________________
सन्निवेश (नगर) मे पधारे। --वहां पर सन्यासियो का एक प्राश्रम-था। आश्रम के कुलपति भगवान के पिता महाराजा सिद्धार्थ के मित्र थे, अत: उन्होने भगवान महावीर को देखते ही पहचान लिया, लेने के लिए आगे आए, स्वागत किया, कुलपति की प्रार्थना पर भगवान एक रात्रि के लिए वहा पर ठहर गए। - -
दूसरे दिन जब वहा से प्रस्थान करने लगे तो कुलपति ने अपने आश्रम मे ही वर्षावास (चातुर्मास) व्यतीत करने की विनति की। इस विनति को स्वीकार करते हुए भगवान कुछ समय के लिये प्रास-पास के गावो मे भ्रमण करके, पुन. उसी आश्रम मे पधार गए और एक पर्णकुटीर (घास की कुटिया) मे रहने लगे। इस बार वर्षावास मे वर्षा इतनी अधिक हुई कि पशुयो को घास मिलनी भी कठिन हो गई। परिणाम-स्वरूप भूखे पशु सन्यासियो के पर्णकुटीरो की घास खाने लगे। अन्य सभी सन्यासियो ने तो अपनी-अपनी कुटिया के सरक्षणार्थ घास खाने से पशुशो को हटा दिया, परन्तु भगवान महावीर सहजभाव से अपने आत्मध्यान मे ही लगे रहे। उन्होने किसी पशु को वहा से नही हटाया। पशुओ द्वारा पर्णकुटीर का नुकसान होता देखकर आश्रम के कुलपति ने भगवान से कहा-"क्षत्रिय होकर भी एक कुटिया की रक्षा नहीं कर पा रहे"?
कुलपति का यह खेदपूर्ण उपालभ सुनकर भगवान महावीर मन ही मन विचार करने लगे-"जब महलो की ममता नही रक्खो तव इस पर्णकुटीर पर ममता रखने का क्या मतलब ?" यदि ममता के पथ पर ही चलना होता तो घर-बार छोड़ने की क्या आवश्यकता थी ? यह ममता तो अात्मचिन्तन मे वाधक है, विष और अमृत तथा अन्वकार और प्रकाश का मेल कैसा ? दूसरी बात, पशु भूखे हैं अपने स्वार्थ के लिये मैं इन के भोजन मे वाधक बनू , यह मेरे लिए असह्य है। इसलिये भगवान ने कुलपति की बात पर ध्यान नहीं दिया। तथापि भगवान कुलपति के मानस को भी व्यथित नही करना चाहते थे, इसलिये उन्होने वहा पर रहना ही उचित नहीं समझा और उन्होने चातुर्मास मे ही विहार कर दिया। ऐसी स्थिति मे विहार का होना स्वाभाविक था, क्योकि ममता को बेड़ियो को तोडकर "वसुव' पञ्च-कल्याणक]
[५१