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यह जन्म उनकी यात्रा का अन्तिम छोर था, उनकी साधना यात्रा का अन्तिम पड़ाव था, वे अव जीवन के अन्तिम शिखर पर पहनने की तैयारी करके निकले थे, अत 'मार्ग-शीर्ष मास ही दीक्षा-मास के रूप मे उपयुक्त रहा। · वे धर्म के दस अगों के समष्टि रूप की उपासना द्वारा जीवन के कृष्ण भाग से शुक्ल भाग की ओर जाने को प्रस्तुत हुए थे, अत. दीक्षादिवस के रूप मे उन्होंने कृष्ण पक्ष की दशमी का दिन ही चुना था। फिर दगमी को 'पूर्णा' तिथि कहा जाता है । वे 'पूर्ण-पुरुष' बनने ही तो जा रहे थे। अत: दीक्षा-काल मे 'पूर्णा' तिथि दशमी का होना अनिवार्य था। इस प्रकार मार्ग-शीर्ण कृष्णा दशमी के प्रभात मे ही अर्धमान नवीन आध्यात्मिक जीवन के लिये प्रस्तुत हो गए।
दीक्षा-दिवस (मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी) को ज्योतिप की भाषा मे 'सुव्रत' कहा जाता है। सुन्दर पांच महाव्रतो के पालन की दीक्षा के लिये सुव्रत दिन का चुनाव जहा मंगलकारी था वहां दीक्षा-समय का 'विजय' नामक मुहूर्त उनको अवश्यभावी विजय की सूचना दे रहा था।
क्षत्रिय कुण्डपुर में शोभा-यात्रा के मार्ग में स्थान-स्थान पर अनेकविध रंग-बिरगे मण्डप बने हुए थे। भगवान महावीर को दीक्षास्नान करवाने के लिये स्वर्ण, रजत और रत्न आदि के एक हजार आठ कला प्रस्तुत थे। इस दीक्षा-महोत्सव मे सम्मिलित होने के लिये सगे-सम्बन्धियो को भी सादर निमन्त्रित किया गया था। राजकुमार वर्धमान दीक्षा अगीकार कर रहे है, इस समाचार के सर्वत्र प्रसारित हो जाने के कारण दीमा-महोत्सव को देखने के लिये दूर-दूर से जनता भीवहा पहुच गई थी। अनेको राज्यो के राजा महाराजा तथा छोटे-बड़े सरदार भी पर्याप्त संख्या मे दीक्षा-महोत्सव देखने आए थे। दीक्षामहोत्सव भी साधारण दीक्षा-महोत्सव नही था चौवीसवें तीर्थङ्कर भगवान महावीर स्वय दीक्षित हो रहे थे। परिणाम स्वरूप मार्गशीर्ष कृष्णा दगमी के शुभ दिन क्षत्रिय-कुण्डपुर मे चारों ओर से जन-समूह का उमड पडना स्वाभाविक ही था।
[जन्म-कल्याणक