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________________ तुम ग्रात्मोत्थान और विश्व मंगल की भावना को साकार करने के लिये स्वतन्त्र हो । विराट की ओर प्रस्थान वडे भाई से महाभिनिष्क्रमण की ग्राज्ञा मिलते ही महावीर प्रस्थान के लिये प्रस्तुत हो गए। न तो छोडने का दुख था, न आज्ञा प्राप्त हो जाने का सुख, उन्होने समभाव से साधु जीवन में प्रवेश के लिये घर से विदाई ली । वे किसी गुरु की शरण में नही गए, क्योंकि वे ज्ञान लेना नहीं चाहते थे । वे तो केवल ग्रात्मा मे छिपे अनन्तज्ञान के स्रोत को खोलना चाहते थे। ग्रात्मानन्द अन्तर की वस्तु है, उसके लिये जिस बाह्य प्रक्रिया की आवश्यकता होती है उस प्रक्रिया को वे पूर्ण करके ही जन्मे थे, गुरु की ग्रावश्यकता बाह्य प्रकियाओं के लिये होती है । सत्य के फूल आत्मा की भूमि पर खिलते हैं, महावीर उन्ही फूलो की खोज के लिये निकले थे, गुरु की खोज के लिये नही । उन्होने समर्पित कर दिया था अपने आपको समष्टि के लिये, अतः किसी और गुरु के चरणो में समपर्ण के लिये उनके पास कुछ बचा ही नही था । वे जानते थे कि मैं जिस विराट् तत्त्व की खोज करने के लिये जा रहा हू, वह मेरे अन्दर ही है बाहर नही, प्रत . वे चले अन्तर्मुख होकर — उनका विश्वास थाउद्धरेदात्मनात्मान - अपनी आत्मा का आप ही उद्धार करो। वे अपना उद्धार करने के लिये स्वय ही प्रयत्नशील हुए, परन्तु उनका अपनत्व इतना विशाल, इतना महान और इतना असीम था कि उसमे सब समा गए थे, इसी विशाल अपनत्व ने उन्हे 'अहिंसा' का महा तत्त्व प्रदान किया - दुख और हर्ष का मिलन 'मार्गशीर्ष मास था, कृष्ण पक्ष था, जिस दिन वर्धमान महावीर दीक्षा - पथ पर चलने को प्रस्तुत हुए थे । 'मार्गशीर्ष' का अर्थ है- 'मार्ग का अन्तिम छोर यात्रा का अन्तिम पडाव, आखिरी शिखर । महावीर अपने २६ पूर्व-जन्मो के रूप मे विशाल - जीवन यात्रा करते आ रहे थे । पञ्चकल्याशक ] [ ३७
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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