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नारी जाति की जागृति
शूद्रो के उद्धार के पश्चात् श्राप ने नारी कल्याण के लिये प्रान्दोलन आरम्भ किया। आप ने कहा नारी पुरुष से किसी भी तरह कम नही दोनो का अपना-अपना क्षेत्र अलग है । दोनो को अपने-अपने क्षेत्र मे स्वतन्त्र रह कर विकास करने का पूरा पूरा अधिकार है । स्वतन्त्रता का प्रर्थ स्वच्छन्दता या उद्दण्डता नही है । स्वतन्त्र जीवन के भी कुछ नियम, व्रत तथा मर्यादाए होती हैं । उसी परिधि मे रह कर वह स्व तथा पर के हित की दृष्टि से अपनी मानवीय शक्तियो का विकास होना चाहिए । इस तरह वह पुरुष के लिये बाधक नही बल्कि पूरक बनती है । गृहस्थ जीवन की गाडी के दो पहिये नारी और पुरुष हैं । गृहस्थ जीवन में दोनो के सन्मान और सहयोग की ग्रावश्यकता है। नारी को हीन रखने से पुरुष अपने जीवन के एक ग्रग का तिरस्कार व उपेक्षा करके अपने को हो दुर्बल बनाता है । प्रकृति ने नारी और पुरुष को अलग अलग शक्तियो मे सम्पन्न किया है । सव कुछ सब के पास नही है । वह एक दूसरे के प्रादान-प्रदान से पूरा होता है । इसके लिये दोनो के हृदय में दोनो के लिये श्रादर, स्नेह सहयोग तथा सहानुभूति होनी चाहिये और इम से भी अधिक आवश्यकता इस वात की है कि ग्रपने जीवन के सुख तथा निर्माण मे दूसरे के महत्त्व को अच्छी तरह पहचाना जाये । अपने जीवन मे दूसरे का महत्त्व ममझ मे आ जाने पर कोई भी किसी का निरादर नही कर सकता |
प्रेम मे व्यक्ति एक दूसरे के अधिकारो का शोषण नहीं करता, बल्कि अपने अधिकारो का भी दूसरे के हित मे उत्सर्ग कर देना है । प्रेम एक सुखद बन्धन है । प्रेम मे सभी स्वतन्त्र रह कर अपना विकास कर सकते है। भगवान महावीर ने अहिंसात्मक तरीके से पुरुष के मन मे नारी के प्रति विशुद्ध प्रेम जागृत कर के उसे पुरुष की दासता से कर दिया ।
मुक्त
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भगवान महावीर ने एक साध्वी यघ की स्थापना की । नारी ने धडावर उस में प्रविष्ट होना शुरू किया । शीघ्र ही साव्वो सब की सख्या ३६ हजार तक पहुच गई। इस से मालूम होता है कि उस समय की नारी सामाजिक यन्त्रणाओं से संपीडित हा चुकी थी । दुखी व्यक्ति
पञ्चकल्याणक |
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