्मलोक में देवता। ५. कोल्लाक सनिवेश मे कौशिक ब्राह्मण। ६. थूणा नगरी में पुष्यमिन्न नामक ब्राह्मण । ७ मौधर्म देवलोक के देवता । ८ चैत्य सनिवेश नगर में अग्निद्योत नामक ब्राह्मण। ९. ईशान देवलोक मे देवता । १०. सनिवेश नगर में अग्निभूति ब्राह्मण । ११. मनत्कुमार देवलोक के देवता। १२. श्वेताम्विका नगरी मे भारद्वाज नामक ब्राह्मण। १३. माहेन्द्र देवलोक के देवता । १४ राजगृह नगर में स्थविर ब्राह्मण । १५. ब्रह्मदेवलोक मे देवता। १६. राजगृह नगर मे विश्वभूति राजकुमार । १७ शुक्र कल्पलोक के देवता । १८ पोतनपुर मे त्रिपृष्ठ नामक वासुदेव । १९ नरयिक जीवन । २०. सिंह-जन्म । २१ नरयिक जीवन ! २२ पोट्टल नरेश (विशेष विवरण उपलब्ध नहीं) २३ काकदी नगरी मे प्रियमिन्न चश्वर्ती। २४. महाशुक्र कल्पनामक देवलोक मे मर्थिनामक विमान के देवता। २५ छना नगरी में नन्दन नामक रानकुमार । २६ प्राणतक्ल्प नामक देवलोक के पुष्पोत्तर विमान मे देवता । २७ वर्धमान ' महावीर (मोक्ष के अनन्तर जन्म-मरण की परम्परा समाप्त हुई) [ च्यवनकल्याणक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से हमारे लिये उनके कुछ पूर्व जन्मो का उल्लेख करना ही उपयुक्त होगा नयसार के रूप में भगवान महावीर का जीवन अपनी साधनामयी जीवन-परम्परा मे पहले-पहल पृथ्वी-प्रतिष्ठ नामक नगर मे 'नयसार' के नाम से हमारे सामने आता है । इसी जन्म मे नयसार ने वह तीर्यङ्कर बनने के लिये अपना पहला कदम उठाया था जो आत्म-विकास की पूर्णता को प्राप्त कर स्वय तरने की महाशक्ति के साथ-साथ लोक को तारने की महाशक्ति से सम्पन्न महापुरुष होता है। एक दिन नयसार वन मे लकडिया काटने के लिये गया। वहा वह जब भोजन करने के लिये बैठा ही था उसी समय कोई अतिथि मार्ग भूलकर भटकते हुए उधर आ निकला। नयसार ने अत्यन्त भक्ति-पूर्वक उसे आहारादि दिया । विशुद्ध भाव से दिया गया आहारादि तथा श्रद्धा-सहित किया गया सत्कार ही नयसार के लिये 'महावीर' बनने की नीव बन गया। मरीचि के रूप मे - नयसार के रूप मे प्रपनी आयु पूर्ण कर भगवान महावीर का जीव सुवर्म देवलोक मे उत्पन्न हुमा । वहा से लौटने पर भरत चक्रवर्ती के पुत्र मरीचि के रूप मे उसने जन्म लिया। एक बार अपने पुत्र मरीचि को लेकर महाराज भरत भगवान ऋषभदेव का उपदेश सुनने गए। चक्रवर्ती भरत ने भगवान ऋषभदेव से प्रश्न किया कि "भगवन् । क्या यहा कोई ऐसा प्राणी भी है जो इसी चौबीसी (चौवीस तीर्थङ्करो) मे तीर्थङ्कर पदवी को प्राप्त करेगा ?" भगवान ऋषभदेव ने कहा कि "भरत | तुम्हारा यह पुत्र मरीचि ही वासुदेव और चक्रवर्ती बनने के पश्चात् चौवीसवे तीर्थङ्कर महावीर के रूप मे प्रकट होगा।" पञ्चकल्याणक } Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह वात सुनकर मरीचि को वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह मुनि बन कर साधना करने लगा । अनेक प्रकार की धर्म-साधनाएं और तपस्याएं करके मरीचि अपनी आयु पूर्ण करने के पश्चात् ब्रह्मदेवलोक मे जा पहुचा। कौशिक के रूप में ब्रह्मलोक के सुखो का उपभोग करते हुए जव उस जीव ने देवलोक की आयु पूर्ण कर लो, तब वह कोल्लाक नामक ग्राम मे एक ब्राह्मण के घर जन्मा। वहा इसका नाम 'कौशिक' रखा गया। कौशिक ने इस जन्म मे दण्डी सन्यासी का वेश धारण किया और तप-जप की साधना करते हुए अपनी आयु समाप्त होने पर स्वर्ग सिधार गए। त्रिपृष्ठ वासुदेव के रूप में इस प्रकार अनेक जन्मो मे भ्रमण करते हुए महावीर के जीव ने त्रिपृष्ठ वासुदेव के रूप में जन्म लिया। त्रिपृष्ठ बड़ा बलवान और शक्तिशाली राजा था। एक दिन उस के दरवार मे गाने वाले कुछ गवैये आये । राजा ने कहा-हम तुम्हारा गायन अपनी शय्या पर लेटे हुए ही सुनेंगे । कार्यक्रम निश्चित हो गया। राजा ने अपने शय्या-पालक को आज्ञा दी कि जब मैं गाना सुनते-सुनते सो जाऊ, तव तुम गाना वद करवा कर कलाकार को विदा कर देना। गायन के स्वर गूजने लगे और राजा को नीद आ गई। संगीत मे मस्त शय्यापालक ने सगीत वद नहीं करवाया । सगीत चलता ही रहा, अत राजा की नीद टूट गई । उसने क्रुद्ध होकर शय्या-पालक से पूछा 'अव तक सगीत क्यो चल रहा है ? उसने आज्ञा-भंग का अपराध ठहराते हुए राज-मद मे डूब कर शय्या-पालक के कानो मे गरम सिक्का डलवाकर शय्यापालक को मारने का कठोर आदेश दिया । कहते हैं 'तप से राज और राज से नरक' के नियम के अनुकूल [च्यवनकल्याणक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने निकाचित अर्थात् बिना भोग के समाप्त न होने वाले दृढ कर्म का वध किया। प्रियमित्र के रूप मे इस प्रकार इस जन्म मे अनेक प्रकार के भोगो का उपभोग कर जन्म-मरण की परम्परा को पार करते हुए यह जीव प्रियमित्र चक्रवर्ती के रूप में अवतरित हुआ। चक्रवर्ती के रूप मे उसने छ खण्डो पर शासन कर सांसारिक भोगों का उपभोग किया । नन्दन के रूप में अब वह छत्रा नामक नगरी में एक राज घराने में उत्पन्न हमा। यहा इसका नाम 'नन्दन'रखा गया। नन्दन जव किशोरावस्था मे प्रविष्ट हुए तव इनके पिता ने इनके कन्धो पर राज्य का भार रखकर स्वय साधु-वृत्ति ग्रहण करली। कुछ वर्षों के वाद नन्दन के मन मे भी वैराग्य की तरगे ठाठे मारने लगी और उसने सम्पूर्ण सांसारिक वैभव को ठुकरा कर कौटिल्याचार्य के पास पहुचकर साधु-दीक्षा ग्रहण करली। इस प्रकार पूर्व जन्मो मे भगदान महावीर का जीव सम्यक्त्व का स्पर्श कर चुका था । अव उसके लिये आत्म-साधना के द्वार खुल गए, अतः वह कर्मों से मुक्त होने लगा। उसकी प्रवल साधना सफलीभूत होने लगी। नन्दन ने इसी जन्म मे तीर्थङ्कर गोत्र का उपार्जन कर लिया । नन्दन ने उत्कट भावो से तप, जप स्वाध्याय और ध्यान मे उत्कृष्ट भक्ति भाव मे तल्लीन होकर तीर्थङ्कर बनने की योग्यता प्राप्त कर ली। जैन धर्म मे तीर्थकर पद को प्राप्त करने के लिये विशेष रूप से आत्म-साधना करते हुए वीस गुणो की उपलब्धि आवश्यक मानी गई है । आगमकारो ने उन वीस गुणो का परिचय इस प्रकार दिया है : अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, (भगवान के उपदेश) गुरु, स्थविर, (वृद्धमुनि) वहुसूत्री पण्डित, तपस्वी. इन सातो का गुणानुवाद करने से, वार-बार मनोवृत्तियो को ज्ञानोन्मुखी बनाने से, निर्मल सम्यक्त्व पञ्चकल्याणक ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विशुद्ध सदाचरण) का पालन करने से, गुरु आदि पूज्य जनो को विनय करने मे, निरन्तर षड् आवश्यक का अनुष्ठान करने से, गील अर्थात् ब्रह्मचर्य अथवा उत्तर गुणो एवं मूल गुणो का तथा प्रत्याख्यान का अतिचार रहित पालन करने से, सदैव वैराग्य-भाव रखने से, वाह्य और आभ्यतर तप करने से, सुपात्र को दान देने से गुरु, रोगी, तपस्वी वृद्ध तथा नवदीक्षित मुनि की सेवा करने से, क्षमाभाव रखने से, नित्य नये ज्ञान का अभ्यास करने से, आदरभाव से, जिनेश्वर भगवान के प्रवचनो पर श्रद्धा करने से और तन, मन, धन से जिन-गासन की प्रभावना करने से जीव तीर्थ वर बनने को योग्यता प्राप्त कर पाता है।' उपर्युक्त वीस साधनाए भगवान महावीर के जीव के द्वारा सम्पन्न हुई , यह साधना करते हुए तीयंकर गोत्र का उपार्जन भगवान के जीव ने नन्दन के जन्म मे किया था । इस जन्म की आयु पूर्ण कर इनका जीव दसवे स्वर्ग मे स्थित हो गया। दसवें स्वर्ग मे भगवान महावीर के जीव ने बहुत लम्बी देवआयु प्राप्त की और देवलोक के सुखो का उपभोग किया । देवलोक की आयु पूर्ण होने पर जम्बू द्वीप के दक्षिण भाग मे अवस्थित भरत क्षेत्र मे भगवान ने इस घरा घाम को अपने जन्म से पवित्र बनाया । जैन धर्म की मान्यता है कि तीर्थङ्कर बननेवाला जीव क्षत्रियकुलोद्भव राजकुमार ही होता है । वह शासक होता है शासित नही, परन्तु भगवान के जीव को पहले देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ मे आना १- अरिहन्त-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-वहुस्सुय-तवरसीसु । वच्छलया य तेसि, मभिक्खणाणोवनोगे य ॥ दसण-विणय श्रावस्सय, सीलव्वए य निरइयारे । खणलव तवच्चियाए, वयावच्च समाहीय ।। अपुवणाण गहणे, सुयभत्ती पवयणे भावणया । एएहि कारणेहिं, तित्ययरत्त लहइ जीवो ।। (श्री ज्ञाताधर्म कथांग, अध्याय आठवा) [ च्यवन कल्याणक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडा। यह एक प्रकार की अनन्त काल के बाद होनेवाली अनहोनी बान थी, जिसे जैन धर्म मे 'अच्छेरा' कहा जाता है। ___ जब महावीर का जीव देवानन्दा के गर्भ मे अवतरित हुआ तब देवानन्दा ने जो चौदह स्वप्न देखे थे वे हैं-हाथी, बैल, सिंह, लक्ष्मी, फूलो की माला, चन्द्र, ध्वजा, कुम्भ, पद्म, सागर, विमान, भवन, रत्नो का ढेर और अग्नि-शिखा । इस प्रकार के कल्याणकारी और मगलमय स्वप्न देखकर देवानन्दा जाग उठी और उसने अपने पति ऋषभदत्त के समक्ष इन स्वप्नो की चर्चा की। इन स्वप्नो की चर्चा सुनकर ऋषभदत्त ने बताया कि गर्भिणी स्त्री द्वारा इस प्रकार के स्वप्न देखने का फल यह होता है कि उसके गर्भ से किसी मङ्गलमय महापुरुष का जन्म होता है। कहा जाता है कि ईसा से लगभग छ• सौ वर्ष पूर्व आषाढ शुक्ला षष्ठी को वैशाली के उपनगर ब्राह्मण कुण्डपुर के ऋपभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा ने जो गर्भ धारण किया उसमे भगवान महावीर के जीव ने प्रवेश किया था, किन्तु सौधर्मेन्द्र नामक इन्द्र ने हरिणगमेषी नामक देवता के द्वारा देवानन्दा के पुत्ररूप गर्भ को महाराज सिद्धार्थ की पत्नी महारानी त्रिशला के गर्भ मे पहुचवा दिया। आधुनिक वैज्ञानिक युग मे गर्भ-परिवर्तन की बात कुछ उपहासास्पद सी प्रतीत होती है, किन्तु देवताओ मे अद्भुत शक्ति होती है, वे अवधि-ज्ञान के धारक होने के नाते सभी कार्य बडी सुगमता से कर सकते है । जैन आगमों मे देवताओ की असख्य शक्तियो का वर्णन मिलता है । अल्पज्ञ मानव तो उनकी शक्ति की कल्पना भी नही कर सकता। वैज्ञानिक युग मे तो गर्भ-परिवर्तन साधारण सी वात प्रतीत होती है। यदि देवताओ के इस कृत्य को वैज्ञानिक ही मान लिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी। वैदिक परम्परा मे भी गर्भ-परिवर्तन की घटना मिलती है। कस माता देवकी के गर्भ से उत्पन्न बालको की हत्या कर देता था। देवमाया ने माता देवकी के गर्भ मे स्थित शेष के अवतार सातवे पुत्र बलराम को योग-शक्ति के द्वारा बलात् सकर्षण (खीचकर) करके पञ्चकल्याणक ] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणी के गर्भ मे स्थापित कर दिया था ?' इस प्रकार इन दोनों परम्पराग्रो मे गर्भ-परिवर्तन की स्थिति स्पष्ट एव समान है । इस विषय पर थी तिलकधर शास्त्री के निम्नलिखित विचार मननीय हैं। भगवान महावीर का जीव उस समय तीर्य कर वन कर आया । तीर्थ का अर्थ है-पार करने का स्थान या पार होने का स्थान । पार करना और बात है, पार होने की विद्या मिखला देना और बात है। नीर्थकर किसी को पार नहीं करते बल्कि पार होने की विद्या सिखलाते हैं । आज तक दुखो से पार करने को विद्या के ठेकेदार ब्राह्मण ही समझे जाते थे, परन्तु भगवान महावीर ने जन्म लेकर केवल दुग्यो से ही नही, दुखो की मूल विषयासक्ति से एव ससार-सागर से पार करने का मार्ग दिखला कर 'तीर्थकर' पद प्राप्त किया, अर्थात् ब्राह्मणत्व को जीतकर, विषयवासनायो को जीत कर, देवो को जीतकर, जिनेश्वर कहलानेवाले भगवान महावीर ने क्षत्रिय होते हुए भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लिया । मैं समझता हू, ब्राह्मणी के गर्भ से क्षत्राणी के गर्भ मे आने का यही अभिप्राय है जिसे शास्त्रकारो ने अपनी कथा-गली मे गर्भ-परिवर्तन की घटना के रूप मे उपस्थित किया है। यहा एक विषय और भी विचारणीय है कि भगवान महावीर के ब्राह्मण पिता का नाम 'ऋषभ' बताया गया है और माता का नाम देवानन्दा है। गर्भ-परिवर्तन करानेवाले 'सौधर्मेन्द्र' है और कार्य करनेवाले 'हरिनगमेषी' हैं। ऋपभ का अर्थ वैल है जो एक ओर तो शक्ति का प्रतीक माना गया है और दूसरी ओर उसे धर्म का प्रतीक स्वीकार किया जाता है । देवानन्दा शब्द दैवी प्रानन्द का प्रतीक है। सौधर्मेन्द्र शब्द का अर्थ भी सुन्दर धर्मोपासको मे श्रेष्ठ इन्द्र होता है । हरिनैगमेषी का अर्थ इन्द्र-मेवक होता है। इन प्रतीकात्मक नामो को , १- शेपाश: सप्तमस्तन देवकीगर्भसस्थित. । विवसितश्च गर्भोऽसौ योगेन योगमायया। नीतश्च रोहिणीगर्ने, कृत्वा संकर्षण बलात् । -श्री श्रीमद्देवी भागवत ४-२२-२३ १०] [च्यवन-कल्याणक Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य में रखकर यह भी कहा जा सकता है कि ब्राह्मण जाति के धर्मबल, देवताओ के आनन्द, सुन्दर एव वास्तविक धर्मांचरण करनेवाले महापुरुषो की श्रेष्ठता एव दैवी शक्तियो द्वारा सेवा करवाने की समस्त शक्तियो ने सम्मिलित रूप मे पुण्यशीला माता त्रिशला के गर्भ से वर्धमान के रूप मे जन्म लिया । जिस रात्रि को भगवान महावीर देवानन्दा की कुक्षि से त्रिशला रानी की कुक्षि में पधारे उस समय अर्द्धनिद्रित अवस्था मे सोई हुई माता त्रिगला ने चौदह प्रधान स्वप्नो को देखा । प्रभात होते ही रानी त्रिशला ने राजा सिद्धार्थ को उन चौदह स्वप्नो का विवरण दिया। राजा सिद्धार्थ ने स्वप्न-शास्त्रियो को अपने राज-प्रासाद मे वुलवाया। उन्हें यथायोग्य सम्मान देकर राजा सिद्धार्थ बोले कि 'रात्री के तीसरे प्रहर मे महारानी त्रिशला ने अमुक-अमुक चौदह स्वप्न देखे है । आप अपने अनुभूत ज्ञान से इनका फल कहिए । यह बात सुनकर -स्वप्नशास्त्री बोले-'हे देवानुप्रिय ! महारानी त्रिशला ने जो चौदह स्वप्न देखे हैं वे प्रशस्त और कल्याणकारी हैं। इनमे आपको सर्वोत्तम अर्थ, पुत्र, सुख और राज्य की प्राप्ति होगी और महारानी त्रिशला एक कुल-ध्वज कुलदीपक, कुल-द्योतक, कुल-मुकुट और कुल परम्परा-वर्द्धक बहुत ही शीलवान् तथा देदीप्यमान तीर्थकर पद प्राप्त करने योग्य पुत्र को जन्म देगी। इस प्रकार स्वप्न-शास्त्रियो ने भावी शिशु की महामहिमाशालिनी प्रभुता का परिचय दिया, तत्पश्चात् उन स्वप्न-शास्त्रियो को बहुत सम्पत्ति देकर राजा सिद्धार्थ ने महती कृतज्ञता से विदा किया। जैन कथा-साहित्य मे महापुरुपो के जन्म से पूर्व प्राय: १४ स्वप्न देखने की बात अवश्य कही जाती है। भगवान महावीर के अवतरण से पूर्व माता देवानन्दा ने तदनन्तर महामहिमाशालिनी माता त्रिशला ने स्वप्न मे क्रमशः चौदह पदार्थ देखे थे १ श्वत हाथी २ सफेद वैल ३ सिंह ४ लक्ष्मी ५ पुष्पमाला ६ चन्द्र ७. सूर्य ८ ध्वजा ६ पूर्ण कलश १० पद्म-सरोवर ११ क्षीर-ससुद्र १२ देव-विमान १३. रत्न-राशि १४ निर्धू म अग्नि । पञ्चकल्याणक] [११ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि इन चौदह मगल पदार्थों के दर्शन देवानन्दा ने भी किये थे और उसे भी उनका यही फल मिलना चाहिए था जो माता त्रिशला को प्राप्त हुग्रा परन्तु शास्त्रकार कहते हैं कि गर्भ-हरण होते ही देवानन्दा ने यह भी स्वप्न देखा था कि मुझे स्वप्नो का जो फल प्राप्त होने वाला था वह अव महारानी त्रिशला को प्राप्त होगा। स्वप्न मानव-जीवन का अनिवार्य अग हैं। प्राचीन काल में इस विषय पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए है और आधुनिक मनोविज्ञानवेत्ता भी इस दिशा मे प्रयत्नगोल हैं, जिनमे फ्रायड, एडलर, युग, डेलेग आदि विद्वान् प्रमुख हैं। फ्रायड का कथन है कि स्वप्न-अतीत की घटनाओं के प्रतीक होते हैं। एडलर स्वप्न को वर्तमान जीवन को समस्याओ का प्रतिविम्ब कहते है। युग महोदय स्वप्न को अतीत के अनुभवो का अनुकरण मानते हैं। डेलेग महोदय की मान्यता है कि स्वप्न मे हमारे जीवन के असामजस्य की पूर्ति होती है । यद्यपि वर्तमान स्वप्न-शास्त्रियो की मान्यताए भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु इन सब मान्यताप्रो के इस साराश को अस्वीकृत नही किया जा सकता कि स्वप्न हमारी मानसिक दशा का परिचय देते है स्वप्न हमारे मानसिक जगत के अध्ययन की ऐसी पुस्तक हैं जिसे हम सोकर ही पढ़ सकते है, जागृत अवस्था में नहीं। भूत वर्तमान और भविष्यत् की कोई सीमा नही, जो भूत है वही तो वर्तमान है । एक विद्यार्थी पढ़ रहा है, विगत दस वर्षों से पढ रहा है । वह आज से दस वर्ष पूर्व भी वर्तमान कालिक क्रिया का प्रयोग करते हुए कहता था-'मै पढ रहा हूं' वह आज भी कहता है 'मैं पढ रहा हूं और यदि वह दस वर्ष और पढता रहा तो वह पाच वर्ष बाद भी वर्तमान कालिक क्रिया का प्रयोग करता हुआ कहेगा "मैं पढ रहा हूँ' 1 निष्कर्ष यह कि भूत भविष्यत और वर्तमान १२] [ च्यवन-कल्याणक Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की कोई सीमा नही, अत स्वप्न अतीत के परिचायक भी होते हैं, वर्तमान के प्रतिविम्ब भी होते है और भविष्य की सूचना देनेवाले भी होते हैं। भारतीय स्वप्न-विज्ञान स्वप्न को प्रतीकात्मक मानता है और मानव-प्रकृति का परिचायक भी। आयुर्वेद के ग्रन्थो मे बताया गया है कि 'स्वप्न मे ऊंची उडाने भरनेवाले व्यक्ति वायु-प्रकृति के होते हैं।' इसका अभिप्राय है कि उड़ान के स्वप्न द्वारा वायु-प्रकृति का परिज्ञान होता है। स्वप्न चित्त की अवस्था पर निर्भर करते हैं। भगवान महावीर ने साढे बारह वर्ष तक तप करके जिस मानसिक पवित्रता और आध्यात्मिक शक्तियो का विकास कर लिया था उनके स्वप्न उसी के प्रतीक थे। इन प्रतीकों का आधार भी हमारी जीवन-पद्धति है, हमारे जीवन के अनुरूप स्वप्न-प्रतीक अपना फल दिखलाया करते हैं । एक डाकू द्वारा स्वप्न मे देखा गया सिंह और अर्थ देता है तथा एक महापुरुष द्वारा स्वप्न मे दृष्ट सिंह का अर्थ कुछ और हुआ करता है। अत प्रतीको के निर्माण मे हमारी सामाजिक दशा, पारिवारिक स्थिति, नैतिक मान्यताओं आदि का बड़ा महत्त्व होता है। इसीलिये अक्सर कामी प्रकृति के मनुष्य ही स्वप्नदोष जैसे मानसिक रोगो के शिकार होते हैं । भगवान महावीर की माता त्रिशला ने एक ही रात मे १४ स्वप्न देखे । यह चौदह स्वप्न माता त्रिशला के मन की विशिष्ट अवस्था का एव उसकी अभिलाषायो का तथा गर्भ मे आनेवाले जीव के भावी जीवन का परिचय देनेवाले हैं। आजकल के स्वप्नशास्त्री विभिन्न व्यक्तियो द्वारा देखे गए एक जैसे स्वप्नो का अध्ययन करते हैं, उनकी तुलना करते हैं, तब उसका निष्कर्ष निकालते है । जैन परम्परा के विद्वानो ने चौबीस तीर्थङ्करों की माताओ द्वारा देखे गए समान स्वप्नो का अध्ययन करके ही यह निष्कर्ष निकाला है कि इस प्रकार के स्वप्न देखनेवाली माताए पञ्चकल्याणक] [१३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरो को जन्म देती है। हम नीचे स्वप्न-दृष्ट पदार्थों द्वारा माता विगला की मानसिक दशा का एव भावी तीर्थङ्कर की अभिलाषाओ का परिचय इस प्रकार दे सकते हैं : १. सफेद हाथी माता त्रिशला : वह पवित्र आचरणवाला, किन्तु अत्यन्त वलशाली पुत्र चाहती थी। महावीर : गर्भस्थ शिशु का जीवन पावन एव शारीरिक शक्ति अपरिमित होगी। २. सफेद बैल माता त्रिशला : माता शुद्ध धर्माचरण का पालन कर रही थी (वैल धर्म और वल का प्रतीक है) महावीर : भावी शिशु धर्म का साक्षात् स्वरूप होगा। ३. सिंह माता विशला : उसकी भावना थी कि उसका पुत्र महान शासक बने । महावीर : भावी शिशु जगलो मे रहेगा,वह सिंह के समान निर्भीक होकर हिंसा का विरोध एव पापो का सहार करेगा, वह शासक होगा, धर्म-सघ का, सामान्य प्रजा का नहीं । ४. लक्ष्मी माता त्रिशला : माता त्रिशला, चाहती थी कि मेरा पुत्र लक्ष्मीवान हो और घर मे लक्ष्मी सी वह लाए। महावीर : भावी शिशु लक्ष्मी को ठुकराकर मोक्ष-लक्ष्मी का वरण करेगा। ___५. पुष्पमाला माता विशला : मेरा भावी पुत्र संगठन एवं एकता का विधाता हो। महावीर : भावी शिशु चतुर्विध श्री संघ का सगठन करेगा। ६, चन्द्र माता त्रिशला : मेरी भावी सन्तान सुन्दर हो और वह अनेक पत्नियो १४] [ च्यवन-कल्याणक Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ राज-महल को सुगोभित करे। महावीर : भावी शिशु अज्ञानान्धकार को दूर कर जगत को शीतलता अर्थात् शान्ति प्रदान करेगा। ७ सूर्य माता त्रिशला : मेरा पुत्र सूर्यसम तेजस्वी हो। महावीर : भावी शिशु तप -तेज से मण्डित एव सर्वव्यापक ज्ञान से आलोकित होगा। ८. ध्वजा माता निशला : मेरा पुत्र अपने कुल के यश की ध्वजा सर्वत्र फहरा दे और वह जगद्-वन्ध वने । महावीर : भावी शिशु सर्वत्र धर्म-ध्वजा फहराएगा और जगद् वन्ध होगा। 8. कलश मासा विशला : मेरो भावी सन्तान सभो दृष्टियो से परिपूर्ण हो । महावीर : भावो शिशु ज्ञानामृत का वह पूर्ण कलश होगा जिसको एक बू द पाकर भी लोग धन्य हो जाया करेगे । १०. पद्म-सरोवर माता त्रिशला : मेरा भावी शिशु अपनी राजधानी को सुन्दर बनाए और मेरा परिवार पौत्र-प्रपौत्रो से परिपूर्ण हो । महावीर : भावी शिशु साधु-सघ का विस्तार करेगा और उसका अपना जीवन कमल-पत्र सा निर्लेप होगा। ११. क्षीर-समुद्र माता त्रिशला : मेरे परिवार मे शाति और समृद्धियां निवास करें। महावीर : भावी शिशु का सघ दुग्ध-सिन्धु-सा पवित्र और उसके सिद्धान्त सर्व सुखकारी होगे। १२. देव-विमान माता त्रिशला : मेरे घर में जो भी बालक हो वह कोई स्वर्गीय विभूति हो, नारकीय जीव नही । पञ्चकल्याणक ] . [१५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : भावी शिशु देव-विमानो को ठुकराकर देव-विमानो की पहुच मे भी दूर सिद्धालय की ऊचाइयो पर पहुचनेवाला होगा। १३ रत्न-राशि माता विशला : मेरा पुत्र पृथ्वी का एक रत्न हो । __ महावीर : भावी शिशु रत्नत्रय का पारावक हो नही, उस पर सर्वतोभावेन अधिकार करनेवाला होगा । १४. नि— म अग्नि-शिखा माता त्रिशला : मेरा शिशु सभी प्रकार के दुर्गुणो से मुक्त हो । महावीर : भावी गिनु तेजस्वी होगा, परन्तु उसका तेज संसार की आखे खोलनेवाला होगा, वह सव तरह के पाखण्डो से रहित होगा। इस प्रकार ये १४ स्वप्न अपने प्रतीकात्मक रूपो मे माता त्रिगला की मानसिक स्थिति, विचार-रागि और अभिलापामो के परिचायक हैं और भगवान महावीर के भावी जीवन के द्योतक भी । जैन-आगमो के अनुसार सभी तीर्थङ्कर पाच ज्ञानो-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:-पर्यवज्ञान और केवलज्ञान के धारक होते हैं। गर्भावस्था मे उन्हें तीन ज्ञान होते है-मति-ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान । ये ज्ञान पूर्व जन्मो की साधना से एव कर्मों का क्षयोपशम होने से हुआ करते हैं। महापुरुषो का अवतरण वसुधा के लिये महान पुण्य का कार्य होता है। महावीर के त्रिशला माता के गर्भ मे आते ही सव ओर मागलिक दातावरण छा गया, देश के कण-कण मे हर्षोल्लास उमड़ पड़ा । पत्तीपत्ती एव डाली-डाली पर एक नई बहार आ गई। राजा सिद्धार्थ के राज्य-कोप की वृद्धि होने लगी । सिद्धार्थ के शत्रु भी उनके आगे नतमस्तक होने लगे । सभी प्रकार की समृद्धिया उनके चरणो मे लोटने लगी। जीवो ने अपना-अपना सहज वैर विसरा दिया, मानो वे कभी किसी के शत्रुथे ही नही । अपने कोष की वृद्धि और सब प्रकार की समृद्धि देखकर वन-कल्याणक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 राजा सिद्धार्थ और महा रानी त्रिशला ने निश्चय किया कि इस जीव के गर्भ मे आने से धन-धान्य की वृद्धि हुई है और यश तथा प्रभाव" मे समृद्धि हुई है, अतः जन्म के पश्चात् इस बालक का नाम 'वर्धमान' ही रखा जायेगा । f मनोविज्ञानवादियो ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि शुभ भावनाम्रो से भर कर आप यदि कही भी जाते है तो वहा का वातावरण श्रानन्दमय और मगलप्रद हो जाता है । सकल्प और भावो मे महान शक्ति है । शुभ परिणामो ग्रौर गुभ मकल्पो से दूर बैठकर भी हम अपने इष्ट मित्रो का महान हित कर सकते है और बुरे सकल्पो से दूर बैठे ही किसी का अनिष्ट किया जा सकता है । जबकि साधारण प्राणियो के शुभाशुभ सकल्पो मे हिताहित हो सकता है तो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि महाशक्तियो के धारक प्रभु महावीर के माता की कुक्षि मे आने से वातावरण ग्रानन्दिन तथा सुखमय वन गया हो तो इसमे विस्मय की कोई बात नही है । , इस प्रकार के जीव प्रति दयालु और अनुकम्पा से युक्त होते है | उनका हृदय दूसरो के दुखो को देखकर द्रवित हो उठता है । परदुखकातरता उनकी जीवन-वाटिका का मधुर फल है । वे नवनीत के समान कोमल हृदयवाले होते हैं । भगवान महावीर अत्यन्त दयालु और अनुकम्पा से युक्त थे । माता के गर्भ मे उन्होने अवधि ज्ञान से देखा कि मेरी हिलने-डुलने की क्रियाओ से माता को कुछ पीडा होती है, अत उन्होने अनुकम्पा एव मातृ-भक्ति से अपने को योगी की तरह स्थिर कर लिया । मातृ-भक्ति और मातृ-प्रेम का इस से बढकर उज्ज्वल उदाहरण और कौन सा हो सकता है ? परन्तु इस घटना से माता त्रिशला को गर्भ की निष्प्राणता का भ्रम पैदा हो गया श्रौर वह शोक-सागर मे डूब गई । मानो उसके हाथ मे आया हुआ रत्न किसी ने छीन लिया हो । - माता को दुखी देखकर गर्भस्थ महावीर ने विचार किया कि मोह की गति बडी विचित्र है । मैने अपनी माता के सुख के लिये अग - सचालन बन्द किया था, परन्तु मेरी यह क्रिया माता के लिये कष्ट-कारक सिद्ध [ १७ पञ्चकल्याणक ] i Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई है । इस प्रकार महावीर के जीव ने अपनी माता के ऐसे इच्छित और मनोगत सकल्प को जानकर फिर से अग-सचालन आरम्भ कर दिया । माता पुन. हर्षित हो गई । उसका रोम-रोम कमल की भाति विकसित हो गया । अपनी माता के प्रगाढ स्नेह के कारण ही भगवान महावीर ने गर्भ मे ही प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेरे माता-पिता जीवित है तब तक मैं गृहत्याग कर श्रमणत्व की दीक्षा ग्रहण नही करू गा। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्रसितपक्षफाल्गुनि शशांकयोगे दिने त्रयोदश्याम् । जजे स्वोच्चस्थेगु ग्रहेषु सौम्येषु शुभलग्ने ।। हस्ताधिते शशाके चैत्रज्योत्स्ने चतुर्दशी-दिवसे । पूर्वाण्हे रत्नघटविबुधेन्द्राश्चक्रुरभिपेकम् ।। पंत्र शुक्ला योदशी के दिन, अर्यमा योग मै जबकि समस्त ग्रह अपने-अपने उच्च स्थानो पर स्थित थे, चन्द्रमा हस्त नभन्न में था, ऐसे शुभ लग्न में प्रापका जन्म हुप्रा । चतुर्दशी के दिन पूर्वाह में देवेन्द्रो ने रत्न-निर्मित कलशो से प्रापका अभिषेक किया ! स्तोजरार ने जन्म के समय हस्त नकार लिखा है, परन्तु ज्वेताम्बर-शास्त्र उस समय उत्तराफालागी नक्षर मानने है OPAN. - ISLAM NIOS Won Inc .. AE AIR CHOTI SonS IMS TION LATION SCANVA VOMC EH५८॥ 100 Lu कल्याणक श्री तिलकधर शास्त्री Page #42 --------------------------------------------------------------------------  Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ram TAMATA PLANEONEYMORA.७ जन्म-कल्याराक ० २ ० हम पिछले अध्याय में भगवान महावीर के च्यवन अर्थात् प्राणत नामक देवलोक से धरती पर आगमन की घटना का विस्तृत परिचय प्राप्त कर चुके हैं, अब हम प्रस्तुत अध्याय मे भगवान महावीर के जन्म कल्याणक एव छद्मस्थ जीवन अर्थात् दीक्षा ग्रहण से पूर्व के जीवन पर प्रकाश डालेगे। पथ की प्राचीनता जैन सस्कृति की यह दृढ धारणा है कि प्रत्येक युग मे सत्रस्त मानवता की रक्षा के लिये तीर्थङ्कर जन्म लिया करते हैं। वर्तमान अवसपिणी युग के प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव थे, जिनका नामोल्लेख वेदो एव पुराणो मे भी प्राप्त होता है। कुछ विद्वान तो यहा तक स्वीकार करते है कि जैन-सस्कृति की सत्ता आर्यों के प्रागमन से भी पूर्व यहा पर विद्यमान थी। जैसे कि डा० रामधारी सिंह दिनकर लिखते है' - "यह मानना युक्ति-युक्त है कि श्रमण १- "एव सर्वावसपिण्युत्सर्पिणीषु जिनं नमा."। -मभिधान-चिन्तामणि २- सस्कृति के चार अध्याय । पञ्चकल्याणक ]. ( १९ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्था भारत में आर्यों के आगमन से पूर्व विद्यमान थी ।" मान्य जैन ग्रन्थ 'आगम' कहलाते हैं और सभी जैन तीर्थङ्कर 'पण्णत्त' कहते हैं जिसका अर्थ है कि यह ज्ञान-धारा शाश्वत है, आगम प्ररूपित सत्य परम्परा प्राप्त है, ग्रत केवल इसकी प्ररूपणा की जा रही है अर्थात् उसको पुनः कहा जा रहा है । - मोहनजोदडो की खुदाई में प्राप्त भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्ग - मुद्रा इस विषय का ज्वलन्त साक्ष्य है कि जैन धर्म की प्राचीनता को अस्वीकार नही किया जा सकता । रूसी समाज-शास्त्री श्रीमती गुमेवा ने भी अपनी पुस्तक 'जैनिज्म' में यह स्वीकार किया है कि हडप्पा के सास्कृतिक अवशेषों के रूप मे प्राप्त मोहरों पर कित स्वस्तिक चिन्ह निश्चित हो जैन वने के प्रतोको मे से एक है, अनं जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति से भी पूर्व को सस्कृति है । यह तो माना जा सकता है कि ऐतिहासिक अन्वेषणों की पहुंच अभी तक वहा नही हुई है जहा मे जैन संस्कृति के पूर्वतम अवशेष प्राप्त हो, परन्तु ऋग्वेद' आरण्यको एवं उपनिषदों मे जिन निवृत्ति वर्मा मुनियों को 'वातरेगना' कहा गया है वे जैन मुनीश्वर हो थे । अनएव डा० वासुदेव शरण ने स्पष्ट लिखा है कि "प्राचीनकाल मे जव गोव्रतिक, श्वाव्रतिक, दिशार्तिक आदि सैंकडो प्रकार के सिद्धान्तों को माननेवाले आचार्य थे, उन्ही दिनो निर्ग्रन्य महावीर भी हुए । श्रमण परम्परा के कारण ब्राह्मण वर्म मे वानप्रस्य और सन्यास को प्रश्रय मिला ।" श्रीमद्भागवत् और वाल्मीकि रामायण मे भी श्रमण परम्परा के उल्लेख जैन १. मुनयी वातरशना पिशङ्का वसने मला २. वातरशनाहंवा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थितो बंभूवु । ३- श्रमणोऽमणा तापसी नन्वागत पुण्येतानन्वागत पापेन तीर्णो हि तदा सर्वान् शोकान् हृदयस्य तरति । -- वृहदारण्यक ४-३-२२ ४- श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्याविशारदा. 1 भागवत १२-२-२० ५- तापता मुञ्जते चैव श्रमणाश्चैव भुञ्जते ॥ २० ] 1 -ऋ० १०-१३५-२ - वाल्मिकी जाण१-१४-१२ [' जन्म-कल्याणक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति और ब्राह्मण-संस्कृति के युगो तक साथ-साथ चलते रहने का संकेत करते हैं । यहाँ एक बात और स्पष्ट करने योग्य है कि दोनो परम्पराए यद्यपि साथ-साथ चलती रही, परन्तु दोनो का लक्ष्य एक दूसरे से सर्वथा भिन्न था। ब्राह्मण-संस्कृति धर्म को जीवन के लिये मानती थी और श्रमण परम्परा जीवन को धर्म के लिये स्वीकार करती थी, अत ब्राह्मणी के हांथो मे पड कर धर्म एक व्वेवसाय बनता जा रहा था और श्रमण परम्परा मे धर्म ग्राध्यात्मिक सावना का उच्चतम रूप उपस्थित कर रहा था । ब्राह्मण संस्कृति भौतिक सुखो के लिये धर्मसाधना करती थी और जैन संस्कृति की साधना का लक्ष्य था आत्मसाक्षात्कार । ब्राह्मण-संस्कृति मे प्रेय की प्रधानता रही और जैनसंस्कृति मे श्रेय की । ब्राह्मण-संस्कृति ने "जीवेम शरदः शतम् " - आदि के रूप मे देवताओ से जीवन-साधनो की भिक्षा मागी, देवो का दासत्व स्वीकार किया, परन्तु श्रमण परम्परा ने आत्म-ज्ञान के लिये ससार की समस्त सम्पत्तियो को स्वाहा कर देवाधिदेव बनने का मार्ग प्रशस्त किया । ब्राह्मण धर्म प्रवृत्ति परायणता को महत्त्व दे रहा था और जैन संस्कृति निवृत्ति परायणता को प्रमुखता दे रही थी । महावीर की श्रावश्यकता वैदिक सस्कृति की लोक-कल्याणाभिमुखता के कारण जनमत उस ओर आकृष्ट हो रहा था यह सत्य है, परन्तु उपनिषदो के काल मे लोक-परायणता एव हिंसा - प्रधान यज्ञीयं कृत्यों से जनता का मन निवृत्तिमार्ग की ओर मुड गया था । यही कारण है कि छान्दोग्य उपनिषद में 'यज्ञों' को टूटी-फूटी नाव बताया गया है, परन्तु ब्राह्मणो का प्रवृत्तिवाद जन-मन को ऐसे जकडे हुए था कि वह निवृत्ति-मार्ग की श्र ेष्ठता को समझ कर भी उसकी ओर उन्मुख नही हो पाता था । ब्राह्मण वर्गे ने वेदो को ग्राजीविका का साधन मान कर उस पर पूर्ण अधिकार कर लिया था और उन अधिकारो की सुरक्षा के लिये यहा तक विधान बनाए कि यदि शूद्र वेदमन्त्र सुनले तो उसके कानो मे गरम शीशा और लाख डाल दी जाए, यदि वह उच्चारण करे तो पञ्चवल्यायक ] [ २१ 779 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी जीभ काट दी जाय और वेदो को याद करले तो उसका शरीर काट दिया जाय । यज्ञीय हिंसा के कारण महाभारत युग से पूर्व तक का राजायो का वहुत वडा वर्ग हिंसावादी बन गया था, उसी हिंसा की भयकर प्रवृत्ति ने महाभारत जैसे भयकर युद्ध को जन्म दिया, यही कारण है कि महाभारत के काल से ही वैदिक ऋपि भी अहिंसा को परम धर्म कहने लग गए थे। महाभारत के अनुशासन पर्व मे कहा गया है अहिंसा परमो धर्मस्ताहिसा परो दमः। अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः॥ -महा० अनु० १२६-२ अहिंसा ही परम धर्म है, अहिंसा ही परम दम है, अहिंसा हो सवसे वडा दान है और अहिंसा ही सवसे वडा तप है। महाभारत काल मे वाईसवे तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ जी हुए थे, यदुवशीय क्षत्रियो पर उनका प्रभाव भी था ही, अतः श्रीकृष्ण के मागवत-धर्म मे अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अनहकार आदि तत्वो की प्रधानता है, परन्तु तत्कालीन समाज के शास्ता ब्राह्मणवर्ग ने उन अहिमा-स्वरो को विशेष उभरने नहीं दिया, अत., "यज्ञार्थ पशवः सुष्टा:" का स्वर मन्द नही हो पाया । भगवान महावीर के काल तक हिसावादी क्षत्रिय-कुल प्राय, अपनी शक्ति खो चुके थे, पूर्व के काशी, कोशल, विदेह आदि गणराज्यो मे भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी अहिंसा-धर्म का प्रचार करना चाहते थे, परन्तु उस प्रचार के लिये जिस जीवट की आवश्यकता थी वह जीवट उनमे न था। उसी जीवट की पूर्ति के रूप में भगवान महावीर ने जन्म लिया था। यह ठीक है कि वैदिक काल तक ब्राह्मण सस्कृति नारी जाति को पुरुष के समान ही आदर देती थी, गौतमी आदि इसके निदर्शन हैं, १- अथ हास्य वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्या धोनपरिपूरणम्, उदाहरणे जिव्हाच्छेदो, धारणे शरीरभेद । -गौतम धर्मसूत्र १६५ २२ ] [.जन्म कल्यामक Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु महाभारत काल के पास पहुंचते-पहुंचते नारी केवल समाज की बीमारी रह गई थी, अब उसके अधिकार भी केवल पति-पादोदक तक सीमित हो गए थे। शूद्रो के समान अब उसे भी खुले आम बाजारो में, बेचा जाता था। चम्पापुर नरेश महाराज दधिवाहन की पुत्री वसुमती (जो चन्दना के नाम से साध्वी रूप मे महावीर के साध्वी-सघ की प्रमुख बनी) का कौशाम्वी के बाजार मे वेचा जाना इसका प्रमाण है। इस प्रकार नारी निरीह बन चुकी थी, नारीत्व कराह रहा था, सडी गली रूढियो की दुर्गन्ध से उसका दम घुट रहा था, अत. नारी-हृदय ऐसी भयावह परिस्थिति मे किसी महाशक्ति का आवाहन कर था । इसी आवाहन के आकर्षण ने 'महावीर' को अवतरित किया था। वेचारी दुनियारी तो 'भिखारी बन ही चुकी थी, परलोक 'विषयक सत्य भी तिरोहित हो रहा था। 'मोक्ष' शब्द तो केवल कोषो की शोभामात्र रह गया था। स्वर्ग ही सव का लक्ष्य था, क्योकि वहा पर सुन्दरियो के आकर्षण हैं, दैहिक दु.खो का अभाव है, मनचाहे सुखो की प्राप्ति एव स्वर्गीय लोभावरणो से जन-मन को स्वर्ग-परायण बनाया जा रहा था। इतना ही नही यज्ञो मे मारे गए पशुओ की भीड भी स्वर्ग में ही बढ रही थी। ऐसी दशा मे धर्म-मर्यादाए भटक रही थीं, रूढियो से जकड रही थी, अनेकवाद अपने-अपने विचारो के बाडो मे पशुओ की तरह जनता को बन्द कर रहे थे। उस समय लगभग ३६३ 'मत-मतान्तर जनता को मिथ्या आडम्बरो मे उलझा रहे थे । इस प्रकार खोई-खोई सी जनता त्राण चाहती थी, पथ-प्रदर्शन चाहती थी, उस गहन अधकार मे ज्योति चाहती थी 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के स्वर किसी ज्योति-पुरुष को पुकार रहे थे, इसी पुकार की पूर्ति के रूप मे भगवान महावीर के चरणो ने इस धरा को पावन किया था। वैशाली का सौभाग्य जागा जन्म और मृत्यु ये दोनो हमारे जाने-पहचाने शब्द हैं, क्योकि यहां हम प्रतिदिन जन्म और मरण देखते रहते हैं । जन्म हमारे लिये पञ्चकल्याणक ] । २३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सव बन कर आते हैं इसीलिये यहा जन्मोत्सव मनाए जाते हैं, परन्तु भगवान महावीर की दृष्टि में जन्म का कोई महत्व नहीं, क्योकि जन्म तो मृत्यु का कारण है। जन्म लेने वाले को मृत्यु की शरण में अवश्य जाना पड़ता है और मृत्यु मनुष्य का जन्म के लिये ढकेलती रहती है । इस प्रकार जन्म और मृत्यु का बल युग-युगान्तरी मे बल रहा है। भगवान महावीर इस रोल में सन्तुष्ट न थे। इसलिये वे प्रव इस खेल को समाप्त करना चाहते थे, परन्तु इस खेल की समाप्ति के लिये जन्म लेना अनिवार्य था। ____ इसीलिये उन्हे जगज्जननी त्रिशला के गर्भ से जन्म लेना पड़ा, परन्तु मृत्यु पर विजय पाने के लिये, जन्म मरण की कीड़ा को सदा के लिये समाप्त करना ही उनके जन्म का लक्ष्य था, इसो लक्ष्य की पूर्ति के लिये उन्होने वैशाली में जन्म लिया। वैशाली विहार प्रान्त मे वर्तमान मुजफ्फरपुर जिले की गण्डक नदी के तट पर बसा एक महानगर था, आजकल उसके खटहरो पर वसा एक छोटा सा ग्राम है 'बेसाह पट्टी।' इसको दूरी पटना से लगभग २७ मील है। जन्म-कल्याणक का समय यह तो सर्वमान्य है कि भगवान म विीर के चरणो ने पहली बार चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन ही इस धरा को पावन किया था, किन्तु उनके जन्म-सम्बत् के विषय मे अनेक मान्यताओं के कारण कुछ मतभेद हो जाता है, परन्तु अब प्राय: विद्वानो ने एक मत होकर यह स्वीकार कर लिया है कि उनका जन्म ई० पू० ५९८ मे हुना था। इसका अाधार श्री हेमचन्द्राचार्य जी का परिशिष्ट पर्व है। डा0 ग्राकोबी और शान्टियर आदि विद्वानो ने भी उनका यही जन्म सम्वत् स्वीकार किया है। आजकल १९७४ ईसवी सन् है । इसमें उनका निर्वाण-वर्ष ई० पू० ५२६ जोड़ने पर ही २५०० सौवी निर्वाणशतीइस वर्ष में मनाई जा रही है । इसमे जीवनकाल के ७२ वर्प और जोडने पर उनका जन्म ई० पू० ५६८ स्वीकार करना पड़ता है। माता को धन्यता पिता की सिद्धार्थता वैशाली लिच्छवियो का महान गणतन्त्र राज्य था । इस राज्य के २४] [ जन्म-कल्याणक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुख थे महाराज चेटक । उन्ही की वहिन थी त्रिशला, जिसे वे प्यार से "प्रियकारिणी" भी कहते थे। प्रियकारिणी त्रिशला मे एक आदर्श भारतीय नारी के सभी गुण विद्यमान थे, वह तपस्विनी धर्मप्रिया नारी थी उसकी गुण-गरिमा से वैशाली धन्य थी। प्रियकारिणी त्रिशला का विवाह ज्ञातृगण के प्रमुख महाराज सिद्धार्थ से हुआ था और भगवान महावीर के जन्म से पूर्व माता त्रिशला नन्दीवर्धन नामक गुणवान पुत्र एव सुदर्शना नामक गुणवती कन्या को जन्म दे चुकी थी। उसकी दिनचर्या का वर्णन करते हुए कल्प सूत्र मे कहा गया है "वह त्रिकाल सामायिक और दोनो कालो मे आवश्यक क्रिया करती थी, दीन-हीन-जन-उपकारिणी, पतिव्रता, धर्म-विमुखो मे धर्म का प्रसार करनेवाली, गुरु-वाक्यो पर श्रद्धा रखनेवाली, प्रियधर्मा और दृढधर्मा थी तथा करुणा के कवच से अन्तःकरण की एव धर्म की रक्षा करनेवाली थी।" महाराज सिद्धार्थ और माता त्रिशला भगवान् पार्श्वनाथ के उपासक और श्रमण-सस्कृति के अनुयायी थे।' इतना ही नही वैशाली मे जैनधर्म का एक-छत्र राज्य था, अर्थात् सव लोग जैन-धर्म के अनुयायी थे। