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भांति निश्चल होकर, वे दंग - परीपह-जन्य भयंकर वेदनाओ को समना के साथ सहन करते रहे ।
इन्द्र को श्रभ्यर्थना
भगवान महावीर कुर्मारग्राम के वाहिर व्यान मे खडे थे कि अचानक एक ग्वाला वहा आया और प्रभु के पास अपने पशुओ को चरने के लिये छोड़ कर स्वयं अपने घर चला गया । अपने स्वभाव के कारण पशु चरते-चरते वहा से दूर चले गए। गृह-कार्यों से निवृत्त होकर ग्वाला जब वापिस आया तो पशुओं को न देख कर उसने भगवान से पूछा । भगवान तो व्यानावस्थित थे, अत वे मौन ही रहे । ग्वाला पशुग्रो को ढूढने चला गया । समय की बात समझिए कि जिस दिशा मे पशु गए थे वह उस दिशा मे न जाकर किसी दूसरी दिशा में जा पहुचा, फलतः सारी रात पाव घिसाने पर भी उसे पशु नही मिले। इधर पशु चरते-चरते पुन भगवान के पास ग्रा गए और वही बैठ गए । ग्वाले ने आकर जब वहां बैठे पशु देखे तो वह आग बबूला हो गया, क्रोध मे तमतमाने लगा और ग्रावेश मे भर कर वोला - "रात भर पशुओ को छिपाए रक्खा । अब इन को ले जाना चाहता है ? तेरी इस घूर्तता का अभी तुझे मजा चखाता हूँ ।" यह कहकर वह हाथ में पकड़ी रस्सी से ही प्रभु पर प्रहार करने लगा। इधर देवराज शक्रेन्द्र महाराज ने अवविज्ञान से भगवान पर प्रहार कर रहे ग्वाले को देखा तो वे निमेषार्थ में ही वहा पहुच गए और देवी प्रभाव से ग्वाले के हाथ वही उठे रह गये । उस ग्वाले को इन्द्र महाराज ने भगवान महावीर के विलक्षण त्यागी जीवन का जव परिचय दिया तब वह वहुत लज्जित हुआ । उसने अपने अपराध के लिये प्रभु से क्षमायाचना की ।
ग्वाले द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार से शक्रेन्द्र महाराज का मन बडा खेदखिन्न हो रहा था, इसीलिये उन्होने महामना भगवान महावीर से विनीत प्रार्थना करते हुए कहा - "भगवन् | आपका सावनाकाल मुझे तूफानो सकटो से घिरा हुआ दिखाई दे रहा है । अज्ञानी जीव आपको यातनाएं पहुचाएंगे। मेरे आराध्य देव पामर जीवो से अपमानित हो यह मेरे लिये ग्रसह्य है, अतः आप आज्ञा दे कि यह चरण
पञ्चकल्याणक }
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