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________________ प्रकान्त का विराट् सिद्धान्त : अव उन्होने एक और ब्रह्मास्त्र उठाया जिस का नाम था अनेकान्तवाद । भगवान के समय मे चारो तरफ मतो का एक जाल बिछा हुआ था । कहते है कि एक वर्ष मे जितने दिन होते हैं उतने ही मत उस समय प्रचलित थे । सब मत अपने आप को एकान्त सत्यं और दूसरो को एकान्त मिथ्या कह रहे थे । भगवान महावीर जानते थे कि मर्तों मे परस्पर सौहार्द स्थापित किये विना हिंसा जीवित नही रह सकती, क्योकि कभी-कभी सम्प्रदाय के नाम पर भी भयकर रक्तपात हो जाते है । मतो का परस्पर विरोध भी हिंसा का बहुत बडा कारण है । भगवान महावीर अनेकान्त के ब्रह्मास्त्र से इसे समाप्त कर देना चाहते थे । उस समय जितने मत थे उतने ही वाद थे । वादो के वीच अनेकान्तवाद, वादो की अभिवृद्धि करने के लिये नही था बल्कि वह सब वादो को समाप्त कर प्रत्येक मत मे सत्य की सृष्टि करने के लिये उत्पन्नं किया गया था । महावीर ने कहा- सत्य एक ही है और वह ग्रनन्त धर्मात्मक है । उसके पूर्ण स्वरूप को समझने के लिये उसे अनेक दृष्टिबिन्दुनो से देखने की अपेक्षा रहती है । सव दृष्टि - विन्दुओ का समन्वय करने पर सत्य का वास्तविक रूप स्थिर हो जाता है । इस सिद्धान्त को अपेक्षावाद तथा स्याद्वाद भी कहते है । प्रत्येक मत को सत्य के प्रति एक दृष्टि है जो अनन्त सत्य के एक पहलू को ही देखती है । उस के दूसरे पहलू को कोई दूसरा मत देखता है । इसलिये सत्य को शोध करने के लिये सब मतो के समन्वय करने की आवश्यकता है । कभी कभी अपना मत असत् भी होता है और दूसरे का सत् होता है । इसलिये अपने मत का मिथ्याग्रह और दूसरे के मत के प्रति अनादरभाव नही होना चाहिये । सत्य के साधक को अपने मत के सत्याग मे दूसरे मत के सत्याग को जोडने के लिये तैयार रहना चाहिये श्रौर अपने मिथ्याश को छोडने और दूसरे के सत्याश को ग्रहण करने के लिये भी सदैव तत्पर रहना चाहिये । इस प्रकार भगवान महावीर केवल ज्ञान के बाद लगभग ३० वर्ष तक अपने स्वर्णिम सिद्धान्तो का प्रचार करते रहे । वे इस पञ्च-कल्याणक ] [ १०३
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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