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनधर्म वैशाली गण-राज्य का राजधर्म था। इस प्रकार नौ मास सात दिन बाद वैशाली का विशाल प्राङ्गण महावीर के पुनीत चरणो का पावन स्पर्श पाकर पावनता से परिपूर्ण हो उठा, मां त्रिशला के सभी शल्य शान्त हो गए, पिता सिद्धार्थ के सभी अर्थ सिद्ध हो गए । भाई नन्दीवर्धन के सवर्धनार्थ सभी साधन समृद्ध हो गए, भारतवर्ष उन विलक्षण सरक्षणशील क्षणो का आभारी है जिन्होने धरती को तरणतारणहार तीर्थङ्कर का वरदान दिया, धरती को तीर्थङ्कर की धरती होने का सौभाग्य प्रदान किया और भारत को भाग्यवान किया। १. देखिये कल्पसून द्वितीय वाचना। २. महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा (प्राचाराङ्ग) ३ एगायपत्तायमाण-पारहयधम्मो तत्थ णगरे । (कल्पसूत्र) पञ्च-कल्याणक ] [ २५ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के भाग्य खुल गए, पाप-पक के कलक घुल गए । हिमा की सहनन शक्तियों का सहनन हो गया, पाखण्ड खो गया, टियो का वल सो गया। जनता मे जागृति ग्राई, उसने नवचेतना पाई, पुण्य की लहर दौडी, पाप प्रवृत्ति छोडी, माया के बन्धन तोडे, समस्त दुष्कृत्य छोडे । भारत का इतिहास उल्लास से भर गया, उसके कोरे पृष्ठो पर स्वर्णाक्षर प्रति होने लगे, सुप्त श्रहिंसा जागी, चोवृत्ति भागी, सत्य - ख खोली, मुखरित हुई ब्रह्मचर्य की बोली, परिग्रह पल्ला छुड़ा कर चल पडा, श्रमण-संस्कृति का झण्डा गडा । सिसकती मानवता मुस्करा उठी, हिंसा कराह उठी । तीथंडर के जय-जयकारों से श्रम्बर भर गया, जग तर गया । उनके जन्म के प्रभाव से अपराधियों ने अपराध करने छोड दिए । महाराज सिद्धार्थ ने बड़े-बड़े अपराधियो के अपराधों को क्षमा कर दिया, राज्य भर के वन्दीगृह खाली हो गए। मारा क्षत्रिय कुण्ड उल्लास और प्रसन्नता का कुण्ड ही बन गया । निरन्तर दस दिन तक जन्म - महोत्सव की चहल-पहल मे वैशाली प्रानन्दशालिनी बनी रही। जैनो की धार्मिक ग्रास्था के अनुसार इस जन्मोत्सव मे इन्द्र, देवगण तथा दिशा - कुमारियो ने भी भाग लिया था, उनका मेरुपर्वत पर जन्म अभिषेक किया गया था । हो सकता है कि यह देवोत्सव की घटना भी ग्राज के भौतिक युग मे बुद्धिवादी स्वीकार न करे, ऐसी दशा में इस घटना का आध्यात्मिक अर्थ भी किया जा सकता है । भगवान् महावीर के जन्म लेते ही प्रसूतिगृह में छप्पन दिशा कुमारियो का ग्रागमन हुआ - इन छप्पन दिशाकुमारियो के नाम और दिशाए यह संकेत करती हैं कि सभी दिशाओ की समृद्धिया उस दिन माता त्रिशला के घर में प्रविष्ट हो गई जिस दिन भगवान् महावीर वहा प्रकट हुए - जैसे पृथ्वी के नीचे रहनेवाली भोगकरा ( सुख साधनो को जन्म देनेवाली) भोगवती आदि दिशा कुमारियो ने प्रसूतिगृह को शुद्ध और सुगन्धित किया । पृथ्वी का गन्ध गुण प्रसिद्ध ही है और पृथ्वी के निवानो से हम अपरिचित भी नही हैं । श्राकाश से आने वाली दिशाकुमारिया, मेघकरा (मेघ-बनाने [ जन्म-कल्याणुक ३६ ] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाली) मेघवती, सुमेधा आदि नाम महावीर के जन्मकाल से ही राज्य के लिये मुवृष्टि का सकेत कर हैं। पूर्वदिशा से आनेवाली नन्दोत्तरा (आनन्द-कारिणी) नन्दा, अानन्दा, विजया आदि दिशा कुमारिया सुख एव आनन्द के सवर्धन के आगमन की सूचना दे रही हैं। दक्षिण से आनेवाली, यगोवरा, लक्ष्मीवती, वसुन्धरा आदि दिशाकुमारिया, यश, लक्ष्मी एव रत्न-भण्डार की अधिकता को व्यजित कर रही हैं। पश्चिम दिशा से आनेवाली पद्मावती, सीता, भद्रिका आदि रुचक पर्वत निवासिनी दिशाकुमारियां रुचिकारक वातावरण के निर्माण की ओर सकेत कर रही है, अतएव इनके हाथो मे पखे होने का निर्देश किया गया है। उत्तर से आनेवाली हासा, सर्वगा, श्री, ह्री (लज्जा) ये दिशाकुमारिया मुम्कान लक्ष्मी, लज्जाशीलता आदि गुणो के आगमन को प्रकट कर रही है। चित्रा, चित्र-कनका आदि चार दिगाकुमारिया जो चारो दिशाकोणो से आई थी वे सुख-समृद्धियो की विविधता का सकेत दे रही हैं। मध्यमार्ग से आनेवाली रूपा, रूपांगा, मुरूपा और रूपवती ये दिशाकुमारिया सौन्दर्य-वृद्धि को व्यजित कर रही है। ___ इस वर्णन की सांकेतिक अर्थ-प्रणाली भगवान् महावीर के जन्म लेते ही वैशाली मे शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एव सभी प्रकार की समृद्धियो के आगमन की सूचना दे रही हैं। इसके अनन्तर कल्पसूत्र मे सुधर्मा स्वामी वहा पर देवो-सहित इन्द्र और इन्द्राणी के आगमन, उनके द्वारा महावीर को मेरु पर्वत पर ' ले जाने और वहा पर उनके अभिषेक की सूचना देते है । यदि इस घटना का भी प्रतीकात्मक अर्थ स्वीकार कर लिया जाय तो आज के बुद्धिवादी की परितुष्टि हो जाएगी। __ "सौधर्म देव लोक' से 'इन्द्र' का आगमन यह सूचना देता है पञ्च-कल्याणक] [२७ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि मुन्दर धर्म भाव (मोधर्म) की दिव्य ज्योति (इन्द्र) अपनी म शक्ति के साथ ग्राई, उमन महावीर को मेयंत पर बिठाया प्रर्यान सुस्थिरता प्रदान की। अभिपका उनकी जन्म-जात पाबननाएवं मानसिक विगुद्धि का परिचय दे रहा है। इन्द्र के द्वारा पांच रूप धारण करके भगवान को उठाना भी इमी पोर सकेत करता है कि इस घमंज्योति ने पत्र परमेली यो पाराधना करनी है, अहिंमा ग्रादि पांच महाधर्मों का उन्नयन करना है। साथ ही महावीर के द्वारा प्रगूठे में मेग को गम्पित करने का अर्थ है मेर हिल सकता है, धरती काप नकती है, परन्तु महावीर अपनी दृढता से विचलित नही हो सकते । भगवान की इसी ना को देखकर इन्द्र ने उनको 'महावीर' कहा था। इस प्रकार कल्पसूत्र में वर्णित क्षत्रिय कुण्डग्राम का महोत्सव उपर्युक्त देवी समृद्धियो की ही सूचना देता है । नामकरण संस्कार के समय महाराज सिद्धार्य ने कहा इन वालक के जन्म की सम्भावना वाले दिन से ही राज्य में सुख-समृद्धि, वातावरण की पावनता, मानमिक भावो मे पवित्रता एवं सर्वत्र मनोनुकूलता वढ रही है, अतः इस बालक का नाम 'वर्षमान' रला जाए। इस प्रकार 'महावीर' और वर्धमान ये दोनो नाम उन्हें प्राप्त हुए। माता की गोद भर गई, वर्धमान बढने लगे और साथ ही धन से भण्डार भरने लगे, जलाशय वढने लगे, खेतिया लहनहाने लगी, नैरोग्य सवृद्ध होने लगा, चारो ओर मुभिक्ष छा गया। वर्धमान की बाल-तेजस्विता, उनके पैर पर शेर का चिह्न, उनकी प्रखर बुद्धि, उनकी जन्मजात ज्ञान-गरिमा उनके शैशव में ही अकुरित विरक्ति की भावनाए, उनको सहिष्णुता, उनकी प्राणिमात्र के प्रति करुणा को देखकर सवका अनुमान यही कहता था 'वर्धमान' इस युग का तेजस्वी महापुरुप बनेगा । उनका जीवन मानो धर्म का उन्मुक्त १. पच सक्करूवे विउव्वइ । कल्पसूत्र २. सिरि महावीरेति नाम कय । कल्पसूत्र २८] [जन्म-कल्याणक Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर की वीरता प्रत्यक्ष हो उठी वर्धमान अव आठ वर्ष के हो चुके थे, परन्तु उनकी शारीरिक क्षमता मानो ग्रठारह वर्ष पार कर चुकी थी । उनकी शक्ति जवान हो चुकी थी । वर्धमान अभी बालक ही तो थे, बालको के साथ खेले बिना वचपन की सार्थकता कहा ? वे खेल रहे थे बच्चो के साथ । तभी वहाँ पर एक भयकर सर्प आ गया, सर्प की विशाल श्राकृति एव उसकी भयकर फूत्कारो से वालक भयभीत हो गए, कोई वृक्ष पर चढ गया, कोई भाग खड़ा हुआ, सर्प वर्धमान महावीर के सामने ग्राकर खड़ा हो गया । महावीर वर्धमान ने सर्प की ओर देखा और मुस्कराने लगे, तभी उन्होने बच्चो से कहा- 'अरे । सर्प से घबराते क्यो हो ? सर्प तो देवता होता है, देवता से डर कैसा ? बेचारा भटक कर यहा ग्रा गया है, हो सकता है हमारे साथ खेलना चाहता हो, तभी उन्होने दोनो हाथ आगे वढाए और सर्प को उठा लिया । I बालक चिल्लाने लगे - 'वर्धमान यह अजगर जैसा सर्प तुम्हे काट लेगा, छोड दो वर्धमान इसे । वर्धमान ग्रव भी मुस्करा रहे थे । उन्होने फिर कहा - मित्रो | जब हम सर्प को दुख नही दे रहे तो यह हमे दुख क्यो देगा ? दु.ख की सम्भावना उसी प्राणी से हो सकती है जिसे हम दुख देते हैं, अत: इससे डरो नही, बेचारा हाथो से छूटना चाहता है । तभी उन्होने उस सर्प को कुछ दूर ले जाकर छोड़ दिया । सर्प मुक्त हुआ, वह जेल से छूटे कैदी की तरह भागा, उसने सोचा- प्राण बचे सो लाखो पाए ।' आज बालको के हृदय ने पहली बार वर्धमान का वह नाम दोहराया जो नाम उन्हे इन्द्र ने दिया था - ''वर्धमान तुम तो महावीर हो, तुम्हे इतने बड़े सर्प से भी भय नही लगा ।" महावीर ने कहा - 'भय उसी को सताता है जो किसी से शत्रुता रखता है और अन्यो को भयभीत करना चाहता है । सर्प से हमारी कौन सी शत्रुता थी? हमने उसे डराने-धमकाने की भी कोई चेष्टा नही की, फिर हमे उससे डर क्यो लगता ? पन्च - कल्याणक ] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवत्व ने मानवता के चरण पकड़े ___ महावीर खेल रहे थे इष्ट-मित्रो के साथ । तभी वहां एक हृष्ट-पुष्ट 'वालक भी आ गया । प्राकृति से तो वालक ही था, परन्तु उसका वलिष्ठ शरीर उसके बचपन को ढाप रहा था। पकड़ा-पकडाई का खेल खेला जा रहा था, अत. जो पकड मे आ जाता वह पकडनेवाले को पीठ पर चढाकर सवारी देता था। आगन्तुक दुष्ट वालक जानबूझ कर महावीर वर्षमान की पकड मे प्रा गया, अत: उसने वर्षमान को पीठ पर चढा लिया और जगल की ओर भागा । महावीर ने कहा-'अरे देवता कहा ले जा रहे हो ?" वह और तेज भागा। 'अच्छा तो यह वात है ?" कहते हुए वर्धमान ने उसकी पीठ को जोर से थपथपाते हुए कहा-'भागो भाई भागो | भागकर जाओगे कहा ? कहां तक भागोगे ? भला भगोड़ो को भी कभी सफलता मिली भगोड़े को ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसकी पीठ पर किसी ने पर्वत ही रख दिया हो, महावीर की थपथपाहट उसे वज्र-प्रहार सी प्रतीत होने लगी। आखिरकार वह हाफने लगा, वह खड़ा हो गया। उसने महावीर से कहा-'वर्धमान मेरी पीठ से उतर जाओ। वर्धमान उतर कर सामने खड़े हो गए और बोले-"अरे देवता - स्वरूप ! मुझे यहां क्यो ले पाए ?" यह मुनते ही उसने हाथ जोडे अमा मांगी और कहा-'वर्धमान 'तुम सचमुच महावीर हो ! मैं देवता कहलाने योग्य कहा हूं? मैं तो दैत्यो से भी गया बीता हूं, क्या मुझे क्षमा नही करोगे ? 'क्षमा कैसी मित्र ? कण्ट तो तुम्हे ही हुआ है कि मुझे यहा तक “पीठ पर विठला कर लाए हो । तुम्हे कण्ट अवश्य हुआ होगा, क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए। क्षमामूर्ति । मेरे प्रणाम स्वीकार करो ।' यह कह कर वह चल दिया। बालक भी डरते-डरते एव भागते-भागते वही आ पहुंचे। उन्होने वर्धमान को सकुशल देखा तो पूछा-'कहा गया वह दुष्ट ?' वर्धमान का उत्तर था-'उसे दुप्ट कहने से हमे क्या लाभ होगा? .३०] [जन्म-कल्याणक Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह चला गया हमे सवारी देकर । वह सासारिक खेल में उलझने के लिये प्राया था और उसी उलझन मे उलझ कर चला गया है ।' वालक वर्धमान को पाकर प्रसन्न थे, परन्तु वे वर्धमान की वाणी का अर्थ नही समझ पाए । यह तो महावीर ही जानते थे कि उसने कपट करके अपने ससार भ्रमण को ही वढाया है । अनेकान्त का जन्म महावीर जब भी एकान्त मे वैठते तो वे घण्टो आत्म-चिन्तन मे लीन रहते थे । एक दिन वे अपने बहुमजिले महल की वीच की मज़िल मे बैठ कर खिडकी मे से संसार की दशा को देखकर ग्रात्म-लीन हो रहे थे । तभी कुछ वालक नीचे खड़ी माता त्रिशला के पास पहुचे श्रीर उन्होने पूछा - 'मां जी | वर्धमान कहा है ?" माता त्रिगला ने उत्तर दिया - ' ऊपर हैं ।" वच्चे सब से ऊपर वाली मंजिल पर जा पहुचे । वहा महाराज सिद्धार्थ बैठे हुए थे । उन्होने उनसे पूछा - 'पिता जी । वर्धमान कहां है ।' उत्तर मिला नीचे है । बच्चे नीचे ग्रा रहे थे तभी उनकी दृष्टि बीच की मंजिल मे बैठे हुए महावीर पर पडी । वे महावीर के पास पहुचे, और बोले - माता जी ने कहा - 'आप ऊपर है ।' ऊपर बैठे हुए पिता जी ने कहा - 'ग्राप नीचे है ।' पर आप तो यहा वैठे हैं । चिन्तन शील महावीर की प्रतिभा ने कहा- 'माता जी ने ठोक ही कहा, क्योकि नीचे की मंजिल की अपेक्षा मैं ऊपर था और पिता जी ने भी ठीक ही कहा है- 'मैं ऊपर की मंजिल की अपेक्षा नीचे था । " ससार के प्रत्येक पदार्थ को सब अपनी-अपनी अपेक्षा मे ही देखते हैं, अत. जो किसी की दृष्टि में ऊपर है वही किमी की दृष्टि में नीचे है ।' इसी विचार के साथ महावीर के हृदय का प्रमुप्त अनेकान्तवाद जाग उठा । वे बहुत देर से खिडकी मे बैठे हुए एक कौए को देख रहे थे, उन्होने मित्र - वर्ग मे पूछा - 'यह कौया किस रंग का है ? मित्रो का उत्तर था " काले रंग का" । महावीर वोले 'अस्थियो को दृष्टि से क्यो · पञ्च- कल्याणक ] [ ३१ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न इसे सफेद कहा जाय और लाल रक्त की दृष्टि से क्या कौए को लाल नही कहा जा सकता ? श्रनेकान्त का सिद्धान्त धीरे-धीरे उभरता चला प्राया । पूर्व जन्मार्जित विद्या वर्धमान महावीर को माता-पिता ने शिक्षा के लिये गुरु के पास भेजने का निश्चय किया । वैशाली के प्रसिद्ध कलाचार्य के पास उन्हें शिक्षित होने के लिये ले जाया गया, परन्तु यह घटना ऐसी ही थी मानो ग्राम्रवृक्ष को ग्राम्रपत्रो की तोरणो से सजाने का प्रयास किया जा रहा हो । मानो ग्रमृत को मीठा करने के लिये उस मे शर्करा घोली जा रही हो, या चान्द को सफेद करने के लिये दूध से धोने की योजना बनाई जा रही हो । गम्भीर धीर महावीर ने माता-पिता की ग्राज्ञा का पालन किया, और वे विद्यालय मे कलाचार्य के पास जा पहुचे | कलाचार्य के पास बैठे एक वृद्ध ब्राह्मण ने (जो वस्तुतः इन्द्र था) वर्धमान से कुछ व्याकरण सम्बन्धी प्रश्न किये | महावीर ने उत्तर के रूप में पूरा व्याकरण- शास्त्र समझा दिया । कलाचार्य की विद्या गोते खाने लगी । श्रव वृद्ध ब्राह्मण ने कुछ अध्यात्मिक प्रश्न किए। उनके उत्तर मे वर्धमान महावीर ने समस्त अध्यात्म-शास्त्र ही कह डाला । कलाचार्य ने महाराज सिद्धार्थ से निवेदन किया- 'देव | मुझे जो कुछ पढ़ना था वह इस बालक से पढ लिया है, भला आज तक कभी कोई सरस्वती को भी पढा सका है । इस बालक की बुद्धि साक्षात् सरस्वती है, मैं इसे वन्दनाए ही कर सकता हू । पिता सिद्धार्थ तो पहले से ही बहुत कुछ समझे बैठे थे, वे मौन भाव से वर्धमान को साथ लेकर हाथी पर बैठे और घर को लौट माए । तानी उलझी सुलझने के लिये महावीर के शरीर मे प्रवेश कर यौवन धन्य हो उठा, उनके सुगठित शरीर, वर्चस्वी प्राकृति, ऊर्जस्वी मन ग्रोजस्वी मुखाकृति और शरीर के रोम-रोम से फूटता पुरुषार्थ देख कर वैशाली का जनजन मुग्ध था । प्रत्येक माता-पुत्र के विवाहोत्सव की चाह को मन मे सजोए ही ३२ ] [ जन्म-कल्याणक Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखती है। लड़की के पिता भी पुत्री के लिये योग्य वर खोजते ही रहते हैं । माता त्रिशला का मन अव पुत्र-वधू लाने के लिये लालायित हो उठा और दूसरी ओर साकेत-नरेश महाराज समरवीर अपनी सर्वाङ्गः सुन्दरी पुत्री यशोदा के लिये सुन्दर वर की तलाश कर ही रहे थे। माता त्रिशला की अभिलाषा और यशोदा का सौभाग्य परस्पर मिल गए और विवाह की तैयारिया होने लगी। वर्धमान महावीर के सामने विवाह का प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ, वे विचार मे पड़ गए चिन्तन के सागर मे डूब गए। वे अपना लक्ष्य जानते थे। माता त्रिशला के स्वप्नो के माध्यम से सिद्धार्थ भी जानते थे कि 'निर्धूम अग्नि के रूप मे दिखी तप की अग्नि मे अपने जीवन की आहुति डाले विना वर्धमान नहीं रह सकते, परन्तु उन्होने महारानी त्रिशला का मन रखा और विवाह की तैयारिया करने लगे। महावीर माता-पिता की आज्ञा के विरुद्ध चल कर अपने क्षत्रियत्व की परम्परा को दूषित न करना चाहते थे। उन्हे कर्म-विधान की अटलता का भी पूर्ण ज्ञान था, यशोदा के संग रह कर कुछ कर्मों का भुगतान भी उन्हे करना ही था और एक तीसरा कारण भी था, महावीर सहज जीवन के अभ्यासी थे, वे लडना एव विरोध करना नही जानते थे, इसी कारण उन्होने विवाह का भी विरोध न किया। विवाह प्रकृति है, प्रकृति का विरोध विकृति है और प्रकृति एव विकृति से निर्विरोध ऊपर उठना सस्कृति है। महावीर सस्कृति के उन्नायक बन कर आए थे, वे नाना प्रकार के विकारो की राख मे दवी सस्कृति के महानतम उज्ज्वल रूप को प्रकट करना चाहते थे, अत उन्होने विवाह का भी विरोध नहीं किया। विरोध का अर्थ है प्रेम एव आसक्ति, क्योकि आसक्ति और विरोध एक ही लाठी के दो सिरे है । एक सिरे वाली लाठी होती ही नही, अत: विरोध के पीछे आसक्ति रहती ही है। महावीर आसक्ति और विरक्ति किसी का विरोध नहीं करना चाहते थे, अत उन्होने विवाह का भी विरोध नही किया। फिर विवाह श्रावक जीवन का ही एक अग है, जिस महान विरक्त जीवन के लिये वे अपने आपको प्रस्तुत कर रहे थे, उसके लिये देशविरक्तित्व की भूमिका भी प्रस्तुत होनी ही चाहिए थी, उनका विवाह पञ्चकल्याणक] [३३ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी जीवन की एक भूमिका थी। अत. विवाह सम्पन्न हुआ। उनका विवाह कितने वर्ष की अवस्था मे हुया और उन्होने कितने वर्ष तक वैवाहिक जीवन व्यतीत किया, इसका लेखा-जोखा इतिहास के पर्दे के पीछे छिप चुका है, परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय आवश्यक नियुक्ति के 'कुमार-प्रवजित' शब्द के आधार पर उनके वैवाहिक जीवन से सहमत नहीं है, किन्तु कल्पमूत्रकार उनके वैवाहिक जीवन की स्पष्ट घोषणा करते है। ज्वालामुखी उफनने लगा महावीर के हृदय का वैराग्य अव वाहर आने लगा, ज्वाला-मुखी का लावा अन्दर ही अन्दर कब तक रह सकता था, फिर भी उन्होने माता-पिता से विरक्त जोवन मे जाने को पाना नही मागी, क्योकि वे गर्भस्थ-काल मे हो माता-पिता के रहते हुए प्रबजित जीवन न अपनाने की प्रतिज्ञा कर चुके थे, अत: उनके हृदय मे विरक्ति का लावा उफनता रहा, फिर भी उन्होने राज-महलो के जीवन का परित्याग नही किया वे रहते रहे घर मे ही, परन्तु अनासक्तभाव से, उदासीनवृत्ति से, समता पूर्वक । कमल पानी मे रहता रहे, पर पानी मे इतनी शक्ति कहा है कि वह उसका स्पर्श कर सके । महावीर घर में ही रहे, परन्तु घरेलू व्यवहारो से वे निलिप्त रहकर प्रतिक्षण ऊपर उठने का महाप्रयास निरन्तर करते रहे। मुक्ति-मार्ग खुलने की प्रतीक्षा में "आया है सो जायेगा, कौन सकेगा रोक ।" आखिर माता त्रिशला एव महाराज सिद्धार्थ ने व्रतोपवास पूर्वक शुभ भावना भाते हुए शरीर छोड़ दिया और चले गए उन देवलोको की ओर जहा वैठ कर वे अपने पुत्र के सुर-नर-वन्द्य तप.पूत अरिहन्त रूप के दर्शन कर सके। चिता शान्त : चित्त प्रशान्त चितानो पर चैत्य बन गए । नन्दीवर्वन ने पितृदायित्व सभाल लिये । महावीर ने भाई नन्दीवर्धन से कहा-'भैया मुझे आर्त मानवता पुकार रही है, त्याग और वैराग्य मेरी प्रतीक्षा कर रहे है, जबकि ३४] [जन्म-कल्याणक Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससार सन्तप्त है. पीडित है, शोषित है तो मझे ऐश्वर्य मय जीवन जीने का क्या अधिकार है ? मैं जरा-मरण के वेग मे बहना नही चाहता, मै इस वेग को पार करूगा और ससार के लिये समता का वह सेतु तैयार करने का प्रयास करू गा जिमसे जनता भी इस भव-नद से सहज ही पार हो सके। ___ नन्दीवर्धन की आखे प्रेम-विह्वल हो उठीं। वे सोचने लगे-'वर्वमान मेरे अनन्तर इस ससार मे पाया है और वह मुझ से पहले इसे छोडना चाहता है, वय मे कम पर प्रज्ञा मे श्रेष्ठ है। सन्तप्त मनुजता की शान्ति के लिये कितना आतुर है इसका करुणा-पूर्ण हृदय ? क्या कहूं इसे ? वे चिन्ता मे डूब गए। .. वर्षमान ने फिर कहा- भैया | भोग साथ नहीं जाते, मातापिता इसे छोड गए है, यह राज्य-वैभव न जाने हमसे पूर्व कितनो के द्वारा छोडा जा चुका है ? परन्तु राज्य-वैभव हमे छोडे इसमे कोई आनन्द नही, अानन्द तो इसमे है कि हम पहले ही इसे छोड दे। आज्ञा दो भैया | मैं इसे सहज भाव से त्यागने के आनन्द से कही वचित न रह जाऊ।' नन्दीवर्धन 'हा' नही कह सके । वे इतना ही कह पाए 'वर्धमान । अभी ठहरो । दुनिया क्या कहेगी ? भाई ने भाई को घर से निकाल दिया, तुम्हे भी दुनिया कहेगी कि वह घर से भाग गया। महावीर मुस्कराए और बोले - 'भैया ! दुनिया का काम है कहना, वह कहती रहे । दुनिया को दीख रहा है कि मुझे पारिवारिक असन्तोष नही, राज-महल है, वैभव है, दास-दासिया हैं, सुन्दर पत्नी है। दूसरी ओर आप मुझे रोकना चाहते हैं, मै जाना चाहता ह, क्योकि मै असन्तुष्ट हूँ, अपनी स्थिति से । मैंने धन-वैभव इससे भी अधिक पाया है, अन्य सासारिक पदार्थ भी मुझे अनन्त वार प्राप्त हो चुके हैं, अतः मुझे ये प्रिय नही रहे । फिर मैं महलो मे रहता ही कब हू, मैं इटो और पत्थरो को महल नही मान सकता- ये तो ईट-पत्थर ही हैं, मुझे रहने के लिये महल ही तो नही मिल रहा, महल की खोज के लिये ही तो मुझे जाना है, आत्म-परितोष की खोज ही तो मुझे पुकार रही है। पञ्चकल्याणक Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुत: महावीर घर छोडने का आग्रह नही कर रहे थे, न ही वे वाहर जाने के लिये पातुर हो रहे थे। वे तो केवल ममत्व का त्याग करना चाहते थे। घर मे रहने पर घर की ममता उभर सकती है, अत. वे ममता से मुक्त होना चाहते थे। ममत्व लुटने लगा महावीर की करुणा ने अब नया रूप धारण किया । वे जनता का भाव से ही नही द्रव्य से भी दारिद्रय दूर करने लगे। जिस धन पर जनता उनका ममत्व मानती थी, वे उसे दोनो हाथो से लुटाने लगे। ठीक ही था यह वितरण, क्योकि पानी बाढे नाव मे घर मे वाढ़े दाम । दोऊ हाथ उलीचिए, यही सुजन को काम ॥ कल्पसूत्रकार ने दान-राशि का हिसाव लगाया है और बताया है कि वे सूर्योदय से एक प्रहर दिन चढने तक एक करोड आठ लाख स्वर्ण-मुद्राए प्रतिदिन बाटा करते थे, इस प्रकार जनता के दारिद्रय-हरण की प्रक्रिया निरन्तर एक वर्ष तक चलती रही और वर्ष भर मे तीन अरब अठासी करोड अस्सी लाख स्वर्ण-मुद्राए राज्य-कोष में से उन लोगो के पास पहुच गई जिन्हे उनकी आवश्यकता थी । स्वेच्छा से सम्पत्ति का वितरण ही तो समाजवाद है। भगवान महावीर ने समता की दृष्टि के प्रयोगो द्वारा समाजवाद को जो क्रियात्मक रूप दिया वही तो वास्तविक समाजवाद है। भौतिकता प्राध्यात्मिकता के चरणों में झुक गई ___ भाई नन्दीवर्धन ने देखा कि महाबीर घर मे रहते हुए भी बाहर ही रहते है, क्योकि उनका घर मे अस्तित्व न होने जैसा होता है। घर के किसी कार्य से कोई वास्ता नही, किसी कार्य में कोई सलाह 'ही, अत उनकी ममता हार गई, वह महावीर की विरक्ति के चरणो पर झुक गई । भाई ने कहा-'वर्धमान | तुम महान् हो, विराट् हो। विराट को सकीर्ण-सीमाओ में वाधना कठिन ही नही असम्भव भी है, तुम्हारी विश्व-मगल की महती भावना को मैं बाधने में असमर्थ हूं, [ जन्म-कल्याणक Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम ग्रात्मोत्थान और विश्व मंगल की भावना को साकार करने के लिये स्वतन्त्र हो । विराट की ओर प्रस्थान वडे भाई से महाभिनिष्क्रमण की ग्राज्ञा मिलते ही महावीर प्रस्थान के लिये प्रस्तुत हो गए। न तो छोडने का दुख था, न आज्ञा प्राप्त हो जाने का सुख, उन्होने समभाव से साधु जीवन में प्रवेश के लिये घर से विदाई ली । वे किसी गुरु की शरण में नही गए, क्योंकि वे ज्ञान लेना नहीं चाहते थे । वे तो केवल ग्रात्मा मे छिपे अनन्तज्ञान के स्रोत को खोलना चाहते थे। ग्रात्मानन्द अन्तर की वस्तु है, उसके लिये जिस बाह्य प्रक्रिया की आवश्यकता होती है उस प्रक्रिया को वे पूर्ण करके ही जन्मे थे, गुरु की ग्रावश्यकता बाह्य प्रकियाओं के लिये होती है । सत्य के फूल आत्मा की भूमि पर खिलते हैं, महावीर उन्ही फूलो की खोज के लिये निकले थे, गुरु की खोज के लिये नही । उन्होने समर्पित कर दिया था अपने आपको समष्टि के लिये, अतः किसी और गुरु के चरणो में समपर्ण के लिये उनके पास कुछ बचा ही नही था । वे जानते थे कि मैं जिस विराट् तत्त्व की खोज करने के लिये जा रहा हू, वह मेरे अन्दर ही है बाहर नही, प्रत . वे चले अन्तर्मुख होकर — उनका विश्वास थाउद्धरेदात्मनात्मान - अपनी आत्मा का आप ही उद्धार करो। वे अपना उद्धार करने के लिये स्वय ही प्रयत्नशील हुए, परन्तु उनका अपनत्व इतना विशाल, इतना महान और इतना असीम था कि उसमे सब समा गए थे, इसी विशाल अपनत्व ने उन्हे 'अहिंसा' का महा तत्त्व प्रदान किया - दुख और हर्ष का मिलन 'मार्गशीर्ष मास था, कृष्ण पक्ष था, जिस दिन वर्धमान महावीर दीक्षा - पथ पर चलने को प्रस्तुत हुए थे । 'मार्गशीर्ष' का अर्थ है- 'मार्ग का अन्तिम छोर यात्रा का अन्तिम पडाव, आखिरी शिखर । महावीर अपने २६ पूर्व-जन्मो के रूप मे विशाल - जीवन यात्रा करते आ रहे थे । पञ्चकल्याशक ] [ ३७ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह जन्म उनकी यात्रा का अन्तिम छोर था, उनकी साधना यात्रा का अन्तिम पड़ाव था, वे अव जीवन के अन्तिम शिखर पर पहनने की तैयारी करके निकले थे, अत 'मार्ग-शीर्ष मास ही दीक्षा-मास के रूप मे उपयुक्त रहा। · वे धर्म के दस अगों के समष्टि रूप की उपासना द्वारा जीवन के कृष्ण भाग से शुक्ल भाग की ओर जाने को प्रस्तुत हुए थे, अत. दीक्षादिवस के रूप मे उन्होंने कृष्ण पक्ष की दशमी का दिन ही चुना था। फिर दगमी को 'पूर्णा' तिथि कहा जाता है । वे 'पूर्ण-पुरुष' बनने ही तो जा रहे थे। अत: दीक्षा-काल मे 'पूर्णा' तिथि दशमी का होना अनिवार्य था। इस प्रकार मार्ग-शीर्ण कृष्णा दशमी के प्रभात मे ही अर्धमान नवीन आध्यात्मिक जीवन के लिये प्रस्तुत हो गए। दीक्षा-दिवस (मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी) को ज्योतिप की भाषा मे 'सुव्रत' कहा जाता है। सुन्दर पांच महाव्रतो के पालन की दीक्षा के लिये सुव्रत दिन का चुनाव जहा मंगलकारी था वहां दीक्षा-समय का 'विजय' नामक मुहूर्त उनको अवश्यभावी विजय की सूचना दे रहा था। क्षत्रिय कुण्डपुर में शोभा-यात्रा के मार्ग में स्थान-स्थान पर अनेकविध रंग-बिरगे मण्डप बने हुए थे। भगवान महावीर को दीक्षास्नान करवाने के लिये स्वर्ण, रजत और रत्न आदि के एक हजार आठ कला प्रस्तुत थे। इस दीक्षा-महोत्सव मे सम्मिलित होने के लिये सगे-सम्बन्धियो को भी सादर निमन्त्रित किया गया था। राजकुमार वर्धमान दीक्षा अगीकार कर रहे है, इस समाचार के सर्वत्र प्रसारित हो जाने के कारण दीमा-महोत्सव को देखने के लिये दूर-दूर से जनता भीवहा पहुच गई थी। अनेको राज्यो के राजा महाराजा तथा छोटे-बड़े सरदार भी पर्याप्त संख्या मे दीक्षा-महोत्सव देखने आए थे। दीक्षामहोत्सव भी साधारण दीक्षा-महोत्सव नही था चौवीसवें तीर्थङ्कर भगवान महावीर स्वय दीक्षित हो रहे थे। परिणाम स्वरूप मार्गशीर्ष कृष्णा दगमी के शुभ दिन क्षत्रिय-कुण्डपुर मे चारों ओर से जन-समूह का उमड पडना स्वाभाविक ही था। [जन्म-कल्याणक Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्राचारांग सूत्र की मान्यता के अनुसार भगवान महावीर के दीक्षा महोत्सव मे भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिके इन चागे प्रकार के देवदेवियो के समूह अपने-अपने विमानो मे बैठ कर पूर्ण ऋद्धि-समृद्धि के साथ समुपस्थित हुए। उन्होने श्री वर्धमान के लिये नव्य और भव्य मिहामन को रचना को। दीक्षा का कार्यक्रम चालू करते हए उन्होने सर्वत्रयम पूर्व दिशा को पोर मुख करके भगवान महावीर को उम सिंहासन पर बैठाया, तदनन्तर शतपाक' और सहस्त्रपाक तेल से भगवान महावीर का अभ्यगन किया, क्षीर-सागर के स्वच्छ जल से उन्हे स्नान कराया, सुगन्धित वस्त्र से शरीर पोछा, गोशीर्ष-वन्दन का शरीर पर लेप किया, भार मे हल्के और वहमूल्य वस्त्र एवं आभूषण पहनाए, जिप समर भगवान को वस्त्रो, आभूपणो मे विभूपित किया गया, उस समय वे कल्पवृक्ष की तरह सुशोभित हो रहे थे। भगवान का रूप-सौन्दर्य इतना अधिक तेजस्वी और निखरा हुआ प्रतीत हो रहा था कि स्वय सौदर्य भी उनके सौन्दर्य के आगे नतमस्तक हो गया था। अन्त मे अनुपम छवि के धारक भगवान महावीर को चन्द्रप्रभा नामक उस पालकी मे विठलाया गयो जिस पालकी को मनुष्यो और देवो ने मिल कर उठाया। वर्षमान जैसे ही चन्द्रप्रभा नामक पालकी मे बैठे, जनता ने जय-जयकार किया, वैशाली का प्रिय राजकुमार विदा हो रहा था, प्रत. जनता को दुःख होना ही था, परन्तु वैशाली का राजकुमार उस अमर पथ पर जा रहा था, जहा पहुच कर वह अमरता के द्वार सब के लिये खोल देगा, अत. वैशाली के जन-जन का हपित होना भी स्वाभाविक था। वटी हुई रस्सियो की तरह जनता के हर्ष और दुख परस्पर मिले हुए थे। चन्द्रप्रभा पालकी विरक्त महावीर को ईशानकोण की ओर जा रही थी। ईशान-पूर्व और उत्तर का कोण है। पूर्व से ज्ञान का सूर्य निकलना था, विश्व-कल्याण की भावना उत्तरोत्तर विकसित होनी थी, अत पूर्व और उत्तर के कोण मे स्थित जातखण्ड की ओर पालकी १ एक मौ औषधिया से बनाया गया एक तरह का उत्तम तेल । पञ्च-कल्याणक] [३९ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का बढ़ना स्वाभाविक ही था । पालकी दूर निकल चुकी है अब तो केवल वर्धमान की जय हो रही थी तथा हजारो हितचिन्तक व्यक्ति भगवान महावीर को प्रेरणा प्रधान वाते भी कह रहे थे वर्धमान ! "यदि आपने स्वर्ण - सिंहासन छोडा ही है तो अब ज्ञान दर्शन, चारित्र को विलक्षण आराधना से इन्द्रियो का पूर्णतया दमन करो, राग और द्वष ये दोनो सवल मल्ल हैं इनको पछाड़ो, कर्मशत्रुनो को नष्ट करके परम साध्य मोक्ष को अधिगत करो, सिह वन कर निकले हो तो अन्तिम क्षण तक सिंह ही वन कर रहो और समस्त विघ्न-बाधामो पर विजय प्राप्त करो। महावीर की जय, वैशाली का तपस्वी अमर है, भद्र महापुरुष की जय, महावीर का, कल्याण हो, महावोर, इन्द्रिय-विजयी हो, श्रमण-धर्म के पालन मे, सफल हो, महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हो, महावीर का मार्ग निर्विघ्न हो, जय हो विजय हो की ध्वनिया मेरे कानो मे गूंज रही हैं। ... FANARTA Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाविधरूपचिता विचित्रकूटोच्छ्रितां मणिविभूषाम् । चन्द्रप्रभाख्य-शिविकामारुह्य पुराद्विनिष्क्रान्तः ।। मार्गशिरकृष्ण-दशमीहस्तोत्तर- मध्याश्रिते सोमे । षष्ठेन त्वपराले भक्तेन जिनः प्रववाज । मगशिर कृष्णा दशमी के दिन देवी द्वारा निर्मित मणि-विभूषित चन्द्रप्रभा नाम की पालकी पर विराजमान होकर जवकि चन्द्रमा उत्तराहस्त नक्षत्र मे था तब पाप नगर से बाहर निकले भौर षष्ठ भक्त (दो उपवास की प्रतिज्ञा) पूर्वक प्रापने स्वय जैनेन्द्री दीक्षा धारण कर ली। USA M THANIAbin 2620KE तHITY 533 EGatioOM दक्षा.कल्या श्री ज्ञान मुनिजी महाराज Page #66 --------------------------------------------------------------------------  Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा- कल्याणक 0, हजारो हृदय भगवान महावीर के चरण सेवक बन कर अपना कल्याण करने की कामना कर रहे थे। हजारो हाथ अपने-अपने इष्ट मित्रो को भगवान का परिचय करवा रहे थे और हजारो मस्तक प्रभु के मंगलमय पावन चरणो मे श्रद्धा पूर्वक प्रणत हो रहे थे । इस तरह देव - वन्दनीय भगवान महावीर की शोभा कुछ निराली ही दृष्टिगोचर हो रही थी । तरुण दिवाकर का प्रखर तेज नेत्रो के लिये जैसे प्रसह्य होता है, वैसे ही भगवान महावीर रूप तरुण दिवाकर के सन्मुख आख उठाने का किसी को भी साहस नही होता था । कुण्डपुर के समस्त बाजारो को पार करते हुए भगवान महावीर ज्ञातृखण्ड नामक उद्यान में पधार गए । प्रभु पालकी से नीचे उतरे और अशोक वृक्ष के नीचे जाकर उन्होने दीक्षा-पाठ पढने के उद्देश्य से जब अपने वस्त्रो और ग्राभूषणो को उतार दिया, तभी इन्द्र ने उनके कन्धे पर एक वस्त्र रख दिया जो देवदूष्य के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है । तदनन्तर भगवान महावीर ने अपने हाथो से पचमुष्टि-लोच किया । पंचसृष्टि-लोच क्या है ? कल्पसूत्रीय सुवोधिका टीका के अनुसार पञ्चमुष्टि लोच का अर्थ है एक मुष्टि से दाढी मूंछ के और चार मुष्टियो से सारे सिर के केशों को उखाड़ कर फेंक देना । इस अर्थ विचारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थकर भगवान गरदन से ऊपर के भागो में जो केश है उन सब को पांच मुष्टियों मे भर कर उखाड़ दिया करते है । १ एकया मुष्ट्या कूर्च चतसृभिस्तु ताभिः शिरोजान्, स्वयमेव पचमौष्टिक लोच करोति ।" पञ्चकल्याणक ] [" Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु दाढ़ी मूंछ और सिर के समूचे केश पांच मुटियो से कैसे उखाड़े जा सकते हैं ? यह विचारणीय है । वुद्धि इसकी व्यावहारिकता पर सन्देह करती है। एक बार लुवियाना में जैन-धर्म-दिवाकर प्राचार्यप्रवर पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज ने श्री कल्पसूत्र का अध्ययन कराते हुए पच मुष्टि केशलोच शब्द का जो अभिप्राय समझाया था मुझे वह तर्क-संगत एवं व्यावहारिक जान पड़ता है । पूज्य गुरुदेव ने कहा था कि जिस व्यक्ति ने केग-लुञ्चन का दृश्य देखा है वह यह अच्छी तरह जानता है कि लोच करनेवाला व्यक्ति अपनी अगुलियो से केशो को उखाड़-उखाड़ कर अपनी मुट्ठी में एकत्रित करता चला जाता है, लुञ्चित केशों से जब मुट्ठी भर जाती है तब वह केशो को छोड़ कर मुट्ठी खाली कर लेता है। मुट्ठी भरने और भर जाने पर उसके रिक्त करने का यह क्रम चलता ही रहता है। इस तरह जिस लोच में केशो की पांच मुट्ठियां भर ली जाएं अयवा जिस लोच में केश पचमुष्टि-प्रमाणवाले हों उनकी लोच को पच-मुष्टि-केशलोच कहा जाता है । पच-मुष्टिलोच का यह रूप वुद्धिगम्य जान पड़ता है। __ तदन्तर दीक्षा ग्रहण करते समय सर्वप्रथम प्रभु ने 'णमो सिद्धाण' कह कर सिद्ध भगवान को वन्दना की । वन्दन करने के पश्चात् देव मनुष्यों के विशाल समुदाय के सामने ही करेमि सामाइय, सव्व सावज पंचक्वामि" यह दीक्षा-पाठ पढ़ कर उन्होंने सामायिक चारित्र अङ्गीकार किया। . . . . सामायिक ग्रहण करते समय भगवान महावीर ने 'भते !' इस पद का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि सभी तीर्थ कारों का परम्परागत ऐसा ही माचार होता है । अाज तक जितने भी तीर्थङ्कर हुए हैं, वे सभी करेमि सामाइय सञ्चं " .." इन्ही पदो का उच्चारण करते हैं। महावीर जिस समय प्रवजित जीवन मे प्रवेश के लिये दीक्षा-पाठ पढ़ रहे थे उस समयं देव मनुष्यों का सब कोलाहल शान्त हो गया तथा । सम्पूर्ण पाप-कर्णे'का तीन करण और तीन योग से त्याय करता हूँ अर्थात् - मन वचन और कर्म में न स्दय हिमा करूंगा; न किसी से हिंसा करवा ऊंगा और न ही हिंसा करनेदाते का कभी समर्थन ही करूगा। , - [दीक्षा-क्ल्याणक, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोत्सव के उपलक्ष्य में बजाए जानेवाले विविध बाजों की ध्वनियां भी बन्द कर दी गई ताकि शान्त वातावरण में भगवान महावीर दीक्षा का पाठ पढ सके और मनुष्य देवो का समुदाय भी मंगलमय उस दीक्षापाठ को ध्यानपूर्वक श्रवण कर सके । जब कोई महासाधक किसी गुरु की शरण ग्रहण कर दीक्षित होता है तब वह गुरु के लिये सम्मानार्थ 'भन्ते ।" शब्द का प्रयोग करता है, परन्तु भगवान महावीर के लिये किसी गुरु की आवश्यकता न थी, क्योकि गुरुओ द्वारा जो कुछ सीखा जाता है, उसे वे पूर्वजन्मों में सीख चुके थे, उन्हे किसी शास्त्र का श्रवण कर उद्बोध प्राप्त नही करना था, उन्होने तो केवल अपने अन्तर में अवस्थित ज्ञान-स्रोत को उद्घाटित करना था । उन्होने उद्धरेदात्मनात्मानम् - अपना उद्धार ग्राप हो करो, की उक्ति के अनुसार अपना उद्धार आप ही करना था, अत. वे स्वयं ही दीक्षित हुए । श्रद्वितीय महावीर जैन साहित्य का परिशीलन करने पर पता चलता है कि जब भगवान ऋषभ देव दीक्षित हुए थे तो उस समय उनके साथ चार हजार राजा और भी दीक्षित हुए थे । इसी प्रकार भगवान वासुपूज्य के साथ छ: सौ, भगवान मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ के साथ तीन-तीन सौ व्यक्तियो ने दीक्षा अङ्गीकार की थी । इन तीर्थङ्करों के अतिरिक्त अन्य जितने भी तीर्थङ्कर हुए, उनके साथ एक-एक हजार व्यक्ति प्रवजित हुए, परन्तु भगवान महावीर ही एक ऐसे तीर्थङ्कर थे, जिनके साथ अन्य किसी व्यक्ति ने प्रवज्या ग्रहण नही की। वे अकेले ही साधु बने । इसीलिये कल्पसूत्रकार ने इनके लिये - 'एगे अबीए" कहा है जिसका भाव स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं एको रागद्वेषसहायविरहात् अद्वितीयः यथा हि ऋषभाचतुः १ (क) दिव्वो मणुस्स घोसो, तुरियणिणाम्रो य सक्कवयणं । ( खिप्पामेव णिलुक्को, जाहे पडिवज्जइ चरित ॥ १ ॥ --भाचा० भा० २ (ख) श्रावश्यक चूर्ण, प्रथम भाग पृ० २६२. पञ्च-कल्याणक 1 " ܐ [ ४३ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षामहस्रया राज्ञा, मल्लिपश्चिी विभिस्त्रिभिः शत, वासुपूज्य: 'षट्शत्या, पाश्च सहस्रेण सह.प्रबजितास्तथा एको भगवान्न केनापि सहेत्यतोऽद्वितीय । रागद्वेष की सहायता से रहित होने के कारण कोई अन्य व्यक्ति दीक्षित होने वाला उनके साथ नही था, अतः भगवान महावीर को अद्वितीय कहा गया है। मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि जैन-शास्त्रो की मान्यता के अनुसार जान पाच प्रकार के होते हैं१ मति-ज्ञान, २ श्रुत-जान, ३ अवधि-जान, ४ मन.पर्यव-ज्ञान और ५ केवल ज्ञान। इन्द्रियो और मन की सहायता से पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान मतिनान, शास्त्रो के पढने-सुनने से उत्पन्न होनेवाला बोध श्रुतज्ञान, इन्द्रिय और मन की सहायता के विना रूपवान् पदार्थों को ग्रहण करनेवाला ज्ञान अवधिज्ञान, इन्द्रिय और मन की सहायता के विना समनस्क जीवो के मनोगत भावो को जाननेवाला ज्ञान मन.पर्यवज्ञान और त्रैकालिक समस्त पदार्थो को हस्तामलक-वत् एक साथ जानकारी करानेवाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। जैन-दर्शन की यह मान्यता है कि तीर्थकर भगवान जब गर्भ में अवतरित होते हैं तब वे अवधि-ज्ञान से युक्त होते हैं । अत: चरम तीर्थकर भगवान महावीर गर्भस्थ अवस्था मे ही अवधिनान के धारक थे, परिणाम स्वरूप वे इन्द्रियो और मन की सहायता के विना ही मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को जान सकते थे और देख सकते थे। उन्होने गर्भकाल मे माता बित्रला के विषाद और हर्ष पूर्ण दृश्यो से प्रभावित होकर माता-पिता के जीवित रहने तक दीक्षा ग्रहण न करने की जो प्रतिमा की थी, इसके पीछे भी अवधिज्ञान को शक्ति ही काम कर रही थो। तीर्थकर भगवान को पूर्व जीवन-कृत अध्यात्म-साधना के प्रभाव से गर्भकाल मे जैसे अवविज्ञान की उपलब्धि होती है, वैसे ही पूर्वभवीय “तप -साधना के वल से दोक्षा ग्रहण के साथ ही उन्हे 'मनं पर्यव-ज्ञान की भी उपलब्धि हो जाती है । इसीलिये ज्ञातृ-कुल-शिरोमणि भगवान ८४] [ दीक्षा-कल्याणक Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ने जिस समय दीक्षा ग्रहण की उसी समय-उन्हे मनःपर्यव-ज्ञान की उपलब्धि भी हो गई थी। इस ज्ञान के प्रभाव से भगवान साधु बनते ही जीवो के भावो को जानने लगे थे। किसी ने ठीक ही कहा है कि 'पुण्यगील जीव का अपना कुछ निराला ही प्रभाव होता है, उसके पास समस्त ऋद्धि-सिद्धियां अपने आप ही भागी चली आती हैं। राजकुमार से भिक्षु भगवान महावीर जिस समय दीक्षा-पाठ पढ़ रहे थे उस समय का दृश्य बडा ही रोमाञ्चकारी था। सव अनुभव कर रहे थे कि कुछ क्षण पहले जो राजकुमार थे वे अब भिक्षु बन गये हैं। जिस शरीर पर राजसी वस्त्र और आभूषण शोभा पा रहे थे और जो शरीर चकाचौंध कर देनेवाली हीरे-जवाहरात की दिव्य-प्रभा से स्वर्गपुरी के देवशरीरो को भी निस्तेज बना रहा था, उस शरीर पर अव आभूषण नाम की कोई वस्तु नही रही है, केवल इन्द्रप्रदत्त देवदूष्य वस्त्र कन्धे पर डाला हुआ दिखाई दे रहा है । भले ही प्रभु का मुखमण्डल त्याग एव वैराग्य की कुछ निराली ही छटा दिखला रहा था, परन्तु भगवान महावीर को शिरोमुण्डित वेष मे देखकर इनके वडे भाई नरेश नन्दीवर्धन तथा अन्य पारिवारिक लोग विह्वल से हो उठे, सब का दिल भर आया, अांखे सजल हो गई, सबके सब भावी विरह-जन्य पीडा से परिपीडित हो 'गए, संवके कण्ठ गद्गद् हो गए, सव मन ही मन प्रभु के साधु-पथ की सफलता के लिये मगल कामनाए करने लगे। भीष्म-प्रतिज्ञा ___ अव महामहिम भगवान महावीर ने एक भीष्म प्रतिज्ञा की"आज से बारह वर्ष तक जब तक केवल-ज्ञान का महाप्रकाश प्राप्त न होगा तब तक मैं जन-सम्पर्क से सर्वथा अलग रहकर आत्मसाधना करूंगा। सभी प्रकार के केप्टो को समता से सहन करूंगा।" १ वारस वामाइ वोसट्ठकाए,चियत्तदेहे जे केई उवसग्गा समुप्पज्जति त जहा - दिव्वा वा, माणुस्सावा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे ममुग्पन्ने समाणे मम्म सहिस्सामि, खमिस्सामि, अह्यिासिस्सामि । 'प्राचा०, श्रु० २.१० १३ पन्न ३९१ 'पञ्च-कल्याणक] [४५ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न हो सकता है कि भगवान महावीर मति, श्रुति, अवधि और मन पर्यवज्ञान इन चारो ज्ञानो के धारक थे, इन के लिये धर्म का कोई रहस्य अनजाना नही था, ऐसी दशा मे उन्होंने जन सम्पर्क से निवृत्ति क्यो की ? सयम क्षेत्र मे पदार्पण करते ही धर्म देशना की पावन गंगा प्रवाहित न करके बारह वर्ष के लम्बे काल के लिये वे मौन साधना के क्षेत्र मे क्यो उतरे ? परन्तु भगवान महावीर के जीवन-शास्त्र का जब हम गम्भीरता से अध्ययन करते है तो विना किसी झिझक के वहा जा सकता है कि भगवान महावीर अपने जीवन को ही एक प्रयोगशाला बना कर जीवन-निर्माण के सभी सिद्धान्तो को उसमें परखना चाहते थे, क्योकि जव तक किसी बात को पहले अपने जीवन की प्रयोगशाला मे न परखा जाए तब तक उसका अन्यत्र सफल होना अनिश्चित होता है । 3 f दूसरी बात कथनी और करनी की विषमता को भगवान महावीर अपने निकट नही आने देना चाहते थे। कहने से पहले कथनीय तत्त्व 7 को जीवन में लाकर परखने की उनकी सुदृढ आस्था थी । इसीलिये दीर्घदर्शी भगवान महावीर ने सबसे पहले आत्म-सुधार का, केवलज्ञान प्राप्त करने के लिये अपने विकारो को नष्ट करने का महाव्रत अमीकार किया, जोकि उनके मंगलमय व्यक्तित्व के सर्वथा अनुरूप ही था । यदि आज के समाज-सुधारक भगवान महावीर के इस अनूठे प्रदर्श को अपना, दूसरो को समझाने से पहले अपने आपको समझाने की कोशिश करे तथा कथनी और करनी मे विषमता न रहने दें तो बहुत शीघ्र ही भारतीय जनता का मङ्गल हो सकता है ।" जन्मभूमि से प्रस्थान अब भगवान महावीर ने ज्ञातखण्ड नामक उद्यान से प्रस्थान कर दिया । यह विहार का दृश्य भी कुछ निराला ही था । उस समय सबके नेत्र प्रेमाश्रु से भीग गए थे । जाते हुए भगवान को वे तब तब तक देखते रहे जब तक कि भगवान महावीर उनकी श्राखो से मोझल न हो गए । वापिस जाते हुए सभी दर्शको को यही अनुभव हो रहा था कि मानो आज हमारा सर्वस्व किसी ने छीन लिया हो । 