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________________ प्रवसर्पिणी काल के चरम तीर्थङ्कर थे । उन्होने लोक मानस मे सत्य सनातन धर्म की पुन प्रतिष्ठा की। भारत के वीरान बगीचे मे एक बार फिर वसन्त का शुभागमन हुन्छ । धरातल पर प्रम, स्नेह और करुणा का सागर लहराने लगा, नैतिकता उभरी, सभ्यता जागी, मानव संस्कृति का नवोन्मेष हुआ । भूतल पर स्वर्ग उतर ग्राया । देवता मानव के सात्त्विक जगत को अनिमेप देखने लगे । मानव को दास बना कर रखने वाले देवता मानव की चरण-वन्दना करने लगे । भगवान महावीर की चरण-धूलि से वसुन्धरा पावन हुई । उन की मकल्प लहरियों से तीनो लोक पवित्र हुए। आप ने अपने तीर्थङ्कर जीवन का उच्चतम लक्ष्य पूर्ण किया । प्रचार-यात्रा राजगृह की ओर : व भगवान महावीर अपने साधु-समुदाय के साथ विहार करते हुए 'राजगृह' के गुणशील चैत्य मे जाकर ठहरे । ४४११ श्रमणो के साथ उनके ग्रागमन का समाचार पाते ही राजगृह नरेश श्रेणिक उनकी छोटी रानी चेलना, अभय कुमार आदि राजकुमार और नागरथिक आदि श्रावक समुदाय एव सुलसा आदि श्राविकाए उपदेश श्रवण के लिये प्रभु चरणो मे या पहुचे। यहां पर भगवान महावीर ने एक महती धर्म-सभा (समवसरण) मे जीव के लिये परम दुर्लभ मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, सम्यक् श्रद्धा और समय-मार्ग मे प्रवृत्ति आदि विषयो पर जो प्रवचन दिये, उनसे जन-मानस उनका अनुयायी बन कर उन्ही का हो गया । मुनि-धर्म और गृहस्थ धर्म के सम्बन्ध में उनसे मार्ग-दर्शन पाकर अनेको भव्य प्राणियो ने उनके उपदेशानुरूप अपने जीवन-पथ पर प्रगति करनी प्रारम्भ कर दी । · विदेह-वास : श्रमण भगवान महावीर प्रव विशाल साधु-सघ के साथ विहार करते हुए 'ब्राह्मण कुण्ड पुर' पहुचे और उन्होने 'बहुशाल' नामक १०८ ] [ केवल-ज्ञान-कल्याणक
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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