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________________ ससार सन्तप्त है. पीडित है, शोषित है तो मझे ऐश्वर्य मय जीवन जीने का क्या अधिकार है ? मैं जरा-मरण के वेग मे बहना नही चाहता, मै इस वेग को पार करूगा और ससार के लिये समता का वह सेतु तैयार करने का प्रयास करू गा जिमसे जनता भी इस भव-नद से सहज ही पार हो सके। ___ नन्दीवर्धन की आखे प्रेम-विह्वल हो उठीं। वे सोचने लगे-'वर्वमान मेरे अनन्तर इस ससार मे पाया है और वह मुझ से पहले इसे छोडना चाहता है, वय मे कम पर प्रज्ञा मे श्रेष्ठ है। सन्तप्त मनुजता की शान्ति के लिये कितना आतुर है इसका करुणा-पूर्ण हृदय ? क्या कहूं इसे ? वे चिन्ता मे डूब गए। .. वर्षमान ने फिर कहा- भैया | भोग साथ नहीं जाते, मातापिता इसे छोड गए है, यह राज्य-वैभव न जाने हमसे पूर्व कितनो के द्वारा छोडा जा चुका है ? परन्तु राज्य-वैभव हमे छोडे इसमे कोई आनन्द नही, अानन्द तो इसमे है कि हम पहले ही इसे छोड दे। आज्ञा दो भैया | मैं इसे सहज भाव से त्यागने के आनन्द से कही वचित न रह जाऊ।' नन्दीवर्धन 'हा' नही कह सके । वे इतना ही कह पाए 'वर्धमान । अभी ठहरो । दुनिया क्या कहेगी ? भाई ने भाई को घर से निकाल दिया, तुम्हे भी दुनिया कहेगी कि वह घर से भाग गया। महावीर मुस्कराए और बोले - 'भैया ! दुनिया का काम है कहना, वह कहती रहे । दुनिया को दीख रहा है कि मुझे पारिवारिक असन्तोष नही, राज-महल है, वैभव है, दास-दासिया हैं, सुन्दर पत्नी है। दूसरी ओर आप मुझे रोकना चाहते हैं, मै जाना चाहता ह, क्योकि मै असन्तुष्ट हूँ, अपनी स्थिति से । मैंने धन-वैभव इससे भी अधिक पाया है, अन्य सासारिक पदार्थ भी मुझे अनन्त वार प्राप्त हो चुके हैं, अतः मुझे ये प्रिय नही रहे । फिर मैं महलो मे रहता ही कब हू, मैं इटो और पत्थरो को महल नही मान सकता- ये तो ईट-पत्थर ही हैं, मुझे रहने के लिये महल ही तो नही मिल रहा, महल की खोज के लिये ही तो मुझे जाना है, आत्म-परितोष की खोज ही तो मुझे पुकार रही है। पञ्चकल्याणक
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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