1 1 x ] [ दीक्षा- कल्याणक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहृदयता के अमर प्रतिनिधि भगवान महावीर कहीं पर ध्यानस्थ खड़े थे, वहां पर एक वृद्ध ब्राह्मण प्राया, यह विपत्ति का मारा हुअा, गरीबी का सताया हुआ और दरिद्रता से बुरी तरह से पिसा हुआ था । वह भगवान महावीर का साक्षात्कार करते ही आनन्द-विभोर हो उठा और उनके चरणों का स्पर्श करके कहने लगा-"भगवन् ! मैं बहुत दिनो से आपको ढूढ रहा था, पास-पास के गावों और जंगलो को छान मारा, प्राज दर्शन पाकर कृत-कृत्य हो गया हूं। मुझे पता चला है कि आपने साधु बनने से पूर्व सावन की झड़ी की तरह स्वर्ण-मुद्राए वरसाई , किन्तु मैं भाग्यहीन खाली ही रहा । आप तो ब्रह्मनानी महापुरुप हैं, मेरी निर्धनता गरीठी और दयनीय दशा से आप अपरिचित नहीं हैं। मेरेलिये तो आप कल्पवृक्ष है, आपका शरणागत हू प्रभो ! इस दीन ब्राह्मण पर भी कुछ कृपा कीजिए। अनेकों वार गिड़गिड़ाने पर भी जब भगवान मौन रहे, उन्होने कोई उत्तर नहीं दिया तो उस ब्राह्मण की आशाओ के सव दीप बस गए । अन्त मे वह सिसकियां भरता हुआ रोने लगा और भगवान के चरणो से लिपट गया। ब्राह्मण की दयनीय स्थिति देख कर करुणासागर भगवान महावीर ध्यान खोलकर बोले __ "देवानुप्रिय ! तुम्हारी दयनीय दशा तो मैं स्वय देख रहा हूं, परन्तु, अव तो मैं एक अकिंचन भिक्षु हूं, अर्थ-सम्पदा की तेरी कामना इस समय कैसे पूर्ण कर सकता हू ?" । यह सुनकर ब्राह्मण ने दीनतापूर्ण शब्दो मे पुनः कहा-"भगवन् । आप तो अनन्त बली है, जो चाहे कर सकते है। चाहे तो एक क्षण में रत्नों को वर्षा करदे और मिट्टी को स्वर्ण बना डाले। ब्राह्मण की चापलूसी का निराकरण करते हुए भगवान बोले "भद्र | में जादूगर नही हू, यात्म-साधना का विशुद्ध साधक हूं, सोनेचादी के टुकड़ो को लिये नीलाम की जानेवाली मेरी साधना नही है। • यह सुनते ही ब्राह्मण की आखो के आगे अन्धेरा सा छा गया । भगवान के घर जाकर भी अपने को खाली रहता देखकर वह पुन पञ्च-कल्याणक] [४५ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूट-फूट कर रोने लगा। कन्णामूर्ति भगवान महावीर ज्यो-ज्यो उमे सान्वना देते त्यो-त्यो उसका दिल और अधिक चीत्कार कर उठता। सहृदयता और सवेदना के अमर प्रतिनिधि भगवान महावीर मे यह दृश्य देखा नहीं गया । उन्होने अपना देवदूप्य फाडा और उसका प्राधा भाग ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण लोभी था, वह सारा देवदृष्य लेना चाहता था, लज्जा के मारे वह माग तो नहीं सका, परन्तु उसे, प्राप्त करने का प्रयास करने लगा। भगवान के विहार करने पर कुछ ही दूरी पर वह भगवान के पीछे-पीछे रहता था, समय की बात समझिए कि तेरह मास के बाद एक दिन वह अावा देवदूप्य कांटों में उलझ कर कही गिर पड़ा । अपनी मनोरथपूर्ति देखकर ब्राह्मण हर्ष के मारे फूला नहीं समाया । यह भी कहा जा सकता है कि महावीर इतने प्रात्म-अवस्थित हो गए थे कि उन्हे देह का भान ही न रह गया था, अत: देह से देवदूप्य गिर गया इसकी उन्हे प्रतीति भी न हुई होगी, क्योकि देवदूष्य का सम्बन्ध गरीर से था और महावीर उस शरीर से अलग रह कर साधना के अभ्यासी हो गए थे। उपसर्गों की छाया तले विहार करते हुए भगवान महावीर सन्च्या समय एक मुहुर्त दिन शेष रहते कूर्मारग्राम मे पहुचे। योग्य स्थान देख कर प्रभु ध्यान में अवस्थित हो गए। दीक्षा के समय गोशीपचन्दन का शरीर पर जो लेप किया गया था, उसकी सुगन्धि का प्रभाव चार महीने से भी अधिक रहा था। यही कारण था कि भ्रमर आदि सुगन्धि-प्रिय कीट इनके गरीर पर तीक्ष्ण डक मारते थे, मांस नोचते थे, रक्त चूसते थे, परन्तु महावीर ने कभी उन्हे हटाया नही, न ही वे कभी व्यथित हुए। मेरु की -१ कल्पसून के मूल मे या किसी अन्य शास्त्र में इस कथानक का कोई उल्लेख नहीं है । प्राचारागसूत्र तथा कल्पसूत्र मे १३ मास के बाद देवदूष्य के गिर जाने का उल्लेख मिलता है। तथापि आधा वस्त्र ब्राह्मण को देने का वहा पर कोई वर्णन नहीं है, परन्तु चूणि टीका मादि मे भगवान द्वारा आधा वस्त्र देने का उल्लेख अवश्य देखने मे आता है। [दीक्षा कल्याणक Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भांति निश्चल होकर, वे दंग - परीपह-जन्य भयंकर वेदनाओ को समना के साथ सहन करते रहे । इन्द्र को श्रभ्यर्थना भगवान महावीर कुर्मारग्राम के वाहिर व्यान मे खडे थे कि अचानक एक ग्वाला वहा आया और प्रभु के पास अपने पशुओ को चरने के लिये छोड़ कर स्वयं अपने घर चला गया । अपने स्वभाव के कारण पशु चरते-चरते वहा से दूर चले गए। गृह-कार्यों से निवृत्त होकर ग्वाला जब वापिस आया तो पशुओं को न देख कर उसने भगवान से पूछा । भगवान तो व्यानावस्थित थे, अत वे मौन ही रहे । ग्वाला पशुग्रो को ढूढने चला गया । समय की बात समझिए कि जिस दिशा मे पशु गए थे वह उस दिशा मे न जाकर किसी दूसरी दिशा में जा पहुचा, फलतः सारी रात पाव घिसाने पर भी उसे पशु नही मिले। इधर पशु चरते-चरते पुन भगवान के पास ग्रा गए और वही बैठ गए । ग्वाले ने आकर जब वहां बैठे पशु देखे तो वह आग बबूला हो गया, क्रोध मे तमतमाने लगा और ग्रावेश मे भर कर वोला - "रात भर पशुओ को छिपाए रक्खा । अब इन को ले जाना चाहता है ? तेरी इस घूर्तता का अभी तुझे मजा चखाता हूँ ।" यह कहकर वह हाथ में पकड़ी रस्सी से ही प्रभु पर प्रहार करने लगा। इधर देवराज शक्रेन्द्र महाराज ने अवविज्ञान से भगवान पर प्रहार कर रहे ग्वाले को देखा तो वे निमेषार्थ में ही वहा पहुच गए और देवी प्रभाव से ग्वाले के हाथ वही उठे रह गये । उस ग्वाले को इन्द्र महाराज ने भगवान महावीर के विलक्षण त्यागी जीवन का जव परिचय दिया तब वह वहुत लज्जित हुआ । उसने अपने अपराध के लिये प्रभु से क्षमायाचना की । ग्वाले द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार से शक्रेन्द्र महाराज का मन बडा खेदखिन्न हो रहा था, इसीलिये उन्होने महामना भगवान महावीर से विनीत प्रार्थना करते हुए कहा - "भगवन् | आपका सावनाकाल मुझे तूफानो सकटो से घिरा हुआ दिखाई दे रहा है । अज्ञानी जीव आपको यातनाएं पहुचाएंगे। मेरे आराध्य देव पामर जीवो से अपमानित हो यह मेरे लिये ग्रसह्य है, अतः आप आज्ञा दे कि यह चरण पञ्चकल्याणक } | ४९ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवक पाप की सेवा में रहे और पापको मानवी, देवी या पाशविक कोई भी कष्ट न होने दे। इन्द्र की यह प्रार्थना सुनकर प्रभु महावीर ने सहज भाव से कहा-"इन्द्र कर्मों का भोग चक्रवर्ती एव वासुदेव सत्र को भोगना पडता है। जिन्हे आप उपसर्ग कप्ट या वेदना कहते है, मैं उन्हे पूर्वसचित कर्मो के परिमार्जक मानता हू। अत यहा खिन्नता का क्या मतलब? इन स्थितियो मे भी मेरे मन सन्तोष में किश्चित् भी अन्तर नही पा सकता। रही तुम्हारी मेरे पास रहने की बात, यह तुम्हारी भक्ति है, परन्तु देवेन्द्र | साधना के कदम किसी अन्य के पावो मे नही नापे जाया करते, वे तो अपने ही पांवो से नापे जाते हैं। सच्ची साधना को किसी के साहाय्य की अपेक्षा नहीं होती। सहायता और साधना का ३६ के अक जैसा विरोध है । वह सावना ही क्या है जो अपनी रक्षा स्वय न कर सके, अत मुझे तुम्हारी किसी सहायता को आवश्यकता नहीं है।' पांच दिव्यो की वर्षा : कूर्मारग्राम में रात्रि व्यतीत करने के अनन्तर भगवान महावीर ने वहा से विहार कर दिया और वे कोल्लाग नामक नगर मे पहुचे । वहा पर भगवान ने एक ब्राह्मण के घर खीर से पष्ठ भक्ततप (वेले) का पारणा किया। खीर-दान के अवसर पर "अहोदानमहोदानम् (आश्चर्यकारक दान") के दिव्यघोप के साथ देवतायो ने आकाश से पांच दिव्यो की वर्षा करके दान की महिमा के गीत गाए। वे पाच दिव्य . हैं - वस्त्रो की वर्षा की, सुगन्धित जल से पृथ्वी का सिंचन किया, पुप्पो की वृष्टि की, देवदुन्दुभि वजाई और माढे बारह करोड स्वर्ण मुद्रामो की वर्षा करके भूमि को स्वर्णिम बना दिया। पांच प्रतिज्ञाओं की आराधना : - कोल्लाग-सन्निवेश से विहार करके भगवान महावीर मोराक "नापेक्षा चक्रिरेऽहंन्त परसाहायिक क्वचित्, केवल केवलज्ञान प्राप्नुवन्ति स्ववीयंत । "स्ववीर्येणैव गच्छन्ति, जिनेन्द्रा परमं पदम् ।" --त्रिपप्टिशलाका पुरुष ५० ['दीक्षा-कल्याणक Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्निवेश (नगर) मे पधारे। --वहां पर सन्यासियो का एक प्राश्रम-था। आश्रम के कुलपति भगवान के पिता महाराजा सिद्धार्थ के मित्र थे, अत: उन्होने भगवान महावीर को देखते ही पहचान लिया, लेने के लिए आगे आए, स्वागत किया, कुलपति की प्रार्थना पर भगवान एक रात्रि के लिए वहा पर ठहर गए। - - दूसरे दिन जब वहा से प्रस्थान करने लगे तो कुलपति ने अपने आश्रम मे ही वर्षावास (चातुर्मास) व्यतीत करने की विनति की। इस विनति को स्वीकार करते हुए भगवान कुछ समय के लिये प्रास-पास के गावो मे भ्रमण करके, पुन. उसी आश्रम मे पधार गए और एक पर्णकुटीर (घास की कुटिया) मे रहने लगे। इस बार वर्षावास मे वर्षा इतनी अधिक हुई कि पशुयो को घास मिलनी भी कठिन हो गई। परिणाम-स्वरूप भूखे पशु सन्यासियो के पर्णकुटीरो की घास खाने लगे। अन्य सभी सन्यासियो ने तो अपनी-अपनी कुटिया के सरक्षणार्थ घास खाने से पशुशो को हटा दिया, परन्तु भगवान महावीर सहजभाव से अपने आत्मध्यान मे ही लगे रहे। उन्होने किसी पशु को वहा से नही हटाया। पशुओ द्वारा पर्णकुटीर का नुकसान होता देखकर आश्रम के कुलपति ने भगवान से कहा-"क्षत्रिय होकर भी एक कुटिया की रक्षा नहीं कर पा रहे"? कुलपति का यह खेदपूर्ण उपालभ सुनकर भगवान महावीर मन ही मन विचार करने लगे-"जब महलो की ममता नही रक्खो तव इस पर्णकुटीर पर ममता रखने का क्या मतलब ?" यदि ममता के पथ पर ही चलना होता तो घर-बार छोड़ने की क्या आवश्यकता थी ? यह ममता तो अात्मचिन्तन मे वाधक है, विष और अमृत तथा अन्वकार और प्रकाश का मेल कैसा ? दूसरी बात, पशु भूखे हैं अपने स्वार्थ के लिये मैं इन के भोजन मे वाधक बनू , यह मेरे लिए असह्य है। इसलिये भगवान ने कुलपति की बात पर ध्यान नहीं दिया। तथापि भगवान कुलपति के मानस को भी व्यथित नही करना चाहते थे, इसलिये उन्होने वहा पर रहना ही उचित नहीं समझा और उन्होने चातुर्मास मे ही विहार कर दिया। ऐसी स्थिति मे विहार का होना स्वाभाविक था, क्योकि ममता को बेड़ियो को तोडकर "वसुव' पञ्च-कल्याणक] [५१ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुटुम्बकम्" के मङ्गललय महामन्त्र का पाठ करनेवाला एक अहिमाव्रतधारी अपने कारण किसी को परिपीडित या परिव्यथित नहीं कर सकता । अव उन्होने पाच प्रतिमाए धारण करली-१. जिस स्थान पर रहने से अप्रीति पैदा हो वहा पर नहीं रहूंगा।२ यथाशक्य अधिक समय प्रतिमा ध्यान मे ही व्यतीत करू गा।३ मौन रम्व गा, अर्थात् जहा बोलना आवश्यक न हो वहा किसी मे बोलूगा नहीं। ४. किमी अन्य पात्र का प्रयोग न करके अपने हाथो मे ही भोजन करूगा। ५ गृहस्यो को कभी खुशामद नही करू गा।' पांवो मे चक्रवर्ती के चिन्ह पुष्प नाम के एक मामुद्रिक शास्त्री थे जो सामुद्रिक शास्त्र के बड़े अच्छे ज्ञाता थे। वे एक वार गङ्गा नदी के किनारे-किनारे जा रहे थे। वहा से अभी-अभी भगवान महावीर गए थे, अत रेत मे प्रभु की पादपक्तियो द्वारा चक्र, ध्वज और अकुश आदि के चिन्ह पड़ गए थे। इन पद-चिन्हों को देखते ही सामुद्रिक शास्त्री वडे विस्मित हुए और विचार करने लगे कि यहा से अवश्य ही अभी कोई चक्रवर्ती नगे पाव गुजरा है। अपनी आर्थिक स्थिति को ऊंचा उठाने की दृष्टि से उन्होने सोचा कि 'चक्रवर्ती के दर्शन करने चाहिए । उनकी सेवा करके अपने सोए भाग्य को जगाना चाहिए।" यह सोच कर वे शीघ्र ही चले और पदचिन्हो का अनुगमन करते हुए भगवान महावीर के पास जा पहुंचे। महावीर ध्यानावस्थित थे, पद-चिन्ह वाले व्यक्ति को शिरोमण्डित एक सन्त के रूप में देख कर वे आश्चर्यचकित रह गए। ' सामुद्रिक-शास्त्र के अनुसार ये पद-चिन्ह चक्रवर्ती के होने चाहिए, परन्तु यह तो एक भिक्षाजीवी साधु है। जो स्वय भिक्षा माग कर जीवन का निर्वाह करता है, वह मुझे क्या दे सकता है ? क्या सामुद्रिक शास्त्र झूठा ही है? मैं आज तक इस शास्त्र को व्यर्थ ही सत्य मानता रहा, यह तो विल्कुल असत्य है । ऐमे झूठे शास्त्र को तो नदी मे ही प्रवाहित १. (क) इमेण तेण पच अभिन्गहा गहिया... , .. -आव० मलय० (ख) नाप्रीतिमद्गृहे वास., स्थय प्रतिमया मदा। न गेहि विनय कार्यों, मोन पाणी च भोजनम् ॥ -कल्पसून-मुवोधिकाटीका ५२ [ दीक्षा-कल्याणक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर देना ठीक है।' यह सोचकर वे सामुद्रिक शास्त्र को नदी में प्रवाहित करने ही वाले थे कि इतने में भगवान महावीर की चरण-वन्दना करने आ रहे देवराज शकेन्द्र ने अवधिज्ञान से यह सारी स्थिति समझ ली और उन्होने उसे गास्त्र को फेकने से रोकते हुए कहा___ "भद्र | सामुद्रिक शास्त्र सर्वथा सत्य है, इस मे चक्रवर्ती होने के जो चिन्ह लिखे हैं वे भी ठीक है परन्तु आपने गम्भीरता से इनका अभिप्राय नही समझा जिस व्यक्ति के चरणो मे सामुद्रिक-गास्त्र-वणित ये चिन्ह उपलब्ध हो,यदि वह गृहस्थ-जीवन मे रहता है तो वह छ.खण्डो का नाथ चक्रवर्ती होता है,परन्तु यदि वह गृहस्थाश्रम को छोड़कर सयम-साधना के क्षेत्र मे पा जाता है तो वह तीन जगत् का पूज्य, वन्दनीय, सुरासुरों का सेव्य और चतुर्विध सघ का सस्थापक तीर्थकर होता है। तीर्थकर भगवान के शरीर का पसीना दुर्गन्व-रहित, श्वासोच्छवास सुगन्धित और रुधिर गाय के दूध के समान सफेद और मधुर होता है। ये सामान्य सन्त नहीं है। ये परम त्यागी, वैरागी शान्ति के अमर सन्देश-वाहक, तथा देव-मनुष्यो के पाराव्य, पूज्य तीर्थकर भगवान महावीर हैं। आजकल इनका साधनाकाल चल रहा है, इसीलिये इनका वास्तविक तेजस्वी और वर्चस्वी स्वरूप तुम्हारे चर्म चक्षुत्रो से ओझल हो रहा है। इतना कह कर शक्रेन्द्र महाराज ने सामुद्रिक शास्त्री के मनोरथ की पूर्ति करते हुए उन्हे सुवर्णादि देकर सन्तुष्ट किया और सामुद्रिक शास्त्री तथा शक्रेन्द्र दोनो ही भगवान महावीर के पावन चरणो मे वन्दना, नमस्कार करके अपने-अपने स्थानो को चले गए। शूलपाणि यक्ष का उद्धार और दश स्वप्न अव भगवान महावीर अस्थिकग्राम मे पधारे । सन्ध्याकाल हो गया था। गाव के बाहर शूलपाणि नामक यक्ष का मन्दिर था। भगवान उसी मे विराजमान हो गए । गाव वालो ने प्रभु से प्रार्थना की-"प्रभो। मन्दिर का यक्ष बडा क्रूर है, वह रात्रि मे यहा पर किसी को ठहरने नहीं देता, अत आप किसी दूसरे स्थान पर ठहर जाएं।" सायकाल होने पर मन्दिर का पुजारी आया तो उसने भी प्रभु से मन्दिर को छोड देने का आग्रह किया, परन्तु भगवान महावीर को अपने प्रात्मवल पर पञ्चकल्याणक ) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो विश्वास था.उसे आज वे परखना चाहते थे, तथा यक्ष के सुवार की भी उनकी प्रवल भावना थी, अत: वे सब के कहने पर भी किमी अन्य स्थान पर नहीं गए, प्रत्युत वही पर एक कोने मे व्यान लगा कर खड़े हो गए। __रात्रि होने पर शूल राणि यक्ष ने भगवान महावीर को व्यानावस्थित देख कर सोचा-"यहा रात्रि को रहना निषिद्ध है यह समझा देने पर भी यह साधु यहा से गया नहीं और ध्यान लगा कर खडा हो गया है, मालूम होता है इसे अपनी शक्ति का अभिमान हो गया है। सबसे पहले मैं इसके अभिमान का नशा उतारता है। उसने कहकर इतना भयकर अट्टहास किया जिससे कि आस-पास का सारा प्रदेश काप उठा, परन्तु भगवान महावीर पर इस अट्टहास का कोई प्रभाव नहीं पडो । वे पहले की भाति न्यानस्थ ही ग्वडे रहे। अब उस यक्ष ने हाथी का रूप धारण करके तीक्ष्ण दातो से भगवान महावीर पर अनेको प्रहार किए, उन्हे पात्रो मे रौंदा, पिशाच बनकर भयकर नखो से भगवान के शरीर को नोचा, सर्प बन कर जहरीले डक मारे, तथापि भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए । यक्ष को जव अपनी पराजय होती दिखाई देने लगी तो उसने अपने अन्तिम हथियार का प्रयोग किया और भगवान के पाख, कान, नाक, सिर, दांत, नख और पीठ इन सात स्थानो पर ऐसी भय करतम वेदना उत्पन्न कर दी कि यदि कोई साधारण व्यक्ति होता तो वह तत्क्षण वही पर ढेर हो जाता, परन्तु महावीर तो सच्चे महावीर थे, सात स्थानो को छोडकर यदि शरीर के सभी अगो मे इस से भी उन वेदना पैदा कर दी जाती तव भी वे डावाडोल होनेवाले नहीं थे, सकटो की इस लोम-हर्षक आधी मे भी प्रभु महावीर मेरु पर्वत की भाति अडिग रहे। शूलपाणि यक्ष अपना पूरा जोर लगा कर अब थक चुका था, परिणाम स्वरूप महावीर के धर्य और शौर्य के आगे वह लज्जित तथा नतमस्तक हो गया, अन्त मे प्रभु के चरणो मे प्रणत होकर क्षमायाचना करने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नही था। इसलिये प्रभु के चरणो मे गिरकर उसने क्षमायाचना करते हुए विनम्र प्रार्थना की ५४] [ दीक्षा-कल्याणक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "भगवन ! मैं आप को एक साधारण, दुर्वल सन्यासी ही समझता था, परन्तु आप तो एक असाधारण सन्त हैं, सन्त ही नही, सन्तशिरोमणि हैं, आपका धैर्य और शौर्य बडा ही विलक्षण है, पाप इतने महान् सहिष्णु और दृढव्रती हैं, इसकी मुझे स्वप्न मे भी कल्पना नहीं थी। क्षमासागर प्रभो, मेरे अपराधो के लिये मुझे क्षमा करे। मैंने आज की रात्रि मे आप को जो दु ख दिये है, इसका मुझे हादिक खेद है, पश्चात्ताप है, ग्लानि है । आपकी अहिसा-माधना ने मेरा हृदय विल्कुल परिवर्तित कर दिया है । प्रत. आज मैं आपके श्री चरणो मे सच्चे हृदय से प्रतिज्ञा करता हूं कि आज से मैं किसी जीव की हिंसा नही करू गा और अहिंसा भगवती की आराधना करता हुआ अपने पापो का प्रायश्चित्त करूंगा।" इतना कहकर शूलपाणि यक्ष सजल नयनो के साथ भगवान के चरणो मे अपना मस्तक रख कर क्षमा मांगता हुआ वहां से चला गया। उस समय मुहूर्त भर रात्रि अवशिष्ट थी, तत्पश्चात् भगवान महावीर को अचानक निद्रा आ गई।' निद्रित अवस्था मे ही भगवान ने दश स्वप्न देखे १ एक तालपिशाच को अपने हाथो से पछाडते देखा। २ एक श्वेत पक्षी को अपनी सेवा मे उपस्थित देखा। ३ विचित्र वर्णवाला पुस्कोकिल सामने देखा। ४ देदीप्यमान दो रत्नमालाए देखी। . . श्री कल्पसूत्रीय टीका के अनुसार शक्रेन्द्र महाराज द्वारा नियुक्त किए हुए सिद्धार्थ देव ने जव शूलपाणि यक्ष का यह उपद्रव देखा, तव वहां आकर उसने उसे बहुत डाटा और कहा, "ये भगवान महावीर हैं, देवेश शकेन्द्र के आराध्य हैं, यदि तेरो इस काली करतूत का उन्हे पता चल गया तो वे तेरा नामोनिशान मिटा देंगे। सिद्धार्थ देव की इस धमकी से शूलपाणि यक्ष भयभीत हो गया और उसी समय उसने भगवान से क्षमा-याचना की तथा भविष्य मे ऐसी भूल न करने का प्रण किया। २. तत्थ सामी देसूणे चत्तारि जामे अतीव परितावितो।। पभायकाले मुहुत्तमेत्त निद्दापपाय गतो ॥ -माव० म० पृ०२७० पञ्चकल्याणक ] [ ५५ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. एक श्वेत गो-वर्ग सम्मुख खडा देखा। ६ विकसित पद्मसरोवर देखा। ७ अपनी मुजानो से महाससुद्र को तैरते हुए देखा। ८ विश्व को प्रकाशित करते हुए सूर्य को देखा। ६ वैडूर्य वर्ण सी अपनी प्रातो से मानुपोत्तर पर्वत को वेष्ठित करते देखा। १० अपने आपको मेरु पर्वत पर चढते देखा। इन स्वप्नो के अनन्तर उनकी निद्रा भग हो गई और वे पुन• अपने आत्म-चिन्तन मे तल्लीन हो गए। अस्थिक ग्राम मे उत्पल नाम के एक निमित्तज्ञ (ज्योतिपी) रहते थे। वे कभी भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के सन्त थे, किन्तु दुर्वलता वश साधु-वृत्ति छोड कर गृहस्य बन गए थे। जब इन्हे पता चला कि महावीर शूलपाणि यक्ष के मन्दिर मे ठहरे हैं तो अनिष्ट की सभावना मे उसका कलेजा कांप उठा। प्रात.काल होते हो वह यक्ष के मन्दिर मे पहुचा तो वहा भगवान को सकुशल देखा तथा "भगवान महावीर की दयादृष्टि से शूलपाणि यक्ष का उपद्रव सदा के लिए शान्त हो गया है।" इस हर्ष समाचार से प्रसन्न हुए अस्थिक ग्राम निवासियो को भगवान की महिमा का गान करते देखा तो उनको परम हादिक सन्तोष हुआ। उत्पल अपने दैविक इष्ट के बल से मन की बात भी जान लेते थे, इसीलिये जव उन्हे भगवान के.देखे दश स्वप्नो का जान हुआ तव उन्होने स्वप्नो का फलादेश बतलाते हुए भगवान से प्रार्थना की-'प्रभो। आज रात्रि को आपने जो दश स्वप्न देखे हैं वे बड़े महत्त्वपूर्ण, उत्तम और शुभ फलदायक हैं। इन स्वप्नो का फलादेश देख कर ऐसा लगता है कि एक दिन आप विश्व के जाने-माने महाप्रतापी महापुरुप होगे, ससार की ममूची शक्तिया आपकी चरणदासी होगी। आप तो सब कुछ जानते ही हैं, परन्तु मैं अपने अनुभव के आधार पर स्वप्नो का जो फलादेश जान सका हूं, वह आप श्री के पवित्र चरणो मे निवेदन करता हू: १ तालपिशाच दीर्घकाय राक्षस का नाम है। इसको मारने का अर्थ है कि आप श्री मोह-रूप कर्म-पिशाच का अन्त करेंगे। [ दीक्षा-कल्याणक Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ पुस्कोकिल नर कोयल को कहते हैं, इसका स्वप्न-दर्शन"आप को शुक्ल ध्यान प्राप्त होगा" इस अभिप्राय को अभिव्यक्त करता है। ध्यान के अनेक प्रकारो मे से शुवल-ध्यान सब से उत्तम एव प्रशस्त च्यान माना गया है । इसकी आपको अवश्य ही प्राप्ति होगी। ३. विचित्र वर्णवाले (रग-विरगे) पक्षी के दर्शन का अर्थ हैग्राप विविध ज्ञान रूप श्रुत की देशना देगे, द्वादशाङ्गी वाणी का प्रकाश करेगे। ४ श्वेत गोवर्ग (गो-समुदाय) को देखने से आप साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध सघ को स्थापित करेंगे। ५ विकसित पद्मसरोवर देखने से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिप्क और वैमानिक ये चार प्रकार के देव आप की सेवा करेगे। ७ समुद्र को तैर कर पार करने से आप एक दिन ससार-सागर को पार करेगे। ७. विश्व को आलोकित करते हुए उदीयमान सूर्य को देखने मे आप केवल-ज्ञान अधिगत करेंगे। ८ अातो से मानुपोत्तर पर्वत को वेष्टित करने से आप की कीर्ति सारे मनुष्य लोक मे प्रसारित होगी। ६. मेरु पर्वत पर चढने से आप धर्म-सिंहासन पर बैठ कर देवो और मनुप्यो को धर्मोपदेश देगे। १० आपने देदीप्यमान जो दो रत्न मालाए देखी हैं, इस स्वप्न का अभिप्राय मैं तो नही समझ सका।" निमित्तज्ञ की यह बात सुन कर भगवान ने तत्काल उत्तर दिया कि इस स्वप्न को देखने का अर्थ है कि "मैं साधु-धर्म और श्रावक-धर्म का कथन करुगा।" १ भगवान महावीर ने जो मौन रहने की प्रतिज्ञा की थी उसका अभिप्राय यही था कि, जहा बोलनो अत्यधिक पावश्यक होगा, वहीं वोलूगा, अन्यथा मौन ही रहूगा । अत एक अत्यधिक आवश्यक प्रश्न का उत्तर देने के लिये भगवान का बोलना उनकी प्रतिज्ञा के विरुद्ध नही कहा जा सकता। पञ्च-कल्याणक] [२७ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के पावन मुखारविन्द से यह फलादेश सुनकर निमित्तज्ञ प्रानन्दविभोर हो उठा। शूलपाणि-यक्ष का उपद्रव शान्त हो जाने से अस्यिग्राम के घर-घर मे हर्प छा गया। भगवान महावीर ने यही पर प्रथम चातुर्माम किया और इस चातुर्मास मे भगवान ने पन्द्रहपन्द्रह दिनो के आठ बार उपवास किए । अच्छन्दक पर उपकार : अस्थिकग्राम का चातुर्माम समाप्त करके भगवान ने मार्गशीर्ष प्रतिपदा को वहा से विहार कर दिया और वे मोराक सन्निवेश मे पहुच कर वहा के एक उद्यान में विराजमान हो गए। यहा अच्छन्दक नाम का एक ज्योनिपो रहता था। लोगो मे इसका वडा अच्छा प्रभाव था, इसी प्रभाव से इमकी और इसके परिवार को आजीविका चलती थी, परन्तु जब लोगो ने श्रमण भगवान महावीर का विलक्षण त्यागवैराग्य देखा ता सब ने प्रभु-चरण को शरण ग्रहण की। अधिक से अधिक जनता प्रभु के चरणो मे उपस्थित होने लगी। प्रभु की सेवा मे रहनेवाला सिद्धार्थ नामक देव सव आगन्तुक व्यक्तियो की मनोकामनाए पूर्ण कर देता था। फलत प्रभु का प्रभाव व्यापक होता गया और अच्छन्दक ज्योतिषी का प्रभाव घटता चला गया । अपने गिरते हुए प्रभाव को देख कर अच्छन्दक वडा दुखी हुआ और कोई उपाय न देख कर अन्त में वह सीधा भगवान के चरणो मे पाया, दीन स्वर मे अभ्यर्थना करते हुए कहने लगा "प्रभो | पाप तो तेजस्वी महापुरुप हैं और मैं ठहरा एक पामर अन्नकोट । भगवन् । अाज एक अन्तर्वेदना लेकर आपकी शरण मे आया है। कहते हुए लज्जा भी ग्राती है, परन्तु कहे विना गुजारा भी नही है। आप के इवर पाने से मेरी प्राजीविका समाप्त हो रही है, अत यदि आप मुझ पर दया करते हुए कही अन्यत्र पधार जाए तो मैं और मेरा परिवार जीवित रह सकेगे, अन्यथा सब को भूखे ही मरना होगा।" अच्छन्दक की अन्तर्वेदना सुन कर करुणावतार भगवान महावीर उसी समय वहा मे चल दिए। इनके कारण किसी को कष्ट हो यह [ दीक्षा-कल्याणक Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हे सर्वथा असह्य था, इसीलिये इन्होने मोराक सन्निवेश मे प्रस्थान करने मे जरा भी विलम्ब नहीं किया। प्राधा वस्त्र भी गिर गया : भगवान जा रहे थे, मार्ग मे सुवर्णवालुका नदो पर उनका दीक्षाकालीन देवदूष्य काटो मे उलझ कर गिर गया। इस समय प्रभु को दीक्षित हुए १३ महीने हो चुके थे। इस तरह तेरह महीने प्रभु वस्त्रधारी रहे, इसके पश्चात् ये अचेल अर्थात् वस्त्र-रहित हो गये। वे इस स्वल्प से साधनाकाल मे ही विदेह हो गए थे, देह का भान भूल से गए थे। आत्म-अवस्थित के लिये देह का ज्ञान कहा रह जाता है। जव देह का ज्ञान नही तो वस्त्र की क्या आवश्यकता थो ? वस्त्र देह के लिये है. देह वस्त्रो के लिये नही, अत अब न देह का ध्यान था और न वस्त्र का। चण्डकौशिक सर्प का जागरण : भगवान महावीर उत्तर वाचाला नगरी की ओर जा रहे थे। मार्ग मे कुछ व्यक्ति मिले तो उन्होने कहा- आगे चल कर एक दृष्टिविष भयकर सर्प रहता है, जिसका विप देखने मात्र से मनुष्य को जला देता है। उसकी विपैली फुफकारो से तो आकाश के पक्षी भी धराशायी हो जाते है। इसके विष ने वृक्षो को भी मुखादिया है। सर्प का नाम चण्ड कोशिक है, अत आप यह माग छोड दें। दूसरे मार्ग से चले जाए।" परन्तु भगवान ने लोगो की इस बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया और वे अपनी मस्ती से उसी रास्ते पर ही बढते चले गए। सच्चे महा-पुरुष की यही विशेषता होती है कि उसकी करुणादृष्टि मानव तक सीमित नही रहती, उनकी आत्मीयता जीव मात्र तक विस्तृत हो जाती है, इसीलिये भगवान महावीर ने नागराज चण्डकौशिक के उद्धार का निश्चय किया। चण्डकौशिक : एक परिचय : एक तपस्वी अपने शिष्य को साथ लेकर भिक्षा को जा रहे थे । शिष्य गुरु के पीछे था। अचानक एक मेण्ढक गुरु के पाव के नीचे दव पञ्चकल्याणक ] [ ५९ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • कर मर गया । शिष्य ने उसे देखा तो अपने गुरु में प्रायचित ने को कहा । यह तो पहले ही मरा पत्र था।" यह कर गुरु यि की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया | शिव ने सायकानीन प्रणि करते समय पुन कहा- 'भेण्ठन के मर जाने का बाकी प्राचिन में लेना चाहिए ।' शिष्य के बारबार कहने से गुरु को को गया । धान्य हो के शिष्य को मारने दौटे और थोडी ही दूरी पर एक स्वभ से टकरा कर उनका प्राणान्त हो गया । वह तपस्वी वहां से मरकर बनकर नामक बाथम के कुलपति की धर्मपत्नी के गर्भ मे बालक रूप से पैदा हुए। जन्म होने पर बालक का नाम कौशिक वा गया। यह (न) प्रकृति का था, फलत चण्डकौशिक के नाम से प्रसिद्ध हो गया । वा होने पर कुलपति बना दिया गया । इसे प्राथम के वृक्षों में वटा प्यार था । किसी को फल-पुष्प भी नहीं तोड़ने देता था। एक बार कुछ राजकुमार इकट्ठे होकर प्राश्रम के फल फूल तोडने लगे तो वह क्रोधित होकर कुल्हाड़े से उन्हें मारने दौड़ा । रास्ते मे कूप में गिर जाने से उसकी मृत्यु हो गई और वह ग्राश्रम मे सर्प दन गया । लोग भी उसे चण्डकौशिक हो कहने लगे । इसका विष बड़ा भयकर था । आश्रम के बहुत से तापम उसने विष मे जला दिए । ग्रवशिष्ट तापस भाग गए। यवम उजड़ गया । इसी चण्डकौशिक का उद्धार करने के लिये प्रभु महावीर इधर आए और आते ही ये उसके दिल के पास ध्यान लगाकर बढ़े हो गए । सर्वराज को जब मनुष्य की गन्ध हाई तो यह तत्काल बिल से बाहिर ग्राया और इसने साते ही पूरे धावेश के साथ प्रभु के चरणों पर डक दे मारा, परन्तु प्रभु महावीर पर उसका कोई प्रभाव नही हुआ और वे शान्त भाव से ध्यान में खड़े रहे । नागराज ने इसे अपना अपमान समझा । यह भी कहा गया है कि भगवान महावीर के शरीर से रक्तवारा के स्थान पर दुग्ध की वारा प्रवाहित हुई थी । सम्भव है इसे आज वा बुद्धिवादी स्वीकार न परे । ऐसे बुद्धिवादियों के यह भी कहा जा सकता है कि भगवान महावीर के परितोष के लिये शरीर मे कषायों ६० ] [ दीक्षा- कल्याणर Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अभाव था, अत दश-स्थान से दुग्ध प्रवाहित हुआ का यह अभिप्राय माना जा सकता है कि उनके शरीर से शुक्ललेश्या के श्वेत परमाणु प्रवाहित हुए और उनके स्पर्श से 'नाग' भी श्वेत हो गया, अर्थात् उमकी भावनाए भी विशुह हो गई । परिणाम स्वरूप क्रोधावेश मे अाकर उसने फिर इतने जोर से डक मारा कि रक्त की धारा प्रवाहित्त होने लगी। भगवान की सौम्य और शान्त मुखमुद्रा मे कोई अन्तर नही पाया चेहरे पर पहले की भाति मुस्कराहट अठखेलिया कर रही थी । नागराज का अभिमान गल गया। वह शिथिल होकर प्रभु-चरणो पर फन रख कर गान्त हो गया। नागराज की यह दशा देखकर करुणासागर भगवान ने ध्यान खोला और वे मुस्कराते हुए बोले-"नागराज । जागो, क्यो व्यर्थ मे क्रोध की आग मे जल रहे हो । इस क्रोधाग्नि ने तो पहले ही तुम्हारा बहुत नुकसान कर रक्खा है। अपने अतीत को देखो, पहले तुम मनुष्य थे, पर क्रोधाग्नि से जलकर सर्प बन गए हो। अव तो होश करो, अपने को सभाली।' भगवान के इन वचनों ने धधकनी अग्निज्वाला पर जल डालने जैसा काम किया। नागराज का क्रोध शान्त हो गया और उसने एक अलौकिक शान्ति अनभव की। अन्तर से स्फूरणा का स्रोत फूट पडा-"ऐसे शान्त वचन सुने हुए है" । चिन्तन मे गभीरता पाने पर जाति-स्मरण ज्ञान की ज्योति जगमगाने लगी। जाति-स्मरण का अर्थ है-अपने पिछले जन्मो का परिवोध । वस फिर क्या था, पूर्व जीवन के चलचित्र पाखो के आगे नाचने लगे, क्रोध के दुष्परिणाम कितने भयकर होते हैं, यह समझने मे कुछ भी देर नही लगी। अपने ही जान-चक्षुप्रो से अपने अतीत को देखकर नागराज बडा लज्जित एव स्विन्न हुआ। अपने कृतकर्म के लिये पश्चात्ताप करते हुए नागराज ने मूक भाषा मे भगवान से क्षमा मागी। इसके बाद अहिंसा भगवती के चरणो मे अपने को समर्पित कर दिया। यही कारण है कि भविष्य मे किमी को काटा नही सताया नहीं । अन्त मे अपने जीवन से सर्वथा उदासीन होकर अपना मुख विल मे कर लिया, शेष सारा धड विल पञ्चकल्याणक ) [६१ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे वाहिर ही रक्वा। तदनन्तर भगवान महावीर वहा से चल दिये। भगवान महावीर को सर्वथा स्वस्थ वहा से जाते देखकर आस-पास के लोग भी सर्प के निकट आ गए और बदला लेने की भावना से वे सर्पराज पर ककर, पत्थर मारने लगे, परन्तु प्रायश्चित्त की भावना से सर्पराज सहिष्णु वन कर उन प्रहारो को समतापूर्वक सहन करने लगा। कुछ भावुक लोग सर्पराज की सहिष्णुता से प्रभावित होकर दूध, शक्कर आदि से उस की पूजा मे जुट गए । वहा पर मोठा आ जाने के कारण चीटियो का आगमन भी प्रारम्भ हो गया। वे चीटिया सर्पराज के शरीर को बुरी तरह से काटने लगी, परन्तु सर्पराज जरा भी विक्षुब्ध नही हुआ। आयु की समाप्ति होने पर एक दिन इसी शान्त भाव से जीवन-लीला समाप्त करके नागराज सहस्रार नामक पाठवें देवलोक मे जा विराजमान हुए। इस तरह महामहिम भगवान महावीर ने एक सर्प के जीवन का उद्धार करके विप को अमृत बनाने का एक ऐसा ऐतिहासिक आदर्श उपस्थित किया जो काल की अनन्त घाटियो को पार करने पर भी कभी विस्मृत नही हो सकेगा। नय्या के खिवय्या : नागराज चण्डकौशिक का उद्धार करने के पश्चात् भ्रमण करते हुए भगवान महावीर श्वेताम्बिका नगरी की ओर पधार रहे थे। रास्ते मे गङ्गा नदी पडती थी। वहा यात्रियो को नौका का उपयोग करना पडता था। भगवान महावीर भी अन्य यात्रियो के साथ नौका मे विराजमान हो गए। नाविको ने नौका चलानी प्रारम्भ ही की थी कि उसी समय उल्लू की आवाज आई। आवाज सुनकर शकुन-गास्त्र के जाननेवाले एक यात्री ने कहा--"आज खैर नही है, उल्लू की आवाज़ किसी भीषण उपद्रव के होने की सूचना दे रही है। पर ये (भगवान महावीर की ओर सकेत करके) महापुरुष बैठे है, सम्भव है, इनकी कृपा से बच जाए, अन्यथा मुश्किल है। पाच मिण्ट भी नहीं गुजरे होगे कि आधी . चलने लगी देखते ही देखते नौका भंवर मे आ गई। इस अाकस्मिक उपद्रव से सब कापने लगे। १ "अद्धमामस्म कालगतो सहस्सारे उववन्नो" -आव० ० १ पृ० २७९ ६२] [ दीक्षा-कल्याणक Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपृष्ठ वासुदेव के पूर्व जन्म मे भगवान महावीर के जीव ने एक सिह को मारा था, उसी सिंह का जीव सुदष्ट्र नाम का देवता वना । पुरातन वैरभाव के कारण उसी देव ने यह सारा उपद्रव खडा किया था । उपद्रव भी इतना भयकर था कि यात्रियो के कलेजे काप उठे । सव को अपनी-अपनी अन्तिम घडी दिखाई देने लगी । परन्तु अकेले महावीर जो सर्वथा निर्भीक थे, केवल उनके चेहरे पर भय का चिन्ह भी नही था । उपद्रव का प्रारंभ तो काफी भयकर था, परन्तु प्रभु कृपा कुछ ऐसी हुई कि ग्राधी धीरे-धीरे शान्त हो गई और यात्री विना किसी विघ्नवाधा के दूसरे किनारे पर पहुच गए। सभी यात्रियो की जिह्वा पर यही स्वर नाच रहे थे - " हमारी नय्या के खिवय्या तो महावीर ही है, यदि आज ये हमारे मध्य मे न होते तो हम सव समाप्त हो जाते।" वृद्ध परम्परा का विश्वास है कि भवनपति जाति के कम्बल और गम्बल नामक नागकुमारो ने उपद्रवी देव को समझा कर यह उपद्रव शान्त किया था, परन्तु हमारा विश्वास है कि इन नागकुमारो के पुरुषार्थ के पीछे भी भगवान महावीर का ही पुण्यप्रताप काम कर रहा था । गोशालक का नियतिवाद भगवान महावीर ने दूसरा चातुर्मास नालदा मे किया । यहा प्रभु एक जुलाहे के मकान मे ठहरे थे । मखलिपुत्र गोशालक' भी वही पर ठहरा हुआ था । भगवान महावीर के विलक्षण एव आदर्श त्यागवैराग्य से वह भी बहुत प्रभावित हुआ । इस चातुर्मास मे भगवान ने महीने - महीने का उपवास तप चालू कर दिया । पहले मास-क्षमण (मास के क्षमण-उपवास) का पारणा जिस घर मे हुग्रा उस घर मे देवताग्रो ने पाच दिव्यो की वर्षा की इससे सारे नगर मे तपोमहिमा का प्रसार हो गया । गोशालक ने जब तप की ऐसी ग्राश्चर्य जनक महिमा देखी तो वह भी भगवान के पास आने-जाने लगा । दूसरे मासक्षमण के पारणे १ मखलि नामक एक मख [ एक भिक्षुक जाति जो चित्रपट दिखाकर जीवननिर्वाह करती है ] के पुत्र को गौशाला मे पैदा होने के कारण गोशालक कहा जाता था । पञ्चकल्याणक ] [ ६३ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जब पाच दिव्यो की वर्षा हुई तो इसमे गोशालक और भी अधिक प्रभावित हुआ। एक दिन कार्तिक पूर्णिमा के दिन भिक्षा को जाते समय गोशालक ने भगवान से पूछा-'महात्मन् । आज मुझे भिक्षा मे क्या मिलेगा ?" भगवान तो मौन रहे, पर उन के चरण-मेवक सिद्धार्थ देव ने इन्ही की ओर से कहा - "बासी भात, खट्टी छाछ और एक खोटा रुपया।" ___गोशालक यह भविष्यवाणी भगवान की ही समझता था, अत इसे मिथ्या प्रमाणित करने के लिये उसने बड़ा प्रयास किया, वह नगर के बडे-बडे सेठो के घर भी गया, परन्तु सभी स्थानो मे वह निगश ही लौटा। अन्त मे एक लुहार के यहा उसे बासी भात, खट्टी छाछ और दक्षिणा मे एक खोटा रुपया ही प्राप्त हुआ। ___ इस प्रकार भविष्यवाणी की सत्यता के प्रमाणित होने पर उसके मन पर बडा गहरा प्रभाव पड़ा। उसके मन मे भगवान के व्यक्तित्व के प्रति महान् आस्था हो गई। इस घटना मे उसने यह भी विचार किया कि जो कुछ होनेवाला होता है वह पहले ही नियत अर्थात् निश्चित होता है, इसलिये नियतिवाद' का सिद्धान्त ही वास्तविक और सर्व श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त, उसने निश्चय किया कि ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये मुझे महावीर का शिष्य वन जाना चाहिये । दूसरा चातुर्मास · ___नालन्दा का चातुर्मास सम्पूर्ण होने पर भगवान महावीर ने वहां मे विहार कर दिया और वे कोल्लागसन्निवेश मे पधार गए। वही पर उन्होने चौथे मास-क्षमण का पारणा किया। पूर्ववत् पाच दिव्यो की वर्षा यहा पर भी हुई। गोगालक को जब भगवान के विहार का पता चला तो वह भी भगवान को ढूढता हुआ कोल्लाग-सन्निवेश मे आ गया और प्रभु के चरणो मे प्रणत होकर उस ने प्रार्थना की-"भगवन् । आज मे ग्राप मेरे धर्माचार्य है, गुरुदेव है और मैं आपका चरण-सेवक शिष्य बनता हू-" भगवान मौन ही रहे। गोशालक ने आग्रह पूर्वक अपनी बात को २ जो होना है, वह अवश्य होगा, यही सिद्धान्त नियतिवाद है। [ दीक्षा-कल्याणक Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन: दोहराया। फलत भगवान ने उसे साथ रहने की स्वीकृति प्रदान करदी। कोल्लागसन्निवेश से विहार कर देने पर भगवान स्वर्णखल पधारे । मार्ग मे कुछ ग्वाले खीर बना रहे थे। खीर को देखते ही गोशालक के मुंह में पानी आगया। उसने कहा - "खीर खाकर चलेगे।" भगवान तो मौन रहे, पर सिद्धार्थ देव ने कह दिया .