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________________ मेवक पाप की सेवा में रहे और पापको मानवी, देवी या पाशविक कोई भी कष्ट न होने दे। इन्द्र की यह प्रार्थना सुनकर प्रभु महावीर ने सहज भाव से कहा-"इन्द्र कर्मों का भोग चक्रवर्ती एव वासुदेव सत्र को भोगना पडता है। जिन्हे आप उपसर्ग कप्ट या वेदना कहते है, मैं उन्हे पूर्वसचित कर्मो के परिमार्जक मानता हू। अत यहा खिन्नता का क्या मतलब? इन स्थितियो मे भी मेरे मन सन्तोष में किश्चित् भी अन्तर नही पा सकता। रही तुम्हारी मेरे पास रहने की बात, यह तुम्हारी भक्ति है, परन्तु देवेन्द्र | साधना के कदम किसी अन्य के पावो मे नही नापे जाया करते, वे तो अपने ही पांवो से नापे जाते हैं। सच्ची साधना को किसी के साहाय्य की अपेक्षा नहीं होती। सहायता और साधना का ३६ के अक जैसा विरोध है । वह सावना ही क्या है जो अपनी रक्षा स्वय न कर सके, अत मुझे तुम्हारी किसी सहायता को आवश्यकता नहीं है।' पांच दिव्यो की वर्षा : कूर्मारग्राम में रात्रि व्यतीत करने के अनन्तर भगवान महावीर ने वहा से विहार कर दिया और वे कोल्लाग नामक नगर मे पहुचे । वहा पर भगवान ने एक ब्राह्मण के घर खीर से पष्ठ भक्ततप (वेले) का पारणा किया। खीर-दान के अवसर पर "अहोदानमहोदानम् (आश्चर्यकारक दान") के दिव्यघोप के साथ देवतायो ने आकाश से पांच दिव्यो की वर्षा करके दान की महिमा के गीत गाए। वे पाच दिव्य . हैं - वस्त्रो की वर्षा की, सुगन्धित जल से पृथ्वी का सिंचन किया, पुप्पो की वृष्टि की, देवदुन्दुभि वजाई और माढे बारह करोड स्वर्ण मुद्रामो की वर्षा करके भूमि को स्वर्णिम बना दिया। पांच प्रतिज्ञाओं की आराधना : - कोल्लाग-सन्निवेश से विहार करके भगवान महावीर मोराक "नापेक्षा चक्रिरेऽहंन्त परसाहायिक क्वचित्, केवल केवलज्ञान प्राप्नुवन्ति स्ववीयंत । "स्ववीर्येणैव गच्छन्ति, जिनेन्द्रा परमं पदम् ।" --त्रिपप्टिशलाका पुरुष ५० ['दीक्षा-कल्याणक
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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