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कुटुम्बकम्" के मङ्गललय महामन्त्र का पाठ करनेवाला एक अहिमाव्रतधारी अपने कारण किसी को परिपीडित या परिव्यथित नहीं कर सकता । अव उन्होने पाच प्रतिमाए धारण करली-१. जिस स्थान पर रहने से अप्रीति पैदा हो वहा पर नहीं रहूंगा।२ यथाशक्य अधिक समय प्रतिमा ध्यान मे ही व्यतीत करू गा।३ मौन रम्व गा, अर्थात् जहा बोलना आवश्यक न हो वहा किसी मे बोलूगा नहीं। ४. किमी अन्य पात्र का प्रयोग न करके अपने हाथो मे ही भोजन करूगा। ५ गृहस्यो को कभी खुशामद नही करू गा।' पांवो मे चक्रवर्ती के चिन्ह
पुष्प नाम के एक मामुद्रिक शास्त्री थे जो सामुद्रिक शास्त्र के बड़े अच्छे ज्ञाता थे। वे एक वार गङ्गा नदी के किनारे-किनारे जा रहे थे। वहा से अभी-अभी भगवान महावीर गए थे, अत रेत मे प्रभु की पादपक्तियो द्वारा चक्र, ध्वज और अकुश आदि के चिन्ह पड़ गए थे। इन पद-चिन्हों को देखते ही सामुद्रिक शास्त्री वडे विस्मित हुए और विचार करने लगे कि यहा से अवश्य ही अभी कोई चक्रवर्ती नगे पाव गुजरा है। अपनी आर्थिक स्थिति को ऊंचा उठाने की दृष्टि से उन्होने सोचा कि 'चक्रवर्ती के दर्शन करने चाहिए । उनकी सेवा करके अपने सोए भाग्य को जगाना चाहिए।" यह सोच कर वे शीघ्र ही चले और पदचिन्हो का अनुगमन करते हुए भगवान महावीर के पास जा पहुंचे। महावीर ध्यानावस्थित थे, पद-चिन्ह वाले व्यक्ति को शिरोमण्डित एक सन्त के रूप में देख कर वे आश्चर्यचकित रह गए। ' सामुद्रिक-शास्त्र के अनुसार ये पद-चिन्ह चक्रवर्ती के होने चाहिए, परन्तु यह तो एक भिक्षाजीवी साधु है। जो स्वय भिक्षा माग कर जीवन का निर्वाह करता है, वह मुझे क्या दे सकता है ? क्या सामुद्रिक शास्त्र झूठा ही है? मैं आज तक इस शास्त्र को व्यर्थ ही सत्य मानता रहा, यह तो विल्कुल असत्य है । ऐमे झूठे शास्त्र को तो नदी मे ही प्रवाहित १. (क) इमेण तेण पच अभिन्गहा गहिया... , .. -आव० मलय० (ख) नाप्रीतिमद्गृहे वास., स्थय प्रतिमया मदा। न गेहि विनय कार्यों, मोन पाणी च भोजनम् ॥
-कल्पसून-मुवोधिकाटीका ५२
[ दीक्षा-कल्याणक