- "खीर खा नही सकेगे, हण्डिया टूट जाने की स्थिति बन रही है।" भगवान आगे बढे, पर गोशालक खीर खाने के लिये वही पर ठहर गए। कुछ ही क्षणो के वाद खीरवाली हण्डिया टूट गई, अत. गोशालक निराश होकर म्लान-मुख लिये भगवान के पास आ गया, इस घटना से उसे इस बात का भी दृढ विश्वास हो गया कि नियति अर्थात् होनहार टलती नही अत: नियतिवाद सर्वथा-यथार्थ है । तीसरा चातुर्मास : स्वर्णखल से विहार करते हुए भगवान ब्राह्मणगाव पधारे, यहा भगवान ने भोजन किया। तदनन्तर प्रभु चम्पापुरी आ गए। तीसरा चातुर्मास यही पर व्यतीत किया, चातुर्मास मे दो-दो महीने की तपस्या की। चातुर्मास की पूर्णता पर प्रभु 'कालयसन्निवेश' पधारे । यहा गोशालक को अपनी अनियन्त्रित प्रकृति के कारण जनता से प्रताडित और अपमानित होना पडा। गोगालक स्वच्छन्द और उद्दण्ड स्वभाव के थे, जहा कही भी जाते, कोई न कोई अझट खडा कर लेने के कारण लोगो से फटकार प्राप्त कर लेते थे। चौथा चातुर्मास : भगवान महावीर ने चतुर्थ चातुर्मास 'पृष्ठ चम्पा' नामक नगरी मे सम्पन्न किया। इस चातुर्मास मे प्रभु ने चार मास का लम्बा तप किया। चातुर्मास की पूर्णता पर तप का पारणा किया और विहार करने पर प्रभु एक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर खडे हो गए। वहा अन्य १ "गोसालस्स मखलिपुत्तस्स एयमट्ठ पडिसुणेमि" -भगवती० शतक १५/१ पञ्चकल्याणक] [ ६५ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेको यात्री भी थे । गीतकाल होने से यात्रियो ने आग जलाई। प्रात • काल होने पर आग को विना वुझाए ही वे चले गए। जोर की हवा चली, पास मे रक्खे मूखे घास मे आग लग गई, उसकी लपटें भगवान के निकट भी जा पहुची, परिणाम स्वरूप भगवान के पाव झुलस गए। परन्तु सहिष्णुता के सागर प्रभु फिर भी ध्यानावस्थित ही रहे। वे अग्निजन्य परीपह से रत्ती भर भी चलायमान नहीं हुए। अनार्य देश में संकटों की प्राधियां : भगवान महावीर अव लाढ नामक अनार्य देश मे पधारे। यहा उन्हे हृदय को कपा देने वाले कप्टो का सामना करना पड़ा। अनार्यदेग मे प्रभु को रहने के लिये अनुकूल स्थान नहीं मिलता था, अनार्य लोग इनके पीछे शिकारी कुत्ते लगा देते थे, जो उनके शरीर से मांस के लोथडे निकाल लेते थे। कही पर उन्हे दण्डो, भालो, पत्थरों और ढेलो के प्रहार सहन करने पडते थे। भगवान को लहूलुहान कर देने पर अनार्य लोग दूब हमने, तालियां पीटते । कही पर भगवान को ऊपर उछालउछाल कर गेन्द्र की तरह पटका जाता, परन्त क्षमा-भूति भगवान इन सव सकटो को कर्म-भोग समझ कर गान्त-भाव से सहन करते रहे थे। वे मन से भी कभी किमी का अनिष्ट नही सोचते थे । पाचवां चातुर्मास : इस तरह भगवान लोम-हर्षक कष्टो को सहन करते हुए मलयदेश की राजधानी भद्दिलनगरी मे आए और पाचवा चातुर्मास यही पर व्यतीत किया। इस चातुर्मास मे प्रभु ने लगातार चार महीने तपस्या में ही व्यतीत किये और चातुर्मास के पश्चात् नगरी के वाहिर प्रभु ने पारणा किया। पारणा करने के अनन्तर जव प्रभु ने विहार किया तो मार्ग मे इनको जासूस समझ कर पकड लिया गया और उनकी बुरी तरह पिटाई की गई। साथ मे गोशालक को भी वडी निर्दयता से पीटा गया। गोशालक तो स्थान-स्थान पर ही अपनी भूलो के कारण प्राय मार ४ कल्पसून के हिन्दी-टीकाकार लिखते है - प्रभु के पैरो को चूल्हा बनाकर, प्राग जलाकर उस पर खीर पकाई, प्रभू व्यानमुद्रा मे अचल रहे अत उनके पैर जल गए। -पृष्ठ ७७ [दीक्षा-कल्याणक Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाते रहते थे, इसीलिये एक दिन इन्होने दुखी होकर प्रभु से कहा"आप के साथ रहने से तो मुझे मार खानी पड़ती है प्रत मैं आपके साथ नही रहूगा ।" यह कह कर गोशालक प्रभु से अलग हो गये और राजगृह की ओर प्रस्थान कर गए । परमावधिज्ञान और छठा चातुर्मास - ग्रव भगवान महावीर विहरण करते हुए वैशाली होते हुए गालिशीर्ष गांव मे आए और यहां के एक उद्यान मे ध्यान लगाकर खडे हो गए । माघ महीने की भयंकर सर्दी थी, बर्फानी-तूफानी हवा शरीर कम्पा रही थी, तथापि भगवान मस्ती से ग्रात्म-चिन्तन मे तन्मय हो रहे थे । अचानक ही मूसलाधार वर्षा होने लगी । कडकडाती सर्दी मे बर्फ से भी गीतल पानी शरीर को सुन्न करता जा रहा था । परन्तु भगवान ध्यानस्थित थे, शरीर मे दूर ग्रात्म-ग्रवस्थित थे । यही पर उन्हे परमावधि ज्ञान प्राप्त हुआ इन्द्रिय और मन की सहायता के विना समूचे लोक के रूपी द्रव्यों का मर्यादा -सहित साक्षात्कार कराने वाला ज्ञान परमावधिज्ञान होता है । । · शालिशीर्ष ग्राम से भगवान महावीर चातुर्मास के बाद विहार करके भद्रिका नगरी पधारे। भागल पुर से आठ मील दूर दक्षिण में भदरिया ग्राम है, वही पर पहले भद्रिका नगरी थी। इसी नगरी मे प्रभु ने छठा चातुर्मास व्यतीत किया । वह समूचा चातुर्मास उपवास तपस्या मे ही च्यतीत हुआ । इस चातुर्मासिक व्रत का पारणा नगरी के बाहिर जाकर किया गया । गोशालक जो पहले प्रभु से अलग हो गए थे, पुनः इसी शालिशीर्ष ग्राम मे प्रभु के चरणो मे आ गए। सातवां प्राठवां चातुर्मास - दीर्घ तपस्वी भगवान महावीर ने सातवां चातुर्मास आलम्बिया नगरी मे और प्राठवा चातुर्मास राजगृह नगर मे सम्पन्न किया । ये १ शास्त्रकारो का विश्वास है कि भगवान महावीर को ये कप्ट कटपूतना नामक किसी व्यन्तरी ने पूर्वजन्मों का बदला लेने के लिये दिये थे । पञ्च-कल्याणक ] { ६७ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनो चातुर्मास उन्होने तपस्या में ही व्यतीत किए। चातुर्मास मे किसी भी दिन इन्होने अन्न और जल का सेवन नही किया । चातुर्मास समाप्त करने के अनन्तर चातुर्मास स्थानो से बाहिर जाकर तपस्या के पारणे किये । चातुर्मासो से पूर्व भगवान ने “भद्दा सन्निवेश" तथा "लोहार्गला" आदि अनेको ग्राम एव नगर पावन किए। इस सुदीर्घ यात्रा मे उन्हे नाना प्रकार के कष्टो का सामना करना पड़ा । प्राकृतिक उत्पातो, राजकीय पीडाप्रो और विविध विध यातनाओ ने उन्हे विचलित करने के प्रयास किये, परन्तु सभी प्रयासो को हिमालय से टकराते वायु के झोको के समान विफल होकर लौट जाना पड़ा । नौवां चातुर्मास - राजगृह से विहार करके भगवान पुन अनार्य देश मे पधार गए । मानो सकटो मे इनको प्यार था, कर्म - निर्जरा की दृष्टि से सकटापन्न दशा में प्रभु को अधिक आनन्दानुभूति होती थी, इसीलिये दूसरी बार प्रभु अनार्य देश मे फिर चले गये । प्रभु जहा भी पधार जाते स्वय समाप्त होने के लिये परिपहसेना वही पर पहुच जाती थी। उन्हे नौवा चातुर्मास वृक्षो के नीचे तथा खण्डहरो के मध्य मे ही व्यतीत करना पडा । अनार्य देश का यह चातुर्मास समाप्त करने के ग्रनन्तर भगवान फिर आर्य देश मे पधारे । दसवां चातुर्मास भगवान महावीर सिद्धार्थपुर से कर्मग्राम की ओर पधार रहे थे, गोशालक भी साथ ही थे । मार्ग मे सात पुष्पो वाले तिलो के एक पौधे को देख कर गोशालक ने भगवान से पूछा - "प्रभो । यह पौधा फल देगा या नही ?" इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान बोले - " यह पौधा फल देगा और इस की फली मे सात दाने होगे ।" गोशालक अविनीत और उद्दण्ड तो प्रारम्भ से ही था, ग्रतएव उसने भगवान की भविष्यवाणी को मिथ्या प्रमाणित करने के लिये उस पौधे को जड से उखाड कर किनारे पर फैक दिया । इनके जाने के वाद वर्षा हो गई, फलत वह पौधा जड़ जमा कर धीरे-धीरे फिर खड़ा होने लगा । भगवान महावीर वहा से कूर्मग्राम पधारे थे । इस गाव के बाहिर ६८ ] [ दीक्षा कल्याणक Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैश्यायन नाम के एक तापस थे जो सूर्य की प्रातापना लिया करते थे। एक दिन वे सदा की भान्ति सूर्य की आतापना ले रहे थे, तापंस की जटाए लम्बी थी, उनमे से जूए गिर रही थी, पर करुणावश वे तापस उन्हे उठा-उठा कर पुन अपनी जटायो मे रखते जा रहे थे। गोगालक ने जब यह दृश्य देखा तो यह अपने सहज उद्दण्ड स्वभाव के अनुसार तापस का उपहास उडाने लगा और अनाप-शनाप बाते भी कहने लगा। तापस पहले तो शान्त रहे, पर जब गोशालक वोलता ही चला गया तव उनको आवेग आ गया, गोशालक को जलाने के लिये उन्होने तत्काल तेजोलेन्या छोड दी। तपविशेष के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली शक्ति विशेप से जनित तेज की ज्वाला तेजोलेश्या होती है। तेजोज्वाला को निकट पाते देख गोगालक भागा और 'बचायो-वचारो' कहता हुया भगवान के चरणो से लिपट गया। गोशालक की दयनीय दशा देख कर परमकृपालू भगवान ने शीतललेश्या छोड़ कर तेजोलेन्या के प्रभाव को शान्त कर दिया। शीतललेल्या भी तपविगेप से उत्पन्न एक शक्तिविशेष होती है जो तेजोज्वाला के प्रभाव को समाप्त कर देती है। गोशालक को सुरक्षित देख कर तापस वोले-'मूढ । इन सन्तो की कृपा से तू वच गया है, अन्यथा आज तू बच नहीं सकता था।" कूर्मग्राम मे कुछ दिन ठहर कर भगवान महावीर ने पुन सिद्धार्थपुर की ओर विहार कर दिया। रास्ते मे तिल का पौधा लहलहा रहा था। यह वही पौधा था जिसे गोगालक ने उखाड़ कर फेक दिया था। पौधा देखते ही उसे पुरानी बात याद आ गई। भगवान की भविष्यवाणी के अनुसार सात दाने देखने के लिये जब पोधे की फली तोड़ी तो सचमुच उसमे सात ही दाने थे। गोगालक भगवान की भविष्य-वाणी की सत्यता से आश्चर्यचकित रह गया। जहा उसे भगवान की वाणी पर विश्वास बढा वहा वह नियतिवाद का भी पक्का समर्थक हो गया। उसने सोचा अव मुझे भगवान से जुदा होकर स्वतन्त्र रूप से नियतिवाद का प्रचार करना चाहिये । परिणाम-स्वरूप वह भगवान से जुदा हो गया और उसने नियतिवाट का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया। भगवान महावीर धीरे-धीरे सिद्धार्थपुर पधार गए। वहा से जब भगवान वाणिज्यग्राम को ओर जा रहे थे तो मार्ग मे उन्हे नदी पार पन्न-कल्याणक] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने के लिए नौका का एक बार फिर प्रयोग करना पड़ा। धीरे-धीरे भगवान वाणिज्य ग्राम मे पधार गये । वाणिज्य ग्राम मे भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के आनन्द नामक एक श्रावक रहते थे, इन्हे अवधिज्ञान प्राप्त हो रहा था। भगवान के चरणो मे पानन्द भी पहुचे। प्रभु को वन्दना करने के अनन्तर इन्होने कहा-'भगवन ! आप का मन और तन दोनो ही वज्र जैसे दृढ हैं, इसीलिए आप कठोर से कठोर सकट को समभाव से सहन कर लेते है, पर आप की तप साधना बहुत जल्दी ही सफल होनेवाली है। एक दिन यह साधना आप को केवल ज्ञान की महाज्योति से ज्योतिर्मान बना देगी।" यह कह कर आनन्द श्रावक वन्दन करके चले गए। प्रभु ने भी वाणिज्यग्राम से विहार कर दिया और वे श्रावस्ती नगरी मे पहुचे। दसवां चातुमसि इन्होने इसी नगरी मे व्यतीत किया। संगम देव के उपद्रव भगवान महावीर ने चातुर्मास के अनन्तर श्रावस्ती नगरी से विहार कर दिया और वे "सानुलट्ठिय सन्निवेश" मे पधार गए। वहा पर प्रभु ने लगातार सोलह दिन का उपवास किया। भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा और सर्वतोभद्रप्रतिमा की आराधना भी सम्पन्न की। भद्रप्रतिमा मे प्रभु पूर्व, दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशा मे चार-चार प्रहरो तक ध्यान करते रहे। दो दिन की तपस्या का पारणा न कर के प्रभु ने महाभद्रप्रतिमा की आराधना आरम्भ कर दी। इसमे प्रति दिशा एक-एक दिन रात तक ध्यान लगाया। फिर इस का पारणा क्एि विना ही सर्वतोभद्रप्रतिमा की साधना प्रारम्भ करदी। इसमे दश दिशाप्रो के कम से एक-एक दिन रात तक ध्यान लगाए और यह दश दिनो मे सम्पन्न की। इस तरह सोलह दिन के उपवासो मे प्रभु ने तीनो प्रतिमानो की ध्यान साधना परिपूर्ण करदी। तदनन्तर प्रभु ने आनन्द गाथापति के घर से सोलहदिनो के व्रतो का पारणा किया । प्रभु की इस कठोर तप साधना से प्रभावित हो कर देवताओ ने आनन्द गाथापति के घर पाच दिव्यो की वर्षा की। सानुलट्ठिय सन्निवेश" से विहार करके प्रभु "दृढ भूमि" पधारे इस नगर के उद्यान मे प्रभु ने तेले की तपस्या करके ध्यान लगा दिया। . ७०] [दीक्षा-कल्याणक Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इधर प्रभु ध्यान की ज्योति जगा रहे थे और उधर स्वर्गपुरी मे देवराज शक्रन्द्र प्रभु की ध्यान-गत दृढता की महिमा गाते हुए कह रहे थेमहावीर जैसे वीर और धीर तपस्वी को आज तक किसी जननी ने जन्म नही दिया। मानव तो क्या दानव भी भगवान महावीर को उनकी ध्यान साधना से विचलित नही कर सकता। देव-सभा मे सगम नाम का एक देवता भी बैठा हुआ था। वह शक्रेन्द्र महाराज की बात से सहमत नही था। उसका विचार था कि महावीर भी एक अन्नकीट मानव है, उनको ध्यान-माधना से गिराना क्या कठिन है ? मालूम होतो है हमारे इन्द्र को महावीर से कुछ वैयक्तिक लगाव है, अन्यथा वे चुनौती की भाषा मे कभी न बोलते। चलो. आज महावीर के महावीरत्व को परखता हूँ। उसने आते ही कष्टो का जाल बिछा दिया । प्रभु के रोम-रोम मे भयकर वेदना उत्पन्न करके उनको विचलित करने के प्रयास किए गए। प्रलयकारी धूल की वर्षा की, वज्रमुखी चीटिया उत्पन्न की गई, जिन्होने मास नोच-नोच कर प्रभु के गरीर को खोखला कर दिया, डास और भयकर मच्छर छोडे गए जो प्रभु का रक्त चूसने लगे, दीमक उत्पन्न की गई जो प्रभु के शरीर को काटने लगी, विच्छुप्रो द्वारा जहरीले डक लगवाए, नेवले उत्पन्न किए जो प्रभ के मास को नोचने लगे. भीमकाय सर्प उनके शरीर को काट-काट कर खाने लगे, हाथा और हथिनिया प्रकट को गई जिनकी सूंडो से प्रभु को उछलवाया गया और उनके तीक्ष्ण दातो से प्रभु पर प्रहार करवाए गए, पिशाच वन कर उन्हे डराया, धमकाया और वों से परिव्यथित किया गया, प्रभु के शरीर को बाघ बन कर नखो से विदोर्ण किया गया,सिद्धार्थ और त्रिशला का रूप धारण कर उनको विलाप करते दिखाया गया, भगवान के पैरो के मध्य मे आग जला कर भोजन पकाने की चेष्टा की गई, चण्डाल का रूप बना कर भगवान के शरीर पर पक्षियो के पिजरे लटकाए गए, जो अपनी चोचो और नखो से शरीर पर प्रहार करने लगे और आधिया चलाकर अनेको बार भगवान के शरीर को ऊपर उठाया और नीचे फेका, कलकलिका वायु (वह वायु जो वडे वेग के साथ चक्र के आकार मे घूमतो है) उत्पन्न करके उससे भगवान को चक्र की तरह पञ्च-कल्याणक] [७१ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुमाया गया. कालचक्र (वह चक्र जो मृत्यु-जनक हो) चलाया जिससे भगवान घुटनो तक ज़मीन मे धस गये, देव रूप से विमान मे बैठकर मामने आया और बोला- "स्वर्ग चाहिए या अपवर्ग अर्थात् मोक्ष ?" तथा वीस स्वर्गीय देविया उपस्थित की गई जो वैपयिक हावभाव के साथ भगवान के आगे अश्लील नृत्य करने लगी। इस तरह सगम देव ने भगवान महावीर को प्रतिकूल और अनुकूल सभी तरह के कष्ट दिए, यह सव कुछ एक ही रात्रि मे किया गया था। भगवान के जीवन की यह सबसे बडी भयकर रात्रि थी। इस रात्रि मे सगमदेव ने भगवान को ध्यान से विचलित करने के लिये अपनी सारी शक्तिया लगा दी, परन्तु यह सव कुछ कर लेने पर भी वह भगवान को साधना से चलाय मान नही कर सका । प्रभु ने इन समूचे सकटो को कर्मयोग समझ कर पूर्ण समताभाव के साथ सहन किया। करुणा के परम-पावन स्त्रोत भगवान के विहार कर देने पर भी उसने भगवान का पीछा नही छोड़ा। भगवान 'तोसली गाव' के उद्यान में ध्यान लगाए खड़े थे तव सगम भगवान को उकसाने के लिये साधु का वेष पहन कर किसी के यहा चोरी करने लगा। पकडा जाने पर जब उसकी पिटाई होने लगी तो उसने तत्काल लोगो से कहा-''मेरा कोई दोष नहीं है, मेरे गुरु ने मुझे चोरी करने को कहा था, मैं तो केवल गुरु की आज्ञा का पालन कर रहा हू, जो कुछ कहना है मेरे गुरु को कहो। मेरे गरु बाहिर उद्यान मे कपट-ध्यान लगाकर खड़े है।" लोगों ने सगम की इस बात पर विश्वास करके प्रभु को बहुत बुरी तरह से परेशान किया, परन्तु प्रभु ने इस परेशानी को भी शान्ति के साथ सहन किया। __अव महावीर 'मोसलीगाव' पधार गए, गाव के बाहिर ही जब प्रभु ध्यान मे अवस्थित हो गए तव सगम ने उनके पास अनेको शस्त्रास्त्र रख दिए और स्वय चोरी करता हुया जव पकडा गया तो भगवान को अपना गुरु वताकर फिर पकड़वा दिया । राज्य-कर्मचारियो ने जव शस्त्रास्त्र देखे तो भगवान को पक्का चोर समझ कर फासी पर लटकाने का निर्णय कर दिया। ज्यो ही भगवान को फासी के तख्ते पर चढा [ दीक्षा-कल्याणक Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर और गरदन मे फदा डालकर नीचे से तख्ता हटाया गया तो तत्काल फदा टूट गया, फन्दा पुन. डाला गया, पर वह दूसरी बार भी टूट गया, इस तरह मात वार गरदन मे फदा डाला गया और तख्ता हटाते ही वह मातो वार टूट गया। तब राज्य-कर्मचारियो ने इन्हे कोई निर्दोष तपस्वी जान कर उनसे क्षमा मागी और छोड दिया। इस तरह संगम देव लगातार छ महीने प्रभु को परिपीडित करता रहा, तथापि प्रभु अपनी धर्म-साधना से एक तिल भर भी इधर-उधर नहीं हुए। भगवान को पूर्ण वीर और धीर देख कर अन्त मे सगम निराश हो गया। देवराज गकेन्द्र महाराज के द्वारा की गई स्तुति से प्रभावित होकर तत्काल प्रभु के चरणो मे नतमस्तक होकर क्षमा मागने लगा। समा माग कर सगम वापिस जाने ही लगा था कि उसे प्रभु की आखो मे आसू दिखाई दिए । प्रासू देख कर वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने भगवान से पूछा : "भगवन् । आपके नेत्रो मे ये आसू क्यो ? जब इतने भयकर सकट काल मे आप नही घबराए, तो अव यह अधीरता कैसी ? क्या कोई कष्ट है ?" "सगम | मेरे पास रहकर तुमने पापो का जो वोझ अपने सिर पर लाद लिया है, एक दिन उनका तुम फल प्राप्त करोगे, उस फल का उपभोग करते हुए जव तुम तडपोगे और वह तडप जव मेरे ज्ञान-चक्षयो के सम्मुख पाती है तो मेरा कलेजा काप उठता है। मैं सोचता ह, उस तडप का कारण मै बना हूं। इसी वात का मुझे अत्यधिक दुःख है। मैं किसी को परिपीडित नही देख सकता," यह कहते-कहते प्रभु की आखे फिर डवडवा पाई । करुणामूति-प्रभु वीर की परमपावनी करुणा को देखकर सगम पानी-पानी हो गया। मन ही मन उसने कहा-'कहा मै निर्दयी, अधम, नीच एव पामर-जीव और कहा ये मेरे ही दु.ख से आकुल-व्याकुल होने वाले महान् करुणाशील आदर्श सन्त ?' उसे बडी श्रात्म-ग्लानि हुई। उसका दिल भर आया, उसने देवाधिदेव भगवान महावीर के पावन चरणो मे प्रणत हो कर विनति की- "करुणा-सागर | आज मै ने पहली वार आपके करुणा-स्वरूप पवित्रात्मा के दर्शन किए है । प्रभो । पञ्च-कल्याणक] [७३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rझ अधम को क्षमा कर दो। आज स्वर्ग-लोक की देवी-शक्ति इस अध्यात्म-शक्ति के सन्मख लज्जित है, पराजित है और विजित है।" अन्त मे सगम प्रभु से क्षमा का आश्वासन पाकर वहां से चला गया। छः मास को घोर तपस्या और ग्यारहवां चातुर्मास : जब सगम चला गया तब भगवान ने अन्न-जल ग्रहण किया। जिस दिन यह अन्न-जल ग्रहण किया गया था, यह भगवान की उपसर्ग सहित छ मास की लवी तपस्या का पारणा था और प्रभु ने ब्रजगाव से विहार किया। 'श्वेताम्बिका' आदि नगरियो के वाहिर एक उद्यान मे प्रभु ने ग्यारहवा चातुर्मास व्यतीत किया। इस चातुर्मास मे वे लगातार चार महीने तपस्या ही करते रहे। जीर्ण सेठ की लक्षण दान-भावना: वैगाली नगरी मे जिनदत्त नाम के साधु-सन्तों के परम-भक्त श्रावक थे, इनका निवास स्थान जीर्ण-शीर्ण था, इसीलिये ये जीर्ण-सेठ के नाम से प्रसिद्ध थे। ये प्रतिदिन भगवान के दर्शनार्य जाया करते थे। "मेरे घर भी प्रभु पाहार ग्रहण करे' यह इनकी प्रबल भावना थी। इसीलिये ये प्रतिदिन भगवान से निवेदन भी करते थे, परन्त निरन्तर उपवास चलते रहने के कारण इनकी आशा पूर्ण नहीं हो पा रही थी। जीर्ण-सेठ को पूर्ण विश्वास था कि चातुर्मासिक-तप का पारणा भगवान मेरे यहा पर करेंगे। इसी विश्वास पर ये चातुर्मास समाप्ति से अगले दिन अपने घर मे बैठ कर भगवान की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान जीर्ण-सेठ के घर न जाकर पूर्ण नामक किसी दूसरे सेठ के घर पचार गए और वही पर इन्होने चातुर्मासिक-तप का पारणा कर लिया। इधर जीर्ण सेठ की प्रतीक्षा बडा ही उत्कृष्ट-रूप धारण कर चुकी थी। भावनागत समुच्चता के कारण जीर्ण-सेठ ने वारहवे देवलोक मे पंदा हो जाने की भूमिका तैयार करली । चमरेन्द्र द्वारा शरण-ग्रहण करना : वैशाली का चातुर्मास समाप्त करके प्रभु 'मु सुमार' पधारे, वहा [ दीक्षा-कल्याणक Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे अशोक-वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर आत्म-साधना करने लगे। उस समय नवजात असुरजाति के देवो के स्वामी चमरेन्द्र ने जव अवधिज्ञान से अपने ऊपर प्रथम-देवलोक के स्वामी शकेन्द्र महाराज को सिहासन पर बैठे देखा तो वे क्रोध से तमतमा उठे। कहने लगे-"यह मेरे सिर पर बैठने वाला कौन है ?" साथी देवताओ ने कहा-"देवेश ! ये पहले देवलोक के नाथ शक्रेन्द्र महाराज है। अपने सिंहासन पर विराजमान हैं। नीचे-ऊपर बैठने का यह क्रम तो सदा से ऐसे ही चला आया है, अत आप इससे खिन्न न हो।" चमरेन्द्र अभिमानी थे, अत: अभिमान की भापा में वोले"मैं चमरेन्द्र ह, मेरे से पहले जो यहां थे वे सव चमरिया थी। मैं जव तक गक्रेन्द्र को सिंहासन से गिरा नहीं देता, तव तक मैं चैन न लू गा। चमरेन्द्र वहाँ से उठे और यह सोचते हुए कि मुझे किसी परम-शक्ति का सहारा लेना आवश्यक है, वे जहां भगवान महावीर ध्यान लगा कर .खड़े थे, वहा पाए, प्रभु को चरण-वन्दना करके वोले - 'प्रभो ! मैं आपके चरण की शरण लेकर शक्रेन्द्र को दण्डित करने जा रहा हू।" । वे अपनी वैक्रिय शक्ति से सीवे सौधर्म देवलोक मे जा पहुचे, जाते ही ऐसी भयकर हुंकार की, जिस से समूचा देव-विमान काप उठा। कुछ क्षणो के लिये तो स्वय देवेन्द्र भी स्तब्ध रह गए, परन्तु सारी स्थिति समझकर उन्हे वड़ा क्रोध आया, फलत. उन्होने सिंहासन पर बैठे-बैठे ही अपना वज्र फैका । हजारो भयकर ज्वालाए वखेरता हुआ वज्र जव चमरेन्द्र की ओर आया तो वे घवरा उठे। वे तत्काल वापिस दोडे, वज्र भी पीछे-पीछे आने लगा। कही शरण न पाकर, चमरेन्द्र भगवान महावीर के चरणो मे "वचारो-बचाओ" कहते हुए जा छिपे । इधर इन्द्र ने अवधिज्ञान से चमरेन्द्र को प्रभु के चरणो मे छिपा देखा तो वे शीघ्र ही स्वर्ग-लोक से दौड़े, भगवान से वज्र अभी चार अगुल दूर था कि देवराज ने उसे पकड़ लिया। चमरेन्द्र ने भगवान की चरण-शरण ग्रहण कर ली थी. इसलिये उसे अभयदान दे दिया और स्वय प्रभुचरणो को नमस्कार करके वापिस स्वर्ग पुरी मे चले गए । देवेन्द्र के चले जाने पर चमरेन्द्र भी प्रभु के चरणो से निकले और अपने स्थान की ओर यह कहते हुए चल दिए कि "प्रभो ! यदि नाज आपकी चरण-शरण पञ्च-कल्याणक] [७५ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहण न करता तो सचमुच मेरा जीवन-भवन धरागायी हो जाता। भगवन् ! आप वास्तव मे अशरण-गरण हैं।" राजकुमारी चन्दनवाला : भगवान महावीर मुमुमार नगर से विहार करके ग्राम-नगरों में विवरते हुए कौशाबी मे पधारे । यहा पर प्रभु ने एक कठोर अभिग्रह अर्थात् प्रण धारण किया- "अविवाहित और बाजार मे विकी राज-कन्या हो, मिर मुंडा हुया हो, हाथो ने हयकडिया और पावो मे वेडिया हो, तोन दिनो की भूबो हो, न घर मे हो और न ही घर से वाहिर हो, किपा अनियि को प्रतीक्षा मे हो, खाने के लिये उबले हुए वाकले छाज मे लिये खडो हो, प्रसन्न-मुख हो, पर आखो मे ग्राम् भी हो" ऐसी राज-कन्या मुझे आहार दे तो मैं आहार ग्रहण करू गा। अन्यथा छ: महीने तक भोजन ग्रहण नहीं करू गा।' इस अभिग्रह को धारण करने के अनन्तर प्रमु जब भिक्षा के लिये नगरी मे जाते तो अभिग्रह की गर्ते पूरी न होने से खाली ही वापिस लौट आते। ऐसे करते-करते प्रभु को पाच महीने पच्चीस दिन हो गए। समस्त नगर-निवासी प्रभु के आहार ग्रहण न करने से व्यथित थे पर किसी का कोई वा नही चल रहा था। सभी को इस बात का अवश्य प्राश्चर्य था कि इतने दीर्घ उपवास की दशा में भी प्रभु के मुख-मण्डल पर तप साधना-जनित तेज कुछ निराली ही छटा दिखला रहा था। एक दिन प्रभु कीनाम्बी नगरी के विख्यात सेठ धन्ना के घर मे भिक्षार्थ गए तो वहा पर तीन दिनो की भूग्बी राजकुमारी चन्दनवाला छाज मे उडद के वाकले लिये भिक्षा देने के लिये किमी जगतारक सन्त की प्रतीक्षा कर रही थी। दीर्य तपस्वी तेजस्वी भगवान महावीर को देख कर उसका रोम-रोम मुस्करा उठा । उसने तत्काल प्रभु से भोजन ग्रहण करने को विनोत प्रार्थना को । अभिग्रह की अन्य सभी शर्ते पूर्ण थी, किन्तु एक अपूर्ण थो-राजकुमारी की आखो मे आंसू नही थे, इसलिये प्रभु वापिस लौटने लगे। पर भगवान को वापिस जाते हुए देख कर चन्दनवाला अपने आपको कोसती हुई विह्वल हो उठी'भगवन् !- मुझ अभागिन से क्या अपराध हो गया है ? सन्त तो परम कृपानु, जगतारक होते हैं, इस दीन मेविका को क्यो ठुकराते हो ? ७६ ] दीक्षा-कल्याणक Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना कहते ही उसकी आखे डवडवा पाई। देख कर करुणासागर प्रभु वापिस आगए। वापिस आने को देर थी कि पाखो मे पासू अ.ने पर भी राजकुमारी के चेहरे पर मुस्कराहट नाचने लगी। इस तरह अभिग्रह की शर्त पूरी होने पर प्रभु ने चन्दनवाला के हाथो से वाकले ग्रहण करके पाच महीने २५ दिनो की लम्बी तपस्या का पारणा किया। पारणा करने के साथ ही देवताओ ने पाच दिव्यो की वर्षा की । दान के प्रभाव से हथकडिया हाथो के और वेडिया पावो के ग्राभूपणो के रूप में परिवतित हो गई । यत्र, तत्र, सर्वत्र होनेवाले जय-जयकारो से आकाश गूज उठा। राजकुमारी चन्दनवाला वही महासती चन्दनवाला है जो कभी राजसी वैभव की सुखद छाया मे जन्मी, परिवर्धित और सम्बंधित हुई, एक दिन एक सारथी द्वारा बाजार मे नीलाम करके एक वेश्या के हाथो वेची गई। शील देवता के प्रताप से जो वेश्या के कुचक्र से निकली और धन्ना सेठ ने जिसे खरीदा । कही मेरी सीत न बन जाए इस विचार से सेठानी ने जिमके लम्वे-लम्बे केगो को काट कर तथा हाथो मे हथकडिया और पावो मे वेडिया डाल कर भूमिगृह मे वन्द कर दिया। तीन दिनो के पश्चात् सदाचारी पिता उस सेठ द्वारा भूमिगृह मे वाहिर निकाली गई, खाने को जिमको छाज मे उडद के वाकुले दिए गए और वे ही वाकुले जो पतित-पावन भगवान महावीर के हस्तपात्र मे जाकर वरदान वन गए । प्रभु-कृपा से जिसके सदा के लिये सव सकट समाप्त हो गए। करुणा-वरुणामय भगवान महावीर को केवल जान होने पर चन्दनवाला प्रभु की प्रथम शिष्या बनी तथा जिसने ३६ हजार साध्वियो पर प्राध्यात्मिक नेतृत्व करके सदा के लिये अपने जीवन को अमर बना लिया। वाहरवां चातुर्मास कौशाम्बी नगरी मे अपने अभिग्रह का पारणा करने के बाद भगवान महावीर ने वहा से विहार कर दिया। मुमगला आदि नगरियो को पावन बनाते हुए प्रभु चम्पा नगरी मे पधारे और वही पर वाहरवां चातुर्मास व्यतीत किया। पञ्च-कल्याणक ] [७७ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानों में कोलियां ठोकना चम्पा नगरी से विहार करते हुए, भगवान महावीर 'छम्माणि' गाव मे पधारे । गाव के बाहर प्रभु ध्यान लगा कर खडे थे। सायकाल एक ग्वाला आया। वह अपने पशु वहा पर छोड कर अपने गाव चला गया। जब वापिस आया तो वहा पशु न देखकर प्रभु मे पशुप्रो के सम्बन्ध मे पूछने लगा। ध्यानस्थ होने के कारण प्रभु मौन रहे, प्रभु को मौन देखकर उसे क्रोध आ गया। वोला-"पहले मैं तुम्हारे कान खोलता हूं।" इतना कहकर उस अज्ञानी ने भगवान महावीर के कानो मे कीलिया ठोक दी। इससे वेदना का होना स्वाभाविक ही था, परन्तु प्रभु ने कर्मभोग समझ कर इसे भी समता से सहन कर लिया। इसी दशा मे प्रभ वहां से चने और मध्यपावा नामक नगरी मे पधारे, वहा आहारार्थ एक वैश्य के घर गए, जिस समय वहा पहुचे उस समय वैश्य अपने किसी मित्र से वार्तालाप कर रहा था वद्यराज ने प्रभु को निहारते ही कहा- इनके चेहरे मे तो कोई व्याधि है । उसने अपने मित्र से कहा कि सन्त जी को रोको, इनको मैं अभी देखता हू। परन्तु प्रभु तो इतने मे चले गए और वाहर उद्यान मे जाकर ध्यान में अवस्थित हो गए । वैद्य जी प्रभु की व्याधि दूर करना चाहते थे, फलत. वे अपने मित्र को लेकर उद्यान मे पहुचे, इन्हे प्रभु के चेहरे को ध्यान से देखा तो देखने पर पता चला कि इनके कानो मे कीलिया ठुकी हई हैं । उन्होने उसी समय कीलियां निकाली। इस क्रिया से भगवान महावीर को बहुत वेदना हुई, वैद्य ने धावो पर औषधिया लगाई । भगवान की दशा देखकर वैद्य बोले- लोग कितने दुष्ट हैं जो ऐसे सन्तो को भी परेशान करने से नहीं चूकते, परन्तु ये सन्त भी धन्य है जो इतनी असह्य वेदना होने पर भी विल्कुल शान्त दिखाई दे रहे हैं। उपसर्ग और सहिष्णुता भगवान महावीर के जीवन-शास्त्र का परिशीलन करने से पता १ यह गाव मगध देश में था, बौद्ध ग्रन्थो मे इसका नाम खाउमत प्रसिद्ध है। -वीर विहार मोमांसा , ] [ दीक्षा-कल्याणक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलता है कि भगवान आदि नाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तक जो २३ तीर्थंकर हुए हैं, इन समस्त तीर्थङ्करो की अपेक्षा चोबीसवे तीर्थङ्कर महावीर का कर्म-भार बहुत ही प्रवल और अधिक था । यही कारण है कि अकेले भगवान महावीर को साधना काल मे जितने कप्टो, सकटो और उपसर्गो का भोग करना पड़ा उतने कष्टो सकटो और उपसर्गों का उपभोग २३ तीर्थकरों ने नही किया । भगवान महावीर के साधनाकाल मे एक ओर यदि सकट अपनी भयकरता की चरमसीमा पार करते दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर भगवान महावीर की सहनशीलता भी अपनी उत्कृष्टता की पराकाष्ठा पर पहुची हुई दृष्टिगोचर होती है । मध्यपावा नगरी के बाहिर ग्वाले ने भगवान महावीर के कानो मे कीलिया ठोक कर जो कष्ट दिया था, यह भगवान के साधक - जीवन का अन्तिम उपसर्ग माना जाता है । आश्चर्य इस बात का है कि साधना काल मे सबसे पहला उपसर्गभ ग्वाले के हाथो से हुआ था और अन्तिम उपसर्ग भी ग्वाले के द्वारा ही दिया गया था । साधनाकाल की तपस्या भगवान महावीर का साधनाकाल कुछ अधिक साढ़े बारह वर्ष का था, कल्पसूत्रकार भगवान का साधनाकाल कुछ अधिक बारह वर्ष मानते हैं, इतने लम्बे काल मे प्रभु ने केवल तीन सौ उनचास दिन ही आहार ग्रहण किया । गेष सब दिन तप. - सावना मे ही व्यतीत किए। इस तपस्या मे जल का उपयोग भी नही किया गया था । निर्जल तपस्या के पारणे भी नीरस आहार से किये जाते थे । तपस्या तो सभी तीर्थङ्कर करते रहे हैं, परन्तु जो कठोर उपसर्ग-सहित तप साधना भगवान महावीर ने की है, वह किसी अन्य तीर्थङ्कर ने नही की । इसीलिये यह विना किसी झिझक के कहा जा सकता है कि भगवान महावीर की तपस्या प्रतीत के अन्य तीर्थङ्करो से उत्कष्ट थी । साधनाकाल मे भगवान महावीर ने जो उपवास - तपस्या की उसकी तालिका इस प्रकार है : एक छमासी तप, एक पाच दिन कम छमासी तप, नौ-चातुर्मासिक पञ्च-कल्याणक ] [ ७९ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप, दो त्रैमासिक तप, दो सार्थ हमासिक तप, छ मामिक तप, दो सार्धमासिक तप, बारह मामिक तप, बहत्तर पाक्षिक तप, दो दिन की एक भद्रप्रतिमा, एक महाभद्रप्रतिमा चार दिन की, एक सर्वतोभद्रप्रतिमा दस दिन की, दो सौ उनतीस वेले, वारह उपवास इम तपस्याकाल के ग्यारह वर्ष छ मास पच्चीस दिन होते है । तपस्या के पारणे के ३४६ दिन होते है। ये सब मिला कर बारह वर्ष छ मास चौदह दिन बनते हैं। इन दिनो मे दीक्षावाला दिन सकलित करने पर इनको कुल संख्या १२ वर्ष ६ मास १५ दिन हो जाती है। भगवान महावीर चातुर्मास काल को छोड कर शेप पाठ मास विहरण किया करते थे। गाव मे एक रात्रि और नगर मे पाच रात्रि से अधिक नहीं रहते थे । यत्र, तत्र, सर्वत्र इनके ध्यान दीपक सदा जगमगाते रहते थे, उनको ज्योति को भगवान महावीर ने कही बुझने नहीं दिया । भगवान की २१ उपमाएं विश्व-शान्ति, अहिंसा, क्षमा, तपस्या और तितिक्षा के अमर सन्देशवाहक भगवान महावीर विश्व के एक कान्तिकारी, ऐतिहासिक अध्यात्म-महापुरुप थे। इन के महामहिम, तेजस्वी व्यक्तित्व को यदि उपमा की भापा मे अभिव्यक्त करने लगे तो हजारो उपमाए प्रस्तुत की जासकती हैं, परन्तु शास्त्रकारो ने उनके व्यक्तित्व की झाकी दिखलाने के लिए निम्नोक्त २१ उपमानो से उन्हे उपमित किया है___महावीर कास्य-पात्र के समान निर्लेप, शखकी तरह निरखन, जीव की तरह अप्रतिहतगति, आकाशकी तरह परावलम्बन से रहित, वायु की भाति अप्रतिवद्ध, शरद् कालीन जल की तरह निर्मल, कमल के समान निलिप्त, कछुए के समान जिनेन्द्रिय, गैण्डे के समान दृढ, पक्षी के समान अपर दिन की अपेक्षा से रहित, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, गन्धहस्ती के समान वल-भण्डार, वृषभतुल्य पराक्रमी, सिह के. समान अपराजेय, सुमेरु के समान स्थिर, सागर-सम-गम्भीर, चन्द्रसदृश सौम्य, सूर्य के समान तेजस्वी, स्वर्ण के समान भास्वर, पृथ्वी के समान सहिष्णु और अग्नि के समान देदीप्यमान थे । भगवान् महावीर के उपर्युक्त गुण उनकी गौरव-गाथा को स्पष्ट कर रहे है। . ८० [ दीक्षा-कल्याणक Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराहे पष्ठेनास्थितस्य खलु जू भ्रकाग्रामे ।। वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चन्द्रे। क्षपकण्यारूढस्योत्पन्न केवलं ज्ञानम् ।। माप अम्भिका ग्राम के निकट बहनेवाली ऋजुकूला नदी के तट पर जहा कि भान वृक्ष था और उसके नीचे एक शिलापट्ट था. षष्ठ भक्त पूर्वक अपराण्ह काल मे आप उस पर विराजमान हुए पापको क्षपक घेणी पर मारूढ हो जाने पर वैशाख शुक्लादशमी के दिन अबकि चन्द्रमा हस्त एव उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के बीच मे या 'केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। IAO ANAKISTANI YOUR GS INISTRA पाnxHESKORH CUM - - 'Haitianit ISCLAGand PEOSRA स te ANNA Ss auN M देवन्द्र । । केवल ज्ञान कल्याण श्री मनोहर मुनि कुमुद Page #108 --------------------------------------------------------------------------  Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल - ज्ञान - कल्याणक भगवान महावीर विचरण करते हुए जृम्भिक ग्राम के बाहर ऋजु पालिका नदी के शान्त किनारो को अपने चरण-स्पर्श से पावन करते हुए श्यामक गाथापति के खेत मे पहुचे और वहा शालि वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये । वैशाख का मधुर मास चल रहा था । शुक्लपक्ष अपने दसवें ग मे प्रवेश कर चुका था । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र से चन्द्रमा का उत्तम योग था । सुव्रत नामक दिन का चतुर्थ प्रहर था । उस समय विजय मुहर्त्त भी भगवान महावीर की अपने मोह-कर्म पर पूर्ण विजय की घोषणा कर रहा था। भगवान अपने 'स्व' मे लीन गोदुहासन मे बैठे हुए थे । वे श्रानन्दाव्धि मे तैर रहे थे । कर्म, विक्षेप और आवरण सब हट चुके थे । केवल-ज्ञान स्वरूप एक ग्रात्मा का ही अस्तित्व रह गया । सर्वोच्च शिखर पर उन्होने अपनी श्रात्मा को अनन्त प्रकाश के पुञ्ज के रूप मे अनुभव किया । चराचर जगत् को अपने ग्रनन्त 'स्व' के विमल दर्पण मे प्रतिविम्वित होते हुए देखा । साढे बारह वर्ष तक जीवन की अनेक विकट घाटियां पार करने के बाद महावीर केवल - ज्ञान के पहुच गये । केवल-ज्ञान होने के बाद जीव को अपने प्रकार से प्रमाण-पत्र ही उपलब्ध हो जाता है, क्योकि सिद्धत्व निश्चित होता है । घट के फूटने पर जैसे घटाकाश, मठाकाग मे समा जाता है, ऐसे ही पाञ्चभौतिक शरीर के छूटते ही जीव सिद्ध ज्योति मे जा कर ज्योति स्वरूप हो जाता है । कल्याण का एक केवल- ज्ञानी का सामान्य केवली और तीर्थङ्कर केवल ज्ञान की दृष्टि से समान होते है, किन्तु सामान्य केवली के केवल ज्ञान को कल्याणक नही कहा जा पञ्च-कल्याणक ] [59 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाना, क्योकि वे केवल-ज्ञान की उपलब्धि का प्रोग करने में स्वतन्त्र होते हैं। वह समाधिस्थ रह कर मौन रूप से आयुष्य को पूर्ण करे या लोक-कल्याण के लिये प्रवृत्ति करे, यह उनकी अपनी इच्छा पर निर्भर करता है, किन्नु तीर्थकर ऐसा नहीं कर सकता। वह केवल-नान के बाद अभापक तथा मौन नहीं रहता । वह जब केवल-ज्ञान मे प्रकृति के विराट तत्त्वो को अनुभूति करता है तब विश्व के हित, मंगल तथा कल्याण के लिये उनका प्रचार एव प्रमार भी करता है। लोक-हित के लिये वह तीर्थ का प्रवर्तन करना है। तीर्थ के प्रवर्तन के बाद ही वह वस्तुत तीर्थङ्कर के रूप मे हमारे सामने आता है। प्रत्येक तीर्थकर पहले अरिहन्त बनता है और फिर तीर्थकर । तीर्थकर नाम-कर्म के उदय से तो द्रव्यत: तीर्थकर कहा जाता है, किन्तु तीर्थ की स्थापना करने पर ही महापुरुप वास्तविक तीर्थङ्कर कहलाते है। प्रत्येक तीर्थकर अरिहन्त होता है, किन्तु प्रत्येक अरिहन्त तीर्थङ्कर नहीं होता। तीर्थकरत्व का मोक्ष के साथ कोई सम्बन्ध नही है। अरिहन्त का अर्थ सक्षेप मे जरा समझ लेना चाहिये । अरिहन्त के तीन भाव है । प्रथम है : १. परेहननारिहन्ता अर्थात् जो मोह आदि शत्रुओ का हनन फरता है, वह अरिहन्त होता है। २ रजोहननादरिहन्ता-जो कमरज को दूर कर देता है वह अरि - ३. रहस्याभावात्रा अरिहन्ता-जो अन्तराय कर्म को दूर करता है यह अरिहन्त है। ऐमा अरिहन्तत्व ही तीर्थङ्कर को मोक्ष तक पहुचाता है। यदि तीर्थरत्व मे मोक्ष देने की शक्ति होती तो फिर तीर्थङ्कर के रूप मे जन्म लेते ही उन्हे केवल-ज्ञान हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता। तीर्थकर को साधना से सर्वप्रथम अरिहन्त-पद तक पहुंचना पड़ता है और तभी उसका तीर्थकरत्व सार्थक होता है। जैसे प्रत्येक प्राचार्य और उपाध्याय मावु होता है, किन्तु प्रत्येक सायु प्राचार्य व उपाध्याय नहीं होता। आत्म-कल्याण के लिये प्राचार्य व उपाध्याय होना कोई आवश्यक नहीं है, क्योकि ये सब पदविया और उपाधिया है। सामाजिक धरातल पर २] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनका अवश्य कुछ महत्त्व रहता है, किन्तु आत्मा के विकास के साथ इनका दूर का भी कोई सम्वन्ध नहीं है । ग्रात्मा का विकास तो साधुत्व के क्रमश विकास से होता है । साधुत्व का क्रमश: विकास ही गुण-स्थानो का आरोहण करता हुया तेरहवे गुण-स्थान मे पहुचे कर वीतरागता का रूप ले लेता है । वीतराग होने के लिये तीर्थङ्कर होना कोई ग्रावश्यक नही है किन्तु तीर्थङ्कर ग्रवत्र्य हो वीतराग होता है । यह गाग्वन नियम है । वीतराग के होने के बाद ही तीर्थङ्कर तीर्थ की स्थापना करते हैं । तीर्थङ्कर और अवतार में अन्तर सनातन-धर्म के अवतार और जैन धर्म के तीर्थङ्कर के अवतरग तथा अविर्भाव का एक ही उद्देश्य रहता है, वह है जन-मानस मे धर्म की सस्थापना । जैसे कि गीता मे कहा है यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । श्रभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परिवाणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्म-संस्थापनार्थाय सम्भवानि युगे युगे ॥ उपर्युक्त श्लोकद्वय का भावार्थ पद्म मे कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है : जब जब होइ धर्म की हानी, वाढह श्रसुर महा 'अभिमानी I तब तव घरि प्रभु मनुज सरीश, हहि सकल सुजन जन पीरा । इस धरती पर सनातन-धर्म की दृष्टि से भगवान के अवतार लेने का जो प्रयोजन होता है वही उद्देश्य जैन-धर्म के तीर्थङ्कर के जन्म लेने का है, किन्तु दोनो मे कुछ मौलिक भेद होता है, उद्देश्य की सिद्धि मे और कार्य करने की पद्धति मे 1 सनातन धर्म मे भगवान स्वयं मानव के रूप में अवतार लेता है, जबकि जैन धर्म का तीर्थङ्कर एक विशिष्ट मानव ही होता है वह अपनी सावना से भगवत्ता को प्राप्त करता है । सनातन धर्म मे भगवान का अवतार जब यह देखता है कि उपदेश श्रोर नम्रता से दुष्ट अपनी दुष्टता से वाज नही ग्राता तो फिर वह सहार का मार्ग अपनाता है । वह इस धरती को आसुरी प्रभाव से मुक्त पञ्च-कल्याणक ] [ ८३ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने के लिये दुप्टो का संहार करता है, किन्तु जैन-धर्म का तीर्थङ्कर वीतराग होने से ऐसा नहीं करता। - सनातन-धर्म का अवतार अपनी शरण में आनेवाले के लिये उसके कल्याण और मुक्ति का दावा करता है, किन्तु जैन-धर्म का तीर्थङ्कर किसी को कल्याण और मुक्ति की गारन्टी नहीं देता। वह किसी के कर्मों का भार अपने सिर पर नहीं लेता। वह तो सहज-रूप मे अहिंसा और सत्य का उपदेश देता है। वह व्यक्त को मिथ्या-दृष्टि और असत् सस्कारो को बदलने का प्रयत्न करता है। वह अपने उद्देश्य मे सफल होता है या असफल इस ओर वह ध्यान नहीं देता, क्योकि किसी के उपदेश को ग्रहण करना या न करना यह व्यक्ति की अपनी पात्रता व अपात्रता पर निर्भर करता है। जिसका जैसा उपादान होता है उसमे वैसी ही परिणति होती है । तीर्थङ्कर कही भी वल और शक्ति का प्रयोग नहीं करते। सहार का प्राचरण तो क्या वे कभी इसका अनुमोदन भी नहीं करते। जैन-तीर्थकरो का यह दृढ विश्वास है कि सहार से प्राणी का कभी उद्धार नही होता और यह पृथ्वी भी पाप से कभी शून्य नही होती,क्योकि पाप के सस्कारो को साथ लेकर मरनेवाले प्राणी फिर नया शरीर लेकर इस धरती पर ही आ जाते हैं। इस तरह सस्कार रूपी बीज के नष्ट न होने से पापो की परम्परा सदैव बनी रहती है। तीर्थबार सदैव अहिंसा और सत्य के माध्यम से ही लोक-मानस मे धर्म की प्रतिष्ठा करते हैं। बीतराग होने के बाद लोक-हित की भावना मे प्रेरित होकर वे धर्म-देशना देते है। वे विश्व का निर्माण करने के लिये पहले अपना निर्माण करते है । जो अपना निर्माण किये बिना ही दूसरो का उद्धार करने जाते हैं, वे अपने उद्देश्य में सफल तो होते ही नहीं, बल्कि वे निन्दा और उपहास के पात्र बनते है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपना ही सुधार कर ले तो जगत का उद्धार क्षणो मे हो जाये । शायद इसी लिए किसी ने कहा है- “If every man hooks his on reformation then how very easy to reform a nation?" तीर्थकर स्व-निर्माण के बाद ही परोपदेश मे प्रवृत्ति करते हैं । तोर्थडर का कार्य : केवल-ज्ञान को उपलब्धि के बाद तीर्थर के लिये कुछ और ८४] [ केवल-ज्ञात-कल्याण Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध करना मेष नहीं होता। वे केवल अपनी उपलब्धि से ससार को लाभान्वित करने के लिये ही वाणी बोलते हैं। वाणी जीवन की एक महती शक्ति है। प्रात्मा और प्रकृति के रहस्योद्घाटन वाणी के द्वारा ही होते हैं। आत्मा द्वारा अनुभूत सत्य वाणी के द्वारा ही जनमानस तक पहुंचता है। केवल-ज्ञान वाणी के द्वारा ही श्रुतज्ञान का रूप, लेता है। विश्व के लिये श्रुत-ज्ञान ही उपयोगी होता है। हेय, नेय और उपादेय का परिज्ञान श्रुत-ज्ञान से ही होता है। जीव को इन्द्रियो की उपलब्धि मे श्रुतेन्द्रिय सव से वाद प्राप्त होती है। श्रुत का विषय शब्द है । वाणी भी शब्द रूपा है। शब्द ही श्रुत और वाणी के मिलन का माध्यम है। शव्द ही ब्रह्म को व्यक्त करता है। सनातन-धर्म मे इसीलिये शब्द को ब्रह्म कहा गया है। गव्द के विना आत्मा मूक है। जैन-धर्म ने इसे अभापक कहा है, अभाषक का जान उत्कृष्ट होने पर भी ससार के लिये अनुपयोगी होता है। जैसे सिद्ध भगवान का ज्ञान अनन्त होने पर भी लौकिक दृष्टि से कार्यकारी एव उपकारी नहीं है, क्योकि सिद्ध अभाषक होते हैं । अरिहन्त सशरीरी होने से भापक होते हैं। उनका ज्ञान वाणी के माध्यम से प्रस्फुटित होकर ससार के लिये उद्बोधक तथा प्रेरक वन जाता है। तीर्थङ्कर सर्वन तथा सर्वदर्शी होते है। उनके वचन सत्य तथा यथार्थ होते हैं, इसलिये उनके वाणी-प्रवाह को प्रवचन कहा जाता है । प्रकृष्ट वचन ही प्रवचन होता है। छनस्थ अर्थात् जिसमे अभी मानसिक विकार शेष है उनके भाषण को प्रवचन नहीं कहा जा सकता। यदि वे सर्वज की वाणी को आधार मानकर नि.गक भाव से तत्त्वो का प्रतिपादन करे तो उसे भी प्रवचन कहा जा सकता है, तीर्थकर की वाणी को इसीलिये निर्ग्रन्थ प्रवचन कहा जाता है, क्योकि उसमे रागद्वेष और पक्षपात नही होता । केवल विश्व-हित की भावना निहित रहती है। तीर्थरो के वचन असाम्प्रदायिक तथा सार्वभौम होते है। उनकी दृष्टि मे ऊच-नीच तथा छोटे-बडे का भेद-भाव नहीं होता। सूर्य अर्घ्य चढानेवाले और अपने ऊपर धूल फैकनेवाले को समान रूप से ही अपनी शक्तियो से लाभान्वित करता है । ठीक इसी तरह तीर्थङ्कर निन्दक और प्रशासक को समान दृष्टि से अपनी धर्म-वाणी से कृतार्थ करते हैं । इस सम्बन्ध मे शास्त्र पञ्च-कल्याणक ] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कहा है जहा पुण्णस्स कत्यइ तहा तुच्छस्स कत्थई । जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थई ॥ अर्थात् जो उपदेश वे एक राजा या रानी को देते है वही शिक्षा वे एक दास और दामी को भी देते है, क्योंकि धर्म प्रवृत्ति का अधिकार सबको होता है । जो उद्बो वचन वे एक भद्रपुरुष को सुनाते है वही ज्ञान सूक्त अभद्र के प्रति भी कहते हैं ताकि वह अभद्र से भद्र हो जाए । तीर्थङ्कर प्रेम करुणा और वात्सल्य की भावना से प्रेरित होकर अत्यन्त मिष्ट, शान्त प्रिय, संयमित गम्भीर, परिमित निर्भीक, सुस्पष्ट, मन्तुलित, देश - कालानुसार, निष्पक्ष, दुरितहारी तथा सत्य एव यथार्थ वचन ही बोलते है | समवसरण : वे जिस धर्म-सभा मे प्रवचन देते है उसे समवसरण कहा जाता है | जहां श्रोता लोग वैर भाव को छोड़ कर समभाव से धर्मोपदेश सुनते हैं और जिस स्थान से धर्म का व्याख्यान किया जाता है, उसे समवसरण कहा जाता है । यह समवसरण देव-निर्मित होता है । यह एक योजन लम्बा चौड़ा रहता है, क्योकि तीर्थंकर की वाणी एक योजन तक सुनाई देती है । उनकी वाणी की यह विशेषता है कि उसे प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भाषा मे समझ लेता है । तीर्थङ्कर देव एक ऊचे सिंहासन पर ग्रशोक वृक्ष के नीचे बैठकर सारे जगत के त्रिताप रूप शोक को दूर करने के लिये अपनी वाणी का प्रसार करते है । भगवान महावीर की प्रथम देशना : - भगवान महावीर ने वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपनी प्रथम धर्म देशना दी, किन्तु भगवान महावीर की यह देशना निष्फल चली गई। कहा जाता है कि भगवान महावीर की इस सभा मे कोई मानव नही था । परन्तु यह वात कुछ अटपटी सी मालूम पड़ती है । जव सनातन जगत् मे भगवान कृष्ण की मुरली के माधुर्य एव आकर्षण के सम्बन्ध ८६ ] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे कहा जाना है कि गोपियां और गौए दूर-दूर से भी कृष्ण की वासुरी की तान सुन कर भागी आती थी । तव भगवान महावीर की वाणी का माधुर्य एक योजन तक बिखर रहा हो और कोई भी मानव उससे श्राकर्षित होकर समवसरण मे न पहुचे, ऐसा सोचना भगवान की वाणी को हीन कहना है । मैं ऐसा समझता हूं कि भगवान के समवसरण मे मानव तो बहुत थे, किन्तु मानव का हृदय रखनेवाला और भगवान की वाणी को धारण करने में सक्षम जन-मानस वहा शायद कोई नही था । जव उत्तम पदार्थ वो पात्र ग्रहण नही कर पाता तो उसमे पदार्थ का दोष नही होता, बल्कि पात्र की अपनी अयोग्यता होती है । जिस धर्म-सभा मे कोई मानव नही उसमे धर्मोपदेश देने से तीथङ्कर का उद्देश्य सिद्ध नही हो सकता । तीर्थङ्कर 'तीर्थ' की स्थापना करने के लिये ही प्रवचन देते हैं, क्योकि तीर्थ के द्वारा ही वे ससार मे धर्म-चक्र का प्रवर्तन करते हैं । तीर्थ की स्थापना मानव मात्र के कल्याण के लिये होती है और वह मानव जाति के वल पर ही की जाती है। वहां पशु और देव की अपेक्षा नही होती । सामान्य दृष्टि से पशु चरित्र का अधिकारी नही, किन्तु पवाद दशा मे कही-कही वह भी भाव-जगत मे व्रती बन सकता है । देवता तो सदैव व्रती ही रहते हैं, इसलिये भगवान के समवसरण मे उनके थाने से और तीर्थङ्कर की देशना सुनने से तीर्थ-स्थापना का वास्तविक उद्देश्य सिद्ध नही होता, किन्तु यहा यह भी कहा जा सकता है कि तीर्थङ्कर के उपदेश को धारण करने मे ग्रक्षम मानव-सभा मे भी उपदेश देने से तीर्थङ्कर का क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? कुछ भी नही । परन्तु तीर्थङ्कर सर्वज्ञ होने से यह जानता है कि मेरी देशना से किसी को भी प्रतिबोध होनेवाला नही है, फिर भला वे क्यो देशना देते है ? इस प्रश्न के उत्तर मे इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि तीर्थङ्कर सब कुछ जानते हुए भी लोक-मर्यादा का उल्लघन कदापि नही करते । व्यावहारिकता का वे पूर्ण परिपालन करते है । अपने पास आए हुए जन-समाज को वे यह कदापि नही कहते - चलो | भागो | यहा से । तुम मे से किसी को भी प्रतिबोध होनेवाला नही है । में व्यर्थ ही अपना समय नष्ट करना नही चाहता । तीर्थङ्कर यथार्थ द्रष्टा होने पर भी किसी को कठोर तथा अशिष्ट वचन नही कहते । सर्वज्ञ को दूसरे की स्थिति 1 पञ्चकल्याणक } [ ८७ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ज्ञान पहले ही हो जाता है, किन्तु अल्पज को अपनी वास्तविक शक्ति व स्थिति का बोध कार्य के पश्चात् होता है। तीर्थकर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अनुभूति के द्वारा ही अपनी शक्ति, योग्यता तया स्थिति को समझने का अवसर देते हैं। तीर्थकर अपने समवसरण मे यह सदैव जानते है कि कौन प्रतियुद्ध होगा और कौन नहीं, किन्तु फिर भी वे एक-एक को चुन-चुन कर ज्ञान के बूट नहीं पिलाते, बल्कि वे सहज भाव मे सबको अपनी शान-गगा का पीयूप पिलाते हैं। भाग्यवान पी जाते है और पुण्यहीन वमन कर देते है। तीर्थकर अपने जान के मोती समान भाव से दिखेरते जाते हैं। राजहम तो मोती चुग लेते है और दूसरे पक्षी व्यर्थ ही चोच रगड-रगड कर उड़ जाते है । कहना होगा कि भगवान महावीर की प्रथम धर्म-देशना के ज्ञान-,क्ता चुगने के लिये भगवान के समवसरण रूपी सरोवर मे कोई राजहस नहीं पहुचा। देवो और पशुमो के लिये वे किसी काम के नहीं थे । इसलिये तीथंडर महावीर की प्रथम देशना अकार्थ चली गई। जैन-जगत में इसे दस आश्चर्यो मे एक माना जाता है। वैशाख शुक्ला एकादशी के दिन भगवान महावीर ने मध्यमा पावा की अोर विहार किया। यहां वे महासेन नामक उद्यान मे ठहरे । उनके शुभागमन की सुखद सूचना विद्युत-लहरी की तरह सारी नगरी मे फैल गई । वाल-युवा व वृद्ध सभी नर-नारी भगवान की अमृत वाणी का पान करने के लिये सागर की तरह उमड पड़े। भगवान महावीर ने लोकहितार्थ परम सत्य का प्रतिपादन किया । उन्होने फरमाया कि चौरासी लाख जीव योनियो मे कर्मों के अनुसार भ्रमण करते हुए अत्यन्त पुण्योदय से मानवता की उपलब्धि होती है। क्योकि मनुष्य इस धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, वही ज्ञान के प्रकाश मे उत्तम कर्म करता है और अज्ञानावस्था मे अधर्माचरण करके अघम यति मे चला जाता है । स्वर्ग की सत्ता मनुप्य की पुण्य-साधना पर खड़ी है। पशु और नरक मनप्य के नीच कर्मो का ही दुखद परिणाम है। मनुष्य के अपने जीवन मे भी जो दुख-सुख रोग-शोक, सयोग-वियोग तथा मान-अपमान देखा जाता है वह भी मनुष्य के कर्मों का ही प्रतिफल है। मनुष्य को सत्यासत्य का आवश्यक विवेक होना चाहिये । तभी वह अपने तथा अन्य के जीवन का कुछ हित कर सकता है। [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान और दर्शन के परिप्रेक्ष्य मे वोलते हुए उन्होने जीव, ग्रजीव पुण्य, पाप श्रव, सवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष का विशद विवेचन किया ।' लोक का स्वरूप समझाते हुए जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, ग्रवर्मास्तिकाय प्रकाशास्तिकाय और पुद्रलास्तिकाय, का विस्तृत प्रतिपादन किया । ज्ञान और दर्शन से जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान होता है औौर चारित्र से 'स्व' तत्व की उपलब्धि होती है । ज्ञान के वाद ही वस्तु की सप्राप्ति की इच्छा जागती है, ग्रत: ज्ञान एव दर्शन के वाद जीवन मे चारित्र का उदय होता है । समाज मे स्वस्थ, सुखी तथा श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिये भी चारित्र ग्रपेक्षित है और इस जीवन के उपरान्त सद्गति और मुक्ति प्राप्त करने के लिये भी चारित्र परमावश्यक है । जो साधक चारित्र को धारण करता है । वह श्रमण अर्थात् साधु “कहा जाता है और इस चारित्र की साधिका - स्त्री श्रमणी अर्थात् साध्वी कहलाती है । जो सावक ससार की चीज़ो का मोह नही छोड़ सकते, जो अपनी इन्द्रियों और मन पर पूर्ण नियन्त्रण नही रख सकते, जिनके हृदय मे अभी पूर्ण वैराग्य नही उत्पन्न हुआ, जो त्याग मार्ग पर चलने में अपने आप को असमर्थ पाते हैं, उन्हें देश-व्रती चारित्र का आरावन करना चाहिये । यह चारित्र वारह व्रतो पर ग्राधारित है । वे वारह व्रत हैं— स्थूल प्राणातिपात विरमण-व्रत, स्थूल- मृपावाद - विरमण व्रत, स्थूल-प्रदत्तादान - विरमण व्रत, स्वदार-सतोष व्रत और इच्छा-परिमाण व्रत । ये पाच अणुव्रत हैं । इन अणुव्रतो के अतिरिक्त सात और व्रत है । जिन्हे गुण व्रत और शिक्षा-व्रत कहते हैं । गुण-व्रत तीन हैं और शिक्षा व्रत चार हैं । गुण-व्रत हैं- दिशा परिमाण - वत, भोग- उपभोग परिमाणव्रत और अनर्थदण्ड विरमण-व्रत सामायिक व्रत, देशावकाशिक-त्र पीपवव्रत और अतिथि - सविभाग- व्रत ये शिक्षा व्रत कहे जाते है । जो गृहस्य इन सम्पूर्ण व्रतो या इनमे से कुछ व्रतो को ग्रहण करता है उसे देश चारित्री श्रावक या श्रमणोपासक कहा जाता है । जो केवल केवली प्ररूपित धर्म पर विश्वास करता है और गुरु के सच्चे स्वरूप को समझ कर उन पर ग्रास्या रखता है उसे दर्शनी श्रावक कहा जाता है । इसी प्रकार इन व्रतो की आराधिका स्त्री श्रमणोपासिका कहलाती है । [ = पञ्चकल्याणक ] -त्रत, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह वात सत्य है कि प्रकृति ने पुरुष और नारी को अलग-अलग शक्तिया प्रदान की है, सामाजिक जीवन में उनके कर्तव्यों में अवश्य भेद रहता है, किन्तु पुरुष की आत्मा और स्त्री की आत्मा मे कोई भेद नही है । दोनो के जन्म लेने. कर्म करने और कर्मों का फल भोगने के माध्यमो तथा विधियो में कोई अन्तर नही, इमलिये दोनो का श्रात्मधर्म एक ही है। दोनो को मोक्ष-प्राप्त करने का समान अधिकार है। तीर्थड्रो ने पुरुप और नारी के धार्मिक अधिकारो मे कभी भेद नही माना। तीर्थकर जाति-पाति को भी स्वीकार नहीं करते। किसी भी जाति का व्यक्ति इम निम्र न्य-धर्म को ग्रहण कर के अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है । भगवान की उपदेश गगा इस प्रकार अवाच-गति से प्रवाहित हो रही थी, जन-मानस मे आलोक की किरणे फैल रही थी, मिथ्यात्व का अन्धकार फट रहा था, लोग मस्त होकर अमृत का पान कर रहे थे। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे कि पहली ही बार उन्हे यह दिव्य प्रकाश प्राप्त हुया हो । भूले-भटके लोगो को जीवन की नयी राहे मिस रही थी। भगवान की प्रोजस्विनी-वाणी से बहुत से लोगो का मोह भग हो गया और वे साध-जीवन के लिये तत्पर हो गये। अपनी शक्तियोग्यता तथा परिस्थिति पर वे गम्भीर चिन्तन करने लगे। वहुत से भावुक स्त्री-हृदय भी सयम के लिये मचलने लगे। अपने आप को सयम जीवन की कठोर अाराधना मे असमथ पाते हुए बहुत से अन्य जन भगवान के श्रमणोपासक व श्रमणोपासिकाए बनने के लिये तैयार हो गये। समवसरण मे प्रत्येक स्त्री-पुरुष के अन्तरङ्ग में एक आध्यात्मिक उत्क्रान्ति चल रही थी। इतने मे सहसा ही भगवान की धर्म-सभा मे एक नया ही दृश्य उपस्थित हो गया। गणधरों का आगमन : _ 'मध्यमा-पावा' नामक नगरी मे सोमिल ब्राह्मण एक महायज्ञ कर रहा था। सारे पूर्वी भारत मे उस यज्ञ की खूब धूम मची हुई थी। उस यज मे वैदिक-धर्म के बडे-बडे धुरन्धर विद्वान् उपस्थित थे। उनकी चार हजार चार सौ शिष्य-सम्पदा भी उनके साथ थी। सोमिल की १०] [केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्ञ-शाला में जनता का एक सागर ही उमड रहा था। अपने-अपने अभीष्ट की सिद्धि मे सब लोग आशावान होकर बैठे थे। सहसा उन्हो ने देखा कि लोग महासेन उद्यान की ओर बड़ी उत्सुकता से चले जा रहे है। यज-मण्डप के हजारो लोग भी उठ-उठ कर चलने लगे । देखते ही देखते यज्ञ-मण्डप खाली हो गया। भगवान महावीर के समवसरण मे जनता का एक महासागर ठाठे मारने लगा। भगवान तीर्थ अर्थात् सघ की स्थापना कही भी कर सकते थे, किन्तु वे मध्यमा पावा मे अपने साथ एक महान उद्देश्य लेकर ही उपस्थित हुए थे । मध्यमा-पावा उस समय वैदिक धर्म का एक बहुत वडा केन्द्र था। ग्यारह दिग्गज विद्वानो के नेतृत्व मे उस समय एक महान् यजीय अनुष्ठान भी हो रहा था। उस यज्ञ की छटा निहारने के लिये यज्ञ-मण्डप के पाश्चल मे दूर-दूर से लोग आकर आसन जमाए बैठे थे। ऐसे दुर्लभ अवसर को महावीर अपने हाथ से नही जाने देना चाहते थे। वे जान बूझ कर मध्यमा पावा की ओर बढे। महावीर वेदो के और वैदिक-जगत के ही नहीं, बल्कि उस समय धर्म के नाम पर प्रचलित घोर हिंसा के प्रवल विरोधी थे। यज्ञो के नाम पर भारत के पावन प्राङ्गण मे हिंसा का ताण्डव नृत्य हो रहा था । महावीर भारत के पवित्र ललाट से हिंसा के इस कलक को धो देना चाहते थे। धर्म के नाम पर चल रही गलत रूढियो तथा पाखण्डो का अन्त कर देने के लिये वे कटिवद्ध थे। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होने सव से पहले मध्यमा-पावा को ही चुना, क्योकि उनके केवलज्ञान के दर्पण मे मध्यमा नगरी में प्राप्त होनेवाली सफलता पहले से ही झलक रही थी। उन्होने देख लिया था कि सोमिल के यज्ञ. मण्डप पर विजय पाना-हिंसा पर अहिंसा की एक महान विजय होगी। इस से भारत देश में अहिंसा के प्रचार के द्वार खुल जायेंगे। महावीर कोई विजय की भावना लेकर मध्यमा में नहीं पाए थे, वे ख्याति के भी भूखे न थे। वे पाए थे जन-मानस को तथा जन-नेतायो को प्रात्मा के विराट सत्य का परिवोध देने के लिये। ___सोमिल की यज्ञ-शाला एक-दम सूनी हो गई। पण्डित वर्ग आश्चर्य म डूब गया। भगवान महावीर के तेज और प्रभाव को देख कर वे चित्र लिखित से रह गये। सोमिल के यज्ञ की तो वे अनुपम पञ्च-कल्याणक] [१ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोभा ही थे, विन्नु महावीर के समवसरण की शोभा ने उनकी गोमा को क्षीण कर दिया। कहा जाता है कि इन्द्रभूति महावीर को परास्त करने तथा उन्हें नीचा दिखाने के लिये ही उनके समवसरण में गये थे, किन्तु मैं उनमें सहमत नहीं है। मैं ऐसा मानता है कि भगवान महावीर के तपस्लेज और अव्यात्म-तेज के प्रखर प्रताप को देख कर उन्द्रभूति का अहसार पहले ही विलिन हो गया था, उनके मन में महावीर के प्रति एक सहज भक्ति जागृत हो गई थी। अनेक जन्मो का प्रगुप्त स्नेह गहमा उनके मानस मे गगा के निर्मल प्रवाह की तरह उमः पड़ा था। किनी विराट् सत्य की उपलब्धि के लिये वे ही वहा पाए थे। यदि इन्द्रभूति के हृदय मे अहकार और अभिमान भरा होना, यदि वे विजय की अभिलापा एव महावीर को परास्त करने का सकल्प अपने मन में समाये हुए वहा पाते तो वे अपनी गका के प्रति दिये हुए महावीर के ममायानो को वे एकदम ठुकरा देते, भुला देते। इन्द्रभूति को अपने सामने आए हुए देखकर भगवान ने कहा"इन्द्रभूति । क्या तुम्हारे मन मे जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में मगय भगवान महावीर ने जब इन्द्रभूति गौतम के मन के समय का उद्घाटन किया तो गौतम ने रमे महज भाव से स्वीकार कर लिया और महावीर की सर्वजता के आगे मस्तक झुका दिया। जिसके मन मे छल और अहकार हो वह इस प्रकार लाखो लोगो के सामने अपनी दुर्वलता को स्वीकार नही कर मकता । इससे सिद्ध होता है कि गौतम अपने अहकार का परिधान उतार कर ही भगवान के समवसरण में आए थे। इसी प्रकार अग्निभूति, वायुभूति तथा अन्य , पण्डितगण भी भगवान महावीर के समवसरण मे श्रद्धा और प्रेम से प्राप्लावित हृदय लेकर पहुंचे। उनके मन भी भिन्न-भिन्न प्रकार को शकाओ से आवृत थे। जैसे।क- 'अग्निभूति को यह सन्देह था कि कर्म का फल होता है या [ केवल-ज्ञान-कल्याणक ९२ ] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नही ?" वायुभूति यह निर्णय नही कर पा रहे थे कि "शरीर और जीव भिन्न-भिन्न है या एक ही है ?" व्यक्त स्वामी यह मानते थे कि "ब्रह्म ही सत्य है शेष सब मिथ्या है।" श्री सुधर्मा स्वामी की यह धारणा बनी हुई थी कि 'प्रत्येक प्राणी अपनी ही योनि मे उत्पन्न होता है, अर्थात् योनि-परिवर्तन नही होता। मण्डित जी यह मानते थे कि 'आत्मा एक अमूर्त तत्त्व है, उससे कर्म जैसे मूर्त द्रव्य का वन्ध नही हो सकता, जव वन्ध ही नही तो फिर उससे मुक्त होने का तो कोई प्रश्न ही नही है। मौर्यपुत्र जी का यह विश्वास बन गया था कि सख का अस्तित्व इसी धरातल पर है, उसका अस्तित्व इस ससार से परे अन्यत्र कही नही है। अकम्पित जी भी इसी तरह दुख, शोक, अशान्ति, रोग तथा दरिद्रता के रूप मे नरक इसी लोक मे ही मानते थे। अचलप्राता जी भी पुण्य-पाप के सम्बन्ध मे सदा विचलित रहते थे। मेतार्य स्वामी पूनर्जन्म के विषय मे सशय ग्रस्त थे और प्रभास स्वामी का हृदय मोक्ष के सम्बन्ध मे सदैव चलायमान रहता था। सभी को भगवान के धर्मदरबार मे अपनी शकायो तथा म्रान्नियो के युक्तियुक्त समाधान उपलब्ध हए और वे सभी एक मत होकर अत्यन्त श्रद्धामय तथा विनीत हृदय से भगवान के निर्ग्रन्थ धर्म मे दीक्षित हो गये । __उनके मन मे उपर्युक्त शकाए थी या नही । वे एक-एक करके भगवान के समवसरण मे गये या एकत्र होकर, यह तो चाहे निश्चित न हो, किन्तु एक वात सुनिश्चित है कि वे महावीर को अपना प्रतिद्वन्द्वी समझ कर उससे टक्कर लेने की भावना से और इन्द्रभूति जी को मुक्त कराने के सकल्प से वहां नही गये थे। वे सब महावीर के समवसरण मे केवल ज्ञान के मोती चुगने के लिये ही पहुचे थे और भगवान के चरण-भ्रमर वन कर उन्ही के हो गए थे। समवसरण मे उपस्थित अनेक बहिनो व भाइयो ने साधु तथा श्रावक धर्म को ग्रहण किया। भगवान महावीर की यह धर्म-परिषद सफलता से अलकृत हो गई। धर्म-चक्र का प्रवर्तन करने के लिये तीर्थकर महावीर ने चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की । वह वैशाख शुक्ला एकादशी का दिन सघ-स्थापना के रूप मे अमर हो गया। भगवान महावीर ने इन ग्यारह धर्म-प्राचार्यों को प्राचार्य पद पर पञ्च-कल्याणक] [१३ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही सुरक्षित रखा। जैन ससार में ये ग्यारह गणधरो के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान महावीर ने अपने सव को 'तीर्थ' की मज्ञा दी । यह सज्ञा बडी ही महत्त्वपूर्ण है। एक ही विचार-सरणि के व्यक्तियो के समूह को सघ कहते है। संघ के पर्यायवाची और भी बहुत से शब्द है, किन्तु तीर्थङ्कर भगवान साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका के सघ को तीर्थ कहते हैं । यह नाम बड़ा ही पावन एव महत्तम रहस्य से परिपूर्ण है। ससार मे ऐहिक स्वार्थों की सिद्धि तथा अन्य लोगो से सघर्ष कर के अपने अधिकारो को प्राप्त करने लिये अनेक प्रकार के संघो व दलो ग्रादि का निर्माण होता रहता है। वे सब सामाजिक जीवन से सम्बवित होने से लौकिक कहे जाते है, किन्तु तीर्थकर देव जिस धर्म-संघ की स्थापना करते हैं, वह लोकोत्तर होता है। वह आत्म-शुद्धि की साधना के लिये बनाया जाता है। उसमे ज्ञान, दर्शन और चरित्र की प्रधानता रहती है। यह सघ ससार से स्वय तरने और दूसरो को तारने के लिये होता है। इसलिये इसे 'तीर्थ' कहा जाता है, क्योकि जिस के द्वारा तरा जाये उसे ही तीर्थ कहते हैं। द्रव्य और भाव की दृष्टि से तीर्थ दो प्रकार के होते है । जिन भूमि-खण्डो का सम्बन्ध महापुरुपो के जन्म, दीक्षा, साधना, ज्ञान तथा परिनिर्वाण आदि से जुड़ जाता है, वे स्थान भी 'तीर्थ' कहे जाते है, जैसे कि हस्तिनापुर, केसरिया नाथ जी, महावीर जी, राणकपुर पावापुरी, राजगृह, सम्मेद शिखर पालीताणा, शत्रुञ्जय, गिरिनार, गोमटेश्वर श्रमणवेलगोला, अयोध्या, वाराणसी, तथा उदयगिरि पादि, ये सब बाह्य तीर्थ हैं। जव मन मे आत्मा का सच्चा विश्वास तथा जीवन मे सच्चरित्र की ज्योति लेकर इन तीर्थो की यात्रा की जाती है तो फिर ये भूमि-खण्ड अवश्य ही तीर्थ बन जाते है। सनातन जगत के भी अपने अनेको तीर्थ हैं। रामेश्वरम्, बद्रीनारायण, पुरी तथा द्वारका आदि ये सनातनियों के प्रसिद्ध धर्म-धाम है पौर उनके अनेको तीर्थ स्थान और भी है, किन्तु भक्ति-भावना और शुद्ध हृदय से यात्रा करने पर ही ये जीवन के लिये उपयोगी तथा प्रेरक बनते हैं। तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से व्यक्ति संसार के विषय-प्रपञ्चो से [ ९४ { केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ समय के लिये निवृत्त हो जाता है। उसके मन को कुछ आत्म-शान्ति उपलब्ध होती है । इस निमित्त से वह दान आदि के द्वारा अनेको सुकृतो का उपार्जन कर लेता है। बहुत सी दुष्प्रवृत्तियो से वच जाता है । तीर्थ-स्थानों मे सन्त-दर्शन, प्रभु-स्मरण, धर्म-कथा श्रवण तथा भजन-पाठ के द्वारा चित्त को कुछ शुद्धि भी हो जाती है, किन्तु एक वात कभी भूलनो नही चाहिये कि यह लाभ तभी मिल सकता है यदि तीर्थ स्थानो का वातावरण मात्त्विक तथा पवित्र हो और व्यक्ति की जान, दर्शन और चारित्र के प्रति पूरी निष्ठा हो। वाह्य तीर्थ तो निमित्त मात्र हैं। जीवन का सच्चा तीर्थ तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र को आराधना ही है। भाव के बिना द्रव्य किसी को कभी तार नहीं सकता ! भूमि ने आज तक किसी को पवित्र नही बनाया, किन्तु आत्मा के सच्चे साधक अपनी सत्य-साधना से अपवित्र स्थान को भी पवित्र बना कर उसे तीर्थ बना देते हैं। इस संसार मे वाहर कही पवित्रता नही है। पवित्रता तो चारित्र का मौरभ है जो वाह्य जगत् मे बिखर कर उस के कण-कण को पवित्र कर देता है। तीर्थकर देवों ने वस्तुत. रत्नत्रय की भावना को ही तीर्थ कहा है। साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका रत्नत्रय की साधना करने से ही तीर्थ स्वरूप माने जाते हैं। __ भगवान महावीर ने अपने अध्यात्म-सघ के बल पर भारत मे धर्म-चक्र का प्रवत्तन किया। पाप ने अपने संघ को ग्यारह भागो मे विभक्त किया । प्रत्येक भाग को गण की संज्ञा दी और गण के प्रमुख को 'गण-धर' पद से विभूपित किया। भगवान ने समवसरण में तथा शरण में आनेवाले प्रथम ग्यारह पण्डितो को ही गणधर बनाया गया था। साध्वी-संघ देवी चन्दना ने भी भगवान के चरणो में सब से पहले दीक्षा ग्रहण की । भगवान ने उमे साध्वी सघ का नेतृत्व प्रदान किया। इस तरह भगबान महावीर ने देश भर मे धर्म की उत्क्रान्ति करने के लिये समता पर आधारित सर्वजन-हितकारी सार्वभौम सिद्धान्तो प्राध्यात्मिक तया पन्ध-कल्याणक ] [९५ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक जीवन के उच्चतम आदर्शों का व्यापक अभियान प्रारम्भ कर दिया। देवताओं की गुलामी से छुटकारा : भगवान महावीर का युग गहन अन्धकार से युक्त था। महावीर उस अन्धकार के लिये सूर्य बनकर आए थे। सारा देश मिथ्यात्व के अथाह सागर मे डूवा हुआ था। मनुप्य अपनी आत्म-शक्ति को भूलकर स्वर्ग के देवी-देवताओ को मनाने में लगा हुया था। भोग को ही जीवन का चरम-लक्ष्य मान लिया गया था। मानव का यह विश्वास बना दिया गया था कि स्वर्ग के देवता ही स्त्री, पुरुष, धन, विजय तथा प्रतिष्ठा चादि सब कुछ देने में समर्थ हैं, हिंसक यनो के मूल मे मानव की यही कुत्सित एव भ्रान्त धारणा काम कर रही थी। सर्वत्र हिसा का नगा नाच हो रहा था और दुख की बात यह है कि यह सब देवताओ के नाम पर हो रहा था जव कोई भी अपराध या भूल व्यक्ति की अपनी निर्वलता से होता है तो उसका प्रतिकार शीघ्र हो सकता है, किन्तु वुराई जव धर्म के नाम पर होने लगती है तब उसे हटाना वडा कठिन हो जाता है। महावीर के सामने विरोधो के कितने ही हिमालय खड़े थे। धर्म-गुरुयो, ब्राह्मणों, पण्डितो, पुरोहितो तया पुजारियो ने भोली-भाली जनता को अन्ध-विश्वासो के पिंजरे मे बन्दी वना रखा था। बड़े-बड़े राजा, मन्त्री, सेनापति, राजकीय कर्मचारी तथा बड़े-बड़े सेठ-साहूकार भी लौकिक एषणामो के दास वने हुए मिथ्यात्व के चक्र में फसे हुए थे। निम्न वर्ग का उत्थान : उच्च-वर्ग निम्न-वर्ग का जीवन के किसी भी क्षेत्र मे विकास नहीं चाहता था, क्योकि ऐसा होने से उनका दम्भ और पोल-पट्टी नही चल सकती थी। इसलिये ब्राह्मण वेद और ईश्वर के घर की चावी सदैव अपनी जेब में ही डाल कर रखता था। ताकि उस घर मे कोई घुस कर वहा की वास्तविक स्थिति को जान न सके । यदि कोई साहस करके अत्याचारो के विरुद्ध जवान भी खोलता था तो उसे उत्पीडन का शिकार अथवा मरण का वरण करनेवाला बनना पड़ता था और उसे ९६] [केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक का भय दिखा कर चुप करा दिया जाता था। सामिष भोजन और सुरापान मानव के आहार के प्रधान अग बन गये थे। मानव के जीवन मे अपराध की वृत्तिया तो स्वभाव से ही होती हैं, केवल धर्म ही उसका नियन्त्रण करता है, किन्तु जब धर्म ही अपराधो की छूट दे देवे तो फिर व्यक्ति को पाप करने से भय, सकोच तथा लज्जा कैसे हो सकती है। धर्म के प्रति गलत दृष्टि ही समाज के अध.पतन का कारण बन रही थी। भगवान महावीर मानव की दृष्टि का मोतिया विन्द उतारने के लिये ही इस धरती पर ठीक समय पर उतरे थे। उन्होने बढते हुए पाप और पाखण्ड से लोहा लेने के लिये एक तीर्थ के रूप में एक सुदृढ सगठन बना लिया था। भगवान के सन्देश वाहक साधु-साध्वी भी प्राणो का मोह छोडकर सत्य का प्रचार करने के लिये निकल पड़े। उस समय यातायात के महान साधन नही थे । कच्चे रास्ते और नदी नाले पद-यात्री साधको के पगो को गति रोक देते थे। कही साधु-जीवन की मर्यादानो, नियमो तथा व्रतो का पालन करते हुए वे प्रचार के क्षेत्र मे आगे बढते थे, साधना के साथ-साथ प्रचार भी करते थे। सयम की परिधि मे रहते हुए वे यथाशक्ति जहां भी पहुंच सकते थे, पहुचते थे। गण-तन्त्र के प्रमुख महाराज चेटक, मगधाधिपति राजा श्रेणिक चण्डप्रद्योतन और उदयन भी आप के भक्त बन गये थे। जैसे मूल को हाथ मे कर लेने पर उस वृक्ष का सर्वस्व अपने अधिकार मे या जाता है। इसी प्रकार राजा का हृदय-परिवर्तन होने पर प्रजा का मन सहज मे ही बदल जाता है। भगवान महावीर ने इसी सुनीति का अनुसरण किया। इससे भगवान को अपने सिद्धान्तो के प्रचार मे बडी सहायता मिली। कुछ उदयन जैसे राजानो ने भगवान के चरणो मे दीक्षा भी ग्रहण की, सयम के पथ पर चलकर भगवान के सिद्धान्तो का प्रचार भी किया। भगवान महावीर का भ्रमण क्षेत्र अधिकतया विहार ही रहा । अापके पाचो कल्याणको का सम्बन्ध भी विहार से ही है। भगवान महावीर ने अपने ज्ञान-केन्द्र से ज्ञान-रश्मिया प्रसारित करने के लिये अपने सन्देश वाहक भारत की चारो दिशामो मे दूर-दूर तक भेजे। वे हिंसा की श्यामल घटायो से तूफान बनकर टक्कराए पञ्च-कल्याणक | [ ९७ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और धीरे-धीरे हिंसा के काले वादल छटने लगे। भगवान के सिद्धान्त युगानुकुल, सार्वभौम तथा विश्वोपयोगी थे। थे तर्क, युक्ति तथा सत्य पर आधारित थे। उस समय वेदो के उज्ज्वल सिद्धान्तो को स्वार्थी लोग तोड़-मरोड कर तथा उन्हे विकृत रूप देकर उपस्थित कर रहे थे और सव से अधिक दुख और पाश्चर्य की बात यह थी कि ये घोर-पाप वेद और ईश्वर के नाम पर किया जा रहा था। भगवान ने जन-मन को अहिसा का वेद-सम्मत अर्थ वताया। आप में कहा कि हम वेदो के उन अर्थों को नही मानते जो ससार को उत्पीडन, यन्त्रणा और हिंसा का पाठ पढाते है और हम ऐसे भगवान को भी नहीं मानते जो वेदो के रूप मे हिंसा की वाणी बोलता हो । हम उन वेदो को मानते हे जो ब्रह्म विद्या के प्रादि स्रोत हैं और उस भगवान को भी स्वीकार करते हैं जो नित्य, शाश्वत, वीतराग ज्ञानमय वथा प्रानन्द स्वरूप है । जो कि सिद्ध है, वुद्ध है और सर्वथा मुक्त है। उन्होने जन-मन को देवो की दासता से मुक्त करते हुए कहा धम्मो मगलमुक्किटु अहिंसा मजमो तवो। देवावि तं नमसति जस्स धम्मे सया मणो॥ धर्म विश्व के सुख तथा मगल के लिये होता है, शास्त्र और भगवान मगलमय धर्म के सस्थापक तथा प्रेरक होते हैं । उसमे भगवान बनने के सशक्त उपाय है। यदि अात्मा अहिसा सयम और तप की साधना करे तो देवता भी उसके दास बन सकते है। जो हमे ऐहिक जीवन के क्षणिक सुख के लिये देवी देवताओ का दास बना दे वह कैसा शास्त्र ? बह कैसा धर्म ? और वह कैसा भगवान | भगवान महावीर के क्रान्तिकारी विचारो ने हिंसा जगत मे एक भूकम्प पैदा कर दिया, ब्राह्मणो और पुरोहितो के सिंहासन हिल उठे। महावीर के विचारो को दबाने के लिये उन्होने भगवान महावीर को वेद-विरोधी तथा अनीश्वरवादी कहना प्रारम्भ कर दिया, किन्तु महावीर इस प्रकार के अपशब्दो तथा अनर्गल आरोपो से तनिक भी विचलित नही हुए, उन्होने अपना अभियान शुरू रखा। महावीर ने अपना तीसरा प्रहार ईश्वर के कर्तृत्व-वाद पर किया। उन्होने स्पष्ट कहा कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे ईश्वर को ही सर्वेसर्वा १८ ] -ज्ञान-कल्याणक Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान लेने पर व्यक्ति विल्कुल पगु बन जाता है। वह अपनी शक्तियो से अनभिज्ञ रह जाता है और उन शक्तियो का शोध व विकास नहीं कर पाता वह सदा दीन-हीन वना रहता है। सदा ईश्वर की कृपा पर जीने वाला गुलाम बन जाता है। व्यक्ति जव अपने कर्म का प्रेरक ईश्वर को मान लेता है तो फिर वह अपने आपको दोषो एव अपराधो को नहीं समझता ऐसी स्थिति में वह अपने कृतदोष एव अपराध का परिमार्जन करने के लिये तप व प्रायश्चित्त नहीं करता, अपितु ईश्वर को कोसना शुरु कर देता है। "जो करता है वह ईश्वर ही करता है" भगवान महावीर ने मनुप्य की इस धारणा को भ्रान्ति मूलक कहा । महावीर ने मानव को अपार कर्तृत्व-शक्ति की अोर सकेत करते हुए कहा कि जो कुछ भी करता है वह मनुष्य ही करता है । मनुष्य अपनी शुभाशुभ कर्म प्रकृतियो से प्रेरित होकर अच्छे-बुरे कर्म करता रहता है और समय-समय पर अपने कृत कर्मो का गुभाशुभ फल सुख-दुख के रूप मे भोगता रहता है। यह कर्म प्रकृति अनादि है और जीव के साथ इसका सम्बन्ध भी अनादि है। ईश्वर इसका न रचयिता है और जीव के साथ इसका सयोजना कर्ता भी नहीं है। प्रकृति जड है। इसलिये वह जीव को वान्धने मे असमर्थ है और ईश्वर विना किसी के साथ प्रशस्त और किसी के साथ अप्रशस्त प्रकृति जोडकर किसी को नरक एव पशु योनि में और किसी को मनुष्य और देव गति मे भेज नही सकता । क्योकि ऐसा करने से ईश्वर की पवित्र सत्ता मे राग-द्वपकी का उत्पन्न हो जाती है। आवागमन का चक्र इस कर्म-सन्तति पर चलता रहता है। नरक, देव, मनुप्य तथा पशु रूप यह विराट् जगत इसी आवागमन पर टिका हुआ है। जीवन का दुख-सुख, सयोग-वियोग, हर्ष-गोक तथा जन्म-मरण का मूल कारण जीव और प्रकृति का सयोग ही है। जातिवाद से उद्धार : इस तरह भगवान महावीर ने दार्शनिक जगत से कर्ता रूप ईश्वर पञ्च-कल्याणक] [ ९९ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को निष्कासित कर दिया । यह दार्शनिक जगत में उन्होने यह एक बहुत वडा विस्फोट ईश्वर के नाम पर होने वाले अमानुषिक अत्याचारी का सहार करने के लिये किया था। ब्राह्मण अपना उद्भव ब्रह्मा के मुख से मानते थे। क्षत्रिय को मुजा मे उत्पन्न हुआ माना जाता था। वैश्यों को ब्रह्मा के उदर का स्थान मिला और पंगे से शूद्रो की उत्पत्ति हुई ऐसा समझा जाता था। इसकी छाया नो अाज नक भी लोक-मानस में कही कही देखी जाती है। भगवान ने कहा "यह कथन केवल प्रतीकात्मक है । मुख जान का स्थान है, भुजा गक्ति का, उदर-ग्रन्न का तथा पर सारे गरीर का प्राधार होने से उस की मेवा का प्रतीक है। इसका मीधा तात्पर्य यह है कि ममाज को ज्ञान, गक्ति अन्न तथा नेवा-जीवन के इन चारो तत्त्वो की अपेक्षा है। प्रत्येक वर्ग में इन बारी गुणो का समुचित विकास होना चाहिये। भगवान महावीर ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति मे अनन्त शक्तिया हैं । वह जिन दिगा मे अभ्यास करता है, उसमे वह प्रवीण हो जाता है। जान ब्राह्मण के अतिरिक्त क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र को भी हो सकता है। गौर्य ब्राह्मण, वैश्य और चूद्र मे भी जाग सकता है । वाणिज्य मे नैपुण्य बाह्मण क्षविय और शूद्र में भी पा सकता है और मेवा के गुण का प्राविर्भाव अन्य तीनो वर्गों में भी हो सकता है इसका सम्बन्ध जन्म और जाति से नहीं। इस का सम्बन्ध मनुष्य की साधना और कम से है। साधना मे सस्कार-परिवनित हो सकते है। अतएव उन्हों ने कहा फम्मुणा वभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो। कम्मृणा वइस्सो होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा ।। अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ये सब कर्म से ही होते हैं । जाति और जन्म से नही । ___ भगवान महावीर ने जातिवाद के विरोध में जोरदार प्रचार किया। दवे हुए हृदय उभर पाए। उन्हे महावीर की वाणी से उत्साह एव बल मिला। महावीर का विराट् सघ जातिवाद के विरोध मे खड़ा हो गया । चारो तरफ साम्यवाद का वातावरण तैयार होने लगा। १.० [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी जाति की जागृति शूद्रो के उद्धार के पश्चात् श्राप ने नारी कल्याण के लिये प्रान्दोलन आरम्भ किया। आप ने कहा नारी पुरुष से किसी भी तरह कम नही दोनो का अपना-अपना क्षेत्र अलग है । दोनो को अपने-अपने क्षेत्र मे स्वतन्त्र रह कर विकास करने का पूरा पूरा अधिकार है । स्वतन्त्रता का प्रर्थ स्वच्छन्दता या उद्दण्डता नही है । स्वतन्त्र जीवन के भी कुछ नियम, व्रत तथा मर्यादाए होती हैं । उसी परिधि मे रह कर वह स्व तथा पर के हित की दृष्टि से अपनी मानवीय शक्तियो का विकास होना चाहिए । इस तरह वह पुरुष के लिये बाधक नही बल्कि पूरक बनती है । गृहस्थ जीवन की गाडी के दो पहिये नारी और पुरुष हैं । गृहस्थ जीवन में दोनो के सन्मान और सहयोग की ग्रावश्यकता है। नारी को हीन रखने से पुरुष अपने जीवन के एक ग्रग का तिरस्कार व उपेक्षा करके अपने को हो दुर्बल बनाता है । प्रकृति ने नारी और पुरुष को अलग अलग शक्तियो मे सम्पन्न किया है । सव कुछ सब के पास नही है । वह एक दूसरे के प्रादान-प्रदान से पूरा होता है । इसके लिये दोनो के हृदय में दोनो के लिये श्रादर, स्नेह सहयोग तथा सहानुभूति होनी चाहिये और इम से भी अधिक आवश्यकता इस वात की है कि ग्रपने जीवन के सुख तथा निर्माण मे दूसरे के महत्त्व को अच्छी तरह पहचाना जाये । अपने जीवन मे दूसरे का महत्त्व ममझ मे आ जाने पर कोई भी किसी का निरादर नही कर सकता | प्रेम मे व्यक्ति एक दूसरे के अधिकारो का शोषण नहीं करता, बल्कि अपने अधिकारो का भी दूसरे के हित मे उत्सर्ग कर देना है । प्रेम एक सुखद बन्धन है । प्रेम मे सभी स्वतन्त्र रह कर अपना विकास कर सकते है। भगवान महावीर ने अहिंसात्मक तरीके से पुरुष के मन मे नारी के प्रति विशुद्ध प्रेम जागृत कर के उसे पुरुष की दासता से कर दिया । मुक्त 1 भगवान महावीर ने एक साध्वी यघ की स्थापना की । नारी ने धडावर उस में प्रविष्ट होना शुरू किया । शीघ्र ही साव्वो सब की सख्या ३६ हजार तक पहुच गई। इस से मालूम होता है कि उस समय की नारी सामाजिक यन्त्रणाओं से संपीडित हा चुकी थी । दुखी व्यक्ति पञ्चकल्याणक | [ १०१ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग वैराग्य तथा भक्ति मार्ग की ओर अधिक आकर्षित होता है। यही कारण है कि भगवान के संघ मे साध्विया श्रमणो की अपेक्षा लगभग ढाई गुणा अधिक थी। साध्वी सघ का नेतृत्व करने वाली महासती चन्दना स्वय पुरुप के भयकर अत्याचारी की शिकार हो चुकी थी। भगवान महावीर का संघ उन के लिये कल्पवृक्ष सिद्ध हुआ। दासी के हाथ से दान लेने का घोर अभिग्रह भी उन्होने नारी की मुक्ति के लिये ही किया था। दर्शन के क्षेत्र में एक नया प्रयोग : उन्होने कहा-"किसी का भी जीवन व जीवन के सुख का अपहरण करना हिंसा है। केवल चेतन और शरीर का वियोगीकरण ही हिंसा नही बल्कि स्वार्थवश मन, वचन और काया के किसी भी असत् सकल्प, वाणी तथा कर्म से किसी भी प्राणी को दुख व पीड़ा पहुंचाना हिंसा है। जीवन और जगत मे विद्वोष और कलह के प्रसग भी आते रहते हैं, किन्तु वे जीवन की अपवादिक स्थितिया हैं। वे जीवन के आदर्श व सिद्धान्त नही कहे जा सकते, क्योकि कलह और संघर्ष का कितना भी उग्र रूप क्यो न हो आखिर वह प्रेम और मैत्री द्वारा ही शान्त होता है। अशान्त रहने की स्थिति मे वह ज्वाला की तरह भडकता है। सब को अपना कर्म-भोग करवा कर अन्त मे ठण्डा हो जाता है, और फिर नये सिरे से प्रेम, मैत्री तथा सहयोग का युग शुरू होता है। इस प्रकार अन्ततोगत्वा अहिंसा ही परम धर्म सिद्ध होता है । यह कोई कृत्रिम धर्म नहीं है। यह स्वाभाविक है। त्रैकालिक तथा सार्वभौम है। जीवन और जगत के समस्त सद्गुण अहिंसा रूपी कल्पवृक्ष की शाखा प्रशाखा हैं। ___इस प्रकार भगवान महावीर ने विश्व मे 'एक आत्मा' के सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की। इस सिद्धान्त ने श्रात्मीय भाव को विराट रूप प्रदान किया। प्राणो-मात्र के साथ आत्मीयता के मधुर सम्बन्ध स्थापित होते ही अपहरण, आक्रमण, उत्पीडन तथा शोषण ये सव सदा के लिये समाप्त हो गए। भगवान महावीर ने अहिसा के गम्भीर रहस्य को मानव हृदय मे प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया। भगवान महावीर के अर्घलक्ष साधक अहिंसा के प्रचार मे सलग्न हो गये। कुछ ही वर्षों मे भारत की काया पलट हो गई। १०२] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकान्त का विराट् सिद्धान्त : अव उन्होने एक और ब्रह्मास्त्र उठाया जिस का नाम था अनेकान्तवाद । भगवान के समय मे चारो तरफ मतो का एक जाल बिछा हुआ था । कहते है कि एक वर्ष मे जितने दिन होते हैं उतने ही मत उस समय प्रचलित थे । सब मत अपने आप को एकान्त सत्यं और दूसरो को एकान्त मिथ्या कह रहे थे । भगवान महावीर जानते थे कि मर्तों मे परस्पर सौहार्द स्थापित किये विना हिंसा जीवित नही रह सकती, क्योकि कभी-कभी सम्प्रदाय के नाम पर भी भयकर रक्तपात हो जाते है । मतो का परस्पर विरोध भी हिंसा का बहुत बडा कारण है । भगवान महावीर अनेकान्त के ब्रह्मास्त्र से इसे समाप्त कर देना चाहते थे । उस समय जितने मत थे उतने ही वाद थे । वादो के वीच अनेकान्तवाद, वादो की अभिवृद्धि करने के लिये नही था बल्कि वह सब वादो को समाप्त कर प्रत्येक मत मे सत्य की सृष्टि करने के लिये उत्पन्नं किया गया था । महावीर ने कहा- सत्य एक ही है और वह ग्रनन्त धर्मात्मक है । उसके पूर्ण स्वरूप को समझने के लिये उसे अनेक दृष्टिबिन्दुनो से देखने की अपेक्षा रहती है । सव दृष्टि - विन्दुओ का समन्वय करने पर सत्य का वास्तविक रूप स्थिर हो जाता है । इस सिद्धान्त को अपेक्षावाद तथा स्याद्वाद भी कहते है । प्रत्येक मत को सत्य के प्रति एक दृष्टि है जो अनन्त सत्य के एक पहलू को ही देखती है । उस के दूसरे पहलू को कोई दूसरा मत देखता है । इसलिये सत्य को शोध करने के लिये सब मतो के समन्वय करने की आवश्यकता है । कभी कभी अपना मत असत् भी होता है और दूसरे का सत् होता है । इसलिये अपने मत का मिथ्याग्रह और दूसरे के मत के प्रति अनादरभाव नही होना चाहिये । सत्य के साधक को अपने मत के सत्याग मे दूसरे मत के सत्याग को जोडने के लिये तैयार रहना चाहिये श्रौर अपने मिथ्याश को छोडने और दूसरे के सत्याश को ग्रहण करने के लिये भी सदैव तत्पर रहना चाहिये । इस प्रकार भगवान महावीर केवल ज्ञान के बाद लगभग ३० वर्ष तक अपने स्वर्णिम सिद्धान्तो का प्रचार करते रहे । वे इस पञ्च-कल्याणक ] [ १०३ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवसर्पिणी काल के चरम तीर्थङ्कर थे । उन्होने लोक मानस मे सत्य सनातन धर्म की पुन प्रतिष्ठा की। भारत के वीरान बगीचे मे एक बार फिर वसन्त का शुभागमन हुन्छ । धरातल पर प्रम, स्नेह और करुणा का सागर लहराने लगा, नैतिकता उभरी, सभ्यता जागी, मानव संस्कृति का नवोन्मेष हुआ । भूतल पर स्वर्ग उतर ग्राया । देवता मानव के सात्त्विक जगत को अनिमेप देखने लगे । मानव को दास बना कर रखने वाले देवता मानव की चरण-वन्दना करने लगे । भगवान महावीर की चरण-धूलि से वसुन्धरा पावन हुई । उन की मकल्प लहरियों से तीनो लोक पवित्र हुए। आप ने अपने तीर्थङ्कर जीवन का उच्चतम लक्ष्य पूर्ण किया । प्रचार-यात्रा राजगृह की ओर : व भगवान महावीर अपने साधु-समुदाय के साथ विहार करते हुए 'राजगृह' के गुणशील चैत्य मे जाकर ठहरे । ४४११ श्रमणो के साथ उनके ग्रागमन का समाचार पाते ही राजगृह नरेश श्रेणिक उनकी छोटी रानी चेलना, अभय कुमार आदि राजकुमार और नागरथिक आदि श्रावक समुदाय एव सुलसा आदि श्राविकाए उपदेश श्रवण के लिये प्रभु चरणो मे या पहुचे। यहां पर भगवान महावीर ने एक महती धर्म-सभा (समवसरण) मे जीव के लिये परम दुर्लभ मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, सम्यक् श्रद्धा और समय-मार्ग मे प्रवृत्ति आदि विषयो पर जो प्रवचन दिये, उनसे जन-मानस उनका अनुयायी बन कर उन्ही का हो गया । मुनि-धर्म और गृहस्थ धर्म के सम्बन्ध में उनसे मार्ग-दर्शन पाकर अनेको भव्य प्राणियो ने उनके उपदेशानुरूप अपने जीवन-पथ पर प्रगति करनी प्रारम्भ कर दी । · विदेह-वास : श्रमण भगवान महावीर प्रव विशाल साधु-सघ के साथ विहार करते हुए 'ब्राह्मण कुण्ड पुर' पहुचे और उन्होने 'बहुशाल' नामक १०८ ] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्यान मे धर्मोपदेश देने प्रारम्भ किये । यह स्थान उनकी जन्मभूमि 'क्षत्रिय-कुण्डपुर' ग्राम के अत्यन्त निकट था अत: उनकी धर्म-देशना के श्रवण के लिये क्षत्रिय कुण्डपुर के निवासी भी ब्राह्मण कुण्डपुर मे आने लगे। यहा पर उनसे धर्म-लाभ प्राप्त कर ब्राह्मण ऋषभदत्त और देवी देवानन्दा ने जो उनके माता-पिता थे प्रवजित जीवन स्वीकार किया। भगवान महावीर की सुपुत्री प्रियदर्शना ने एक हजार स्त्रियो के साथ श्री चन्दना जी से दीक्षा ग्रहण कर साध्वी-सघ मे प्रवेश किया और उसके पति जमाली ने भी पाच सौ राजकुमारो के साथ दीक्षा ग्रहण कर प्रभु-चरणो मे रहते हुए धर्म-साधना प्रारम्भ कर दी। लगभग एक वर्ष प्रभु ने विदेह मे ही विचरण करते और उन्होने अपने श्रमण-जीवन का चौदहवा चातुर्मास वैशाली मे व्यतीत किया । तीर्थकर जीवन का पन्द्रहवां वर्ष __ वैशाली के चातुर्मास की समाप्ति पर भगवान महावीर वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी मे पधारे। कौशाम्बी नरेश शतानीक की मृत्यु के कारण उनकी रानी मृगावती ही राज्यकार्य सम्भाल रही थी और अपने पुत्र उदयन को राज्यकार्य की शिक्षा दे रही थी। भगवान महावीर कौशाम्बी के चन्द्रावतरण नामक उद्यान मे ठहरे और उनके धर्म-प्रवचन आरम्भ हो गए । महाराज शतानीक की वहन (उदयन की वूया) जयन्ती नामक परम विदुषी श्राविका जयन्ती भी प्रभु के धर्मोपदेश सुनने के लिये आई थी। प्रवचन-सभा की समाप्ति पर उसने भगवान महावीर से बडे जटिल दार्शनिक प्रश्न १. पढिये च्यवन-कल्याणक के पृष्ठ ९ से ११ तक इस पुण्यशील दम्पति का परिचय और देवानन्दा के गर्भ-हरण की घटना । २ भगवती सूत्र शतक नौवा । ३ इलाहावाद से दक्षिण-पश्चिम का यमुना तटीय प्रदेश 'वत्स' कहलाता था। इलाहावाद से ३१ मील की दूरी पर 'कोसमइना' और कोसमइखराज नामक ग्राम कौशाम्बी के ध्वसावशेपो पर ही वसे हुए हैं। पञ्चकल्याणक ] १०५ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किए और भगवान महावीर ने उसके प्रत्येक प्रश्न का प्रात्म-परितोपकारी उत्तर दिया ! उसका प्रश्न था---'भगवन् ! जीव भारीपन को कैसे प्राप्त होते हैं ? भगवान ने उसे बताया कि हिंसा, असत्य, चौर्य आदि अठारह पापो के सस्कार जीव को भारी बना कर अधोगति प्रदान करते हैं। उसने पूछा-'जीव का जागना अच्छा है या सोना ? महावीर कहने लगे-'जयन्ती पुण्यशील का जागना और पाप-प्रवृत्त का सोना अच्छा होता है। जयन्ती ने पुनः प्रश्न किया-'जीव का सबल होना अच्छा होता है या निर्वल होना ?' प्रभु का उत्तर था-'जयन्तो पुण्यशील की सवलता और पाप-प्रवृत्त को निर्बलता अच्छी होती है।' इसी प्रकार के अनेको जटिल प्रश्नों के समाधान पाकर जयन्ती का हृदय श्रमणत्व के लिये लालायित हो उठा और उसने भी प्रभु से प्रव्रज्या ग्रहण कर महासतो चन्दना के श्रमणो-सघ मे प्रदेश किया' ।। यहा से प्रभु अनेक ग्रामो एव नगरा को पावन करते हुए श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में पहुचे। सुमनोभद्र और सुप्रतिष्ठ आदि श्रावको ने यही पर प्रवज्या ग्रहण कर प्रात्मोद्धार के पावन मार्ग पर आध्यात्मिक प्रगति प्रारम्भ की। यहां से वे पुन. विदेह-राज्य में प्रविष्ट हुए और वाणिज्य ग्राम मे चातुर्माम व्यतीत किया। यही पर गाथापति आनन्द और उनको पत्नी शिवानन्दा ने बारहवतो श्रावक धर्म स्वीकार कर अपने उद्धार का मार्ग प्रशस्त किया। तीर्थकर जीवन का सोलहवां वर्ष अब प्रभु-चरण मगध की ओर वढे, अनेक नगरो ने उनके पावन १ भगवती सून शतक १२ २ यह वैशाली के निकट गण्डकी नदी के दक्षिणी तट पर अवस्थित एक विशाल नगर था। मुजफ्फरपुर जिले का 'वजिया' ग्राम वाणिज्य ग्राम के ध्वसावशेपो के रूप मे आज भी विद्यमान है। - १०६] [ केवल-ज्ञान-कल्यणाक Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणो के स्पर्श से अपने को कृतार्थ किया। राजगृह का पुन भाग्य जागा, वहा का गुणशील चैत्य पुन: प्रभु के धर्म-प्रवचनों से गूंज उठा । यही पर भगवान ने गौतम को 'काल-परिमाण के तत्त्व समझाए । यही पर शालिभद्र और धन्यकुमार के पुण्य जागे और उन्होने भगवान के चरणो मे पहुंच कर विरक्त जीवन व्यतीत करते हुए आत्मोद्धार किया । वर्षावास का सौभाग्य भी राजगृह को ही प्राप्त हुआ । सत्रहवां चातुर्मास और उदयन की दीक्षा राजगृह से भगवान साधु-सघ के साथ चम्पा ग्राए और पूर्णभद्र चैत्य नामक उद्यान में ठहरे। यहां के राजा दत्त के पुत्र महच्चन्द्रकुमार ने प्रभु चरणो में दीक्षा ग्रङ्गीकार की । सर्वज्ञ प्रभु ने जाना कि सिन्धु-सौवीर का धर्म-निष्ठ राजा 'उदयन " उनके दर्शनो की अभिलापा कर रहा है, अतः वे लगभग एक हजार मील की यात्रा करके सौवीर की राजधानी 'वीतभयपत्तन' पहुचे और 'मृग - वन उद्यान' मे ठहरे । राजा उदयन प्रभु के दर्शन करके कृत-कृत्य हो गया । उसने प्रभु की मगलमयी वाणी सुन कर दीक्षा ग्रगीकार की और श्रमण-धर्म का पालन करते हुए आत्मोद्धार किया । * १. प्रतिष्ठान पुर के सेठ धनसार के पुत्र धन्यकुमार ने जिसके पास राजाश्रो से भी अधिक समृद्धि थी, परन्तु एक सामान्य सी घटना ने इसे ससार से उदासीन कर दिया । वह अपनी ८ पत्नियो को छोड कर अपने साले शालिभद्र के साथ दीक्षित हो गया था। वह धन्यकुमार ही 'धन्ना' के नाम से प्रसिद्ध है । २ बिहार में भागलपुर से ३ मील की दूरी पर अवस्थित वर्तमान 'चम्पा नाला' ।' पहले यहाँ का राजा 'दत्त' था परन्तु वाद मे अजात शत्रु (कोणिक) ने यहाँ पर अधिकार कर लिया था । ३ स्मरण रहे कि यह वत्स देश के राजा 'उदयन से भिन्न है | ४ ऐतिहासिको का अनुमान है कि पाकिस्तान के अन्तर्गत सरगोधा जिला का जेहलम नदी के तट पर अवस्थित 'भेहरा' नामक कस्वा ही 'वीतभयपत्तन है । भेहरा 'पत्तन' के रूप मे श्रव भी प्रसिद्ध है । पञ्च-कल्याणक ] - [ १०७ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव प्रभु महावीर अनेक कठिन मार्गों को पार करते हुए । भटिण्डा के मार्ग से "मोका नगरी"५ पुन वाणिज्य ग्राम आ ग यही पर उन्होने चातुर्मास व्यतीत किया। तीर्थकर जीवन का अठाहरवा वर्ष वाणिज्य ग्राम के चातुर्मास की पूर्णता पर प्रभु महावीर वान के 'कोष्ठक चैत्य' नामक उद्यान मे ठहरे। यहा के राजा हि ने आपका अभूतपूर्व स्वागत किया । यही पर चुल्लनीपिता और पत्नी श्यामा ने तथा सुरादेव और उसकी धर्मपत्नी धन्या ने श्राव स्वीकार किया। चुल्लनीपिता और सुरादेव अपने युग के करो सेठो मे बहुत प्रसिद्ध थे। ___ श्रमण भगवान महावीर ने यहा से पुन: राजगृह की ओर किया और मार्ग मे 'पालभिया' नामक नगर के शखवन उद्यान में ठहरे। . __ पालभिया मे पोग्गल नामक एक वैदिक धर्मानुयायी तपस्वी था। यद्यपि उसने तपस्या द्वारा ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लिया था से वह धरती पर बैठे हुए ही ब्रह्मलोक तक को देख लेता था, पर ज्ञान मे वह पूर्णता प्राप्त न कर सका था, साथ ही देवलोको के वि। उसका ज्ञान कुछ भ्रान्तियो से भी युक्त था। वह भी भगवान मह से देवलोको की व्यवस्था, पृथ्वी से दूरी आदि का यथार्थ ज्ञान कर प्रभु का ही शिष्य बन गया और भगवती सूत्र के अनुसार अन्त मे निर्वाण-पद पाया। पालभिया के धनकुबेर चुल्लशतक ने अपनी पत्नी बहुला के प्रभु से श्रावक-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। यहां से वे पुन: राजगृ गुणशील उद्यान मे पधारे और अर्जुन माली आदि ने यही पर दीक्षा ग्रहण की। इस वर्ष के चातुर्मास से भी उन्होने रा को ही पावन किया। उन्नीसवें चातुर्मास के मार्ग में : चातुर्मास की पूर्णता पर प्रभु-महावीर धर्म-प्रचारार्थ राजगृ १ मार्ग की 'मोका' नगरी सम्भवत आधुनिक 'मोगा' नगरी हो । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही रुके रहे। राजा श्रेणिक प्रभु के वचनो से इतना प्रभावित हुआ कि उसने राज्य मे यह घोषणा करवा दी कि - ___"भगवान महावीर से जो भी व्यक्ति दीक्षा लेना चाहे वह ले सकता है । दीक्षित होनेवालो के कुटुम्ब के भरण-पोपण का दायित्व और दीक्षा समारोह की व्यवस्था राज्य की ओर से किये जाएगे।" महाराज श्रेणिक के तेईस पुत्रो' और तेरह महारानियो' ने भी भगवान् महावीर से दीक्षा लेकर साधु-जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया। एक विचित्र घटना एक दिन भगवान की धर्म-सभा में राजा 'श्रेणिक' उसका पुत्र 'अभय कुमार' और काल शौकरिक नामक कसाई भी आए हुए थे। तभी वहां फटे-पुराने वस्त्र पहने एक रोगाक्रान्त बूढा आया। उसने भगवान की ओर पीठ करके सर्व-प्रथय राजा श्रेणिक से कहा-"सम्राट चिरकाल तक जीते रहो।' भगवान की ओर मुख करके उसने कहा'तुम शीघ्र मर क्यो नही जाते ।' फिर अभय कुमार से बोला'तुम चाहे जीग्रो, चाहे मरो।' और फिर कालशौकरिक नामक कसाई के अभिमुख होकर बोला-'तुम न तो मरो और न जीयो।' सब लोग उसकी इस धृष्टता और पहेली जैसे वचनो से स्तव्ध रह गए और वह बूढा सबके देखते ही देखते आखो से अोझल हो गया। १ श्रेणिक के तेईस पुत्र-जालि कुमार, मयालि कुमार, उवयालि कुमार, पुरुषसेन, वारिषेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त, वेहल्ल, बेहास, अभय कुमार, दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त, गूढदन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रुम, द्रुमसेन, महाद्रुमसेन सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन, पूर्णमेन । 'लष्टदन्त' नाम के सम्भवत दो पुत्र थे, अत अनुत्तरोपपातिक सूत्र मे प्रथम वर्ग के दश नामो मे तथा द्वितीय वर्ग के १३ नामो मे लप्टदन्त नाम दो वार पाया है। २ श्रेणिक की तेरह महारानिया-नन्दा, नन्दमती, नन्दोत्तरा, नन्द सेणिया, महया, सुमरुता, महामरुता, मरुदेवा, भद्रा, मुभद्रा, सुजाता, सुमना और भूतदत्ता । पञ्च-कल्याणक] । १०९ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब राजा श्रेणिक ने भगवान की ओर विस्मित दृष्टि से देखा और बूढे की चेष्टाग्रो के विषय मे पूछा । भगवान ने मुस्कराते हुए कहा"उस देव पुरुष वृद्ध ने जो कुछ कहा है उसमे जीवन का गूढतम रहस्य छिपा हुआ है। सव प्रथम उसने तुमसे कहा 'चिरकाल नक जीते रहो।' उसका आशय यह था कि इस संसार में तुम्हे सभी मुम्ब प्राप्त हैं, परन्तु मृत्यु के अनन्तर तुम्हे नरक मे जाना होगा, अत. तुम्हारे लिये जब तक जीवन है तभी तक अच्छा है। मर कर तो तुम्हें नरक में जाना ही होगा।" उसने मुझ से कहा- 'तुम मर क्यो नहीं जाते ?' उसका अभिप्राय यह था कि तुमने 'अरिहन्त' अवस्था प्राप्त कर ली है, अव भी शारीरिक वन्धनो मे क्यो ववे वैठे हो ? मरण अर्थात् मुक्ति को क्यो नही स्वीकार करते ?" उसने अभय कुमार से कहा तुम चाहे जीयो, चाहे मरो, क्योकि इस वचन से उसका आशय यह था कि अभय कुमार को यहां राजसी वैभव प्राप्त है, अत वह यहा सुखी है और उसकी पवित्र भावनाए उसे देवलोक प्रदान करेगी, अत: उसके लिये जीवन भी मुखमय है और मरण भी, अत उसके, वर्तमान जीवन और भावी देवजीवन दोनो ही सुख-रूप है, इसी दृष्टि से उसका जीवन और मरण समान है। वृद्ध ने कालशौकरिक मे कहा-'न मरो न जीओ,' क्योकि कालशौकरिक कसाई है, उसका जीवन हिंसामय है और साथ ही वह नानाविध सासारिक क्प्टो से भी ग्रस्त है, अत उसका जीवन निस्सार है। कालशौकरिक ने मर कर नरक मे जाना है, अत. उसका मरण भी दुखदायी है, इसलिये वह न मरे और न जीए। नरक-मुक्ति के उपाय . वृद्ध देव-पुरुष की बातो के रहस्य को जान कर श्रेणिक प्रसन्न तो हो गया, परन्तु अब उसे नरक-गमन का भय सताने लगा। उसने प्रभु-चरणो मे प्रार्थना की-"भगवन् । मुझे नरक से मुक्ति का उपाय वताए ।" भगवान् ने कहा-'श्रेणिक तुमने नरक-भोग के अनन्तर भविष्य मे तीर्थङ्कर पद प्राप्त करना है, अत घबराओ नही, परन्तु ११० [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक को वर्तमान और भावी जीवन के मध्य का नरक-वास त्रस्त कर रहा था। उसने वारम्वार प्रभु-चरणो मे नरक से मुक्ति के उपाय पूछे, तो भगवान ने उसे कहा-"श्रेणिक | यदि 'राजगृह' की कपिलाब्राह्मणी से दान करवा दो तो तुम्हारी मुक्ति हो सकती है।' श्रेणिक ने अनेक उपाय किये, परन्तु कपिला दान के लिये प्रस्तुत न हुई। राजा ने जर्वदस्ती दान करवाया तो वह बोली-"दान मैं नही राज-कर्मचारी कर रहा है।" उसने भगवान् मे अन्य उपाय पूछा तो भगवान् ने कहा-"यदि कालशौकरिक से हिंसा-कम छुडवादो तो तुम नरक-याचना से मुक्त हो, सकते हो।" श्रेणिक ने अनेक प्रलोभन दिए, भय दिखाया, परन्तु कालशौकरिक ने वध-कर्म का त्याग नही किया। राजा ने उसे एक, कुए मे लटकवा दिया, वह वहा पर भी हथेली पर अगुलियां फेर-फेर; कर भावना से हिमा करता ही रहा । निराश श्रेणिक ने अन्य उपाय पूछा तो भगवान ने कहा"यदि तुम्हारी दादी दर्शनार्थ आ जाए तो तुम नरक से मुक्त हो सकते हो।' श्रेणिक ने दादी से अनेक प्रकार की विनय की, परन्तु वह नही. मानी । जव श्रेणिक ने उसे बलात् दर्शनार्थ ले जाने के लिये पालकी: मे विठलाया तो उसने मार्ग मे अपने हाथो से अपनी आखे, फोड ली। ___ श्रेणिक असफल होकर पुन प्रभु-चरणो मे पहुच कर अन्य उपाय पूछने लगा। भगवान् ने कहा-'राजगृह का पूनिया श्रावक यदि तुम्हे एक 'सामायिक' बेच दे तो तुम नरक-से मुक्ति प्राप्त कर सकते हो। श्रेणिक ने पूनिया श्रावक से अनेक विध प्रार्थनाए की, परन्तु वह एक ही बात कहता-'राजन् ! सामायिक का मुझे मूल्य पता नही, जिसने तुम से सामायिक खरीदने के लिये कहा है उसी से जाकर सामायिक का मूल्य पूछ प्रायो। 'श्रेणिक पुन. प्रभु-चरणो मे आया और सविनय वोला-'भगवन् । सामायिक का मूल्य प्राप ही बताए । पूनिया को उसका मूल्य पता नही है । तव भगवान् ने वहा-श्रेकिण ! सामायिक तो आत्म-अवस्थिति है, समता में स्थिर होना है रागोप से मुक्त होकर अध्यात्म-जीवन में प्रवेश है। क्या यह मूल्य चुका सकोगे ? हिमालय के पञ्च-कल्याणक .00 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरो से ऊचा रत्नो का ढेर भी सामायिक के मूल्याकन के लिये तुच्छ है। __ राजा श्रेणिक को ज्ञात हो गया है कि मेरा नरक-गमन अवश्य भावी है, अत मुझे सजग होकर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। राजर्षि प्रसन्नचन्द्र : एक दिन राजा थेणिक ने भगवान के दर्शनो के लिये आते हुए एक महर्षि को उग्र तपस्या करते हुए देख कर पूछा-'भगवन् ! यह महपि किस उत्तम गति को प्राप्त करेगा।' भगवान् महावीर ने कहा-श्रेणिक | यदि यह इस समय मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो यह सातवे नरक ... छठे नरक......नही पाचवे नरक ... चौथे नरक . .. तीसरे नरक...... दूसरे नरक......पहले नरक, नही श्रेणिक प्रथम देव-लोक,.....इसी क्रम से प्रभु ऊपर के ब्रह्मलोक और उसके अनन्तर सहसा बोले अव तो वह केवल ज्ञानी बन कर मोक्षाधिकारी बन गया है। सारी सभा विस्मियत थी। प्रभु के इस कथन ने सब को आश्चर्य के सागर मे डुबो दिया। अब भगवान् ने कहा श्रेणिक | ये महर्षि राजा प्रसन्नचन्द्र है। जब तुम दर्शनार्थ आ रहे थे तो तुम्हारे दो सैनिको से इन्होने सुना-'यह राजा प्रसन्न चन्द्र अपने छोटे से पुत्र को राज्य देकर तपस्या कर रहा है और उसका नन्हा सा पुत्र शत्रुनो से घिरा हुआ है।" यह सुनते ही महषि प्रसन्नचन्द्र क्रोधावेश मे पागए और मन ही मन पुत्र के शत्रुओ पर आक्रमण करने लगे। भाव-जगत् मे इन्होने समस्त अस्त्र-शस्त्र शत्रुओ पर फैके और खून की नदिया बहाते रहे, तब यह नरक की गति मे गिरते चले जा रहे थे। शस्त्र समाप्त होने पर उन्होने शत्रु पर अपना मुकुट फैकना चाहा, अत. इनके हाथ मुडे हुए सिर पर पहुचे, तो इन्हे तत्काल ज्ञान हुआ "मैं तो एक साधु हू, मेरा कौन शत्रु है, कोन पुत्र है कोई नही। मेरे लिये सब समान है, सव महान् हैं । इस प्रकार भाव जगत् को शुद्धि इन्हे क्रमश. देवलोको की ओर ले जा रही ११२] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। अन्त मे ऐसी भाव-विशुद्धि हुई कि अब इन्हे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया है, अत अव वे मोक्ष-गमन की ही तैयारी कर रहे हैं। मानसिक पाप-पुण्य का गम्भीर ज्ञान प्राप्त कर राजा श्रेणिक नतमस्तक होगया। यही पर भगवान् के प्रवुद्ध शिष्य श्री आर्द्रक मुनि के साथ गोशालक का वार्तालाप हुआ था और उन्होने गोशालक को समझाया था कि मैंने प्राणिमात्र के उद्धार की प्रवल इच्छा से प्रेरित होकर ही एकान्त जीवन का परित्याग करके संघ-जीवन अपनाया है। आर्द्रक मुनि जी ने यही पर वौद्ध-भिक्षुत्रो को समझाया था कि"प्राणियो की हिंसा करके भिक्षुप्रो को भोजन देनेवाला गृहस्थ सद्गति प्राप्त नही कर सकता। आर्द्रक मुनि जी ने इसी चातुर्मास मे ब्राह्मणो के एक बडे वर्ग को, साख्य-दर्शन के अनुयाइयो को, हस्ति-तापसो को प्रबोध दिया और वे भगवान् से दीक्षा ग्रहण कर श्री पाक मुनि जी की ज्ञान-गरिमा की छाया मे बैठकर साधु-जीवन व्यतीत करते हुए प्रात्म-कल्याण करने लगे। यह चातुर्मास भी राजगृह मे ही व्यतीत हुआ। तीर्थकर जीवन का बीसवां वर्ष वर्षावास की पूर्णता पर प्रभु ने कौशाम्बी की ओर विहार कर दिया । मार्ग मे पालभिया के शखवन नामक महा उद्यान मे ठहरे । पालभिया के प्रसिद्ध श्रमणोपासक ऋषिभद्र से वहां के श्रावक देवलोको के सम्बन्ध मे जो कुछ सुना करते थे, प्रभु के वहा पहुचने पर जव वे ही बाते उन्होने प्रभु महावीर से भी सुनी तो उनकी श्रमणोपासक ऋषिभद्र पर तया भगवान महावीर पर अगाध श्रद्धा हो गई। पालभिया से प्रभु कौशाम्बी की ओर चल पडे। हृदय वदल गया कौशावी नरेश शतानीक की पत्नी मृगावती श्रमणोपासिका थी। वह रूपवती नवयौवना सुन्दरी थी, अत. अवन्ती नरेश चण्डप्रद्योत जो उसका वहनोई था, वह उसके रूप-सौन्दर्य पर नासक्त था। विधवा पञ्च-कल्याणक] [११३ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानी मृगावती उसके सैनिक-वल के कारण उसे अनेक प्रकार की युक्तियो से टाल रही थी, परन्तु इस बार वह अन्तिम निर्णय के लिये सेना सहित कौशाम्बी आ पहुचा। इसी समय भगवान् महावीर का भी वहा आगमन हो गया। भला जहां भगवान महावीर हो वहां दोपमय वातावरण कहा रह सकता था ? अत: उसकी पाग्नि एव कामाग्नि स्वत ही शान्त होने लगी। भगवान् की धर्म-सभा मे मृगावती और चण्ड प्रद्योत दोनो ही पहुचे। प्रभु की वाणी ने मृगावती के हृदय की वैराग्य-भावना को उद्दीप्त कर दिया और उसने उचित अवसर देख कर बड़ा बहनोई होने के नाते चण्डप्रद्योत से उदयन की रक्षा का आश्वासन और स्वय के दीक्षित होने की बाजा मागी। चण्डप्रद्योत भी उस समय शुद्ध-भावनायो मे लीन था। उसने भगवान् के सान्निध्य मे उदयन के राज्य-रक्षण का आश्वासन दे दिया और मृगावती दीक्षा के लिये प्रस्तुत हो गई। राजा चण्ड प्रद्योत की अगारवती आदि पाठ महारानियो ने भी चण्ड प्रद्योत से दीक्षा की आज्ञा मागी तो उसने मन्त्रमुग्ध की भाति उन्हे भी साधु-जीवन में प्रवेश की आज्ञा दे दी। इस प्रकार ये नौ महारानियां भी श्रमणी-सघ मे प्रविष्ट होकर साधना-पथ पर बढने लगी। भगवान् इस प्रदेश मे साधु-सघ के साथ विहार करते हुए ग्नीष्मान्त मे वैशाली पहुच गए और बीसवा चातुर्मास उन्होने यही पर व्यतीत किया। इक्कीसवें चातुर्मास की ओर वैशाली के चातुर्मास की पूर्णता पर प्रभु महावीर ने विहार कर दिया और उत्तरी विदेह एव मिथिला होते हुए काकन्दी' पहुच कर उन्होने धन्य एव सुनक्षत्र आदि को दीक्षित किया। __ यहा से श्रावस्ती को पावन करते हुए काम्पिल्य निवासी महा १ काक्रन्दी यह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर से तीस मील दक्षिण-पूर्व मे स्थित वर्तमान किष्किन्धा (खुखुन्दो जी) नामक दिमम्बर जैन तीर्थ का प्राचीन नाम ज्ञात होता है। ११४ ] केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ गृहपति कुण्डकोलिक को श्रमणोपासक बना कर अहिच्छत्रा' और गजपुर' होते हुए पोलासपुर आए। यहा भगवान् सद्दालपुत्र नामक कुम्हार की प्रार्थना पर उसकी भाण्ड-शाला मे ठहरे। सद्दालपुत्र को जैन-शास्त्रो ने तीन करोड स्वर्ण मुद्रामो का एव दस हजार गौत्रो का स्वामी लिखा है। वह मखलिपुत्र गोशालक के आजीवक सम्प्रदाय का एक वडा स्तम्भ माना जाता था, अत वह नियतिवादी था-अर्थात् वह 'यदभावी न तद् भावी, भावी चेन्न तदन्यथा'-जो नही होना वह नही होता और जो होना है वह होता ही है"- इस सिद्धान्त को माननेवाला था। प्रभु महावीर ने उसे नाना युक्तियो से इस मिथ्याबाद से मुक्त कर श्रम और पुरुषार्थ का महत्व समझाया और वह भी श्रमणोपासक बनकर भगवान महावीर की धर्माचार्य के रूप मे आराधना करने लगा। यद्यपि मखलिपुत्र गोशालक ने वहा आकर भगवान् महावीर को महामाहण (ज्ञान-दर्शन के धारक), महागोप (सासारिक लोगो के रक्षक), महा-धर्म-कथी (धर्म-तत्त्व के उपदेशक) और महा निर्यामक (ससार-सागर से तारनेवाले) आदि कह कर भगवान् महावीर की कपट प्रशसाए करके उसे पुनः अपने मत मे लौटाना चाहा, परन्तु उसकी श्रमण-श्रेष्ठ महावीर के चरणो में उत्पन्न श्रद्धा ने उसे स्थिर रखा और गोशालक को निराश होकर लौट जाना पड़ा। पोलासपुर से प्रभु महावीर पुन. वाणिज्यग्राम पधारे और उन्होने यही पर वर्षावास किया। बाइसवां चातुर्मास राजगृह में वर्षावास की पूर्णता पर प्रभु श्री सघ के साथ विहार करते हुए राजगृह पधारे। राजगृह के समवसरण मे गाथापति महाशतक श्रमणोपासक बना। महाशतक २४ करोड स्वर्ण मुद्राओ का स्वामी और ८० हजार १ अहिच्छना यह उत्तर प्रदेश मे बरेली से लगभग २० मील दूर एक नगर था। पुरातत्त्ववेत्ता यहाँ के ध्वसावशेषो का अध्ययन कर रहे है । २ गजपुर यह हस्तिनापुर का अन्य नाम था। पञ्च-कल्याणक] [११५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्रो का स्वामी था । इसकी तेरह पत्निया थीं। इसकी पत्नी रेवती ने अपनी १२ सौतो को छल से मार डाला था । मद्य-मास उसके प्रिय खाद्य एव पेय थे । वह कामासक्ता वासनालोलुप नारी थी । राजगृह में प्रभु के पधारने पर महाशतक ने १२ व्रत धारण कर श्रावक धर्म का पालन प्रारम्भ कर दिया । अव उसने ज्येष्ठ पुत्र को गृह-भार सम्भाल कर धर्म साधना आरम्भ कर दी । जब वह धर्मस्थान ( उपाश्रय) मे धर्म - सावना करने जाता तो रेवती वहां पहुच कर उसे अनेक प्रकार से वासनामय जीवन की ओर आकृष्ट करती थी, परन्तु महाशतक स्थिर भाव से सावना करते रहते थे वे कभी भी विचलित न होते थे । धीरे-धीरे महाशतक अपने ग्रवविज्ञान से ऊपर के पहले देवलोक और नीचे के पहले नरक तक को देखने लग गए। एक दिन रेवती की अभद्र चेप्टाओ के कारण उन्हे क्रोध या ही गया और उन्होने कहा'तुम क्या कर रही हो। तुमने तो विपूचिका रोग से पीड़ित हो कर सातवें दिन मर कर चौरामी हजार वर्षो के लिये नरक में जाना है ।" रेवती ग्रव होश मे आई, परन्तु ग्रव तोर हाथ से निकल चुका FREE था । महाशतक का कथन सत्य हुआ । भगवान् महावीर यह सब कुछ जान गए और उन्होने गौतम को भेज कर महागतक को कटु वाणी बोलने का प्रायश्चित्त करने के लिये कहा और महाशतक ने मासिक सथारे द्वारा आराधक होकर देवलोक प्राप्त किया । यहा पर भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी कुछ स्थविरो ने आकर भगवान् से लोक की स्थिति आदि के सम्वन्ध मे अनेक प्रश्न किए । भगवान् ने एक लोक-द्रष्टा के रूप मे जो उत्तर दिए उनसे प्रभावित होकर उन्होने चातुर्याम धर्म के स्थान पर अब प्रभु १ भगवान पार्श्वनाथ के अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह रूप चार व्रतो वाले धर्म को चातुर्याम धर्म कहा जाता था, क्योकि भगवान् पार्श्वनाथ 'स्त्री' को भी परिग्रह ही मानते थे । भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को विशेष महत्त्व देने के लिये स्त्री-परिग्रह को भिन्न माना और पाँच महाव्रतो का विधान किया । ११६ ] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर का पच महा व्रतात्मक सप्रतिक्रमण-धर्म स्वीकार कर अपने को कृतकृत्य किया। ___यही पर मुनिराज रोह ने प्रभु से लोक-अलोक, जीव-अजीव, भव-सिद्धिक, और अभव-सिद्धिक, अण्डा पहले या मुर्गी पहले आदि के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न किए और भगवान ने लोक-अलोक आदि की शाश्वत स्थिति का परिज्ञान कराते हुए मुनिराज रोह को 'अनेकान्तवाद' के तत्त्व समझाए। यही पर भगवान महावीर ने गौतम स्वामी के प्रश्नो का उत्तर देते हुए बताया कि __ "गौतम | आकाश पर वायु प्रतिष्ठित है, वायु के आधार पर घनोदधि ठहरा हुआ है, उसके आधार पर पृथ्वो है, पृथ्वी पर स एव स्थावर जीव रहते है, इन जीवो के आधार पर अजीव अर्थात् शरीर की सत्ता विद्यमान है, जीव का आधार कर्म है, जीव द्वारा अजीवसगृहीत हैं और कर्म-सगृहीत जीव है ।" गीतम ने कहा-'प्रभो । वायु पर इतना भार कैसे रह सकता है ?" प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान ने कहा- "गौतम | जैसे कोई व्यक्ति मगक को हवा से भर कर उसका मुह वद करदे, फिर उस मगक के मध्य भाग को मजबूती से बाधकर मुह पर वधी गाठ को खोल कर आधे भाग की हवा निकाल कर उस भाग में पानी भर कर फिर से मशक के मुह को वाध दे और फिर मध्य की गाठ खोल दे, तव पानी वायु पर ठहरा हुया मशक के एक भाग मे ही स्थिर रहता है, इसी प्रकार लोक मे वायु के आधार पर समुद्र एव पृथ्वी प्रतिष्ठित । राजगृह-निवासी चातुर्मास भर प्रभु के मुखारविन्द से प्रवाहित ज्ञान-गगा में स्नान कर पावन होते रहे। उदित होते हुए सूर्य के समान भगवान् राजगृह से विहार करके अनेक ग्रामो और नगरो की स्पर्गना करते हुए कृतगला (कचगला) नगरी के छत्रपलाश नामक उद्यान मे ठहरे। उनके उपदेशामृत का पान करने लिये जन-समूह उमड पडा। पञ्च-कल्याणक] [ ११७ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतगला श्रावस्ती' के निकट ही थी। श्रावस्ती के समीप एक मठ मे त्रिदण्डधारी स्कन्दक नाम के एक तपस्वी परिव्राजक रहते थे। उनसे पिंगलक नाम के एक निर्ग्रन्थ मुनि ने निम्नलिखित प्रश्न किए थे : १ इस लोक का अन्त है या नहीं ? २ जीव का अन्त है या नहीं ? ३ सिद्धि का अन्त है या नहीं ? ४. सिद्धो का अन्त है या नही ? ५ किस मरण से जीव ऊर्ध्वलोक-गामी या अधोलोक-गामी वनता है ? परिव्राजक स्कन्दक इन प्रश्नो मे खो गए थे और वे इनका सम्यक् उत्तर चाहते थे। भगवान महावीर का आगमन सुनकर स्कन्दक परिव्राजक कृतगला की ओर चल पडे । उधर भगवान महावीर ने गौतम जी को उनके आगमन की एव पिगलक द्वारा पूछे गए प्रश्नो को पूर्व सूचना दे दी थी। स्कन्दक गौतम जी के साथ प्रभु-चरणो मे पाए और उनके तेजस्वी स्वरूप के समक्ष उनका मस्तक अनायास ही झुक गया। भगवान महावीर ने लोक के सन्दर्भ मे स्कन्दक के प्रश्नो का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से समाधान करते हुए कहा "स्कन्दक | द्रव्य की दृष्टि से यह लोक सान्त और एक है, क्षेत्र की दृष्टि से असख्य कोटि-कोटि योजन परिमाण वाला है, फिर भी सान्त है। काल की अपेक्षा से यह गाश्वत है, अत: अनन्त है, भाव की अपेक्षा से भी लोक अनन्त है, क्योकि अनन्त वर्णो, गन्धो, गुरुत्व, लधुत्व आदि की दृष्टि से इसके अनन्त रूप है। १ श्रावस्ती विहार के गोडा जिले मे बलराम पुर के पश्चिम मे बारह मील की दूरी पर राप्ती नदी के तट पर बसा एक समृद्ध नगर था जिसके ध्वसावशेष सहेठ-महेठ के नाम से आज भी पहचाने जा सकते हैं। १ करोड की सख्या को करोड से गुणा करने पर आनेवाले गुणनफल को 'कोटि-कोटि' या कोडा-कोडि कहा जाता है । ११८] [ केवलज्ञान- कल्याणक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव भी द्रव्य की दृष्टि से एक है, अत सान्त है, क्षेत्र की दृष्टि से अनन्त प्रदेशोवाला है तथापि सान्त है, काल की अपेक्षा यह ज्ञान-दर्शन एव चारित्र आदि अनन्त रूपो से युक्त होने के कारण इसे अनन्त भी कहा जा सकता है। इसी प्रकार सिद्धि और सिद्ध भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से सान्त भी हैं और अनन्त भी हैं । अभावो से ग्रस्त होकर, जीवन से निराश होकर आत्महत्या करके मरना आदि बारह प्रकार के मरण को वाल-मरण कहा जाता है और शुभ ध्यान-पूर्वक अनशनादि के द्वारा मृत्यु के सिर पर पैर रख कर शरीर का त्याग करना पण्डित-मरण है। स्कन्दक के जान-नेत्र खुल गए, उसने दण्ड-कमण्डलु आदि त्याग कर भगवान से श्रमणत्व की दीक्षा प्राप्त कर आत्मोद्धार किया। ___ कृतगला के छत्र-पलास उद्यान से प्रभु श्रावस्ती के कोष्ठक उद्यान मे आए, यहा जो प्रवचन-गगा प्रवाहित हई उसमें स्नान कर नन्दिनी पिता और सालिही पिता आदि सेठो ने पत्नियो सहित श्रावकत्व स्वीकार किया। ___ यहा से चलने के बाद भगवान पुन: वाणिज्य ग्राम मे पहुचे और उनके इस चातुर्मास-निवास का श्रेय वाणिज्य-ग्राम को ही प्राप्त हुआ। चौबीसवां चातुर्मास : जमालि का पृथक् विचरण श्रमग भगवान महावोर वाणिज्य ग्राम से ब्राह्मण कुण्डपुर के वहुसाल उद्यान मे पहुचे जमालि भगवान के सासारिक पक्ष का जामाता था और वह पाच सौ राजकुमारो के साथ प्रजित हुआ था। एक वार उसने प्रभु से प्रार्थना की -'भन्ते । मैं अपने पाच सौ साधुप्रो के साथ अन्यत्र विचरण करना चाहता है। परन्तु उसके तीन बार पूछने पर भी अनिष्ट जानकर प्रभु ने कोई उत्तर नही दिया। भगवान के मौन की उपेक्षा करके जमालि अपनी साधु-मण्डली के साथ वहा से स्वय ही निह्नवता की ओर चला गया। सत्य का समर्थन सन्मति भगवान महावीर सत्य के उपासक थे, अत: वे स्व-पर पञ्चकल्याणका [११९ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ध्यान न रखकर 'जो सच्चा सो मेरा' का निश्चय रखते थे। ब्राह्मण कुण्ड पुर से वे कौशाम्बी पाए, जैनागम कहते हैं कि यहां पर उन्हे वन्दना करने के लिये सूर्य और चन्द्र के इन्द्र अपने वास्तविक शरीर मे ही कौशाम्बी मे आए थे। इस घटना को 'आश्चर्य' माना गया है। ___ कौशाम्बी से काशी की स्पर्गना करते हुए भगवान राजगृह में पधारे । उस समय राजगृह के निकटवर्ती तुंगीया के पुप्यवतीक चैत्य में भगवान पार्श्वनाथ के स्थविर ठहरे हुए थे, उनसे तुंगीया के श्रावको ने पूछा-'देवलोक मे देव किस कारण से उत्पन्न होते हैं ? तो पापित्यो ने बताया कि पूर्वतप, पूर्व-सयम, कामिकता और सांगिकता (आसक्ति) के कारण देव देवलोक मे उत्पन्न होते हे ।' श्री गौतम स्वामी उसी दिन भिक्षा के लिये गए तो उन्होने पापित्यो के उत्तर सुने और भिक्षा से लौट कर उन उत्तरों की यथार्थता के विषय मे भगवान से पूछा तो उन्होने पाश्र्वापत्यो के द्वारा प्रतिपादित सत्य का उदार हृदय से समर्थन किया। तीर्थकर जीवन : पच्चीसवां वर्ष राजगृह-चातुर्मास के अनन्तर भगवान महावीर मगधपति श्रेणिक के देहावसान के बाद कोणिक द्वारा नव निर्मित राजधानी चम्पा के 'पूर्णभद्र चैत्य' मे ठहरे। उनके प्रवचन सुनने के लिये कोणिक भी सपरिवार पाया। भगवान् के प्रवचनामृत का पान कर महाराज श्रेणिक के पद्म, महापद्म आदि दस पौत्रो ने मुनिधर्म अगीकार कर लिया। जिन-पालित आदि अनेक श्रेष्टियों ने भी मुनि-जीवन अगीकार किया तथा 'पालित' आदि अनेक श्रेष्ठियो ने 'श्रावक-धर्म' मे दीक्षित होकर श्रद्धामय पावन जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया । यहा से वे विदेह मे प्रविष्ट हुए। मार्ग मे काकन्दी मे क्षेत्रक और वृतिधर आदि श्रेष्ठियो को श्रमण-धर्म मे दीक्षित कर मिथिला पहुंचे और यह चातुर्मास वही व्यतीत किया। तीर्थर जीवन : छब्बीसवां चातुर्मास भगवान महावीर मिथिला के चातुर्मास की समाप्ति पर अगदेश की ओर बढ़े। इन दिनो विदेह की राजधानी "वैशाली" मे महाराज १२०] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोणिक और वैगाली गणराज्य के प्रमुख चेटक मे भयकर युद्ध हो रहा था। भगवान पुन चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य नामक उद्यान मे पहुचे। यहां उनके प्रवचन सुनने के लिये श्रेणिक की दस रानिया काली आदि भी आई । उनके पुत्र कोणिक की ओर से युद्ध मे लडने के लिये वैशाली की रणभूमि मे गए हुए थे। उनकी कुशलता पूछने पर भगवान ने उनकी मृत्यु का हाल बताते हुए ससार की विनश्वरता का जो वर्णन किया उससे प्रभावित होकर उन दसो राजमाताओ ने श्रमणी "धर्म" अगीकार कर लिया और निरन्तर आत्मोद्धार का प्रयास करने लगी। वहा से उन्होने मिथिला की ओर विहार कर दिया और यह छब्बीसवा चातुर्मास मिथिला मे सम्पन्न हुआ। तीर्थङ्कर जीवन : सत्ताईसवी वर्षावास : वर्षावास की पूर्णता पर भगवान महावीर ने विहार कर दिया और अनेक क्षेत्रो की स्पर्शना करते हुए श्रावस्ती के "कोष्ठक चैत्य" नामक उद्यान में ठहरे। इन्ही दिनो मखलिपुत्र गोशालक भी श्रावस्ती की 'हालाहला' नामक सम्पन्न कुम्हारिन की भाण्डशाला मे ठहरा हुआ था। यहा उसका दूसरा परम भक्त अयपुल भी रहता था। मखलिपुत्र गोशालक भी अपने को 'तीर्थडर' कहा करता था और अपने आजीवक धर्म का प्रचार कर रहा था । गौतम जी ने श्रावस्ती मे एक साथ दो तीर्थङ्करो के पधारने की बात जव जन ता द्वारा सुनी तो उन्होने लौटकर भगवान् महावीर से इस तथ्य को बताने की प्रार्थना की तो भगवान् ने गोगालक का पूर्ण परिचय दे दिया। यह चर्चा श्रावस्ती मे धूप-धूम के समान सर्वत्र फैल गई और धीरे-धीरे गोशालक के पास भी यह चर्चा पहच गई। उसने क्रोधावेश मे आकर भगवान से बदला लेने का निश्चय कर लिया। आनन्द और गोशालक : भगवान महावीर का एक स्थविर शिष्य आनन्द जो सर्वदा एक दिन उपवास और एक दिन भोजन करता था वह इस क्रम से तप पञ्च-कल्याणक } [१२१ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता या भिक्षार्थ नगर मे गया तो उसे गोशालक ने रोक लिया और कहा- 'जरा मेरी बात सुनकर नायो।' ग्रानन्द रुक गया तो गोशालक ने कहा __ 'प्रानन्द | एक बार चार वणिक व्यापार के लिये जा रहे थे। मार्ग मे उन्हे एक बन मे बहुत प्यास लगी, परन्तु उन्हें पास-पास कही भी जल प्राप्त नही हो रहा था। तभी उन्होने चार गिम्वरो वाली एक बाम्बी (वात्मीक) दिखाई दी। उन्होने एक शिखर तोडा तो उन्हे उमके नीचे शीतल जल प्राप्त हया । उन लोभी बनिको ने दूसरा शिखर भी तोड दिया तो उसके नीचे से उन्हे विशाल स्वर्ण-रागि प्राप्त हुई । लोभ और बढ गया, अत. तीसरा शिखर भी तोड़ दिया और उसके नीचे से उन्हे विशाल रत्न-भण्डार प्राप्त हुया । लोभी वणिको ने चौथा शिखर भी तोडने का निश्चय किया तो उनके एक साथी ने कहा-'अति लोभ बुरा होता है, अत चीया शिखर मत तोडो और इस प्राप्त धन-राशि को लेकर चल दो। परन्तु वे नहीं माने प्रत चौथा माथी वहा से दूर हट गया। चौथा शिखर जैसे ही टूटा उसके नीचे से एक दृष्टिविष सर्प निकला जिसके विप से तीनो का प्राणान्त हो गया। चौथा साथी प्राप्त वैभव के साथ गन्तव्य स्थान पर पहुच गया। आनन्द | तुम्हारे धर्म-गुरु को भी तपस्तेज और यश प्राप्त हो चुका है, अब वह अधिक कीति के लोभ से मेरे विषय मे अनाप-शनाप बाते कह रहा है, अत उससे कह देना कि वह अनर्गल बाते कहना वद कर दे अन्यथा उसकी दशा भी लोभी वनिको जैसी होगी। गोशालक की सारी चर्चा अानन्द ने प्रभु महावीर को सुनाई तो उन्होने कहा-'आनन्द | गोशालक तेजोलेश्या के प्रयोग में समर्थ है। वह यही आनेवाला है, अत समस्त साधु वर्ग को कह दो कि वे गोगालक से किसी तरह का वाद-विवाद न करे।' गोशालक प्रभु के पास पाया । गोशालक भगवान के पास आया और कुछ दूर खडे होकर बोला'आयुष्मन् महावीर | मै मखलि पुत्र गोशालक नही हूँ मैं तो कोण्डियायन गोत्रीय उदायी हू, मैंने गोशालक का गरीर धारण किया हुआ है, क्योंकि यह शरीर सर्वविध कष्ट सहन करने में सक्षम है। मैंने स्वेच्छा से यह १२२ ( केवलज्ञान--कल्याणक Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां शरीर धारण किया है, क्योकि मेरे मे पर-शरीर-प्रवेश की शक्ति है।" भगवान ने कहा-गोशालक | अपने को छिपाने का प्रयास मत करो। सत्य का अनुकरण ही श्रेयस्कारी होता है।' गोशालक ने क्रोध मे भर कर कहा-'काश्यप [१ तुम्हारे दिन पूर्ण होने वाले हैं, अब तुम इस धरती पर विचरण नही कर सकोगे।' गोशालक के इस अभद्र व्यवहार को देखकर सर्वानुभूति नामक साधु से रहा न गया और वह गोशालक को समझाने के लिये उसके पास गया तो गोशालक ने उसे 'तेजोलेग्या२ से भस्म कर दिया और वह फिर महावीर के प्रति अभद्र वचन कहने लग गया। सर्वानुभूति की दशा देखते हुए सुनक्षत्र नामक साधु से भी रहा न गया और वह भी उसे समझाने के लिये उठा तो उसे भी गोगालक की तेजोलेश्या से भस्म हो जाना पड़ा। अब भगवान् महावीर ने गोशालक को स्वय समझाने का निश्चय किया तो गोशालक ने उन पर भी तेजोलेश्या से प्रहार किया, किन्तु तेजोलेश्या की लपटें प्रभु महावीर के वज्रोपम शरीर से टक्करा कर वापिस हो गई और मखलिपुत्र गोशालक के शरीर मे प्रविष्ट हो गई । तेजोलेश्या के अनुचित प्रयोग के कारण गोशालक विक्षिप्त हो गया, उसका शरीर जलने लगा और वह सातवे दिन समाप्त हो गया। गोशालक को सातवे दिन अपने अपराध की अनुभूति हुई और पश्चात्ताप करते हुए एव मानसिक रूप मे क्षमा-याचना करते हुए शुभ परिणामो से उसने शरीर का त्याग किया था, अत वह अच्युतकल्प नामक देवलोक मे देवरूप से उत्पन्न हुआ । सर्वानुभूति सहस्रारकल्प नामक देवलोक मे तथा सुनक्षत्र मुनि अच्युत कल्प नामक देवलोक मे उत्पन्न हुए । गौतम के प्रश्न का समाधान करते हुए इन तीन आत्माग्रो के देवलोकवास की बात भी भगवान महावीर ने ही बताई थी। १ कश्यप गोत्रीय होने के कारण महावीर को 'काश्यप' भी कहा जाता है। २ तप द्वारा प्राप्त एक प्रकार की तेजस् शक्ति जिसके द्वारा किसी को भी जलाया जा सकता है। पञ्चकल्याणक ) [ १२३ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की अस्वस्थता और उपचार : तेजोलेश्या के प्रहार-प्रभाव से भगवान महावीर का शरीर भी रक्तातिसार और पित्तज्वर से ग्रस्त रहने लगा। जव श्रावस्ती से विहार करके भगवान् अनेक स्थानो की यात्रा करते हुए छः मास बाद मेढिय ग्राम मे पहुचे और 'सालकोष्ठक चैत्य' नामक उद्यान मे ठहरे। परम तपस्वी सिंह मुनि भगवान् की अस्वस्थता दुर्वलता एवं गिरती हुई शारीरिक दशा को देख कर एक दिन पास ही मालुका कच्छ मे जाकर फूट-फूट कर रोने लग तभी भगवान ने अपने शिष्यो को वुलाकर कहा-'पार्यो। भद्रप्रकृति सिंह अनगार मेरे स्वास्थ्य की विगडती हालत से घबरा कर मालुका कच्छ में रो रहे हैं। जामो उन्हे वुला लायो। उनके पाने पर भगवान ने कहा--सिंह ! इतने चिन्तातुर क्यो हो उठे हो मेरा यह शरीर अभी साढ़े पन्द्रह वर्ष इस वरातल पर हो सानन्द रहेगा। यदि तुम मुझे स्वस्थ देखना ही चाहते तो जानो इसी ग्राम मे रेवती नामक समृद्ध श्राविका रहती है उसने पेठे से और वीजारे दो औषधिया तैयार की हैं। पहली औषधि उसने मेरे निमित्त से तैयार की है, वह मत लाना, दूसरी औषधि भिक्षा मे ले पायो, मैं स्वस्थ हो जाऊगा । सिंह अनगार रेवती के घर पहुंचे और कहा-देवी ! जो औपधि आपने प्रभु महावीर के लिये तैयार की है वह नही, दूसरी औषधि बीजौरापाक दे दीजिए। रेवती इस घटना से अत्यन्त प्रभावित हुई उसने बीजौरापाक दे दिया, उस का ग्राहार करते ही भगवान् सर्वथा स्वस्थ हो गये और रेवती भी इस प्रोपविधान से देवलोक की अधिकारिणी बन गई। जमालि पथभ्रष्ट हुआ : भगवान् महावीर जब तेईसवा वर्षावास पूर्ण कर ब्राह्मण कुण्डपुर मे पधारे थे तब महावीर प्रभु द्वारा आजा प्राप्त न होने पर भी उसने स्वेच्छा से भगवान का साथ छोड़ दिया था और वह तत्र से स्वतन्त्र विहार कर रहा था। १२४ ] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन दिनो जमालि अनगार अत्यन्त अस्वस्थ थे वे श्रावस्ती के कोप्ठक चैत्य मे ठहरे हुए थे। उन्होने शिष्यो को विस्तर बिछाने की आज्ञा दी। जमालि अनगार अत्यधिक अस्वस्थता के कारण खडे रहने मे भी असमर्थ थे, अत उन्होने विस्तर विछाते हुए शिष्यो से पूछा 'क्या विस्तर बिछा दिया गया है ?' शिष्यो ने कहा-गुरुदेव ! विछा दिया। विछौना अधूरा देखकर बिछा तो नही, बिछा रहे हैं । कुछ ही क्षणो के वाद जमालि लेट तो गए, परन्तु सोचने लगे भगवान महावीर तो किए जाने वाले कार्य को किया हुप्रा (करेमाणे कडे) कहते है, यह सिद्धान्त ठीक नहीं। जब तक क्रिया समाप्त न हो जाय तब तक उसे किया हुया कैसे कहा जा सकता है। उसने भगवान के मत का विरोध प्रारम्भ कर दिया। उसके अनेक शिष्यो ने समझाया भी कि 'भगवान् महावीर का 'किए जाने वाले कार्य को किया हुआ' कहने का सिद्धान्त निश्चयनय की दृष्टि से ठीक है क्योकि निश्चयनय 'कार्य के होने के काल मे और पूर्ण हो जाने के काल मे अभिन्नता मानता है, परन्तु जमालि अपने आग्रह पर दृढ रहा। __ भगवान महावीर विहार करते हुए चम्पा पहुंच चुके थे । जमालि भी स्वस्थ होकर चम्पा आ गया। उसने भगवान् के पास पहुंच कर कहा कि 'मैं भी केवलज्ञानी होकर विचरण कर रहा हू।" भगवान् महावीर ने कहा-देवानुप्रिय ! केवलज्ञान कोई ऐसी वस्तु नही है जिसके होने की घोषणा केवली को स्वय करनी पडे । उसी समय श्री गौतम जी ने जमालि से कुछ दार्शनिक प्रश्न भी किए जिन का वह उत्तर न दे सका, अत उन प्रश्नो का समाधान भगवान को ही करना पड़ा। जमालि अपने प्राग्रह पर दृढ रहा और वहा से चला गया । प्रियदर्शना जो गृहस्य अवस्था मे जमालि की पत्नी थी वह भी कुछ दिन जमालि के सिद्धान्त पर विश्वास करती रही परन्तु एक दिन वह श्रावस्ती मे अपने साध्वो सब के साथ ढक नामक कुम्हार की भाण्डशाला में ठहरी । ढक ने जान बूझ कर उनके वस्त्र पर चिंगारी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फै कादीतो प्रिय ना कह उठी-मेग पर जम गया, मेरा या जल गया। तभी ढक ने कहा-'यार्या जी, बल्ल जन रहा है यार में "जल गया" क्यो कह रही हो। प्रियदमंना प्रतिबुद्ध हुई और बहनः भगवान् महावीर के श्रमणी सघ में लोट पाई। भगवान महावीर वर्षावास लिये मिथिला पहुंच गए। तीर्थर जीवन अट्ठाईसवां चातुर्मास : वर्षावास की पूर्णता पर भगवान् ने कोगल देव जी और बिहार कर दिया। इन्द्रभूति गौतम बुद्ध भागे निकल गए और वे पहले ही श्रावस्ती के कोष्टक उद्यान मे ठहर गए। उन दिनो भगवान् पाव नाय को परम्परा के महाश्रमण केसीकुमार भी श्रावस्ती के तिन्दुकोद्यान में ठहरे हा थे। दोनो मुनीश्वरों के शिष्य आचार-विचार की भिन्नता देवकर गोचने लगे यह विभिन्नता क्यो है ? गौतम स्वामी निरभिमानी एवं मरन प्रकृति के मुनिवर थे, अत: वे गिप्यो की जिज्ञासाम्रो की शका-निनि के लिये अपने शिष्य समुदाय के साथ स्वय ही तिन्दुकोद्यान में चले गए। मुनिराज केगिकुमार जी ने उनका यथोचित सत्कार किया। दोनो स्थविरो में ज्ञान-चर्चा प्रारम्भ हुई। मुख्य प्रश्न था---चार महायतो का और पाच महाव्रतो का। भगवान् पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म मे हिमा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह को ही स्थान दिया था। भगवान् महावीर ने उसमे ब्रह्मचर्य को और जोड कर पाच-महाव्रतों के पालन का विधान किया है। केशीकुमार के पूछने पर गौतम स्वामी ने बताया कि 'अब लोग प्राय: जड वक्र है, अत: धामिक आचरण मे स्पष्टता की आवश्यकता हुआ करती है। चातुर्याम धर्म के अनुसार निर्ग्रन्थ के लिये स्त्री भी एक परिग्रह ही है, किन्तु भगवान् महावीर स्त्री को पुरुष के समान अधिकार देते हैं,अत उसे परिग्रह की सज्ञा नही देते और स्त्री एवं पुरुष दोनो के लिये ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक मानते है। गौतम के इस समाधान से केशिकुमार को हार्दिक परितोष हुआ। केशीकुमार के प्रश्नो मे एक अन्य महत्त्व पूर्ण प्रश्न था कि "गौतम आप अनेक शत्रुनो से घिरे हुए हैं, आप ने उन शत्रुनो पर कैसे विजय प्राप्त करली? - १२६ ] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम स्वामी ने कहा-'श्रमण-श्रेष्ठ । वासना-लिप्त आत्मा, काम, क्रोध, मान, माया , लोभ और पाच इन्द्रिया ये ही साधक के सबसे बडे शत्रु है। मैंने पहले एक को जीता है अर्थात् प्रात्म-सयम किया है। इस प्रकार एक को जीतकर प्रथम चारो शत्रुनो को जीत लिया और पाच शत्रुनो पर विजयी हो जाने पर दस शत्रु अपने आप परास्त हो जाते है। दस शत्रुयो पर जिसने विजय प्राप्त करली उसके लिये अन्य कोई शत्रु शेष नही रह जाता है। कुछ अन्य महत्त्व पूर्ण प्रश्नो का समाधान पाकर केशिकुमार भी भगवान् महावीर के श्रमण सघ मे प्रविष्ट हो गए। प्रभु महावीर भी श्रावस्ती पहुच गए। कुछ दिन वहा ठहर करके भगवान अहिच्छत्रा नगरी होते हुए हस्तिनापुर के सहम्रान नामक उद्यान मे ठहरे। राजर्षि शिव को प्रतिबोध : हस्तिनापुर मे नरेश शिव के हृदय में वैराग्य जागा और उन्होने ज्येष्ठ-पुत्र को राज्य देकर स्वय तापस प्रव्रज्या धारण कर तप करना प्रारम्भ कर दिया। तप के प्रभाव से उन्हे जो ज्ञान-दृष्टि उपलब्ध हुई उसके अनुसार वे इस निश्चय पर पहुचे कि सात द्वीप और सात ही समुद्र है और वे इसी बात का प्रचार हस्तिनापुर मे भी करने लग गए। इन्द्रभूति गौतम जब भिक्षा के लिये नगर मे गए तो उन्होने राजपि शिव की वात सुनी। इस बात को उन्होने प्रभु महावीर के समक्ष प्रवचन के समय रखा और भगवान ने धर्म-सभा मे प्रवचन करते हुए कहा-'द्वीप और समुद्र सात ही नही, असख्य है । । जब महर्षि शिव को यह ज्ञात हुआ तो वे भी भगवान के पास अपनी शकाओ का समाधान करने के लिये आए। यहा वे भगवान् का वैराग्यमय सत्यनिष्ठ प्रवचन सुन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए और विधिपूर्वक वन्दना करके वोले-भगवन | 'मुझे भी निर्ग्रन्थ-मार्ग की दीक्षा देकर अनुगृहीत करे । भगवान ने उन्हे दीक्षित किया और वे सयम पूर्वक तपस्यामय जीवन व्यतीत करने लगे। यहा से भगवान् मोका नगरी पधारे और अनेक स्थानो को पावन Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए वे पुन: वाणिज्य ग्राम श्रा गए और यही पर उन्होने वर्षावास किया । तीर्थङ्कर जीवन : उनत्तीसवां चातुर्मास : वाणिज्यग्राम के वर्षावास की पूर्णता पर भगवान राजगृह के गुणगील उद्यान मे पहुचे । यहा पर उन्होने ग्रन्य मतावलम्बियों की धारणाओं के सम्बन्ध मे गौतम के हृदय मे उठे अनेक प्रश्नो के समाधान किये। विशेषत गौतम का प्रश्न था कि "जब कोई श्रावक सामायिक की ग्राराधना करता है तब वह जीव-जीव सभी से अपना ममत्व सम्बन्ध तोड देता है, अर्थात ममत्व के परित्याग का प्रयत्न करता है, श्रत उसका किसी से कोई सम्बन्ध नही रह जाना। ऐसी दशा मे भी सामायिक व्रत के अनन्तर क्या उसका स्वामित्व उन पर बना रहता है ?' भगवान् ने कहा - ' गौतम | सामायिक की अवस्था मे उस का सम्बन्ध टूट जाता है क्योकि वह उम समय उनके उपभोग से रहित हो जाता है, फिर भी उसका वस्तु स्वामित्व समाप्त नही होता | भगवान ने इस वर्ष का चातुर्माम भी राजगृह मे ही किया और अनेक साधुग्रो ने राजगृह के विपुल पर्वत पर अनशन करके सिद्धत्व प्राप्त किया । तीर्थङ्कर जीवन : तीसवां चातुर्मास : चातुर्मास की पूर्णता पर भगवान महावीर चम्पा के उपनगर पृष्ठचम्पा मे ठहरे | पृष्ठचम्पा के अधिपति राजा शाल और उनका छोटा भाई महाशाल भी प्रवचन सुनने ग्राए थे । प्रवचन - प्रभाव से उनकी प्रसुप्त वैराग्य-भावना जाग उठी और महाराज शाल ने छोटे भाई को भी प्रती दीक्षा के लिये प्रस्तुत देख कर अपने भानजे गागली को राज्यभार सौपा और दोनो भाइयो ने प्रभु चरणो में पहुंच कर निर्ग्रन्य-दीक्षा ग्रहण कर ग्रात्मोद्धार की साधना आरम्भ कर दी । कामदेव की धर्मनिष्ठा : भगवान चम्पा के पूर्णभद्र उद्यान मे पहुंचे । आज के प्रवचन मे श्रावक कामदेव भी आया हुआ था । भगवान ने उससे पूछा - 'कामदेव ! १२८ } [ केवल-ज्ञान-कल्याणक Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगत रात्रि मे पौषधशाला मे पौषध करते हुए क्या तुम्हे अनुभव हुना कि कोई देव पिशाच, हाथी और सर्प का रूप धारण करके मुझे साधना से विचलित करना चाहता है, परन्तु तुम अपने साधना-मार्ग से नाममात्र भी विचलित नहीं हुए। कामदेव ने साश्चर्य कहा-'भगवन् | आप ठीक कह रहे हैं।' भगवान ने कहा-'मुनिवृन्द | यह एक गृहस्थ श्रावक है, इसने कभी भी किसी भय से अपने साधना-मार्ग का परित्याग नही किया तो तुम विरक्तो को तो किसी भी दशा मे सयम-साधना से विचलित नहीं होना चाहिए। दशार्णभद्र राजा की दीक्षा : __ चम्पा से भगवान् सुदीर्घ यात्रा करते हुए दशार्णपुर पहुचे ।' दशार्णभद्र अपनी पाच सौ रानियो एव अपार वैभव के प्रदर्शन के साथ प्रभु के दर्शनार्थ आ रहा था। उसके मन मे अपने वैभव का अहकार जाग रहा था। तभी उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो इन्द्र भी अपने अद्भुत एव अपार वैभव के साथ दर्शनार्थ आ रहा है । इन्द्र के वैभव को देख कर उसे अपना वैभव अत्यन्त तुच्छ प्रतीत होने लगा, अत. उसे उस तुच्छ वैभव से विरक्ति हो गई और उसने भगवान के प्रवचन सुनने के अनन्तर प्रभु के वरद हस्त से पावनी आहती दीक्षा स्वीकार कर ली। सोमिल भी दीक्षा के महापथ पर : भगवान् दशार्णपुर से पुन. विदेह की ओर लौटे और वाणिज्य ग्राम मे पधारे और इस बार वे दूतिपलासचैत्य उद्यान मे ठहरे । वाणिज्य ग्राम का एक विद्वान् ब्राह्मण सोमिल भी प्रभु के पास आया और उसने भगवान से अनेक प्रकार के प्रश्न किए। उसका प्रमुख प्रश्न था'भगवन आपके सिद्धान्त मे क्या यात्रा, यापनीय अव्यावाघ और प्रासुक विहार है ? भगवान ने उत्तर दिया 'सोमिल तप, नियम-सयम स्वाध्याय और ध्यान आदि के लिये उद्यम करना ही मेरी यात्रा है । इन्द्रियो को बश मेरखना यह मेरा 'इन्द्रिय-यापनीय' है और क्रोध, मान, माया और १ दशार्णपुर माधुनिक भूपाल के पास विदिशा नामक नगर । पञ्च-कल्याणक ] [ १२९ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभ मैं इन्हे अपने पास नहीं आने देना, यही मेरा नो-इन्द्रिययापनीय' है। अपने शरीर मे वात-पित्त एवं कफ आदि के कारण उत्पन्न रोगो से शरीर को मुक्त रखना यही मेरा अव्यावाध है और विरक्त साधु के योग्य स्थानो मे निर्दोष शय्या सस्तारक आदि स्वीकार करना यही मेरा प्रासुक विहार है। सोमिल ने एक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न किया-"भगवन् ! आप एक है या दो ? क्या आप अभय, अव्यय एव अवस्थित है ? क्या आप भूत, वर्तमान और भविष्यत काल के अनुरूप अनेक है ?" भगवान ने अनेकान्तवाद से उत्तर दिया-'सोमिल | मै आत्मा की दृष्टि से एक है, मैं ज्ञान-दर्शन रूप से दो भी हू । मैं आत्म-प्रदेशो की अपेक्षा से अव्यय, अक्षय एव शाश्वत भी हू। उपयोग की दृष्टि से परिवर्तनशील होते हुए अनेक भी हू । ___इस प्रकार के अनेक प्रश्नो के उत्तर पाकर सोमिल के हृदय में निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति अपार श्रद्धा जागृत हुई और वह भी प्रभु का शिष्य बन कर साधना-मार्ग मे प्रवृत्त हो गया । भगवान ने यह चातुर्मास वाणिज्यग्राम मे ही व्यतीत किया। तीर्थकर जीवन : इकत्तीमवां चातुर्मास चातुर्मास की पूर्णता पर भगवान महावीर साकेत एव श्रावस्ती आदि नगरो को स्पर्गना करते हुए काम्पिल्य नगर' के बाहर सहस्राम्र वन मे ठहरे। गौतम स्वामी जव आहार-पानी के लिये नगर मे गए तो उन्होने सुना कि अम्बड नामक परिव्राजक जो सात सौ शिष्यो का गुरु है वह एक साथ सौ घरो मे भाजन करता है। इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् से पूछा तो उन्होने बताया अम्बड निरन्तर षष्ठभक्त तप करता है और उसने तपस्या के द्वारा "वक्रिय लन्धि" नामक सिद्धि प्राप्त कर ली है। १. यह बिहार मे फर्रुखाबाद ने पच्चीस मील उत्तर-पश्चिम की ओर बूढी गगा के किनारे कपिला नाम से आज भी विद्यमान है । उस समय यह नगर दक्षिण पाचाल की राजधानी के रूप मे था । १३० ]. -ज्ञान-कल्याणक Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके बल पर वह एक साथ सौ रूप धारण करके सो घरो मे भोजन कर लेता है । वह स्थूल हिंसा, स्थूल असत्य और स्थूल अस्तेय का त्यागी एव विरागी पूर्ण ब्रह्मचारी है, वह श्रावक-धर्म का पूर्ण रूप से पालन करता है। वह मृत्यु के अनन्तर ब्रह्म देवलोक में जाएगा और फिर मनुष्य जन्म-धारण कर महाविदेह क्षेत्र में निर्वाण प्राप्त करेगा। काम्पिल्यार से प्रभु पुन. विदेह की ओर लौट पडे और उन्होने इस वर्ष का वर्षावास वैशाली में किया। तीर्थङ्कर जीवन : बत्तीसवां चातुर्मास वैशाली के वर्षावास की पूर्णता पर भगवान महावीर काशी कौशल आदि प्रान्तो मे विचरण करते हए ग्रीष्म काल मे वाणिज्य ग्राम के द्वती पलास चैत्य नामक उद्यान मे ठहरे। यहा उनके पास भगवान पार्श्वनाथ का अनुयायी एक गागेय नामक साधु आया और उसने भगवान् से अनेक प्रश्न किए। उसका एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह था कि-"आप जो कुछ कहते हैं उसे आत्म-प्रत्यक्ष करके कहते है-या किसी अनुमान ग्रादि प्रमाण से, अथवा किसी शास्त्र के आधार पर कहते है ? महावीर का उत्तर था-'गागेय | मेरे प्रत्येक वक्तव्य का आधार मेरा 'आत्म-प्रत्यक्ष ज्ञान' है, क्योकि केवलज्ञान के द्वारा सब कुछ आत्म-प्रत्यक्ष किया जा सकता है।" गागेय अपने प्रत्येक प्रश्न का यथार्थ एव बुद्धि-सगत उत्तर पाकर प्रभु का शिप्य बनकर अपना साधना-पथ प्रशस्त करने लगा। भगवान ने इस वर्ष का चातुर्मास वैशाली मे जाकर व्यतीत किया। तीर्थडर जीवन. : तेंतीसवां चातुर्मास वैशाली के चातुर्मास की पूर्णता पर भगवान शीतकाल मे मगध की भूमि पर ही- विचरण करते रहे और वे पुन राजगृह के 'गुणशील चंत्य' नामक उद्यान मे पधारे । राजगृह मे उस समय विभिन्न धर्मावलम्बी आचार्य एव उनके अनुयायी थे । इन्द्रभूति, गौतम अन्य धर्मों की जो मान्यता सुनते वे उसके विषय मे भगवान् से पूछकर वास्तविकता को प्राप्त कर लेते थे। एक जीवनोपयोगी प्रश्न इस प्रकार थापञ्च-कल्याणका [ १३१ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवन् ! कुछ प्राचार्य कहते हैं शील अर्यान् सदाचार श्रेष्ठ है, कुछ कहते है श्रुत अर्थात् ज्ञान श्रेष्ठ है, कुछ दोनो को श्रेष्ठ कहते हैं ? प्रभो । वास्तविकता क्या है ? भगवान का उत्तर था-गौतम चार प्रकार के व्यक्ति होते हैं। १. कुछ शील सम्पन्न होते हैं, परन्तु श्रुत-सम्पन्न नहीं होते। २ कुछ श्रुत सम्पन्न होते हैं, परन्तु गोल सम्पन्न नहीं होते। ३ कुछ शील सम्पन्न भी होते हैं, श्रुत सम्पन्न भो। ४ कुछ न शील सम्पन्न होते हैं और न श्रुत सम्पन्न हो । इन मे प्रथम व्यक्ति देशारावक अर्थात् धर्म के एक अश का पालन करता है । दूसरा व्यक्ति देश विरावक अर्थात् धर्म को समझता तो है, किन्तु धर्मका पालक नही माना जा सकता, तीसरा व्यक्ति सम्पूर्ण धर्म का साधक होता है और चोया व्यक्ति किमो भो दृष्टि से धर्म की पाराधना करनेवाला नही माना जा सकता । राजगृह के श्रावक श्रेष्ठ मद्दुक ने अन्य धर्मावलम्बियो को जब भगवान् महावीर के सिद्धान्त समझाए तो भगवान् ने उसकी समस्त बातो का समर्थन करते हुए कहा- किसी भी प्रश्न का उत्तर विना सोचे-समझे नहीं देना चाहिए, विना सोचे-समझे बोलनेवाला व्यक्ति केवली भगवान की वाणी का निरादर करता है।' ___ इस वर्ष का चातुर्माम भगवान् ने राजगृह मे हो प्रवचनामृत को वर्षा करते हुए पूर्ण किया। तीर्थडूर जीवन चौतीसवां चातुर्मास राजगृह के वर्षावाम के अनन्तर कुछ दिन तक भगवान् महावीर इधर-उधर विचरण करते रहे । चम्पा की ओर जाते हुए मार्ग मे शाल और महाशाल नामक मुनियो ने भगवान से अपने ससारी पक्ष के भानजे को प्रतिबोध देने की आज्ञा मागो । भगवान् ने गौतम के साथ उन्हे वहा जाने की आज्ञा दे दो। पृष्ठचम्पा पहुच कर उन्होने दर्शनार्थ एव प्रवचन सुनने के लिये प्राए हुए गानि को जब उपदेश दिया तो वह भी अपने पिता पिठर और माता यशोमतो के साथ विरक्त होकर गौतम स्वामी का शिष्य बनकर भगवान को शरण मे आ पहुचा । १३२] । केवल-ज्ञान-कल्याणक" Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग मे नालन्दा के निकट हस्तियाम नामक उद्यान मे उदक नामक पाश्र्वापत्य साघु रहते थे। उन्होने इन्द्रभूति गौतम के समक्ष अनेक प्रकार की धार्मिक जिज्ञासाए उपस्थित की और भगवान महावीय के मनन्योपासक गौतम से सव प्रश्नो के सम्यक् समाधान पाकर वह भी भगवान् महावीर का शिष्य बन गया। इस वर्ष का चातुर्मास नालन्दा मे व्यतीत हुआ । तीर्थडर जीवन : पैतीसवां चातुर्मास वर्षावास की पूर्णता पर भगवान शिष्य-मण्डली सहित धर्म-प्रचार करते हुए वाणिज्यग्राम मे पधारे और दूतीपलासचैत्य नामक उद्यान में उन्होने कुछ दिन प्रचार किया। वाणिज्यग्राम के प्रसिद्ध सेठ सुदर्शन ने भगवान् से काल-विषयक अनेक प्रश्न किए जिनका उत्तर पाकर उसका मस्तक प्रभु-चरणो मे झुक गया । भगवान् ने सुदर्शन सेठ को पूर्व जन्मो का ज्ञान कराया तो सुदर्शन सेठ को जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया, उसने अपने पूर्वजन्मो के साधु-जीवन और देवलोको के जीवन को जानकर भरी सभा मे प्रभु से दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की । यह दीक्षित होकर भगवान् का शिष्य बन गया। वाणिज्य ग्राम मे श्रमणोपासक अानन्द के अवधिज्ञान पर गौतम को सन्देह हुआ और भगवान महावीर ने गौतम के सन्देह की निवृत्ति करते हुए कहा-'गृहस्थ जीवन मे भी विधिवत् धर्म-मर्यादाओ का पालन करता हा श्रावक आनन्द जैसा व्यक्ति 'अवधिज्ञान' प्राप्त कर सकता है । गौतम जी ने आनन्द श्रावक से क्षमा याचना की और अव प्रभु महावीर वैशाली की ओर चल पडे । वर्षावास वैशाली मे ही सम्पन्न हुआ। तीर्थङ्कर जीवन : छत्तीसवां चातुर्मास वैशाली के वर्षावास की समाप्ति पर प्रभु-पद कोशल की ओर बढे और कुछ ही दिनो मे उन्होने साकेत' का स्पर्श किया। साकेत निवासी जिनदेव नामक श्रावक म्लेच्छो के देश के भीतर १. अाधुनिक अयोध्या नगरी । पञ्च-कल्याणक] [१३३ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटि वर्प नामक नगर में पहुंचा और वहा के किरात गजा को उसने अनेक बहुमूल्य रत्न भेट किए। किरातराज रत्नो को देखकर अत्यन्त हपित हुअा और बोला-' ऐसे रत्न कहा उत्पन्न होते है ?" जिनदेव ने अपने देश भारत का नाम लिया तो किरात राज भारत मे आने को प्रस्तुत हो गया। जिनदेव साकेत नग में प्राजा लेकर किरातराज को साकेत ले आया। सौभाग्य से किरातराज जिनदेव के साथ भगवान के समवसरण मे भी आ पहुचा और भगवान से जानदर्शन और चारित्र रूप महारत्नों का परिचय प्राप्त कर कृत-कृत्य हो गया और उसने भी भगवान से दीक्षा ग्रहण कर रत्न-त्रय की सम्यक आराधना प्रारम्भ कर दी। यहा से प्रभु महावीर काम्पिल्य होते हुए मथुरा आए और शौर्यपुर नन्दीपुर आदि की स्पर्गना करते हुए मिथिला पाए। वर्षावास का सौभाग्य मिथिला को ही प्राप्त हुआ। तीर्थकर जीवन : सैतीसवां चातुर्मास वर्षावास की पूर्णता पर भगवान की विहार-यात्रा प्रारम्भ हो गई और वे साधु-मण्डल के साथ राजगृह के गुणगील चैत्य नामक उद्यान में पधारे । यहा अनेक वर्मावलस्त्रियो ने भगवान से वोव प्राप्त किया । इसी वर्ष अनगार कालोदायी ने पष्ठ भक्त अप्ठम भक्त आदि नपस्याएं करके निर्वाण प्राप्त किया । गणवर प्रभास भी एक मास का अनगन करके निर्वाण-प्राप्ति मे सफल हए । अनेक माधुयो ने विपुलाचल पर अनगनपूर्वक देह त्याग कर मोक्ष प्राप्त किया। वर्षावास के लिये भी राजगृह मे ही महावीर ठहरे रहे। तीर्थकर जीवन : अठतीसवां चातुर्मास वर्षावास की समाप्ति पर भी भगवान मगध मे ही विचरण करते रहे और वर्षाकाल मे राजगृह मे लौट आए। यहां पर गौतम स्वामी ने भगवान से क्रियाकाल, निष्ठाकाल, परमाणु-सयोग, भाषा-जान, क्रिया की दुखात्मकता दुख की अकृत्रिमता आदि विषयो का गम्भीर नान प्राप्त किया। १३४] [वल-ज्ञान-कल्यणाक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधीर अचल भ्राता और गणधर मेतार्य गुणशील चैत्य मे ही मासिक अनगन करके मोक्षगामी बने । भगवान वर्षावास के लिये नालन्दा मे पधारे और इस वर्षावास ने नालन्दा को पावन किया। तीर्थकर जीवन . उनतालीसवां चातुर्मास ___ वर्षावास की पूर्णता पर प्रभु के पावन चरण विदेह की ओर बढे। मिथिला पहुंचने पर महाराज जित शत्रु ने आपका अभिनन्दन वन्दन किया । मणिभद्र चैत्य मे प्रतिदिन प्रवचन होने लगे। महाराज जितशत्रु महारानी धारणी के साथ प्रतिदिन प्रवचन सुनने के लिये आया करते थे। यहा पर इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् महावीर से खगोल सम्बन्धी अनेक प्रश्न किये जिनका उत्तर भगवान् ने प्रत्यक्ष दर्शी की तरह ही दिया जो चन्द्र-प्रज्ञप्ति और सूर्य-प्रज्ञप्ति जैसे ग्रन्थो मे विद्यमान है। वर्षावास मिथिला मे रहा। तीर्थ दूर जीवन : चालीसवां वर्ष वर्षावास के अनन्तर प्रभु विदेह मे ही विचरण करते रहे और इस वर्ष की चातुर्मासिक साधना भी उन्होने पुन. मिथिला मे ही की । तीर्थङ्कर जीवन : इकतालीसवां चातुर्मास मिथिला मे भगवान महावीर पुन. मगध की भूमि पर पधारे और और राजगृह के गुणगील चैत्य मे ही पहुंच गए। वहां पर भी गौतम जी ने प्रमु मे अनेक विपयो का ज्ञान प्राप्त किया। इसी वर्ष मे अग्नि भृति एव वायुभूमि नामक भगवान के गणधरो ने गुणगील चैत्य मे ही अनशन करके मोक्ष-पद पाया। ___ चातुर्मास के अनन्तर भी भगवान वहीं ठहरे रहे । इसी बीच उनके अन्य गणधर, अव्यक्त स्वामी मण्डिक, स्वामी, मौर्य पुत्र और अकम्पित स्वामी ने भी मासिक अनशन पूर्वक सिद्धत्व प्राप्त किया। पञ्च-कल्याणक.] ८. [ १३५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम स्वामी को भगवान ने दुपमदुषमाकाल का विस्तृत परिचय दिया और भारत के भविष्य के सम्बन्ध में बहुत कुछ बताया। अन्य काल-व्यवस्थाओं का भी परिचय दिया और कालचक्र पर विजय पाने के अमोघ साधन धर्माराधना को बताया। अव भगवान महावीर अन्तिम चातुर्मास के लिये पावापुरी की ओर जा रहे थे, मानो सूर्य अस्ताचल की ओर प्रस्थान करने को प्रस्तुत था। पावापुरी की ओर बढ़ते प्रभु-चरणो मे शत-शत प्रणाम कर विराम ले रही है मेरी लेखनी। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र-वम-दीपिकाकुल-विविधद्रुमखण्डमण्डिते रम्य । पावामगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थितो मुनिः । कातिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः। अवशेष संप्रापदजरामराक्षय सौरण्यम् ॥ पत्र-समूहो से युक्त दीर्घिका अर्थात् बावड़ी से एब अनेक प्रकार के वृक्षो से मण्डित पावानपर के उद्यान मे पाप व्युत्सगं तप मे स्थित थे, तब कार्तिक कृष्णा के अन्त में(कार्तिक कृष्ण अमस्या में) स्वाति नक्षत्र मे, प्रवशिष्ट कर्म-धूलि को साफ करके भधातिया कर्मों का नाश करके पापने अविनाशी अजरामर पद प्राप्त किया । 44 |v EGAIN /ama 27 AN AVAYAM NA VERMA CAPI P AN स VILL Pas जिवाण कल्याणक श्रीमुनिनेमिचन्द्र जी Page #166 --------------------------------------------------------------------------  Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण-कल्याणक ० ५० निर्वाण-भूमि की ओर बढ़ते चरण तीर्थकर भगवान महावीर ने विभिन्न जनपदो मे विचरण करते हुए अपने तीर्थ दूर जीवन का अन्तिम चातुर्मास (४२वा वर्षावास) करने के लिये मध्यमा पावापुरी के राजा हस्तिपाल की पुरानी रज्जुकसभा अर्थात् लेखपाल-शाला मे पधारे। यह वही नगरी थी जहा पर भगवान महावीर द्वारा धर्मसंघ (तीर्थ) की स्थापना हुई थी, जहा उनके पास ११ गणधर अपने शिष्यो सहित दीक्षित हुए थे। हस्तिपल राजा तो तीर्थ-स्थापना के समय से ही भगवान महावीर के प्रति भक्तिविभोर हो चुका था, अत. उसने अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति के साथ अपनी लेखपालशाला मे तीर्थकर भगवान महावीर को वर्षावास के लिये स्थान दिया। लेखपालो का यह कार्यालय बहुत विशाल था । निर्वाण से पूर्व की स्थिति एक-एक करके वर्षाकाल के तीन महीने भी व्यतीत हो चुके थे और चौथा महीना लगभग आधा बीतने को आया था। कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी का प्रात काल का समय था। पाक्षिक दिन होने के कारण प्रात:काल ही भगवान महावीर के अनन्य श्रमणोपासक, काशी-कोशल के मल्ल वीगण के ह एवं लिच्छवीगण के ६, कुल अठारह राजा' पौपध करने लिये आ पहुचे थे। मालूम होता है कि उस समय भगवान के दर्शनार्थ और भी श्रद्धालु जन-समूह उपस्थित होगा। इन राजाप्रो के १. रज्जुगा-लेहगा तेसि सभा रज्जुयसमा, अपरिभुज्जमाणा करणमाला । कल्पसून चूणि १२२ २ कल्पसूत्र चूणि १२७ पञ्च-कल्याणक । १३७ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ इनके अमात्य एव भृत्यगण भी होंगे। इस प्रकार विशाल जनसमूह देखकर भगवान महावीर ने अपनी सुधामयी वाणी से उन राजाओ मन्त्रियो एव धनाढ्य व्यक्तियो का जीवन-परिचय दिया जिन्होंने जीवन भर अन्याय एव अनीति का प्रयोग किया, अधर्म से अपनी आजीविका की, दुर्व्यमनों में अपना अमुल्य समय व्यतीत किया, हिमा और दुराचार मे प्रवृत्ति की, ऐमे पत्रपन इतिहास सुनाए जिनका अन्तिम परिणाम अनन्न दु खपरम्परा है, क्योकि पापकर्म ही दु.खो की परम्परा वढाते हैं, वे आगे के लिये कैसे दुर्लभ बोधि बने? इस सम्बन्ध में विश्लेपण भी किया है। उसके बाद भगवान ने उन पचपन मानवो का परिचय दिया है जिन्होने अपना जीवन अहिंसा और सत्य-निष्ठ होकर व्यतीत किया, न्याय-नीति का अवलम्बन लिया, उच्चभावो से द्रव्य-दान दिया, गुरुवरो की उपासनाए की, जिनसे वे भविष्यत् काल मे सुख के पात्र बने और सुलभवोधि भी। इतना ही नही भगवान ने अपने मुखारविन्द से विनय आदि छत्तीस विपयो पर स्वतन्त्र देशनाए भी दी।' निर्वाण के पूर्व भगवान को मनोभूमिका भगवान महावीर का मानम पीयूपवर्षी उपदेशधारा बहाते समय अत्यन्त प्रसन्न था, गत्सल्य-रस प्राप्लावित था। जगत के जीवो के प्रति उनकी अपार करुणा वारधारा के रूप मे प्रवाहित हो रही थी। जमे मेघ गर्मी ने सतप्त पृथ्वी को अपनी जलधारा से सीच कर प्रचुर घान्य-सम्पत्ति से युक्त कर देता है, वैसे ही भगवान धर्मोपदेश रूपी जल का वर्षण करके भव्य जीवो की हृदयभूमि को ज्ञान, दर्शन एवं चारित्ररूपी धान्य-सम्पत्ति से युक्त कर देना चाहते थे। जगतगुरु भगवान महावीर के प्रति इन्द्रभूति गौतम का अत्यधिक अनुराग था। एक बार वह अपने से लघु श्रमणो को केवलज्ञान की उपलब्धि होते देग्व कर चिन्तित हो उठे थे कि मुझे अभी तक केवल ज्ञान १ इन महत्त्वपूर्ण एव जनोपयोगी देशना को गणधर मुधर्मा स्वामी ने क्रमश: द खविपाक और सुख-विपाक नामक सूत्रों के रूप मे और उत्तराध्ययन मूत्र के रूप मे गूथा । वे मून आज भी भव्य प्राणियों को ज्ञान का प्रकाश दे रहे है। १३८ [ निर्वाण-कल्याणक Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यो नही हुमा ? इस पर भगवान महावीर ने केवल-ज्ञान की अनुपलब्धि का कारण बताते हुए कहा था "गौतम | चिरकाल से तू मेरे स्नेह मे वधा हुआ है । चिरकाल से तू मेरी प्रशसा करता रहा है, सेवा करता रहा है, मेरे साथ दीर्घकाल से परिचित रहा है, मेरा अनुसरण भी करता रहा है। देव और मनुष्य के अनेक भवो (जन्मो) मे हम साथ-साथ रहे है और यहा से आयुष्य पूर्ण करके आगे भी हम दोनो एक ही स्थान पर पहुचेंगे।' इसी अपेक्षा से भगवान महावीर ने अपनी अहैतुकी कृपा-दृष्टि से 'मुत्ताण मोयगाण" के अपने परम विरुद के कारण निष्पक्ष वात्सल्यवश चिन्तन किया कि-'अव मेरे निर्वाण का समय निकट आता जा रहा है । मेरे पट्ट शिष्य इन्द्रभूति गौतम का मेरे प्रति स्नेहभाव अभी तक छूटा नही है । अगर मेरे निर्वाण के बाद भी इसका प्रशस्त मोहभाव नही छूटा तो इसे केवलज्ञान उत्पन्न नही होगा।" इस कारण से पूर्व ही भगवान ने श्री गौतम स्वामी को एक सन्निकटवर्ती ग्राम मे देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिये भेज दिया। वे शीघ्र ही लौट कर अपने धर्मगुरु महावीर के चरणो मे पहुचना चाहते थे किन्तु सन्ध्या हो जाने से वही पर रुक गए। भगवान महावीर का परिनिर्वाण इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर निर्वाण के पूर्व सभी प्रकार के बन्धनो से मुक्त होने की तीव्र दशा मे थे, परम शुक्लव्यान मे वे मग्न हो गए । निर्जल षष्ठभक्त (बेले) का तप चल रहा था, कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि का तीसरा पहर व्यतीत हो चुका था । भगवान पद्मासन से वैठे हुए एक प्रकार से विदा लेते हए १६ प्रहर तक अखण्ड एव अविच्छिन्न रूप से जनता को अपनी अन्तिम थाती प्रदान करने के रूप मे अपनी वाग्धारा प्रवाहित कर रहे थे। उस समय की उस देशना मे इतना चमत्कार था, इतना आकर्पण था कि उससे प्रभावित होकर पौषधोपवास स्थित १८ गण राजा तथा अन्य उपस्थित श्रोतागण १६ प्रहर तक उसे दत्तचित्त हो कर सुनते ही रहे । १ कल्पसूत्र सू० १२६, २ उत्तराध्ययन सूत्र, भगवतीसूत्र शतक १४ उद्दे ०७ पञ्च-कल्याणक] [१३१ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसपिणी काल के चौथे पारे की समाप्ति और पाचवे पारे का प्रारम्भ होने मे तीन साल साढे आठ महीने वाकी रहते थे। उस समय चन्द्र नामक सवत्सर चल रहा था, प्रीतिवर्धन नाम का मास था. अग्नि वेश नामक दिन था, देवानन्दा नामक रात्रि थी, उस रात्रि में अयं नामक लव था, सर्वार्थ सिद्ध नामक मुहूर्त था और स्वाति नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग था। ठीक इसी समय श्रमण भगवान महावीर निर्वाणपद को प्राप्त हुए, कायस्थिति और भवस्थिति से सर्वथा मुक्त हुए, समार को त्याग कर पुनरागमन रहित सिद्धि-गति को प्राप्त हुए । जन्म-जरा-मृत्यु के बन्धनो से मुक्त हुए, परमार्थ को साध कर सिद्ध हुए, तत्त्वार्थ को जान कर वुद्ध हुए, समस्त कर्मसमूह से सर्वथा मुक्त हुए, चार अघाति कर्म जो गेप रहे थे, उनका भी सर्वथा क्षय हो गया। वे शारीरिक तथा मानसिक समस्त दु खो से रहित हो गए, किसी भी प्रकार का सन्ताप न रहने से परिनिर्वाण अर्थात् परमशान्ति को प्राप्त हुए। समार के इतिहास मे कार्तिक कृष्णा अमावस्या का दिन सदैव सस्मरणीय रहेगा। इस दिन वह ज्ञानमूर्य विश्व-वत्सल प्रभु महावीर हममे अलग होकर मुक्तिलोक मे जा विराजे। आज हम उनके साक्षात् तो दर्शन नही कर सकते, परन्तु उनके द्वारा धर्म-प्रवचन के रूप मे प्रसारित ज्ञान-किरणे आज भी हमारे सामने प्रकाशमान हैं। यदि हम छोटे से वाक्य मे कहे तो जीवन का चरम लक्ष्य है निर्वाण प्राप्त करना । इसे ही प्राप्त करने के लिये साधक का प्रत्येक कदम, प्रत्येक प्रवृत्ति एव प्रतिक्षण पुरुषार्थ होना चाहिए । निर्वाण-प्राप्ति ही साधक की जीवन-दृष्टि होनी चाहिए, निर्वाण ही उसका इष्ट होना चाहिए। उसी की ओर वढते रहना साधक का कर्तव्य है। निर्वाण क्या है ? विविध दार्शनिक ग्रन्थो एव शास्त्रो में निर्वाण शब्द के लिये मुक्ति, मोक्ष, निर्याण, मिद्धि, सिद्धिगति परमात्मलीनता, पूर्णता अहंशून्यता आदि विविध नामो का प्रयोग किया गया है। १४०] [ निर्वाण-कल्याणक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि निर्वाण का शब्दश अर्य होता है-जिम में से बात (हवा) निकल जाय ।' दोपक का वुझ जाना, दीपक का निर्वाण है। दीपक को कोई फूक मार कर वुझा देता है तो उसकी ज्योति कहां चली जाती है ? वह मिट तो नही सकती है और मिटती भी नही है, अपितु वह ससीम से असीम वन जाती है। जैनदर्शन का कहना हैदीपक का वुझ जाना उसकी ज्योति का मिट जाना नही है, रूपान्तर या परिणामान्तर हो जाना है, क्योकि जो है वह मिट नही सकता, अत: जीव का निर्वाण अर्थात् शान्त हो जाना भी उसका मिट ज़ानाअस्तित्वहीन हो जाना नही है, अपितु विभाव-परिणति से सदा के लियेस्वभावपरिणति को प्राप्त हो जाना ही निर्वाण है। वैदिक शब्दो मे इसे यो कहा जा सकता है - "आत्मा का अपने अहत्व, ममत्व, देह, गेह आदि सब को खो कर महाविराट् मे मिल कर परमात्मरूप हो जाना ही निर्वाण है।" जहा व्यक्ति विराट मे विलीन हो जाता है, वहा उसके जीवन मे अहत्व, ममत्व, मोह, स्वार्थ, कषाय, राग-द्वष आदि कुछ भी शेष नही रह जाता। ऐसी रूप-भिन्नता को नाश नही कहा जा सकता, वह तो आत्मा का अपने विराट-शुद्ध स्वरूप मे लीन हो जाना है। इन्द्रिया, मन, शरीर, अहकार, बुद्धि, चित्त आदि जो अनात्मभूत वस्तुए हैं. उन सब से मुक्त होकर स्व-स्वरूपावस्थान ही निर्वाण है। प्राचारांगसत्र की चूणि मे निर्वाण का अर्थ-'अपने स्वरूप मे स्थित होना' बताया गया है। अपने स्वरूप मे स्थित होने के लिये सबसे पहले साधक को प्रात्मा पर लगे हुए विकारो, यावरणो एव उपाधियो से रहित होना अत्यन्त आवश्यक है। १ निर्गतो वात यस्मात्तन्निर्वाणम् अथवा निवृत्तिमित प्राप्त निर्वाणम् । २ जह दीवो निव्वाणो परिणामान्तरमिनो तहा जीवो । ___ भणड परिणिबाणो पत्तोऽणावाह परिणाम । ३ परमात्मनि जीवात्मलय. सेति निदण्डिन, । लयो लिंगव्ययो, जीवनाशश्च नेप्यते ॥” ४ 'निर्वाण प्रात्मस्वास्थ्ये'-मा चूणि ४ अ. पञ्चकल्याणक] [ १४१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी दृष्टि से जनदर्शन मे निर्वाण का अर्य किया गया है-'समस्त कर्मकृत विकारो से रहित होना', सकल सन्तापो से रहित हो कर' आत्यन्तिक सुख पाना, समस्त द्वन्द्वो से उपरत होना । क्योकि जब तक आत्मा मे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहकार, माया, राग-द्वीप आदि विकार रहेगे, तब तक निर्वाण नहीं हो सकेगा। निर्वाण के लिये जैन दर्शन की पहली शर्त है-'समस्त कर्मों का क्षय ।'५ क्योकि रागद्वप आदि विकारो से कर्मबन्ध का क्षय नही होना है। दोनो मे कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है। रागद्वे पादि का नाश होते ही कर्मो का क्षय हो जाता है और समस्त कर्मों के क्षय होने पर प्रात्मा अपने वास्तविक स्वरूप मे अवस्थित होकर परम शान्ति को प्राप्त होता है, फिर न तो कर्मो के कारण प्राप्त होनेवाला शरीर होता है, न नाम, रूप, आकार तथा शरीर जनित सुख-दुःख, मोह, अहकार, जन्म-मरण, जरा, व्याधि, इन्द्रियजनित विषय, क्षुधा, तृपा,निद्रा, उपसर्ग, सर्दी, गर्मी आदि होते है । यही निर्वाण की वास्तविक स्थिति होगी। अत्यधिक अविनाशी सुख की अवस्था ही निर्वाण है। जव शरीर ही सदा के लिये मिट जाता है, तब शरीर के कारण होने १ 'निर्वाण कर्मकृत विकाररहितत्वे' प्रा., चूणि ४ अ २ 'सकलसतापरहितत्वे'। ३ 'सकलकर्मक्षयजे प्रात्यन्तिके सुखे'-प्रोप० ४ सर्वद्वन्द्वोपरतिभावे सूत्र० १, २ ० १, अ १ ५ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष.'-तत्त्वार्थ० । ६ 'पुस स्वरूपावस्थान मेति माख्या, प्रवक्षते' ७ निर्माण शान्ति परमाम्'गीता ८ 'रागद्वेप-मद-मोह-जन्म-जरा रोगादि दुखक्षयरूपा। सतो विद्यमानस्य जीवस्य विशिष्टा काचिदवस्था निर्वाणम् ॥' ९ णवि दुक्ख, णवि मुक्ख, णवि पीटा व विज्जदे वाहा । णवि मरण, णवि जणण, तत्थेव य होइ णिव्वाण ॥ णवि इदिय-उवमग्गा, णवि मोहो, विम्यिो य णिद्दा य । ण य तिण्हा व छुहा, तत्येव हवदि णिव्वाण ||-नियमसार १७८/१७९ १४२ ] [ निर्वाण-कल्याणक Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले मैं, मेरापन, राग, द्वष आदि विकार तो स्वत: ही मिट जाते हैं।' सभी उपाधियां शरीर के 'मैं' के आसपास इकट्ठी होती है, अत: जो सर्वथा मिट जाता है, वह सभी उपाधियो से मुक्त हो जाता है। जब जन्ममरण नही होगा तो आवागमन समाप्त हो ही जायगा।२ इसलिये जो परमहस वीतराग पुरुप अपने आप को खो कर परमात्म-तत्त्व की उपलब्धि कर लेते है. वे निर्वाण होते ही सिद्धिगति नामक स्थान मे पहुंच कर अपने प्रात्मस्वरूप मे सदा के लिये स्थित हो जाते हैं. जहा से लौट कर वापिस नही पाना होता, वहा को स्थिति शिव (निरूपद्रव), अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्यावाध और अपुनरावृत्ति है।४ निरुपद्रव इसलिये है कि शरीर के कारण सारे उपद्रव खडे होते हैं। जव गरीर वहां है ही नहीं तो उपद्रव कैसा ? अचल अवस्था मौन और शान्ति की सूचक है । जहा शरीर, इन्द्रिया, मन आदि होते हैं, वही हलचल होती है, इन्द्व होता है, सघर्ष होता है, जहा ये सव मूर्त पदार्थ नहीं होते, वहा सर्वथा शून्य, मौनभाव और प्रगाढ़ शान्ति होगी, किसी भी प्रकार के वैभाविक विकल्प मन मे नही उठेगे। वह अपने आप मे परिपूर्ण और स्थिर होगा। इसी निष्कम्प अवस्था को जैनदर्शन ने५ शैलेशी अवस्था बताया है। इस अवस्था मे भीतर सन्नाटा छा जाता है. जितनी भी हलचल होती है वह तो वाहर ही होती है। यहा बिल्कुल निर्वातता हो जाती है, तब केवल ज्ञानमात्र ही शेष रहता है, वही केवल जान है । न वहा ज्ञाता बचता है, न ज्ञेय पदार्थ, सिर्फ जान ही वच जाता है । वह अनन्त ज्ञान ही अपने मे दर्शन और चारित्र को समाविष्ट १ निजितमदनाना वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्ष मुविहितानाम् ।।' २ यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम । -गीता ३ 'अमत सति निव्वाणं पदमच्चुत'-सुत्तनिपात पारायणवग्ग ४ "सिवमयलमरु अमणतमक्खयमवावाह्मपुणरावत्तिसिद्धिगइ नामधेय ठाण सपत्ताण"-नमोत्यूण (शक स्तव) पाठ ५ जया जोगे निरु भित्ता सेलेसि पडिवज्जड । तया कम्म खवित्ताण मिद्धि गच्छइ नीरो ।।-दर्शव० ४ अ. २४ गा. ६ निप्केवल ज्ञानम्'-निर्वाणोपनिषद् पञ्च-कल्याणक] [१४३ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर लेता है | निर्वाणप्राप्त व्यक्ति सर्वज्ञ और नि समय तो पहले से ही हो जाता है । फिर वहा केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवल सौख्य और केवलवीर्य (शक्ति) ये चार सादि अनन्त के रूप में विद्यमान रहते है, जिन्हे अनन्त चतुष्टय भी कहते है ।" शेष अस्तित्व, अमूर्तत्व और सप्रदेशत्व प्रादि जो गुण हैं, वे तो ग्रात्मा के निजी सामान्य गुण है । 1 ऐसे निर्वाण मे आत्मा की स्थिति कैसी होती है ? इसका पूर्णतया विवरण तो ग्रनन्तज्ञानी पुरुष ही प्रस्तुत कर सकते है, किन्तु साधारण साधक तो उन ज्ञानी पुरुषो के वचनो के आधार पर ही निर्वाण -जन्य अपरिमित प्रानन्द-स्वरूपावस्थान की मस्ती का वर्णन कर सकता है । गूगे के लिये गुड को मिठास का वर्णन करने जैसा ही प्राय यह वर्णन है । इसी कारण जैनदर्शन मे मोक्ष मे मुक्तात्मा प्रन्याबाध बताई गई है । तात्पर्य यह है कि निर्वाण हो जाने पर समस्त वाघाश्रो के प्रभाव के कारण आत्मा के निज गुण वहा पूर्णरूप से प्रगट हो जाते है । निर्वाण ग्रात्मा की परिपूर्ण विकास दशा है । परन्तु उसका कथन शब्दो से पूर्णतया नही हो सकता, न किसी इन्द्रिय के द्वारा उसे ग्रहण किया जा सकता है, इसीलिये उसे विविध दर्शन अनिर्वचनीय, अव्याकृत और अमूर्त होने के कारण ग्रग्राह्य कहते है । निर्वाण होने पर जो स्थान ग्रात्मा को स्वाभाविकतया ऊर्ध्वगमन के कारण प्राप्त होता है, उसे जैन शास्त्रो मे सिद्धशिला, गीता मे परमधाम, मोक्ष, मुक्तिस्थान आदि विविध नामो से पुकारा गया है । " १ विज्जदि केवलणाण केवलसोक्ख च, केवलवरिय | haratहित प्रत्थित्त सप्पदेसत्त | नियमसार १८१ २ व्ववाह प्रवद्वाण - (ग्रन्यावाध व्यावाधावर्जितमवस्थान जीवस्याऽसौ मोल । - श्रभि रा खंड १ पृ ४९१ ३ सव्वे सरा नियट्टति, तक्का तत्व न विज्जइ, मइ तत्थ न गाहिया, उवमा न विज्जए, अरूवीसत्ता, प्रपयस्स पय णत्थि ।' आचा ११५।६।१७१ ४ 'यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' - तैत्तरीय २१९ ५ 'न चक्षुषा गृह्यते, नाऽपि वाचा --- मुडक १४४ ] [ निर्वाणन्त्र -कल्याणक Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तव मे निर्वाण प्रात्मा के परिपूर्ण विकास का नाम है, इसमे कोई सन्देह नही। इसी कारण साधक के लिये जीवन का अन्तिम लक्ष्य, अन्तिम इष्ट और चरम प्राप्तव्य यदि कोई हो सकता है तो वह निर्वाण ही है । जहा उसे इतने अनन्त ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, वहा उसे सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशक पदार्थों की जरूरत नही रहती', न पृथ्वी, पानों, हवा आदि की ही जरूरत रहती है, क्योकि वहा सिर्फ ज्योतिर्मय चैतन्य है, शुद्ध प्रात्मद्रव्य है, शरीर का सर्वथा अभाव ही है। भगवान के निर्वाण के समय गौतम स्वामी को मनःस्थिति और केवलज्ञान की उपलब्धि भगवान महावीर से दूर बैठे गौतम स्वामी ने कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात को उनके निर्वाणोपलब्धि के समाचार सुने तो वे क्षणभर के लिये तो एकदम स्तब्ध से रह गए। अपने धर्मगुरु महावीर के वियोग के समाचार जानकर उनके हृदय को गहरा धक्का लगा। वे भाव-विह्वल होकर सिसकिया भरने लगे और कहने लगे "प्रभो ! निर्वाण-दिवस का समय निकट जान कर आपने मुझे किस कारण दूर भेजा ? क्या मैं आपके निर्वाण मे वाधक बनता ? हिस्सा वटा लेता? इतने समय तक मैं आपकी सेवा करता रहा. फिर भी अन्तिम समय मे आपने मुझे दर्शनो से वचित क्यो रखा ? अगर इस अकिंचन को भी मोक्ष मे साथ ले जाते तो क्या वहा जगह सकडी हो जाती ? प्रभो! कुछ समझ मे नही आता कि आपने अपने सेवक और प्रिय शिष्य को अन्तिम समय मे अपनी पावन दृष्टि से अोझल क्यो कर दिया? मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया था ? जिसमे आपने मझे अपने पास नही रहने दिया। अव मुझे 'गोयम ।' कह कर कौन सम्बोधन १ न तद् भासयते सूर्यो, न शशाङ्को न पावक । यद् गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परम मम ||-- गीता १५६ २ जत्य आपो न पुढवी, तेजो वायो न गाधति । न तत्य सुक्का जोवति मादिच्चो न पकासति । न तत्य चदिमा भाति, तमो तत्य न विज्जति । उदान० ११० ३ कल्पसूत्र सूत्र १२३, कल्पसून स० १२६, कल्पसूत्र सू० १४६ पञ्च-कल्याणक] [१४५ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेगा? कौन मेरी गकाओ का आत्मीयभाव से समाधान करेगा? लोक मे फैलते हुए मिथ्यात्व के अन्धकार को कौन रोकेगा ? गौतम कुछ क्षणों तक इस प्रकार के विचारो मे डूबते-उतराते रहे, फिर अचानक ही उनके विचारो का प्रवाह बदला-"अरे ! मैं यह क्या सोच रहा हूँ, प्रभु तो वीतराग थे। जिनका नाम ही वीतराग है, वे किसी पर क्यो राग,मोह द्वेष आदि करेंगे? मैं भ्रम मे था, मैं ही उन पर मोह रख रहा था, वे तो मोह-मुक्त थे।" यह जानकर उन्होने आत्मा मे अवधिज्ञान का प्रयोग किया और अवधिज्ञान के प्रकाश में अपने आपको मोह-युक्त पाकर विक्कारा तया मोहवश वीतराग को उपालम्भ देने के अपने अपराध के लिये क्षमा-याचना करके पश्चात्ताप किया और फिर शुक्ल ध्यान मे प्रविष्ट होकर आत्मचिन्तन करने लगे एगोऽहं नत्यि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्स वि। एवमप्पाण मणसा अदोणमणुसासए ।। मैं अकेला हू, वास्तव मे मेरा कोई नही है और न मैं किसी का हू, इस प्रकार मन से विचार करके अदीन आत्मा पर अनुशासन करना चाहिए।' इस प्रकार चिन्तन करते-करते उन्होने चार घाती कर्मो को नष्ट कर डाला । वे राग की कडी तोडते ही उसी क्षण वीतराग बन गए, उन्हे केवल ज्ञान और केवल-दर्शन उपलब्ध हो गया। यह था भगवान महावीर के निर्वाणवादी होने का प्रत्यक्ष प्रमाण, उन्होने अपने निर्वाण-दीप को जलाने के साथ अनेको मुमानो के निर्वाण-दीप भी पालोकित कर दिये। निर्वाण के बाद देवो का आगमन और पार्थिव शरीर का दिव्य संस्कार भगवान महावीर के निर्वाण के कारण पावापुरी धन्य हो उठी, पावापुरी का नाम अमर हो गया। देवी-देवो ने जब यह जाना कि तीर्थकर महावीर को निर्वाण प्राप्त हो गया है, तो वे वहा से अपने १ कल्पसून पृ० २८३ । [निर्वाण-कल्याणक Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने विमानो मे बैठ कर पावापुरी को ओर चल पडे। देवीदेवो के आवागमन के कारण वहां दिव्य प्रकाश हो उठा । सारी पावापुरी प्रकाश से जगमगा उठी। जहा देखो, वही देव-देवियो का मेला सा लग गया। देव-देवियो और मानवो के अपार जमघट के कारण सारी पावापुरी गूज उठी। जहा देखो वही भगवान महावीर के निर्वाण की चर्चा हो रही थी। देवो ने मिलकर निर्वाण-प्राप्त भगवान महावीर के पार्थिव शरीर का दिव्य सस्कार किया। सबने प्रभु के भव्यगुणो की परिपूर्ण स्तुति की। देवों और मानवो द्वारा निर्वाण-कल्याणक उत्सव जिस रात्रि मे भगवान् ने निर्वाण प्राप्त किया, उस रात्रि को काशी-कौशल देश के नौ मल्लवी और नी लिच्छवीवशीय गण राजा पौषध मे थे। उन्होने तथा वहा उपस्थित समस्त जनता ने भगवान् महावीर का निर्वाण-कल्याणक-उत्सव मनाने का विचार किया। देवगण भी वहा उपस्थित थे, उन्होने भी इसमे योगदान देने का निश्चय किया। तीर्थङ्करो के निर्वाण को भी कल्याणक का रूप इसलिये दिया गया है, क्योकि उनके जन्म की तरह निर्वाण भी अनेक लोगो के कल्याण एव एकान्त सुख का कारण होता है। कल्याणक का अर्थ है जो अपने लिये और सासारिक प्राणियो के लिये कल्याणरूप फल का कारण हो, जो परमश्रेय का साधन हो, अनर्थोपरामकारक हो, एकान्तप्रियसुखावह हो, और मुक्ति का कारण हो। भगवान् महावीर का निर्वाण भी इन सभी लक्षणो से युक्त था, प्रतः उसको भी निर्वाण-कल्याणक' का रूप दिया गया। सचमुच भगवान् महावीर की निर्वाण-साधना एव निर्वाण-प्राप्ति से अनेक लोगो १ कल्याणकः प्रात्मन परेषा जीवाना च क्ल्याणफलत्वादि लक्षण. नि.श्रेयमसाधनानि कल्याणफलानि च । कल्याणक. एकान्तसुकान्तसुखावहे-पुण्ये कर्मणि, मनर्थोपरामकारिणि क्ल्यो मोक्षस्तमानयतीति कल्याणक मुक्तिहेतो। -अभिधानराजेन्द्रकोप पञ्च-कल्याणक] [ १४७ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कल्याण हुआ है, उनका अपना तो परमकल्याण हुआ ही है। जो लोग अज्ञानान्धकार मे, भ्रम मे या मिथ्यात्व की दलदल मे फसे हुए थे, उन्हें भगवान महावीर की निर्वाणसाधना और निर्वाणप्राप्ति से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रेरणा मिली। किसी भी हीन से हीन दशा मे पडा हुमा आत्मा भी खासतौर से मानव. विना किमी देव या अन्य शक्ति का सहारा लिये, आत्म-पुरुषार्थ से निर्वाण तक पहुच सकता है, इस बात को भगवान महावीर के जीवन से जान कर अनेक आत्मानो ने कल्याण का मार्ग प्राप्त किया, निर्वाण-पथ पर चलने के लिये उद्यत हुए । इसी बात को आम जनता मे उजागर करने और सर्वसाधारण के लिये निर्वाण-कल्याण का मार्ग सुलभ करने के लिये तथा पुण्यलाभ की दृष्टि से देवों और मानवो ने मिल कर निर्वाण-कल्याणक उत्सव मनाया । महावीर-निर्वाण की स्मृति में दीपावलोपर्व का प्रारम्भ ___ भगवान महावीर की निर्वाण-रात्रि को सारी पृथ्वी दिव्य प्रकाश मे आलोकित हो उठी थी, किन्तु उनके पार्थिव शरीर का दिव्यसस्कार करने के बाद वहा उपस्थित सभी राजानो ने विचार किया कि हमारे बीच मे से ज्ञान का (भाव) महाप्रकाश उठ गया है, सदा के लिये हम से विदा ले कर वह भावोद्योत चला गया है,' समस्त ससार अन्धकाराच्छन्न हो गया है। इसीलिये देवो ने द्रव्योद्योत किया है। अत अब हमे भी उनकी स्मृति मे निर्वाण के प्रतीक के रूप मे द्रव्योद्योत (बाह्य प्रकाश) करना चाहिए। इसके लिये हम सकल्प करते हैं कि प्रतिवर्ष हम इस दिन दीप जला कर द्रव्य-प्रकाश किया करेगे । तब से प्रतिवर्ष इस दिन दीप जला कर प्रकाश करने से दीपावलीपर्व प्रारम्भ हा।' जैन-इतिहास मे दीपावली पर्व के श्रीगणेश का यह ज्वलन्त १ गते से भावुज्जोए दव्वुज्जोय करिस्सामो'-कल्पसूत्र सू० १२७ २ ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया, सुरासुरैर्दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्तत , प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ।। ततस्तु लोक: प्रतिवर्पमादरात् प्रसिद्धदीपालिकयाऽन्न भारते। समुद्यत. पूजयितु जिनेश्वर, जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ।। -हरिवंश पुराण, [निर्वाण-कल्याणक १४८ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण है । सचमुच उस समय आम जनता की यह पुकार थी कि हमारे बीच मे से ससार की एक दिव्य विभूति उठ गई है। किसी ने यह भी कहा-अब हम जैसे मानसिक दृष्टि से दुर्वल व्यक्तियों का कोई सहारा नही रहा। कई लोगो की अन्तर्ध्वनि थी-आज ससार महावीर के चले जाने मे शोभाविहीन हो गया है। किसी ने कहा-मसार आज ज्ञान-दिवाकर के अस्त हो जाने मे अन्धकारमय हो गया है। इन सब कारणो को ले कर इसी दिन दीपपर्व प्रारम्भ करने के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं। शक द्वारा की गई स्तुति मे भी भगवान् को 'लोगप्पइवाण'--कह कर 'लोकप्रकाशक प्रदीप' बताया गया है। मानतु गाचार्यकृत स्तोत्र मे भी तीर्थङ्कर भगवान् के लिये कहा गया है-दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाश' अर्थात्-'हे नाथ | आप जगत् को प्रकाशित करनेवाले दूसरे दीपक हैं। ____ यहा का होती है कि भगवान् महावीर से पहले भी २३ तीर्थड्वर हो चुके हैं और उनका निर्वाण भी रात्रि में ही हुआ था, फिर क्या कारण है कि भगवान महावीर के निर्वाण-दिवस को ही दीपावली के रूप मे मनाया गया, अन्य तीर्थङ्करों का निर्वाण दिवस भी दीपावली के रूप मे मनाया जाना चाहिये था ? इसके समाधान के रूप मे यह कहना है कि श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण बसती (नगरी) में हुआ था, वह भी धर्मदेशना देते हुए । जबकि शेष २३ तीर्थङ्करो का निर्वाण वनो या पर्वतो मे हुआ था, नगर या वसती मे नही और न ही धर्मोपदेश देते हए हुआ । सभव है उनके निर्वाण के समय कोई राजा या, विशिष्ट भक्त आदि के उपस्थित न रहने से ऐसा न हुआ हो । मान लो कि राजा ग्रादि की उपस्थिति २३ तीर्थङ्करो मे से किसी के निर्वाण के समय रही भी हो तो भी किसी को यह विचार न सूझा हो कि हम इन तीर्थडरो की निर्वाण-तिथि को दीपावली के रूप मे मनाए। ऐसी स्थिति मे अन्य तीर्थङ्करो के निर्वाण को दीपावली के रूप में मनाने का प्रश्न ही नही उठता। महावीर-निर्वाण के साथ 'भैयादूज' का सम्बन्ध । भगवान् महावीर के निर्वाण के समाचार विद्युद्वेग की तरह पञ्च-कल्याणक] [१४९ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारो ओर फैल गए थे। निर्वाण का वृत्तान्त जब भगवान् के ज्येष्ठ भ्राता राजा नन्दीवर्धन को मिला तो वे अत्यन्त शोक-विह्वल हो गए। उनके नेत्रो से अश्रु-धारा बह चली। उनका मन भ्रातृवियोग में खिन्न हो गया। बहन सुदर्शना ने उन्हे अपने यहां बुला कर और विभिन्न युक्तियो से समझा-बुझा कर सान्त्वना दी और उनका मोह व शोक दूर किया। वह तिथि कार्तिक शुक्ला दूज थी। तभी से वह तिथि 'भैयादूज' (भ्रातृ-द्वितीया) के पर्व के रूप में मनाई जाती है और भगवान् महावीर के निर्वाण का पुण्य-स्मरण किया जाता है। निर्वाण-समय के भस्म ग्रह का संघ पर प्रभाव ___कहा जाता कि श्रमण भगवान् के परिनिर्वाण का समय निकट जानकर शवेन्द्र पाए और हाथ जोडकर निवेदन करने लगे-"हे नाथ | आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान के समय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था और इस समय उसमे भस्मक ग्रह सक्रान्त होनेवाला है, आप श्री के जन्म-नक्षत्र मे सक्रान्त वह ग्रह दो हजार वर्ष तक आपके श्रमणश्रमणियो की अभिवृद्धि (पूजा-सत्कार आदि) को कम करता रहेगा, अत. कृपा करके आप अपनी आयु के क्षणो को बढा ले, ताकि तब तक यह भस्मैग्रह आपके जन्म-नक्षत्र से सक्रान्त कर जाय, क्योकि आपकी विद्यमानता मे यदि यह कुग्रह सक्रमण कर जायेगा तो आपके प्रबल प्रभाव से स्वत निष्फल हो जायगा, अत एक क्षण तक अपनी जीवन घडी को दीर्घ करके प्रतीक्षा करे, जिससे इस दुष्ट ग्रह का प्रभाव शान्त हो जाए।" __ इन्द्र की इस अभ्यर्थना पर भगवान् ने कहा---'इन्द्र | तुम यह जानते हो कि आयुष्य के क्षणो को न्यूनाधिक करने को शक्ति किसी मे भी नहीं है, फिर भी तुम सघ-भक्तिवश इस प्रकार की अनहोनी बात कह रहे हो । आगामी दुषमकाल के प्रभाव से तीर्थ को हानि पहुचने वाली है, उसमे भवितव्यता के अनुसार यह भस्मक ग्रह भी अपना फल दिखलाएगा हो।" १ कल्पसून सुवोधिनी टीका। २ महावीर चरिय । १५.] । निर्वाण-कल्याणक Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सवाद से तथा कल्पसूत्र मे निर्दिष्ट प्राचार्य भद्रबाहु के भविष्य-कथन मे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण-समय के भस्मक ग्रह के योग मे आगामी दो हजार वर्षों तक प्रमणसघ का गौरव कम होता रहा है, किन्तु वहां यह भी स्पष्ट कयन है कि दो हजार वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर भस्मराशि ग्रह के समाप्त हो जाने पर श्रमण-श्रमणियो की उन्नति, सत्कार, सम्मान, गौरव एवं महत्ता मे दिनोदिन अभिवृद्धि होगी। निर्वाणरात्रि में उत्पन्न सूक्ष्म जीव राशि से भविष्य का संकेत जिस रात्रि मे तीर्थकर महावीर का निर्वाण हुआ था उस रात्रि मे जो पाखो से सहसा न दिखाई दें और जिनकी रक्षा न हो सके. ऐसे कुन्थुवा नामक सूक्ष्म जीवो की राशि उत्पन्न हो गई। यह जीव इतना सक्षम होता है कि स्थिर होने पर हलन-चलन न करने के कारण छद्मस्थ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थनियो को दृष्टिगोचर ही नहीं होता । अत भगवान् महावीर के बहुत से निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थनियो ने इन जोवो की उत्पत्ति को जीव-रक्षा (सयम) के लिये दुराराध्य मानकर आमरण अनशन स्वीकार कर लिया था। सचमुच, यह अनशन इस बात का संकेत था कि आज से संयम का पालन अत्यन्त दुष्कर हो जायगा। अस्तु जो भी हो इस पचमकाल मे सयम-पालन बहुत ही कठिन हो गया है। इसे काल का प्रभाव कहे या दुष्टग्रह का फल कहे, पर यह तो स्पष्ट है कि इस वक्र जडयुग मे सारे ही सघ पर सयम-हानि की कर दृष्टि पड़ी हुई है, सारा ही सघ ग्राज इसकी काली छाया से प्रभावित निर्वाणोत्तर सव-संचालन सूत्र किन-किन हाथों में ? भगवान महावीर जव तक जीवित थे, तब तक शासन-व्यवस्था उनके मार्ग-निर्देशन के अनुसार सुन्दर ढग से चलती थी, परन्तु भगवान महावीर ने अपने जीवन-काल मे इन्द्रभूति गौतम आदि ११ श्रमणो को गणधर बनाकर अपने भिक्षु-सघ की श्रुत-न्त्रवस्था ११ गणधरो मे १. कल्पसून मू० १२८, १२९, १३० । २. कल्पसूत्र सू० १३१, १३२ । पञ्च-कल्याणक] [१५१ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्त कर दी। ये ११ गणधर अपने-अपने गण के अन्तर्गत सावुनो को शास्त्र-वाचना देते थे, उन्हे प्रवचन-कुशल एव चारित्र मे मुदृढ बनाते -थे, किन्तु इन सब का मुख्य सचालन-मूत्र भगवान महावीर के पट्ट शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम के हाथो में था। तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना करके इन्द्र भूति आदि गणधरो को 'उप्पन्नेई वा, विगमेई वा, धुवेई वा' (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) यह त्रिपदी प्रदान की। इसी त्रिपदी के आधार पर गणवरों ने द्वादशाग गणिपिटक की रचना की, जिसमे तत्त्वज्ञान, आचारसहिता, सिद्धान्तबोध, व्यावहारिक ज्ञान नीति का प्रतिपादन, प्रमाण, प्रमाण-नय, निक्षेप, अनेकान्तवाद स्याहाद आदि का स्पष्ट मार्ग-दर्शन था । इस गणिपिटक के आधार पर ही विभिन्न गणो के साधुओ को वाचना दी जाती थी। सारे भिक्षु-मघ को इन ग्यारह गणधरो के नौ गणो मे विभक्त कर दिया गया था। प्रथम सात गणधरो की सात वाचनाएं थी। अकम्पित और अचलभ्राता दोनो गणवरो की समान वाचना होने से दोनो का एक गण हुमा तथा मैतार्य और प्रभास गणधर की भी एक सी वाचना होने से इन दोनो का गण भी एक ही हुया । इस प्रकार वाचना की दृष्टि से नौं गण हुए। किन्तु भगवान महावीर के निर्वाण से पहले ही इन ग्यारह गणधरो मे से इन्द्रभूति और सुधर्मा स्वामी को छोड़ कर बाकी के नौ गणधर निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो चुके थे और इन्द्रभूति गौतम को भी जिस रात्रि मे भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ उसी रात्रि के अन्तिम प्रहर मे केवलज्ञान हो चुका था । इसलिये संघ के सचालन का नायकत्व प्रार्य सुधर्मा स्वामी पर पाया। सुधर्मा स्वामी जी ने कुशलता-पूर्वक सघ का नेतृत्व किया। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद २५०० वर्षों में संघ की स्थिति निर्वाणवादी श्रमण भगवान महावीर ने चतुर्विध श्रमण-सघ १ कल्पसून घासी लाल जी महाराज की टीका, सून ११४ २ कल्पसूत्र चूर्णि, सूत्र १२६ - १५२] [निर्वाण-कल्याणक Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की स्थापना किसी साम्प्रदायिक उद्देश्य से या मत-पथ के प्रसार की दृष्टि से नहीं की थी। उनका एकमात्र उद्देश्य यही था कि अज्ञान के अन्धकार में भटकती हुई जनता ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप शुद्ध धर्म की आराधना संगठित होकर एक विचारसूत्र मे वध कर करे। इसीलिये भगवान महावीर की स्तुति मे उन्हे जैन या किसी भी मत पथ या सम्प्रदाय के संस्थापक न कह कर 'धम्मतित्थयरे जिणेधर्ममय तीर्थ (संघ) की स्थापना करनेवाले जिन कहा गया है। यही कारण है कि भगवान महावीर के धर्म-सघ मे सभी वर्गों के स्त्री और पुस्प, साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका के रूप मे पाए, उन्होने सघ की उन्नति के लिये भरसक प्रयत्न किये । परन्तु भगवान महावीर के निर्वाण को २५०० वर्ष हुए, इस लम्बी अवधि के इतिहास से पता लगता है कि इस दीर्घकाल के दौरान वडी-वडी क्रान्तिया हुई, अनेक ज्योतिर्धर युगद्रष्टा आचार्य हए, जिन्होने समाज के रथ-चक्र को समय की धुरी पर टिकाने का भरसक प्रयत्न किया, फिर भी खेल के मैदान मे इधर-उधर उछल जानेवाले फुटवाल की तरह समाज भी बीच-बीच मे अपने केन्द्रस्थल से हट कर इधर-उधर उछलते रहे, भटकते रहे। पहले कहा जा चुका है कि भगवान महावीर के निर्वाण के समय नो उनकी जन्म-राशि पर भस्मग्रह चल रहा था उसके प्रभाव से श्रीसंघ मे दो हजार वर्ष तक क्रमश ज्ञान-दर्शन-चारित्र मे न्यूनता पाएगी। इस भविष्य कथन के अनुसार सघ मे ज्ञान-दर्शन-चारित्र की न्यूनता और गौरव मे कमी के लक्षण अवश्य प्रकट हुए और वीर लोकाशाह के काल तक जैन-सस्कृति को अनेक अवरोधो का सामना करना पड़ा। यह तो स्पष्ट विदित होता है कि भगवान महावीर के समय मे जिनकल्पी और स्थविर कल्पी दोनो एक-दूसरे का आदर करते हुए, अपनी-अपनी सयम-चर्या के अनुसार वर्माचरण करते हुए, एक सूत्र मे ग्रथित रहते थे। हालाकि जिनकल्पी वस्ती से दूर जगलो और उपवनो पर्वतो आदि मे रहते थे और स्थविरकल्पी समाज से सम्पर्क रखते हुए अपनी साधना करते थे, परन्तु दोनो के बीच मे कोई खाई नही थी, दोनो एक-दूसरे से मिलते रहते थे, दोनो भगवान महावीर के शासन की छत्र-छाया मे चलते थे। पञ्च-कल्याणक] [ १५३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु भगवान महावीर के निर्माण के बाद श्री जम्बू स्वामी तक निर्वाण-प्राप्नि (मोक्ष-गमन) का सिलसिला चलता रहा। बाद में भरत-क्षेत्र से निर्वाण-प्राप्ति का सिलसिला बन्द हो गया। उसके बाद जिनकल्प, केवलज्ञान मन.पर्यवज्ञान एव परम अवधिज्ञान ग्रादि दम बातो का भी क्रमश विच्छेद हो गया । इस ह्रास का भगवान महावीर के धर्मसंघ पर भी बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। आज जो भी श्रमण-श्रमणिया इस भरत-क्षेत्र मे विचरण कर रहे हैं, वे सब आर्य-सुधर्मा स्वामी की शिष्य-परम्परा के ही है। अव दो हजार वर्ष बीत चुके हैं, भस्मक ग्रह का प्रभाव समाप्त हो चुका है, अत अब श्रमण-सस्कृति का मेघाच्छन्न सूर्य पुनः प्रकाशित होने लगा है। वैसे तो भगवान महावीर के निर्वाण मे दो हजार वर्ष बाद वीर लोकाशाह के काल मे ही जैनधर्म धुन. प्रभावशील होकर जाग उठा था, परन्तु पच्चीसवी निर्वाण-शताब्दी के रूप मे हो रही जैन-सस्कृति की प्रभावना जैन-सस्कृति के उज्ज्वल भविष्य का दर्गन करवा रहो है। विदेशो मे शाकाहारी सोसायटियो की स्थापनाए हो रही हैं, शराव-विरोधी अभियान चल रहे है, अमेरिका से 'अहिंसा' नामक पत्रिका निकल रहो है । जिसको सदस्य-सख्या तीन लाख बताई जा रही है। ये सव कार्य जैन-सस्कृति के प्रचार और प्रसार के ही अग हैं । अनेकान्तबादी जैन-सस्कृति के चारो सम्प्रदायो के एकता की ओर वढते कदम भी शासन-प्रभाव के विस्तार मे सहयोगी बनेगे, यह मेरा विश्वास है । मेरा यही विश्वास प्रभु-चरणो मे वन्दनाए अर्पित कर रहा है। १ कल्पसून टीका पृ० २८३मण परमोहि-गुलाए, आहार-खबग उसमे कप्पे । मजमतिग केवल सिज्मणा या जम्बूम्मि वुच्छिण्णा । जैन परम्परा नो इतिहास भा~१९७२ १५४ } [ पञ्च-कल्याणक Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप-ताप-दुख हरनेवाली, श्री जिनेन्द्र की वाणी । पत्नत्रय मे मण्डित जग हित बन जाए कल्याणी ।। महावा-वचन- जैन-धर्म दिवाकर पंजाब प्रवर्तक मुनि श्री फूलचन्द जी 'श्रमण' Page #186 --------------------------------------------------------------------------  Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर-वचनामृत आचारांग सूत्र १ उवहेएण बहिया य लोग से सव्व लोगम्मि जे केइ विष्णू । १४१३ २ नो उच्चावर्य मणं नियंछिज्जा। २१३१ ३ पुरिसा। प्रत्ताणमेव अभिणिगिज्झ एव दुक्खा पमुच्चसि । जो व्यक्ति अन्य धर्मावलम्बियो के प्रति भी तटस्थ रहता है अन्य धर्मो की मान्यताग्रो से उद्विग्न नही होता वही विद्वानो मे श्रेष्ठ माना जाता है। सकट की घडियो मे मन को डावाडोल मत होने दो।। मानव । अपने आप पर स्वय नियन्त्रण करो। अपने आप पर नियन्त्रण करने पर ही तू दुखो से छुटकारा पा सकता है। १३३ ४ सम्वनो पमत्तरस भय सवयो अपमत्तस्स नत्यिभय। जो असावधान है उसे सब पोर से भय रहता है सावधान के लिये कही से भी भय नही रहता। १।३।४ ५ जे एगं नामे से बहुँ नामे। ११३१४ जो अपने आपको झुका लेता है, उसके सामने सारी दुनिया झुक जाती है। [१५५ पञ्च-कल्याणक] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ नाणागमो-मुच्चु मुहस्स प्रथि। १४२ ७ नो निन्हवेज्ज वीरियं । ११५३ मृत्यु के मुख मे पड़ा हुआ व्यक्ति मृत्यु से बच जाए यह कैसे सम्भव हो सकता है ? अपनी शक्ति को छिपाना नही चाहिए, बल्कि अपनी गति से काम लेना चाहिए। न अपना तिरस्कार करो और न ही दूसरों का। ८ नो अत्ताणं प्रासाएज्जा नो परं आसाएज्जा १९६५ ह गाम वा अदुवा रणे, नेव गामे धर्म गाव मे भी हो सकता नेव रणे धम्ममायाणह। है और वन मे भी, क्योकि वस्तुत ११ धर्म न गाव मे है, न वन मे, धर्म तो आत्मा मे है। १० समियाए धम्म पारिएहि पवेइए। आर्य महापुरुषो ने सबसे समान ११ व्यवहार को ही धर्म कहा है। ११ लोभपत्ते लोभी समावइज्जा मोस वयणाए। २।३।१५ लोभी व्यक्ति लोभ का अवसर आते ही झूठ बोलने पर उतारू हो जाता है। सूत्र-कृतांग १२ तमामो ते तमं जन्ति । वे मूर्ख व्यक्ति अन्धकार की मंदा प्रारम्भ निस्सिया। ओर ही जाते हैं जो दूसरो को १।१।१।१४ पीडित करते हैं। १३ समुपाय मजाणता कह नायति संवर। १1१1३।१० जो दुख की उत्पत्ति के मूल कारण को नही समझता वह उसे दूर करने के कारण को कैसे जान सकता है ? [ महावीर-वचनामृत १५६) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. वाले पाहि मिज्जति १।२।२।२१ मूर्ख व्यक्ति अपने द्वारा किए हुए पाप-कर्म पर भी अभिमान करता १५. मा पच्छ प्रसाधुता भवे, भविष्य मे दुःखो से बचे रहो, अच्चेही अणुसास अप्पगं इसलिये अभी से अपने आप पर १२।३७ नियन्त्रण करो। १६ इणमेव खण वियाणिया । वर्तमान का क्षण ही महत्व पूर्ण हैं, १।२।३।१९ । अत. उसका सदुपयोग करलो । १७. जेहिं काले परक्तं जो समय पर अपना कार्य न पच्छा परितप्पए कर लेते हैं, वे वाद मे पछताते १३३१४१५ नही । १८. सयं सयं पसंसता, गरहता परं वयं, जे उ तत्य विउस्संति, संसार ते विउस्सिया ११।२।२३ जो अपनी या अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरो की तथा दूसरो के मत की निन्दा करते है, जो सत्य की उपेक्षा कर देते हैं, ऐसे ही लोग आवागमन के चक्र मे फसे रहते हैं। कभी किमी से लड़ाई-झगडा मत करो, लडाई झगडे से बहुत हानि होती है। १६. अठे परिहायतो बहुं, । अहिगरणं न करेज्ज पंडिए १।२।२।१९ २०. जहा कड कम्म तहासि भारे ११।२६ जैसा काम करोगे. वैसा ही फल भोगोगे । २१ दुक्खेण पुढे धूयमायएज्जा १७।२९ विपत्ति आ जाने पर मन को स्थिर रखना चाहिए । २२. अणुचितिय वागरे जब बोलो । सोच-विचार कर बोलो। ११९/२५ पञ्चकल्याणक] [१५८ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. न यानि पन्ने परिहास कृज्जा १११४११९ बुद्धिमान् वही है जो किसी का उपहास नहीं करता। स्थानांग-सूत्र २४. एगा अहम्मपडिमा ज से पाया परिकिलेसति ११ अधर्म-वृत्ति ही ऐसा विकार है, जिससे प्रात्मा-को कप्ट उठाने पडते हैं। सुकुल २५ तो ठाणाई देवे पोहेज्जा- देवता भी तीन बातो की माणुसं भवं, पारिये खेत्ते जम्म, इच्छा करते है-मनुष्य-जीवन, पच्चायांति आर्य-भूमि मे जन्म और श्रेष्ठ ३१३ कुल की प्राप्ति। २६. तो दुस्सन्नप्पा तीन व्यक्तियो को समझाया दुठे मूढे बुग्गहिए नहीं जा सकता-दुष्ट व्यक्ति ३४ को, मूर्ख व्यक्ति को और वहके हुए व्यक्ति को। २७. पध्वयराइसमाणं कोह, मणुपविठे जीवे कालं, करेइ मेरइएसु उववज्जइ ४१२ पर्वत की दरार के समान अमिट क्रोध व्यक्ति को नरक मे धकेल देता है। २८. चत्तारि अवायणिज्जा अविणीए, विगई पडिबद्धे, अविप्रोसित.. पाहुडे, माई चार व्यक्ति अध्ययन करने के योग्य नहीं होते-अविनीत चटोरा, झगडालू और कपटी। २६. चत्तारि घम्मदाराखती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे ४४ १५८ ] धर्म-मन्दिर के चार द्वार हैक्षमा, सन्तोष, सरल स्वभाव और नम्रता। [ महावीर-वचनामृत Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० चह ठाणेह जीवा, तिरिक्ख जोणिवत्ताए. कम्मं पगति-माइल्लियाए, निडिल्लयाए, श्रलियवयणेणं कूड तुला कूडमाणेणं ४|४ ३१ मोहरिए सच्चत्रयणस्स पलिमंथू अधिक बोलना मत्य का विघातक દાર है । ३२ गिलाणस्स प्रमिलाए वेयावच्च करणयाए प्रसुट्ठेयव्वं भवइ । ६८ ३३ नर्वाह ठाणेह रोगुप्पत्ती सिया श्रच्चासनाए, अहियासणाए, प्रइनिद्दाए, श्रइजागरिएण, उच्चार निरोहेण, पासवण - निरोहेण, श्रद्धाण-गमणेणं, भोयणपडिकूलयाए, इंदियत्थfastaणयाए । ९१९ ३४ चह ठाणेह सते गुणे नासेज्जा- कोहेणं, पडिणिसेवेणं, मिच्छत्ता ४|४ प्रकयण्णुयाए, भिणिवेसेणं । ३५ सवीरिए परायिणति, श्रवीरिए परायिज्जति । पञ्च-कल्याणक ] चार कारणो से जीव पशुयोनि मे जन्म लेते हैं - छल-कपट झूठ करने से, घूर्तता करने से, वोलने से और कम तोलने तथा कम नापने से । ११८ रोगी की सेवा के लिये बिना हिचकिचाहट के तैयार रहना चाहिए । नौ कारणो से रोग उत्पन्न होते हैं - प्रति भोजन से अरुचि कर भोजन से, बहुत सोने से, बहुत जानने, शौच - वाघा रोकने से, मूत्र वाधा रोकने से, अधिक चलने से, प्रकृति-विरुद्ध भोजन करने से और विषय-वासनाओ से अधिक लीन रहने से । भगवती सूत -- चार दुर्गुणो के कारण मनुष्य के सभी गुण नष्ट हो जाते हैंक्रोध, ईर्ष्या, अकृतज्ञता और मिथ्या आग्रह | शक्तिशाली विजयी होता है और शक्तिहीन पराजित होता है । [ १५९ ! Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ भोगी भोगे परिच्चयमाणे महा-णिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । भोगो को भोगने में समर्थ होते हुए भी जो भोगों का परित्याग कर देता है, वहीं कर्म-भार से छूट कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ७७ ३७ एग इसि हणमाणे अणते जीवे हणइ । अहिंसा परायण एक मुनि की हिंसा करनेवाला एक प्रकार से अनन्त जीवो की हिंसा करता ९/३४ ३८. जीवियास-मरण-भय विप्प-मुक्का। ७ ३६ छत्तकडे दुखे, नो पर डे। १७.५ वही व्यक्ति महान है जो जीवन की आशा और मृत्यु का भय दोनो से मुक्त है। तुमने अपने लिये माप ही दुख उत्पन्न किए हैं, अन्य किसी ने नही। जो दूसरो को शान्ति देने का प्रयास करता है, वह स्वयं भी शान्ति पाता है। ४० समाहिकारए ण तमेव समाहिं पडिलन्भइ। ७.१ प्रश्न-व्याकरण-सूत्र १४ ४१ उवणमंति मरणधम्म वडे-बडे राजा महाराजा भी अवित्तत्ता कामाणं। भोग भोगते हुए तृप्त हुए विना ही मर गए, भोगो से कोई भी तृप्त नहीं हो सका। ४२ नत्थि एरिसो जसो पडिबंधो परिग्रह अर्थात् आवश्यकता अत्यि सव्वजीवाणं सवलोए। से अधिक सचय की वृत्ति के १५ समान कोई जाल नही- कोई वन्वन नही। १६० ] [ महावीर-वचनामृत Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ त सच्च भगवं। “सत्य ही भगवान है। રાર ४४ मच्च च हिय च मिय च । गाणं च । सत्य वचन भी ऐसा- बोलना चाहिए जो हितकारी, थोड़े शब्द मे कहा गया हो और जो सब के लिये ग्राह्य हो । २२ ४५ अलियवयण अयसकरं । वेरकरणं, मण-सकिलेसवियरणं । १२ झूठ बोलने से अपयश होता है, पारस्परिक शत्रुता बढती है और मानसिक कष्ट की वृद्धि होती है । ४६ अप्पणो थवणा परेसु निंदा। २१२ अपनी प्रशसा और दूसरो की निन्दा दोनो को भसत्य ही समझो। ४७ भीतो अन्न पि हु मेसेज्जा। स्वय भयभीत होनेवाला व्यक्ति २२ , अन्यो को भी भयभीत कर देता ४८ कुद्धो" सच्च सोलं विणयं हणेज्ज। क्रोध से अन्धा हुआ व्यक्ति सत्य, शील और विनय सवका नाश कर देता है। २१२ ४६ ण भाइयव्व, भीतं ख भया - अइति लहुय कभी डरो मत'! निर्भय रहो। भयभीत के पास ही भय आता है। २।२२ ५० अणुन्नविय गेण्हियन्य २।३ दूसरे की वस्तु को उससे पूछ कर ग्रहण करो। १६१] पञ्च-कल्याणक] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक ५१ धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा सजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो। ११ अहिंसा, सयम और तप ही धर्म है और धर्म ही उत्कृष्ट मगल है । जिसका मन धर्म में स्थिर हो जाता है देवता भी उसे नमस्कार करते हैं। ५२ कहं तु कुज्जा सामण्णं जो कामे न निवारए । जिसने अपनी इच्छा यो पर नियन्त्रण नहीं किया, भला वह व्यक्ति साधक बन कर साधना कैसे कर सकेगा। २१ ५३ कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । जो इच्छायो को दूर कर देता है, उससे दुख स्वय हो दूर हो जाते २१५ ५४ जं सेयं तं समायरे । पर। जो कार्य श्रेयस्कारी हो उसीका आचरण करो। ४१११ ५५ दवदवस्स न गच्छेज्जा। जल्दी-जल्दी मत चलो-हर । कदम सोच-समझ कर उठायो । ५०१ ५६ हसंतो नाभिगच्छेज्जा । मार्ग मे चलते हुए मत हसो । ५२ ५७ सकिलेसकरं ठाण दूरग्रो परिवज्जए। जिस स्थान पर क्लेश की सम्भावना हो वहा से दूर ही रहना चाहिए। ५११६ ५८ - भूलमेयमहम्मस्समहादोस समुस्सयः । दुराचार ही अधर्म का मूल है और सभी बड़े पापो का उत्पत्ति-स्थान है। महावीर-वचनामृत] ६१६ १६२] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ बल थामं च पेहाए, सङ्ग्रामारुरगमप्पणो । खेतं कालं च विन्नाय, तहप्पाण निजुंजए । ८३५ ६०. काले कालं समायरे । ५१२२४ ६१ कुसीलवडणं ठाणं दूरश्रो परिवज्जए । ६१५९ ६२. थोव नधुं न खिसए । ८१२९ ६३ वीयं तं न समायरे । पञ्च-कल्याणक ] ८।३१ ६४. विजयमूले धम्मे पण्णत्ते । २1 ६५ ग्रहं अव्वए वि श्रहं श्रर्वाट्ठिए वि । १1९ ६६ धम्म-विसए वि सुहमा माया होइ प्रणत्याय । कोई भी कार्य करने से पहले छ बातो का ध्यान रखो - शारीरिक शक्ति, मनोवल, ग्रात्मविश्वाम, नैरोग्य, कार्य-क्षेत्र और कार्य का समय एव परिस्थितिया । ज्ञाता-धर्म-कथा 915 जो कार्य जिस समय करना चाहिए उसे उसी समय कर लेना चाहिए । दुराचारी वृत्ति को बढावा देने वाले स्थान से सदा दूर रहो । मन चाहा लाभ न होने पर झुझलाना नही चाहिए । जो भूल एक वार हो जाए उसे दुवारा मत होने दो । धर्म का मूल विनय ही है । आत्मा अव्यय है, अवस्थित अर्थात् अविनाशी है । धर्म - कार्य मे मामूली सा छलकपट भी महान् अनर्थ का कारण बन जाता है । १६३ ] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दो - सूत्र ६७. सुहमो य होइ - कालो काल की गति प्रति सूक्ष्म है । १६२ ६८. खीरमिव जहा हंसा जे घुट्ट ति गुरुगुणसमिद्धा । 呀 विवज्जति इह दोसे तं जाणसु जाणिय परिस ११५२ ६६. सेलघण - कुडंग - चालिणी, परिपुण्णग-हस - महिस- मेसे य । जलूग - विरालो मसग जाहग - गो - भेरि - प्रभारी १५।१ - ७०. सुठुवि मेहसमुदए होइ पभा चंदसूराणं जगं सव्वं वावि सव्वं नेव ७१. सन्च १६४ ] जइ पि ते ताणाय f घणं १।४२ तुहं, भवे । प्रपज्जतं, ' जैसे हंस पानी को छोड़ कर दूध का पान करते हैं, उसी प्रकार अच्छे समाज के लोग दोषो को छोड़कर गुणो को ग्रहण कर लेते हैं । तं तव १४:३९ चौदह प्रकार के श्रोता होते हैचिकने गोल पत्थर मे, मेघ से, घड़े जैसे, छाननी से, छानने के कपड़े जैसे, इस जैसे, भैसे के समान, मेढे के सदृश, "मच्छर जैसे जोक जैसे, बिल्ली से जाहक ( चूहे जैसे प्राणी) जैसे, गाय के समान, नगारे जैसे और अहीरपत्नी जैसे । उत्तराध्ययन मेघो के छा जाने पर भी सूर्य-चन्द्र का प्रकाश तो होता ही है । अर्थात् गणवानो की गुण-गरिमा छिप नही सकती । अगर सारा ससार और संसार की समस्त सम्पदाए तुम्हारी हो जांय तो भी तुझे सन्तोष नही हो सकता और न हो वे सम्पत्तियां तुम्हारी रक्षा कर सकती हैं । महावीर वचनामृत ] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ वित्तेन ताणं न लभे पमते, इमम्मि लोए अदुवा परत्या १६।१४ ७३. खुड्डेह हासं ७४ बहुयं ७५. न ७६. सरिसो ७७ मत ७८. सह कोडं च सिया मा य होइ मएसु कुसग्गे जह योवं चिट्ठइ संसारंग वज्जए १९ तोत्त-गवेसए १४० श्रालवे १1१० पञ्च-कल्याणक ] बालाणं २१२४ प्रोसage, एवं लम्बमाणए मणयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए १०१२ कप्पए ६१२ ७. दुल्हे खलु माणुसे भवे १०१४ इस संसार मे रहनेवाला कोई भी व्यक्ति धन के द्वारा अपनी सुरक्षा नही कर सकता, धन परलोक में भी जीव का रक्षक नही वन सकता | तुच्छ लोगो के साथ सम्पर्क, हसी मजाक और क्रीडा ग्रादि नही करनी चाहिए । बहुत नही बोलना चाहिए । दूसरो को बुराइयों की ओर मत देखो । बुरे के साथ बुरा व्यवहार करना बचपन है । समस्त प्राणियो से मित्रता का व्यवहार करो । जैसे हिलती हुई घास की नोक पर ओस की बूद कुछ समय तक ही ठहर सकती है, इसी प्रकार संसार मे जीवन भी कुछ समय तक ही ठहर सकता है, अत: गौतम । क्षण भर के लिये भी प्रमाद मत करो । - निश्चय ही मनुष्य जन्म का मिलना बहुत दुर्लभ है । १६५ } Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०. अह पचहि ठाणेहि अहकार, क्रोध, प्रमाद, और रोर जेहि मिक्खा न लभई । आलस्य इन पाच के रहते हुए, थभा कोहा पमाएण शिक्षार्थी शिक्षा प्राप्त नहीं कर रोगेणालस्मएण वा सकता। ११३ ८१ पियकरे पियवाई सब के मनचाहे कार्य करनेवाला मे सिक्ख लधुमरिहा एक सवसे प्रिय वोलनेवाला ११११४ अपनी अभीष्ट शिक्षा को प्राप्त करने में सफल होता है। ८२ वेया अहीया न हवति ताणं पाठ करलेने मात्र से वेद तुम्हारी १८११२ रक्षा नही कर सकते। ८३ जस्सत्यि मच्छणा मक्ख, जिसकी मृत्यु से मित्रता है, जो जस्त अत्यि पलायण। मौत से भाग कर बच सकता जे जाणे न मरिस्सामि, है, जिसको विश्वास हो कि मैं सो हु कखे सुए सिया मरू गा, नही वही व्यक्ति कल का १४१२७ भरोसा कर सकता है। ८४. दन्तसोहणमाइस्स अदत्तस्स जिसने चोरी से बचने का व्रत विवज्जण धारण कर लिया है वह और तो १९।२८ क्या दान्त साफ करने का एक तिनका भी विना पूछे नही उठाता । ८५. सज्झाए वा निउत्तण स्वाध्याय करते रहने पर समस्त सबदुक्ख - विमोक्खणे दुःखो से छुटकारा मिल जाता है। २६१० ८६ खमावणयाए ण पल्हायणभाव क्षमाभाव को अपनाने से प्रात्मा जणयइ २६।१७ को प्रसन्नता की अनुभूति होती है। ८७ वेयावच्चेण तिथयर नाम-गोतं सेवा करके मनुष्य "तीर्थङ्कर" निवन्वइ वनने योग्य कर्मों का उपार्जन २९४३ कर लेता है। १६६] महावीर-वचनामृत ] कम्म Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गराधर-परिचय परिशिष्ट मध्यमा पावा के समवसरण मे जिन ग्यारह विद्वानो ने भगवान के पास अपनी गकाग्रो का समाधान करके दीक्षा ली थी, वे विद्वान् भगवान महावीर के प्रथम शिष्य कहलाए । अपनी असाधारण विद्वत्ता, अनुशासनकुशलता तथा प्राचारदक्षता के कारण ये भगवान के गणधर बने। गणधर भगवान के गण (सब) के स्तम्भ होते है । तीर्थङ्करो की अर्थरूप वाणी को सूत्ररूप मे ग्रथित करनेवाले कुगल शब्द-शिल्पी होते हैं । भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे। जिनका परिचय निम्न है - १ इन्द्रभूति (गौतम) इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के प्रधान शिष्य थे । मगध की राजधानी राजगृह के पास गोबर गाव उनकी जन्मभूमि थी । जो आज नालन्दा का ही एक भाग माना जाता है। उनके पिता का नाम वमुभूति और माता का नाम पृथ्वी था। ___ यह कहना कठिन है कि इन्द्रभूति गौतम का गोत्र क्या था, वे किस ऋषि के वश से सम्बद्ध थे? किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि गीतम गोत्र के महान गौरव के अनुरूप ही उनका व्यक्तित्व विराट् व प्रभावशाली था। दूर-दूर तक उनको विद्वत्ता को धाक थी । पाच सौ छात्र उनके पास अध्ययन के लिये रहते थे। उनके व्यापक प्रभाव से प्रभावित होकर ही सोमिलार्य ने महायन का नेतृत्व उनके हायो मे सौपा था। पचास वर्ष की आयु मे आपने पाच सौ छात्रो के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की, तीस वर्ष तक छद्मस्थ' और बारह वर्ष जीवन्मुक्त केवली • रहे। गुणशील चैत्य में मासिक अनशन करके बानवे वर्ष की आयु मे उन्होने निर्वाण को प्राप्त किया। १ साधनावस्था पञ्च-कल्याणक] [ १६७ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. अग्निभूति अग्निभूति, इन्द्रभूति गौतम के मझले भाई थे। छयालीस वर्ष की अवस्था मे अपने पाचसो छात्रो के साथ दीक्षा ग्रहण को । वारह वर्ष तक छद्मस्थावस्था मे सयम- पालन कर केवलज्ञान प्राप्त किया । सोलह वर्ष तक केवली अवस्था में विचरण कर भगवान महावीर के निर्वाण से दो वर्ष पूर्व राजगृह के गुणशील चैत्य में मासिक अनशन कर चौहत्तर वर्ष की अवस्था मे निर्वाण को प्राप्त हुए । ३. वायुभूति ad ये इन्द्रभूति के लघु भ्राता थे । बयालीस वर्ष की अवस्था मे गृहवास को त्याग कर श्रमण-धर्म स्वीकार किया था। दस वर्ष छद्मस्थावस्था मे रहे । श्रठारह वर्ष केवली अवस्था मे रहे । इन्होने सत्तर वर्ष की अवस्था मे राजगृह के गुणशीलचैत्य में मासिक अनशन के साथ निर्वाण प्राप्त किया । ४ श्रार्यव्यक्त ये कोल्लागसन्निवेश के निवासी थे और भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे । उनके पिता का नाम धनमित्र और माता का नाम वारुणी था । पचास वर्ष की अवस्था मे पाच सौ छात्रो के साथ श्रमण-धर्म स्वीकार किया । बारह वर्ष तक छद्मस्थावस्था मे रहे और अठारह वर्ष तक वेब्लीअवस्था, मे रह कर अस्सी वर्ष की अवस्था मे मासिक अनशन के साथ राजगृह के गुणशीलचैत्य मे निर्वाण को प्राप्त हुए । ५. सुधर्मा ये कोल्लागसनिवेश के निवासी अग्नि वैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता धम्मिल थे और माता भद्दिला थी । पाच सौ छात्र इन के पास अध्ययन करते थे । पचास वर्ष की अवस्था मे शिष्यो के साथ प्रव्रज्या लो । बयालीस वर्ष पर्यन्त छद्मस्थावस्था मे रहे । महावीर के निर्वाण के वाद वारह वर्ष व्यतीत होने पर केवली हुए और आठ वर्ष तक केवली अवस्था मे रहे । १६८ [ गणधर परिचय Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण भगवान के सभी गणधरों मे से सुधर्मा स्वामी दीर्घजीवी थे, अत' अन्य गणंधरों ने अपने अपने निर्वाण के समय अपने-अपने गण सुधर्मा स्वामी को समर्पित कर दिये थे। महावीर-निर्वाण के १२ वर्ष बाद सुधर्मा जी को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ और वीस वर्ष के पश्चात सौ वर्ष की अवस्था मे उन्होने मासिक अनशन पूर्वक राजगृह के गुणशील चैत्य मे निर्वाण प्राप्त किया। ६. मण्डिक मण्डिक मौर्यसनिवेश के रहनेवाले वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम धनदेव और माता का नाम विजयादेवी था। इन्होने तीन सौ पचास छात्रो के साथ त्रेपन वर्ष की अवस्था मे प्रवज्या ली और सतसठ (६७) वर्ष की अवस्था मे केवलज्ञान प्राप्त किया। तिरासी वर्ष की अवस्था मे गुणशील चैत्य मे निर्वाण को प्राप्त हुए। ७. मौर्यपुत्र ये कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम मौर्य और माता का नाम विजयादेवी था। ये मौर्यसनिवेश के निवासी थे। तीन सौ पचास छात्रो के साथ त्रेपन वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली। उनासी वर्ष की अवस्था मे वेवलज्ञान प्राप्त किया और भगवान महावीर के जीवन के अन्तिम वर्ष मे तिरामी (८३) वर्ष की अवस्था मे मासिक अनशन पूर्वक राजगृह के गुणशील चैत्य मे निर्वाण प्राप्त किया। ८ अकम्पित ये मिथिला के रहनेवाले गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे, इनके पिता देव और माता जयन्ती थी। तीन सौ छात्रो के साथ अठतालीस वर्ष की अवस्था मे दीक्षा ली। सत्तावन वर्ष की अवस्था मे केवलज्ञान प्राप्त किया और भगवान महावीर के जीवन के अन्तिम वर्ष मे अठासी वर्ष की अवस्था मे राजगृह के गुणशील चैत्य मे निर्वाण प्राप्त किया। ६. अचलभ्राता ये कौशला ग्राम के निवासी हारीत गोत्रीय ब्राह्मण थे। आपके पञ्च-कल्याणक] [१६९ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता वसु और माता नन्दा थी। तीन सौ छात्रों के साथ छयालीस वर्ष की अवस्था मे श्रमणत्व स्वीकार किया । बारह वर्ष तक छत्रस्यावस्था मे रहे और चौदह वर्ष केवली अवस्था में विचरण कर बहत्तर वर्ष की अवस्था मे मासिक अनगन के साथ राजगृह के गुणशीलचैत्य मे निर्वाणको प्राप्त हुए । १० सेतार्य ये वत्सदेशान्तर्गन तुङ्गिक सन्निवेश के निवासी कौडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम दन्त चौर माता का नाम वरुण देवी था । इन्होने तीन सौ छात्रा के साथ छतीम वर्ष की अवस्था मे दीक्षा ग्रहण की। दस वर्ष तक छद्यस्थावस्था मे रहे और सोलह वप तक केवली अवस्था मे भगवान महावीर के निर्वाण से चार वर्ष पूर्व वासउ वर्ष की अवस्था मे राजगृह के गुणशीलचैत्य मे निर्वाण प्राप्त किया । ११, प्रभास - ये राजगृह के निवासी, कौडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम वल और माता का नाम प्रतिभद्रा था । सोलह वर्ष की अवस्था में श्रमण धर्म स्वीकार किया । ग्राठ वर्ष तक छद्मस्थावस्था में रहे और सोलह वर्ष तक केवली अवस्था मे । भगवान महावीर के सर्वज्ञ जीवन के पच्चीस वर्ष मे राजगृह मे मासिक अनशन पूर्वक चालीस वर्ष की अवस्था मे निर्वाण प्राप्त किया ! वन्दना १७० ] [ गणधर परिचय S Page #203 -------------------------------------------------------------------------- _